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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण

 28-Jun-2024

मुरली @ मुरलीधरन बनाम केरल राज्य

“मृतक को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करने के आरोपी का आशय सिद्ध करने वाले साक्ष्यों के अभाव में, याचिकाकर्त्ताओं पर वाद चलाना न्यायालय की विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है”।

न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस की पीठ ने कहा कि अभिलेखों में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे ज्ञात हो सके कि आरोपी का आशय मृतक को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करने का था।

  • केरल उच्च न्यायालय ने मुरली @ मुरलीधरन बनाम केरल राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

मुरली @ मुरलीधरन बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • मृतक ने 6 मार्च 2016 को दो सुसाइड नोट लिखने के बाद फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी, जिसमें उसने अपनी मृत्यु के लिये याचिकाकर्त्ताओं को उत्तरदायी बताया था।
  • दोनों सुसाइड नोटों में आरोप लगाया गया है कि याचिकाकर्त्ताओं ने मृतक व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई थी और जब पुलिस ने उन्हें जाँच के लिये बुलाया तो उन्होंने आत्महत्या कर ली।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत आवेदन दायर किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 306 आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का प्रावधान करती है और ‘दुष्प्रेरण’ शब्द को IPC की धारा 107 में परिभाषित किया गया है।
  • दुष्प्रेरण का अपराध तभी माना जाएगा जब अभियुक्त द्वारा आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया गया हो या उकसाया गया हो।
    • दुष्प्रेरण का यह कार्य आत्महत्या के समय के निकट ही होना चाहिये अर्थात् दोनों घटनाओं के समय में अधिक अंतर नही होना चाहिये।
  • वैध प्राधिकारी के समक्ष शिकायत दर्ज करना दुष्प्रेरण के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि शिकायत दर्ज करने का उद्देश्य आरोपी को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करना या उकसाना नहीं है।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 106 के अधीन आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करना क्या है?

  • BNS की धारा 106 में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो जो कोई भी ऐसी आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास, जो दस वर्ष तक बढ़ाई जा सकेगी, दण्डित किया जाएगा तथा अर्थदण्ड भी देना होगा।
  • यह प्रावधान भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 306 के रूप में था।

 आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण के ऐतिहासिक मामले कौन-से हैं?

  • नेताई दत्ता बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2005):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध तभी माना जाएगा जब अपराध के लिये दुष्प्रेरित किया गया हो।
    • दुष्प्रेरण के मापदंड भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107 (BNS की धारा 45) के अधीन परिभाषित किये गए हैं और उन्हें तद्नुसार ही समझा जाना चाहिये।
    • न्यायालय ने कहा कि रिकार्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे पता चले कि अपीलकर्त्ता ने जानबूझकर कोई कार्य या चूक की हो या जानबूझकर मृतक को दुष्प्रेरित किया हो या उसे उकसाया हो।
  • विकास चंद्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2024)
    • न्यायालय ने कहा कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का मामला तभी सामने आता है जब अभियुक्त ने संबंधित व्यक्ति को आत्महत्या के लिये बाध्य करने के आशय से काम किया हो।
  • महेंद्र सिंह एवं अन्य गायत्रीबाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1995)
    • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107 के अंतर्गत 'दुष्प्रेरण' शब्द की परिभाषा पर विचार किया तथा माना कि मृतक को परेशान करने का मात्र आरोप आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण के अपराध के लिये पर्याप्त नहीं होगा।

आपराधिक कानून

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 95

 28-Jun-2024

राधे यादव बनाम प्रभास यादव

“धारा 91 सभी दस्तावेज़ो पर लागू होती है, चाहे वे अधिकारों के निपटान का दावा करते हों या नहीं, जबकि धारा 92 उन दस्तावेज़ो पर लागू होती है जिन्हें अधिकारों के निपटान के रूप में वर्णित किया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति अरुण कुमार झा

स्रोत: पटना उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पटना उच्च न्यायालय ने राधे यादव बनाम प्रभास यादव के मामले में माना है कि जब बिक्री विलेख में प्लॉट संख्या प्रश्नगत हो तो दस्तावेज़ो की विषय-वस्तु को सत्यापित करने के लिये मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य है।

राधे यादव बनाम प्रभास यादव मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता ने भूमि के स्वामित्व की घोषणा और मौखिक साक्ष्य को स्वीकार करने के लिये वाद दायर किया था, क्योंकि दस्तावेज़ में प्लॉट संख्या का गलत वर्णन किया गया था और यह तथ्य की गलती थी।
  • मुंसिफ न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को वाद में शामिल भूमि की प्लॉट संख्या 659 और 654 की सीमा के आधार पर प्रतिवादी से प्रतिपरीक्षा करने की अनुमति नहीं दी।
  • यह कहा गया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 92 के अनुसार, दस्तावेज़ के विवरण को परिवर्तित करने के लिये मौखिक साक्ष्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • याचिकाकर्त्ता द्वारा एक पुनरीक्षण याचिका दायर की गई जिसे ट्रायल कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया।
  • बाद में, वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता ने पटना उच्च न्यायालय में एक सिविल विविध याचिका दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 91 और धारा 92 का अवलोकन किया और उसकी व्यापक व्याख्या की।
  • न्यायालय ने कहा कि IEA की धारा 91 और धारा 92 “सर्वोत्तम साक्ष्य नियम” पर आधारित हैं।
  • यह कहा गया कि जब श्रेष्ठ साक्ष्य उपलब्ध हो तो उसके विपरीत निम्न स्तर का साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 91 को लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 92 के अनुसार, धोखाधड़ी या गलती से प्रस्तुत किये गए दस्तावेज़ को अमान्य करने के लिये कोई भी तथ्य प्रस्तुत किया जा सकता है, बशर्ते कि गलती वास्तविक तथा आकस्मिक होनी चाहिये।
  • यह देखा गया कि धारा 91 और धारा 92 एक दूसरे की पूरक हैं।
  • यह माना गया कि विक्रय विलेख में किसी भी गलत विवरण को सिद्ध करने के लिये मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 95 क्या है?

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 95 में कहा गया है कि यदि दस्तावेज़ की शर्तें BSA की धारा 94 में सिद्ध हो गई हैं, तो कुछ शर्तों को छोड़कर कोई अन्य साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिये।
    • यह प्रावधान पहले IEA की धारा 92 के अंतर्गत आता था।
  • जब किसी ऐसे अनुबंध, अनुदान या संपत्ति के अन्य निपटान, या किसी मामले को, जिसे विधि द्वारा दस्तावेज़ के रूप में संक्षिप्त किया जाना अपेक्षित है, अंतिम खंड के अनुसार सिद्ध कर दिया गया है, तो किसी भी मौखिक समझौते या कथन का कोई साक्ष्य, पक्षकारों या उनके हित प्रतिनिधियों के बीच, उसके नियमों का खंडन करने, परिवर्तन करने, जोड़ने या घटाने के उद्देश्य से स्वीकार नहीं किया जाएगा;
  •  परंतुक (1): कोई भी तथ्य सिद्ध किया जा सकेगा जो किसी दस्तावेज़ को अवैध ठहराएगा, या जो किसी व्यक्ति को उससे संबंधित किसी डिक्री या आदेश का हकदार बनाएगा; जैसे धोखाधड़ी, धमकी, अवैधता, उचित निष्पादन का अभाव, किसी संविदाकारी पक्ष में क्षमता का अभाव, प्रतिफल का अभाव या असफलता, या तथ्य या विधि की त्रुटि;
  • परंतुक (2): किसी भी मामले में किसी भी अलग मौखिक समझौते का अस्तित्व, जिस पर कोई दस्तावेज़ सूचना नही देता है, और जो इसकी शर्तों के साथ असंगत नहीं है, सिद्ध किया जा सकता है। यह विचार करते समय कि यह परंतुक लागू होता है या नहीं, न्यायालय को दस्तावेज़ की औपचारिकता के स्तर पर ध्यान देना चाहिये;
  • परंतुक (3): किसी पृथक मौखिक करार का अस्तित्व, जो किसी ऐसी संविदा, अनुदान या संपत्ति के व्ययन के अधीन किसी बाध्यता के लिये पूर्व शर्त गठित करता है, सिद्ध किया जा सकेगा।
  • परंतुक (4): किसी ऐसी संविदा, अनुदान या संपत्ति के व्ययन को रद्द या संशोधित करने के लिये किसी सुस्पष्ट पश्चातवर्ती मौखिक करार का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकेगा, सिवाय उन मामलों के जिनमें ऐसी संविदा, अनुदान या संपत्ति का व्ययन विधि द्वारा लिखित रूप में होना अपेक्षित है, या दस्तावेजों के रजिस्ट्रीकरण के संबंध में प्रवृत्त विधि के अनुसार रजिस्ट्रीकृत किया गया है।
  • परंतुक (5): कोई प्रथा या रीति जिसके द्वारा किसी संविदा में स्पष्ट रूप से उल्लिखित न की गई घटनाएँ सामान्यतः उस भांति की संविदाओं से संलग्न कर दी जाती हैं, सिद्ध की जा सकेगी;
  • बशर्ते कि ऐसी घटना को संलग्न करना अनुबंध की स्पष्ट शर्तों के प्रतिकूल या असंगत न हो:
  • परंतुक (6): कोई भी तथ्य सिद्ध किया जा सकेगा जो यह दर्शाता हो कि दस्तावेज़ की भाषा उसमें विद्यमान तथ्यों से किस प्रकार संबंधित है।

ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • जहुरी साह एवं अन्य बनाम द्वारका प्रसाद झुनझुनवाला एवं अन्य (1967): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि दत्तक-ग्रहण विलेख की विषय-वस्तु को सिद्ध करने के लिये मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य है।
  • एम. डी. गोपालैया बनाम श्रीमती उषा प्रियदर्शिनी एवं अन्य (2002): इस मामले में यह माना गया कि जब किसी दस्तावेज़ में उल्लिखित अंकों में त्रुटि हो तो मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य है।
  • चिमनराम मोतीलाल बनाम दिवानचद गोविंदराम (1932): इस मामले में यह माना गया कि जब दस्तावेज़ की सामग्री में कोई गलती होती है तो उन्हें सिद्ध करने के लिये मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य है।

सांविधानिक विधि

विधि में अधिकार के प्रकार

 28-Jun-2024

गोकुल अभिमन्यु बनाम भारत संघ एवं अन्य 

“AIBE शुल्क कम करने की याचिका अस्वीकार करने के लिये, कोई विधिक अधिकार न होने और अत्यधिक शुल्क न होने का उदाहरण दिया गया”।

कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश आर. महादेवन और न्यायमूर्ति जी. आर. स्वामीनाथन 

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में गोकुल अभिमन्यु बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा आयोजित अखिल भारतीय बार परीक्षा (AIBE) के लिये आवेदन शुल्क में कमी की मांग करने वाली रिट याचिका को अस्वीकार कर दिया। पीठ ने निर्णय दिया कि अधिवक्ता अधिनियम के तहत नामांकन शुल्क के विपरीत, AIBE शुल्क निर्धारित करने वाला कोई वैधानिक प्रावधान मौजूद नहीं है।

  • न्यायालय ने पाया कि 3,500 रुपए (SC/ST अभ्यर्थियों के लिये 2,500 रुपए) का वर्तमान शुल्क बहुत अधिक नहीं है और इसमें हस्तक्षेप करने के लिये कोई आधार नहीं है।
  • पीठ ने स्पष्ट किया कि परमादेश रिट के लिये विधिक अधिकार का प्रदर्शन आवश्यक है, जो इस मामले में अनुपस्थित था।
  • यह निर्णय विधिक व्यवसाय में वैधानिक शुल्क और परीक्षा शुल्क के बीच अंतर को स्पष्ट करता है।

गोकुल अभिमन्यु बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • जनहित में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत एक रिट याचिका दायर की गई थी।
  • याचिका में द्वितीय प्रतिवादी (संभवतः भारतीय विधिज्ञ परिषद्) को अखिल भारतीय बार परीक्षा (AIBE) के लिये आवेदन शुल्क कम करने का निर्देश देने हेतु एक रिट जारी करने की मांग की गई है।
  • याचिकाकर्त्ता का मुख्य तर्क यह है कि AIBE आवेदन शुल्क की मात्रा कम की जानी चाहिये।
  • याचिकाकर्त्ता ने इस मामले के संबंध में पहले 19 जनवरी 2024 को एक अभ्यावेदन दिया था।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने रिट याचिका का समर्थन करते हुए शपथ-पत्र में दी गई दलीलों को दोहराया।
  • न्यायालय, याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत दलीलों से प्रभावित नहीं हुआ।
  • इस मामले में अधिवक्ता अधिनियम, 1961, विशेषकर धारा 24(1)(f) पर चर्चा शामिल है, जो राज्य विधिज्ञ परिषद् और भारतीय विधिज्ञ परिषद् के लिये नामांकन शुल्क निर्धारित करती है।
  • राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा ली जाने वाली अत्यधिक नामांकन फीस के संबंध में एक अलग रिट याचिका भारत के उच्चतम न्यायालय में लंबित है (गौरव कुमार बनाम भारत संघ, 2023)।
  • हालाँकि वर्तमान मामला विशेष रूप से अखिल भारतीय बार परीक्षा के लिये परीक्षा शुल्क से संबंधित है, नामांकन शुल्क से नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने अधिवक्ता अधिनियम के तहत निर्धारित नामांकन शुल्क और AIBE आवेदन शुल्क के बीच अंतर पर ध्यान दिया, जिसमें वैधानिक प्रावधान का अभाव है।
  • पीठ ने स्पष्ट किया कि परमादेश रिट के लिये विधिक अधिकार का प्रदर्शन आवश्यक है, जो इस मामले में अनुपस्थित था।
    • किसी वैधानिक उल्लंघन के अभाव के बावजूद, न्यायालय ने स्वीकार किया कि यदि शुल्क की राशि अत्यधिक पाई जाती है तो वह हस्तक्षेप करने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकता है।
  • जाँच के बाद, न्यायालय ने निर्धारित किया कि वर्तमान AIBE आवेदन शुल्क 3,500 रुपए (SC/ST अभ्यर्थियों के लिये 2,500 रुपए) कोई अत्यधिक राशि नहीं है।
  • न्यायालय ने अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) का संदर्भ देते हुए राज्य विधिज्ञ परिषद् (600/- रुपए) और भारतीय विधिज्ञ परिषद् (150/- रुपए) के लिये निर्धारित नामांकन शुल्क का निर्धारण किया।
  • न्यायालय ने वर्तमान AIBE आवेदन शुल्क संरचना में हस्तक्षेप का कोई आधार न होने के कारण याचिका को अस्वीकार  कर दिया और रिट याचिका अस्वीकार कर दी।

विधि  में अधिकार क्या हैं?

परिचय:

  • ‘अधिकार’ विधिक रूप से मान्यता प्राप्त और अध्यारोपित करने योग्य अधिकार या स्वतंत्रताएँ हैं जो व्यक्तियों या संस्थाओं के पास होती हैं।
  • वे ऐसे हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो विधि द्वारा संरक्षित हैं, जो अधिकार धारक को कुछ निश्चित तरीकों से कार्य करने की अनुमति देते हैं या दूसरों को विशिष्ट तरीकों से कार्य करने के लिये बाध्य करते हैं।
  • अधिकार संविधि, सामान्य विधियों या संवैधानिक प्रावधानों से प्राप्त हो सकते हैं, जिनका संरक्षण और प्रवर्तन तंत्र अलग-अलग हो सकता है।
  • अधिकार प्रायः उचित सीमाओं के अधीन होते हैं और कुछ स्थितियों में उन्हें अन्य प्रतिस्पर्धी अधिकारों या सामाजिक हितों के साथ संतुलित करने की आवश्यकता हो सकती है।

विधि में अधिकारों के प्रकार: 

  • संवैधानिक अधिकार (मौलिक अधिकार): यह किसी राष्ट्र के संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है (जैसे- जीवन, स्वतंत्रता, समानता का अधिकार)।
  • विधिक  अधिकार: विधिक प्रणाली द्वारा मान्यता प्राप्त प्रवर्तनीय अधिकार।
  • वैधानिक अधिकार: विधि या विधि द्वारा निर्मित और परिभाषित अधिकार।
  • सामान्य कानूनी अधिकार: समय के साथ न्यायिक निर्णयों के माध्यम से विकसित अधिकार।
  • मानवाधिकार: सभी मनुष्यों में निहित सार्वभौमिक अधिकार, जिन्हें प्रायः अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
  •  नागरिक अधिकार: नागरिकों के राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता तथा समानता के अधिकार।
  • संपत्ति अधिकार: संपत्ति के स्वामित्व और उपयोग से संबंधित अधिकार।
  • संविदात्मक अधिकार: पक्षों के बीच समझौतों से उत्पन्न अधिकार।
  • बौद्धिक संपदा अधिकार: मन की रचनाओं से संबंधित अधिकार (जैसे, पेटेंट, कॉपीराइट)।
  • उपभोक्ता अधिकार: वाणिज्यिक लेन-देन में उपभोक्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने वाले अधिकार।
  • नैतिक अधिकार: नैतिकता या सदाचार के सिद्धांतों पर आधारित अधिकार, जिन्हें कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त हो भी सकती है और नहीं भी।

भारत में विधिक अधिकार क्या है?

  • विधिक अधिकार विधि द्वारा प्रदत्त प्रवर्तनीय दावे या अधिकार हैं।
  • वे संविधान, विधियों, न्यायिक निर्णय और अनुबंधों सहित विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न हो सकते हैं।
  • विधिक अधिकार राज्य के प्राधिकार द्वारा समर्थित होते हैं तथा उन्हें न्यायालयों के माध्यम से लागू किया जा सकता है।
  • वे व्यक्तियों के बीच तथा व्यक्तियों और राज्य के बीच संबंधों को परिभाषित करते हैं।
  • इन उदाहरणों में संपत्ति अधिकार, संविदात्मक अधिकार और उपभोक्ता अधिकार शामिल हैं।

भारत में मौलिक अधिकार क्या हैं?

  • भारतीय विधि में मौलिक अधिकार संविधान के भाग III में निहित संवैधानिक गारंटी हैं।
  • इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार शामिल हैं।
  • ये अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सम्मान के लिये आवश्यक हैं तथा नागरिकों को राज्य के अतिक्रमण से बचाते हैं।
  • हालाँकि, सार्वजनिक हित के लिये कुछ परिस्थितियों में उन पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

विधिक अधिकार और मौलिक अधिकार में क्या अंतर है?

  • स्रोत: मौलिक अधिकार संविधान में निहित हैं, जबकि विधिक अधिकार विभिन्न कानूनों, संविधि और न्यायिक निर्णयों से आते हैं।
  • स्थायित्व: मौलिक अधिकार अधिक स्थायी होते हैं और उन्हें परिवर्तित करना कठिन होता है, इसके लिये संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होती है। विधिक अधिकारों को सामान्य विधायी प्रक्रियाओं के माध्यम से संशोधित या निरस्त किया जा सकता है।  
  • विस्तार: मौलिक अधिकार सार्वभौमिक हैं तथा सभी नागरिकों पर लागू होते हैं (कुछ अपवादों के साथ), जबकि विधिक अधिकार कुछ समूहों या स्थितियों के लिये विशिष्ट हो सकते हैं।
  • प्रवर्तनीयता: मौलिक अधिकारों को उच्चतम न्यायालय द्वारा सीधे प्रवर्तित  किया जा सकता है, जबकि विधिक अधिकारों को आमतौर पर पहले निचली न्यायालयों के माध्यम से प्रवर्तित किया जाता है।
  • प्रकृति: मौलिक अधिकारों को मानव गरिमा और लोकतंत्र के लिये आवश्यक माना जाता है, जबकि विधिक अधिकार नागरिक, आपराधिक और नियामक मामलों की एक व्यापक श्रेणी को समाहित करते हैं।
  • संवैधानिक उपचार: अपने अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार स्वयं मौलिक अधिकारों के लिये एक मौलिक अधिकार है, जबकि विधिक अधिकारों के मामले में ऐसा नहीं है।