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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

बलात्संग से संबंधित विधियाँ

 13-Jun-2024

प्रदुम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 

"यह अच्छी तरह से स्थापित है कि बलात्संग का अपराध बनाने के लिये, वीर्य के साथ-साथ लिंग का पूर्ण प्रवेशन और हाइमन परत का टूटना आवश्यक नहीं है”।

न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान 

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान की पीठ ने कहा कि यह सर्वविदित है कि बलात्संग का अपराध सिद्ध करने के लिये लिंग में पूर्ण प्रवेशन, वीर्य का स्खलन एवं योनिद्वार के हाइमन परत का टूटना आवश्यक नहीं है।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदुम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में यह टिप्पणी की।

प्रदुम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • यह आवेदन जेल में बंद आवेदक द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराओं 376AB एवं 506 के साथ-साथ यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धाराओं 5/6 के अधीन उसके विरुद्ध दर्ज मामले के लिये दायर किया गया था। 
  • अभियोजन पक्ष के अनुसार, आवेदक, जो शिकायतकर्त्ता का पड़ोसी है, ने शाम को लगभग 9:30 बजे शिकायतकर्त्ता की 10 वर्षीय बेटी (प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनुसार) या 12 वर्षीय बेटी (शैक्षिक दस्तावेज़ों के अनुसार) को यह कहकर बुलाया कि उसकी माँ उसे बुला रही है।
  • कुछ समय बाद, जब शिकायतकर्त्ता एवं उसका पति अपनी बेटी की तलाश में गए, तो उन्होंने आवेदक एवं बेटी को बिना कपड़ों के पाया। 
  • बाद में बेटी ने प्रकटन किया कि आवेदक ने उसके साथ मुख मैथुन किया था तथा मुँह में अपने लिंग का प्रवेशन किया था।
  • आवेदक ने उच्च न्यायालय में जमानत याचिका दायर की, जिसमें दावा किया गया कि उस पर  मिथ्या आरोप लगाकर फँसाया गया है तथा कोई स्वतंत्र प्रत्यक्षदर्शी या अंतिम बार देखा गया साक्ष्य नहीं है। 
  • अभियोजन पक्ष ने अपराध की जघन्य प्रकृति का हवाला देते हुए ज़मानत याचिका का विरोध किया। मेडिकल रिपोर्ट ने भी अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन किया, जिसमें संकेत दिया गया कि पीड़िता के योनि की हाइमन परत फटी हुई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने विधिक स्थिति पर विस्तार से चर्चा की और माना कि आंशिक प्रवेश या प्रवेश का प्रयास भी बलात्संग का गठन करने के लिये पर्याप्त है। 
  • इसने पीड़िता के बयानों, चिकित्सा साक्ष्य एवं उच्चतम न्यायालय के उदाहरणों पर विश्वास करते हुए कहा कि प्रथम दृष्टया, आवेदक के विरुद्ध बलात्संग का अपराध बनता है तथा पीड़िता की अकेली गवाही दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त हो सकती है यदि यह विश्वसनीय एवं तर्कसंगत है।
  • न्यायालय ने कहा कि "आमतौर पर योनि की हाइमन परत फटता नहीं है, लेकिन यह लाल हो सकता है तथा इसमें सूजन एवं लेबिया में चोट लगने के साथ-साथ इन्फेक्शन भी हो सकता है। यदि बहुत अधिक हिंसा का प्रयोग किया जाता है, तो अक्सर फोरचेट एवं पेरिनियम में घाव हो जाता है"। 
  • उच्च न्यायालय ने ज़मानत आवेदन को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि पीड़िता के बयान एवं मेडिकल जाँच रिपोर्ट ने आवेदक के विरुद्ध आरोपों का समर्थन किया है।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट को आदेश प्राप्त होने की तिथि से 9 महीने के अंदर अभियोजन को समाप्त करने का निर्देश दिया तथा यदि आवश्यक हो तो छोटी तिथियाँ या दिन-प्रतिदिन का विचारण करके दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 309 का सहायता लिया।
    • उच्च न्यायालय ने आवेदक को यह भी छूट दी कि यदि निर्धारित समय के अंदर विचारण पूर्ण नहीं होता है तो वह एक अन्य ज़मानत याचिका दायर कर सकता है।

बलात्संग की परिभाषा क्या है?

  • IPC की धारा 375 एवं भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 63 के अधीन एक व्यक्ति को बलात्संग कारित करने वाला कहा जाता है यदि वह-
    • किसी महिला की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में अपना लिंग प्रवेशन कराता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये कहता है, या 
    • किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में कोई वस्तु या शरीर का कोई अंग डालता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये कहता है, या 
    • किसी महिला के शरीर के किसी अंग को इस तरह से छेड़ता है कि योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या शरीर के किसी अंग में प्रवेश हो जाए, या 
    • किसी महिला की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर अपना मुँह लगाता है।

बलात्संग के अपराध के सात विवरण क्या हैं?

  • पहला:
    • इसमें ऐसे मामले शामिल हैं जहाँ यौन क्रिया के लिये महिला की सहमति नहीं थी तथा यह उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक किया गया था।
  • दूसरा:
    • इसमें वे स्थितियाँ भी शामिल हैं जहाँ यौन क्रिया के लिये महिला की ओर से कोई सक्रिय सहमति नहीं दी गई थी।
  • तीसरा:
    • यदि महिला या उसके किसी हितधारक को मृत्यु, चोट या क्षति का भय उत्पन्न करके सहमति प्राप्त की गई हो, तो इससे महिला की सहमति अमान्य हो जाती है।
  • चौथा:
    • इसमें छद्मवेश द्वारा बलात्संग को भी शामिल किया गया है, जहाँ महिला ने यह मानकर सहमति दी थी कि वह व्यक्ति उसका पति है।
  • पाँचवाँ:
    • इसमें वे मामले शामिल हैं जहाँ महिला की सहमति उस समय प्राप्त की गई जब वह अस्वस्थ, मानसिक रूप से अक्षम या नशे में थी तथा अपने कार्यों की प्रकृति को समझने में असमर्थ थी।
  • छठवाँ:
    • इसके तहत 18 वर्ष से कम आयु की महिला के साथ कोई भी यौन कृत्य वैधानिक बलात्संग माना जाएगा, भले ही उसने इसके लिये सहमति दी हो।
  • सातवाँ:
    • इसमें ऐसी स्थितियाँ शामिल हैं जहाँ महिला सहमति देने में असमर्थ थी या अपनी असहमति व्यक्त कर रही थी, जैसे कि अचेत होना।

बलात्संग से संबंधित अपराधों के लिये दण्ड क्या हैं?

  • बलात्संग की सज़ा:
    •  IPC की धारा 376 (1) एवं  BNS की धारा 64 (1)। 
    • कम-से-कम 10 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, एवं अर्थदण्ड।
  • गंभीर बलात्संग:
    • IPC की धारा 376 (2) एवं  BNS की धारा 64 (2)। 
    • कम-से-कम 10 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, जिसका अर्थ उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास होगा, तथा अर्थदण्ड भी देना होगा।
  • सोलह वर्ष से कम उम्र की महिलाओं के साथ गंभीर बलात्संग:
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (3) एवं  BNS की धारा 65
    • कठोर कारावास जिसकी अवधि 20 वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जो आजीवन कारावास तक हो सकती है, जिसका अर्थ उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवनकाल के लिये कारावास होगा और अर्थदण्ड भी देना होगा।
  • बलात्संग के कारण मृत्यु/स्थायी निष्क्रिय अवस्था:
    • IPC की धारा 376A एवं  BNS की धारा 66 
    • कम-से-कम 20 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे मृत्यु दण्ड/आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
  • 12 वर्ष से कम उम्र की लड़की से बलात्संग:
    •  IPC की धारा 376AB एवं  BNS की धारा 65 (2) 
    • कम-से-कम 20 वर्ष का कठोर कारावास, जिसे आजीवन कारावास या मृत्यु दण्ड तक बढ़ाया जा सकता है।
  • न्यायिक पृथक्करण के दौरान पति द्वारा बलात्संग:
    •  IPC की धारा 376B एवं BNS की धारा 67 
    • 2-7 वर्ष का कारावास एवं अर्थदण्ड।
  • अधिकार प्राप्त व्यक्ति द्वारा यौन संबंध:
    • IPC की धारा 376C एवं  BNS की धारा 68 
    • किसी भी प्रकार का कठोर कारावास, जिसकी अवधि पाँच वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जो दस वर्ष तक बढ़ सकती है और अर्थदण्ड भी देना होगा।
  • सामूहिक बलात्संग:
    • IPC की धारा 376D एवं  BNS की धारा 70 
    • कम-से-कम 20 वर्ष का कठोर कारावास, आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, जिसका अर्थ है उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास एवं पीड़िता के चिकित्सा व्यय को पूरा करने के लिये अर्थदण्ड।
  • सोलह वर्ष से कम आयु की महिला से सामूहिक बलात्संग के लिये सज़ा:
    •  IPC की धारा 376DA 
    • आजीवन कारावास, जिसका अर्थ है उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास, और अर्थदण्ड, या मृत्युदण्ड।
    •  पीड़िता के चिकित्सा व्यय को पूरा करने के लिये अर्थदण्ड।
  • बारह वर्ष से कम आयु की महिला के साथ सामूहिक बलात्संग की सज़ा:
    •  IPC की धारा 376DB 
    • आजीवन कारावास, जिसका अर्थ है उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास, और अर्थदण्ड, या मृत्यु दण्ड     
    • पीड़िता के चिकित्सा व्यय को पूरा करने के लिये अर्थदण्ड।
  • बार-बार अपराध करने वाले:
    • IPC की धारा 376E एवं BNS की धारा 71 
    • आजीवन कारावास या मृत्यु दण्ड।

बलात्संग से संबंधी विधियों में प्रमुख अनुशंसाएँ एवं संशोधन क्या हैं?

  • 84वीं विधि आयोग रिपोर्ट (1980):
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत बलात्संग की परिभाषा में 'सहमति' के स्थान पर 'स्वतंत्र एवं स्वैच्छिक सहमति' शब्द रखने की अनुशंसा की गई।
    • पीड़ित या अन्य को चोट पहुँचाने की धमकी को भी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत सहमति को निरस्त करने के रूप में जोड़ने का सुझाव दिया गया।
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत सहमति की आयु बढ़ाकर 18 वर्ष करने की अनुशंसा की गई।
    • प्राधिकार प्राप्त व्यक्तियों द्वारा अभिरक्षा में बलात्संग को समाहित करने के लिये नई धाराएँ 376C, D, E प्रस्तावित की गईं।
  • आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 1983:
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376(2) के अंतर्गत उच्च दण्ड के साथ ‘गंभीर बलात्संग’ की अवधारणा प्रस्तुत की गई।
    • धारा 376B, 376C, 376D IPC के अधीन कर्मचारियों द्वारा अभिरक्षा में बलात्कार को समाहित किया गया।
    • धारा 114A ,IEA के अंतर्गत अभिरक्षा/सामूहिक बलात्कार के मामलों में साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार अभियुक्तों पर स्थानांतरित कर दिया गया।
  • 172वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2000) से:
    • बलात्कार विधि को लिंग-तटस्थ बनाने की अनुशंसा की गई।
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत बलात्कार की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें लिंग के अलावा अन्य प्रवेश को भी शामिल करने का सुझाव दिया गया।
    • धारा 375 के अपवाद के तहत वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को बरकरार रखने तथा पत्नी की आयु बढ़ाकर 16 वर्ष करने का प्रस्ताव किया गया।
    • 'अवैध यौन संपर्क' के लिये नई धारा 376E, IPC की अनुशंसा की गई।
    • धारा 160, CrPC के तहत महिला अधिकारियों द्वारा पीड़ितों के बयान दर्ज करने के लिये सुझाए गए प्रावधान।
  • न्यायमूर्ति वर्मा समिति (2012):
    • योनि, मुख या गुदा प्रवेश के अतिरिक्त सभी गैर-सहमति वाले प्रवेश संबंधी कृत्यों को बलात्कार के रूप में शामिल करें।
    • वैवाहिक बलात्कार से संबंधित अपवाद को हटा दिया जाए तथा इसे अन्य बलात्कारों की तरह ही माना जाए।
    • पीड़ित और आरोपी के बीच संबंध सहमति के निर्धारण को प्रभावित नहीं करना चाहिये।
    • बलात्कार के लिये आजीवन कारावास, मृत्युदण्ड का विरोध।
    • बलात्कार पीड़ितों के मूल्यांकन के लिये टू -फिंगर परीक्षण बंद किया जाए।
    • FIR  दर्ज होने पर तत्काल विधिक सहायता प्रदान करने के लिये एक सेल की स्थापना करें।
    • यौन अपराधों को उचित एवं संवेदनशील तरीके से निपटाने के लिये पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित करें।
  • आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013:
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत बलात्कार की परिभाषा का विस्तार किया गया।
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत सहमति की आयु बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई।
    • धारा 376A(बलात्कार के कारण निष्क्रिय अवस्था/मृत्यु), 376 D(सामूहिक बलात्कार), 376 E (दोहराए गए अपराधी) को शामिल किया गया।
    • बंद कमरे में सुनवाई के लिये CrPC की धारा 327 के अंतर्गत प्रावधान जोड़ा गया।
    • धारा 53A IEA लागू की गई, जिससे पिछला यौन इतिहास अप्रासंगिक हो गया।
  • आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम, 2018:
    • 12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार के लिये मृत्युदंड का प्रावधान किया गया (धारा  376AB, 376DB, IPC)।
    • विभिन्न बलात्कार अपराधों के लिये न्यूनतम सज़ा में वृद्धि (धारा  376, 376AB, 376DA, IPC)

बलात्कार के ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ कौन-सी हैं?

  • तुकाराम और गणपत बनाम महाराष्ट्र राज्य (1972):
    • इस मामले को मथुरा बलात्कार कांड के नाम से भी जाना जाता है।
    • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी के पक्ष में निर्णय सुनाया, जिसमें कहा गया कि मथुरा की सहमति स्वैच्छिक थी, क्योंकि वह यौन संबंध बनाने की आदी थी।
    • हालाँकि, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय को अस्वीकार कर दिया और आरोपी को कारावास की सज़ा सुनाई। 
    • बाद में उच्चतम न्यायालय ने आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया, जिससे लोगों में आक्रोश फैल गया। इस मामले ने बलात्कार विधियों में सुधार की आवश्यकता को प्रकट किया।
  • पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1984): 
    • उच्चतम न्यायालय ने निचली न्यायालयों को सलाह दी कि वे किसी पीड़िता को चरित्रहीन न कहें, भले ही उसे यौन संबंधों की आदत हो।
    • निर्णय में बलात्कार के कृत्य पर ध्यान केंद्रीय करने की आवश्यकता पर बल दिया गया, न कि पीड़िता के चरित्र पर।
  • दिल्ली घरेलू कामकाजी महिलाएँ बनाम भारत संघ (1995): 
    • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिये: 
      • यौन उत्पीड़न मामलों के शिकायतकर्त्ताओं को विधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करना।
      • पुलिस स्टेशन पर अधिवक्ता की विधिक सहायता और मार्गदर्शन सुनिश्चित करना।
      • बलात्संग के मामलों में पीड़िता के नाम को गुप्त बनाए रखना।
      • आपराधिक क्षति क्षतिपूर्ति बोर्ड की स्थापना करना।
      • बलात्संग पीड़ितों को अंतरिम क्षतिपूर्ति प्रदान करना।
      • बलात्संग के कारण यदि पीड़िता गर्भवती हो जाए तो उसे चिकित्सा सहायता प्रदान करना तथा गर्भपात की अनुमति देना।
  • विशाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997)
    • विधायी ढाँचे के अभाव में, उच्चतम न्यायालय ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
  • विजय जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2013):
    • इस मामले को शक्ति मिल्स बलात्संग कांड के नाम से भी जाना जाता है।
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 376E को संवैधानिक रूप से वैध घोषित किया।
  • मुकेश एवं अन्य बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य (2017):
    • इस मामले को निर्भया बलात्संग कांड के नाम से जाना जाता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को दिये गए मृत्युदण्ड को बरकरार रखा और कहा कि यह मामला “दुर्लभतम” श्रेणी में आता है।
    • इस घटना के कारण 2013 में आपराधिक विधि संशोधन लागू किया गया।

आपराधिक कानून

विवेचना में असहयोग

 13-Jun-2024

XYZ  बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

“यौन अपराध के मामले में आरोपी की ओर से चिकित्सीय परीक्षण कराने से इनकार करना विवेचना में असहयोग करने के समान होगा”।

न्यायमूर्ति पी. वी. संजय कुमार और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने  XYZ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले में कहा कि यौन अपराध के मामले में आरोपी की ओर से चिकित्सीय परीक्षण कराने से इनकार करना विवेचना में असहयोग करने के समान होगा।

XYZ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में प्रतिवादी संख्या 2 पर 9 वर्षीय लड़की (पीड़िता) के यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया है।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने विवेचना के उद्देश्य से किया जाने वाला चिकित्सीय परीक्षण कराने से इनकार कर दिया।
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित किया, जिसके अधीन प्रतिवादी संख्या 2 को, विवेचना के उद्देश्य से विवेचना अधिकारी के साथ सहयोग करना आवश्यक था और इसके अधीन, प्रतिवादी-पुलिस को उसके विरुद्ध कोई भी बलपूर्वक कार्यवाही नहीं करने का निर्देश दिया गया था।
  • इसके अनुसरण में, विवेचना अधिकारी ने 17 मई 2024 को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 41-A के अधीन एक अधिसूचना जारी की, जिसमें प्रतिवादी संख्या 2 को मामले में विवेचना के उद्देश्य से चिकित्सा परीक्षण से कराने की आवश्यकता थी।
  • उसे 18 मई 2024 को पुलिस स्टेशन में उपस्थित होने का निर्देश दिया गया।
  • उन्होंने उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर कर कहा कि विवेचना अधिकारी उन्हें धमकी दे रहे हैं कि अगर वह उसी अस्पताल में चिकित्सा परीक्षण के लिये नहीं गया जहाँ पीड़िता का चिकित्सा परीक्षण किया गया था तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इसके उपरांत उच्च न्यायालय ने उस अधिसूचना पर रोक लगा दी जिसमें आरोपी को चिकित्सा परीक्षण कराने के लिये कहा गया था।
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा पारित अंतिम निर्णय और आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता (पीड़िता की माँ) ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
  • याचिकाकर्त्ता की ओर से उपस्थित अधिवक्ता ने तर्क दिया कि उक्त आदेश में चिकित्सा परीक्षण रिपोर्ट को अनदेखा कर दिया गया, जिसमें यौन संबंध होने का संकेत था और पीड़िता के धारा 164 CrPC के अधीन दिये गए बयान को अनदेखा कर दिया गया, जिससे आरोपी को दोषी ठहराया गया।
  • उच्चतम न्यायालय ने प्रतिवादी संख्या 2 को चिकित्सा परीक्षण के लिये विवेचना अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति पी. वी. संजय कुमार और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि किसी भी स्थिति में, उनका यह स्पष्ट बयान कि वह चिकित्सा परीक्षण नहीं कराना चाहते, यह दर्शाता है कि वह विवेचना में सहयोग करने के इच्छुक नहीं हैं।
  • आगे कहा गया कि प्रतिवादी संख्या 2 को CrPC की धारा 41-A का अनुपालन करना होगा और विवेचना अधिकारी के निर्देशानुसार खुद को चिकित्सा परीक्षण के लिये प्रस्तुत करना होगा। वह बिना किसी ठोस आधार के उस चिकित्सा सुविधा के विषय में आशंका व्यक्त नहीं कर सकता है जिसके लिये उसे भेजा जा रहा है।

चिकित्सा परीक्षण के संबंध में प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

परिचय: 

यौन उत्पीड़न के आरोपियों और पीड़ितों की चिकित्सा परीक्षण को भारतीय विधिक प्रणाली में वैधानिक मान्यता प्राप्त है। 

चिकित्सा परीक्षण घटना के विषय में सही तथ्य जानने के लिये  किया जाता है। इससे पुलिस अधिकारियों को ठोस साक्ष्य मिल जाते हैं, जिससे उन्हें विवेचना प्रक्रिया में तीव्रता लाने में सहायता मिलती है।

अभियुक्त की चिकित्सा जाँच: 

CrPC की धारा 53: 

यह धारा पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर चिकित्सक द्वारा अभियुक्त के परीक्षण से संबंधित है। यह कहती है कि- 

(1) जब किसी व्यक्ति को ऐसी प्रकृति का अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और यह कहा जाता है कि अपराध ऐसी परिस्थितियों में किया गया है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि उसके शरीर की परीक्षा से अपराध किये जाने के संबंध में साक्ष्य प्राप्त होगा, तब उपनिरीक्षक की पद से अन्यून पद के पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर कार्य करने वाले किसी पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी तथा और उसकी सहायता में और उसके निर्देश के अधीन सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले किसी व्यक्ति के लिये, गिरफ्तार किये गए व्यक्ति की ऐसी परीक्षा करना, जो ऐसे तथ्यों का पता लगाने के लिये उचित रूप से आवश्यक हो एवं जो ऐसा साक्ष्य प्राप्त कर सकें और ऐसा बल प्रयोग करना, जो उस प्रयोजन के लिये उचित रूप से आवश्यक हो, वैध होगा।

(2) जब कभी किसी महिला के शरीर का परीक्षण इस धारा के अधीन किया जाना हो तो यह परीक्षण केवल महिला पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा या उसके पर्यवेक्षण में की जाएगी।

स्पष्टीकरण— इस धारा में तथा धारा 53A और 54 में— 

(a)"परीक्षण" में रक्त, रक्त के धब्बे, वीर्य, ​​यौन अपराधों के मामले में स्वाब, थूक और पसीना, बालों के नमूने तथा उंगली के नाखूनों की कतरनों की जाँच शामिल होगी, जिसमें डीएनए प्रोफाइलिंग सहित आधुनिक एवं वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग किया जाएगा और ऐसे अन्य परीक्षण किये जाएंगे जिन्हें पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी किसी विशेष मामले में आवश्यक समझे।

(b) "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" से तात्पर्य ऐसे चिकित्सा व्यवसायी से है, जिसके पास भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 (1956 का 102) की धारा 2 के खंड (h) में परिभाषित कोई चिकित्सा योग्यता है और जिसका नाम राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज है।

CrPC की धारा 53A: 

यह धारा बलात्संग के आरोपी व्यक्ति की चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि—

(1) जब किसी व्यक्ति को बलात्संग या बलात्संग का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि उसके शरीर की परीक्षा से ऐसे अपराध के किये जाने के बारे में साक्ष्य मिलेगा, तो शासन या स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाए जा रहे चिकित्सालय में नियोजित पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी के द्वारा और जहाँ अपराध किया गया है, उस स्थान से सोलह किलोमीटर की परिधि के भीतर ऐसे चिकित्सा व्यवसायी की अनुपस्थिति में, उप-निरीक्षक के पद से अन्यून पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर कार्य करने वाले किसी अन्य पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा और उसकी सहायता में तथा उसके निर्देश के अधीन सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति की ऐसी परीक्षा करना एवं ऐसा बल प्रयोग करना वैध होगा, जो उस प्रयोजन के लिये उचित रूप से आवश्यक हो।

(2) ऐसी परीक्षा आयोजित करने वाला पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी बिना किसी देरी के ऐसे व्यक्ति का परीक्षण करेगा और उस परीक्षण की एक रिपोर्ट तैयार करेगा जिसमें निम्नलिखित विवरण दिये जाएंगे, अर्थात्— 

(i) अभियुक्त का नाम और पता तथा उस व्यक्ति का नाम जिसके द्वारा उस अभियुक्त को लाया गया था।

(ii) अभियुक्त की आयु।

(iii) अभियुक्त के शरीर पर चोट के निशान, यदि कोई हों।

(iv) डीएनए प्रोफाइलिंग के लिये अभियुक्त के शरीर से ली गई सामग्री का विवरण।

(v) अन्य सामग्री विवरण उचित विस्तार में। 

(3) रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष के कारणों का स्पष्ट उल्लेख किया जाएगा।

(4) रिपोर्ट में परीक्षण के प्रारंभ और समाप्ति का सही समय भी अंकित किया जाएगा।

(5) पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी बिना विलंब के रिपोर्ट को विवेचना अधिकारी को भेजेगा, जो उसे धारा 173 में निर्दिष्ट मजिस्ट्रेट को उस धारा की उपधारा (5) के खंड (a) में निर्दिष्ट दस्तावेज़ों के भाग के रूप में भेजेगा।

गिरफ्तार व्यक्ति का चिकित्सा परीक्षण:

CrPC की धारा 54: 

यह धारा चिकित्सा अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति के चिकित्सा परीक्षण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि—

(1) जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो गिरफ्तारी के तुरंत बाद उसका  चिकित्सा परीक्षण केंद्र या राज्य सरकार की सेवा में लगे चिकित्सा अधिकारी द्वारा की जाएगी और यदि चिकित्सा अधिकारी उपलब्ध नहीं है, तो पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा की जाएगी परंतु जहाँ गिरफ्तार व्यक्ति महिला है, वहाँ उसके शरीर का परीक्षण केवल महिला चिकित्सा अधिकारी द्वारा या उसकी देखरेख में की जाएगी तथा यदि महिला चिकित्सा अधिकारी उपलब्ध नहीं है, तो महिला पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा की जाएगी।

(2) गिरफ्तार व्यक्ति का इस प्रकार परीक्षण करने वाला चिकित्सा अधिकारी या पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी ऐसे  परीक्षण का अभिलेख तैयार करेगा, जिसमें गिरफ्तार व्यक्ति पर लगी किसी चोट या हिंसा के निशान का तथा उस समय का उल्लेख होगा जब ऐसी चोट या निशान पहुँचाए गए होंगे।

(3) जहाँ उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है, वहाँ ऐसे परीक्षण के अभिलेख की एक प्रति, यथास्थिति, चिकित्सा अधिकारी या रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति को या ऐसे गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा नामित व्यक्ति को दी जाएगी।

बलात्संग पीड़िता का चिकित्सा परीक्षण: 

CrPC की धारा 164A: 

यह धारा बलात्संग पीड़िता के चिकित्सा परीक्षण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि—

(1) उस स्थिति में जहाँ किसी महिला के साथ बलात्संग करने या बलात्संग करने का प्रयास करने का अपराध विवेचनाधीन है, उस महिला के शरीर की, जिसके साथ बलात्संग होने का अभिकथन किया गया है या बलात्संग करने का प्रयास किया गया है, किसी चिकित्सा विशेषज्ञ द्वारा परीक्षण कराने का प्रस्ताव है, वहाँ  ऐसा परीक्षण शासन या स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाए जा रहे चिकित्सालय में नियोजित पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा की जाएगा तथा ऐसे चिकित्सा व्यवसायी की अनुपस्थिति में ऐसी महिला की या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने के लिये सक्षम व्यक्ति की सहमति से किसी अन्य पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा की जाएगा और ऐसी महिला को ऐसे अपराध के किये जाने से संबंधित सूचना प्राप्त होने के समय से चौबीस घंटे के भीतर ऐसे पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी के पास भेजा जाएगा।

(2) पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी, जिसके पास ऐसी महिला भेजी जाती है, बिना देरी किये उसके शरीर का परीक्षण करेगा और निम्नलिखित विवरण देते हुए उस परीक्षण की रिपोर्ट तैयार करेगा, अर्थात्— 

(i) महिला का नाम और पता तथा उस व्यक्ति का नाम जिसके द्वारा उसे लाया गया था।

(ii) महिला की उम्र।

(iii) डीएनए प्रोफाइलिंग के लिये महिला के शरीर से ली गई सामग्री का विवरण।

(iv) महिला के शरीर पर चोट के निशान, यदि कोई हों।

(v) महिला की सामान्य मानसिक स्थिति।

(vi) अन्य सामग्री विवरण उचित विस्तार में।

(3) रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष के कारणों का स्पष्ट उल्लेख किया जाएगा।

(4) रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह दर्ज किया जाएगा कि ऐसे परीक्षण के लिये महिला या उसकी ओर से सहमति देने वाले व्यक्ति की सहमति प्राप्त कर ली गई है। 

(5) रिपोर्ट में परीक्षण के प्रारंभ और समाप्ति का सही समय भी अंकित किया जाएगा।

(6) पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी बिना विलंब के रिपोर्ट को विवेचना अधिकारी को भेजेगा जो उसे धारा 173 में निर्दिष्ट मजिस्ट्रेट को उस धारा की उपधारा (5) के खंड (a) में निर्दिष्ट दस्तावेज़ों के भाग के रूप में भेजेगा।

(7) इस धारा की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि महिला की या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने में सक्षम किसी व्यक्ति की सहमति के बिना कोई परीक्षा वैध है।

पीड़ितों का उपचार: 

  • CrPC की धारा 357C पीड़ितों के उपचार से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि सभी चिकित्सालय, सार्वजनिक या निजी, चाहे वे केंद्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय निकाय या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे हों, भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 326A, 376, 4 [376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376DB या धारा 376E के अधीन आने वाले किसी भी अपराध के पीड़ितों को तुरंत प्राथमिक उपचार या चिकित्सा उपचार बिना किसी शुल्क के प्रदान करेंगे तथा तत्काल ऐसी घटना की सूचना पुलिस को देंगे।

CrPC की धारा 41-A क्या है?

यह धारा पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थिति की सूचना से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि- 

(1) पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ धारा 41 की उपधारा (1) के उपबंधों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, अधिसूचना जारी करके उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, उसके समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किया जाए, उपस्थित होने का निर्देश देगा।

(2) जहाँ  किसी व्यक्ति को ऐसी अधिसूचना जारी की जाती है, वहाँ उस व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह अधिसूचना की शर्तों का पालन करे।

(3) जहाँ ऐसा व्यक्ति अधिसूचना का अनुपालन करता है और अनुपालन करना जारी रखता है, उसे अधिसूचना में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक कि, अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये।

(4) जहाँ ऐसा व्यक्ति किसी भी समय अधिसूचना की शर्तों का पालन करने में असफल रहता है या अपनी पहचान बताने के लिये तैयार नहीं होता है, वहाँ पुलिस अधिकारी, इस संबंध में सक्षम न्यायालय द्वारा पारित आदेशों के अधीन रहते हुए, अधिसूचना में उल्लिखित अपराध के लिये उसे गिरफ्तार कर सकता है।


सिविल कानून

सिविल विधि के अंतर्गत रेस ज्यूडिकाटा

 13-Jun-2024

NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य

“लोक हित से जुड़े मामलों में रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत लचीला हो सकता है”।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता एवं उज्ज्वल भुयान

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?   

उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य के मामले में दिल्ली सरकार के पक्ष में निर्णय दिया था, जिसमें कहा गया था कि जहाँ लोक हित दाँव पर लगा हो, वहाँ रेस  ज्यूडिकाटा का सिद्धांत सख्ती से लागू नहीं हो सकता।

  • न्यायालय ने ऐसे मामलों में लचीले दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया तथा व्यक्तिगत विवादों से परे उनके व्यापक निहितार्थों को मान्यता दी। 
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की पीठ द्वारा की गई यह टिप्पणी विधिक कार्यवाही में जनहित पर विचार करने के महत्त्व को उजागर करती है।

NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के अंतर्गत वर्ष 1957 से 2006 के मध्य दिल्ली सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारंभ की गई थी। 
  • भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 ने 1894 के अधिनियम को प्रतिस्थापित किया, जिसमें धारा 24 को शामिल किया गया, जिसके अनुसार भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही कुछ शर्तों के अंतर्गत समाप्त मानी गई। 
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुणे नगर निगम जैसे निर्णयों पर विश्वास करते हुए कुछ अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया।
  • दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (DMRC) एवं दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) सहित दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने इन निर्णयों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। 
  • वर्ष 2020 में, इंदौर विकास प्राधिकरण के निर्णय ने धारा 24 के अंतर्गत होने वाली चूक की शर्तों को स्पष्ट किया। 
  • दिल्ली सरकार ने नई व्याख्या के आधार पर उच्च न्यायालय के निर्णयों पर पुनर्विचार की मांग की।
  • उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार के लिये अनुमति दे दी, जिसमें मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP मामले की सिविल अपील मुख्य मामला थी। 
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 की धारा 24(2) के आधार पर अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया था। 
  • इस निर्णय के विरुद्ध DDA की अपील को उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2016 में खारिज कर दिया था।
  • GNCTD ने इंदौर विकास प्राधिकरण के निर्णय के कारण पुनर्विचार की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की। 
  • मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP ने पिछले आदेशों के विलय एवं GNCTD की पिछली मुकदमेबाज़ी में भागीदारी का हवाला देते हुए SLP की स्थिरता के विषय में प्रारंभिक आपत्ति उठाई। 
  • अपीलकर्त्ता-प्राधिकारियों ने तर्क दिया कि मनोहरलाल में निर्णय 1 जनवरी 2014 से पूर्वव्यापी रूप से लागू होता है, जिससे सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) में रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत के अंतर्गत पहले दौर में उच्चतम न्यायालय के आदेश अप्रभावी हो जाते हैं, क्योंकि विधि परिवर्तित हो गया था।
    • उन्होंने तर्क दिया कि उन्हें पहले दौर में केवल औपचारिक रूप से शामिल किया गया था तथा उनकी आवेदन की सुनवाई पर्याप्त रूप से नहीं की गई।
  • भूमि स्वामियों ने तर्क दिया कि रेस ज्यूडिकाटा लागू होता है, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि अधिग्रहण करने वाले अधिकारी, रिंग अथॉरिटीज़ सरकार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (GNCTD) एवं लाभार्थी (DDA, आदि) सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये भूमि अधिग्रहण में एक समान हित साझा करते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि पहले दौर में एक प्राधिकरण द्वारा दीवानी अपील को खारिज करना बाद के विचारण में दूसरे प्राधिकरण के विरुद्ध रेस ज्यूडिकाटा के रूप में कार्य करता है।
    • भूस्वामियों ने दावा किया कि जब एक पक्ष वाद संस्थित करता है, तो उसे सभी इच्छुक पक्षों की ओर से वाद संस्थित करने वाला माना जाता है।

 न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि मुकदमेबाज़ी के पहले दौर में लिया गया निर्णय दूसरे दौर पर रोक लगाने के  लिये न्यायिक निर्णय के रूप में कार्य नहीं कर सकता, विशेष रूप से उन स्थितियों पर विचार करते हुए जहाँ व्यापक लोक हित दाँव पर लगा हो।
    • इसने उल्लेख किया कि GNCTD एवं DDA के मध्य न तो उच्च न्यायालय के समक्ष एवं न ही उच्चतम न्यायालय के समक्ष कोई परस्पर विरोधी हित थे। 
    • पहले दौर में उनके मध्य कोई विवाद्यक विषय नहीं था।
  • जनहित की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, दिल्ली सरकार द्वारा दायर अधिकांश अपीलों को स्वीकार कर लिया गया तथा निर्देश जारी किये गए।
    • अन्य मामलों में अलग आदेश पारित किये गए।
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में, "न्यायालयों को अधिक लचीला रुख अपनाना चाहिये, क्योंकि कुछ मामले व्यक्तिगत विवादों से परे होते हैं तथा इनके दूरगामी जनहित निहितार्थ होते हैं”।

रेस ज्यूडिकाटा क्या है?

  • रेस ज्यूडिकाटा- रेस का अर्थ है 'मामला' एवं ज्यूडिकाटा का अर्थ है 'पहले से तय' इसलिये रेस  ज्यूडिकाटा का सीधा-सा अर्थ है- 'वह मामला जिसका निर्णय हो चुका है'।
  • यह सिद्धांत निम्नलिखित विधिक सूत्रों पर आधारित है:
    • इंटरेस्ट रिपब्लिके यूट सिट फिनिस लिटियम- यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाज़ी की एक सीमा होनी चाहिये।
    • नेमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट ईएडेम कॉसा- किसी को भी एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाएगा।
    • रेस जुडीकाटा प्रो वेरिटेट एसिपिटुर- एक न्यायिक निर्णय को बतौर युक्तियुक्त स्वीकार किया जाना चाहिये।
  • यह अवधारणा CPC की धारा 11 के अंतर्गत निहित है।

CPC की धारा 11 क्या है?

  • CPC की धारा 11- रेस ज्यूडिकाटा- कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद या मुद्दे पर विचारण नहीं करेगा जिसमें मामला प्रत्यक्ष एवं मूल रूप से उसी पक्षकारों के मध्य के पूर्व वाद में प्रत्यक्ष और मूल रूप से मामला रहा हो, या उन पक्षकारों के मध्य जिनके अंतर्गत वे या उनमें से कोई दावा करता है, जो उसी शीर्षक के अंतर्गत वाद संस्थित कर रहे हैं, ऐसे बाद के वाद या उस वाद पर विचारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में जिसमें ऐसे मामले को बाद में संस्थित किया गया हो तथा उस पर ऐसे न्यायालय द्वारा विचारण किया गया हो और अंतिम रूप से निर्णय दिया गया हो।
  • स्पष्टीकरण I - पूर्ववर्ती वाद से तात्पर्य ऐसे वाद से होगा जिसका निर्णय प्रश्नगत वाद से पहले हो चुका है, चाहे वह उससे पहले संस्थित किया गया हो या नहीं। 
  • स्पष्टीकरण II - इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी न्यायालय की सक्षमता का निर्धारण ऐसे न्यायालय के निर्णय से अपील के अधिकार के विषय में किसी उपबंध पर ध्यान दिये बिना किया जाएगा।
  • स्पष्टीकरण III - उपर्युक्त संदर्भित मामले को पूर्ववर्ती वाद में एक पक्ष द्वारा आरोपित किया जाना चाहिये तथा दूसरे पक्ष द्वारा स्पष्टतः या निहित रूप से अस्वीकार या स्वीकार किया जाना चाहिये। 
  • स्पष्टीकरण IV - कोई मामला जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में बचाव या अभियोजन का आधार बनाया जा सकता था तथा बनाया जाना चाहिये था, ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्यक विषय माना जाएगा।
  • स्पष्टीकरण V - वादपत्र में दावा किया गया कोई अनुतोष, जो डिक्री द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये अस्वीकार किया गया समझा जाएगा। 
  • स्पष्टीकरण VI - जहाँ व्यक्ति किसी सार्वजनिक अधिकार या अपने तथा दूसरों के लिये सामूहिक रूप से दावा किये गए निजी अधिकार के संबंध में सद्भावपूर्वक वाद संस्थित करते हैं, वहाँ ऐसे अधिकार में हितबद्ध सभी व्यक्ति, इस धारा के प्रयोजनों के लिये, ऐसे वाद संस्थित करने वाले व्यक्तियों के अधीन दावा करते समझे जाएंगे।
  • स्पष्टीकरण VII - इस धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही पर लागू होंगे तथा इस धारा में किसी वाद, मुद्दे या पूर्व वाद के प्रति निर्देशों का अर्थ क्रमशः डिक्री के निष्पादन के  लिये कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न एवं उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्व कार्यवाही के प्रति निर्देशों के रूप में लगाया जाएगा।
  • स्पष्टीकरण VII - इस धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही पर लागू होंगे तथा इस धारा में किसी वाद, मुद्दे या पूर्व वाद के प्रति निर्देशों का अर्थ क्रमशः डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न एवं उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्व कार्यवाही के प्रति निर्देशों के रूप में लगाया जाएगा।

इसमें कौन-से प्रासंगिक महत्त्वपूर्ण मामले निहित हैं?

  • पुणे नगर निगम एवं अन्य बनाम हरकचंद मिसरीमल सोलंकी एवं अन्य, (2014)
    • उच्चतम न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में कहा कि यदि 1894 के अधिनियम के अंतर्गत अधिग्रहित भूमि के लिये क्षतिपूर्ति भूमि स्वामी को नहीं दिया गया है या सक्षम न्यायालय में जमा नहीं किया गया है तथा राजकोष में नहीं रखा गया है, तो अधिग्रहण समाप्त माना जाएगा तथा भूमि स्वामियों को उच्च क्षतिपूर्ति का अधिकार देने वाले वर्ष 2013 के विधि के अंतर्गत आएगा।
  • इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल, (2020)
    • न्यायालय ने कहा कि भूमि स्वामी इस बात पर ज़ोर नहीं दे सकते कि 1 जनवरी, 2014 से नए भूमि अधिग्रहण विधि के लागू होने पर पुराने अधिनियम के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही जारी रखने के लिये राशि न्यायालय में जमा कराई जाए।