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आपराधिक कानून

दण्ड के निलंबन के प्रति उदार दृष्टिकोण

 05-Jul-2024

भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य

“विधि में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि ट्रायल कोर्ट द्वारा दिया गया दण्ड निश्चित अवधि के लिये है, तो सामान्यतः अपीलीय न्यायालय को सज़ा के निलंबन की याचिका पर उदारतापूर्वक विचार करना चाहिये”।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय देते समय विवेक का प्रयोग नहीं किया है तथा इसलिये उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के विरुद्ध नोटिस जारी किया तथा याचिकाकर्त्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाई गई शर्तों के अधीन ज़मानत भी प्रदान की।

भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता 70 वर्षीय व्यक्ति था, जिसकी दृष्टि 90% तक चली गई थी तथा उसे ट्रायल कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता ( IPC) की धाराओं 420, 467, 468, 471, 120-B एवं 201 के अधीन दोषी ठहराया था।
  • याचिकाकर्त्ता को दी गई 4 वर्ष की सश्रम कारावास की सज़ा में से दो वर्ष की सज़ा वह पहले ही काट चुका है।
  • याचिकाकर्त्ता ने अपनी सज़ा के निलंबन के लिये एक आवेदन किया था, जिसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज करने के पीछे कोई पर्याप्त कारण बताए बिना खारिज कर दिया था।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय के विरुद्ध अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने निर्णय पारित करते समय अपने विवेक का प्रयोग नहीं किया है।
  • यह स्पष्ट विधि है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा एक निश्चित अवधि के लिये लगाई गई सज़ा को अपीलीय न्यायालय द्वारा उदार दृष्टिकोण के साथ लिया जाना चाहिये, जब तक कि दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 389 के अनुसार असाधारण परिस्थितियों से अन्यथा निष्कर्ष न निकल जाए।
  • उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण की कड़ी आलोचना की तथा कहा कि यदि उच्च न्यायालय ने अपना विवेक लगाया होता, तो इस अभियोजन को आसानी से टाला जा सकता था।
  • याचिकाकर्त्ता की अक्षमता को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने माना कि उसकी रिहाई न्याय के साथ विरोधाभास नहीं होगी तथा उसे ज़मानत दे दी और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के विरुद्ध नोटिस जारी किया।

सज़ा के निलंबन के लिये क्या कारक हो सकते हैं?

  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने सही कहा है कि सज़ा का निलंबन अधिकार नहीं बल्कि उपचार है।
  • यह भी देखा गया है कि निलंबन केवल दुर्लभतम मामलों में ही दिया जाएगा, जिसमें मामले दर मामले कारकों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जाएगा
  • विभिन्न मामलों से निम्नलिखित कारकों का अनुमान लगाया जा सकता है:
    • सज़ा के निलंबन की अनुमति देते समय दोषी के आपराधिक इतिहास एवं पृष्ठभूमि पर विचार किया जा सकता है।
    • उस अपराध की महत्त्व एवं गंभीरता जिसके लिये वह निलंबन की दलील दे रहा है।
    • ऐसे मामले जहाँ सज़ा के निलंबन की अनुमति न दिये जाने पर दोषी को हुई क्षति अपरिवर्तनीय है तथा इस अनुमति से किसी को कोई हानि नहीं होगी।

भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले से संबंधित भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता के प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 430: अपील लंबित रहने तक सज़ा का निलंबन; अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा करना।
    • किसी दोषी व्यक्ति द्वारा की गई अपील के लंबित रहने तक, अपील न्यायालय, उसके द्वारा लिखित में दर्ज किये जाने वाले कारणों से, यह आदेश दे सकता है कि जिस सज़ा या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है उसका निष्पादन निलंबित कर दिया जाए तथा साथ ही, यदि वह कारावास में है, तो उसे ज़मानत पर या अपने स्वयं के बाॅण्ड या ज़मानत बाॅण्ड पर रिहा कर दिया जाए: बशर्ते कि अपील न्यायालय, किसी ऐसे दोषी व्यक्ति को, जो मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया गया हो, अपने स्वयं के बाॅण्ड या ज़मानत बाॅण्ड पर रिहा करने से पहले, लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर देगा: आगे यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जहाँ किसी दोषी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जाता है, लोक अभियोजक को जमानत रद्द करने के लिये आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता होगी।
    • इस धारा द्वारा अपीलीय न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय द्वारा भी किसी सिद्धदोष व्यक्ति द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय में की गई अपील के मामले में किया जा सकता है।
    • जहाँ सिद्धदोष व्यक्ति उस न्यायालय को, जिसके द्वारा उसे सिद्धदोष ठहराया गया है, संतुष्ट कर देता है कि वह अपील प्रस्तुत करने का आशय रखता है, वहाँ न्यायालय—
      • जहाँ ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रहते हुए तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास की सज़ा दी गई हो, या
      • जहाँ वह अपराध, जिसके लिये ऐसे व्यक्ति को दोषसिद्ध किया गया है, ज़मानतीय है तथा वह ज़मानत पर है, वहाँ आदेश दे सकेगी कि दोषसिद्ध व्यक्ति को, जब तक कि ज़मानत देने से मना करने के लिये विशेष कारण न हों, ज़मानत पर ऐसी अवधि के लिये रिहा किया जाए जो अपील प्रस्तुत करने एवं उपधारा (1) के अधीन अपील न्यायालय के आदेश प्राप्त करने के लिये पर्याप्त समय दे सके, तथा कारावास का दण्डादेश, जब तक वह इस प्रकार ज़मानत पर रिहा रहता है, निलम्बित समझा जाएगा।
    • जब अपीलकर्त्ता को अंततः एक अवधि के लिये कारावास या आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो जिस अवधि के दौरान उसे रिहा किया जाता है, उसे उस अवधि की गणना में शामिल नहीं किया जाएगा जिसके लिये उसे सज़ा सुनाई गई है।
    • यह खण्ड पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 के अधीन आता था।

सिविल कानून

साक्ष्य के रूप में व्हाट्सएप वार्तालाप

 05-Jul-2024

डेल इंटरनेशनल सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम अदील फिरोज़ और अन्य।

“किसी भी स्थिति में, साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अंतर्गत उचित प्रमाण-पत्र के बिना व्हाट्सएप वार्तालाप को साक्ष्य के रूप में नहीं लिया जा सकता है”।

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) के अंतर्गत उचित प्रमाण-पत्र के बिना व्हाट्सएप वार्तालाप को साक्ष्य के रूप में नहीं लिया जा सकता है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने डेल इंटरनेशनल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम अदील फिरोज़ एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

डेल इंटरनेशनल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम अदील फिरोज़ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 और 227 के अंतर्गत न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया तथा दिल्ली राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी, जिसके द्वारा राज्य आयोग ने उस आदेश को यथावत् रखा है जिसमें ज़िला आयोग ने याचिकाकर्त्ता द्वारा दायर लिखित बयान को इस आधार पर स्वीकार करने से प्रतिषेध कर दिया था कि यह परिसीमा अवधि के बाद दायर किया गया है।
  • विवादित आदेश ज़िला आयोग के आदेश के विरुद्ध राज्य आयोग में दायर पुनरीक्षण याचिका के परिणामस्वरूप दिया गया था।
  • इस मामले में प्रतिवादी ने 19 सितंबर 2022 को ज़िला आयोग के समक्ष याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध उपभोक्ता शिकायत मामला दायर किया है।
  • इस मामले में 16 नवंबर 2022 को समन ज़ारी किया गया था। याचिकाकर्त्ता को 23 दिसंबर 2022 को दस्तावेज़ प्राप्त हुए।
  • याचिकाकर्त्ताओं द्वारा तर्क दिया गया कि दस्तावेज़ अधूरे थे।
  • याचिकाकर्त्ता द्वारा 31 जनवरी 2023 को लिखित बयान दाखिल किया गया।
  • 18 अप्रैल 2023 को प्रत्युत्तर दाखिल किया गया और 16 मई 2023 को ज़िला आयोग के समक्ष लिखित बयान दाखिल करने में सात दिनों के विलंब के लिये क्षमा का आवेदन दायर किया गया।
  • ज़िला आयोग ने याचिकाकर्त्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे मामले के कारण लिखित बयान दाखिल करने में सात दिनों के विलंब को क्षमा करने से प्रतिषेध कर दिया।
  • इसके उपरांत याचिकाकर्त्ता ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 47 B के अंतर्गत राज्य आयोग के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर करके ज़िला आयोग द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी।
  • राज्य आयोग ने अपने 12 दिसंबर 2023 के आदेश के तहत पाया कि 04 जुलाई 2023 के आदेश में कोई अनियमितता नहीं थी और उसने अपने पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से प्रतिषेध कर दिया।
  • इस आदेश को रिट याचिका द्वारा चुनौती दी गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने एक व्हाट्सएप स्क्रीनशॉट दाखिल कर यह दर्शाया कि शिकायत की पूरी प्रति तथा अनुलग्नक याचिकाकर्त्ता को प्राप्त नहीं हुए तथा इसे 31 जनवरी 2023 को ज़िला आयोग के समक्ष याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता को ही सौंपा गया।
  • सबसे पहले यह देखा गया कि न्यायाधिकरण की धारा 226 के तहत उच्च न्यायालय अपील न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर रहा है और वह केवल इस बात से संबंधित है कि न्यायाधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर कार्य कर रहा है या नहीं तथा उसने प्राकृतिक न्याय के किसी नियम का उल्लंघन तो नहीं किया है।
  • न्यायालय ने कहा कि स्क्रीनशॉट पर विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्हाट्सएप वार्तालाप को IEA के तहत अनिवार्य उचित प्रमाण-पत्र के बिना साक्ष्य के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि रिकार्ड के अनुसार याचिकाकर्त्ता को समन सहित संपूर्ण दस्तावेज़ तामील करा दिये गए हैं।
  • अतः न्यायालय ने पारित आदेश में हस्तक्षेप करने से प्रतिषेध कर दिया।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 62 और धारा 63 के अधीन इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के संबंध में विधियाँ क्या है?

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 62 में प्रावधान है कि इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों की विषय-वस्तु को धारा 63 के प्रावधानों के अनुसार सिद्ध किया जा सकता है।
  • BSA की धारा 63 में प्रावधान है:
    • इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, किसी इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख में अंतर्विष्ट कोई सूचना, जो कागज़ पर मुद्रित है, प्रकाशीय या चुंबकीय मीडिया या अर्द्धचालक मेमोरी में भंडारित, अभिलिखित या प्रतिलिपिकृत है, जो कंप्यूटर या किसी संचार युक्ति द्वारा निर्मित है या किसी इलेक्ट्रॉनिक रूप में (जिसे इसके पश्चात् कंप्यूटर आउटपुट कहा जाएगा) अन्यथा भंडारित, अभिलिखित या प्रतिलिपिकृत है, दस्तावेज़ समझी जाएगी, यदि प्रश्नगत सूचना और कंप्यूटर के संबंध में इस धारा में उल्लिखित शर्तें पूरी होती हैं और वह किसी कार्यवाही में, बिना किसी अतिरिक्त साक्ष्य या मूल प्रति को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत, या मूल प्रति की किसी अंतर्वस्तु को या उसमें उल्लिखित किसी तथ्य को, जिसके लिये प्रत्यक्ष साक्ष्य स्वीकार्य होगा, ग्राह्य होगी।
    • कंप्यूटर आउटपुट के संबंध में उपधारा (1) में निर्दिष्ट शर्तें निम्नलिखित होंगी, अर्थात्—
      • सूचना युक्त कंप्यूटर आउटपुट, कंप्यूटर या संचार उपकरण द्वारा उस अवधि के दौरान तैयार किया गया था, जिस दौरान कंप्यूटर या संचार उपकरण का उपयोग, कंप्यूटर या संचार उपकरण के उपयोग पर वैध नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति द्वारा उस अवधि के दौरान नियमित रूप से की जाने वाली किसी गतिविधि के प्रयोजनों के लिये सूचना बनाने, संग्रहीत करने या संसाधित करने के लिये नियमित रूप से किया गया था;
      • उक्त अवधि के दौरान, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में निहित प्रकार की सूचना या जिस प्रकार के रिकॉर्ड से वह सूचना प्राप्त हुई है, उक्त गतिविधियों के सामान्य क्रम में नियमित रूप से कंप्यूटर या संचार उपकरण में फीड की गई थी;
      • उक्त अवधि के संपूर्ण भाग के दौरान, कंप्यूटर या संचार उपकरण उचित रूप से कार्य कर रहा था, या यदि नहीं, तो किसी अवधि के संबंध में, जिसमें वह उचित रूप से कार्य नहीं कर रहा था या अवधि के उस भाग के दौरान प्रचालन से बाहर था, तो ऐसा नहीं था कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड या उसकी विषय-वस्तु की सटीकता पर प्रभाव पडा हो; तथा
      • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में निहित सूचना उक्त गतिविधियों के सामान्य क्रम में कंप्यूटर या संचार डिवाइस में डाली गई सूचना का पुनरुत्पादन या उससे व्युत्पन्न होती है।
    • जहाँ किसी अवधि में उपधारा (2) के खंड (क) में उल्लिखित किसी क्रियाकलाप के प्रयोजनों के लिये  सूचना के सृजन, भंडारण या प्रसंस्करण का कार्य नियमित रूप से एक या एक से अधिक कंप्यूटरों या संचार उपकरणों के माध्यम से किया जाता था, चाहे—
      • स्टैंडअलोन मोड में; या
      • कंप्यूटर सिस्टम पर; या
      • कंप्यूटर नेटवर्क पर; या
      • किसी कंप्यूटर संसाधन पर सूचना सृजन या सूचना प्रसंस्करण और भंडारण की सुविधा प्रदान करना; या
      • किसी मध्यस्थ के माध्यम से, उस अवधि के दौरान उस प्रयोजन के लिये उपयोग किये गए सभी कंप्यूटरों या संचार युक्तियों को इस धारा के प्रयोजनों के लिये एकल कंप्यूटर या संचार युक्ति माना जाएगा; और इस धारा में कंप्यूटर या संचार युक्ति के संदर्भों का तद्नुसार अर्थ लगाया जाएगा।
    • किसी कार्यवाही में जहाँ इस धारा के आधार पर साक्ष्य में कथन देना वांछित हो, निम्नलिखित में से कोई भी बात करने वाला प्रमाण-पत्र प्रत्येक बार इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख के साथ प्रस्तुत किया जाएगा जहाँ इसे प्रवेश के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है, अर्थात्—
      • विवरण वाले इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की पहचान करना और उसे तैयार करने के तरीके का वर्णन करना;
      • उस इलैक्ट्रानिक अभिलेख के उत्पादन में प्रयुक्त किसी युक्ति का ऐसा ब्यौरा देना जो यह प्रदर्शित करने के प्रयोजन के लिये उपयुक्त हो कि इलैक्ट्रानिक अभिलेख उपधारा (3) के खंड (क) से खंड (ङ) में निर्दिष्ट किसी कम्प्यूटर या संचार युक्ति द्वारा तैयार किया गया था;
      • उपधारा (2) में उल्लिखित शर्तों से संबंधित किसी भी मामले से निपटने के लिये,
      • और कंप्यूटर या संचार युक्ति के प्रयोगकर्त्ता व्यक्ति या सुसंगत क्रियाकलापों के प्रबंधन (जो भी समुचित हो) और किसी विशेषज्ञ द्वारा हस्ताक्षरित होना तात्पर्यित है, वह प्रमाण-पत्र में कथित किसी विषय का साक्ष्य होगा; तथा इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये यह पर्याप्त होगा कि कोई विषय, अनुसूची में विनिर्दिष्ट प्रमाण-पत्र में कथित व्यक्ति के सर्वोत्तम ज्ञान एवं विश्वास के अनुसार कहा गया हो।
  • यह प्रावधान IEA की धारा 65A और 65B में निहित था।

इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में स्थापित विधिक पूर्वनिर्णय क्या हैं?

  • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में स्थापित विधिक पूर्वनिर्णय उपस्थित हैं
    • अनवर पी. वी. (एस) बनाम पी. के. बशीर और अन्य (2014):
      • इस मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली राज्य बनाम नवजोत संधू उर्फ ​​अफशान गुरु (2005) में निर्धारित विधि को अस्वीकार कर दिया।
      • माननीय न्यायालय ने माना कि धारा 65B एक पूर्ण संहिता और विशेष विधि है, धारा 63 और धारा 65 के तहत सामान्य विधि को लागू किया जाना चाहिये।
      • माननीय न्यायालय ने यहाँ जनरलिया स्पेशलिबस नॉन डेरोगेंट की व्याख्या के नियम को लागू किया।
      • इस प्रकार, माननीय न्यायालय ने माना कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के माध्यम से द्वितीयक साक्ष्य के मामले में धारा 63 और 65 लागू नहीं होती; यह पूरी तरह से धारा 65-A और 65-B द्वारा शासित होती है।
    • शफी मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2018):
      • इस मामले में माननीय न्यायालय ने उस स्थिति में विधिक स्थिति निर्धारित की जब इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य उस पक्ष द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसके पास वह डिवाइस नहीं है जिसमें वह साक्ष्य निहित है।
      • न्यायालय ने कहा कि IEA की धारा 63 और धारा 65 की प्रयोज्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
      • माननीय न्यायालय ने इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के विषय पर विधिक स्थिति निर्धारित की, विशेष रूप से उस पक्ष द्वारा जिसके पास वह उपकरण नहीं है जिससे दस्तावेज़ प्रस्तुत किया गया है। न्यायालय ने माना कि ऐसे पक्ष को साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B(4) के तहत प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं हो सकती।
      • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि प्रमाण-पत्र की आवश्यकता की प्रयोज्यता प्रक्रियागत है तथा न्यायालय द्वारा इसमें छूट दी जा सकती है, जहाँ न्याय का हित उचित हो।
    • अर्जुन पंडितराव खोतकर बनाम कैलाश कुशनराव गोरांटयाल एवं अन्य (2020)
      • अंततः इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य से संबंधित विवाद का निपटारा माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया गया।
      • न्यायालय ने आगे कहा कि यदि मूल दस्तावेज़ ही प्रस्तुत किया जाता है तो धारा 65B (4) के तहत प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है। लैपटॉप, मोबाइल फोन आदि के मालिक द्वारा न्यायालय में आकर ऐसा किया जा सकता है। ऐसे मामलों में जहाँ "कंप्यूटर" किसी "कंप्यूटर सिस्टम" या "कंप्यूटर नेटवर्क" का हिस्सा होता है और ऐसे सिस्टम या नेटवर्क को भौतिक रूप से न्यायालय में लाना असंभव हो जाता है, तो ऐसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में निहित जानकारी प्रदान करने का एकमात्र साधन धारा 65B(1) के अनुसार हो सकता है, साथ ही धारा 65B(4) के तहत अपेक्षित प्रमाण-पत्र भी।
      • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत धारा 67C में प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए उचित नियम और निर्देश तैयार किए जाने चाहिये तथा अपराधों के वादों में शामिल आंकड़ों को बनाए रखने, उनके पृथक्करण, अभिरक्षा शृंखला के नियमों, मुद्रांकन और अभिलेख रखरखाव के लिये वादों और अपीलों की पूरी अवधि के लिये उपयुक्त नियम बनाए जाने चाहिये, तथा भ्रष्टाचार से बचने के लिये मेटा डेटा के संरक्षण के संबंध में भी नियम बनाए जाने चाहिये।

हाल ही में न्यायालय के कौन-से निर्णय लिये गए जिनमें व्हाट्सएप चैट को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया?

  • राकेश कुमार सिंगला बनाम भारत संघ (2021)
    • इस मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अर्जुन पंडितराव बनाम कैलाश कुशनराव (2020) के निर्णय का उदाहरण दिया और कहा कि जब कोई पक्ष व्हाट्सएप संदेशों को इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है तो IEA की धारा 65 Bके तहत प्रमाण-पत्र की आवश्यकता होती है।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि IEA की धारा 65 Bके अनुपालन के बाद व्हाट्सएप संदेशों पर भरोसा किया जा सकता है।
  • मैसर्स करुणा आभूषण प्रा. लि. लिमिटेड बनाम श्री अचल केडिया (2020)
    • इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने विधिक साक्ष्य के रूप में व्हाट्सएप संदेशों की वैधता पर चर्चा की।
    • न्यायालय ने माना कि व्हाट्सएप मैसेजिंग ऐप के माध्यम से भेजे गए संदेश विधि के अंतर्गत वैध विधिक साक्ष्य हैं और संदेश पर नीला निशान इस बात का वैध प्रमाण है कि प्राप्तकर्त्ता ने इसे पढ़ा है।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि मोबाइल व्हाट्सएप और फेसबुक वार्तालाप को न्यायालय में साक्ष्य के रूप में लिया जाता है।
    • न्यायालय ने पुनः दोहराया कि व्हाट्सएप वार्तालाप को सिद्ध करने के लिये IEA की धारा 65B में निहित प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिये।
  • न्यायिक पारदर्शिता और सुधार के लिये राष्ट्रीय अधिवक्ता अभियान बनाम भारत संघ (2017)
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में माना कि व्हाट्सएप के माध्यम से प्राप्त दस्तावेज़ साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुसार दस्तावेज़ की श्रेणी में भी नहीं आता, यदि न तो मूल दस्तावेज़ और न ही मूल दस्तावेज़ की प्रति प्रस्तुत की गई हो।