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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

फिरौती हेतु व्यपहरण

 03-Jul-2024

योगेश साहू और अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

“भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 364 A के अधीन तब तक कोई दोषसिद्धि नहीं की जा सकती जब तक अभियोजन पक्ष द्वारा यह सिद्ध नहीं कर दिया जाता कि व्यपहरण के साथ फिरौती की मांग और जान से मारने की धमकी भी दी गई थी”।

मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने योगेश साहू एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में माना है कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 364 A के अधीन तब तक कोई दोषसिद्धि नहीं की जा सकती जब तक अभियोजन पक्ष द्वारा यह सिद्ध नहीं कर दिया जाता कि व्यपहरण के साथ फिरौती की मांग और जान से मारने की धमकी भी थी।

योगेश साहू एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अभियोजन का मामला संक्षेप में यह है कि शिकायतकर्त्ता भगवंता साहू द्वारा रिपोर्ट दर्ज कराई गई कि दिनांक 3 अप्रैल 2022 को शाम करीब 06:30 बजे अपीलकर्त्ता योगेश साहू और नंदू उसके घर आए और बोले कि उन्हें एक कार देखनी है, फिर वे उसके साथ एक वाहन में बैठ गए।
  • अपीलकर्त्ता उसे पाटन से रवेली गाँव ले गए, वहाँ उन्होंने उसे अपने घर में बंधक बना लिया और कहा कि वह अपनी पत्नी से कहे कि गाज़ी खान से बाकी पैसे लेकर आए, तभी उसे छोड़ा जाएगा और उसे कमरे के अंदर जंज़ीर से बाँधकर रखा।
  • 7 अप्रैल 2022 को उसकी पत्नी राधा ने योगेश साहू को बताया कि भगवंता को छुड़वाने के लिये गाज़ी खान ने दो लाख रुपए जमा कर दिये हैं और वह शेष रकम को चेक द्वारा दे रहा है।
  • जाँच पूरी होने के बाद 6 मई 2022 को अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध ट्रायल कोर्ट में आरोप-पत्र पेश किया गया।
  • रिकॉर्ड पर उपलब्ध मौखिक और लिखित साक्ष्यों की सराहना करने के बाद ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ताओं को दोषी ठहराया तथा सज़ा सुनाई, साथ ही निम्नलिखित तरीके से सभी सज़ाएँ एक साथ चलाने का निर्देश दिय

दोषसिद्धि

दण्ड

●      भारतीय दण्ड संहिता की धारा 364A के अंतर्गत

आजीवन कारावास एवं 2000/- रुपए का अर्थदण्ड, अर्थदण्ड न चुका पाने पर 01 वर्ष का अतिरिक्त कठोर कारावास।

●      भारतीय दण्ड संहिता की धारा 343 के अंतर्गत

2 वर्ष का कठोर कारावास।

 

●      भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323/34 के अंतर्गत

6 महीने का कठोर कारावास।

 

  • इसके बाद, ट्रायल कोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में एक आपराधिक अपील दायर की गई।
  • उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और अपीलकर्त्ताओं को उनके विरुद्ध लगाए गए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 364A, 343 तथा 323/34 के अधीन आरोपों से दोषमुक्त कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की पीठ ने कहा कि IPC की धारा 364 A के अधीन तब तक कोई दोषसिद्धि नहीं की जा सकती जब तक अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर देता कि अपहरण के साथ फिरौती की मांग और जान से मारने की धमकी भी थी।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि यह फिरौती का मामला नहीं है, क्योंकि अपीलकर्त्ताओं ने उसके पति को छोड़ने के बदले में उससे फिरौती देने के लिये फोन नहीं किया है और यह संभव है कि उसके पति तथा अपीलकर्त्ताओं ने गाज़ी खान से ट्रक की शेष राशि प्राप्त करने की योजना बनाई हो।

इसमें प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

अपहरण का अपराध:

परिचय:

  • आपराधिक विधि में व्यपहरण किसी व्यक्ति का उसकी इच्छा के विरुद्ध अवैध रूप से अपहरण और बंधक बनाना है।
  • व्यपहरण एक आपराधिक कृत्य है जो भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के अधीन व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।

व्यपहरण के प्रमुख तत्त्व:

व्यपहरण के अपराध को गठित करने वाले तत्व हैं:

ले जाना या फुसलाना- व्यपहरण में किसी व्यक्ति को उसके वैध संरक्षण या सुरक्षित स्थान से शारीरिक रूप से ले जाना या फुसलाना शामिल होता है।

सहमति के बिना- यह कार्य व्यक्ति या उसके वैध अभिभावक की सहमति के बिना किया जाना चाहिये।

आशय- अपराध करने का आशय अवश्य होना चाहिये।

IPC के अधीन व्यपहरण:

  • IPC की धारा 359 में कहा गया है कि व्यपहरण दो प्रकार का होता है:
    • भारत से व्यपहरण
    • वैध अभिभावकत्व से व्यपहरण
  • IPC की धारा 360 भारत से व्यपहरण को परिभाषित करती है।
    • इस धारा में कहा गया है कि जो कोई, किसी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना, या उस व्यक्ति की ओर से सहमति देने के लिये विधिक रूप से प्राधिकृत किसी व्यक्ति की सहमति के बिना भारत की सीमाओं से बाहर ले जाता है, तो यह कहा जाता है कि उसने उस व्यक्ति का भारत से व्यपहरण किया है।
  • IPC की धारा 361 वैध अभिभावकत्व से व्यपहरण को परिभाषित करती है।
    • इसमें कहा गया है कि जो कोई भी किसी नाबालिग को, यदि वह पुरुष है तो सोलह वर्ष से कम आयु का, या यदि वह महिला है तो अठारह वर्ष से कम आयु का, या किसी विकृत चित्त वाले व्यक्ति को, ऐसे नाबालिग या विकृत चित्त वाले व्यक्ति के वैध अभिभावक की देखरेख से, ऐसे संरक्षक की सहमति के बिना ले जाता है या बहलाता है, तो उसे ऐसे नाबालिग या व्यक्ति को वैध अभिभावकत्व से व्यपहरण करना कहा जाता है।
  • अपवाद: यह धारा ऐसे किसी व्यक्ति के कार्य पर लागू नहीं होगी जो सद्भावपूर्वक अपने को किसी नाजायज़ बच्चे का पिता मानता है, या जो सद्भावपूर्वक अपने को ऐसे बच्चे की वैध अभिरक्षा का अधिकारी मानता है, जब तक कि ऐसा कार्य किसी अनैतिक या अविधिक उद्देश्य के लिये न किया गया हो।
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अनुसार भारत से व्यपहरण करने तथा वैध अभिभावकत्व से बाहर ले जाने पर सात वर्ष तक के कारावास तथा अर्थदण्ड का प्रावधान है।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अधीन व्यपहरण:

(1) व्यपहरण दो प्रकार का होता है: भारत से व्यपहरण और वैध संरक्षकता से व्यपहरण–

(a) जो कोई किसी व्यक्ति को उस व्यक्ति की सहमति के बिना, या उस व्यक्ति की ओर से सहमति देने के लिये विधिक रूप से अधिकृत किसी व्यक्ति की सहमति के बिना भारत की सीमाओं से बाहर ले जाता है, यह कहा जाता है कि वह उस व्यक्ति का भारत से व्यपहरण करता है;

(b) जो कोई किसी बालक या किसी विकृत चित्त वाले व्यक्ति को, ऐसे बालक या विकृत चित्त वाले व्यक्ति के विधिपूर्ण संरक्षक की सम्मति के बिना, उसके संरक्षण से ले जाता है या फुसलाता है, यह कहा जाता है कि वह ऐसे बालक या व्यक्ति का विधिपूर्ण अभिभावकत्व से व्यपहरण करता है।

स्पष्टीकरण–इस खंड में “विधिवत् संरक्षक” शब्दों के अंतर्गत ऐसा कोई व्यक्ति भी है जिसे विधिपूर्वक ऐसे बच्चे या अन्य व्यक्ति की देखरेख या अभिरक्षा सौंपी गई है।

अपवाद- यह खंड किसी ऐसे व्यक्ति के कार्य पर लागू नहीं होगा जो सद्भावपूर्वक अपने को किसी नाजायज़ बच्चे का पिता मानता है, या जो सद्भावपूर्वक अपने को ऐसे बच्चे की वैध अभिरक्षा का अधिकारी मानता है, जब तक कि ऐसा कार्य किसी अनैतिक या अविधिक उद्देश्य के लिये न किया गया हो।

(2) जो कोई किसी व्यक्ति को भारत से या वैध अभिभावकत्व से अपहरण करता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा जो सात वर्ष तक बढ़ सकती है और अर्थदण्ड भी देना होगा।

फिरौती हेतु व्यपहरण:

  • IPC की धारा 364A फिरौती आदि के लिये व्यपहरण से संबंधित है।
    • इसमें कहा गया है कि जो कोई भी व्यक्ति, किसी व्यक्ति का व्यपहरण करता है, उसे बंदी बनाता है, या उसे जान से मारने या चोट पहुँचाने की धमकी देता है, ताकि सरकार को कोई कार्य करने या कोई कार्य करने से विरत रहने के लिये बाध्य किया जा सके या फिर फिरौती दी जा सके, उसे मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास और अर्थदण्ड से दण्डित किया जाएगा।
  • BNS की धारा 140(2) फिरौती आदि के लिये व्यपहरण से संबंधित है।
    • इसमें कहा गया है कि जो कोई किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करता है या ऐसे व्यपहरण या अपहरण के बाद किसी व्यक्ति को निरुद्धि में रखता है और ऐसे व्यक्ति को मौत या चोट पहुँचाने की धमकी देता है, या अपने आचरण से ऐसी आशंका उत्पन्न करता है कि ऐसे व्यक्ति को मृत्यु या चोट कारित की जा सकती है, या सरकार या किसी विदेशी राज्य या अंतर्राष्ट्रीय अंतर-सरकारी संगठन या किसी अन्य व्यक्ति को कोई कार्य करने या न करने या फिरौती देने के लिये बाध्य करने के लिये ऐसे व्यक्ति को चोट या मृत्यु कारित करने का कारण बनता है, तो उसे मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास से दण्डित किया जाएगा और अर्थदण्ड भी देना होगा।

निर्णयज विधियाँ:

● प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य (2004) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि IPC की धारा 361 के अधीन नाबालिग की सहमति पूरी तरह से अप्रासंगिक है जिसे ले जाया या बहलाया जाता है। केवल अभिभावक की सहमति ही मामले को इस दायरे से बाहर करती है। साथ ही, यह आवश्यक नहीं है कि ले जाना या बहलाना, बलपूर्वक या धोखाधड़ी से ही हो। नाबालिग की ओर से इच्छा उत्पन्न करने के लिये अभियुक्त द्वारा अनुनय इस धारा को आकर्षित करने के लिये पर्याप्त है।

● एस. वरदराजन बनाम मद्रास राज्य (1965) मामले में उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि किसी नाबालिग को किसी व्यक्ति द्वारा साथ ले जाना और उसे जाने की अनुमति देना एक ही बात नहीं मानी जानी चाहिये


सिविल कानून

उपभोक्ता आयोग

 03-Jul-2024

मुख्य प्रबंधक-सह-प्राधिकृत अधिकारी, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, झारसुगुड़ा बनाम राजेश कुमार अग्रवाल एवं अन्य।

"ज़िला आयोगों के अध्यक्ष एवं सदस्य किसी भी विशेष अधिनियम के प्रावधानों के संबंध में किसी भी कथित उल्लंघन से संबंधित कोई भी आदेश पारित करने से पहले, वे राहत का दावा करने वाले प्रस्तावों को उस क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले विधि के मापदण्ड पर परखेंगे”।

न्यायमूर्ति देबब्रत दास एवं न्यायमूर्ति वी. नरसिंह

स्रोत: उड़ीसा उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने मुख्य प्रबंधक-सह-प्राधिकृत अधिकारी, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, झारसुगुड़ा बनाम राजेश कुमार अग्रवाल एवं अन्य के मामले में माना है कि उपभोक्ता आयोग को ऐसे मामलों पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं है जो ऋण वसूली अधिकरण या अपीलीय अधिकरण के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

मुख्य प्रबंधक-सह-प्राधिकृत अधिकारी, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, झारसुगुड़ा बनाम राजेश कुमार अग्रवाल एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में प्रतिवादी (प्रथम विपक्षी पक्ष) एक कंपनी का बंधककर्त्ता और प्रत्याभूतिदाता था, जो प्रतिवादी से ऋण सुविधाएँ प्राप्त करता था।
  • कंपनी तय समय में ऋण राशि चुकाने में विफल रही तथा परिणामस्वरूप गैर-निष्पादित आस्तियाँ बन गई।
  • याचिकाकर्त्ता बैंक सुरक्षित ऋणदाता था, जिसने भुगतान में विफलता पर सिक्योरिटाइज़ेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट, 2002 (SARFAESI अधिनियम) की धारा 13(2) के अनुसार ऋण राशि चुकाने के लिये उधारकर्त्ताओं और बंधककर्त्ताओं के विरुद्ध मांग नोटिस जारी किया।
  • कोई कार्यवाही नहीं की गई तथा उधारकर्त्ता एवं बंधककर्त्ताओं द्वारा कोई ऋण नहीं चुकाया गया, जिसके परिणामस्वरूप याचिकाकर्त्ता बैंक द्वारा संपत्ति पर कब्ज़ा लेने के लिये एक और डिमांड नोटिस जारी किया गया, जिसे दैनिक समाचार-पत्र में भी प्रकाशित किया गया था।
  • नीलामी के विरोध में प्रतिवादी ने अंतरिम राहत की मांग करते हुए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (CPA) की धारा 35 के अधीन ज़िला उपभोक्ता आयोग (DCC), झारसुगुड़ा में अपील दायर की।
  • DCC ने नीलामी बिक्री पर स्थगन आदेश पारित किया तथा याचिकाकर्त्ता बैंक के विरुद्ध एक पक्षीय आदेश भी पारित किया, जिसके विरुद्ध पीड़ित बैंक ने उड़ीसा उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उड़ीसा उच्च न्यायालय ने SARFAESI अधिनियम, 2002 की धारा 34, धारा 35 एवं धारा 37 के प्रावधानों का उल्लेख किया, जो इस अधिनियम के अधीन DRT या अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा विचार किये जाने वाले मामलों पर विचार करने के लिये किसी भी प्राधिकरण या न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाते हैं।
  • उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह भी देखा कि SARFAESI अधिनियम, 2002 की धारा 35 को SARFAESI अधिनियम की धारा 37 के साथ पढ़ा जाना CPA, 2019 की धारा 100 के विरोधाभासी है।
    • SARFAESI अधिनियम, 2002 द्वारा शासित मामलों पर कोई अन्य अधिनियम लागू नहीं होगा।
  • उड़ीसा उच्च न्यायालय ने उपभोक्ता आयोग को विशेष अधिनियमों से संबंधित मामलों से निपटने के दौरान उसके कर्त्तव्यों का पालन करने की भी याद दिलाई।
  • उड़ीसा उच्च न्यायालय ने नीलामी बिक्री पर उपभोक्ता आयोग द्वारा दिये गए स्थगन आदेश को रद्द कर दिया।
  • उड़ीसा उच्च न्यायालय ने DRT में चल रही कार्यवाही के तथ्य को छिपाने के लिये प्रतिवादी पर अर्थदण्ड भी लगाया तथा उस पर 1 लाख रुपए का अर्थदण्ड लगाया, जिसे झारसुगुड़ा ज़िला बार एसोसिएशन के कल्याण कोष में स्थानांतरित किया जाना है।

इस मामले में SARFAESI अधिनियम, 2002 के किन प्रावधानों का उल्लेख किया गया है?

  • धारा 13: सुरक्षा हित का प्रवर्तन:
  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (1882 का 4) की धारा 69 या धारा 69A में किसी प्रावधान के होते हुए भी, किसी सुरक्षित लेनदार के पक्ष में सृजित किसी प्रतिभूति हित को, न्यायालय या अधिकरण के हस्तक्षेप के बिना, ऐसे लेनदार द्वारा इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार प्रवर्तित किया जा सकेगा।
  • जहाँ कोई उधारकर्त्ता, जो किसी प्रतिभूति करार के अंतर्गत सुरक्षित लेनदार के प्रति दायित्व के अधीन है, सुरक्षित ऋण या उसकी किसी किस्त के पुनर्भुगतान में कोई चूक करता है तथा ऐसे ऋण के संबंध में उसका खाता सुरक्षित लेनदार द्वारा गैर-निष्पादित परिसंपत्ति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, तो सुरक्षित लेनदार लिखित नोटिस द्वारा उधारकर्त्ता से यह अपेक्षा कर सकता है कि वह नोटिस की तिथि से साठ दिन के अंदर सुरक्षित लेनदार के प्रति अपने दायित्वों का पूर्ण रूप से निर्वहन कर दे, अन्यथा सुरक्षित लेनदार उपधारा (4) के अंतर्गत सभी या किसी अधिकार का प्रयोग करने का हकदार होगा।
  • उप-धारा (2) में निर्दिष्ट नोटिस में उधारकर्त्ता द्वारा देय राशि एवं उधारकर्त्ता द्वारा सुरक्षित ऋणों का भुगतान न किये जाने की स्थिति में सुरक्षित ऋणदाता द्वारा लागू की जाने वाली प्रतिभूति आस्तियाँ का ब्यौरा दिया जाएगा।
  • यदि उपधारा (2) के अधीन नोटिस प्राप्त होने पर उधारकर्त्ता कोई अभ्यावेदन देता है या कोई आपत्ति उठाता है, तो सुरक्षित ऋणदाता ऐसे अभ्यावेदन या आपत्ति पर विचार करेगा तथा यदि सुरक्षित ऋणदाता इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ऐसा अभ्यावेदन या आपत्ति स्वीकार्य या मान्य नहीं है, तो वह ऐसे अभ्यावेदन या आपत्ति की प्राप्ति के एक सप्ताह के अंदर उधारकर्त्ता को अभ्यावेदन या आपत्ति को अस्वीकार करने के कारणों से अवगत कराएगा, परंतु इस प्रकार संप्रेषित कारण या कारणों के संप्रेषण के प्रक्रम पर सुरक्षित ऋणदाता की संभावित कार्यवाही उधारकर्त्ता को धारा 17 के अधीन ऋण वसूली अधिकरण या धारा 17A के अधीन ज़िला न्यायाधीश के न्यायालय में आवेदन करने का कोई अधिकार प्रदान नहीं करेगी।
  • यदि उधारकर्त्ता उपधारा (2) में निर्दिष्ट अवधि के अंदर अपनी देयता का पूर्ण रूप से निर्वहन करने में विफल रहता है, तो सुरक्षित ऋणदाता अपने सुरक्षित ऋण की वसूली के लिये निम्नलिखित उपायों में से एक या अधिक का सहारा ले सकता है, अर्थात् -
  • सुरक्षित परिसंपत्ति की प्राप्ति के लिये पट्टे, समनुदेशन या बिक्री के माध्यम से अंतरण के अधिकार सहित उधारकर्त्ता की सुरक्षित परिसंपत्तियों का कब्ज़ा लेना,
  • सुरक्षित परिसंपत्ति की प्राप्ति के लिये पट्टे, समनुदेशन या बिक्री के माध्यम से अंतरण के अधिकार सहित उधारकर्त्ता के व्यवसाय का प्रबंधन अपने हाथ में लेना।
  • बशर्ते कि पट्टे, समनुदेशन या बिक्री के माध्यम से अंतरण का अधिकार केवल तभी प्रयोग किया जाएगा जब उधारकर्त्ता के व्यवसाय का पर्याप्त हिस्सा ऋण के लिये प्रतिभूति के रूप में रखा गया हो।
  • आगे यह भी प्रावधान है कि जहाँ पूरे व्यवसाय या व्यवसाय के हिस्से का प्रबंधन अलग करने योग्य है, वहाँ सुरक्षित ऋणदाता उधारकर्त्ता के ऐसे व्यवसाय का प्रबंधन अपने हाथ में ले लेगा जो ऋण के लिये सुरक्षा से संबंधित है।
  • किसी भी व्यक्ति (जिसे आगे प्रबंधक कहा जाएगा) को सुरक्षित परिसंपत्तियों का प्रबंधन करने के लिये नियुक्त करना, जिसका कब्ज़ा सुरक्षित ऋणदाता द्वारा ले लिया गया है।
  • किसी भी समय लिखित सूचना द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसने उधारकर्त्ता से कोई सुरक्षित आस्तियाँ अर्जित की हैं तथा जिससे कोई धन उधारकर्त्ता को मिलना है या मिलने वाला है, सुरक्षित ऋणदाता को उतना धन देने की अपेक्षा कर सकेगा, जितना सुरक्षित ऋण चुकाने के लिये पर्याप्त है। (5) उपधारा (4) के खंड (घ) में निर्दिष्ट किसी व्यक्ति द्वारा सुरक्षित ऋणदाता को किया गया कोई भुगतान ऐसे व्यक्ति को वैध उन्मोचन देगा, मानो उसने उधारकर्त्ता को भुगतान कर दिया है।
  • सुरक्षित ऋणदाता द्वारा या सुरक्षित ऋणदाता की ओर से प्रबंधक द्वारा उपधारा (4) के अधीन सुरक्षित आस्ति का कब्ज़ा लेने या प्रबंधन अपने हाथ में लेने के पश्चात् उसका कोई अंतरण, अंतरित सुरक्षित आस्ति में या उसके संबंध में सभी अधिकार अंतरिती में निहित कर देगा, मानो वह अंतरण ऐसी सुरक्षित आस्ति के स्वामी द्वारा किया गया हो।
  • जहाँ उपधारा (4) के उपबंधों के अधीन उधारकर्त्ता के विरुद्ध कोई कार्यवाही की गई है, वहाँ सभी लागतें, प्रभार एवं व्यय, जो सुरक्षित लेनदार की राय में उसके द्वारा उचित रूप से उपगत किये गए हैं या उनसे संबंधित कोई व्यय, उधारकर्त्ता से वसूल किये जाएंगे तथा सुरक्षित लेनदार द्वारा प्राप्त धन, किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में, उसके द्वारा न्यास के रूप में रखा जाएगा, जिसका उपयोग, प्रथमतः ऐसी लागतों, प्रभारों एवं व्ययों के भुगतान में और द्वितीयतः सुरक्षित लेनदार के बकाया के भुगतान में किया जाएगा तथा इस प्रकार प्राप्त धन का अवशेष उस व्यक्ति को, जो उसके अधिकारों व हितों के अनुसार उसका अधिकारी है, भुगतान किया जाएगा।
  • यदि सुरक्षित ऋणदाता की बकाया राशि, उसके द्वारा वहन की गई सभी लागतों, प्रभारों व व्ययों सहित, बिक्री या अंतरण के लिये निर्धारित तिथि से पहले किसी भी समय सुरक्षित ऋणदाता को दे दी जाती है, तो सुरक्षित ऋणदाता द्वारा सुरक्षित परिसंपत्ति को बेचा या अंतरित नहीं किया जाएगा, तथा उसके द्वारा उस सुरक्षित परिसंपत्ति के अंतरण या बिक्री के लिये कोई और कदम नहीं उठाया जाएगा।
  • एक से अधिक सुरक्षित लेनदारों द्वारा वित्तीय आस्ति के वित्तपोषण या सुरक्षित लेनदारों द्वारा वित्तीय आस्ति के संयुक्त वित्तपोषण के मामले में, कोई भी सुरक्षित लेनदार उप-धारा (4) के अधीन या उसके अनुसार उसे प्रदान किये गए किसी भी या सभी अधिकारों का प्रयोग करने का अधिकारी नहीं होगा, जब तक कि ऐसे अधिकार के प्रयोग पर रिकॉर्ड तिथि पर बकाया राशि के तीन-चौथाई से कम मूल्य का प्रतिनिधित्व करने वाले सुरक्षित लेनदारों द्वारा सहमति नहीं दी जाती है तथा ऐसी कार्यवाही सभी सुरक्षित लेनदारों पर बाध्यकारी होगी।
  • ▪बशर्ते कि परिसमापनाधीन कंपनी के मामले में, सुरक्षित परिसंपत्तियों की बिक्री से प्राप्त राशि कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 529A के प्रावधानों के अनुसार वितरित की जाएगीपरंतु यह और कि इस अधिनियम के प्रारंभ पर या उसके पश्चात् परिसमाप्त की जाने वाली किसी कंपनी की स्थिति में, ऐसी कंपनी का सुरक्षित लेनदार, जो कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 529 की उपधारा (1) के परंतुक के अधीन अपनी प्रतिभूति छोड़ने तथा अपना ऋण सिद्ध करने के स्थान पर अपनी प्रतिभूति प्राप्त करने का विकल्प चुनता है, उस अधिनियम की धारा 529A के उपबंधों के अनुसार, कर्मकार बकाया राशि को परिसमापक के पास जमा करने के पश्चात् अपनी सुरक्षित आस्तियों के विक्रय आगम को अपने पास रख सकेगा:
  • परंतु यह भी कि दूसरे परंतुक में निर्दिष्ट परिसमापक, कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 529A के उपबंधों के अनुसार, सुरक्षित लेनदारों को कर्मकारों की देयताओं की सूचना देगा तथा यदि ऐसी कर्मकारों की देयताओं का पता नहीं लगाया जा सकता है, तो परिसमापक, सुरक्षित लेनदार को उस धारा के अधीन कर्मकारों की देयताओं की अनुमानित राशि की सूचना देगा तथा ऐसी स्थिति में, सुरक्षित लेनदार, ऐसी अनुमानित देयताओं की राशि को परिसमापक के पास जमा करने के पश्चात् सुरक्षित आस्तियों की बिक्री आय को अपने पास रख सकेगा:
  • बशर्ते कि यदि सुरक्षित लेनदार कामगारों की बकाया राशि की अनुमानित राशि जमा कर देता है, तो ऐसा लेनदार कामगारों की बकाया राशि का भुगतान करने के लिये उत्तरदायी होगा या सुरक्षित लेनदार द्वारा परिसमापक के पास जमा की गई अतिरिक्त राशि, यदि कोई हो, प्राप्त करने का अधिकारी होगा।
  • बशर्ते कि सुरक्षित लेनदार कामगारों की बकाया राशि, यदि कोई हो, का भुगतान करने के लिये परिसमापक को एक वचनबद्धता प्रस्तुत करेगा।
  • स्पष्टीकरण: इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये -
  • ▫ "रिकॉर्ड तिथि" का अर्थ है सुरक्षित ऋणदाताओं द्वारा सहमत तिथि, जो उस तिथि पर बकाया राशि के मूल्य में तीन-चौथाई से कम नहीं होती है।
  • ▫ "बकाया राशि" में सुरक्षित ऋणदाता की खाता पुस्तकों के अनुसार सुरक्षित परिसंपत्ति के संबंध में उधारकर्त्ता द्वारा सुरक्षित ऋणदाता को देय मूलधन, ब्याज और कोई अन्य बकाया शामिल होगा।
  • जहाँ सुरक्षित ऋणदाता की बकाया राशि सुरक्षित परिसंपत्तियों की बिक्री आय से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं है, सुरक्षित ऋणदाता ऋण वसूली न्यायाधिकरण या सक्षम न्यायालय में, जैसा भी मामला हो, उधारकर्त्ता से शेष राशि की वसूली के लिये निर्धारित प्रारूप एवं तरीके से आवेदन दायर कर सकता है।
  • इस धारा के तहत या इसके द्वारा सुरक्षित लेनदार को दिये गए अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, सुरक्षित लेनदार इस अधिनियम के तहत सुरक्षित परिसंपत्तियों के संबंध में उप-धारा (4) के खंड (A) से (D) में निर्दिष्ट उपायों में से कोई भी उपाय किये बिना प्रत्याभुतिदाता के विरुद्ध कार्यवाही करने या बंधक रखी गई आस्तियों को विक्रय करने का अधिकारी होगा। (12) इस अधिनियम के अधीन एक सुरक्षित लेनदार के अधिकारों का प्रयोग इस तरह से निर्धारित किया जा सकता है, जो इस संबंध में अधिकृत उसके एक या अधिक अधिकारियों द्वारा किया जा सकता है। (13) कोई भी उधारकर्त्ता, उप-धारा (2) में निर्दिष्ट नोटिस की प्राप्ति के बाद, बिक्री, पट्टे या अन्यथा (अन्य) तरीके से अंतरण नहीं करेगा।
  • धारा 34: सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार का न होना
  • किसी भी सिविल न्यायालय को किसी ऐसे मामले के संबंध में कोई वाद या कार्यवाही करने की अधिकारिता नहीं होगी जिसे ऋण वसूली अधिकरण या अपील अधिकरण को इस अधिनियम द्वारा या इसके अधीन अवधारित करने का अधिकार है तथा किसी भी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी द्वारा इस अधिनियम द्वारा या इसके अधीन या बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को शोध्य ऋण वसूली अधिनियम, 1993 (1993 का 51) के अधीन प्रदत्त किसी शक्ति के अनुसरण में की गई या की जाने वाली किसी कार्यवाही के संबंध में कोई निषेधाज्ञा नहीं दी जाएगी।
  • धारा 35: इस अधिनियम के प्रावधानों का अन्य विधियों का प्रभाव
  • इस अधिनियम के उपबंध, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में या किसी ऐसी विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाले किसी लिखत में अंतर्विष्ट किसी असंगत बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे।
  • धारा 37: अन्य विधियों के लागू होने पर रोक नहीं
  • इस अधिनियम या इसके अधीन बनाए गए नियमों के उपबंध कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1), प्रतिभूति संविदा (विनियमन) अधिनियम, 1956 (1956 का 42), भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड अधिनियम, 1992 (1992 का 15), बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं को देय ऋण वसूली अधिनियम, 1993 (1993 का 51) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अतिरिक्त होंगे, न कि उनके प्रतिकूल।

इस मामले में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 35: शिकायत करने का तरीका
  • बेचे गए या वितरित किये गए या विक्रय किये या वितरित किये जाने के लिये सहमत किसी माल या प्रदान की गई या प्रदान किये जाने के लिये सहमत किसी सेवा के संबंध में शिकायत ज़िला आयोग में निम्नलिखित द्वारा दायर की जा सकती है-
  • उपभोक्ता,—
  • ⮚ जिसे ऐसा माल विक्रय किया या वितरित किया जाता है या जिसे विक्रय करने या वितरित करने के लिये सहमति दी जाती है या ऐसी सेवा प्रदान की जाती है या प्रदान करने के लिये सहमति दी जाती है;
  • ⮚ या जो ऐसे माल या सेवा के संबंध में अनुचित व्यापार व्यवहार का आरोप लगाता है;
  • कोई भी मान्यता प्राप्त उपभोक्ता संघ, चाहे वह उपभोक्ता जिसे ऐसे माल विक्रय किये या वितरित किये जाएँ या विक्रय किये या वितरित किये जाने के लिये सहमति दी गई हो या ऐसी सेवा प्रदान की गई हो या प्रदान किये जाने के लिये सहमति दी गई हो, या जो ऐसे माल या सेवा के संबंध में अनुचित व्यापारिक व्यवहार का आरोप लगाता है, ऐसे संघ का सदस्य है या नहीं;
  • एक या अधिक उपभोक्ताओं के विरुद्ध, जहाँ समान हित रखने वाले अनेक उपभोक्ता हैं, ज़िला आयोग की अनुमति से, ऐसे सभी हितबद्ध उपभोक्ताओं की ओर से या उनके लाभ के लिये, या
  • केंद्रीय सरकार, केंद्रीय प्राधिकरण या राज्य सरकार, जैसा भी मामला हो: परंतु इस उपधारा के अधीन शिकायत इलेक्ट्रॉनिक रूप में ऐसी रीति से दायर की जा सकेगी, जैसी विहित की जाए।
  • स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये, "मान्यता प्राप्त उपभोक्ता संघ" से तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन पंजीकृत कोई स्वैच्छिक उपभोक्ता संघ अभिप्रेत है।
  • ⮚ उपधारा (1) के अधीन दायर प्रत्येक शिकायत के साथ ऐसा शुल्क संलग्न होगा तथा वह ऐसी रीति से, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप भी शामिल है, देय होगा, जैसा कि विहित किया जाए।
  • धारा 100: किसी अन्य विधि के प्रतिकूल कार्य न करना-
  • इस अधिनियम के प्रावधान वर्तमान में लागू किसी अन्य विधिक प्रावधानों के अतिरिक्त होंगे, न कि उनके न्यूनीकरण में।
  • धारा 17: एकपक्षीय अंतरिम आदेश-
    • यदि किसी भी पक्ष द्वारा एकपक्षीय अंतरिम आदेश को निरस्त करने या संशोधित करने या उसका निर्वहन करने के लिये आवेदन दायर किया जाता है, तो उस पर पैंतालीस दिनों के अंदर निर्णय लिया जाएगा तथा यदि ऐसे आवेदन पर पैंतालीस दिनों के अंदर निर्णय नहीं लिया जाता है, तो आयोग को एकपक्षीय अंतरिम आदेश को बढ़ाने का विवेकाधिकार होगा।
  • इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?
    • यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया बनाम सत्यवती टंडन एवं अन्य (2010):
    • इस मामले में यह माना गया कि SARFAESI अधिनियम के अंतर्गत अपनाई गई प्रक्रिया को किसी अन्य विधि के प्रावधान के अंतर्गत चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • इस्लामिक अकादमी ऑफ एजुकेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2010):
    • इस मामले में यह माना गया कि किसी प्रावधान की व्याख्या केवल उसके शीर्षक को पढ़कर नहीं की जा सकती।