करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
सांविधानिक विधि
अनुच्छेद 16
03-Jun-2024
रविकुमार धनसुखलाल महेता एवं अन्य बनाम गुजरात उच्च न्यायालय एवं अन्य “किसी भी सरकारी कर्मचारी द्वारा पदोन्नति को विधिक अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है”। न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़, जे.बी. पारदीवाला एवं मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रविकुमार धनसुखलाल महेता एवं अन्य बनाम गुजरात उच्च न्यायालय एवं अन्य के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने ज़िला न्यायाधीश के रिक्त पदों के लिये गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा लागू की गई पदोन्नति प्रक्रिया को यथावत् बनाए रखा तथा सरकारी कर्मचारियों में पदोन्नति की मांग करने के अंतर्निहित अधिकार के अभाव पर बल दिया।
- इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि पदोन्नति नीतियाँ मुख्य रूप से विधायिका या कार्यपालिका का विशेषाधिकार हैं, न्यायिक समीक्षा भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन के मामलों तक सीमित है।
एस. शिवराज रेड्डी (मृत) बनाम रघुराज रेड्डी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान रिट याचिका पर दो न्यायाधीशों की पीठ ने प्रथम दृष्टया यह टिप्पणी की कि अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ बनाम भारत संघ एवं अन्य (2002) 4 SCC 247 के मामले ने उच्चतर न्यायिक सेवा में पदोन्नति के लिये योग्यता आधारित मानदंडों के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
- न्यायालय ने कहा कि ज़िला न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति 'योग्यता-सह-वरिष्ठता' के आधार पर होनी चाहिये।
- गुजरात उच्च न्यायालय ने 12 अप्रैल, 2022 को एक भर्ती नोटिस जारी किया, जिसमें वर्ष 2005 के नियमों के नियम 5(1)(I) के अनुसार 'योग्यता-सह-वरिष्ठता' और उपयुक्तता परीक्षण के आधार पर 65% कोटा के तहत सिविल जज (वरिष्ठ डिवीज़न) से ज़िला न्यायाधीशों के संवर्ग में पदोन्नति के लिये 68 रिक्तियों की घोषणा की गई।
- नोटिस के साथ ही सिविल जज (सीनियर डिवीज़न) कैडर के 205 न्यायिक अधिकारियों की सूची जारी की गई, जिसमें रिक्तियों को भरने के लिये 'विचार का क्षेत्र' शामिल है। इस सूची में सबसे वरिष्ठ सिविल जज (सीनियर डिवीज़न) शामिल थे, जो अधिसूचित रिक्तियों से तीन गुना से अधिक नहीं थे।
- विचाराधीन क्षेत्र के 205 उम्मीदवारों की उपयुक्तता का मूल्यांकन चार घटकों के आधार पर किया जाना था: लिखित परीक्षा (वस्तुनिष्ठ प्रकार- MCQs), पिछले पाँच वर्षों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्टों का मूल्यांकन, पिछले पाँच वर्षों में औसत निपटान दर का मूल्यांकन तथा पिछले एक वर्ष में दिये गए निर्णयों का मूल्यांकन।
- पदोन्नति के लिये चयन सूची में शामिल होने के लिये उम्मीदवारों को प्रत्येक घटक में न्यूनतम 40% अंक और सभी चार में न्यूनतम कुल 50% अंक प्राप्त करने की आवश्यकता थी।
- लिखित परीक्षा के बाद, 175 उम्मीदवारों ने कम-से-कम 40% अंक प्राप्त करके इसमें उत्तीर्ण हुए।
- इसके बाद ACRs, न्यायालयी निर्णयों और मामले के निपटान दरों का मूल्यांकन करने के बाद, 149 उम्मीदवार पदोन्नति के लिये पात्रता मानदंडों को पूरा करते हैं।
- इसके बाद उच्च न्यायालय ने 10 मार्च, 2023 को अंतिम चयन सूची तैयार की, जिसमें 149 पात्र उम्मीदवारों में से सबसे वरिष्ठ 68 उम्मीदवारों को ज़िला न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत किया गया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने पदोन्नति प्रक्रिया के बारे में चिंता जताते हुए संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत न्यायालय में आवेदन किया है।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति की मांग करने का कोई विधिक अधिकार नहीं है तथा पदोन्नति नीति में न्यायालय का हस्तक्षेप केवल उन मामलों तक ही सीमित होना चाहिये, जहाँ संविधान के अनुच्छेद 16 में निहित समानता के प्रावधान का उल्लंघन होता हो।
- 17 मई को न्यायालय ने योग्यता-सह-वरिष्ठता सिद्धांत के आधार पर वरिष्ठ सिविल न्यायाधीशों को ज़िला न्यायाधीशों के 65% पदोन्नति कोटे में पदोन्नत करने के लिये गुजरात उच्च न्यायालय की वर्ष 2023 की अनुशंसा के वैधता की पुष्टि की।
- न्यायालय ने कहा कि चूँकि संविधान में पदोन्नति के लिये कोई मानदंड निर्धारित नहीं है, इसलिये सरकारी कर्मचारी अंतर्निहित अधिकार के रूप में पदोन्नति की मांग नहीं कर सकते।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पदोन्नति नीतियाँ मुख्य रूप से विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में आती हैं, जबकि न्यायिक समीक्षा की परिधि सीमित है।
- न्यायालय ने कहा कि भारत में कोई भी सरकारी कर्मचारी पदोन्नति को अपना अधिकार नहीं मान सकता, क्योंकि संविधान में पदोन्नति वाले पदों पर सीटें भरने के लिये कोई मानदंड निर्धारित नहीं किया गया है।
- विधानमंडल या कार्यपालिका रोज़गार की प्रकृति एवं उम्मीदवार से अपेक्षित कार्यों के आधार पर पदोन्नति पदों पर रिक्तियों को भरने की विधि तय कर सकती है।
- न्यायालय यह तय करने के लिये समीक्षा नहीं कर सकते कि पदोन्नति के लिये अपनाई गई नीति 'सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवारों' के चयन के लिये उपयुक्त है या नहीं, जब तक कि सीमित आधार पर यह संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन न करे।
- इस मामले में, याचिकाकर्त्ताओं ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और गुजरात राज्य न्यायिक सेवा नियम, 2005 के नियम 5 के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए, ज़िला न्यायाधीश (65% कोटा) के कैडर में वरिष्ठ सिविल न्यायाधीशों की पदोन्नति के लिये गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा जारी चयन सूची को अमान्य करने की मांग की थी।
- नियम 5 के अनुसार ज़िला न्यायाधीश संवर्ग में 65% पदोन्नतियाँ योग्यता-सह-वरिष्ठता तथा उपयुक्तता परीक्षण उत्तीर्ण करने के आधार पर होनी चाहिये।
- न्यायालय ने अनुशंसा की है कि गुजरात उच्च न्यायालय उपयुक्तता परीक्षण से संबंधित अपने नियमों को संशोधित कर उन्हें उत्तर प्रदेश उच्चतर न्यायिक सेवा नियम, 1975 के अनुरूप बनाए।
- मुख्य सुझावों में मौखिक परीक्षा को एक अतिरिक्त परीक्षण घटक के रूप में शामिल करना, प्रत्येक मौजूदा घटक के लिये उत्तीर्णता की सीमा को बढ़ाना, एक के बजाय पिछले दो वर्षों के निर्णयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करना तथा योग्यता सूची को अंतिम रूप देते समय परीक्षा के अंकों में वरिष्ठता के आधार को सम्मिलित करना है।
COI, 1950 का अनुच्छेद 16 क्या है?
- परिचय:
- COI, 1950 का अनुच्छेद 16 राज्य के अधीन सार्वजनिक रोज़गार के मामलों में अवसर के समानता की गारंटी देता है।
- यह राज्य के अधीन किसी भी रोज़गार या कार्यालय के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
- अनुच्छेद 16 यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को सरकारी रोज़गार में समान अवसर प्राप्त हों तथा कुछ विशेषताओं के आधार पर अनुचित व्यवहार पर रोक लगाई जाए।
- इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 16 ऐतिहासिक एवं सामाजिक असमानताओं को दूर करने के लिये अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों जैसे वंचित समूहों के लिये सार्वजनिक रोज़गार में आरक्षण की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 16:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोज़गार के मामलों में समानता के अधिकार से संबंधित है।
- समान अवसर: अनुच्छेद 16(1) राज्य के अधीन सार्वजनिक रोज़गार के मामले में सभी नागरिकों को अवसर की समानता की गारंटी देता है।
- सार्वजनिक रोज़गार तक समान पहुँच: अनुच्छेद 16(2) राज्य को सार्वजनिक रोज़गार के मामले में नागरिकों के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव करने से रोकता है।
- आरक्षण: अनुच्छेद 16(4) राज्य को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये प्रावधान करने की शक्ति देता है, जिसका राज्य के राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये विशेष प्रावधान: अनुच्छेद 16(4A) सार्वजनिक रोज़गार में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में पदों के आरक्षण का प्रावधान करता है।
पदोन्नति में आरक्षण: अनुच्छेद 16(4B) राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में राज्य के अधीन सेवाओं में किसी भी वर्ग या वर्गों के पदों पर पदोन्नति के मामलों में आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देता है। - पदोन्नति में आरक्षण: अनुच्छेद 16(6) राज्य को खंड (4) में उल्लिखित वर्ग के अतिरिक्त किसी भी आर्थिक रूप से कमज़ोर नागरिक वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों को आरक्षित करने की अनुमति देता है, जो मौजूदा आरक्षण के अतिरिक्त और प्रत्येक श्रेणी में अधिकतम 10% पदों के अधीन है।
भारत में पदोन्नति से संबंधित विधियाँ कैसे विकसित हुईं?
- ब्रिटिश राज के दौरान, पदोन्नति मुख्य रूप से वरिष्ठता पर आधारित थी, जैसा कि ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रथाओं में देखा गया था तथा 1793 के चार्टर अधिनियम के माध्यम से वर्ष 1861 तक इसे आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई थी।
- वर्ष 1861 के भारतीय सिविल सेवा अधिनियम ने वरिष्ठता और योग्यता दोनों के आधार पर पदोन्नति की एक प्रणाली शुरू की, जिसे 'वरिष्ठता-सह-योग्यता' के रूप में जाना जाता है, जिसमें ईमानदारी, क्षमता एवं योग्यता शामिल है।
- प्रतियोगी परीक्षाएँ वर्ष 1854 में शुरू की गईं, जिसका उद्देश्य राजनीतिक प्रभावों और पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिये सिविल सेवाओं में संरक्षण-आधारित प्रणाली को योग्यता-आधारित दृष्टिकोण से परिवर्तित करना था।
- स्वतंत्रता के बाद, वर्ष 1947 में प्रथम वेतन आयोग ने सीधी भर्ती एवं पदोन्नति के संयोजन की अनुशंसा की, जिसमें उच्च पदों के लिये कार्यालयी अनुभव एवं योग्यता की आवश्यकता वाली भूमिकाओं के लिये वरिष्ठता की समर्थन किया गया।
- वर्ष 1959 और 1969 में बाद के वेतन आयोगों ने वरिष्ठता के साथ-साथ योग्यता-आधारित पदोन्नति का समर्थन किया, वरिष्ठता को निष्ठा का संकेत तथा पक्षपात के लिये निवारक माना।
- पदोन्नति में वरिष्ठता का सिद्धांत इस विश्वास से निकला माना जाता है कि अनुभव योग्यता से जुड़ा हुआ है तथा विवेक एवं पक्षपात को सीमित करता है।
- भारतीय संवैधानिक संदर्भ में, सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति की मांग करने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान में पदोन्नति के लिये कोई विशिष्ट मानदंड निर्धारित नहीं किया गया है।
- पदोन्नति की नीतियाँ सरकार या विधायिका द्वारा रोज़गार की प्रकृति एवं नौकरी की आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित की जाती हैं, जिसमें न्यायिक हस्तक्षेप केवल तभी सीमित होता है जब ऐसी नीतियाँ संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं।
COI के अनुच्छेद 16 से संबंधित निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ, 1993
- नौ न्यायाधीशों की पीठ के अनुसार, अनुच्छेद 16(4) पदोन्नति में आरक्षण नहीं देता है, क्योंकि यह केवल नियुक्तियों में आरक्षण पर लागू होता है। सरकारी नौकरियों में SCs/STs को दिये जाने वाले सभी पदोन्नति आरक्षण अब इस निर्णय के कारण खतरे में हैं।
- 16 नवंबर 1992 के बाद, न्यायालय के निर्णय ने पदोन्नति में आरक्षण को अगले पाँच वर्ष तक बनाए रखने की अनुमति दी।
- एम. नागराज बनाम भारत संघ, 2006: उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित सभी संशोधनों की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखा।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के अंतर्गत समानता के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि संशोधन सक्षम करने वाले प्रावधान हैं, जो राज्यों को पिछड़ेपन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की पहचान करने और समग्र दक्षता बनाए रखने पर पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देते हैं, लेकिन बाध्य नहीं करते हैं।
सांविधानिक विधि
लिविंग विल
03-Jun-2024
लिविंग विल “हम सभी अपने जीवन जीने में अत्यधिक व्यस्त हैं और इससे हमें जीवन के अंत के मुद्दे पर विचार करने के लिये बिल्कुल भी समय नहीं मिलता, जोकि अपरिहार्य है तथा जिसके लिये हमें कुछ समय पहले से तैयारी शुरू कर देनी चाहिये”। न्यायमूर्ति एम. एस. सोनक |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
गोवा में बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. एस. सोनक, भारतीय चिकित्सा संघ (IMA), गोवा शाखा द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान 'लिविंग विल' पंजीकृत करने वाले राज्य के प्रथम व्यक्ति बन गए।
इस समाचार की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह कार्य भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 2018 में निष्क्रिय इच्छामृत्यु एवं अग्रिम निर्देशों को मान्यता दिये जाने के बाद किया गया है, जिसके अधीन वर्ष 2023 में दिशा-निर्देशों को सरल बनाया गया।
- गोवा ने इन नियमों को लागू किया, जिसके अधीन वसीयत को नोटरी या राजपत्रित अधिकारी द्वारा सत्यापित करना तथा राज्य राजस्व विभाग कार्यालय द्वारा संग्रहीत करना अनिवार्य कर दिया गया, जिससे अन्य राज्यों के लिये अनुकरणीय उदाहरण स्थापित हुआ।
इच्छामृत्यु क्या है?
परिचय:
- इच्छामृत्यु शब्द ग्रीक शब्दों "यू" और "थानोटोस" से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है अच्छी मृत्यु तथा इसे दया मृत्यु के रूप में वर्णित किया जाता है।
- इच्छामृत्यु शब्द का प्रयोग फ्राँसिस बेकन ने 17वीं शताब्दी में एक आसान, पीड़ारहित एवं सुखद मृत्यु के लिये किया था, क्योंकि रोगी की शारीरिक पीड़ा को कम करना चिकित्सक का कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व है।
सक्रिय बनाम निष्क्रिय इच्छामृत्यु:
सक्रिय इच्छामृत्यु |
निष्क्रिय इच्छामृत्यु |
इसे "सकारात्मक" अथवा "आक्रामक" इच्छामृत्यु के नाम से भी जाना जाता है। |
इसे "नकारात्मक" अथवा "गैर-आक्रामक" इच्छामृत्यु भी कहा जाता है। |
इसमें प्रत्यक्ष हस्तक्षेप द्वारा किसी व्यक्ति की जानबूझ कर मृत्यु कारित करने के लिये सकारात्मक कार्य या सकारात्मक कार्रवाई शामिल है। |
इसमें जीवन रक्षक उपायों को हटा लेना अथवा जीवन के लिये आवश्यक चिकित्सा उपचार को रोकना शामिल है। |
उदाहरण: घातक इंजेक्शन देना |
उदाहरण: एंटीबायोटिक्स न देना या रोगी को जीवन रक्षक प्रणाली से हटाना |
- विधि आयोग की 241वीं रिपोर्ट:
- विधि आयोग ने अपनी 241वीं रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था निष्क्रिय इच्छामृत्यु- एक पुनर्विचार, में निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर विधान बनाने का प्रस्ताव रखा।
- इसने असाध्य रोगियों के चिकित्सा उपचार (रोगियों एवं चिकित्सा व्यवसायियों का संरक्षण) विधेयक, 2006 पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- परंतु स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय इस अधिनियम के पक्ष में नहीं था।
- इच्छामृत्यु की वैश्विक स्थिति:
- o क्रूज़न बनाम मिसौरी स्वास्थ्य विभाग निदेशक (1990):
- इस मामले में, अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने जीवनदायी चिकित्सा उपचार का प्रतिषेध करने का संवैधानिक अधिकार स्थापित किया, जिससे निष्क्रिय इच्छामृत्यु का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- रॉड्रिग्ज बनाम ब्रिटिश कोलंबिया (अटॉर्नी जनरल) (1993):
- कनाडा के उच्चतम न्यायालय ने आशय के आधार पर सक्रिय एवं निष्क्रिय इच्छामृत्यु के मध्य अंतर स्पष्ट किया तथा निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति की पुष्टि की, जबकि सक्रिय इच्छामृत्यु को अनुचित घोषित किया।
- वैको बनाम क्विल (1997):
- अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने सक्रिय एवं निष्क्रिय इच्छामृत्यु के मध्य अंतर की पुष्टि करते हुए कहा कि अवांछित चिकित्सा उपचार (निष्क्रिय इच्छामृत्यु) का प्रतिषेध करने का अधिकार स्वीकार्य है, जबकि सहायता प्राप्त आत्महत्या (सक्रिय इच्छामृत्यु) को संविधान द्वारा संरक्षण नहीं दिया गया है।
- o क्रूज़न बनाम मिसौरी स्वास्थ्य विभाग निदेशक (1990):
एक लिविंग विल क्या है?
- परिचय:
- लिविंग विल, जिसे अग्रिम निर्देश के रूप में भी जाना जाता है, एक विधिक दस्तावेज़ है जो व्यक्तियों को जीवन के अंतिम समय में चिकित्सा उपचार के संबंध में अपनी इच्छाएँ व्यक्त करने की अनुमति देता है।
- इसमें निर्देश दिये गए हैं कि कुछ परिस्थितियों में, जैसे कि घातक बीमारी अथवा अनवरत निष्क्रिय अवस्था में, जीवन-रक्षक उपायों को रोक अथवा हटा लिया जाए।
- लिविंग विल का महत्त्व:
- स्वायत्तता का संरक्षण: लिविंग विल, व्यक्ति को अपनी चिकित्सा देखभाल पर स्वायत्तता बनाए रखने तथा जीवन के अंतिम चरण के समय अपने व्यक्तिगत मूल्यों एवं प्राथमिकताओं का सम्मान सुनिश्चित करने का अधिकार देती है।
- अनावश्यक पीड़ा से बचाव: अपनी इच्छाओं को स्पष्ट कर, व्यक्ति दीर्घकालिक पीड़ा से बच सकता है तथा मृत्यु की प्रक्रिया में गरिमा बनाए रख सकते हैं।
- प्रियजनों पर बोझ कम करना: एक लिविंग विल, स्पष्ट मार्गदर्शन से संभावित संघर्षों को समाप्त कर यह सुनिश्चित करती है कि व्यक्ति की इच्छाओं का पालन किया जाए जिससे परिवार के सदस्यों पर भावनात्मक बोझ कम हो सकता है।
भारत में इच्छामृत्यु एवं लिविंग विल पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ कौन-सी हैं?
- पी. रथिनम बनाम भारत संघ (1994)
- उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 309 को निरस्त कर दिया, जो आत्महत्या के प्रयास को अपराध मानती थी, जिससे सम्मान के साथ मरने के अधिकार पर चर्चा का मार्ग प्रशस्त हो गया।
- ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996)
- उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 और 306 की वैधता को यथावत् रखा, परंतु इच्छामृत्यु को आत्महत्या से अलग कर दिया, जिससे निष्क्रिय इच्छामृत्यु की संभावना के लिये स्थान बना।
- अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ (2011)
- उच्चतम न्यायालय ने कुछ परिस्थितियों में निष्क्रिय इच्छामृत्यु की वैधता को मान्यता दी।
- लगातार निष्क्रिय अवस्था या घातक बीमारी से पीड़ित रोगियों के लिये जीवन रक्षक उपचार को हटाने अथवा अस्वीकार करने के लिये दिशा-निर्देश प्रदान किये गए।
- न्यायालय ने अग्रिम निर्देशों की आवश्यकता को स्वीकार किया, परंतु लिविंग विल के लिये विशिष्ट दिशा-निर्देश प्रदान नहीं किये।
- कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018)
- उच्चतम न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु की वैधता को यथावत् रखा तथा भारत में लिविंग विल के निष्पादन एवं कार्यान्वयन के लिये एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की।
- निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित रोगी की स्वायत्तता, आत्मनिर्णय एवं मानव गरिमा के सिद्धांतों को मान्यता दी गई।
- लिविंग विल के निष्पादन, निरस्तीकरण एवं कार्यान्वयन के लिये विस्तृत दिशा-निर्देश प्रदान किये गए, जिसमें विभिन्न प्राधिकरणों तथा मेडिकल बोर्डों को सम्मिलित किया गया।
लिविंग विल के कार्यान्वयन से संबंधित प्रक्रिया क्या है?
- सत्यापन: स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को लिविंग विल पर कार्यवाही करने से पूर्व संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) से लिविंग विल की प्रामाणिकता एवं वैधता का सत्यापन कर लेना चाहिये।
- मेडिकल बोर्ड की समीक्षा: अनुभवी चिकित्सकों वाले एक मेडिकल बोर्ड को रोगी की स्थिति की समीक्षा करनी चाहिये तथा लिविंग विल की प्रयोज्यता को प्रामाणित करना चाहिये।
- न्यायिक निरीक्षण: JMFC को रोगी से मिलना चाहिये, प्रासंगिक आयामों की जाँच करनी चाहिये तथा यदि वह इसकी वैधता एवं प्रयोज्यता से संतुष्ट हो तो लिविंग विल के कार्यान्वयन को अधिकृत करना चाहिये।
- निरसन और नवीकरण: समय के साथ परिस्थितियों या प्राथमिकताओं में संभावित परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए, लिविंग विल के निरसन या नवीकरण के लिये प्रावधान किये जाने चाहिये।
लिविंग विल पर उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश क्या हैं?
भारत के उच्चतम न्यायालय ने लिविंग विल की वैधता को मान्यता दी है तथा उनके निष्पादन और कार्यान्वयन के लिये दिशा-निर्देश प्रदान किये हैं:
- पात्रता: केवल स्वस्थ मष्तिष्क वाले वयस्क ही स्वेच्छा एवं बिना किसी दबाव के अग्रिम निर्देश जारी कर सकते हैं।
- विषय-वस्तु: अग्रिम निर्देश में स्पष्ट रूप से उन परिस्थितियों का उल्लेख होना चाहिये जिनमें चिकित्सा उपचार रोका या वापस लिया जा सकता है तथा यह स्पष्ट होना चाहिये।
- निरसन: निष्पादक किसी भी समय निर्देश को निरस्त कर सकता है।
- निष्पादन: दस्तावेज़ पर निष्पादक द्वारा दो साक्षियों की उपस्थिति में हस्ताक्षर किया जाना चाहिये तथा न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित किया जाना चाहिये।
- संरक्षण: निर्देश की प्रतियाँ मजिस्ट्रेट, ज़िला न्यायालय एवं स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा संरक्षित की जानी चाहिये।
- कार्यान्वयन: यदि निष्पादक असाध्य रूप से बीमार हो जाता है अथवा अनवरत रूप से निष्क्रिय अवस्था में रहता है, तो एक मेडिकल बोर्ड निर्देश की समीक्षा करेगा एवं रोगी के परिवार के विचार करने के उपरांत इसके कार्यान्वयन पर निर्णय लेगा।