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सांविधानिक विधि

दस्तावेज़़ की वास्तविकता की स्वीकृति द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का अनुल्लंघन

 18-Jul-2024

अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय

“CrPC की धारा 294 के अधीन अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़ों की सूची के साथ-साथ उनकी वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये अभियुक्त को बुलाना, किसी भी तरह से अभियुक्त के अधिकार के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता है”।

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा  

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि किसी अभियुक्त को दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये बुलाना, आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध उसके अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।

अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान वाद में यह मुद्दा उठाया गया था कि क्या यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन है यदि किसी व्यक्ति को दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 294 के अधीन दस्तावेज़़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है।
  • इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 20(3) आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार की बात करता है और किसी भी व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्षी नहीं बनना चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 294 का उद्देश्य केवल वाद के लिये प्रासंगिक साक्ष्य का उपयोग करके तथा अन्य अप्रासंगिक दस्तावेज़ों को अलग रखकर वाद की कार्यवाही को शीघ्रता से संचालित करना है।
    • न्यायालय ने कहा कि किसी दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने वाले व्यक्ति के उपस्थित न होने पर उसके विरुद्ध, प्रतिकूल निर्णय हो सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि किसी अभियुक्त से दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये कहा जाता है तो वाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं होगा।

BNSS की धारा 330 क्या है?

  • परिचय:
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 330 में ऐसे दस्तावेज़ दिये गए हैं जिनके औपचारिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
    • पहले यह मामला CrPC की धारा 294 के अंतर्गत आता था।
    • BNSS की धारा 330 के अंतर्गत दो नए प्रावधान जोड़े गए हैं।
  • धारा 330:
    • खंड (1) में कहा गया है कि यहाँ अभियोजन पक्ष या अभियुक्त द्वारा किसी भी न्यायालय के समक्ष कोई दस्तावेज़ दायर किया जाता है, ऐसे प्रत्येक दस्तावेज़ के विवरण को एक सूची में शामिल किया जाएगा और अभियोजन पक्ष या अभियुक्त या अभियोजन पक्ष या अभियुक्त के अधिवक्ता, यदि कोई हो, को ऐसे दस्तावेज़ों की आपूर्ति के तुरंत बाद और किसी भी मामले में ऐसी आपूर्ति के तीस दिनों के बाद प्रत्येक ऐसे दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिये कहा जाएगा: 
      • बशर्ते कि न्यायालय अपने विवेकानुसार, लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के साथ समय-सीमा में छूट दे सकता है। 
      • आगे यह भी प्रावधान है कि किसी विशेषज्ञ को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के लिये तब तक नहीं बुलाया जाएगा जब तक कि ऐसे विशेषज्ञ की रिपोर्ट पर विचारण के किसी पक्षकार द्वारा विवाद न किया जाए।
    • खंड (2) में कहा गया है कि दस्तावेज़ों की सूची ऐसे प्रारूप में होगी जैसा राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
    • खंड (3) में कहा गया है कि जहाँ किसी दस्तावेज़ की वास्तविकता पर विवाद नहीं है, ऐसे दस्तावेज़ को इस संहिता के तहत किसी जाँच, परीक्षण या अन्य कार्यवाही में उस व्यक्ति के हस्ताक्षर के साक्ष्य के बिना साक्ष्यों में स्वीकार किया जा सकता है, जिसके लिये उस पर हस्ताक्षर किये जाने का तात्पर्य है:
      • इसमें यह प्रावधान है कि न्यायालय अपने विवेकानुसार ऐसे हस्ताक्षर को सिद्ध करने की मांग कर सकता है।

आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध अधिकार क्या है?

  • परिचय:
    • यह विधिक सूक्त पर आधारित है- निमो टेनेटूर प्रोड्रे एक्यूसेरे सीप्सम- यह बताता है कि किसी व्यक्ति को कोई आत्म-दोषी अभिकथन देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।
    • आत्म-दोष एक विधिक सिद्धांत है जिसके अधीन किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक मामले में सूचना देने या स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है। अमेरिका और भारत सहित विभिन्न न्यायक्षेत्रों में, आत्म-दोष के विरुद्ध अधिकार को संवैधानिक या विधिक संरक्षण के रूप में स्थापित किया गया है।

संविधान का अनुच्छेद 20: 

  • अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण:
    • खंड (1) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया जाएगा, सिवाय उस अपराध के, जो अपराध के रूप में आरोपित कृत्य के समय लागू विधि के उल्लंघन के लिये हो और न ही उस पर उससे अधिक दण्ड लगाया जाएगा, जो अपराध के समय लागू विधि के अधीन लगाया जा सकता था।
    • खंड (2) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये एक से अधिक बार वाद नहीं चलाया जाएगा और न ही उसे एक से अधिक बार दण्डित किया जाएगा।
    • खंड (3) में कहा गया है कि किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्षी बनने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।

आत्म-दोषसिद्धि पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ  क्या हैं?

  • नंदिनी सत्पथी बनाम पी.एल. दानी (1978): इस मामले में आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध अधिकार के महत्त्व की पुष्टि की गई। न्यायालय ने माना कि यह अधिकार अभियुक्त व्यक्तियों और साक्षियों दोनों पर लागू होता है तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि किसी भी परिस्थिति में किसी को भी स्वयं को दोषी ठहराने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
  • रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने हस्तलेखन नमूनों के मापदण्डों को व्यापक बनाते हुए इसमें आवाज़ के नमूने भी शामिल कर लिये हैं, साथ ही कहा है कि इससे आत्म-दोषी ठहराने के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा।
    • यह भी घोषित किया गया कि मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को जाँच के दौरान अनिवार्य रूप से आवाज़ का नमूना देने का निर्देश दे सकता है।

सांविधानिक विधि

अनुच्छेद 14

 18-Jul-2024

उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम वीरेंद्र बहादुर कठेरिया और अन्य 

“विभिन्न पदों के लिये पारिश्रमिक में मात्र संयोगवश समानता संवैधानिक प्रावधानों के तहत लागू होने योग्य वेतन समानता का अविभाज्य अधिकार प्रदान नहीं करती है।”

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम वीरेंद्र बहादुर कठेरिया और अन्य मामले में शिक्षा विभाग के अधिकारियों के वेतनमान को लेकर 22 वर्ष पुराने विवाद को सुलझाया है, जिससे उत्तर प्रदेश के मामले में हज़ारों कर्मचारियों पर असर पड़ने की संभावना है। न्यायालय ने मामले को सुलझाने के लिये संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल किया, जिससे सेवानिवृत्त अधिकारियों और राज्य सरकार के हितों में संतुलन बना रहा। यह निर्णय उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के बीच वाद-प्रतिवाद के कई दौरों से जुड़े मामलों में विलय तथा न्यायिक निर्णय के सिद्धांत के आवेदन को स्पष्ट करता है।

  • न्यायालय का निर्णय लंबे समय से लंबित वेतन समानता विवादों को सुलझाने में आने वाली चुनौतियों को प्रकट करता है तथा भविष्य में ऐसे मामलों से निपटने के संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करता है।
  • यह निर्णय राज्य सरकारों द्वारा विलंबित अपीलों से निपटने तथा वेतनमान निर्धारण के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं के लिये महत्त्वपूर्ण मिसाल कायम करता है।

उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम वीरेंद्र बहादुर कठेरिया एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्ष 2001 में जूनियर हाई स्कूलों के प्रधानाध्यापकों के वेतनमान में वृद्धि की गई, जिससे स्कूलों के उप-उप निरीक्षकों (SDI)/सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारियों (ABSA) और उप बेसिक शिक्षा अधिकारियों (DBSA) के साथ असमानता उत्पन्न हो गई, जिनका पहले उच्च वेतनमान था।
  • प्रभावित अधिकारियों ने उच्च वेतनमान की मांग करते हुए वर्ष 2002 में एक रिट याचिका दायर की थी। 
    • उच्च न्यायालय ने वर्ष 2002 में उनके पक्ष में निर्णय दिया तथा वर्ष 2001 से उच्च वेतनमान देने का निर्देश दिया।
  • राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील की:
    • अपील के दौरान, राज्य ने पदों को विलय करके तथा वर्ष 2006 (काल्पनिक रूप से) और वर्ष 2008 (वास्तविक रूप से) से उच्च वेतनमान प्रदान करके विसंगति को दूर करने के लिये एक नीति का प्रस्ताव रखा।
  • वर्ष 2010 में उच्चतम न्यायालय ने इस प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी तथा राज्य की अपील को अस्वीकार करते हुए इसके कार्यान्वयन का निर्देश दिया।
  • राज्य ने 2011 में प्रस्ताव को क्रियान्वित करने के आदेश जारी किये।
  • हालाँकि कुछ प्रभावित अधिकारियों ने वर्ष 2008 के बजाय वर्ष 2001 से लाभ की मांग करते हुए नई रिट याचिकाएँ दायर कीं। एकल न्यायाधीश ने वर्ष 2018 में उनके पक्ष में निर्णय दिया।
  • राज्य ने वर्ष 2018 के इस आदेश के विरुद्ध विलंबित अपील दायर की, जिसे विलंब के कारण उच्च न्यायालय ने वर्ष 2023 में अस्वीकार कर दिया।
  • राज्य ने अब अपनी विलंबित अपील को अस्वीकार किये जाने के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि वेतन समानता को तब तक अपरिहार्य अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता जब तक कि सक्षम प्राधिकारी जानबूझकर दो पदों को समान करने का निर्णय नहीं ले लेता, भले ही उनके नामकरण या योग्यता में अंतर हो।
  • स्पष्ट समीकरण के अभाव में, भिन्न-भिन्न पदों पर समान वेतनमान का आकस्मिक अनुदान, संविधान के अनुच्छेद 16 का उल्लंघन करने वाली विसंगति नहीं है।
  • वेतनमानों का निर्धारण विशेषज्ञों की अनुशंसाओं के आधार पर नीतिगत निर्णय है। राज्य का दायित्व यह सुनिश्चित करना है कि पदोन्नति वाले पदों पर फीडर कैडर से कम पारिश्रमिक न दिया जाए।
  • प्रशासनिक दक्षता के लिये कैडर का निर्माण, विलय, विघटन या समामेलन राज्य के विशेषाधिकार में आता है। न्यायिक हस्तक्षेप केवल अनुच्छेद 14 और 16 के स्पष्ट उल्लंघन पर ही उचित है।
  • वाद की दीर्घकालीन प्रकृति और सेवानिवृत्त प्रतिवादियों पर इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने पूर्ण न्याय करने के लिये अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया।
  • न्यायालय ने पुनर्गठित लाभ प्रदान करने वाले 2011 के सरकारी आदेश को यथावत् रखा, तथा इसे 01 जनवरी 2006 से तथा 01 दिसंबर 2008 से नामित रूप से लागू किया।
  • न्यायालय ने पंजाब राज्य बनाम रफीक मसीह मामले में स्थापित सिद्धांत के अनुरूप प्रतिवादियों को किये गए अतिरिक्त भुगतान की वसूली न करने का निर्देश दिया।
  • निर्णय में लंबे समय से चले आ रहे वेतन समानता विवादों को अंतिम रूप देने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया तथा यह स्वीकार किया गया कि देरी के कारण इनके निष्फल हो जाने की संभावना है।

अनुच्छेद 14 क्या है?

  • भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों के लिये “विधि के समक्ष समानता” और “विधि का समान संरक्षण” के मौलिक अधिकार की पुष्टि करता है।
  • पहली अभिव्यक्ति "विधि के समक्ष समानता" इंग्लैंड की मूल है और दूसरी अभिव्यक्ति "विधि का समान संरक्षण" अमेरिकी संविधान से ली गई है।
  • समानता एक प्रमुख सिद्धांत है जिसे भारत के संविधान की प्रस्तावना में इसके प्राथमिक उद्देश्य के रूप में शामिल किया गया है।
  • यह सभी मनुष्यों के साथ निष्पक्षता और निष्पक्षता से व्यवहार करने की प्रणाली है।
  • यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 में उल्लिखित आधारों पर गैर-भेदभाव को भी स्थापित करता है।

अनुच्छेद 14 के अपवाद क्या हैं? 

  • समानता का उपरोक्त नियम निरपेक्ष नहीं है और इसके कई अपवाद हैं। उदाहरण के लिये, विदेशी राजनयिक-
    • संवैधानिक वैधता किसी एक व्यक्ति या इकाई पर लागू विधानों तक विस्तारित हो सकती है, यदि विशेष परिस्थितियाँ ऐसे वर्गीकरण की मांग करती हैं।
    • बनाए गए विधानों की संवैधानिकता की पूर्वधारणा होती है। असंवैधानिकता सिद्ध करने का भार चुनौती देने वाले पर होता है।
    • इस धारणा का खंडन किया जा सकता है यदि कोई विधान बिना किसी तर्कसंगत भेदभाव के स्वैच्छिक ढंग से किसी व्यक्ति या वर्ग को अलग कर देता है।
    • न्यायालय सामाजिक आवश्यकताओं की विधायी समझ और विधानों के माध्यम से अनुभव-आधारित समस्या समाधान की अपेक्षा रखते हैं।
    • संवैधानिकता को बनाए रखने के लिये, न्यायालय सामान्य ज्ञान, रिपोर्ट, ऐतिहासिक संदर्भ और संभावित तथ्यात्मक परिदृश्यों पर विचार कर सकते हैं।
    • विधायिका सबसे अधिक दबाव वाले मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, विभिन्न स्तरों पर होने वाले नुकसान पर विचार कर सकती हैं।
    • यद्यपि सद्भावना को स्वीकार कर लिया जाता है, परंतु न्यायालय स्वतः ही यह नहीं मान लेते कि अज्ञात कारण भेदभावपूर्ण विधान को उचित ठहराते हैं।
    • वर्गीकरण भौगोलिक, व्यवसाय या उद्देश्य जैसे विभिन्न कारकों पर आधारित हो सकता है।
    • पूर्ण वैज्ञानिक या गणनीय समानता आवश्यक नहीं है; उपचार की समानता ही पर्याप्त है।
    • अनुच्छेद 14 का समान संरक्षण मूल एवं प्रक्रियात्मक दोनों प्रकार के विधानों पर लागू होता है।

अनुच्छेद 14 के अंतर्गत उचित वर्गीकरण क्या है?

  • अनुच्छेद 14 वर्ग विधान का निषेध करता है, परंतु यह विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये विधायिका द्वारा व्यक्तियों, उद्देश्यों और लेन-देन के तर्कसंगत वर्गीकरण का निषेध नहीं करता है।
  • यदि वर्गीकरण, प्रस्तावों में निर्धारित परीक्षण को संतुष्ट करता है, तो विधि को संवैधानिक घोषित किया जाएगा।
  • तथापि, यह प्रश्न कि कोई वर्गीकरण उचित है या नहीं, विधिक सूक्ष्मताओं के बजाय सामान्य ज्ञान के आधार पर तय किया जाना चाहिये।
  • यह विधान बनाने के लिये उचित वर्गीकरण पर रोक नहीं लगाता। हालाँकि वर्गीकरण स्वैच्छिक नहीं होना चाहिये।
  • इसे सदैव कुछ वास्तविक और सारवान भेद पर आधारित होना चाहिये, जिसका उन चीज़ों के साथ उचित तथा तर्कसंगत संबंध हो जिनके संबंध में वर्गीकरण किया जा रहा है।
  • इस प्रकार राज्य की शक्ति की एकमात्र सीमा यह है कि वर्गीकरण अनुचित और स्वैच्छिक नहीं होना चाहिये। वर्गीकरण के उचित होने के लिये निम्नलिखित दो शर्तों को पूरा करना होगा (शर्तों को पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के मामले में सीमांकित किया गया था)।
    • यह वर्गीकरण एक बोधगम्य विभेद पर आधारित होना चाहिये जो समूह में शामिल व्यक्तियों या वस्तुओं को समूह से बाहर रखे गए अन्य व्यक्तियों या वस्तुओं से अलग करता हो; तथा
    • इस विभेद का, अधिनियम द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिये।
  • विभेद जो कि वर्गीकरण का आधार है और अधिनियम का उद्देश्य दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं। जो आवश्यक है वह यह है कि वर्गीकरण के आधार और वर्गीकरण करने वाले अधिनियम के उद्देश्य के बीच एक संबंध होना चाहिये।

स्वेच्छाचारिता का सिद्धांत क्या है?

  • निष्पक्षता और स्वेच्छाचारिता एक दूसरे के विरोधी हैं, दोनों अवधारणाएँ एक ही साथ मौजूद नहीं हो सकतीं।
  • अतःन्यायालय ने स्वेच्छाचारिता वाले निर्णय को बाहर करके उचित वर्गीकरण में विकास करने का प्रयास किया।
  • यह सिद्धांत ई.पी. रायप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) के मामले में उत्पन्न किया गया था, जहाँ पीठ ने समानता को एक गतिशील अवधारणा कहा था और कहा था कि उचित वर्गीकरण के विस्तार को स्वेच्छाचारिता के प्रयोग से नहीं बदला जा सकता है।
  • इस सिद्धांत को बाद में मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) और आर.डी. शेट्टी बनाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण (1979) के मामलों में लागू किया गया, जिसमें न्यायालयों ने कहा कि स्वेच्छाचारिता का अर्थ समानता से वंचित करना है।

सिविल कानून

CPC का आदेश XXIII नियम 3

 18-Jul-2024

अमरो देवी एवं अन्य बनाम जुल्फी राम (मृत) LR के माध्यम से एवं अन्य

“समझौते के विषय में न्यायालय के समक्ष पक्षों के मात्र बयान से CPC के आदेश XXIII नियम 3 की अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती”।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि समझौते की शर्तों को लिखित रूप में रखा जाना चाहिये तथा पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिये।      

  • उच्चतम न्यायालय ने अमरो देवी एवं अन्य बनाम जुल्फी राम (मृत) LR के माध्यम से एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

अमरो देवी एवं अन्य बनाम जुल्फी राम (मृत) LR एवं अन्य के माध्यम से मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रतिवादी/वादी ने न्यायालय के समक्ष पक्षों के बीच दर्ज पूर्व समझौते के आधार पर अपीलकर्त्ता/प्रतिवादी के विरुद्ध कब्ज़े और अस्थायी निषेधाज्ञा के लिये एक नया वाद दायर किया। 
  • वादी ने तर्क दिया कि पिछले वाद में पक्षों के बीच हुए समझौते के अनुसार वे विवादित भूमि के आधे भाग के स्वामी हैं।
  • अपीलकर्त्ता/प्रतिवादी ने वादी के तर्क का प्रतिवाद किया और तर्क दिया कि पहले के वाद में पक्षों के बीच हुए समझौते को मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि CPC के आदेश XXIII  नियम 3 का अनुपालन न होने के कारण न्यायालय द्वारा कोई समझौता डिक्री पारित नहीं की गई थी।
  • निचले न्यायालय ने पक्षकारों के बीच विधिवत् हस्ताक्षरित लिखित समझौते के अभाव और प्रस्तुति के अभाव में वाद को अस्वीकार कर दिया।
  • हालाँकि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों को उलट दिया, जिसे बाद में उच्च न्यायालय ने स्वीकृति दे दी।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता/प्रतिवादी ने उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों को यथावत रखा और कहा कि वाद के पक्षकारों द्वारा विधिवत् हस्ताक्षरित लिखित समझौते के अस्तित्व या प्रस्तुति के बिना समझौता करना विधि के अंतर्गत अनुचित है।
  • न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXIII नियम 3 को पढ़ने से स्पष्ट है कि वैध समझौते के लिये पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित लिखित रूप में वैध करार या समझौता होना चाहिये, जिसे न्यायालय की संतुष्टि के लिये सिद्ध करना आवश्यक होगा।
  • लिखित रूप में ऐसे किसी दस्तावेज़ के अभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि कोई वैध समझौता हुआ है।
  • इसलिये, न्यायालय ने यहाँ स्पष्ट किया कि समझौता डिक्री केवल CPC के आदेश XXIII नियम 3 के अनुसार ही पारित की जा सकती है।

CPC का आदेश XXIII नियम 3 क्या है?

  • CPC के आदेश XXIII नियम 3 में वाद में समझौते का प्रावधान है।
  • इस प्रावधान का उद्देश्य वाद-प्रतिवाद की बहुलता से बचना तथा पक्षों को सौहार्दपूर्ण ढंग से समझौता करने की अनुमति देना है।
  • इसके आवश्यक तत्त्व निम्नवत  हैं:
    • न्यायालय की संतुष्टि हेतु यह सिद्ध करना होगा कि वाद पूर्णतः या आंशिक रूप से समायोजित कर दिया गया है।
    • एक वैध करार या समझौते द्वारा,
    • वैध करार या समझौता लिखित रूप में होना चाहिये तथा पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिये (1976 के अधिनियम 104 द्वारा जोड़ा गया)
    • न्यायालय ऐसे करार, समझौता या संतुष्टि को दर्ज करने का आदेश देगा
    • उपरोक्त करार या समझौते के अनुसार डिक्री पारित की जाएगी।
    • यह आवश्यक नहीं है कि करार, समझौता या संतुष्टि की विषय-वस्तु वाद की विषय-वस्तु के समान हो। 
  • आदेश XXIII नियम 3 के प्रावधान में यह प्रावधान है कि:
    • जहाँ एक पक्ष द्वारा यह आरोप लगाया जाता है और दूसरे पक्ष द्वारा इनकार किया जाता है कि कोई करार या समझौता हो गया है।
    • उपरोक्त प्रश्न का निर्णय न्यायालय द्वारा किया जाएगा।
    • तथापि, प्रश्न का निर्णय करने के प्रयोजन के लिये तब तक कोई स्थगन आदेश नहीं दिया जाएगा जब तक कि न्यायालय ऐसा स्थगन देना उचित न समझे।
  • इसके अतिरिक्त, धारा के स्पष्टीकरण में यह प्रावधान है कि एक करार या समझौता जो:
    • शून्य , या
    • शून्यकरणीय
  • भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत वैध नहीं माना जाएगा।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि आदेश XXIII नियम 3A में यह प्रावधान है कि किसी डिक्री को इस आधार पर रद्द करने के लिये कोई वाद नहीं लाया जाएगा कि जिस समझौते पर डिक्री आधारित थी वह वैध नहीं था।

महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • पुष्पा देवी भगत बनाम राजिंदर सिंह (2006):
    • न्यायालय ने आदेश XXIII नियम 3 और नियम 3A के प्रावधानों पर गौर किया तथा निम्नलिखित निर्णय दिया:
      • धारा 96(3) CPC में निहित विशिष्ट प्रतिबंध को ध्यान में रखते हुए सहमति डिक्री के विरुद्ध कोई अपील स्वीकार्य नहीं है।
      • नियम 1 आदेश 43 के खंड (m) को हटाए जाने के उपरांत समझौता दर्ज करने (या समझौता दर्ज करने से इनकार करने) के न्यायालय के आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती।
      • किसी समझौता डिक्री को इस आधार पर रद्द करने के लिये कोई स्वतंत्र वाद दायर नहीं किया जा सकता कि नियम 3-A में निहित प्रतिबंध के मद्देनज़र समझौता वैध नहीं था।
      • सहमति डिक्री एक विबंधन के रूप में कार्य करती है तथा तब तक वैध और बाध्यकारी होती है जब तक कि इसे सहमति डिक्री पारित करने वाले न्यायालय द्वारा नियम 3 आदेश 23 के प्रावधान के तहत आवेदन पर आदेश द्वारा अपास्त नहीं कर दिया जाता है।
  • त्रिलोकी नाथ सिंह बनाम अनिरुद्ध सिंह (2020):
    • आदेश XXIII नियम 3 CPC की योजना वाद-प्रतिवाद की बहुलता से बचने और पक्षों को सौहार्दपूर्ण ढंग से समझौता करने की अनुमति देने की है, जो कि वैध है, लिखित है तथा पक्षों की ओर से स्वैच्छिक है।
    • न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 में संशोधन प्रस्तुत करके विधायिका ने आदेश 23 नियम 3-A को लागू कर दिया है, जो इस आधार पर किसी डिक्री को रद्द करने के लिये वाद प्रस्तुत करने पर रोक लगाता है कि जिस समझौते पर डिक्री आधारित है वह विधिसम्मत नहीं है।
    • सहमति डिक्री से बचने के लिये पक्षकार के पास एकमात्र उपाय उस न्यायालय में जाना है जिसने समझौता दर्ज किया है तथा कोई स्वतंत्र वाद दायर नहीं किया जा सकता है।