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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

आयु का निर्धारण

 04-Jul-2024

न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य

“यौन उत्पीड़न के ऐसे मामलों में, जहाँ भी न्यायालय को "अस्थिआयु निर्धारण रिपोर्ट" के आधार पर पीड़ित की आयु निर्धारित करने के लिये कहा जाता है, "संदर्भ सीमा" में दी गई ऊपरी आयु को पीड़ित की आयु माना जाएगा”।

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति मनोज जैन

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति मनोज जैन की पीठ ने कहा कि "यौन उत्पीड़न के ऐसे मामलों में, जहाँ भी न्यायालय को "अस्थिआयु निर्धारण रिपोर्ट" के आधार पर पीड़ित की आयु निर्धारित करने के लिये कहा जाता है, "संदर्भ सीमा" में दी गई ऊपरी आयु को पीड़ित की आयु माना जाना चाहिये"।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी न्यायालय द्वारा स्वप्रेरण बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य के मामले में की।

न्यायालय द्वारा स्वप्रेरण बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • यह एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा किया गया संदर्भ है, जिसमें लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण, 2015 (POCSO) मामलों में अस्थिआयु निर्धारण परीक्षण का उपयोग करते समय पीड़ितों की आयु का निर्धारण करने के तरीके पर स्पष्टीकरण मांगा गया है।
  • जिस विशिष्ट मामले के कारण यह संदर्भ दिया गया, उसमें एक आरोपी भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376/506 और POCSO अधिनियम की धारा 4 के अधीन अपराधों के लिये वाद का सामना कर रहा था।
  • पीड़िता की आयु निर्धारित करने के लिये कोई स्कूल रिकॉर्ड या जन्म प्रमाण-पत्र उपलब्ध नहीं था, अतःअस्थिआयु परीक्षण कराया गया।
  • अस्थिआयु परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार पीड़िता की आयु 16-18 वर्ष के बीच थी।
  • बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि या तो:
  • त्रुटि का 2 वर्ष का अतिरिक्त लाभ लागू किया जाना चाहिये, जिससे आयु सीमा 14-20 वर्ष हो जाएगी, या
  • न्यूनतम 18 वर्ष की ऊपरी आयु का प्रयोग किया जाना चाहिये, जिससे POCSO अधिनियम लागू नहीं होगा।
  • ट्रायल कोर्ट ने स्पष्टीकरण के लिये मामला दिल्ली उच्च न्यायालय को भेज दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने कहा कि POCSO मामलों में अस्थिआयु परीक्षण के आधार पर पीड़ित की आयु निर्धारित करते समय, न्यायालयों को अनुमानित सीमा की ऊपरी आयु को पीड़ित की आयु के रूप में मानना चाहिये।
  • उस ऊपरी आयु में 2 वर्ष की अतिरिक्त त्रुटि लाभ लागू किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने निम्न तर्क दिये:
  • विरोधात्मक विधिक प्रणाली केवल निर्दोषता को स्वीकार करती है और उचित संदेह से परे साक्ष्य की आवश्यकता होती है। किसी भी प्रकार के संदेह से अभियुक्त को लाभ होता है।
  • उच्चतम न्यायालय सहित पिछले निर्णयों में कहा गया है कि अस्थिआयु परीक्षण सटीक नहीं होते हैं तथा दो वर्ष की त्रुटि सीमा की अनुमति दी जानी चाहिये।
  • यद्यपि यह दृष्टिकोण मूलतः किशोर अपराधियों के लिये प्रयोग किया गया था, परंतु यही सिद्धांत पीड़ितों की आयु निर्धारित करने के लिये भी लागू होना चाहिये।
  • यह व्याख्या अभियुक्त को सभी चरणों में संदेह का लाभ देने के स्थापित विधिक सिद्धांतों के अनुरूप है।
  • उच्च न्यायालय ने निचली न्यायालय को इस निर्णय के अनुसार मामले का निर्णय करने का निर्देश दिया।

आयु निर्धारण की प्रक्रिया क्या है?

POCSO अधिनियम:

  • प्रावधान:
  • धारा 2(d): बालक की परिभाषा 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति के रूप में की गई है।
  • धारा 34: विशेष न्यायालय द्वारा आयु निर्धारण की प्रक्रिया की रूपरेखा:
  • न्यायालय को व्यक्ति की आयु के बारे में स्वयं संतुष्ट होना चाहिये
  • न्यायालय को आयु निर्धारण के लिये अपने कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना होगा
  • विशेष न्यायालय द्वारा दिये गए आदेश, गलत आयु निर्धारण के बाद के साक्ष्य से अमान्य नहीं होते
  • निर्णयज विधियाँ:
  • राज्य बनाम वरुण (2013): संदेह की स्थिति में न्यायालयों को पीड़ित की किशोर अवस्था को ध्यान में रखना चाहिये।
  • शाह नवाज़ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011): चिकित्सा राय केवल तभी मांगी जानी चाहिये जब दस्तावेज़ी साक्ष्य उपलब्ध न हों।

किशोर न्याय अधिनियम, 2015: 

  • धारा 94: आयु निर्धारण की प्रक्रिया निर्धारित करती है:
  • यदि वह स्पष्टतः बालक है तो समिति/बोर्ड उसकी स्थिति के आधार पर आयु निर्धारित कर सकता है।
  • यदि संदेह हो तो निम्नलिखित क्रम में साक्ष्य मांगें:
  • स्कूल सर्टिफिकेट या मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट
  • निगम, नगर निगम या पंचायत से जन्म प्रमाण-पत्र
  • अस्थिभंग (अस्थिआयु )परीक्षण या नवीनतम चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण (केवल तभी जब i और ii उपलब्ध न हों)
  • निर्णयज विधियाँ:
  • जरनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2013): न्यायालय ने माना कि JJ अधिनियम की प्रक्रिया बाल पीड़ितों की आयु निर्धारित करने के लिये भी लागू होनी चाहिये।
  • मध्य प्रदेश राज्य बनाम अनूप सिंह (2015): पुष्टि की गई कि JJ नियम 2007 का नियम 12(3) बलात्कार पीड़ितों की आयु निर्धारित करने के लिये लागू होता है।

अस्थिभंग परीक्षण क्या है?

  • अस्थि अस्थिभंग या अस्थिजनन, हड्डियों के निर्माण की प्रक्रिया है। अस्थिआयु की गणना अस्थिभंग परीक्षणों के माध्यम से की जाती है, जो जन्म से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु के बीच मानव शरीर में जोड़ों के संलयन के आधार पर अनुमान है, हालाँकि यह हर व्यक्ति के आधार पर भिन्न होता है। किसी विशेष मामले में घटना की तिथि पर आरोपी या पीड़ित की आयु का पता लगाने के लिये अस्थिकरण परीक्षण किया जाता है। यह परीक्षण किशोरों से जुड़े मामलों में प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि विधि के साथ संघर्ष करने वाले बच्चों के साथ-साथ संरक्षण और देखरेख की आवश्यकता वाले बच्चों के संबंध में विशेष प्रावधान बनाए गए हैं [किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण), 2015 'JJ अधिनियम 2015']।
  • विनोद कटारा बनाम यूपी राज्य (2022)- अस्थिकरण परीक्षण एक सटीक विधि नहीं है जो हमें व्यक्ति की सही आयु बता सके।

आपराधिक कानून

अनुशासन लागू करने हेतु सुधारात्मक उपाय के लिये दण्ड के प्रावधान का अभाव

 04-Jul-2024

जोमी बनाम केरल राज्य

“स्कूलों में अनुशासन लागू करने के लिये सरल सुधारात्मक उपायों का उपयोग करने के लिये शिक्षकों का अभियोजन नहीं किया जा सकता”।

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने जोमी बनाम केरल राज्य के मामले में माना है कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ अधिनियम) के प्रावधानों के अनुसार स्कूलों में अनुशासन लागू करने के लिये सरल सुधारात्मक उपायों का उपयोग करने के लिये शिक्षकों का अभियोजन नहीं किया जा सकता है।

जोमी बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन एक याचिका दायर की गई है, जिसमें कोडानाडु पुलिस स्टेशन के अपराध संख्या 690/2018 में अनुलग्नक C अंतिम रिपोर्ट को रद्द करने की मांग की गई है, जो अब उसके विरुद्ध न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट- III, पेरुंबवूर की फाइलों में लंबित है।
  • अभियोजन पक्ष के आरोप का सारांश एवं सार यह है कि 13 वर्षीय पीड़िता, जो 8वीं कक्षा में पढ़ती थी, को आरोपी द्वारा तब पीटा गया, जब उसने आरोपी द्वारा आयोजित एक टेस्ट पेपर में कम अंक प्राप्त किये। आरोपी अंग्रेज़ी शिक्षक और सेंट जोसेफ स्कूल, थोट्टुवा का प्रिंसिपल है, जहाँ अप्राप्तवय लड़की पढ़ती थी।
  • पीड़िता के बयान को दर्ज करते हुए भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 324 एवं JJ अधिनियम की धारा 82 के अधीन दण्डनीय अपराध का आरोप लगाते हुए अपराध दर्ज किया गया।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने आवेदन किया कि JJ अधिनियम की धारा 82 के अधीन कारित अपराध वर्तमान मामले में शमनीय नहीं होगा, क्योंकि धारा 82 किसी भी बाल देखभाल संस्थान के प्रभारी या नियोजित व्यक्ति द्वारा दिये गए शारीरिक दण्ड से संबंधित है, जो बच्चे को अनुशासित करने के उद्देश्य से शारीरिक दण्ड देता है।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने आगे कहा कि JJअधिनियम की धारा 75 के अधीन अपराध भी शिक्षकों को माता-पिता द्वारा दिये गए निहित अधिकार के आधार पर बच्चों को अनुशासित करने के लिये सद्भावनापूर्वक कम सज़ा देने के लिये उत्तरदायी नहीं मानता। उच्च न्यायालय ने कोडानाडु पुलिस स्टेशन के अपराध संख्या 690/2018 में याचिका अनुलग्नक C अंतिम रिपोर्ट को अनुमति दी, जो न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट- III, पेरुंबवूर की फाइलों में लंबित है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

टिप्पणी:

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने कहा कि यदि शिक्षकों को विद्यालय या शैक्षणिक संस्थान के अनुशासन को बनाए रखने के लिये सरल एवं कम बोझिल सुधारात्मक उपाय तैयार करने के लिये JJ अधिनियम के प्रावधानों के अधीन शामिल किया जाता है, तो विद्यालय या संस्थान का अनुशासन खतरे में पड़ जाएगा। साथ ही, जब शिक्षक अपने अधिकार का सीमा से अधिक उपयोग करता है तथा गंभीर चोट या इसी तरह के शारीरिक हमले का कारण बनता है, तो निश्चित रूप से JJ अधिनियम के दण्डात्मक प्रावधान सीधे लागू होंगे।

इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा संदर्भित मामले:

  •  के. ए. अब्दुल वाहिद बनाम केरल राज्य (2005):
  • इस मामले में, यह देखा गया कि जब किसी बच्चे को मदरसा या विद्यालय में भेजा जाता है, तो उक्त बच्चे के माता-पिता मास्टर या कक्षा शिक्षक या प्रधानाध्यापक/प्रधानाध्यापिका को अनुशासन लागू करने तथा उनके सामने या कक्षाओं में गलतियाँ करने वाले छात्रों को सुधारने का निहित अधिकार देते हैं।
  • यदि अनुशासन बनाए रखने की प्रक्रिया में तथा उसे स्कूल के निर्धारित मानकों का पालन कराने के लिये, जो कि बच्चे के उत्थान एवं विकास के लिये आवश्यक हैं, जिसमें स्कूल के अंदर एवं बाहर उसके चरित्र व आचरण का विकास भी शामिल है, ताकि उसे नागरिक के अच्छे गुणों के विषय में जागरूक होने के लिये प्रशिक्षित किया जा सके, उनमें से किसी के द्वारा शारीरिक दण्ड दिया जाता है, तो इसे छात्र को चोट पहुँचाने के आशय से किया गया कृत्य नहीं कहा जा सकता है।
  • राजन उर्फ राजू, पुत्र चोयी बनाम पुलिस उपनिरीक्षक, फेरोके पुलिस स्टेशन व अन्य (2019):
  • इस मामले में, यह कहा गया कि शिक्षक द्वारा छात्र को पहुँचाई गई चोट की प्रकृति यह निर्धारित करेगी कि उसके विरुद्ध दण्डात्मक प्रावधानों के अधीन कार्यवाही की जा सकती है या नहीं।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि शिक्षक बेलगाम क्रोध, उत्तेजना या गुस्से में बच्चे को चोट पहुँचाता है, या अनुचित शारीरिक चोट या नुकसान पहुँचाता है तो उसके कृत्यों को क्षमा नहीं किया जा सकता।

इसमें प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

JJ अधिनियम की धारा 82:

यह धारा शारीरिक दण्ड से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

(1) बाल देखभाल संस्था का भारसाधक या उसमें नियोजित कोई व्यक्ति, जो बालक को अनुशासित करने के उद्देश्य से बालक को शारीरिक दण्ड देता है, प्रथम दोषसिद्धि पर दस हज़ार रुपए के अर्थदण्ड से दण्डनीय होगा तथा प्रत्येक पश्चातवर्ती अपराध के लिये तीन मास तक के कारावास या अर्थदण्ड या दोनों से दण्डनीय होगा।

(2) यदि उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी संस्था में नियोजित कोई व्यक्ति उस उपधारा के अधीन किसी अपराध के लिये दोषी पाया जाता है, तो ऐसा व्यक्ति सेवा से पदच्युति का भी दायी होगा तथा तत्पश्चात् उसे बालकों के साथ सीधे कार्य करने से भी वंचित कर दिया जाएगा।

(3) यदि उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी संस्था में किसी शारीरिक दण्ड की रिपोर्ट की जाती है तथा ऐसी संस्था का प्रबंधन किसी जाँच में सहयोग नहीं करता है या समिति या बोर्ड या न्यायालय या राज्य सरकार के आदेशों का पालन नहीं करता है, तो संस्था के प्रबंधन का भारसाधक व्यक्ति कम से कम तीन वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डित किया जाएगा तथा साथ ही वह एक लाख रुपए तक के अर्थदण्ड से भी दण्डित किया जा सकेगा।

JJ अधिनियम की धारा 75:

  • यह धारा बच्चे के प्रति क्रूरता के लिये दण्ड से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
  • जो कोई भी, किसी बच्चे का वास्तविक प्रभार या नियंत्रण रखते हुए, बच्चे पर हमला करता है, उसे छोड़ देता है, दुर्व्यवहार करता है, उसे उजागर करता है या जानबूझकर उसकी उपेक्षा करता है या बच्चे पर हमला, उसे छोड़ देना, दुर्व्यवहार करना, उजागर करना या उसकी उपेक्षा करवाना या करवाना जिससे बच्चे को अनावश्यक मानसिक या शारीरिक पीड़ा होने की संभावना हो, तो उसे तीन वर्ष तक का कारावास या एक लाख रुपए का अर्थदण्ड या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
  • परंतु यदि यह पाया जाता है कि जैविक माता-पिता द्वारा बालक का ऐसा परित्याग उनके नियंत्रण से परे परिस्थितियों के कारण हुआ है, तो यह माना जाएगा कि ऐसा परित्याग जानबूझकर नहीं किया गया है तथा इस धारा के दण्डात्मक उपबंध ऐसे मामलों में लागू नहीं होंगे
  • आगे यह भी प्रावधान है कि यदि ऐसा अपराध किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो किसी ऐसे संगठन में नियोजित है या उसका प्रबंध करता है, जिसे बालक की देखभाल एवं संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है, तो उसे कठोर कारावास से, जो पाँच वर्ष तक का हो सकेगा तथा अर्थदण्ड से, जो पाँच लाख रुपए तक का हो सकेगा, दण्डित किया जाएगा।
  • बशर्ते कि पूर्वोक्त क्रूरता के कारण यदि बालक शारीरिक रूप से अक्षम हो जाता है या उसे मानसिक बीमारी हो जाती है या वह नियमित कार्य करने के लिये मानसिक रूप से अयोग्य हो जाता है या उसके जीवन या अंग को खतरा होता है, तो ऐसा व्यक्ति कम-से-कम तीन वर्ष के कठोर कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसे अधिकतम दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा और वह पाँच लाख रुपए के अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा।

IPC की धारा 324 क्या है?

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 खतरनाक हथियारों या साधनों द्वारा स्वेच्छा से चोट पहुँचाने से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई, धारा 334 द्वारा प्रदान की गई स्थिति को छोड़कर, गोली चलाने, छुरा घोंपने या काटने के किसी उपकरण द्वारा, या किसी ऐसे उपकरण द्वारा, जिसका उपयोग अपराध के हथियार के रूप में करने से मृत्यु हो जाने की संभावना हो, या आग या किसी गर्म पदार्थ द्वारा, या किसी विष या किसी संक्षारक पदार्थ द्वारा, या किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा या किसी ऐसे पदार्थ द्वारा, जिसे साँस के साथ अंदर लेना, निगलना या रक्त में मिलना मानव शरीर के लिये हानिकारक हो, या किसी पशु द्वारा स्वेच्छा से चोट पहुँचाता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।

सांविधानिक विधि

उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति

 04-Jul-2024

सीए राकेश कुमार गुप्ता बनाम महासचिव के माध्यम से भारत का उच्चतम न्यायालय

“उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पदोन्नति के लिये उच्च न्यायालय कॉलेजियम की अनुशंसा को उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम द्वारा अस्वीकार करने का कारण उन न्यायाधीशों के हित में नहीं होगा जिनके नाम, उच्चतम न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिये गए हैं”।

कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश अनमोहन एवं न्यायमूर्ति तुषार राव 

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीए राकेश कुमार गुप्ता बनाम महासचिव के माध्यम से भारत के उच्चतम न्यायालय के मामले में माना है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की उच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिये उच्च न्यायालय कॉलेजियम की अनुशंसा को उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम द्वारा मना करने का कारण उन न्यायाधीशों के हित में नहीं होगा जिनके नाम उच्चतम न्यायालय द्वारा मना कर दिये गए हैं।

सीए राकेश कुमार गुप्ता बनाम महासचिव के माध्यम से भारत के उच्चतम न्यायालय के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता का दिल्ली ज़िला न्यायालय में एक मामला लंबित था, जिसके कारण उसने एकल न्यायाधीश पीठ के समक्ष रिट याचिका दायर की।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति न होने का कारण उच्चतम न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया जाना चाहिये।
  • उनका तर्क है कि देश में न्यायाधीशों की कमी के कारण मामलों की संख्या लंबित है।
  • याचिकाकर्त्ता ने कहा कि उसके पास रिट याचिका दायर करने का अधिकार है।
  • संबंधित एकल न्यायाधीश पीठ ने अधिकार न होने के कारण रिट को खारिज कर दिया तथा याचिकाकर्त्ता पर अर्थदण्ड लगाया।
  • विवादित निर्णय के अनुसरण में याचिकाकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के दो पहलू हैं, एक पात्रता एवं दूसरा उपयुक्तता।
  • पात्रता का निर्धारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217 के अनुसार किया जाना है, जबकि उपयुक्तता का निर्धारण परामर्श एवं अवलोकन के आधार पर किया जाना है।
  •  इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया कि जिन न्यायाधीशों के नाम उच्च न्यायालय ने भेजे थे, उनकी नियुक्ति न करने के कारणों का प्रकटन उनके हितों के लिये हानिकारक होगा।
  • इसके आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने एकल न्यायाधीश के निर्णय को यथावत् रखा तथा कहा कि याचिकाकर्त्ता के पास रिट दायर करने का कोई अधिकार नहीं है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 271 (COI) क्या है?

  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति एवं पद की शर्तें:
    • उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायमूर्ति, राज्य के राज्यपाल एवं मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की स्थिति में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श के पश्चात् राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर व मुहर सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा तथा वह [अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की स्थिति में अनुच्छेद 224 के अनुसार एवं किसी अन्य स्थिति में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह [बासठ वर्ष] की आयु प्राप्त नहीं कर लेता]:
    • शर्ते कि—
  • कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।
  • किसी न्यायाधीश को राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिये अनुच्छेद 124 के खंड (4) में उपबंधित तरीके से उसके पद से हटाया जा सकेगा।
  • किसी न्यायाधीश का पद राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किये जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किये जाने पर रिक्त हो जाएगा।
  • कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये तभी योग्य होगा जब वह भारत का नागरिक हो तथा—
  • भारत के राज्यक्षेत्र में कम-से-कम दस वर्ष तक न्यायिक पद पर रहा हो; या (ख) किसी उच्च न्यायालय या दो या अधिक ऐसे न्यायालयों में लगातार कम-से-कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो;
  •  स्पष्टीकरण— इस खंड के प्रयोजनों के लिये—
    • भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति द्वारा न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में, कोई न्यायिक पद धारण करने के पश्चात् की वह अवधि सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान वह व्यक्ति किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद या संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिये विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है।
    • किसी व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान उस व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात् 3 [न्यायिक पद या किसी अधिकरण के सदस्य का पद या संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिये विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है]।
  • किसी व्यक्ति द्वारा भारत के राज्य क्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की गणना करने में, इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान उसने किसी ऐसे क्षेत्र में न्यायिक पद धारण किया है, जो, यथास्थिति, भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा भारत के 15 अगस्त, 1947 के पूर्व समाविष्ट था, या किसी ऐसे क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रह रहा है।
  • यदि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आयु के संबंध में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का निर्णय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के परामर्श के पश्चात् राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा तथा राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होगा।

वर्तमान मामले में उल्लिखित महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या है?

सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन एवं अन्य बनाम भारत संघ (1993): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि न्यायिक समीक्षा का दायरा नियुक्ति के लिये खुला है, लेकिन एक कॉलेजियम में कई न्यायाधीश होते हैं, जिससे किसी भी प्रकार की मनमानी की संभावना नहीं रहती तथा निष्पक्ष प्रक्रिया उपलब्ध होती है।