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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

IPC की धारा 377 के अधीन पतियों के अभियोजन का प्रावधान

 22-Jul-2024

डॉ. कीर्ति भूषण मिश्रा बनाम उत्तराखंड राज्य और अन्य

“यदि पति और पत्नी के बीच कोई कार्य भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 के अंतर्गत दण्डनीय नहीं है, तो वही कार्य भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अंतर्गत अपराध नहीं माना जा सकता है।”

न्यायमूर्ति रवींद्र मैथानी

स्रोत: उत्तराखंड उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने डॉ. कीर्ति भूषण मिश्रा बनाम उत्तराखंड राज्य व अन्य मामले में यह माना है कि पत्नी के साथ बलात्संग करने पर पति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अधीन दण्डित नहीं किया जाएगा।

डॉ. कीर्ति भूषण मिश्रा बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • पत्नी (प्रतिवादी) ने अपने पति (याचिकाकर्त्ता) के विरुद्ध उसके साथ अप्राकृतिक संभोग करने का वाद दायर किया है।
  • उसने यह भी दलील दी कि उसके पति द्वारा उसके साथ नियमित रूप से मारपीट और दुर्व्यवहार किया जाता है, जिसके कारण उसे चिकित्सा की आवश्यकता है।
  • उन्होंने आगे कहा कि उनके पति कथित तौर पर उनकी बच्ची को यौन संबंधी सामग्री दिखाते हैं और बच्ची के सामने ही उनके साथ बलात् यौन क्रियाकलाप करते हैं।
  • यह भी कहा गया है कि याचिकाकर्त्ता कभी-कभी बहुत अजीब व्यवहार करता है, जैसे घर में चीज़ें फेंकना और कमरे के सामने पेशाब करना आदि।
  • प्रतिवादी ने यह भी कहा कि लंबे समय तक बलात् अप्राकृतिक मैथुन और पिटाई के कारण वह घायल हो गई है तथा उसे चिकित्सा की आवश्यकता है।
  • अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश (पोक्सोPOCSO) हरिद्वार ने याचिकाकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 377 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (पोक्सो अधिनियम) की धारा 11 तथा 12 के अधीन समन प्रेषित।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अपवाद 2 के अधीन, यदि पत्नी की आयु 15 वर्ष से कम नहीं है तो पति को बलात्संग के आरोप से मुक्ति दी जाती है।
  • इसलिये, उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 377 के अधीन याचिकाकर्त्ता को समन भेजने के ट्रायल कोर्ट के निर्णय को अस्वीकार कर दिया।
  • उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि बच्चे को यौन रूप से स्पष्ट सामग्री दिखाना यौन उत्पीड़न के समान है और इसे POCSO अधिनियम की धारा 11 के साथ धारा 12 के प्रावधानों के अंतर्गत समाविष्ट किया जाना चाहिये।
  • अतः उच्च न्यायालय ने POCSO अधिनियम की धारा 11 सहपठित धारा 12 के अधीन याचिकाकर्त्ता को समन भेजने के संबंध में ट्रायल कोर्ट के निर्णय को यथावत् रखा।

IPC के प्रावधान:

  • धारा 375:
    • अब इसे BNS, 2023 की धारा 63 के अंतर्गत शामिल किया गया है, जहाँ विवाहित महिला द्वारा यौन संबंध के लिये सहमति की आयु 15 वर्ष (जैसा कि IPC के अधीन दिया गया है) से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  • IPC की धारा 375 के अनुसार बलात्संग—
    • खंड (1) में कहा गया है कि एक आदमी को "बलात्संग" करने वाला कहा जाता है यदि वह—
    • किसी भी सीमा तक अपने लिंग को किसी महिला की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश कराता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये बाध्य करता है; या
    • किसी भी सीमा तक किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग के अलावा कोई वस्तु या शरीर का कोई भाग डालता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये बाध्य करता है; या
    • किसी महिला के शरीर के किसी भाग के साथ छेड़छाड़ करता है ताकि उस महिला की योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या शरीर के किसी भाग में प्रवेश हो सके या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये बाध्य करता है; या
    • किसी महिला की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर अपना मुँह लगाता है या उसे उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये बाध्य करता है, निम्नलिखित सात विवरणों में से किसी भी परिस्थिति में-
    • विवरण 1 में उसकी इच्छा के विरुद्ध बताया गया है।
    • विवरण 2 उसकी सहमति के बिना बताया गया है।
    • वर्णन 3 में कहा गया है कि उसकी सहमति से, जब उसकी सहमति उसे या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिससे वह हितबद्ध है, मृत्यु या क्षति का भय दिखाकर प्राप्त की गई हो।
    • वर्णन 4 उसकी सहमति से, जब पुरुष जानता है कि वह उसका पति नहीं है और उसकी सहमति इसलिये दी गई है क्योंकि वह मानती है कि वह कोई दूसरा पुरुष है जिसके साथ वह विधिपूर्वक विवाहित है या होने का विश्वास करती है।
    • वर्णन 5: उसकी सहमति से, जब ऐसी सहमति देते समय, वह मानसिक विकृति या नशे के कारण या उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से या किसी अन्य के माध्यम से किसी मूर्च्छाजनक या अस्वास्थ्यकर पदार्थ के प्रशासन के कारण, उस पदार्थ की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ हो, जिसके लिये वह सहमति दे रही है।
    • विवरण 6 में कहा गया है कि उसकी सहमति से या बिना सहमति के, जब वह अठारह वर्ष से कम आयु की हो।
    • विवरण 7 में बताया गया है कि वह कब सहमति व्यक्त करने में असमर्थ है।
    • स्पष्टीकरण 1- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, "योनि" में ‘लोबिया मेज़ोरा’ भी सम्मिलित होंगे।
    • स्पष्टीकरण 2- सहमति से स्पष्ट स्वैच्छिक समझौता अभिप्रेत है जब महिला शब्दों, इशारों या किसी भी प्रकार के मौखिक या गैर-मौखिक संचार द्वारा विशिष्ट यौन क्रिया में भाग लेने की इच्छा व्यक्त करती है।
    • इसमें यह प्रावधान है कि यदि कोई महिला प्रवेश के कार्य का शारीरिक रूप से प्रतिरोध नहीं करती है, तो केवल इस तथ्य के आधार पर उसे यौन क्रियाकलाप के लिये सहमति देने वाली नहीं माना जाएगा।
    • अपवाद 1- कोई चिकित्सीय प्रक्रिया या हस्तक्षेप बलात्संग नहीं माना जाएगा।
    • अपवाद 2- किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ, जबकि पत्नी की आयु पंद्रह वर्ष से कम न हो, संभोग या यौन कृत्य बलात्संग नहीं है।
  • धारा 377: अप्राकृतिक अपराध—
    • जो कोई भी व्यक्ति किसी पुरुष, स्त्री या पशु के साथ प्रकृति के विरुद्ध स्वेच्छा से शारीरिक संभोग करेगा, उसे आजीवन कारावास या दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और वह अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा।
    • स्पष्टीकरण- इस धारा में वर्णित अपराध के लिये आवश्यक शारीरिक संभोग कारित करने के लिये किसी भी प्रकार का प्रवेशन पर्याप्त होगा।

POCSO के प्रावधान:

  • धारा 11: यौन उत्पीड़न—
    • किसी व्यक्ति को किसी बालक पर यौन उत्पीड़न करने वाला तब कहा जाता है जब ऐसा व्यक्ति यौन इरादे से—
      • कोई शब्द बोलेगा या कोई ध्वनि निकालेगा, या कोई इशारा करेगा या कोई वस्तु या शरीर का अंग प्रदर्शित करेगा, इस आशय से कि ऐसा शब्द या ध्वनि सुनी जाएगी, या ऐसा इशारा या वस्तु या शरीर का अंग बालक द्वारा देखा जाएगा; या
      • किसी बालक को अपना शरीर या उसके शरीर का कोई भाग इस प्रकार प्रदर्शित करने को कहता है कि वह उस व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति को दिखाई दे; या
      • किसी भी रूप या मीडिया में किसी भी वस्तु को अश्लील उद्देश्यों के लिये बच्चे को दिखाता है; या
      • किसी बच्चे का बार-बार या लगातार अनुसरण करता है, देखता है या सीधे या इलेक्ट्रॉनिक, डिजिटल या किसी अन्य माध्यम से उससे संपर्क करता है; या
      • मीडिया के किसी भी रूप में, इलेक्ट्रॉनिक, फिल्म या डिजिटल या किसी अन्य माध्यम से बच्चे के शरीर के किसी भाग का वास्तविक या मनगढ़ंत चित्रण या यौन कृत्य में बच्चे की संलिप्तता का उपयोग करने की धमकी देता है; या
      • किसी बच्चे को अश्लील उद्देश्यों के लिये लुभाता है या उसके लिये संतुष्टि देता है।
    • स्पष्टीकरण- कोई भी प्रश्न जिसमें "लैंगिक आशय" अंतर्वलित हो, तथ्य का प्रश्न होगा।
  • धारा 12 यौन उत्पीड़न के लिये दण्ड—
    • इस धारा में कहा गया है कि जो कोई भी किसी बच्चे पर यौन उत्पीड़न करता है, उसे तीन वर्ष तक के कारावास का दण्ड दिया जाएगा और अर्थदण्ड भी देना होगा।

डॉ. कीर्ति भूषण मिश्रा बनाम उत्तराखंड राज्य और एक अन्य मामले में न्यायालय द्वारा संदर्भित मामले:

  • उमंग सिंघार बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023): यह माना गया कि जब धारा 375 IPC (2013 संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित) में पति द्वारा अपनी पत्नी में लिंग प्रवेश के सभी संभावित भाग शामिल हैं और जब इस तरह के कृत्य के लिये सहमति महत्त्वहीन है, तो धारा 377 IPC के अधीन अपराध की कोई संभावना नहीं है जहाँ पति तथा पत्नी यौन कृत्यों में शामिल हैं।
  • संजीव गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2023): यह माना गया कि वैवाहिक बलात्संग से किसी व्यक्ति की सुरक्षा उस स्थिति में भी जारी रहती है, जब उसकी पत्नी की आयु 18 वर्ष या उससे अधिक हो।

IPC की धारा 377 की संवैधानिक वैधता:

  • आंशिक संवैधानिकता:
    • धारा 377 के अधीन गैर-सहमति से संभोग, बाल यौन शोषण और पशुता से संबंधित अपराध अभी भी भारत में अपराध की श्रेणी में आते हैं।
  • आंशिक असंवैधानिकता:
    • समान लिंग वाले जोड़ों के बीच सहमति से बनाए गए संभोग के अपराधीकरण से संबंधित अपराधों को असंवैधानिक माना गया है और यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 19 तथा अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।

पूर्व निर्णयों के माध्यम से विकास:

  • नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार (2009): इस मामले में समान लिंग वाले जोड़ों के बीच सहमति से बनाए गए संभोग को अपराध मानने से संबंधित प्रावधानों को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अमान्य करार दिया था।
  • सुरेश कुमार कौशल एवं अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन एवं अन्य (2013):
    • इस मामले में नाज़ फाउंडेशन के मामले में पारित निर्णय को चुनौती दी गई थी, जहाँ दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था और धारा 377 के प्रावधानों को वैध ठहराया था।
    • उच्च न्यायालय ने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया कि देश के LGBTQIA+ समुदाय के केवल एक छोटे प्रतिशत ने धारा 377 के अधीन आरोपों और अभियोजन का सामना किया है तथा यह कि इस विधि को असंवैधानिक घोषित करने के लिये “इसे एक ठोस आधार नहीं बनाया जा सकता”।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014): इस मामले में अंततः ट्रांसजेंडरों को पुरुष और महिला के अलावा तीसरी श्रेणी के रूप में पहचाने जाने का अधिकार मिला और उन्हें लिंग पहचान का अधिकार प्रदान किया गया।
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): इस मामले में न्यायालय ने नाज़ फाउंडेशन के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय पर भरोसा किया और IPC की धारा 377 के उस भाग को असंवैधानिक माना जो समान लिंग के बीच सहमति से संभोग को अपराध मानता है।

भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 के अधीन धारा 377 की स्थिति:

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 को BNS से हटा दिया गया है और लोगों द्वारा इसकी कड़ी आलोचना की गई है।
  • यह देखा गया है कि इस प्रावधान को हटा दिये जाने से पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पास अप्राकृतिक यौन कृत्यों के विरुद्ध स्वयं को सुरक्षित रखने की कोई संभावना नहीं होगी।
  • उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने कहा है कि शासन को इस खतरे को रोकने के लिये कुछ कदम उठाने चाहिये।

वाणिज्यिक विधि

व्यक्तियों का निकाय या संघ

 22-Jul-2024

मेसर्स Ktc इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम रणधीर बरार एवं अन्य

करार में “उत्तरवर्ती शेयरधारकों” ने एकल निकाय का गठन नहीं किया ताकि अधिनियम की धारा 2(1)(f)(iii) का अनुप्रयोग किया जा सके”।

न्यायमूर्ति प्रतीक जालान

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की पीठ ने कहा कि यहाँ उत्तरवर्ती शेयरधारकों को सहायता संघ या भागीदार नहीं माना जा सकता।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने मेसर्स Ktc इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम रणधीर बरार एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स Ktc इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम रणधीर बरार एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादियों (पंद्रह व्यक्ति जिनमें से तेरह को "उत्तरवर्ती शेयरधारक" कहा गया) के बीच विवाद उत्पन्न हुआ।
  • Ktc इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (याचिकाकर्त्ता) ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तथा शेयरधारक करार से उत्पन्न विवादों को हल करने के लिये मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग की।
  • एक प्रमुख प्रारंभिक प्रश्न यह था कि क्या यह याचिका न्यायालय में स्वीकार्य है, यह देखते हुए कि करार के एक पक्षकार, श्री निकोलस वल्लाडारेस, न तो भारत के नागरिक हैं और न ही भारत के स्थायी निवासी हैं।
  • यहाँ मुख्य मुद्दा यह था कि क्या इस मामले में धारा 2(1)(f)(iii) लागू होगी या नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि यह विधि की स्थापित स्थिति है कि प्रतिवादियों को मध्यस्थता अधिनियम की धारा 2 (1) (f) (iii) के अंतर्गत “व्यक्तियों का संघ या निकाय” नहीं माना जा सकता है।
  • न्यायालय ने कहा कि तेरह व्यक्तियों को अलग-अलग सूचीबद्ध किया गया था तथा यह किसी सहायता संघ या भागीदारी से संबंधित मामला नहीं है।
  • इसलिये, न्यायालय ने माना कि “उत्तरवर्ती शेयरधारक” एक एकल इकाई का गठन नहीं करते हैं क्योंकि प्रत्येक शेयरधारक एक विशिष्ट संख्या में शेयरों की सदस्यता लेता है, परिभाषित शर्तों के अंतर्गत व्यक्तिगत रूप से कंपनी से बाहर निकलने का अधिकार रखता है और व्यक्तिगत अधिकारों तथा दायित्वों का वहन करता है।
  • इसने माना कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 2(1)(f)(iii) के अधीन इन शेयरधारकों को एक एकल संघ के रूप में मानना, किसी कंपनी में शेयरधारकों को केवल उनकी शेयरधारिता के आधार पर सामूहिक इकाई के रूप में मानने के समान होगा।
  • परिणामस्वरूप, न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी संख्या 5 की स्थिति भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश के निवासी की है और इसलिये उच्च न्यायालय के पास अधिनियम की धारा 11 के अधीन याचिका पर विचार करने का अधिकार नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता क्या है?

  • मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 (1) (f) “अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता” शब्द की परिभाषा निर्धारित करती है।
  • इसका अर्थ है विधिक संबंधों से उत्पन्न विवादों से संबंधित मध्यस्थता, चाहे वे संविदात्मक हों या नहीं, जिन्हें भारत में लागू विधि के अधीन वाणिज्यिक माना जाता है और जहाँ कम-से-कम एक पक्षकार:
    • ऐसा व्यक्ति जो भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश का नागरिक है या वहाँ का स्थायी निवासी है; या
    • कोई निगमित निकाय जो भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में निगमित है; या
    • ऐसा संघ या व्यक्तियों का निकाय जिसका केंद्रीय प्रबंधन और नियंत्रण भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में किया जाता है; या
    • किसी विदेशी देश की सरकार
  • मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (9) के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता में एकमात्र या तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति के मामले में, [उच्चतम न्यायालय या उस न्यायालय द्वारा नामित व्यक्ति या संस्था] पक्षों की राष्ट्रीयताओं के अलावा किसी अन्य राष्ट्रीयता के मध्यस्थ को नियुक्त कर सकता है, जहाँ पक्ष अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के हैं।

न्यायालय द्वारा "संघ या व्यक्तियों का निकाय" शब्द की क्या व्याख्या की गई है?

  • मीरा एंड कंपनी बनाम CIT (1997)
    • इस मामले में न्यायालय ने आयकर अधिनियम, 1961 के संदर्भ में इस शब्द की व्याख्या की।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि “व्यक्तियों का संघ” “व्यक्तियों के समूह” से भिन्न और पृथक नहीं है।
      • इसे इस बिंदु पर होने वाले किसी भी विवाद को टालने के लिये जोड़ा गया है कि क्या केवल व्यक्तियों के समूह को ही मूल्यांकन की इकाई माना जाना चाहिये।
  • रमनलाल भाईलाल पटेल बनाम गुजरात राज्य (2008)
    • न्यायालय ने इस शब्द की व्याख्या बॉम्बे जनरल क्लॉज़ एक्ट, 1904 और गुजरात कृषि भूमि सीलिंग एक्ट, 1960 के संदर्भ में की।
    • न्यायालय ने इस मामले में माना कि शब्द "व्यक्तियों का संघ" और "व्यक्तियों का निकाय" (जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किये जा सकते हैं) का विधिक अर्थ है तथा यह अधिकारों एवं कर्त्तव्यों वाली इकाई को संदर्भित करता है।
    • यह माना गया कि जहाँ पक्षों की इच्छा से व्यक्तियों का एक समूह किसी संयुक्त उद्यम या उपक्रम में एक साथ लगा हुआ है, उसे "व्यक्तियों का संघ/व्यक्तियों का निकाय" कहा जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता से संबंधित मामले विधान क्या हैं?

  • लार्सन एंड टुब्रो SCOMI इंजीनियरिंग BHD बनाम मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी (2019):
    • इस मामले में अनुबंध करने वाले पक्ष एक सहायता संघ था, जिसमें एक ओर भारतीय कंपनी और एक मलेशियाई कंपनी थी तथा दूसरी ओर मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकरण (MMRDA) था।
    • इन परिस्थितियों में, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संघ एक अनिगमित संघ था, जिसमें भारतीय कंपनी प्रमुख भागीदार थी और निर्णायक सहमति उसकी थी अर्थात् संघ का केंद्रीय प्रबंधन तथा नियंत्रण भारत में था।
    • अतः उच्चतम न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 11 के अधीन याचिका उच्चतम न्यायालय के समक्ष नहीं आएगी और इसलिये इसे अस्वीकार कर दिया गया।
  • पर्किन्स ईस्टमैन आर्किटेक्ट्स DPC बनाम HSCC (इंडिया) लिमिटेड (2020):
    • इस मामले में भी विवाद संघ और प्रतिवादी HSCC इंडिया लिमिटेड के बीच अनुबंध के अंतर्गत उत्पन्न हुआ।
    • न्यायालय ने माना कि सहायता संघ का प्रमुख सदस्य एक विदेशी इकाई थी और इसलिये धारा 2(1)(f) की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं।