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आपराधिक कानून

वीडियोग्रा फी और फोटोग्राफी का प्रयोग

 11-Jul-2024

बंटू बनाम राज्य सरकार NCT दिल्ली  

“बदलते समय की आवश्यकता को समझते हुए विधायिका ने अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) पारित कर दी है। अब फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी के प्रयोग को अनिवार्य कर दिया गया है”।

न्यायमूर्ति अमित महाजन

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अमित महाजन की पीठ ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अंतर्गत अब फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी अनिवार्य कर दी गई है।

बंटू बनाम राज्य सरकार, NCT दिल्ली मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • अभियोजन का मामला यह है कि संबंधित पुलिस अधिकारी को सूचना मिली थी कि आवेदक हिमाचल प्रदेश से ला कर दिल्ली में ‘चरस’ की आपूर्ति करता था।
  • छापेमारी की गई और आवेदक को गिरफ्तार कर लिया गया।
  • आरोपी को स्वापक औषधि एवं मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS) की धारा 50 के अंतर्गत नोटिस दिया गया।
  • आरोप है कि तलाशी के दौरान आवेदक के कब्ज़े से एक बैग चरस बरामद किया गया।
  • वर्तमान आवेदन दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 439 के तहत नियमित ज़मानत प्रदान करने की मांग करते हुए दायर किया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने नियमित ज़मानत आवेदन और वर्तमान आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • अभियोजन पक्ष का मामला:
    • आवेदक का मामला यह था कि NDPS अधिनियम की धारा 50 के तहत आवेदक को दिये गए नोटिस में 'निकटतम' शब्द नहीं था।
    • आवेदक ने कहा कि स्वतंत्र साक्षियों से पूछताछ नहीं की गई।
    • आवेदक ने यह भी कहा कि पुलिस ने तलाशी की वीडियोग्राफी या फोटोग्राफी भी नहीं कराई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पहली दलील को स्वीकार नहीं किया और कहा कि राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी लेने के संदिग्ध व्यक्ति के अधिकार के विषय में सूचित करते समय ‘निकटतम’ शब्द का उल्लेख न करना किसी भी तरह से इस अधिकार को समाप्त नहीं करता है।
  • स्वतंत्र साक्षियों से पूछताछ न करने के संबंध में न्यायालय ने कई निर्णयों का उदाहरण दिया।
    • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि पुलिस अधिकारियों की विश्वसनीय साक्षी दोषसिद्धि का आधार बन सकती है, किंतु स्वतंत्र गवाहों से पुष्टि न मिलने के कारण न्यायालय पर सावधानी बरतने का दायित्व आ जाता है।
  • अंत में, अंतिम तर्क पर न्यायालय ने माना कि मात्र वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी का अभाव अभियोजन पक्ष के मामले को निरस्त नहीं करता है, परंतु इससे अभियोजन पक्ष के मामले की सत्यता पर संदेह पैदा हो सकता है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि विधानमंडल ने अब BNSS पारित कर दिया है, जिसके अधीन वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी अनिवार्य है।
    • फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी को साक्ष्यों की बेहतर समझ तथा मूल्यांकन के लिये सर्वोत्तम पद्धतियों के रूप में सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है।
    • इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि अभियोजन पक्ष जाँच के दौरान बरामदगी का बेहतर दस्तावेज़ीकरण करने में सक्षम हो।
    • BNSS में प्रावधान है कि तलाशी और ज़ब्ती की कार्यवाही ऑडियो-वीडियो माध्यम से, अधिमान रूप में, मोबाइल फोन के माध्यम से रिकॉर्ड की जाएगी।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि आवेदक के वाद में काफी विलंब हुआ है।
  • अतः न्यायालय ने अंततः आवेदक को ज़मानत दे दी।

CrPC की धारा 439 के अधीन ज़मानत

  • CrPC की धारा 439 में उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय को ज़मानत देने के लिये विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
  • उपधारा (1) में प्रावधान है कि उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय निर्देश दे सकता है-
    • किसी अपराध के आरोपी और अभिरक्षा में लिये गए किसी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जाएगा और यदि अपराध धारा 437 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट प्रकृति का है तो वह कोई भी शर्त लगा सकेगा जिसे वह उस उपधारा में उल्लिखित प्रयोजनों के लिये आवश्यक समझे;
    • किसी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करते समय मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई किसी भी शर्त को रद्द या संशोधित किया जाए :
    • परंतु उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो किसी ऐसे अपराध का अभियुक्त है जो अनन्यतः सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है या जो यद्यपि इस प्रकार विचारणीय नहीं है, तथापि आजीवन कारावास से दण्डनीय है, ज़मानत देने के पूर्व, ज़मानत के लिये आवेदन की सूचना लोक अभियोजक को देगा जब तक कि लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से उसकी यह राय न हो कि ऐसी सूचना देना साध्य नहीं है।
    • आगे यह भी प्रावधान है कि उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 की उपधारा (3) या धारा 376 AB या धारा 376 DA या धारा 376 DB के अधीन विचारणीय अपराध का आरोपी है, ज़मानत देने से पूर्व, ज़मानत के लिये आवेदन की सूचना ऐसे आवेदन की सूचना प्राप्त होने की तिथि से पंद्रह दिन की अवधि के भीतर लोक अभियोजक को देगा।
    • उप-धारा (1A) में यह प्रावधान है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 की उप-धारा (3) या धारा 376 AB या धारा 376 DA या धारा 376 DB के अधीन व्यक्ति को ज़मानत के लिये आवेदन की सुनवाई के समय सूचना देने वाले या उसके द्वारा अधिकृत किसी व्यक्ति की उपस्थिति अनिवार्य होगी।
  • उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि इस अध्याय के अंतर्गत ज़मानत पर रिहा किये गए किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाए तथा उसे अभिरक्षा में सौंपा जाए।
  • BNSS की धारा 483 के अधीन भी यही प्रावधान है।

CrPC के तहत तलाशी और ज़ब्ती के प्रावधान क्या हैं?

  • CrPC की धारा 100 में बंद स्थान के प्रभारी व्यक्ति को तलाशी लेने की अनुमति देने से संबंधित प्रावधान दिये गए हैं।
  • यह प्रावधान BNSS की धारा 103 के अंतर्गत रखा गया है।
    • उपधारा (1) में यह उपबंध है कि जब कभी इस अध्याय के अधीन तलाशी या निरीक्षण के योग्य कोई स्थान बंद कर दिया जाता है, तो ऐसे स्थान में निवास करने वाला या उसका भारसाधक कोई व्यक्ति, वारंट निष्पादित करने वाले अधिकारी या अन्य व्यक्ति की मांग पर और वारंट प्रस्तुत किये जाने पर, उसे वहाँ अबाध प्रवेश देगा तथा वहाँ तलाशी के लिये सभी युक्तियुक्त सुविधाएँ प्रदान करेगा।
    • उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि यदि ऐसे स्थान में प्रवेश इस प्रकार प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तो वारंट निष्पादित करने वाला अधिकारी या अन्य व्यक्ति धारा 47 की उपधारा (2) द्वारा प्रदान की गई रीति से कार्यवाही कर सकता है।
    • उपधारा (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी ऐसे स्थान में या उसके आस-पास किसी व्यक्ति के विषय में यह उचित संदेह हो कि उसने अपने पास कोई वस्तु छिपा रखी है, जिसकी तलाशी ली जानी चाहिये, तो ऐसे व्यक्ति की तलाशी ली जा सकेगी और यदि वह व्यक्ति महिला है, तो तलाशी उसकी शालीनता का पूरा ध्यान रखते हुए किसी अन्य महिला द्वारा की जाएगी।
    • उपधारा (4) में यह उपबंध है कि इस अध्याय के अधीन तलाशी लेने से पूर्व, तलाशी लेने वाला अधिकारी या अन्य व्यक्ति उस स्थान के, जिसमें तलाशी लिया जाने वाला स्थान स्थित है, दो या अधिक स्वतंत्र और प्रतिष्ठित निवासियों को या किसी अन्य स्थान के दो या अधिक स्वतंत्र तथा प्रतिष्ठित निवासियों को, यदि उक्त स्थान का ऐसा कोई निवासी उपलब्ध नहीं है या तलाशी का साक्षी होने के लिये सहमत नहीं है, तलाशी में उपस्थित होने एवं उसे देखने के लिये बुलाएगा और उन्हें या उनमें से किसी को ऐसा करने के लिये लिखित आदेश जारी कर सकेगा।
    • उपधारा (5) में यह उपबंध है कि तलाशी उनकी उपस्थिति में की जाएगी और ऐसी तलाशी के दौरान अभिगृहीत सभी चीज़ों की तथा उन स्थानों की, जहाँ वे क्रमशः पाई गई हैं, सूची ऐसे अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा तैयार की जाएगी तथा ऐसे साक्षियों द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी; किंतु इस धारा के अधीन तलाशी का साक्षी होने वाले किसी व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह तलाशी के साक्षी के रूप में न्यायालय में उपस्थित हो, जब तक कि न्यायालय द्वारा उसे विशेष रूप से नहीं बुलाया जाए।
    • उपधारा (6) में यह प्रावधान है कि जिस स्थान की तलाशी ली जा रही है, उसके अधिभोगी को या उसकी ओर से किसी व्यक्ति को प्रत्येक दशा में तलाशी के दौरान उपस्थित रहने की अनुमति दी जाएगी और इस धारा के अधीन तैयार की गई सूची की एक प्रति, उक्त साक्षियों द्वारा हस्ताक्षरित, ऐसे अधिभोगी या व्यक्ति को दी जाएगी।
    • उपधारा (7) में यह प्रावधान है कि जब किसी व्यक्ति की उपधारा (3) के अधीन तलाशी ली जाती है तो कब्ज़े में ली गई सभी चीज़ों की सूची तैयार की जाएगी और उसकी एक प्रति ऐसे व्यक्ति को दी जाएगी।
    • उप-धारा (8) में यह प्रावधान है कि कोई व्यक्ति जो बिना किसी उचित कारण के, इस धारा के अधीन तलाशी में उपस्थित होने और उसे देखने से प्रतिषेध करता है या उपेक्षा करता है, जब उसे लिखित आदेश द्वारा ऐसा करने के लिये कहा जाता है, तो उसे भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 187 के अधीन अपराध किया हुआ समझा जाएगा।
  • CrPC की धारा 165 में पुलिस अधिकारी द्वारा तलाशी का प्रावधान-
    • उपधारा (1) में यह उपबंध है कि जब कभी किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने के लिये युक्तियुक्त आधार हों कि किसी अपराध के अन्वेषण के प्रयोजनों के लिये आवश्यक कोई बात, जिसका अन्वेषण करने के लिये वह प्राधिकृत है, उस पुलिस थाने की सीमाओं के भीतर किसी स्थान में मिल सकती है जिसका वह भारसाधक है या जिससे वह संबद्ध है, और उसकी राय में ऐसी बात बिना असम्यक् विलंब के अन्यथा प्राप्त नहीं की जा सकती, तो ऐसा अधिकारी अपने विश्वास के आधारों को लेखबद्ध करने के पश्चात् और जहाँ तक ​​संभव हो, उस बात को ऐसे लेख में विनिर्दिष्ट करने के पश्चात्, जिसके लिये तलाशी की जानी है, ऐसे थाने की सीमाओं के भीतर किसी स्थान में ऐसी बात के लिये तलाशी ले सकता है या तलाशी करा सकता है।
    • उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि साध्य हो, स्वयं तलाशी लेगा।
    • उपधारा (3) में यह उपबंध है कि यदि वह स्वयं तलाशी लेने में असमर्थ है और उस समय तलाशी लेने के लिये सक्षम कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित नहीं है, तो वह ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करने के पश्चात् अपने अधीनस्थ किसी अधिकारी से तलाशी लेने की अपेक्षा कर सकेगा तथा वह ऐसे अधीनस्थ अधिकारी को लिखित आदेश देगा, जिसमें तलाशी लेने का स्थान एवं जहाँ तक ​​संभव हो, वह चीज़ जिसके लिये तलाशी ली जानी है, विनिर्दिष्ट किया जाएगा व ऐसा अधीनस्थ अधिकारी तत्पश्चात् ऐसी चीज़ के लिये ऐसे स्थान में तलाशी ले सकेगा।
    • उपधारा (4) में यह प्रावधान है कि तलाशी वारंट के संबंध में इस संहिता के प्रावधान तथा धारा 100 में निहित तलाशी के संबंध में साधारण प्रावधान, जहाँ तक ​​हो सके, इस धारा के अधीन की गई तलाशी पर लागू होंगे।
    • उपधारा (5) में यह प्रावधान है कि उपधारा (1) या उपधारा (3) के अधीन बनाए गए किसी अभिलेख की प्रतियाँ, अपराध का संज्ञान लेने के लिये सक्षम निकटतम मजिस्ट्रेट को तत्काल भेजी जाएंगी और तलाशी लिये गए स्थान के स्वामी या अधिभोगी को आवेदन किये जाने पर मजिस्ट्रेट द्वारा उसकी एक प्रति निशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी।

CrPC की धारा 165 और BNSS की धारा 185 के बीच तुलना?

  • दोनों प्रावधानों का तुलनात्मक विश्लेषण निम्न प्रकार है:

CrPC की धारा 165

BNSS की धारा 185

(1) जब कभी किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने के लिये उचित आधार हों कि किसी अपराध के अन्वेषण के प्रयोजनों के लिये आवश्यक कोई बात, जिसका अन्वेषण करने के लिये वह प्राधिकृत है, उस पुलिस थाने की सीमाओं के भीतर किसी स्थान में मिल सकती है जिसका वह भारसाधक है या जिससे वह संबद्ध है, और ऐसी बात उसकी राय में बिना अनुचित विलंब के अन्यथा प्राप्त नहीं की जा सकती, तो ऐसा अधिकारी अपने विश्वास के आधारों को लेखबद्ध करने के पश्चात् और जहाँ तक ​​संभव हो, उस बात को लेखबद्ध करके, जिसके लिये तलाशी की जानी है, विनिर्दिष्ट करने के पश्चात्, ऐसे थाने की सीमाओं के भीतर किसी स्थान में ऐसी बात के लिये तलाशी ले सकता है या तलाशी करवा सकता है।

(1) जब कभी किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने के लिये युक्तियुक्त आधार हों कि किसी अपराध के अन्वेषण के प्रयोजनों के लिये आवश्यक कोई बात, जिसका अन्वेषण करने के लिये वह प्राधिकृत है, उस पुलिस थाने की सीमाओं के भीतर किसी स्थान में मिल सकती है जिसका वह भारसाधक है या जिससे वह संबद्ध है, और उसकी राय में ऐसी बात बिना असम्यक् विलंब के अन्यथा प्राप्त नहीं की जा सकती, तो ऐसा अधिकारी अपने विश्वास के आधारों को केस डायरी में लेखबद्ध करने के पश्चात् और जहाँ तक ​​संभव हो, उस बात को लेखबद्ध करके, जिसके लिये तलाशी की जानी है, उस थाने की सीमाओं के भीतर किसी स्थान में ऐसी बात के लिये तलाशी ले सकता है या तलाशी करा सकता है।

(2) उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि संभव हो, स्वयं तलाशी लेगा।

(2) उप-धारा (1) के अधीन कार्यवाही करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि संभव हो, तो स्वयं तलाशी लेगा:

बशर्ते कि इस धारा के अधीन की गई तलाशी ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक साधनों, अधिमानतः मोबाइल फोन द्वारा रिकॉर्ड की जाएगी।

 दोनों में खंड (3) समान है

खंड (4) दोनों में समान है

(5) उपधारा (1) या उपधारा (3) के अधीन बनाए गए किसी अभिलेख की प्रतियाँ तुरंत निकटतम मजिस्ट्रेट को भेजी जाएंगी, जो अपराध का संज्ञान लेने के लिये सक्षम हो, और तलाशी लिये गए स्थान के स्वामी या अधिभोगी को, आवेदन किये जाने पर, मजिस्ट्रेट द्वारा उसकी एक प्रति निशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी।

(5) उपधारा (1) या उपधारा (3) के अधीन बनाए गए किसी अभिलेख की प्रतियाँ तुरंत, किंतु अड़तालीस घंटे के भीतर, अपराध का संज्ञान लेने के लिये सक्षम निकटतम मजिस्ट्रेट को भेजी जाएंगी और तलाशी लिये गए स्थान के स्वामी या अधिभोगी को, आवेदन किये जाने पर, मजिस्ट्रेट द्वारा उसकी एक प्रति निशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी।

BNSS के अंतर्गत जाँच और परीक्षण के लिये ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक साधनों के संबंध में क्या प्रावधान हैं?

  • BNSS की धारा 105 में प्रावधान है कि ‘ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से तलाशी और ज़ब्ती की रिकॉर्डिंग’ के साथ-साथ ज़ब्त की गई वस्तुओं की सूची अधिकारियों को भेजी जानी चाहिये:
    • इस अध्याय या धारा 185 के अधीन किसी स्थान की तलाशी लेने या किसी संपत्ति, वस्तु या चीज़ को कब्ज़े में लेने की प्रक्रिया, जिसके अंतर्गत ऐसी तलाशी और ज़ब्ती के दौरान ज़ब्त की गई सभी चीज़ों की सूची तैयार करना और साक्षियों द्वारा ऐसी सूची पर हस्ताक्षर करना भी है, किसी भी ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम, अधिमानतः मोबाइल फोन के माध्यम से रिकॉर्ड की जाएगी और पुलिस अधिकारी बिना विलंब किये ऐसी रिकॉर्डिंग को ज़िला मजिस्ट्रेट, सब-डिविज़नल मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा।
  • BNSS की धारा 183 (जो स्वीकारोक्ति को रिकॉर्ड करने का प्रावधान करती है) के प्रावधान में 'हो सकता है' शब्द शामिल है, जो मजिस्ट्रेट के लिये ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से स्वीकारोक्ति और बयान रिकॉर्ड करना वैकल्पिक बनाता है।
  • BNSS की धारा 176(3) में सात वर्ष या उससे अधिक के दण्ड वाले सभी अपराधों में फोरेंसिक साक्ष्य एकत्र करने और मोबाइल फोन या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण पर प्रक्रिया की वीडियोग्राफी करने का आदेश दिया गया है।
  • BNSS की धारा 180 के अधीन पुलिस के समक्ष साक्षियों के बयान की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग का प्रावधान है, परंतु पुलिस अधिकारी के पास यह विकल्प विवेकाधीन रहता है।
  • BNSS की धारा 54 के अंतर्गत परीक्षण पहचान परेड की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग का प्रावधान किया गया है।
  • आरोपी व्यक्ति को आरोपों के विषय में बताने और समझाने के लिये ऑडियो-वीडियो माध्यम का उपयोग BNSS की धारा 251(2) द्वारा किया गया है।
  • BNSS की धारा 254, सत्र मामलों में साक्ष्य जमा करने या साक्षियों, पुलिस अधिकारियों, लोक सेवकों या विशेषज्ञों के बयानों के लिये ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक साधनों के उपयोग की अनुमति देती है।
  • BNSS की धारा 265 और 266 राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित निर्दिष्ट स्थान पर ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से साक्षी की जाँच की अनुमति देती है।
  • BNSS की धारा 308 इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से अभियुक्तों की जाँच करने का अधिकार देती है, विशेष रूप से राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट किसी भी स्थान पर सुलभ ऑडियो-वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (VC) सुविधाओं का उपयोग करके।
  • BNSS की धारा 336, लोक सेवक की साक्षी के लिये ऑडियो-वीडियो माध्यमों के उपयोग की अनुमति देती है।

सिविल कानून

परिसीमा अधिनियम की धारा 4

 11-Jul-2024

पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम राजपथ कॉन्ट्रैक्टर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड

उच्चतम  न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यदि कोई आवेदन 3 महीने की अवधि के उपरांत दायर किया जाता है तो उसे परिसीमा अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत लाभ नहीं मिलेगा”।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत : उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम राजपथ कॉन्ट्रैक्टर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड के मामले में माना है कि इस मामले में निर्धारित अवधि की समाप्ति के उपरांत परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 4 को लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि न्यायालय उस अवधि के दौरान काम कर रहा था।

पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम राजपथ कॉन्ट्रैक्टर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में वादी और प्रतिवादी के बीच संविदा थी, विवाद उत्पन्न हुआ तथा प्रतिवादी ने मध्यस्थता खंड को रद्द कर दिया।
  • 30 जून 2022 को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रतिवादी के पक्ष में मध्यस्थता पंचाट पारित किया गया। प्रतियाँ उसी दिन प्राप्त हुईं।
  • अपीलीय-याचिकाकर्त्ता ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत 31 अक्तूबर 2022 को कलकत्ता उच्च न्यायालय में पंचाट को रद्द करने के लिये याचिका दायर की, क्योंकि न्यायालयों में 1अक्तूबर 2022 से 30 अक्तूबर 2022 तक दुर्गापूजा अवकाश था।
  • उच्च न्यायालय ने याचिका को अस्वीकार कर दिया क्योंकि परिसीमा अधिनियम 1963 (LA) के अंतर्गत प्रतिबंध था और याचिका 30 सितंबर 2022 को या उससे पहले दायर की जानी चाहिये थी, उसके बाद नहीं।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि A & C अधिनियम की धारा 34(3) के अनुसार परिसीमा अवधि तीन महीने है और 30 दिनों के विस्तार का प्रावधान "निर्धारित अवधि" वाक्यांश के अंतर्गत शामिल नहीं है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 12 के अनुसार परिसीमा अवधि 1 जुलाई 2022 से आरंभ हुई।
    • अतः 30 दिनों की अधिकतम अवधि की अनुमति देकर परिसीमा अवधि 30 अक्तूबर 2022 को समाप्त हो गई।
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम की धारा 4 लागू नहीं होती, क्योंकि छुट्टियाँ निर्धारित अवधि से पहले ही समाप्त हो गईं और अपीलकर्त्ता इसका अनुपालन करने में विफल रहा।

इस मामले में कौन-से विधिक प्रावधान संदर्भित हैं?

A&C अधिनियम की धारा 34:

यह धारा मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने के आवेदन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

 किसी मध्यस्थता पंचाट के विरुद्ध न्यायालय का आश्रय केवल उपधारा (2) और उपधारा (3) के अनुसार ऐसे पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन द्वारा ही लिया जा सकेगा।

न्यायालय द्वारा मध्यस्थता निर्णय को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब

(a) आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ अधिकरण के रिकॉर्ड के आधार पर यह स्थापित करता है कि—

(i) कोई पक्ष किसी अक्षमता से ग्रस्त था, या

(ii) मध्यस्थता समझौता उस विधि के अधीन वैध नहीं है जिसके अधीन पक्षकारों ने इसे रखा है या, उस पर कोई संकेत न होने पर, उस समय लागू विधि के तहत वैध नहीं है; या

(iii) आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ की नियुक्ति या मध्यस्थता कार्यवाही की समुचित सूचना नहीं दी गई थी या वह अन्यथा अपना मामला प्रस्तुत करने में असमर्थ था; या

(iv) मध्यस्थता पंचाट किसी ऐसे विवाद से संबंधित है जो मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है या उसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है, या इसमें मध्यस्थता के लिये  प्रस्तुत किये जाने के दायरे से परे मामलों पर निर्णय शामिल हैं:

बशर्ते कि, यदि मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत मामलों पर निर्णयों को उन मामलों से अलग किया जा सकता है जो इस प्रकार प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, तो मध्यस्थता पंचाट का केवल वह भाग अपास्त किया जा सकेगा जिसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों पर निर्णय अंतर्विष्ट हैं; या

(v) मध्यस्थ अधिकरण की संरचना या मध्यस्थ प्रक्रिया पक्षकारों की सहमति के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा समझौता इस भाग के किसी ऐसे उपबंध के विरोध में न हो, जिससे पक्षकार मुक्त नही हो सकते, या ऐसा समझौता न होने की स्थिति में, इस भाग के अनुसार नहीं था; या

(b) न्यायालय का मानना ​​है कि—

(i) विवाद की विषय-वस्तु वर्तमान में लागू विधि के अंतर्गत मध्यस्थता द्वारा निपटान योग्य नहीं है, या

(ii) मध्यस्थता पंचाट भारत की सार्वजनिक नीति के विपरीत है।

(2A) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थताओं के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थताओं से उत्पन्न मध्यस्थता पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय पाता है कि पंचाट में स्पष्ट रूप से अवैधता होने के कारण वह पंचाट दोषपूर्ण है:

बशर्ते कि किसी निर्णय को केवल विधि के गलत प्रयोग या साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।

(3)अपास्त करने के लिये आवेदन, उस तिथि से तीन महीने बीत जाने के पश्चात नहीं किया जा सकता है, जिस तिथि को आवेदन करने वाले पक्षकार ने मध्यस्थता पंचाट प्राप्त किया था या यदि धारा 33 के अधीन अनुरोध किया गया था, तो उस तिथि से, जिस तिथि को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा उस अनुरोध का निपटारा कर दिया गया था: परंतु यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि आवेदक को तीन महीने की उक्त अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारण से रोका गया था, तो वह आवेदन पर तीस दिन की अतिरिक्त अवधि के भीतर विचार कर सकता है, किंतु उसके पश्चात नहीं।

(4) उपधारा (1) के अधीन आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय, जहाँ यह समुचित हो और पक्षकार द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, मध्यस्थ अधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही पुनः आरंभ करने का अवसर देने के लिये या ऐसी अन्य कार्यवाही करने के लिये, जो मध्यस्थ अधिकरण की राय में मध्यस्थ पंचाट को अपास्त करने के आधार को समाप्त कर देगी, कार्यवाही को अपने द्वारा निर्धारित समयावधि के लिये स्थगित कर सकता है।

(5) इस धारा के अंतर्गत आवेदन किसी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा तथा ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त अपेक्षा के अनुपालन का शपथपत्र संलग्न किया जाएगा।

(6) इस धारा के अधीन आवेदन का निपटान शीघ्रता से, तथा किसी भी दशा में, उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के अंदर किया जाएगा, जिसको उपधारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्षकार को तामील किया गया है।

परिसीमा अधिनियम की धारा 4

  • यह धारा न्यायालय बंद होने पर निर्धारित अवधि की समाप्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि जहाँ किसी वाद, अपील या आवेदन के लिये निर्धारित अवधि न्यायालय बंद होने के दिन समाप्त हो जाती है,
  • वहाँ वाद, अपील या आवेदन उस दिन संस्थित किया जा सकता है, प्रस्तुत किया जा सकता है या किया जा सकता है जब न्यायालय पुनः खुले।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के अर्थ में किसी दिन न्यायालय बंद समझा जाएगा यदि वह अपने सामान्य कार्य समय के किसी भाग में उस दिन बंद रहता है।

परिसीमा अधिनियम की धारा 12

  • यह धारा विधिक कार्यवाही में समय के बहिष्कार से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
    • किसी वाद, अपील या आवेदन के लिये परिसीमा अवधि की गणना करते समय, वह दिन जिससे ऐसी अवधि की गणना की जानी है, निकाल दिया जाएगा।
    • किसी अपील या अपील की अनुमति के लिये या किसी निर्णय के पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन के लिये आवेदन के लिये परिसीमा अवधि की गणना करते समय, वह दिन जिस दिन परिवादित निर्णय सुनाया गया था तथा जिस डिक्री, दण्डादेश या आदेश के विरुद्ध अपील की गई थी या जिसे संशोधित या पुनर्विलोकित किया जाना था, उसकी प्रति प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय को छोड़ दिया जाएगा।
    • जहाँ किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की जाती है या उसे संशोधित या समीक्षा करने की मांग की जाती है, या जहाँ किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील करने की अनुमति के लिये आवेदन किया जाता है, वहाँ निर्णय की प्रति प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय को भी बाहर रखा जाएगा।
    • किसी निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन की परिसीमा अवधि की गणना करते समय, निर्णय की प्रति प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय को बाहर रखा जाएगा।
    • स्पष्टीकरण- इस धारा के अधीन किसी डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय की गणना करते समय, प्रतिलिपि के लिये आवेदन किये जाने के पूर्व डिक्री या आदेश को तैयार करने में न्यायालय द्वारा लिया गया समय अपवर्जित नहीं किया जाएगा।

इस मामले में किस महत्त्वपूर्ण निर्णय का उल्लेख किया गया है?

  • असम शहरी जल आपूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड बनाम सुभाष प्रोजेक्ट्स एंड मार्केटिंग लिमिटेड (2012):
    • इस मामले में यह माना गया कि वाक्यांश ‘निर्धारित अवधि’ में A & C अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन दी गई 30 दिनों की विस्तारित अवधि शामिल नहीं है।

पारिवारिक कानून

मुस्लिम महिलाएँ एवं CrPC की धारा 125

 11-Jul-2024

मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य

“तीन तलाक के माध्यम से तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को CrPC की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण का अधिकार उपलब्ध है”।

जस्टिस बी. वी. नागरत्ना एवं ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय में इस बात की पुष्टि की गई है कि तीन तलाक के माध्यम से तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएँएँ मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 के प्रावधानों के साथ-साथ CrPC की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण की मांग कर सकती हैं।

  • निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि धारा 125 सभी विवाहित एवं तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण प्रदान करने के लिये सार्वभौमिक रूप से लागू होती है तथा दीवानी एवं आपराधिक दोनों विधियों के अधीन उपचार प्राप्त करने के उनके अधिकार पर बल दिया गया है।

मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मोहम्मद अब्दुल समद (अपीलकर्त्ता) (पति) एवं प्रतिवादी संख्या 02 (पत्नी) का विवाह 15 नवंबर 2012 को हुआ था।
  • उनके रिश्ते खराब हो गए तथा पत्नी ने 09 अप्रैल 2016 को वैवाहिक घर छोड़ दिया।
  • पत्नी (प्रतिवादी संख्या 02) ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 498 A एवं 406 के अधीन पति के विरुद्ध FIR (2017 की संख्या 578) दर्ज की।
  • आपराधिक शिकायत के प्रत्युत्तर में, पति ने 25 सितंबर 2017 को तीन तलाक बोल दिया।
  • इसके बाद वह तलाक की घोषणा के लिये कज़ाथ दफ्तर चला गया।
  • तलाक एकपक्षीय रूप से मंज़ूर कर लिया गया तथा 28 सितंबर 2017 को तलाक प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया।
  • पति का दावा है कि उसने इद्दत अवधि के लिये भरण-पोषण के रूप में 15,000 रुपए भेजने का प्रयास किया, जिसे पत्नी ने कथित तौर पर अस्वीकार कर दिया।
  • पत्नी ने पारिवारिक न्यायालय के समक्ष CrPC की धारा 125(1) के अधीन अंतरिम भरण-पोषण के लिये याचिका दायर की।
  • 09 जून 2013 को पारिवारिक न्यायालय ने अंतरिम भरण-पोषण के लिये पत्नी की याचिका को स्वीकार कर लिया।
  • पति ने फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द करने के लिये तेलंगाना उच्च न्यायालय में अपील की।
  • 13 दिसंबर 2023 को, उच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के आदेश को संशोधित करते हुए अंतरिम भरण-पोषण राशि को 20,000 रुपए प्रतिमाह से घटाकर 10,000 रुपए प्रतिमाह कर दिया।
  • पति ने अब 13 दिसंबर 2023 के उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की है।
  • अपीलकर्त्ता (पति) का मुख्य तर्क यह है कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के लागू होने के कारण CrPC की धारा 125 लागू नहीं होती है।
  • एक "तलाकशुदा मुस्लिम महिला" को CrPC, 1973 की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण मांगने के बजाय 1986 अधिनियम की धारा 5 के अधीन आवेदन दायर करना चाहिये।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • CrPC की धारा 125 मुस्लिम विवाहित महिलाओं सहित सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है।
  • CrPC की धारा 125 सभी गैर-मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं पर लागू होती है।
  • जहाँ तक ​​तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का प्रश्न है-
    • CrPC की धारा 125 उन सभी मुस्लिम महिलाओं पर लागू होती है, जो विशेष विवाह अधिनियम के अधीन विवाहित एवं तलाकशुदा हैं, साथ ही विशेष विवाह अधिनियम के अधीन उपलब्ध उपायों पर भी लागू होती है।
    • अगर मुस्लिम महिलाएँ मुस्लिम विधि के अधीन विवाहित एवं तलाकशुदा हैं, तो CrPC की धारा 125 के साथ-साथ 1986 के अधिनियम के प्रावधान भी लागू होते हैं। मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के पास दोनों विधियों में से किसी एक या दोनों विधियों के अधीन उपाय करने का विकल्प है। ऐसा इसलिये है क्योंकि 1986 का अधिनियम CrPC की धारा 125 का उल्लंघन नहीं करता है, बल्कि उक्त प्रावधान के अतिरिक्त है।
    • यदि तलाकशुदा मुस्लिम महिला द्वारा भी 1986 अधिनियम के अधीन परिभाषा के अनुसार CrPC की धारा 125 का सहारा लिया जाता है, तो 1986 अधिनियम के प्रावधानों के अधीन पारित किसी भी आदेश को CrPC की धारा 127(3)(b) के अधीन ध्यान में रखा जाएगा। [इससे तात्पर्य यह है कि यदि मुस्लिम पत्नी को पर्सनल लॉ के अधीन कोई भरण-पोषण दिया गया है, तो धारा 127(3)(b) के अधीन भरण-पोषण आदेश को बदलने के लिये मजिस्ट्रेट द्वारा इसे ध्यान में रखा जाएगा]
  • 2019 अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अविधिक तलाक के मामले में,
    • निर्वाह भत्ता प्राप्त करने के लिये उक्त अधिनियम की धारा 5 के अधीन राहत प्राप्त की जा सकती है या ऐसी मुस्लिम महिला के विकल्प पर, CrPC की धारा 125 के अधीन उपाय भी प्राप्त किया जा सकता है।
    • यदि CrPC की धारा 125 के अधीन दायर याचिका के लंबित रहने के दौरान, एक मुस्लिम महिला 'तलाकशुदा' हो जाती है, तो वह CrPC की धारा 125 के अधीन सहारा ले सकती है या 2019 अधिनियम के अधीन याचिका दायर कर सकती है।
    • 2019 अधिनियम के प्रावधान CrPC की धारा 125 के अतिरिक्त उपाय प्रदान करते हैं, न कि उसके विरुद्ध।

CrPC की धारा 125 क्या है?

  • परिचय:
    • यह धारा पत्नी, बच्चों एवं माता-पिता के भरण-पोषण के आदेश से संबंधित है।
  • BNSS:
    • धारा 144 पत्नी, बच्चों एवं माता-पिता के भरण-पोषण के आदेश से संबंधित है।
  • उद्देश्य:
    • आश्रितों को भरण-पोषण प्रदान करता है
    • स्वेच्छाचारिता एवं अभाव को रोकता है
    • धर्मनिरपेक्ष प्रावधान सभी धर्मों पर लागू होता है
  • योग्य उम्मीदवार:
    • पत्नी (तलाकशुदा पत्नी सहित जिसने पुनः शादी नहीं की है)
    • वैध या अधर्मज अप्राप्तवय बच्चे
    • शारीरिक/मानसिक विकलांगता वाले वयस्क बच्चे
    • माता-पिता जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं
  • भरण पोषण के लिये शर्तें:
    • दावेदार स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है
    • आदेशित व्यक्ति के पास पर्याप्त साधन हैं
    • दावेदार का भरण-पोषण करने से उपेक्षा या अस्वीकृति
  • अधिकारिता:
    • प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट
  • भरण पोषण राशि:
    • मासिक भत्ता
    • परिस्थितियों के आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा निर्धारित दर
    • विधि में कोई अधिकतम सीमा निर्दिष्ट नहीं है
  • भुगतान विवरण:
    • आदेश या आवेदन की तिथि से देय
    • मजिस्ट्रेट किसी विशिष्ट व्यक्ति को भुगतान का निर्देश दे सकता है
  • अंतरिम भरण पोषण:
    • कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान आदेश दिया जा सकता है।
    • इसमें कार्यवाही का व्यय शामिल है।
    • यदि संभव हो तो आवेदन का निपटारा 60 दिनों के अंदर किया जाना चाहिये।
  • प्रवर्तन:
    • बकाया राशि वसूलने के लिये वारंट
    • अनुपालन न करने पर एक महीने तक का कारावास
    • प्रत्येक महीने की चूक के लिये अलग-अलग सज़ा संभव
  • अपवाद:
    • पत्नी व्यभिचार में रह रही है
    • पत्नी पर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से मना कर रही है
    • वैवाहिक जोड़े आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं
  • विशेष प्रावधान:
    • यदि पति के पास साधन नहीं हैं तो पिता को अप्राप्तवय बेटी का वयस्क होने तक भरण-पोषण करने का आदेश दिया जा सकता है।
    • पति द्वारा पत्नी को अपने घर पर रखने के प्रस्ताव के बावजूद मजिस्ट्रेट भरण-पोषण का आदेश दे सकता है।
    • पति का दूसरा विवाह करना या रखैल रखना, पत्नी के उसके साथ रहने से मना करने का आधार है।
  • समय-सीमा:
    • देय राशि के भुगतान के लिये आवेदन नियत तिथि से एक वर्ष के अंदर किया जाना चाहिये।
  • परिभाषाएँ:
    • भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के अनुसार "अप्राप्तवय"।
    • "पत्नी" में तलाकशुदा महिला शामिल है जिसने दोबारा शादी नहीं की है।
  • भत्ते में परिवर्तन:
    • परिस्थितियों में परिवर्तन के आधार पर राशि को बढ़ाया या घटाया जा सकता है।
  • पर्सनल लॉ के साथ संबंध:
    • पर्सनल लॉ के साथ-साथ कार्य करता है।
    • व्यक्तिगत विधि लागू होने पर भी अतिरिक्त राहत प्रदान कर सकता है।
  • हालिया निर्वचन:
    • उच्चतमउच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यह नियम मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है, यहाँ तक ​​कि तीन तलाक जैसे अवैध तलाक के मामलों में भी।
  • संवैधानिक वैधता:
    • बसंत लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1998) के अनुसार धारा 125 की उपधारा (2) को संवैधानिक माना गया।
  • कार्यवाही की प्रकृति:
    • प्रकृति में सारांश
    • अर्ध-सिविल एवं अर्ध-आपराधिक
    • अंततः अधिकारों एवं दायित्वों का निर्धारण नहीं करता है
  • विवाह का प्रमाण:
    • प्रथम दृष्टया विवाह का प्रमाण भरण-पोषण दावे के लिये पर्याप्त है।
  • भरण-पोषण राशि में संशोधन:
    • दावा की गई राशि में संशोधन का कोई प्रावधान नहीं है।
  • अंतरिम भरण पोषण:
    • प्रारंभ में इस धारा में प्रावधान नहीं था।
    • अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करके उच्चतमउच्चतम न्यायालय द्वारा प्रदान किया गया।
    • अब उच्च न्यायालयों द्वारा प्रदान किया जाता है।
    • शपथ पत्र के आधार पर प्रदान किया जा सकता है।
    • धारा 397(2) CrPC के अधीन संशोधन के अधीन नहीं होगा।
  • एकपक्षीय आदेश:
    • पति के आवेदन पर पुनर्विचार किया जा सकता है।
    • अन्य कार्यवाहियों से संबंध।
    • धारा 210 CrPC लागू नहीं होगा।
    • वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये एकपक्षीय डिक्री भरण-पोषण के दावे पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है।
  • विस्तार:
    • यह तब भी लागू होता है जब विवाह या पितृत्व से मना किया जाता है।
    • मजिस्ट्रेट रिश्ते के मुद्दों पर निर्णय ले सकता है।
    • सहवास की अस्थायी बहाली के बावजूद आदेश प्रभावी रहता है।
  • पृथक रहने के आधार:
    • पत्नी के अलग रहने के लिये अपर्याप्त कारण को पति द्वारा परीक्षण न्यायालय में सिद्ध किया जाना चाहिये।
  • कार्यवाही में विलंब:
    • आवेदन की तिथि से भरण-पोषण प्रदान करने को उचित ठहराया जा सकता है।

CrPC की धारा 125 एवं मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के मध्य क्या संबंध है?

  • प्रारंभिक आशय:
    • 1986 का अधिनियम वास्तव में शाहबानो मामले के बाद CrPC की धारा 125 के अनुप्रयोग को मुस्लिम महिलाओं तक सीमित करने के लिये बनाया गया था।
  • उच्चतम न्यायालय की व्याख्या:
    • हालाँकि बाद के उच्चतम न्यायालय के निर्णयों ने स्पष्ट कर दिया है कि CrPC की धारा 125 या 1986 अधिनियम के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होती रहेगी।
  • समवर्ती अनुप्रयोग:
    • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि 1986 का अधिनियम CrPC की धारा 125 का स्थान नहीं लेता, बल्कि एक अतिरिक्त उपाय प्रदान करता है।
  • उपचार का विकल्प:
    • मुस्लिम महिलाओं के पास CrPC की धारा 125 या 1986 अधिनियम के अधीन भरण-पोषण मांगने का विकल्प है।
  • गैर-अवमूल्यन सिद्धांत:
    • 1986 के अधिनियम को CrPC की धारा 125 का अतिरिक्त विकल्प माना जाता है, न कि उसका उल्लंघन।
  • मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 5
    • धारा 5 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 से 128 के प्रावधानों द्वारा शासित होने के विकल्प से संबंधित है -
    • इसमें कहा गया है कि यदि धारा 3 की उपधारा (2) के अधीन आवेदन की पहली सुनवाई की तिथि को, एक तलाकशुदा महिला और उसका पूर्व पति, शपथ-पत्र या किसी अन्य लिखित घोषणा द्वारा, ऐसे प्ररूप में, जैसा कि निर्धारित किया जा सकता है, संयुक्त रूप से या अलग-अलग, घोषित करते हैं कि वे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 125 से 128 के प्रावधानों द्वारा शासित होना पसंद करेंगे, तथा आवेदन पर सुनवाई करने वाले न्यायालय में ऐसा हलफनामा (शपथपत्र) या घोषणा दायर करते हैं, तो मजिस्ट्रेट ऐसे आवेदन का तद्नुसार निपटान करेगा।

महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ:

  • सविताबेन सोमाभाई भाटिया बनाम गुजरात राज्य (2005):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 पत्नी के हित में अधिनियमित की गई है तथा जो व्यक्ति धारा 125 की उपधारा (1)(a) के अधीन लाभ प्राप्त करना चाहता है, उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह संबंधित व्यक्ति की पत्नी है।
  • मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985):
    • उच्चतम न्यायालय की पीठ ने कहा कि एक मुस्लिम तलाकशुदा महिला जो अपना भरण-पोषण स्वयं नहीं कर सकती, वह अपने पूर्व पति से तब तक भरण-पोषण पाने की अधिकारी है, जब तक वह पुनः विवाह नहीं कर लेती