Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

बाल साक्षी का परिसाक्ष्य

 09-Jun-2024

गणेश बलाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य

"किसी बाल साक्षी के साक्ष्य को अस्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है, परंतु न्यायालय विवेकानुसार ऐसे साक्ष्य पर गहनता से जाँच करता है तथा केवल उसकी गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता के विषय में आश्वस्त होने के उपरांत ही विचार करता है”।

न्यायमूर्ति विजय कुमार शुक्ला और न्यायमूर्ति हिरदेश

स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विजय कुमार शुक्ला और न्यायमूर्ति हिरदेश की पीठ ने कहा कि “यदि किसी बच्चे में प्रश्नों को समझने तथा उनके तर्कसंगत उत्तर देने की बौद्धिक क्षमता है तो उसे भी परिसाक्ष्य देने की अनुमति दी जा सकती है”।

  • मध्य प्रदेश सरकार ने यह निर्णय गणेश बलाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में दिया है।

गणेश बलाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • 11 अप्रैल 2012 को, 8 वर्षीय अभियोजन पक्ष की साक्षी शीतल (PW-7), जो अपीलकर्त्ता और मृतका की बेटी थी, ने अपने पिता (अपीलकर्त्ता) को अपने घर में अपनी माँ पर चाकू से हमला करते हुए देखा।
  • घटना के बाद शीतल अपने दादा-दादी (PW-5 और PW-6) के घर गई और उन्हें बताया कि अपीलकर्त्ता उसकी माँ की पिटाई कर रहा है।
  • मामला सुनवाई के लिये आगे बढ़ा और अभियोजन पक्ष ने PW-7 से एक साक्षी के रूप में पूछताछ की।
  • अपने मुख्य परीक्षण में शीतल ने घटना का विवरण दिया कि अपीलकर्त्ता ने उसकी माँ के सिर पर वार किया तथा पेट और गर्दन पर चाकू से हमला किया।
  • निचली न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया था, अतः उसने उच्च न्यायालय में अपील दायर की।
  • अपील में अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि PW-7, एक बाल साक्षी होने के कारण, प्रशिक्षित थी तथा उसका परिसाक्ष्य विश्वसनीय नहीं थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि "किसी बाल साक्षी के साक्ष्य को अस्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है, परंतु न्यायालय विवेकानुसार ऐसे साक्ष्य पर गहनता से जाँच करता है तथा केवल उसकी गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता के विषय में आश्वस्त होने के उपरांत ही विचार करता है”।
  • न्यायालय ने पाया कि PW-7 अपनी प्रतिपरीक्षा में पूरी तरह से सही थी और उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि उसने घटना देखी थी।
  • न्यायालय ने माना कि PW-7 कोई प्रशिक्षित साक्षी नहीं, बल्कि घटना का एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी था।
  • न्यायालय के पास शीतल के साक्ष्य को अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं था वह एक बाल साक्षी थी, जो प्रश्नों को समझने एवं तर्कसंगत उत्तर देने में सक्षम थी तथा उसका आचरण किसी भी अन्य सक्षम गवाह की तरह था।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि शीतल की साक्षी विश्वसनीय थी और वह दोषसिद्धि का आधार हो सकती थी, अतः अपील अस्वीकार कर दी गई।

बाल साक्षी से संबंधित विधियाँ क्या हैं?

  • परिचय:
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 118 के अंतर्गत, यदि न्यायालय को लगता है कि बच्चे में प्रश्नों को समझने एवं तर्कसंगत उत्तर देने की बौद्धिक क्षमता है, तो अल्प वय का बच्चा भी साक्षी के रूप में परिसाक्ष्य दे सकता है।
    • विधि में किसी बच्चे को परिसाक्ष्य देने के लिये अयोग्य मानने की कोई निश्चित आयु निर्धारित नहीं की गई है।
    • कई मामलों में बाल साक्ष्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, विशेषकर उन मामलों में जिनमें नाबालिगों के विरुद्ध यौन अपराध शामिल होते हैं।
    • हालाँकि उनकी साक्षी को अक्सर सावधानी से देखा जाता है क्योंकि उनमें प्रशिक्षण, वास्तविकता के साथ कल्पना का मिश्रण तथा प्रभाव के प्रति संवेदनशीलता का भय होता है।
  • बाल साक्षियों की योग्यता:
    • निवृत्ति पांडुरंग कोकाटे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2008) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक बाल साक्षी के पास पर्याप्त बुद्धिमत्ता है या नहीं, इसका निर्णय मुख्य रूप से न्यायाधीश के पास होता है, जो बच्चे के आचरण का निरीक्षण कर, बच्चे की क्षमता, बुद्धिमत्ता तथा सच बोलने के दायित्व की समझ का आकलन करने के लिये उसकी परीक्षा ले सकता है।
    • रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि न्यायालय को बच्चे की योग्यता का परीक्षण करने के लिये उससे सरल, सीधे प्रश्न पूछने चाहिये तथा इस विषय में अपनी राय दर्ज करनी चाहिये कि क्या बच्चा सत्य बोलने के कर्त्तव्य को समझता है।
  • विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता:
    • यद्यपि बच्चे विधिक रूप से सक्षम साक्षी हो सकते हैं, फिर भी उनकी विश्वसनीयता को अक्सर चुनौती दी जाती है।
    • उच्चतम न्यायालय ने कई मामलों में कहा है कि बाल साक्षी "खतरनाक" होते हैं, क्योंकि वे अक्सर बहकावे में आ जाते हैं, कल्पनाओं एवं वास्तविकता में भ्रमित हो जाते हैं तथा भय, लालच या ध्यान आकर्षित करने की इच्छा से प्रभावित हो जाते हैं।
      • अतः उनकी गवाही का मूल्यांकन सावधानीपूर्वक और अधिक सतर्कता के साथ किया जाना चाहिये।
    • हालाँकि यदि जाँच के उपरांत न्यायालय को बच्चे के बयान में "सत्यता का आभास" मिलता है, तो उसे स्वीकार करने में कोई विधिक बाधा नहीं है।
    • योग्यता तथा स्वीकार्यता दोनों अलग-अलग हैं– योग्यता होने पर भी, यदि बच्चे का कथन राय, धारणाओं या जनश्रुतियों पर आधारित हो तो वह अस्वीकार्य हो सकता है।

बाल साक्षियों के परिसाक्ष्यों के ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि शपथ न दिला पाने से केवल साक्षी की विश्वसनीयता प्रभावित होती है, साक्ष्य की स्वीकार्यता नहीं। उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों को निर्देश दिया कि वे बच्चे को सक्षम मानने के कारणों को दर्ज करें।
  • आर बनाम नोरबरी (1977):
    • प्रिवी काउंसिल ने बलात्कार की शिकार 6 वर्षीय बच्ची की साक्षी को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि बच्ची प्रश्नों को समझ सकती है तथा तर्कसंगत उत्तर दे सकती है, तो पुष्टिकरण आवश्यक नहीं है।
  • मंगू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1995):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रशिक्षण की संभावना यह निष्कर्ष निकालने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती कि बाल साक्षी को वास्तव में प्रशिक्षण दिया गया था। न्यायालय को प्रशिक्षण के किसी भी चिह्न के लिये साक्ष्यों की जाँच करनी चाहिये।
  • निवृत्ति पांडुरंग कोकाटे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2008):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यद्यपि बाल साक्षियों को बहकाया जा सकता है, फिर भी यदि न्यायालय को सावधानीपूर्वक जाँच के पश्चात् "सत्य का आभास" होता है, तो उनके साक्ष्य पर विश्वास करने में कोई विधिक बाधा नहीं है।
  • सतीश कुमार गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य (2017):
    • उच्चतम न्यायालय ने केवल 12 वर्षीय बच्चे की साक्षी के आधार पर दोषसिद्धि को यथावत् रखा, जिसने अपने पिता की हत्या देखी थी तथा उसकी साक्षी को विश्वसनीय और स्वीकार्य माना।

सिविल कानून

निजी मेडिकल संस्थानों में अनुप्रयोज्य मातृत्व लाभ

 09-Jun-2024

अध्यक्ष, PSM कॉलेज ऑफ डेंटल साइंसेज एंड रिसर्च बनाम रेशमा विनोद एवं अन्य

“मातृत्व लाभ अधिनियम 6 मार्च 2020 के बाद निजी चिकित्सा संस्थानों पर लागू होगा”।

न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह

स्रोत:  केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?    

केरल उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में PSM कॉलेज ऑफ डेंटल साइंसेज एंड रिसर्च के चेयरमैन बनाम रेशमा विनोद एवं अन्य के मामले में निजी शिक्षण संस्थानों पर मातृत्व लाभ अधिनियम की अनुप्रयोज्यता के संबंध में दिये गए निर्णय ने काफी ध्यान आकर्षित किया है। न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह की अध्यक्षता में यह मामला एक डेंटल कॉलेज एवं रिसर्च सेंटर द्वारा दायर रिट याचिका से उत्पन्न हुआ था।

  • संस्था ने एक निरीक्षक के नोटिस का विरोध किया, जिसमें रेशमा विनोद नामक एक कर्मचारी के लिये मातृत्व लाभ का अनुपालन न करने का आरोप लगाया गया था।
  • संस्था के उत्तर के बावजूद, निरीक्षक ने उन्हें रेशमा को एक बड़ी राशि का भुगतान करने का आदेश दिया, एक निर्णय जिसके विरुद्ध अधिनियम की धारा 17(3) के अंतर्गत असफल अपील की गई।

कॉलेज ऑफ डेंटल साइंसेज़ एंड रिसर्च के चेयरमैन बनाम रेशमा विनोद एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता एक डेंटल कॉलेज एवं अनुसंधान केंद्र है, जिसे स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत की अनुमति से स्थापित किया गया है।
  • वर्ष 2017 में, एक याचिकाकर्त्ता को मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 (मातृत्व अधिनियम) के अंतर्गत मातृत्व लाभ का भुगतान न करने का आरोप लगाते हुए एक कारण बताओ नोटिस मिला।
  • याचिकाकर्त्ता के विस्तृत उत्तर के बावजूद, प्रथम प्रतिवादी को मातृत्व लाभ का भुगतान करने का आदेश पारित किया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने मातृत्व अधिनियम की धारा 17(3) के अंतर्गत अपील की, जिसे खारिज कर दिया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने लागू प्रतिष्ठानों के संबंध में विशिष्ट प्रावधानों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि मातृत्व अधिनियम सार्वभौमिक रूप से लागू नहीं होता है।
  • मामला यह है कि क्या निजी चिकित्सा शिक्षण संस्थान मातृत्व अधिनियम के दायरे में आते हैं। याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि ऐसे संस्थान, जो सामान्य "दुकानें या प्रतिष्ठान बाज़ार" नहीं हैं, उन्हें अधिनियम के अधीन नहीं होना चाहिये।
  • इसके विपरीत, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि चूँकि केरल दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम के अंतर्गत चिकित्सा शैक्षणिक संस्थानों को छूट नहीं दी गई है, इसलिये मातृत्व अधिनियम उन पर लाभकारी विधि के रूप में लागू होता है।
  • पिछले निर्णयों एवं विधायी अधिसूचनाओं का हवाला देते हुए, न्यायालय ने शैक्षणिक संस्थानों के लिये मातृत्व अधिनियम की अनुप्रयोज्यता निर्धारित की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय का अवलोकन यह दर्शाता है कि यद्यपि निजी शैक्षणिक संस्थानों को उद्योग माना जा सकता है, लेकिन वे आवश्यक रूप से केरल दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, 1960 के अंतर्गत प्रतिष्ठानों की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते हैं।
    • यह सूक्ष्म अंतर मातृत्व लाभ अधिनियम के अनुप्रयोग के लिये निहितार्थ रखता है, क्योंकि यह सुझाव देता है कि कुछ संस्थाएँ विशिष्ट सरकारी अधिसूचनाओं से पहले स्वचालित रूप से इसके प्रावधानों से बंधी नहीं हो सकती हैं।
    • अधिनियम के अंतर्गत प्रतिष्ठान का अर्थ है ऐसा प्रतिष्ठान जो कोई व्यवसाय, व्यापार या पेशा या उससे संबंधित या उससे जुड़ी या सहायक के रूप में कोई कार्य करता है। उद्योगों में कोई भी व्यवसाय, व्यापार, उपक्रम, विनिर्माण या कर्मचारी शामिल होंगे तथा इसमें कर्मकारों द्वारा कोई निविदा सेवा, रोज़गार, हस्तशिल्प या औद्योगिक व्यवसाय या पेशा शामिल होगा।

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या है?

  • रूथ सोरेन बनाम प्रबंध समिति, ईस्ट ISSDA एवं अन्य, (2000)
    • न्यायालय ने कहा कि एक शैक्षणिक संस्थान को उद्योग तो माना जा सकता है, लेकिन प्रतिष्ठान नहीं।
    • शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा प्रदान करने के लिये नियोक्ताओं एवं कर्मचारियों के मध्य एक संगठित गतिविधि होती है।
    • ऐसी गतिविधि, हालाँकि उद्योग हो सकती है, तथापि, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत व्यवसाय, व्यापार या कारोबार नहीं होगी, क्योंकि यह अधिनियम के अंतर्गत स्थापना की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आएगी।

मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 क्या है?

  • परिचय:
    • मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 एक ऐसी विधि है जो मातृत्व के दौरान महिलाओं को रोज़गार प्रदान करता है।
    • यह महिला कर्मचारियों को 'मातृत्व लाभ' सुनिश्चित करता है, जिसके अंतर्गत नवजात शिशु की देखभाल के लिये काम से अनुपस्थित रहने के दौरान भी उन्हें वेतन मिलता है।
    • यह 10 से अधिक कर्मचारियों को रोज़गार देने वाले किसी भी प्रतिष्ठान पर लागू होता है। मातृत्व संशोधन विधेयक, 2017 के अंतर्गत इस अधिनियम में और संशोधन किया गया।
    • यह अधिनियम मातृत्व की गरिमा की रक्षा करने वाली एक महत्त्वपूर्ण विधि है।
    • यह सुनिश्चित करने में भी सहायता करता है कि कामकाजी महिलाएँ अपने बच्चों की उचित देखभाल करने में सक्षम हों। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के अतिरिक्त, मातृत्व लाभ महिलाओं को उनके वित्तीय मामलों में भी सहायता करते हैं।
  • मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961
    • अनुप्रयोज्यता: यह अधिनियम कारखानों, खानों, बागानों, दुकानों एवं अन्य संस्थाओं सहित दस या अधिक लोगों को रोज़गार देने वाले सभी प्रतिष्ठानों पर लागू होता है।
    • लाभ अवधि: एक महिला 26 सप्ताह के मातृत्व अवकाश की अधिकारी है, जिसमें चिकित्सा जटिलताओं या अन्य निर्दिष्ट परिस्थितियों के मामले में इसे अतिरिक्त 4 सप्ताह तक बढ़ाने का प्रावधान है।
    • अवकाश के दौरान भुगतान: नियोक्ता को मातृत्व अवकाश पर गई महिला को उसकी अवकाश की अवधि के लिये उसके औसत दैनिक वेतन की दर से भुगतान करना आवश्यक है।
    • मेडिकल बोनस: नियोक्ता को उन महिलाओं को मेडिकल बोनस भी प्रदान करना आवश्यक है जो पूर्ण मातृत्व अवकाश का लाभ नहीं उठाती हैं, बशर्ते कि उन्होंने अपनी गर्भावस्था से पहले एक निश्चित अवधि तक काम किया हो।
    • पद्च्युति का निषेध: मातृत्व अवकाश अवधि के दौरान, नियोक्ताओं के लिये किसी महिला को पद्च्युत करना या अवकाश देना या पद्च्युति का नोटिस देना अविधिक है।
    • क्रेच सुविधाएँ: 50 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों को क्रेच सुविधाएँ प्रदान करना और महिलाओं को काम के घंटों के दौरान क्रेच में जाने की अनुमति देना आवश्यक है।

मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के अंतर्गत भुगतान को निर्देशित करने के लिये निरीक्षक की शक्तियाँ क्या हैं?

  • अधिनियम की धारा 17 निरीक्षक को भुगतान करने की शक्ति से संबंधित है।
  • कोई भी महिला दावा कर सकती है:
    • मातृत्व लाभ या इस अधिनियम के अंतर्गत अधिकृत कोई अन्य राशि।
    • धारा 7 के अंतर्गत देय भुगतान का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुचित तरीके से रोक दिया गया है।
    • अधिनियम के अनुसार कार्य से अनुपस्थित रहने के कारण या उसके दौरान नियोक्ता द्वारा उसे पद्च्युत या सेवा से हटाये जाने पर वह निरीक्षक को शिकायत कर सकती है।
  • निरीक्षक:
    • वह अपनी इच्छा से या शिकायत प्राप्त होने पर जाँच कर सकता है।
    • यदि वह संतुष्ट हो कि:
      • भुगतान दोषपूर्ण तरीके से रोका गया है, अपने आदेश के अनुसार भुगतान का निर्देश दे सकता है।
      • उसे अधिनियम के अनुसार कार्य से अनुपस्थित रहने के दौरान या उसके कारण अवकाश दे दिया गया है या पद्च्युत कर दिया गया है, परिस्थितियों के आधार पर न्यायोचित एवं उचित आदेश पारित कर सकता है।
  • निरीक्षक के निर्णय से व्यथित कोई भी व्यक्ति:
    • निर्णय की सूचना की तिथि से तीस दिन के अंदर निर्धारित प्राधिकारी को अपील की जा सकेगी।
  • निर्णय:
    • निर्धारित प्राधिकारी, जहाँ अपील प्रस्तुत की गई हो।
    • निरीक्षक, जहाँ कोई अपील प्रस्तुत नहीं की गई हो, अंतिम होगा।
  • इस धारा के अंतर्गत देय कोई भी राशि:
    • निरीक्षक द्वारा उस राशि के लिये जारी प्रमाण-पत्र पर कलेक्टर द्वारा भू-राजस्व के बकाया के रूप में वसूली योग्य होगी।