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आपराधिक कानून

POCSO अधिनियम का दुरुपयोग

 09-Jul-2024

XX बनाम केरल राज्य

“नाबालिग/बच्चों से जुड़े किसी व्यक्ति के बीच प्रतिद्वंद्विता के कारण, गलत आशय से निर्दोष व्यक्तियों को मिथ्या आधार पर फंसाकर, POCSO अधिनियम का दुरुपयोग किया जा सकता है”।

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन की पीठ ने कहा कि न्यायालयों को POCSO अधिनियम के आरोपों पर विचार करते समय सतर्क रहना चाहिये।

  • केरल उच्च न्यायालय ने XX बनाम केरल राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

XX बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्त्ता पर आरोप लगाया गया था कि उसने पीड़िता, जो अपने घर के आँगन में थी, को अश्लील शब्द कहे तथा यौन इरादे से अपनी जीभ से इशारा किया।
  • आरोपी पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 294 (B) और धारा 509 तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) की धारा 11 (i) के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294 (b) के अधीन अपराध तभी माना जाएगा जब यह कृत्य किसी सार्वजनिक स्थान पर या किसी सार्वजनिक स्थान के निकट किया गया हो।
  • वर्तमान मामले में ये शब्द पीड़िता के घर के आँगन में कहे गए थे और इसलिये IPC की धारा 294 (b) के अधीन अपराध नहीं बनता।
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 509 के अंतर्गत आरोप पर न्यायालय ने कहा कि आरोप की जाँच करने पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह यौन इरादे से या पीड़िता का लज्जा भंग करने के लिये किया गया था।
  • POCSO अधिनियम की धारा 11(i) के अधीन आरोप पर न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष ने यह प्रकटन नहीं किया है कि वह इशारा क्या था और इसलिये न्यायालय यह जाँच करने में असमर्थ था कि यह यौन इरादे से किया गया था या पीड़िता की लज्जाभंग या गोपनीयता का उल्लंघन करने के लिये किया गया था।
  • न्यायालय ने कहा कि कुछ गलत आशय वाले वादियों द्वारा POCSO अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसलिये, पुलिस अधिकारियों और न्यायालयों को आरोपों की जाँच करते समय सदैव अत्यधिक सतर्क रहना चाहिये, ताकि आरोपों की सच्चाई का पता लगाया जा सके।

IPC की धारा 294:

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294 में यह प्रावधान है कि जो कोई भी व्यक्ति दूसरों को परेशान करने के लिये किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई अश्लील कृत्य करेगा, या किसी सार्वजनिक स्थान पर या उसके निकट कोई अश्लील गीत, कथा या शब्द गाएगा, सुनाएगा या बोलेगा, उसे तीन महीने तक का कारावास या अर्थदण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
  • यह धारा भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 296 में प्रदान की गई है।

IPC की धारा 509 के अधीन अपराध:

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 509 में यह प्रावधान है कि जो कोई किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के इरादे से कोई शब्द बोलेगा, कोई आवाज़ या इशारा करेगा, या कोई वस्तु प्रदर्शित करेगा, जिसका आशय यह हो कि ऐसा शब्द या ध्वनि उस महिला को सुनाई दे, या ऐसा इशारा या वस्तु उस महिला को दिखाई दे, या वह उस महिला की निजता में व्यवधान उत्पन्न करेगा, तो उसे साधारण कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और अर्थदण्ड भी लगाया जाएगा।
  • यह अनुभाग BNS की 2023 की धारा 79 के अंतर्गत प्रदान किया गया है।

 POCSO अधिनियम क्या है?

  • परिचय:
    • वर्ष 2012 में लागू किया गया POCSO अधिनियम एक ऐतिहासिक विधि है जिसका उद्देश्य बच्चों को यौन दुर्व्यवहार और शोषण से बचाना है।
    • इसका उद्देश्य बच्चों की सुभेद्यता को ध्यान में रखते हुए उनकी सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करना है।
    • इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित बाल अधिकार सम्मेलन के अनुरूप अधिनियमित किया गया था, जिसे भारत सरकार ने 11 दिसंबर, 1992 को स्वीकार किया था।
  • प्रस्तावना:
    • यह अधिनियम बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी के अपराधों से बचाने के लिये बनाया गया है।
      • तथा ऐसे अपराधों के विचारण और उनसे संबंधित या उनके आनुषंगिक विषयों के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना का उपबंध कर सकेगा।
  • मुख्य तिथियाँ:
    • इसकी अधिनियमन तिथि 19 जून 2012 है जबकि POSCO को 14 नवंबर 2012 को लागू किया गया था।
  • POCSO संशोधन अधिनियम, 2019:
    • बाद में POCSO अधिनियम को POCSO संशोधन अधिनियम, 2019 द्वारा संशोधित किया गया, जो 16 अगस्त, 2019 को लागू हुआ।
    • POCSO संशोधन अधिनियम, 2019 ने कड़े दण्ड का प्रावधान किया, POCSO की धारा 2 की उप-धारा (1) में बाल पोर्नोग्राफी को परिभाषित करने वाला खंड (da) डाला।
    • इसमें POCSO अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत सोलह वर्ष से कम आयु के बच्चों के साथ प्रवेशात्मक यौन उत्पीड़न से जुड़े नियम का भी प्रावधान किया गया है।
  • POCSO में ज़मानत:

POCSO अधिनियम के अंतर्गत अपराध क्या हैं?

अपराध

परिभाषा

दण्ड

प्रवेशात्मक यौन हमला (POCSO की धारा 3 और 4 के अंतर्गत)

इसमें किसी व्यक्ति के लिंग, वस्तु या शरीर के किसी भाग को बच्चे की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश कराना, या प्रवेश कराने के लिए बच्चे के शरीर के अंगों के साथ छेड़छाड़ करना शामिल है।

कम-से-कम बीस वर्ष का कठोर कारावास, जो आजीवन या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकेगा और अर्थदण्ड।

गंभीर प्रवेशात्मक यौन हमला (POCSO की धारा 5 और 6 के अंतर्गत)

इसमें पुलिस, सशस्त्र बलों, लोक सेवकों, कुछ संस्थानों के प्रबंधन/कर्मचारियों द्वारा यौन उत्पीड़न, सामूहिक हमला, घातक हथियारों का प्रयोग आदि शामिल है।

कम-से-कम बीस वर्ष का कठोर कारावास, जो आजीवन या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकेगा और अर्थदण्ड।

यौन उत्पीड़न (POCSO की धारा 7 और 8 के अंतर्गत)

इसमें बिना प्रवेश के, यौन आशय से बच्चे के यौन अंगों को छूना या बच्चे से यौन अंगों को छूने को कहना शामिल है।

कम-से-कम तीन वर्ष का कारावास, जिसे पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा तथा अर्थदण्ड।

गंभीर यौन उत्पीड़न (POCSO की धारा 9 और 10 के अंतर्गत)

यह यौन प्रवेशात्मक हमले के समान है, लेकिन इसमें गंभीर कारक शामिल होते हैं, जैसे हथियारों का प्रयोग, गंभीर चोट पहुँचाना, मानसिक बीमारी, गर्भावस्था या पूर्व दोषसिद्धि।

कम-से-कम पाँच वर्ष का कारावास, जो सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा तथा अर्थदण्ड।

यौन उत्पीड़न (POCSO की धारा 11 और 12 के अंतर्गत)

यौन संतुष्टि के लिये किये जाने वाले विभिन्न कार्य जिनमें इशारे, शरीर के अंगों का प्रदर्शन, अश्लील प्रयोजनों के लिये प्रलोभन आदि शामिल हैं।

तीन वर्ष से अधिक कारावास और अर्थदण्ड।

पोर्नोग्राफ़िक उद्देश्यों के लिये बच्चे का उपयोग (POCSO की धारा 13, 14 और 15 के अंतर्गत)

इसमें अश्लील सामग्री या कृत्यों में बच्चे का उपयोग करना शामिल है। धारा 15 अश्लील सामग्री के भंडारण को दण्डित करती है।

कम-से-कम पाँच वर्ष का कारावास, जो सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा तथा अर्थदण्ड।

अपराध करने का प्रयास और दुष्प्रेरण ((POCSO की धारा 16, 17 और 18 के अंतर्गत)

इसमें किसी अपराध को भड़काना, षडयंत्र रचना या सहायता करना शामिल है।

यह दुष्प्रेरण या प्रयास की गंभीरता के आधार पर भिन्न होता है तथा संबंधित अपराध के लिये दण्ड के अनुरूप होता है।

मामले की रिपोर्ट या रिकॉर्ड करने में विफलता (POCSO की धारा 21)

अधिनियम के अंतर्गत अपराध की रिपोर्ट या अभिलेखीकरण करने में विफलता।

छह महीने तक का कारावास, अर्थदण्ड, या दोनों

मिथ्या शिकायत या मिथ्या सूचना (POCSO की धारा 22)

दुर्भावनापूर्ण आशय से मिथ्या शिकायतें करना या गलत सूचना प्रदान करना।

परिस्थितियों के आधार पर छह महीने तक का कारावास, अर्थदण्ड या दोनों


सांविधानिक विधि

पासपोर्ट का नवीनीकरण

 09-Jul-2024

जेसमन जॉय करिप्पेरी बनाम केरल राज्य

चूँकि प्रार्थना पासपोर्ट के पुनः नवीनीकरण के लिये है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा उक्त प्रयोजन के लिये लगाई गई शर्तें कठोर एवं अनावश्यक हैं”।

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन की पीठ ने माना कि पासपोर्ट के पुनर्नवीनीकरण के लिये कठोर शर्तें अनावश्यक हैं।

  • केरल उच्च न्यायालय ने जेसमन जॉय करिप्पेरी बनाम केरल राज्य मामले में यह फैसला सुनाया।

जेसमन जॉय करिप्पेरी बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने पासपोर्ट नवीनीकरण की अनुमति देते समय मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई शर्तों को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था।
  • पासपोर्ट के नवीनीकरण की अनुमति देते समय मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई शर्तें थीं:
    • याचिकाकर्त्ता को 30,000 रुपए का बॉण्ड भरना होगा।
    • याचिकाकर्त्ता को 3,000 रुपए की नकद प्रतिभूति प्रस्तुत करनी होगी।
    • याचिकाकर्त्ता को पासपोर्ट प्राप्त होने के एक सप्ताह के भीतर स्वयं तथा एक साक्षी द्वारा सत्यापित पासपोर्ट की फोटोकॉपी प्रस्तुत करनी होगी।
    • याचिकाकर्त्ता को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी अनुपस्थिति के कारण मामले की सुनवाई में विलंब या समय न बढ़े।
    • याचिकाकर्त्ता को आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय के समक्ष उपस्थित होना होगा।
    • याचिकाकर्त्ता को इस आशय का एक शपथ-पत्र दाखिल करना होगा कि उसका प्रतिनिधित्व एक अधिवक्ता द्वारा किया जाएगा और वह सुनवाई के दौरान अपनी पहचान पर विवाद नहीं करेगा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि लगाई गई शर्तें कठोर और अनावश्यक थीं।
  • न्यायालय ने कहा कि जब अभियुक्त विदेश जाने की अनुमति के बिना केवल पासपोर्ट नवीनीकरण की अनुमति मांगता है तो न्यायालय को कठोर शर्तें लगाने की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि जब अभियुक्त विदेश जाने की अनुमति मांगता है तो आवश्यक शर्तें लगाई जा सकती हैं।

पासपोर्ट से संबंधित प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

परिचय:

  • पासपोर्ट सरकार द्वारा जारी किया जाने वाला एक आधिकारिक यात्रा दस्तावेज़ है जो अंतर्राष्ट्रीय यात्रा के लिये किसी व्यक्ति की पहचान और राष्ट्रीयता प्रमाणित करता है।

पासपोर्ट अधिनियम, 1967:

  • पासपोर्ट अधिनियम, पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज़ों को जारी करने, भारत के नागरिकों तथा अन्य व्यक्तियों के भारत से प्रस्थान को विनियमित करने तथा उससे संबंधित या सहायक मामलों के लिये भारत की संसद का एक अधिनियम है।
  • यह अधिनियम भारत के नागरिकों और अन्य व्यक्तियों के भारत से प्रस्थान तथा उससे संबंधित या सहायक मामलों को नियंत्रित करता है।
  • इस अधिनियम की धारा 6 पासपोर्ट जारी करने से प्रतिषेध करने के आधार निर्धारित करती है।

पासपोर्ट के प्रकार:

पासपोर्ट का प्रकार

वैधता

रंग

जारी किया गया

साधारण        (p टाइप )

वयस्कों के लिये 10 वर्ष,  नाबालिगों के लिये 5 वर्ष 

नीला

सभी भारतीय नागरिक

आधिकारिक

साधारण पासपोर्ट की भाँति

श्वेत

सरकारी अधिकारी

राजनयिक

पाँच वर्ष या इससे कम

मरून

राजनयिक,सरकारी अधिकारी एवं उनके परिवारीजन

उत्प्रवास आवश्यक जाँच (ECR)

साधारण पासपोर्ट की भाँति

नारंगी

भारतीय नागरिक जिन्होंने 10वीं कक्षा उत्तीर्ण न की हो

आकस्मिक प्रमाण-पत्र

संक्षिप्त वैधता

 

विदेश में फँसे हुए भारतीय नागरिक(जिन्हें पासपोर्ट खोने या वैधता समाप्त होने पर भारत आना है)

वीज़ा एवं पासपोर्ट के बीच अंतर:

अभिलक्षण

पासपोर्ट

वीज़ा

जारी करने वाली संस्था

भारत का विदेश मंत्रालय

विदेशी दूतावास

उद्देश्य

भारतीय नागरिक होने का साक्ष्य एवं अंतर्राष्ट्रीय यात्रा के लिये पहचान-पत्र

किसी देश में प्रवेश पाने के लिये स्वीकृति माँगना

वैधता

10 वर्ष

देश, प्रकार एवं उद्देश्य के अनुरूप परिवर्तित होती है

आवश्यकता

सभी भारतीय नारिकों के लिये अनिवार्य (अपवादों को छोड़कर)

देश के अनुरूप परिवर्तित होती है(वीज़ा -मुक्त समझौते के कारण)

 आपराधिक कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान पासपोर्ट के नवीनीकरण के संबंध में क्या विधियाँ हैं?

  • वंगाला कस्तूरी रंगाचार्युलु बनाम केंद्रीय जाँच ब्यूरो (2020):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पासपोर्ट देने से प्रतिषेध केवल तभी किया जा सकता है जब आवेदक को आवेदन की तिथि से ठीक पूर्व 5 वर्ष की अवधि के दौरान नैतिक पतन से संबंधित किसी अपराध के लिये दोषी सिद्ध किया गया हो और कम-से-कम दो वर्ष के कारावास का दण्ड दिया गया हो। (पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6(2)(e))।
    • पासपोर्ट के नवीनीकरण से इस आधार पर प्रतिषेध नहीं किया जा सकता कि आरोपी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही लंबित है।
  • गन्नी भास्कर राव बनाम भारत संघ और अन्य (2023):
    • आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि वह दोषी सिद्ध न हो जाए।
    • अतः किसी मामले का लंबित रहना पासपोर्ट देने से प्रतिषेध करने, नवीनीकरण करने या पासपोर्ट वापस करने की मांग करने का आधार नहीं है।

विदेश यात्रा का अधिकार क्या है?

  • भारत के संविधान में विदेश यात्रा के अधिकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के एक हिस्से के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
  • सतवंत सिंह साहनी बनाम डी. रामरत्नम, सहायक पासपोर्ट अधिकारी, भारत सरकार, नई दिल्ली (1967) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि विदेश यात्रा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है और सरकार विधि द्वारा स्थापित वैध प्रक्रिया के बिना पासपोर्ट जारी करने या ज़ब्त करने से प्रतिषेध नहीं कर सकती है।

संविधान में प्रासंगिक प्रावधान क्या हैं?

  • अनुच्छेद 21: किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
  • अनुच्छेद 19(1)(d): यह अनुच्छेद आवागमन की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें देश के भीतर यात्रा करने का अधिकार भी शामिल है।
  • अनुच्छेद 19(1)(a): यह अनुच्छेद वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें शैक्षिक, सांस्कृतिक या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये विदेश यात्रा का अधिकार भी शामिल है।

सांविधानिक विधि

अभियुक्त के गतिविधि की निगरानी

 09-Jul-2024

फ्रैंक वाईटस बनाम नाॅरकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो

“आरोपी की गतिविधियों पर पुलिस द्वारा लगातार नज़र रखने की अनुमति देने वाली ज़मानत की शर्त स्वीकार्य नहीं है।”

न्यायमूर्ति अभय एस ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत:  उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

फ्रैंक वाइटस बनाम नाॅरकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मामले में उच्चतम न्यायालय ने ज़मानत की उन शर्तों की वैधता पर विचार किया, जिनके अंतर्गत आरोपी व्यक्तियों को गूगल मैप्स के माध्यम से अपना स्थान साझा करना आवश्यक था तथा तर्क दिया कि ऐसी शर्तें संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत निजता के अधिकार का उल्लंघन करती हैं।

  • यह दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई इन कठोर शर्तों को चुनौती देने वाला मामला है।
  • इस निर्णय ने संवैधानिक अधिकारों के साथ ज़मानत प्रतिबंधों को संतुलित करने के महत्त्व को रेखांकित किया, विशेष रूप से भारत में विधिक कार्यवाही का सामना कर रहे विदेशी नागरिकों के संबंध में।

फ्रैंक वाइटस बनाम नाॅरकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • नाइजीरियाई नागरिक फ्रैंक वाइटस पर ड्रग्स मामले में आरोप लगाया गया था तथा उन्होंने ज़मानत मांगी थी।
  • वर्ष 2022 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने दो विवादास्पद शर्तों के साथ अंतरिम ज़मानत दी:
    • आरोपी को विवेचना अधिकारी को दिखाई देने वाले गूगल मैप पर पिन लगाना होगा।
    • आरोपी को नाइजीरियाई उच्चायोग से एक प्रमाण-पत्र प्राप्त करना होगा जिसमें भारत न छोड़ने और न्यायालय में प्रस्तुत होने का वचन दिया गया हो।
  • वाइटस ने इन ज़मानत शर्तों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील के लिये विशेष अनुमति याचिका दायर की।
  • उच्चतम न्यायालय ने प्रारंभ में गूगल इंडिया से यह बताने को कहा कि ज़मानत शर्तों के संबंध में गूगल पिन सुविधा कैसे काम करती है।
  • गूगल इंडिया को क्षमा करने के बाद, न्यायालय ने गूगल LLC को गूगल पिन के कामकाज को स्पष्ट करने का निर्देश दिया।
  • 29 अप्रैल को, गूगल LLC के शपथ-पत्र की समीक्षा करने के बाद, न्यायमूर्ति ओका ने गूगल पिन की शर्त को "अनावश्यक" पाया तथा संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करने वाला पाया।
  • ए. एस. जी. विक्रमजीत बनर्जी द्वारा प्रतिनिधित्व किये गए NCB ने तर्क दिया कि गूगल पिन की शर्त आरोपी के स्थान को ट्रैक करने में सहायता करती है।
  • इस मामले ने गोपनीयता अधिकारों एवं उचित ज़मानत शर्तों के विषय में महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये, विशेषकर भारत में आरोपी विदेशी नागरिकों के लिये।
  • न्यायालय ने दो मुख्य विषयों पर ध्यान केंद्रित किया:
    • क्या अभियुक्त को जाँचकर्त्ताओं के साथ गूगल पिन स्थान साझा करने की आवश्यकता एक वैध ज़मानत शर्त है।
    • क्या विदेशी नागरिकों के लिये ज़मानत भारत न छोड़ने के विषय में उनके दूतावास से आश्वासन प्राप्त करने की शर्त पर हो सकती है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि ज़मानत की शर्तें आरोपी पर लगातार निगरानी रखने की अनुमति देकर ज़मानत के मूल उद्देश्य को पराजित नहीं कर सकती, भले ही न्यायालय द्वारा पहले भी ऐसा किया गया हो।
  • यह देखा गया कि आरोपी की गतिविधियों पर लगातार नज़र रखने की अनुमति देने वाली ज़मानत की शर्तें संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत निजता के अधिकार का उल्लंघन करेंगी।
  • न्यायालय ने कहा कि ज़मानत पर रिहा किये गए अभियुक्त पर लगातार निगरानी रखने की शर्तें लगाना वास्तव में कारावास के समान है, जो ज़मानत के उद्देश्य के विपरीत है।
  • निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि निर्दोषता की धारणा तब तक अभियुक्त पर लागू होती है जब तक कि उसे दोषी सिद्ध नहीं कर दिया जाता तथा उन्हें अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।
  • यह स्वीकार करते हुए कि न्यायालय समय-समय पर रिपोर्टिंग या यात्रा सीमाओं जैसी कुछ प्रतिबंधात्मक शर्तें लगा सकते हैं, न्यायालय ने माना कि पुलिस को लगातार अपनी गतिविधियों का प्रकटन करने की आवश्यकता अस्वीकार्य है।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि गूगल मैप्स पर पिन डालने की शर्त अनावश्यक थी तथा गूगल LLC द्वारा प्रदान की गई सूचना के आधार पर वास्तविक समय की ट्रैकिंग के लिये अप्रभावी थी।
  • न्यायालय ने पाया कि आरोपित शर्त को ज़मानत की शर्त के रूप में इसके तकनीकी निहितार्थों या प्रासंगिकता पर विचार किये बिना शामिल किया गया था।
  • विदेशी नागरिकों के संबंध में, न्यायालय ने माना कि भारत से प्रस्थान न करने के विषय में उनके दूतावास से आश्वासन प्राप्त करने पर ज़मानत की शर्त बनाना सभी मामलों में अनिवार्य नहीं है।
  • निर्णय में ज़मानत की शर्तें लगाने में संयम बरतने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया तथा कहा गया कि आरोपी की स्वतंत्रता को केवल विधि द्वारा अपेक्षित ज़मानत की शर्तें लगाने की सीमा तक ही सीमित किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने दोहराया कि ज़मानत की शर्तें इतनी कठोर नहीं हो सकती कि ज़मानत का आदेश ही विफल हो जाए।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 क्या है?

विधिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 21 जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 21 का मुख्य प्रावधान:

  • मूल अधिकार: यह भारतीय संविधान के मूल अधिकार अध्याय का भाग है।
  • क्षेत्र:
    • 'जीवन' एवं 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' दोनों की रक्षा करता है
    • यह सिर्फ नागरिकों पर ही नहीं, बल्कि सभी व्यक्तियों पर लागू होता है
  • निर्वचन: उच्चतम न्यायालय ने इस अनुच्छेद की बहुत व्यापक व्याख्या की है तथा इसकी परिधि को इसके शाब्दिक अर्थ से कहीं आगे तक विस्तारित कर दिया है।
  • जीवन का अधिकार: इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार एवं इसके साथ जुड़ी सभी वस्तुएँ शामिल हैं, जैसे:
    • जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का अधिकार
    • स्वास्थ्य का अधिकार
    • शिक्षा का अधिकार
    • स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार
    • आश्रय का अधिकार
    • आजीविका का अधिकार
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता: इसमें विभिन्न स्वतंत्रताएँ शामिल हैं, जैसे:
    • आवागमन की स्वतंत्रता
    • निजता का अधिकार
    • एकांत कारावास के विरुद्ध अधिकार
    • शीघ्र विचारण का अधिकार
    • हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार
    • अपना निवास स्थान चुनने का अधिकार
    • कोई भी वैध व्यवसाय या पेशा अपनाने का अधिकार
  • विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया: जीवन या स्वतंत्रता से किसी भी प्रकार का वंचन विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होना चाहिये।
    • प्रक्रिया न्यायसंगत, निष्पक्ष एवं उचित होनी चाहिये।
  • उचित प्रक्रिया: न्यायिक व्याख्या के माध्यम से, 'उचित प्रक्रिया' की अवधारणा को अनुच्छेद 21 में शामिल किया गया है, जिसका अर्थ है कि प्रक्रिया न केवल विधि द्वारा निर्धारित होनी चाहिये, बल्कि न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित भी होनी चाहिये।
  • विस्तार: अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षण भारत के क्षेत्र के भीतर सभी व्यक्तियों, नागरिकों एवं गैर-नागरिकों को समान रूप से प्रदान किया जाता है।
  • जबकि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अधिकार मूल हैं, वे निरपेक्ष नहीं हैं तथा राज्य के हित में विधि द्वारा लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन हो सकते हैं।
  • यह सिद्ध करने का भार कि जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का वंचन विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार है, राज्य पर है।
  • अनुच्छेद 21 राज्य की मनमानी कार्यवाही के विरुद्ध एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है तथा न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से विभिन्न सहायक अधिकारों के विकास का आधार बनाता है।

अनुच्छेद 21 से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामला:

  • ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): "व्यक्तिगत स्वतंत्रता" की प्रारंभिक संकीर्ण व्याख्या केवल शारीरिक संयम से मुक्ति के रूप में की गई।
  • आर. सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970): अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत स्वतंत्रता को शामिल करने के लिये "व्यक्तिगत स्वतंत्रता" का विस्तार किया गया।
  • खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1963): अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत अधिकारों को शामिल करने के लिये "व्यक्तिगत स्वतंत्रता" को और अधिक व्यापक बनाया गया।
  • मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): यह अनुच्छेद 21 का विस्तार करते हुए गरिमा के साथ जीने के अधिकार को शामिल करने वाला ऐतिहासिक निर्णय है। जिसमें न्यायालय द्वारा स्थापित किया गया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रक्रिया "निष्पक्ष, न्यायसंगत एवं उचित" होनी चाहिये।
  • ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (1985): अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार के अभिन्न अंग के रूप में आजीविका के अधिकार को मान्यता दी गई।
  • विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सुरक्षित कार्य वातावरण के अधिकार को मूल अधिकार माना गया। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिये दिशा-निर्देश स्थापित किये गए।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014): ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सुरक्षा प्रदान की गई, जिसमें उनकी आत्म-पहचान के अधिकार को मान्यता दी गई।
  • एनिमल वेलफेयर बोर्ड बनाम ए. नागराजा (2014): जानवरों को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सुरक्षा प्रदान की गई, जिसमें 'पैरेंस पैट्रिया' एवं अनुच्छेद 51A(g) के सिद्धांत का आह्वान किया गया।
  • कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018): निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैध बनाया गया, जिसमें अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सम्मान के साथ मरने के अधिकार को मान्यता दी गई।
  • ए. के. रॉय बनाम भारत संघ (1982): राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम को यथावत् रखा गया, जिसमें कहा गया कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सार्वभौमिक रूप से लागू नहीं होते।

अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता के अधिकार से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले:

  • के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017):
    • उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से माना कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षित एक मूल अधिकार है।
    • न्यायालय ने निजता को जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न अंग माना।
    • न्यायालय ने स्थापित किया कि निजता के किसी भी उल्लंघन को वैधता, आवश्यकता एवं आनुपातिकता के त्रिगुण परीक्षण को पूरा करना होगा।
  • मलक सिंह बनाम पंजाब एवं हरियाणा राज्य (1981):
    • हालाँकि यह मामला निजता को मूल अधिकार के रूप में स्पष्ट मान्यता दिये जाने से पहले का है, लेकिन इसमें निगरानी के मुद्दों पर भी चर्चा हुई।
    • न्यायालय ने माना कि निगरानी विनीत होनी चाहिये तथा तर्कसंगतता की सीमा के अंदर होनी चाहिये।
  • पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) बनाम भारत संघ (1997):
    • यह मामला टेलीफोन टैपिंग एवं निगरानी से संबंधित था।
    • न्यायालय ने माना कि टेलीफोन टैपिंग निजता का गंभीर उल्लंघन है तथा इसे केवल सख्त सांविधिक सुरक्षा उपायों के अंतर्गत ही किया जाना चाहिये।
  • राम जेठमलानी बनाम भारत संघ (2011):
    • यह मामला मुख्य रूप से काले धन से जुड़ा था, लेकिन इसमें निजता के अधिकार पर भी चर्चा हुई।
    • न्यायालय ने कहा कि निजता का अधिकार जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है।
  • गोविंद बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1975):
    • यह मामला, निजता को मूल अधिकार के रूप में स्पष्ट मान्यता दिये जाने से पहले का है, लेकिन इसमें निजता अधिकारों की अवधारणा पर चर्चा की गई।
    • न्यायालय ने माना कि निजता-गरिमा के दावों की सावधानीपूर्वक जाँच की जानी चाहिये तथा उन्हें तभी अस्वीकार किया जाना चाहिये जब कोई महत्त्वपूर्ण प्रतिपूरक हित श्रेष्ठ सिद्ध हो।

ज़मानत  से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं, शर्त यह है कि आरोपी को गूगल लोकेशन साझा करनी चाहिये , जो निजता के अधिकार का उल्लंघन है?

  • प्रवर्तन निदेशालय बनाम रमन भूरारिया (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि किसी अभियुक्त पर ज़मानत की शर्त लगाना, जिसके अंतर्गत उसे ज़मानत की पूरी अवधि के दौरान अपने मोबाइल फोन से संबंधित विवेचना अधिकारी को अपना गूगल लोकेशन बताना होगा, प्रथम दृष्टया उसकी निजता के अधिकार का उल्लंघन है।

अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निर्दोषता की धारणा के सिद्धांत एवं अभियुक्त व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?

  • राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977):
    • न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, "मूल नियम शायद संक्षेप में ज़मानत के रूप में रखा जा सकता है, जेल के रूप में नहीं”।
    • इसने निर्दोषता की धारणा और एक आरोपी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को रेखांकित किया।
  • सिद्धराम सतलिंगप्पा म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011):
    • न्यायालय ने दोहराया कि ज़मानत एक नियम है तथा जेल अपवाद है।
    • न्यायालय ने ज़मानत आवेदनों पर विचार करते समय व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सामाजिक हितों के मध्य संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980):
    • यह मामला अग्रिम ज़मानत से संबंधित था, लेकिन इसमें निर्दोषता की धारणा पर ज़ोर दिया गया।
    • न्यायालय ने माना कि ज़मानत का अधिकार सीधे संविधान के अनुच्छेद 21 से संबद्ध है।
  • अर्नब मनोरंजन गोस्वामी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020):
    • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि एक दिन के लिये भी स्वतंत्रता से वंचित करना बहुत खतरनाक है।
    • इसने एक नियम के रूप में ज़मानत के महत्त्व एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा की आवश्यकता को दोहराया।
  • निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ (2017):
    • धन शोधन निवारण अधिनियम के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर विचार करते हुए न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि निर्दोषता की धारणा एक मानव अधिकार है।
  • संजय चंद्रा बनाम सीबीआई (2012):
    • न्यायालय ने माना कि ज़मानत का उद्देश्य न तो दण्डात्मक है और न ही निवारक।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दण्डात्मक उपाय के रूप में ज़मानत देने से मना करना निर्दोषता की धारणा की अवधारणा के विपरीत होगा।
  • केरल राज्य बनाम रानीफ (2011):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ज़मानत तभी दी जानी चाहिये जब अभियुक्त यह दिखा सके कि यह मानने के लिये उचित आधार मौजूद हैं कि वह अपराध का दोषी नहीं है।