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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान

 29-May-2024

मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य

कोई मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन जाँच का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध को संज्ञान में लिया है

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले में कहा कि कोई मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन जाँच का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध को संज्ञान में लिया है।

मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, ट्रायल कोर्ट ने शिकायत, दस्तावेज़ों और अपीलकर्त्ता के विद्वान अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत प्रस्तुतियों की जाँच के उपरांत, CrPC की धारा 156 (3) के अधीन जाँच का निर्देश देकर अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग किया।
  • इसके बाद प्रतिवादी (अभियुक्त) ने इससे व्यथित होकर हैदराबाद स्थित तेलंगाना राज्य के उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक याचिका दायर की थी।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को खारिज कर दिया और कहा कि यह बिना किसी उचित कारण के दिया गया है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता द्वारा तेलंगाना राज्य के हैदराबाद स्थित उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की गई है।
  • अपील को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने पुलिस जाँच के निर्देश देने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि कोई मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन जाँच का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध को संज्ञान में लिया है। यह केवल तभी संभव है जब मजिस्ट्रेट अपने विवेक का प्रयोग करते हुए धारा 200 का सहारा लेकर CrPC के अध्याय XV के अधीन प्रक्रिया का पालन करता है, तभी यह कहा जा सकता है कि उसने अपराध का संज्ञान लिया है।

इसमें शामिल विधिक प्रावधान क्या हैं?

CrPC की धारा 156(3)

परिचय:

  • CrPC की धारा 156(3) में कहा गया है कि एक मजिस्ट्रेट जिसे संहिता की धारा 190 के अधीन संज्ञान लेने का अधिकार है, वह संज्ञेय अपराध के लिये जाँच का आदेश दे सकता है।
  • CrPC की धारा 156(3) के अधीन एक आवेदन में संज्ञेय अपराध का प्रकटन होता है, तो संबंधित मजिस्ट्रेट का यह कर्त्तव्य है कि वह FIR दर्ज करने का निर्देश दे, जिसकी जाँच विधि के अनुसार जाँच एजेंसी द्वारा की जानी है।
  • यदि प्राप्त सूचना से स्पष्टतः संज्ञेय अपराध का प्रकटन नहीं होता है, किंतु जाँच की आवश्यकता का संकेत मिलता है, तो यह पता लगाने के लिये प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का प्रकटन हुआ है या नहीं।
  • कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेने से पहले CrPC की धारा 156(3) के अधीन जाँच का आदेश दे सकता है।

आवश्यक तत्त्व:

  • धारा 156 (3) के अधीन पुलिस जाँच का आदेश देने की शक्ति अपराध के पूर्व-संज्ञान में प्रयोग योग्य है।
  • धारा 156 (3) के अधीन शक्ति का प्रयोग मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने से पहले किया जा सकता है।
  • धारा 156 की उपधारा (3) के अंतर्गत किया गया आदेश पुलिस को जाँच की अपनी पूर्ण शक्तियों का प्रयोग करने के लिये एक अनिवार्य चेतावनी अथवा सूचना की प्रकृति का होता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • हर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 156(3) CrPC के अधीन आवेदन संज्ञेय अपराध का प्रकटन करता है तथा धारा 156(3) CrPC के चरण में, जो संज्ञेय चरण है, एक बार जब आवेदन के माध्यम से संज्ञेय अपराध का प्रकटन हो जाता है, तो संबंधित न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह अपराध के पंजीकरण तथा जाँच के लिये आदेश दे, क्योंकि अपराध का पता लगाना और अपराध की रोकथाम पुलिस का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है, न कि न्यायालय का।
  • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि प्राप्त सूचना से संज्ञेय अपराध का प्रकटन नहीं होता है, परंतु जाँच की आवश्यकता का संकेत मिलता है, तो प्रारंभिक जाँच केवल यह पता लगाने के लिये की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का प्रकटन हुआ है अथवा नहीं।
  • प्रियंका श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2015) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि इस देश में ऐसी स्थिति आ गई है जहाँ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के आवेदनों को आवेदक द्वारा विधिवत शपथ-पत्र द्वारा प्रस्तुत करना पड़ेगा यदि वह मजिस्ट्रेट के न्यायिक अधिकार क्षेत्र का आह्वान करना चाहता है।

CrPC की धारा 200:

परिचय:

  • CrPC की धारा 200 शिकायतकर्त्ता की जाँच से संबंधित है।

विधिक प्रावधान:

  • शिकायत पर अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट, शिकायतकर्त्ता और उपस्थित गवाह की शपथ पर जाँच करेगा तथा ऐसी जाँच का सार लिखित रूप में रखा जाएगा एवं उस पर शिकायतकर्त्ता, गवाहों व मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षर किये जाएंगे।
  • परंतु जब शिकायत लिखित रूप में की जाती है तो मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्त्ता और गवाहों की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है-
    (a) यदि किसी लोक सेवक ने अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करते हुए अथवा कार्य करने के उद्देश्य में किसी न्यायालय में शिकयत की है; या
    (b) यदि मजिस्ट्रेट धारा 192 के अंतर्गत जाँच या परीक्षण के लिये मामला किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप देता है।

आपराधिक कानून

पॉलीग्राफ टेस्ट

 29-May-2024

जसबीर सिंह (मृत) बनाम CBI 

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने पॉलीग्राफ परीक्षण की वैधता को खारिज कर दिया और CBI पर एक प्रमुख गवाह पर दबाव डालने का आरोप लगाया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2002 के हत्या मामले में राम रहीम सिंह को दोषमुक्त कर दिया गया”।

न्यायमूर्ति सुरेश्वर ठाकुर और न्यायमूर्ति ललित बत्रा

स्रोत:  पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह और चार अन्य को वर्ष 2002 के रणजीत सिंह हत्याकांड में दोषमुक्त किये जाने से विवाद उत्पन्न हो गया है। न्यायालय ने कहा कि पॉलीग्राफ टेस्ट कराने से पहले आरोपियों की सहमति ली गई थी।

जसबीर सिंह (मृत) बनाम CBI मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 10 जुलाई 2002 को रणजीत सिंह की चार लोगों ने खेतों में गोली मारकर हत्या कर दी थी। उनके पिता जोगिंदर सिंह को पूर्व विवादों के कारण राम कुमार सरपंच और राज सिंह पर शक था।
  • जोगिंदर सिंह के बयान के आधार पर राम कुमार सरपंच, राज सिंह और चार अन्य के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 120-B, 302, 34 के अधीन FIR दर्ज की गई।
  • बाद में जोगिंदर सिंह ने यौन शोषण से संबंधित एक गुमनाम-पत्र से संबंधित संदेह का हवाला देते हुए डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों को इसमें फँसाया।
  • 08.2002 को जोगिंदर सिंह ने जसबीर सिंह और बाबा गुरमीत सिंह के कांस्टेबल तथा गनर सबदिल सिंह को हत्या में शामिल किया।
  • 11.2002 को मामला CID ​​क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया। 02.12.2002 को जसबीर सिंह और सबदिल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया।
  • CID ​​अपराध शाखा ने 17.02.2003 को जसबीर सिंह और सबदिल सिंह के विरुद्ध आरोप-पत्र तथा एक पूरक आरोप-पत्र दायर किया।
  • स्थानीय पुलिस की जाँच से असंतुष्ट होकर जोगिंदर सिंह ने CBI जाँच के लिये याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने 10.11.2003 को मामला CBI को हस्तांतरित कर दिया और जाँच प्रारंभ कर दी।
  • कथित घटना से संबंधित तीन आरोपियों का पॉलीग्राफ टेस्ट कराया गया।
  • उच्च न्यायालय ने डेरा प्रमुख और चार अन्य आरोपियों को उनकी अपीलों को स्वीकारते हुए दोषमुक्त कर दिया तथा पिछले निर्णय को पलट दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ  क्या थीं?

  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह और चार अन्य को दोषमुक्त कर दिया, जिन्हें वर्ष 2002 के रंजीत सिंह हत्या मामले में CBI न्यायालय ने आजीवन कारावास का दण्ड दिया था।
  • खंडपीठ ने पाया कि CBI, जिसने नवंबर 2023 में जाँच का ज़िम्मा संभाला था, अपराध का उद्देश्य स्थापित करने में विफल रही तथा अभियोजन पक्ष का मामला "संदेह से घिरा हुआ" था।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामला, न्यायालयों द्वारा अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्यों का तीक्ष्ण एवं वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करने की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, न कि उक्त वस्तुनिष्ठ विश्लेषण को अपराध की घटना के संबंध में अभियुक्त की कथित दोषपूर्ण भूमिका के विषय में मीडिया ट्रायल के माध्यम से निरर्थक बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये।
  • एक कथित घटना से संबंधित तीन आरोपियों पर पॉलीग्राफ टेस्ट किया गया। न्यायालय ने कहा कि इस परीक्षण के परिणामों से पता चलता है कि संबंधित प्रश्नों के कुछ भ्रामक उत्तर दिये गए थे।
    • इसमें आगे कहा गया कि ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है कि पॉलीग्राफ परीक्षण करने से पहले आरोपी व्यक्तियों की सहमति ली गई थी।

पॉलीग्राफ टेस्ट क्या है?

  • पॉलीग्राफ या झूठ डिटेक्टर टेस्ट एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें रक्तचाप, नाड़ी, श्वसन और त्वचा चालकता जैसे कई शारीरिक संकेतकों को मापा तथा रिकॉर्ड किया जाता है, जबकि टेस्ट कराने वाले व्यक्ति से कई प्रश्न पूछे जाते हैं एवं वह उनका उत्तर देता है।
  • यह परीक्षण इस धारणा पर आधारित है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएँ, सामान्यतः होने वाली प्रतिक्रियाओं से भिन्न होती हैं।
  • प्रत्येक उत्तर को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि व्यक्ति सच बोल रहा है, धोखा दे रहा है, या अनिश्चित है।
  • पॉलीग्राफ जैसा परीक्षण पहली बार 19वीं शताब्दी में इतालवी अपराध विज्ञानी सेसारे लोम्ब्रोसो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान संदिग्ध आपराधिक व्यक्तियों के रक्तचाप में परिवर्तन को मापने के लिये एक मशीन का उपयोग किया था।

पॉलीग्राफ टेस्ट की विधिक स्वीकार्यता क्या है?

  • पॉलीग्राफी परीक्षण, नार्को-विश्लेषण एवं ब्रेन-मैपिंग जैसी अन्य विधियों के साथ, पुलिस द्वारा की जाने वाली शारीरिक हिंसा से बचते हुए जाँच को सुविधाजनक बनाने के लिये उपयोग किया जाता है।
  • ये विधियाँ मुख्य रूप से अभियुक्त से सूचना प्राप्त करने तथा संभावित रूप से उन्हें दोषी ठहराने के लिये प्रयोग की जाती हैं।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21(3) के अनुसार, किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता, जिससे पॉलीग्राफी परीक्षण के परिणाम न्यायालय में साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य हो जाते हैं।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता अधिकारों की रक्षा करते हुए अनुच्छेद 21 के अनुसार पॉलीग्राफ परीक्षण आयोजित करने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं।
  • इन दिशा-निर्देशों से पूर्व, ये परीक्षण अक्सर बलपूर्वक किये जाते थे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करते थे। दिशा-निर्देशों के बावजूद भी, कुछ एजेंसियाँ NHRC की अनुशंसाओं का पूरी तरह से पालन नहीं करती हैं।
  • पॉलीग्राफी परीक्षण की सटीकता के विषय में प्रश्न उठते हैं, क्योंकि पूछताछ के दौरान भय या घबराहट के कारण परिणाम अविश्वसनीय हो सकते हैं।
  • इससे निर्दोष व्यक्तियों को गलत दण्ड मिलने का संकट उत्पन्न हो जाता है, जो ऐसे परीक्षणों में दबाव में आकर स्वयं पर गलत आरोप लगा सकते हैं।

पॉलीग्राफ टेस्ट के संबंध में NHRC द्वारा जारी दिशा-निर्देश क्या हैं?

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा संदिग्धों पर पॉलीग्राफ परीक्षण कराने के संबंध में जारी दिशा-निर्देश एक निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करते हैं, जिसमें अभियुक्तों के अधिकारों का सम्मान किया जाता है।
  • स्वैच्छिक सहमति: अभियुक्त को पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये स्वेच्छा से अपनी सहमति देनी होगी। उनके पास परीक्षण से मना करने का विकल्प होना चाहिये।
  • सूचित सहमति: परीक्षण के लिये सहमति देने से पहले, आरोपी को इसके उद्देश्य, प्रक्रिया एवं विधिकनिहितार्थों के विषय में पूरी सूचना होनी चाहिये। यह सूचना पुलिस तथा आरोपी के अधिवक्ता द्वारा प्रदान की जानी चाहिये।
  • अभिलिखित सहमति: पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये अभियुक्त की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अभिलिखित की जानी चाहिये।
  • दस्तावेज़: न्यायालय की कार्यवाही के समय, पुलिस को यह प्रदर्शित करने के लिये साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे कि आरोपी पॉलीग्राफ टेस्ट कराने के लिये सहमत था। यह दस्तावेज़ अधिवक्ता द्वारा न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
  • बयानों का स्पष्टीकरण: अभियुक्त को यह समझना चाहिये कि पॉलीग्राफ परीक्षण के समय दिये गए बयानों को पुलिस को दिये गए बयान माना जाता है, न कि स्वीकारोक्ति।
  • न्यायिक विचार: पॉलीग्राफ परीक्षण के परिणामों पर विचार करते समय, न्यायाधीश अभियुक्त की अभिरक्षा की अवधि एवं पूछताछ जैसे कारकों पर विचार करता है।

पॉलीग्राफ टेस्ट से संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामला 2010:
    • उच्चतम न्यायालय ने नार्को परीक्षणों की वैधता और स्वीकार्यता पर निर्णय देते हुए कहा कि नार्को या झूठ डिटेक्टर परीक्षणों का अनैच्छिक रूप से किया जाना उस व्यक्ति की "मानसिक गोपनीयता" में घुसपैठ है।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नार्को परीक्षण संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अधीन आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाह बनने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
      • आत्म-दोष एक विधिक सिद्धांत है जिसके अधीन किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक मामले में स्वयं के विरुद्ध सूचना देने अथवा गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
  • डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला, 1997:
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनैच्छिक रूप से पॉलीग्राफ एवं नार्को परीक्षण कराना, अनुच्छेद 21 या जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय तथा अपमानजनक व्यवहार माना जाएगा।
  • उच्चतम न्यायालय की अन्य टिप्पणियाँ:
    • नार्को परीक्षण साक्ष्य के रूप में विश्वसनीय या निर्णायक नहीं हैं, क्योंकि वे मान्यताओं और संभावनाओं पर आधारित होते हैं।
    • साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत, स्वैच्छिक रूप से किये गए परीक्षण के परिणामों की सहायता से बाद में प्राप्त कोई भी सूचना या सामग्री स्वीकार की जा सकती है।
      • IEA की धारा 27 इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी सूचना को सिद्ध किया जा सकता है।
      • इसमें कहा गया है कि जब किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति से, जो पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में है, प्राप्त सूचना के आधार पर कोई तथ्य खोजा जाता है, तो ऐसे तथ्य में से उतनी सूचना, चाहे वह स्वीकारोक्ति हो या न हो, जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो, सिद्ध की जा सकेगी।
    • न्यायालय ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित ‘अभियुक्त पर पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये दिशा-निर्देशों’ का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये।

सिविल कानून

किरायेदार से अंतःकालीन लाभ

 29-May-2024

बिजय कुमार मनीष कुमार संयुक्त HUF(संयुक्त हिंदू परिवार) बनाम अश्विन भानुलाल देसाई

"अपीलीय न्यायालय के पास किरायेदार को उचित राशि, आवश्यक नहीं कि संविदागत किराया, का भुगतान अंतःकालीन लाभ के रूप में करने का निर्देश देने का अधिकार है”।

न्यायमूर्ति जे. के. माहेश्वरी एवं संजय करोल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति जे. के. माहेश्वरी एवं न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने दोहराया कि अपीलीय न्यायालय के पास बेदखली के आदेश के क्रियान्वयन पर स्थगन देते समय किरायेदार को अंतःकालीन लाभ के रूप में उचित राशि (आवश्यक नहीं कि संविदागत किराया) का भुगतान करने का निर्देश देने का अधिकार है।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी बिजय कुमार मनीष कुमार HUF (संयुक्त हिंदू परिवार) बनाम अश्विन भानुलाल देसाई के मामले में दी।

बिजय कुमार मनीष कुमार HUF (संयुक्त हिंदू परिवार) बनाम अश्विन भानुलाल देसाई मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला कोलकाता के डलहौजी क्षेत्र में स्थित संपत्तियों में याचिकाकर्त्ता-मकान मालिक एवं प्रतिवादी-किरायेदार के मध्य चार अलग-अलग किरायेदारी से जुड़ा है।
  • वर्ष 1991-1992 के मध्य पट्टे का करार किया गया था तथा प्रतिवादी-किरायेदार ने कथित तौर पर वर्ष 2002 से किराये के भुगतान एवं वर्ष 1996 से नगरपालिका करों का भुगतान नहीं किया है।
  • याचिकाकर्त्ता- मकान मालिक ने आरोप लगाया कि किराये का भुगतान न करने के कारण पट्टा ज़ब्त कर लिया गया था, तथा संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अधीन बेदखली की कार्यवाही प्रारंभ की गई थी।
  • मामला विभिन्न न्यायालयों में विचारण हेतु गया और उच्च न्यायालय ने अंततः यह माना कि पश्चिम बंगाल किरायेदारी अधिनियम, 1997 इस विवाद को नियंत्रित करेगा, तथा मकान मालिक के बेदखली के वादों को खारिज कर दिया।
  • उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिकाओं के लंबित रहने के दौरान, याचिकाकर्त्ता- मकान मालिक ने प्रतिवादी-किरायेदार से 5,15,05,512/- रुपए बकाया का दावा करते हुए बाज़ार मूल्य पर "मासिक व्यावसायिक शुल्क" के भुगतान के लिये निर्देश मांगते हुए अंतरिम आवेदन दायर किये।
    दावा की गई यह राशि प्रभावी रूप से उस अवधि के लिये अंतःकालीन लाभ या क्षतिपूर्ति की मांग कर रही थी, जब प्रतिवादी-किरायेदार ने पट्टे के कथित निर्धारण/ज़ब्ती के बाद भी परिसर पर कब्ज़ा बनाए रखा था।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हालाँकि अंतःकालीन लाभ सामान्यतः बेदखली के आदेश पारित होने और उस पर स्थगन के आदेश के बाद प्रदान किया जाता है, लेकिन यदि किरायेदार का कब्ज़ा समाप्त होने के बाद भी वह उस पर बना रहता है तो उसे अपने अधिकार समाप्त होने के बाद की अवधि के लिये मकान मालिक को क्षतिपूर्ति/अंतःकालीन लाभ देना होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि पट्टे के ‘विनिश्चय’, 'समाप्ति', 'ज़ब्ती' एवं ‘समापन’ जैसे शब्दों का प्रभाव समान होगा, अर्थात् किरायेदार के अधिकार समाप्त हो जाएंगे या कमज़ोर रूप में परिवर्तित हो जाएंगे, तथा ऐसी स्थितियों में, अंतःकालीन लाभ देय होगा।
  • पट्टे की विवादित प्रकृति, परिसर के स्थान और काफी समय तक कथित रूप से किराये से वंचित रखने पर विचार करते हुए, न्यायालय ने प्रथम दृष्टया यह निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी-किरायेदार किराये एवं अन्य बकाया राशि के भुगतान में विलंब करता रहा है।
  • न्यायालय ने प्रतिवादी-किरायेदार को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्त्ता-मकान मालिक द्वारा दावा की गई 51505512 रुपए की राशि चार सप्ताह के भीतर उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री में जमा कराए, जो विशेष अनुमति याचिकाओं के अंतिम निर्णय के अधीन है।

अंतःकालीन लाभ क्या है?

  • CPC की धारा 2(12) के अनुसार, संपत्ति के अंतःकालीन लाभ से तात्पर्य उन लाभों से है, जो ऐसी संपत्ति पर दोषपूर्ण कब्ज़े वाले व्यक्ति ने वास्तव में प्राप्त किये हैं या सामान्य परिश्रम से प्राप्त कर सकता था, साथ ही ऐसे लाभों पर ब्याज भी, लेकिन दोषपूर्ण कब्ज़े वाले व्यक्ति द्वारा किये गए सुधारों के कारण अंतःकालीन लाभ इसमें शामिल नहीं होंगे।
  • यह वास्तविक मालिक को दिया जाने वाला क्षतिपूर्ति है।
  • उद्देश्य:
    • प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संपत्ति पर कब्ज़ा करने का अधिकार है तथा जब कोई दूसरा व्यक्ति उसे ऐसी संपत्ति से उसे वंचित करता है, तो वह न केवल अपनी संपत्ति पर कब्ज़ा वापस पाने का अधिकारी है, बल्कि उस व्यक्ति से दोषपूर्ण तरीके से कब्ज़ा करने के लिये क्षतिपूर्ति/अंतःकालीन लाभ भी पाने का अधिकारी होगा।
    • अंतःकालीन लाभ के लिये डिक्री देने का उद्देश्य उस व्यक्ति को क्षतिपूर्ति देना है जिसे कब्ज़ा से बाहर रखा गया है तथा उसकी संपत्ति के उपभोग से वंचित किया गया है।
  • सिद्धांत:
    • निम्नलिखित सिद्धांत न्यायालय को अंतःकालीन लाभ की राशि निर्धारित करने में मार्गदर्शन करेंगे।
      • दोषपूर्ण तरीके से कब्ज़ा करने वाले व्यक्ति द्वारा कोई लाभ नहीं।
      • डिक्री धारक के बेदखली से पहले स्थिति की बहाली।
      • डिक्री धारक द्वारा संपत्ति का वह उपयोग जिसमें वह स्वयं कब्ज़ा होने पर उसका उपयोग करता।
  • अंतःकालीन लाभ का दावा किसके विरुद्ध किया जा सकता है:
    • प्रतिवादी का दोषपूर्ण तरीके से कब्ज़ा करना, अंतःकालीन लाभ के लिये दावे का सार है तथा इसलिये यह प्रतिवादी का उत्तरदायित्व है।
    • अचल संपत्ति पर दोषपूर्ण तरीके से कब्ज़ा करने और उसका उपभोग करने वाला व्यक्ति अंतःकालीन लाभ के लिये उत्तरदायी है।
    • अंतःकालीन लाभ का दावा केवल अचल संपत्ति के संबंध में किया जा सकता है।
    • जहाँ एक वादी को कई व्यक्तियों द्वारा बेदखल किया जाता है, उनमें से प्रत्येक वादी अंतःकालीन लाभ का भुगतान करने के लिये उत्तरदायी होगा।
  • अंतःकालीन लाभ का मूल्यांकन:
    • चूँकि अंतःकालीन लाभ क्षति की प्रकृति के होते हैं, इसलिये प्रत्येक मामले में उनके पंचाट एवं मूल्यांकन को नियंत्रित करने वाला कोई अपरिवर्तनीय नियम नहीं बनाया जा सकता है तथा न्यायालय मामले के अनुसार इसे ढाल सकता है।
    • अंतःकालीन लाभ का आकलन करते समय, न्यायालय आमतौर पर इस बात को ध्यान में रखेगा कि प्रतिवादी ने संपत्ति पर दोषपूर्ण तरीके से कब्ज़ा करके क्या प्राप्त किया है।
    • अंतःकालीन लाभ का पता लगाने का परीक्षण यह नहीं है कि वादी ने कब्ज़ा न होने से क्या खोया है, बल्कि यह है कि प्रतिवादी ने क्या प्राप्त किया है या उचित रूप से और सामान्य विवेक के साथ इस तरह के दोषपूर्ण कब्ज़े से क्या प्राप्त कर सकता था।
    • अंतःकालीन लाभ का निर्धारण करते समय, न्यायालय संपत्ति के दोषपूर्ण कब्ज़े में प्रतिवादी के सकल लाभ से कटौती करने की अनुमति दे सकता है।