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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

PC अधिनियम के अंतर्गत रिश्वत

 15-Jul-2024

मीर मुस्तफा अली हाशमी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य

"ट्रैप कार्यवाही प्रारंभ करने से पहले, लोक सेवक द्वारा रिश्वत की मांग करने का सत्यापन आवश्यक है”।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मीर मुस्तफा अली हासमी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में इस बात पर ज़ोर दिया है कि किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत की मांग करने का दोषी ठहराए जाने के लिये अभियोजन पक्ष द्वारा रिश्वत की मांग एवं स्वीकृति दोनों को स्थापित किया जाना चाहिये। इसने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि ऐसे मामलों में जहाँ किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत लेते हुए पकड़ने के लिये जाल (ट्रैप) बिछाया जाता है, विवेचना अधिकारी को सरकारी कर्मचारी द्वारा रिश्वत की मांग की पुष्टि करनी चाहिये।

  • न्यायालय ने चेतावनी दी कि रिश्वत की मांग को सिद्ध करने में विफलता, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन अभियोजन पक्ष के मामले के लिये घातक हो सकती है।
  • इस स्पष्टीकरण ने लोक सेवकों से संबद्ध रिश्वतखोरी के मामलों में ‘साक्ष्य का भार’ पर इसके निहितार्थ के कारण ध्यान आकर्षित किया है।

मीर मुस्तफा अली हासमी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता, मीर मुस्तफा अली हासमी (AO 1), एक वन अनुभाग अधिकारी (फ़ॉरेस्ट सेक्शन अधिकारी) था, जिसे शिकायतकर्त्ता मुक्का रमेश (PW- 1) से 5,000 रुपए की रिश्वत मांगने एवं स्वीकार करने का दोषसिद्धि गया था।
  • 06 जनवरी 2003 को, AO 1 तथा उनकी टीम ने PW-1 की आरा मिल पर छापा मारा, अवैध सागौन की लकड़ी का पता लगाया तथा एक कर्मचारी एम. अशोक पर 50,000 रुपए का अर्थदण्ड आरोपित किया।
  • PW-1 ने आरोप लगाया कि AO 1 ने बाद में उसके व्यवसाय के विरुद्ध आगे की कार्यवाही से बचने के लिये 5,000 रुपए की मासिक रिश्वत की मांग की।
  • 22 जनवरी 2003 को PW-1 ने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) में शिकायत दर्ज कराई।
  • 23 जनवरी 2003 को होटल क्वालिटी-इन में जाल बिछाया गया।
  • जाल के दौरान, PW-1 ने होटल के तहखाने में AO 1 को रिश्वत के पैसे देने का दावा किया, जो AO 1 के रेक्सिन बैग से बरामद किया गया।
  • AO 1 को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन अपराधों के लिये ट्रायल कोर्ट एवं उच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया था।
    • उन्होंने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
  • बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि मामला मनगढ़ंत था, मांग का कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं था तथा हो सकता है कि PW-1 ने AO 1 के बैग में पैसे रखे हों।
  • इसमें शामिल मुद्दे:
    • साक्षियों की विश्वसनीयता,
    • गवाही में विसंगतियाँ,
    • ACB द्वारा स्वतंत्र सत्यापन का अभाव,
    • संभावित रूप से जाल बिछाने में एम. अशोक की भूमिका।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि जब तक अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग एवं उसके बाद रिश्वत की स्वीकृति दोनों को स्थापित नहीं कर देता, तब तक किसी लोक सेवक को रिश्वत लेने का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
  • न्यायालय ने जालसाजी की कार्यवाही शुरू करने से पहले मांग के तथ्य की पुष्टि करने के महत्त्व पर जोर दिया। यह निम्न प्रकार से किया जा सकता है:
    • जाल बिछाने वाला अधिकारी रिश्वत की मांग की पुष्टि करने का प्रयास कर रहा है।
    • फ़र्ज़ी एवं संदिग्ध के मध्य टेलीफोन पर बातचीत रिकॉर्ड करना।
    • रिश्वत स्वीकार करने के दौरान बातचीत को रिकॉर्ड करने के लिये गुप्त रूप से फंदे पर एक रिकॉर्डिंग डिवाइस लगाना।
  • न्यायालय ने कहा कि रिश्वत की मांग को सिद्ध करने में विफलता अभियोजन पक्ष के मामले के लिये घातक हो सकती है।
  • इस विशिष्ट मामले में, न्यायालय ने लोक सेवक को निम्नलिखित कारणों से दोषमुक्त कर दिया:
    • कार्यवाही शुरू करने से पहले ट्रैप लेइंग ऑफिसर द्वारा मांग के तथ्य को सत्यापित करने में विफलता।
    • अभियोजन पक्ष द्वारा आरोप को सिद्ध करने में असमर्थता उचित संदेह से परे है।
  • न्यायालय ने लेन-देन की निगरानी एवं विचारण के लिये एक इच्छुक साक्षी (फर्ज़ी व्यक्ति का रिश्तेदार) को छाया साक्षी के रूप में प्रयोग करने की आलोचना की, जबकि जाँच अधिकारी ने इस संभावित पक्षपाती साक्षी से स्वयं को अलग करने का कोई प्रयास नहीं किया।
  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने अभियोजन पक्ष के मामले में इन कमियों के कारण लोक सेवक को संदेह का लाभ दिया।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 क्या है?

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भारत की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जिसे भारत में सरकारी एजेंसियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों में भ्रष्टाचार से निपटने के लिये अधिनियमित किया गया है।
  • इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में सरकारी एजेंसियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों में भ्रष्टाचार को रोकना, भ्रष्टाचार की रोकथाम एवं उससे जुड़े मामलों से संबंधित विधियों को समेकित करना है।
  • इसमें सरकारी कर्मचारियों, न्यायाधीशों एवं सरकारी स्वामित्व वाले निगमों या राज्य द्वारा वित्तपोषित संगठनों में काम करने वाले सभी लोक सेवक शामिल हैं।
  • यह अधिनियम रिश्वतखोरी, आपराधिक कदाचार एवं आय से अधिक संपत्ति रखने सहित भ्रष्टाचार के विभिन्न रूपों को परिभाषित करता है। यह इन अपराधों के लिये दण्ड निर्धारित करता है, जिसमें अर्थदण्ड एवं कारावास शामिल हो सकता है।
  • इस अधिनियम में त्वरित विचारण, आपराधिक कदाचार की विस्तारित परिभाषा तथा कुछ मामलों में 'दोष की धारणा' की अवधारणा के प्रावधान शामिल हैं, जिससे साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार अभियुक्त पर होता है।
  • अधिनियम में 2018 में महत्त्वपूर्ण संशोधन किया गया था, ताकि इसमें कॉर्पोरेट रिश्वतखोरी को भी शामिल किया जा सके, समयबद्ध विचारण की व्यवस्था की जा सके तथा अपराध की रिपोर्ट करने वाले विवश रिश्वत देने वालों को सात दिनों के अंदर संरक्षण प्रदान किया जा सके।

1988 के अधिनियम के अनुसार लोक सेवक कौन हैं?

धारा 2(c) में लोक सेवक का उल्लेख है:

(i) सरकार की सेवा या वेतन में कार्यरत कोई व्यक्ति या किसी सार्वजनिक कर्त्तव्य के निष्पादन के लिये सरकार द्वारा शुल्क या कमीशन के रूप में पारिश्रमिक पाने वाला व्यक्ति,

(ii) स्थानीय प्राधिकरण की सेवा या वेतन में कार्यरत कोई व्यक्ति,

(iii) केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी निगम या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण या सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित किसी सरकारी कंपनी की सेवा या वेतन में कार्यरत कोई व्यक्ति,

(iv) कोई न्यायाधीश, जिसके अंतर्गत कोई ऐसा व्यक्ति भी है जिसे विधि द्वारा, चाहे वह स्वयं या व्यक्तियों के किसी निकाय के सदस्य के रूप में, किसी न्यायिक कार्य का निर्वहन करने के लिये     सशक्त किया गया हो,

(v) कोई ऐसा व्यक्ति जिसे न्यायालय द्वारा न्याय प्रशासन के संबंध में कोई कर्त्तव्य निभाने के लिये प्राधिकृत किया गया हो, जिसके अंतर्गत ऐसे न्यायालय द्वारा नियुक्त परिसमापक, रिसीवर या आयुक्त भी शामिल है;

(vi) कोई मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति जिसके समक्ष कोई मामला न्यायालय या सक्षम लोक प्राधिकारी द्वारा निर्णय या रिपोर्ट के लिये भेजा गया हो;

(vii) कोई व्यक्ति जो कोई पद धारण करता हो जिसके आधार पर उसे मतदाता सूची तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने या संशोधित करने या चुनाव या चुनाव के किसी भाग का संचालन करने का अधिकार प्राप्त हो;

(viii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद पर है जिसके आधार पर उसे कोई सार्वजनिक कर्त्तव्य निभाने के लिये अधिकृत किया गया है या अपेक्षित है,

(ix) कोई व्यक्ति जो कृषि, उद्योग, व्यापार या बैंकिंग में लगी किसी पंजीकृत सहकारी समिति का अध्यक्ष, सचिव या अन्य पदाधिकारी है, जो केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार या किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके तहत स्थापित किसी निगम या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण या सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित किसी सरकारी कंपनी से कोई वित्तीय सहायता प्राप्त करता है या प्राप्त कर चुका है;

(x) कोई व्यक्ति जो किसी सेवा आयोग या बोर्ड का, चाहे किसी भी नाम से ज्ञात हो, अध्यक्ष, सदस्य या कर्मचारी है, या ऐसे आयोग या बोर्ड द्वारा किसी परीक्षा के संचालन या ऐसे आयोग या बोर्ड की ओर से कोई चयन करने के लिये नियुक्त किसी चयन समिति का सदस्य है;

(xi) कोई व्यक्ति जो किसी विश्वविद्यालय का कुलपति या किसी शासी निकाय का सदस्य, प्रोफेसर, रीडर, व्याख्याता या कोई अन्य शिक्षक या कर्मचारी है, चाहे वह किसी भी पदनाम से जाना जाता हो तथा कोई व्यक्ति जिसकी सेवाएँ किसी विश्वविद्यालय या किसी अन्य सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा परीक्षा आयोजित करने या संचालित करने के संबंध में ली गई हों।

रिश्वतखोरी से संबंधित विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 7: लोक सेवक द्वारा अपने पदीय कार्य के संबंध में, वैध पारिश्रमिक से भिन्न पारितोषण ग्रहण करना।
  • धारा 8: लोक सेवक पर भ्रष्ट या अवैध साधनों द्वारा असर डालने के लिये परितोषण का लेना।
    (1) कोई व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को अनुचित लाभ देता है या देने का वचन देता है, इस आशय से कि-
    (i) किसी लोक सेवक को अनुचित तरीके से लोक कर्त्तव्य पालन करने के लिये     प्रेरित करना, या
    (ii) ऐसे लोक सेवक को लोक कर्त्तव्य के अनुचित पालन के लिये दण्डित करना, कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक हो सकेगी या अर्थदण्ड से या दोनों से दण्डनीय होगा:
    परंतुक में यह प्रावधान है कि इस धारा के प्रावधान वहाँ लागू नहीं होंगे जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसा अनुचित लाभ देने के लिये विवश किया जाता है:
    परंतुक में यह भी प्रावधान है कि ऐसा विवश व्यक्ति ऐसा अनुचित लाभ देने की तिथि से सात दिनों की अवधि के अंदर मामले की सूचना विधि प्रवर्तन प्राधिकरण या विवेचना एजेंसी को देगा:
    परंतुक में यह भी प्रावधान है कि जब इस धारा के अधीन अपराध किसी वाणिज्यिक संगठन द्वारा किया गया हो तो ऐसा वाणिज्यिक संगठन अर्थदण्ड से दण्डनीय होगा।
  • धारा 9: किसी वाणिज्यिक संगठन द्वारा लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध
  • धारा 10: वाणिज्यिक संगठन के प्रभारी व्यक्ति को अपराध का दोषी माना जाएगा।
  • धारा 11: लोक सेवक द्वारा ऐसे लोक सेवक द्वारा की गई कार्यवाही या व्यवसाय में संबंधित व्यक्ति से बिना प्रतिफल के मूल्यवान वस्तुएँ प्राप्त करना।
  • धारा 12: धारा 7 या 11 में परिभाषित अपराधों के लिये दुष्प्रेरण का दण्ड सात वर्ष तक हो सकती है तथा अर्थदण्ड भी देय होगा।
  • धारा 13: किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा आपराधिक कदाचार, जिसमें शामिल हैं:
    1. अभ्यासतः रिश्वत लेना
    2. अभ्यासतः बिना किसी उचित प्रतिफल के मूल्यवान वस्तु स्वीकार करना
    3. संपत्ति का दुरुपयोग
    4. भ्रष्ट या अवैध तरीकों से या पद का दुरुपयोग करके कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करना
    5. आय से अधिक संपत्ति रखना
  • धारा 14: धारा 8, 9 एवं 12 के अधीन अभ्यासतः अपराधियों के लिये दण्ड का प्रावधान।
  • धारा 15: धारा 13(1)(c) एवं 13(1)(d) में परिभाषित अपराध करने के प्रयास के लिये दण्ड का प्रावधान।
  • धारा 20: अनुमान, जहाँ लोक सेवक कोई अनुचित लाभ स्वीकार करता है।

PC  अधिनियम के अधीन महत्त्वपूर्ण मामला क्या है?

  • नीरज दत्ता बनाम राज्य (2022) में यह माना गया कि रिश्वत देने वाले द्वारा किया गया प्रस्ताव या लोक सेवक द्वारा की गई मांग को स्थापित किये बिना, केवल अवैध परितोषण की स्वीकृति या प्राप्ति, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 या धारा 13 (1)(d)(i) या धारा 13(1)(d)(ii) के अधीन अपराध नहीं बनाएगी।
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन अपराध अभियोजित करने के लिये अभियोजन पक्ष को रिश्वत देने वाले द्वारा किया गया प्रस्ताव एवं लोक सेवक द्वारा की गई मांग को तथ्य के रूप में सिद्ध करना होगा।

सांविधानिक विधि

उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 131 की व्याख्या

 15-Jul-2024

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ

“हमारे विचार में, CBI एक अंग या निकाय है जो DSPE अधिनियम द्वारा अधिनियमित वैधानिक योजना के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा स्थापित और उसके अधीक्षण के अधीन है”।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि वर्तमान मामले से निपटने के लिये उच्चतम न्यायालय को मूल क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा और राज्य द्वारा दायर वाद संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत स्वीकार्य है।

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, राज्य (वादी) ने भारत संघ (प्रतिवादी) के विरुद्ध वाद दायर किया।
  • वादी ने तर्क दिया कि उसकी सहमति का निरसन होने के उपरांत भी केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करना जारी रखा।
  • वादी ने प्रतिवादी के इस कृत्य को संवैधानिक अतिक्रमण बताया।
  • प्रतिवादी ने वाद की स्थिरता पर प्रतिवाद किया।
    • इसने तर्क दिया कि CBI को भारत सरकार के समकक्ष नहीं माना जा सकता।
    • यह भी तर्क दिया गया कि इस मामले में एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) भी लंबित है, अतः इस मामले को अनुच्छेद 131 के अंतर्गत जारी नहीं रखा जा सकता।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई की एकल पीठ ने कहा कि यह तर्क कि CBI की तुलना भारत सरकार से नहीं की जा सकती, आधारहीन है।
    • उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम की धारा 3 और धारा 5 का उल्लेख किया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि CBI, सरकार की देख-रेख में काम करती है।
  • आगे यह माना गया कि भले ही कोई वाद अनुच्छेद 136, अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के अंतर्गत लंबित हो, उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 131 के अंतर्गत किये गए आवेदनों को “इस संविधान के प्रावधानों के अधीन” के रूप में अनुच्छेद 131 के आधार पर स्वीकार करने का क्षेत्राधिकार है।
    • उक्त प्रावधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय को मूल क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा।
    • उच्चतम न्यायालय को ऐसे मामलों से निपटने का विशेष अधिकार प्राप्त है जहाँ विवाद का विषय, विधिक अधिकारों की सीमा पर निर्भर करता है।

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ के मामले में "इस संविधान के प्रावधानों के अधीन" की व्याख्या:

  • उच्चतम न्यायालय ने पूर्व उदाहरणों से यह निष्कर्ष निकाला कि सक्षम प्राधिकारियों द्वारा बनाया गया संविधान-पूर्व विधान तब तक लागू रहेगा जब तक कि वह संविधान के किसी अन्य प्रावधान का उल्लंघन नहीं करता हो।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 131 के संबंध में न्यायालय केवल उसी मामले पर विचार कर सकता है जहाँ विवाद समान पक्षों के बीच हो तथा इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिये उसने अनुच्छेद 262 का संदर्भ दिया।
    • यह कहा गया कि अनुच्छेद 262 के अंतर्गत आने वाले मामलों पर अनुच्छेद 131 के अंतर्गत विचार नहीं किया जाएगा, जैसा कि “इस संविधान के प्रावधानों के अधीन” कहा गया है।
    • उच्चतम  न्यायालय ने आगे कहा कि अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 136 भारत के संविधान के अंतर्गत ‘किसी भी पक्ष’ को प्रदान किये’ गए उपचार हैं।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 131 क्या है?

  • इसमें उच्चतम न्यायालय के मूल क्षेत्राधिकार से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख किया गया है:
    • इस संविधान के प्रावधानों के अधीन, उच्चतम न्यायालय को, किसी अन्य न्यायालय के बहिष्करण के बिना, किसी भी विवाद में मूल क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा-
      • भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच
      • एक तरफ भारत सरकार और किसी राज्य या राज्यों के बीच तथा दूसरी ओर एक या एक से अधिक अन्य राज्यों के बीच या
      • दो या अधिक राज्यों के बीच, यदि विवाद में कोई प्रश्न (चाहे विधि का हो या तथ्य का) सम्मिलित हो, जिस पर विधिक अधिकार का अस्तित्व या सीमा निर्भर करती हो।
    • परंतु उक्त क्षेत्राधिकार का विस्तार किसी संधि, करार, प्रसंविदा, वचनबद्धता, नामित या अन्य समरूप लिखत से उत्पन्न विवाद पर नहीं होगा, जो इस संविधान के प्रारंभ से पूर्व की गई थी या निष्पादित की गई थी तथा संविधान लागू होने के पश्चात् भी प्रवर्तन में बनी रहती है, या जो यह उपबंध करती है कि उक्त क्षेत्राधिकार का विस्तार ऐसे विवाद पर नहीं होगा।

निर्णयज विधियाँ:

  • साउथ इंडिया कॉर्पोरेशन (P) लिमिटेड बनाम सचिव, राजस्व बोर्ड, त्रिवेंद्रम और अन्य (1963):
    • यह मामला अनुच्छेद 372 (मौजूदा विधानों का लागू रहना और उनका अनुकूलन) पर आधारित था।
    • न्यायालय ने कहा कि इन शब्दों की तर्कसंगत व्याख्या की जानी चाहिये जो संविधान निर्माताओं के आशय को प्रतिबिंबित करे।
  • भारत संघ एवं अन्य बनाम तुलसीराम पटेल (1985):
    • यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 309 (संघ या राज्य की सेवा करने वाले व्यक्तियों की भर्ती और सेवा की शर्तें) पर आधारित था, जिसमें कहा गया है कि किसी भी सक्षम व्यक्ति की भर्ती को विनियमित करने वाले नियम बनाने के लिये निर्देशित किया जा सकता है और सेवा की शर्तें ऐसे नियमों को "इस संविधान के प्रावधानों के अधीन" बनाया जाना चाहिये, यदि उन्हें वैध होना है।
  • राजस्थान राज्य एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1977):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 131 विधिक अधिकार के अस्तित्व या सीमा के आधार पर विवादों को सुलझाने के लिये एक मंच प्रदान करता है।

सिविल कानून

दिव्यांगता परिहास और अक्षमता परिहास

 15-Jul-2024

निपुण मल्होत्रा ​​बनाम सोनी पिक्चर्स फिल्म्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड

“इसलिये हमें 'अक्षमता परिहास', जो दिव्यांग व्यक्तियों को नीचा दिखाता है और उनका अपमान करता है तथा 'दिव्यांगता परिहास', जो दिव्यांगता के विषय में स्थापित धारणाओं को चुनौती देता है, के बीच अंतर करना होगा”।

CJI डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला एवं मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में निपुण मल्होत्रा ​​बनाम सोनी पिक्चर्स फिल्म्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि कोई फिल्म “अक्षमता परिहास” या “दिव्यांगता परिहास” दर्शा रही है, यह उस फिल्म के समग्र संदेश पर निर्भर करता है।

निपुण मल्होत्रा ​​बनाम सोनी पिक्चर्स फिल्म्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई जिसमें दावा किया गया कि सोनी पिक्चर्स द्वारा निर्मित फिल्म “आँख मिचोली” दिव्यांग व्यक्तियों के लिये अपमानजनक है।
  • उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि सामान्यतः न्यायालय तब हस्तक्षेप नहीं करते जब फिल्म पहले से ही केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) द्वारा सेंसर कर दी गई हो।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि फिल्मों में अत्यधिक हस्तक्षेप रचनात्मक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाएगा।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन में अपीलकर्त्ता, जो कि चलने-फिरने में अक्षम सामाजिक कार्यकर्त्ता है, ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दावा किया कि यह फिल्म दिव्यांग व्यक्तियों के लिये अपमानजनक है।
  • उन्होंने दावा किया कि फिल्म के निर्माता और निर्देशकों ने दिव्यांग व्यक्तियों के विषय में जागरूकता उत्पन्न करने के लिये एक लघु फिल्म बनाई है।
  • उन्होंने यह भी कहा कि निर्माताओं को दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर देने पर ज़ोर देना चाहिये।
  • यह भी तर्क दिया गया कि चलचित्र अधिनियम, 1952 की धारा 5 के अंतर्गत मुद्दे की संवेदनशीलता को ठीक से समझने के लिये केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) में एक दिव्यांग सदस्य होना चाहिये।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि फिल्म का संदेश और उद्देश्य यह निर्धारित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यह कृत्य ‘अक्षमता परिहास’ है या ‘दिव्यांगता परिहास’
  • न्यायालय ने कहा कि फिल्म का उद्देश्य निर्धारित करने के लिये आधुनिक सामाजिक मॉडल का उपयोग किया जाना चाहिये, न कि पुराने चिकित्सा मॉडल का
    • न्यायालय ने माना कि यदि फिल्म का उद्देश्य सकारात्मक संदेश देना है तो उसमें दिव्यांग व्यक्तियों के लिये अपमानजनक या नकारात्मक भाषा का प्रयोग भी किया जा सकता है।
    • यदि दिव्यांग व्यक्तियों के लिये अपमानजनक या नकारात्मक भाषा का प्रयोग अधिक नकारात्मकता उत्पन्न करता है या उन्हें अपमानित करता है तथा उन पर नकारात्मक प्रभाव डालता है, तो इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • इसके अतिरिक्त न्यायालय ने यह भी माना कि CBFC में शारीरिक रूप से दिव्यांग व्यक्ति को शामिल करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि CBFC पहले से ही दिव्यांग व्यक्तियों पर ऐसी सामग्री की अनुमति के संबंध में पर्याप्त दिशा-निर्देशों की देखरेख के लिये काम कर रहा है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय निर्माताओं और निर्देशकों को लघु फिल्म बनाने का आदेश नहीं दे सकता, क्योंकि यह "बाध्यकारी भाषण" होगा।
  • न्यायालय ने CBFC द्वारा पालन किये जाने वाले दिशा-निर्देश भी सूचीबद्ध किये:
    • संस्थागत भेदभाव को बढ़ावा देने वाले शब्द- दिव्यांग व्यक्तियों के प्रति समाज में अपंग और अंधा जैसे शब्द का अर्थ विकृत हो गया है।
    • ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये जो 'दिव्यांगता’ को व्यक्तिगत बनाती है तथा अक्षम करने वाली सामाजिक बाधाओं को अनदेखा करती है' जैसे- 'पीड़ित' या 'अक्षम'।
    • रचनाकारों को चिकित्सा स्थिति के सटीक चित्रण के लिये पर्याप्त शोध और जाँच करनी चाहिये। ऐसी सटीकता की कमी से दिव्यांगता के विषय में गलत सूचना फैल सकती है और ऐसे दिव्यांग व्यक्तियों के विषय में धारणा बढ़ सकती है, जिससे अक्षमता और बढ़ सकती है।
    • दृश्य मीडिया को दिव्यांग व्यक्तियों की विविध वास्तविकताओं को दर्शाने का प्रयास करना चाहिये, न केवल उनकी चुनौतियों को बल्कि उनकी सफलताओं और समाज में योगदान को भी प्रदर्शित करना चाहिये।
    • मिथकों के आधार पर उपहास नहीं किया जाना चाहिये, जैसे कि एक अंधे व्यक्ति को उपहास का सामना करना पड़ता है, दूसरी ओर न ही उन्हें अति अपंगों के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
    • निर्णय लेने वाली संस्थाओं को भागीदारी के मूल्यों को ध्यान में रखना चाहिये, 'हमारे विषय में कुछ भी नहीं, हमारे बिना कुछ भी नहीं' सिद्धांत दिव्यांग व्यक्तियों की भागीदारी को बढ़ावा देने और अवसरों की समानता पर आधारित है।
    • चलचित्र अधिनियम और नियमों के तहत फिल्मों के समग्र संदेश तथा व्यक्तियों की गरिमा पर उनके प्रभाव का आकलन करने के लिये वैधानिक समितियों का गठन एवं विशेषज्ञ राय आमंत्रित करने के लिये इसे व्यवहार में लाया जाना चाहिये।
    • दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण के अभिसमय में पोर्टल को प्रोत्साहित करने के उपायों के कार्यान्वयन के लिये दिव्यांग व्यक्तियों के साथ परामर्श और उनकी भागीदारी की भी आवश्यकता है, जो इसके अनुरूप हो- दिव्यांगता समर्थन समूहों के साथ सहयोग से संवेदनशील चित्रण सुनिश्चित किया जा सकता है और मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जा सकती है।
  • अतः न्यायालय ने माना कि दिव्यांग व्यक्तियों के विषय में धारणागत परिहास को रोकने के लिये फिल्मों में दिव्यांगता परिहास का उपयोग किया जा सकता है।

इस मामले में उद्धृत विभिन्न ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • राज कपूर बनाम राज्य (1980): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक प्रदर्शन के लिये किसी फिल्म की उपयुक्तता का निर्णय करने के लिये प्रमाण-पत्र में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 जैसे अन्य विधानों के तत्त्वों पर भी विचार करना शामिल है।
  • बॉबी आर्ट इंटरनेशनल बनाम ओम पाल सिंह (1996): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि फिल्म के पीछे का उद्देश्य ऐसी बुराई के विषय में जागरूकता उत्पन्न करना था न कि इसे बढ़ावा देना। किसी चीज़ का सिर्फ चित्रण करना अनुचित नहीं हो सकता।
  • विकाश कुमार बनाम संघ लोक सेवा आयोग (2021): उच्चतम न्यायालय ने दिव्यांग व्यक्तियों को समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी की सुविधा प्रदान करने के लिये राज्य तथा निजी दोनों पक्षों के सकारात्मक दायित्व को रेखांकित किया।

इस मामले में चलचित्र अधिनियम, 1952 के किन प्रावधानों का उल्लेख किया गया है?

  • धारा 5 सलाहकार पैनल से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
    बोर्ड को इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करने में समर्थ बनाने के प्रयोजन के लिये, केंद्रीय सरकार ऐसे प्रादेशिक केंद्रों पर, जिन्हें वह ठीक समझे, सलाहकार पैनल स्थापित कर सकेगी, जिनमें से प्रत्येक में उतने व्यक्ति होंगे, जो केंद्रीय सरकार की राय में जनता पर फिल्मों के प्रभाव का निर्णय करने के लिये योग्य होंगे, या जितने केंद्रीय सरकार उनमें नियुक्त करना ठीक समझे।
    • प्रत्येक प्रादेशिक केंद्र में उतने प्रादेशिक अधिकारी होंगे जितने केंद्रीय सरकार नियुक्त करना उचित समझे, और इस निमित्त बनाए गए नियमों में फिल्मों की जाँच में प्रादेशिक अधिकारियों को सम्मिलित करने का उपबंध किया जा सकेगा।
    • बोर्ड किसी भी फिल्म के संबंध में, जिसके लिये प्रमाण-पत्र के लिये आवेदन किया गया है, किसी भी सलाहकार पैनल से निर्धारित तरीके से परामर्श कर सकता है।
    • प्रत्येक ऐसे सलाहकार पैनल का, चाहे वह एक निकाय के रूप में कार्य कर रहा हो या समितियों के रूप में, जैसा कि इस संबंध में बनाए गए नियमों में उपबंधित हो, यह कर्त्तव्य होगा कि वह फिल्म की जाँच करे तथा बोर्ड को ऐसी अनुशंसाएँ करे, जो वह ठीक समझे।
    • सलाहकार पैनल के सदस्य किसी भी वेतन के अधिकारी नहीं होंगे, परंतु उन्हें निर्धारित शुल्क या भत्ते प्राप्त होंगे।

इस मामले में दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 के किन प्रावधानों का उल्लेख किया गया है?

  • इस अधिनियम की धारा 3:
    • धारा 3 समानता और गैर-भेदभाव से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि
    • उपयुक्त सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि दिव्यांग व्यक्तियों को समानता, सम्मान के साथ जीवन और दूसरों के समान ही अपनी समग्रता के प्रति सम्मान का अधिकार प्राप्त हो।
    • समुचित सरकार दिव्यांग व्यक्तियों को उपयुक्त वातावरण प्रदान करके उनकी क्षमता का उपयोग करने के लिये कदम उठाएगी।
    • किसी भी दिव्यांग व्यक्ति के साथ दिव्यांगता के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, जब तक कि यह न दर्शाया जाए कि आरोपित कार्य या चूक किसी वैध उद्देश्य को प्राप्त करने का आनुपातिक साधन है।
    • किसी भी व्यक्ति को केवल दिव्यांगता के आधार पर उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
    • उपयुक्त सरकार दिव्यांग व्यक्तियों के लिये उचित आवास सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक कदम उठाएगी।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 का अवलोकन:

  • यह अधिनियम आधुनिक सामाजिक मॉडल पर संचालित है और यह अधिनियम गरिमा, व्यक्तिगत स्वायत्तता (व्यक्तिगत विकल्प बनाने की स्वतंत्रता), गैर-भेदभाव तथा प्रभावी भागीदारी के सिद्धांतों को दर्शाता है। CRPD का मानना ​​है कि दिव्यांगता, दिव्यांगता और सामाजिक दृष्टिकोण के बीच की अंतःक्रिया से उत्पन्न होती है, जो समाज में पूर्ण तथा समान भागीदारी में बाधा उत्पन्न करती है।
  • यह अधिनियम दिव्यांगता को दया के दृष्टिकोण से देखने के बजाय मानवाधिकार के दृष्टिकोण से देखने का प्रतिनिधित्व करता है। इसका मुख्य उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों की अंतर्निहित गरिमा और स्वायत्तता को बनाए रखते हुए उन्हें सशक्त बनाना है।
  • यह अधिनियम अवसर की समानता, सुगम्यता, लैंगिक समानता तथा दिव्यांग बच्चों की विकासशील क्षमताओं की मान्यता सुनिश्चित करता है और उनकी पहचान बनाए रखने के उनके अधिकार को सुनिश्चित करता है।

चिकित्सा मॉडल और आधुनिक सामाजिक मॉडल

  • चिकित्सा मॉडल एक पुराना मॉडल है जिसका प्रयोग पहले किया जाता था, जहाँ दिव्यांगता को दुर्भाग्य के रूप में देखा जाता था और इसे परिहास के साथ नहीं जोड़ा जा सकता था, उनकी त्रासदी का मज़ाक उड़ाने के लिये परिहास का प्रयोग किया जाता था।
  • हाल के समय में आधुनिक सामाजिक मॉडल को व्यक्तिगत दिव्यांगता के बजाय सामाजिक दिव्यांगता के रूप में देखा जाता है, जहाँ परिहास का उपयोग व्यक्तियों से जुड़ने और उन्हें दिव्यांग व्यक्तियों के विषय में जागरूक करने के लिये किया जाता है, जो दिव्यांगों के विषय में धारणगत मिथकों को तोड़ता है।

दिव्यांगता परिहास और अक्षम करने वाले परिहास के बीच क्या अंतर है?

अक्षमता परिहास

दिव्यांगता परिहास   

यह एक सकारात्मक परिहास है

यह एक नकारात्मक परिहास है

इसका उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों की गरिमा पर सकारात्मक प्रभाव डालना है।

इसका उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों पर नकारात्मक प्रभाव डालना है

 यह दिव्यांग व्यक्तियों के विषय में बेहतर समझ प्रदान करता है।

यह दिव्यांग व्यक्तियों का अपमान करता है।

 बाध्यकारी भाषण क्या है?

परिचय:

  • भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुसार, बाध्यकारी भाषण देना प्रतिबंधित है, क्योंकि यह संविधान के अंतर्गत सुनिश्चित मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
  • बाध्यकारी भाषण विशेष रूप से COI के अनुच्छेद 19(1) (a) के अंतर्गत आता है, जिसके तहत किसी को भी उसकी इच्छा के बिना कुछ भी कहने या बोलने के लिये विवश नहीं किया जा सकता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • बिजोई इमैनुएल बनाम केरल राज्य (1986) के मामले में, जिसे लोकप्रिय रूप से 'राष्ट्रगान' मामले के रूप में जाना जाता है, उच्चतम न्यायालय ने माना कि राष्ट्रगान के गायन के दौरान उसे न गाना राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण अधिनियम, 1971 के अधीन अपराध नहीं है, यदि अभियुक्त उसका अनादर नहीं कर रहा है तथा किसी को भी अनैच्छिक रूप से कोई शब्द गाने या बोलने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है