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आपराधिक कानून
BNSS के अधीन FIR रद्द करना
25-Jul-2024
श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (NCT दिल्ली सरकार) एवं अन्य “भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दर्ज FIR को रद्द करने के लिये यदि 1 जुलाई के उपरांत याचिका दायर की जाती है, तो उस पर BNSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) द्वारा विचार किया जाना चाहिये।” न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य मामले में हाल ही में एक वैवाहिक मामले को अस्वीकार कर दिया, जिसमें एक पति ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) के तहत वर्ष 2018 में अपनी पत्नी द्वारा दर्ज FIR को अमान्य करने की मांग की थी।
- न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने निर्णय दिया कि भले ही पति की याचिका BNSS के अधीन 1 जुलाई, 2023 के उपरांत दायर की गई हो, परंतु प्रक्रियागत कार्यवाही के कारण इसे CrPC प्रावधानों के अधीन माना जाएगा।
- यह निर्णय, कुटुंब न्यायालय के माध्यम से दोनों पक्षों के बीच हुए करार के बाद लिया गया, जिसके परिणामस्वरूप आपसी सहमति से उनका विवाह विच्छेद हो गया और करार की शर्तों के अनुसार संपत्ति का हस्तांतरण हो गया, जिससे FIR अनावश्यक हो गई तथा उसे रद्द कर दिया गया।
श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 27 फरवरी 2018 को शिकायतकर्त्ता (पत्नी), जो प्रतिवादी नंबर 2 है, द्वारा याचिकाकर्त्ता (पति) के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A / 406/34 के अधीन FIR दर्ज की गई थी।
- इस दंपति के दो बच्चे थे, जिनकी उम्र लगभग 17 और 19 वर्ष थी।
- 15 मार्च 2021 को कुटुंब न्यायालयों में मध्यस्थता के माध्यम से दोनों पक्षों ने करार कर लिया।
- 20 अप्रैल 2022 को आपसी सहमति से उनकी विवाह को भंग करते हुए विवाह-विच्छेद का आदेश दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता (पति) ने CrPC की धारा 482 के अधीन FIR को रद्द करने की मांग करते हुए यह याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि याचिका 1 जुलाई, 2024 को BNSS लागू होने के उपरांत CrPC के अधीन दायर की गई थी।
- न्यायालय ने पाया कि BNSS की धारा 531(2)(a) के अनुसार, CrPC के अधीन केवल 1 जुलाई, 2024 से पहले लंबित कार्यवाही ही जारी रखी जानी थी। नई याचिकाएँ BNSS के अधीन दायर की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने व्याख्या की कि BNSS की धारा 531 का मसौदा तैयार करने में संसद का आशय बीच में शासकीय विधि में परिवर्तन कर प्रक्रियागत कार्यवाही को बाधित करने से बचना था।
- अनावश्यक विलंब से बचने के लिये, न्यायालय ने याचिका को CrPC की धारा 482 और BNSS की धारा 528 के अधीन दायर याचिका माना।
- न्यायालय ने मध्यस्थता के माध्यम से 15 मार्च 2021 को हुए समझौता विलेख और 20 अप्रैल 2022 की तलाक डिक्री को संज्ञान में लिया।
- इसने सत्यापित किया कि तलाक के आदेश के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की गई थी।
- न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि राज्य को FIR रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय के स्थापित मामलों (ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य और नरिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य) का उदाहरण देते हुए, न्यायालय ने कहा कि FIR को रद्द न करने का कोई कारण नहीं है।
- न्यायालय ने टिप्पणी की कि प्राथमिकी और संबंधित कार्यवाही जारी रखना निरर्थक होगा तथा पक्षों के बीच करार को देखते हुए उनके बीच शांति के लिये अनुकूल नहीं होगा।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि FIR रद्द करने से बच्चों के अपने पिता के संबंध में विधिक अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।
CrPC की धारा 482 क्या है?
परिचय:
- यह धारा उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के बचाव से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी जो इस संहिता के तहत किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्यायिक उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।
- यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है तथा केवल इस तथ्य को स्वीकार करती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
BNSS की धारा 528 क्या है?
परिचय:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 528 पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेखों को मांगने से संबंधित है।
- यह धारा उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के बचाव से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी जो इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्यायिक उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।
- यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है तथा केवल इस तथ्य को स्वीकार करती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
उद्देश्य:
- धारा 528 में यह निर्धारित किया गया है कि अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग कब किया जा सकता है।
- इसमें तीन उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है जिनके लिये अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है:
- संहिता के अंतर्गत किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देना।
- किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिये।
- न्यायिक उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये।
वे कौन-से मामले हैं जहाँ उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग नहीं किया जा सकता?
- निम्नलिखित मामलों में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता:
- किसी संज्ञेय मामले में पुलिस को दी गई प्राथमिकी के परिणामस्वरूप पुलिस जाँच की कार्यवाही को रद्द करना; किसी संज्ञेय मामले की जाँच करने के पुलिस के सांविधिक अधिकारों में हस्तक्षेप करना।
- किसी जाँच को सिर्फ इसलिये रद्द कर देना क्योंकि FIR में किसी अपराध का प्रकटन नहीं हुआ है, जबकि जाँच अन्य सामग्रियों के आधार पर की जा सकती है।
- FIR/शिकायत में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता के विषय में पूछताछ करना।
- अंतर्निहित अधिकारिता का प्रयोग केवल अंतिम आदेशों के विरुद्ध किया जा सकता है, अंतरवर्ती आदेशों के विरुद्ध नहीं।
- जाँच के दौरान अभियुक्त की गिरफ्तारी पर रोक लगाने का आदेश।
BNSS की धारा 528 और ज़मानत प्रावधान:
- BNSS की धारा 528 के अधीन निहित शक्ति का उपयोग उच्च न्यायालय द्वारा योग्यता के आधार पर ज़मानत याचिका का निपटारा करने के बाद, किसी आदेश को पुनः खोलने या बदलने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- धारा 528 CrPC के आधार पर ज़मानत नहीं दी जा सकती।
- अगर ज़मानती अपराध के लिये ज़मानत दी जाती है, तो CrPC में इसे रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है। हालाँकि उच्च न्यायालय साक्षी के साथ छेड़छाड़, अधिकारियों को रिश्वत देने या फरार होने की कोशिश आदि के आधार पर अंतर्निहित शक्ति का उपयोग करके इसे रद्द कर सकता है।
BNSS की धारा 528 (पूर्व में CrPC की धारा 482) और कार्यवाही को रद्द करना
- आर.पी. कपूर बनाम पंजाब राज्य (1960) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निम्नलिखित मामलों में कार्यवाही को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय के अंतर्निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया जा सकता है:
- जहाँ कार्यवाही आरंभ करने या जारी रखने पर विधिक रोक हो।
- जहाँ FIR या शिकायत में लगाए गए आरोप एवं कथित अपराध में समानता नहीं हैं।
- जहाँ या तो आरोप के समर्थन में कोई विधिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है या प्रस्तुत साक्ष्य स्पष्ट रूप से आरोप को सिद्ध करने में विफल रहे हैं।
निर्णयज विधियाँ:
- मेसर्स पेप्सी फूड लिमिटेड बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (1998) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये CrPC की धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय द्वारा पुलिस द्वारा आरोप-पत्र दाखिल करने के उपरांत नई जाँच या पुनः जाँच का आदेश दिया जा सकता है।
- साकिरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2008) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने FIR पंजीकृत न होने की स्थिति में धारा 482 CrPC के अधीन याचिकाओं पर विचार न करने की चेतावनी दी थी, तथा पुलिस अधिकारियों या मजिस्ट्रेट से संपर्क करने जैसे वैकल्पिक उपायों का समर्थन भी किया थी।
- भीष्म लाल वर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 482 के अधीन दूसरी याचिका उन आधारों पर स्वीकार्य नहीं होगी जो पहली याचिका दायर करने के समय उपलब्ध थे।
वाणिज्यिक विधि
होल्डिंग (नियंत्री) कंपनी और सहायक (समनुषंगी) कंपनी
25-Jul-2024
BRS वेंचर्स इन्वेस्टमेंट्स लिमिटेड बनाम SREI इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस लिमिटेड एवं अन्य “होल्डिंग कंपनी और उसकी सहायक कंपनी सदैव अलग-अलग विधिक इकाई होती हैं। हो सकता है कि होल्डिंग कंपनी के पास सहायक कंपनी के शेयर हों। परंतु इससे होल्डिंग कंपनी, सहायक कंपनी की परिसंपत्तियों की मालिक नहीं बन जाती”। न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि "एक होल्डिंग कंपनी और उसकी सहायक कंपनी सदैव अलग-अलग विधिक इकाई होती हैं। हो सकता है कि होल्डिंग कंपनी के पास सहायक कंपनी के शेयर हों। परंतु इससे होल्डिंग कंपनी, सहायक कंपनी की परिसंपत्तियों की स्वामी नहीं बन जाती"।
- उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय, BRS वेंचर्स इन्वेस्टमेंट्स लिमिटेड बनाम SREI इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस लिमिटेड एवं अन्य के मामले में दिया।
BRS वेंचर्स इन्वेस्टमेंट्स लिमिटेड बनाम SREI इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- गुजरात हाइड्रोकार्बन एंड पावर SEZ लिमिटेड (कॉर्पोरेट देनदार) ने वर्ष 2011 में SREI इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस लिमिटेड (वित्तीय ऋणदाता) से 100 करोड़ रुपए का ऋण लिया।
- यह ऋण, पट्टे पर दी गई भूमि की गिरवी, शेयरों की गिरवी तथा असम कंपनी इंडिया लिमिटेड (ACIL) की कॉर्पोरेट गारंटी द्वारा सुरक्षित था।
- भुगतान में चूक के कारण, वित्तीय ऋणदाता ने ACIL की कॉर्पोरेट गारंटी को लागू कर दिया तथा ACIL के विरुद्ध दिवालियापन कार्यवाही के लिये आवेदन कर दिया।
- ACIL ने दिवालियापन समाधान प्रक्रिया अपनाई, जिसमें अपीलकर्त्ता सफल समाधान आवेदक था। अपीलकर्त्ता ने 241.27 करोड़ रुपए के अपने स्वीकृत दावे के विरुद्ध वित्तीय ऋणदाता को 38.87 करोड़ रुपए का भुगतान किया।
- वर्ष 2020 में, वित्तीय ऋणदाता ने शेष 1428 करोड़ रुपए की ऋण राशि के लिये मूल कॉर्पोरेट देनदार (गुजरात हाइड्रोकार्बन) के विरुद्ध दिवालियापन कार्यवाही के लिये आवेदन दायर किया।
- अपीलकर्त्ता ने इसे चुनौती देते हुए तर्क दिया कि कॉर्पोरेट देनदार की देनदारियाँ, ACIL की समाधान प्रक्रिया के माध्यम से समाप्त हो गई थीं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या हैं?
- पृथक कार्यवाही की अनुमति:
- न्यायालय ने पुष्टि की कि कॉर्पोरेट देनदार और कॉर्पोरेट गारंटर दोनों के विरुद्ध एक साथ या अन्यथा अलग-अलग दिवालियापन कार्यवाही दायर की जा सकती है।
- सहायक कंपनी की परिसंपत्तियाँ:
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी सहायक कंपनी की परिसंपत्तियाँ, होल्डिंग कंपनी की समाधान योजना का भाग नहीं हो सकतीं। ACIL के समाधान में गुजरात हाइड्रोकार्बन की परिसंपत्तियाँ शामिल नहीं थी।
- सीमित प्रत्यायोजन अधिकार:
- न्यायालय ने माना कि अनुबंध अधिनियम की धारा 140 के तहत प्रत्यायोजन अधिकार, गारंटर द्वारा वास्तव में भुगतान की गई राशि तक सीमित हैं (इस मामले में 38.87 करोड़ रुपए)।
- कॉर्पोरेट देनदार की सतत् देयता:
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि गारंटर के दिवालियापन समाधान के दौरान किये गए आंशिक भुगतान से कॉर्पोरेट देनदार की ऋण चुकाने की देयता समाप्त नहीं होती है।
- दिवालियापन आवेदन की वैधता:
- न्यायालय ने शेष ऋण के लिये मूल कॉर्पोरेट देनदार के विरुद्ध अलग से दिवालियापन आवेदन दायर करने की वैधता को यथावत् रखा।
- होल्डिंग और सहायक कंपनियों के बीच अंतर:
- निर्णय में होल्डिंग और सहायक कंपनियों के बीच विधिक पृथक्करण पर ज़ोर दिया गया तथा कहा गया कि होल्डिंग कंपनी अपनी सहायक कंपनी की परिसंपत्तियों की स्वामी नहीं होती।
होल्डिंग कंपनी और सहायक कंपनी क्या है?
होल्डिंग कंपनी:
- होल्डिंग कंपनी एक कॉर्पोरेट इकाई है जो अन्य कंपनियों में नियंत्रण हिस्सेदारी रखती है, जिन्हें सहायक कंपनियाँ कहा जाता है।
- भारत में कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत, होल्डिंग कंपनी वह है जो किसी अन्य कंपनी के कम-से-कम 50% शेयर रखती है या उसके निदेशक मंडल के गठन को नियंत्रित करती है।
सहायक कंपनी:
- दूसरी ओर, सहायक कंपनी वह कंपनी होती है, जिसका संचालन और निर्णय लेने का नियंत्रण किसी अन्य कंपनी (होल्डिंग कंपनी) द्वारा किया जाता है।
- होल्डिंग कंपनी, सामान्यतः सहायक कंपनी के 50% से अधिक शेयरों का स्वामी होती है।
- यदि होल्डिंग कंपनी के पास 100% शेयर हैं, तो उसे पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी कहा जाता है।
होल्डिंग और सहायक कंपनी के बीच क्या अंतर है?
परिप्रेक्ष्य |
होल्डिंग कंपनी |
सहायक कंपनी |
नियंत्रण |
अन्य कंपनियों पर नियंत्रण रखता है |
किसी अन्य कंपनी द्वारा नियंत्रित है |
स्वामित्व |
सहायक कंपनियों के 50% से अधिक शेयरों का स्वामित्व |
अधिकांश शेयर होल्डिंग कंपनी के स्वामित्व में हैं |
निर्णय क्षमता |
सहायक कंपनियों के निर्णयों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है |
प्रमुख निर्णयों में सीमित स्वायत्तता |
जोखिम |
सहायक कंपनियों के जोखिमों के लिये सीमित देयता |
जोखिम सीधे तौर पर होल्डिंग कंपनी को प्रभावित नहीं करते |
उद्देश्य |
रणनीतिक प्रबंधन और निवेश |
केंद्रित व्यावसायिक संचालन |
विधिक स्थिति |
अलग विधिक पहचान |
होल्डिंग कंपनी से अलग विधिक इकाई |
बोर्ड का गठन |
सहायक कंपनी के बोर्ड के गठन को नियंत्रित कर सकते हैं |
बोर्ड प्रायः होल्डिंग कंपनी से प्रभावित होता है |
होल्डिंग कंपनी और सहायक कंपनी पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम एस्कॉर्ट्स लिमिटेड एवं अन्य (1986)
- इस मामले में होल्डिंग-सहायक कंपनी संबंधों में नियंत्रण के मुद्दे को संबोधित किया गया:
- "मात्र इस तथ्य से कि किसी कंपनी की अन्य कंपनियों में नियंत्रणकारी शेयरधारिता है, अन्य कंपनियों को उसकी सहायक कंपनी नहीं बना दिया जाता, जब तक कि नियंत्रक कंपनी अन्य कंपनियों के निदेशक मंडल के गठन को नियंत्रित करने की स्थिति में न हो।"
- मध्य प्रदेश राज्य बनाम डालिया (2001)
- यह मामला होल्डिंग-सब्सिडियरी संबंधों के मामलों में कॉर्पोरेट पर्दे को हटाने के मुद्दे से संबंधित था:
- “कॉर्पोरेट पर्दा वहाँ हटाया जा सकता है जहाँ सहायक कंपनी, मूल कंपनी का दूसरा रूप मात्र है और जहाँ सहायक कंपनी का उपयोग कर चोरी या कर दायित्व से बचने के लिये किया गया है।”
- यह मामला होल्डिंग-सब्सिडियरी संबंधों के मामलों में कॉर्पोरेट पर्दे को हटाने के मुद्दे से संबंधित था:
- GVK इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड एवं अन्य बनाम आयकर अधिकारी एवं अन्य (2011)
- संवैधानिक पीठ के इस निर्णय ने विधि के अतिरिक्त-क्षेत्रीय अनुप्रयोग के सिद्धांत निर्धारित किये।
- न्यायालय ने कहा कि संसद को उन अतिरिक्त-क्षेत्रीय पहलुओं या कारणों के संबंध में विधान बनाने का अधिकार है जिनका भारत से पर्याप्त और सीधा संबंध है।
- वोडाफोन इंटरनेशनल होल्डिंग्स बी.वी. बनाम भारत संघ (2012)
- इस ऐतिहासिक मामले में होल्डिंग और सहायक कंपनियों की अलग-अलग विधिक स्थिति पर ज़ोर दिया गया। भारत के उच्चतम न्यायालय ने कहा, "कंपनी एक अलग विधिक व्यक्तित्व है और यह तथ्य कि उसके सभी शेयर एक व्यक्ति या मूल कंपनी के स्वामित्व में हैं, इस तथ्य का उसके अलग विधिक अस्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। यदि मूल स्वामित्व वाली कंपनी बंद हो जाती है, तो परिसमापक को सहायक कंपनी की परिसंपत्तियों पर कब्ज़ा कर लेने का अधिकार होगा, न कि उसकी मूल कंपनी को कोई ऐसा अधिकार प्राप्त होगा।"
- भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड बनाम पैन एशिया एडवाइजर्स लिमिटेड और अन्य (2015)
- यह मामला विदेशी सहायक कंपनियों पर SEBI के अधिकार क्षेत्र से संबंधित था।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि SEBI यह प्रदर्शित कर सके कि उसका कोई प्रावधान धोखाधड़ी से सुरक्षा तथा भारत में निवेशकों और शेयर बाज़ार के हितों को सुरक्षित करेगा, तो वह 'भारत नेक्सस परीक्षण' के तहत विधि के ऐसे बाह्य हस्तक्षेप को उचित मान सकता है।
प्रमुख होल्डिंग कंपनियाँ और सहायक कंपनियाँ कौन-सी हैं?
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वाणिज्यिक विधि
मध्यस्थ पंचाट का रद्दीकरण
25-Jul-2024
ट्रांस इंजीनियर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओसुका केमिकल्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड "जहाँ मध्यस्थता पंचाट में दिये गए निष्कर्ष किसी साक्ष्य पर आधारित नहीं हैं तथा प्रथम दृष्टि में ही दोषपूर्ण हैं, तो यह पंचाट को चुनौती देने के लिये संवेदनशील बनाता है”। न्यायमूर्ति सचिन दत्ता |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सचिन दत्ता की पीठ ने कहा कि यदि किसी पंचाट में साक्ष्य या संविदा के शर्तों का मौलिक रूप से दोषपूर्ण निर्वचन किया गया है तो उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्रांस इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओसुका केमिकल्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह निर्णय दिया।
ट्रांस इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओसुका केमिकल्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- प्रतिवादी (ओसुका केमिकल्स) ने राजस्थान में अपने संयंत्र के विस्तार के लिये याचिकाकर्त्ता (ट्रांस इंजीनियर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड) को दो क्रय पत्र निर्गत किये।
- एक करार भी किया गया, जिसमें परियोजना के लिये विभिन्न उपकरणों एवं सामग्रियों की आपूर्ति, स्थापना, निर्माण और कमीशनिंग के लिये याचिकाकर्त्ता के उत्तरदायित्व को रेखांकित किया गया।
- प्रतिवादी के अनुरोध पर किये गए अतिरिक्त कार्य के भुगतान के लिये याचिकाकर्त्ता के दावे के संबंध में विवाद सामने आए, जिसके लिये याचिकाकर्त्ता ने 26 प्रोफार्मा चालान निर्गत किये।
- मामला मध्यस्थ के पास गया, जिसने मध्यस्थता पंचाट के माध्यम से याचिकाकर्त्ता के दावों एवं प्रतिवादी के प्रतिदावे को खारिज कर दिया।
- इस मध्यस्थ पंचाट को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में उच्च न्यायालय ने बैठक के कार्यवृत्त का हवाला दिया जिसमें याचिकाकर्त्ता/दावेदार के लिये कार्य का दायरा निर्धारित किया गया था। इन कार्यवृत्तों में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया था कि कार्य 26 जुलाई 2016 तक अंतिम रूप दिये गए P&ID रेखाचित्रों के आधार पर किया जाना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, यह देखा गया कि 20 जनवरी 2017 को निष्पादित करार द्वारा भी इसी व्याख्या का समर्थन किया।
- करार के खंड 12.2 में कहा गया है कि संविदात्मक शर्तों से परे किसी भी परिवर्तन के लिये पारस्परिक रूप से सहमत दरों के आधार पर अतिरिक्त भुगतान करना होगा।
- उच्च न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ पंचाट मौलिक संविदात्मक संदर्भ पर विचार करने में विफल रहा तथा करार के आधार को पुनः परिभाषित किया।
- यह माना गया कि यदि कोई निर्णय साक्ष्य या संविदात्मक शर्तों की मौलिक दोषपूर्ण व्याख्या पर आधारित है तो उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि यह निर्णय माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 34 (2) (B) (ii) और 34 (2 A) के अंतर्गत रद्द किये जाने योग्य है।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने की क्या प्रक्रिया है?
- मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने के लिये A&C अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत आवेदन किया जा सकता है।
- धारा 34 (1) में प्रावधान है कि मध्यस्थता निर्णय के विरुद्ध न्यायालय का सहारा केवल उप-धारा (2) एवं उप-धारा (3) के अनुसार ऐसे निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन करके ही लिया जा सकता है।
- धारा 34 (2) में प्रावधान है कि मध्यस्थता पंचाट को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब:
- आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ अधिकरण के अभिलेख के आधार पर यह स्थापित करता है कि-
- कोई पक्ष किसी अक्षमता के अधीन था, या
- मध्यस्थता करार उस विधि के अंतर्गत वैध नहीं है जिसके अधीन पक्षकार हैं या, उस पर कोई संकेत न होने पर, उस समय लागू विधि के अंतर्गत या
- आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ की नियुक्ति या मध्यस्थता कार्यवाही की उचित सूचना नहीं दी गई थी या वह अन्यथा अपना मामला प्रस्तुत करने में असमर्थ था; या
- मध्यस्थता निर्णय किसी ऐसे विवाद से संबंधित है जो मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है या उसके अंतर्गत नहीं आता है, या इसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की परिधि से बाहर के मामलों पर निर्णय शामिल हैं:
- बशर्ते कि, यदि मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत मामलों पर निर्णयों को उन मामलों से अलग किया जा सकता है जो इस प्रकार प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, तो मध्यस्थता पंचाट का केवल वह भाग रद्द किया जा सकेगा जिसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों पर निर्णय अंतर्विष्ट हैं।
- मध्यस्थ अधिकरण की संरचना या मध्यस्थ प्रक्रिया, पक्षकारों की सहमति के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा करार इस भाग के किसी ऐसे प्रावधान के विरोध में न हो, जिससे पक्षकार अलग नहीं हो सकते, या ऐसा करार न होने पर, इस भाग के अनुसार नहीं था, या
- न्यायालय का मानना है कि-
- विवाद की विषय-वस्तु वर्तमान में लागू विधि के अंतर्गत मध्यस्थता द्वारा निपटारे योग्य नहीं है, या
- मध्यस्थता पंचाट भारत की लोक नीति के विपरीत है।
- स्पष्टीकरण 1 में यह प्रावधान है कि किसी भी संदेह से बचने के लिये यह स्पष्ट किया जाता है कि कोई पंचाट भारत की लोक नीति के विरोध में तभी है, जब—
- पंचाट का निर्माण धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित या प्रभावित था या
- धारा 75 या धारा 81 का उल्लंघन था; या
- यह भारतीय विधि की मौलिक नीति का उल्लंघन है; या
- यह नैतिकता या न्याय की मौलिक धारणाओं के साथ संघर्ष में है।
- स्पष्टीकरण 2 में यह प्रावधान है कि संदेह से बचने के लिये, यह परीक्षण कि क्या भारतीय विधि की मूल नीति का उल्लंघन हुआ है, विवाद के गुण-दोष पर समीक्षा की आवश्यकता नहीं होगी।
- आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ अधिकरण के अभिलेख के आधार पर यह स्थापित करता है कि-
- धारा 34 (2A) अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता यानी घरेलू मध्यस्थता के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने का प्रावधान करती है।
- यह धारा यह प्रावधान करती है कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थताओं के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थताओं से उत्पन्न होने वाले मध्यस्थता पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय पाता है कि पंचाट स्पष्ट रूप से अवैध होने के कारण वह पंचाट दोषपूर्ण है।
- बशर्ते कि किसी पंचाट को केवल विधि के दोषपूर्ण अनुप्रयोग या साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।
- धारा 34 (3) में यह प्रावधान है कि रद्द करने के लिये आवेदन उस तिथि से तीन महीने बीत जाने के बाद नहीं किया जा सकता है, जिस दिन आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थता पंचाट प्राप्त हुआ था या, यदि धारा 33 के अंतर्गत निवेदन किया गया था, तो उस तिथि से, जिस दिन मध्यस्थ अधिकरण द्वारा उस निवेदन का निपटान किया गया था:
- परंतु यदि न्यायालय को यह समाधान मिल जाता है कि आवेदक को पर्याप्त कारण से तीन मास की उक्त अवधि के अंदर आवेदन करने से रोका गया था तो वह तीस दिन की अतिरिक्त अवधि के अंदर आवेदन पर विचार कर सकता है, किंतु उसके पश्चात् नहीं।
- धारा 34(4) में यह प्रावधान है कि उपधारा (1) के अंतर्गत आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय, जहाँ यह उचित हो तथा पक्षकार द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, मध्यस्थ अधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही पुनः आरंभ करने का अवसर देने के लिये या ऐसी अन्य कार्यवाही करने के लिये, जो मध्यस्थ अधिकरण की राय में मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के आधार को समाप्त कर देगी, अपने द्वारा निर्धारित समयावधि के लिये कार्यवाही स्थगित कर सकता है।
- धारा 34 (5) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन किसी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा तथा ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त आवश्यकता के अनुपालन का शपथ-पत्र संलग्न करना होगा।
- धारा 34 (6) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन का निपटारा शीघ्रता से किया जाएगा तथा किसी भी स्थिति में, उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के अंदर, जिस दिन उप-धारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्ष को दिया गया है।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत पेटेंट की अवैधता क्या है?
- स्पष्ट रूप से अवैधता से तात्पर्य है विधि की त्रुटि जो मामले की जड़ तक जाती है।
- ध्यान देने वाली बात यह है कि अधिनियम में वर्ष 2015 के संशोधन के बाद धारा 34 (2A) जोड़ी गई थी, जिसमें कहा गया था कि यदि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि पेटेंट अवैधता के कारण पंचाट दोषपूर्ण है, तो देशीय पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
- इससे तात्पर्य यह है कि आधार केवल घरेलू पंचाट को ही रद्द करने तक सीमित है।
इस आधार को घरेलू मध्यस्थता तक सीमित रखने का कारण यह है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के लिये एक सशक्त केंद्र बनना चाहता है। इसलिये यह विभिन्न क्षेत्रों में व्यापार को बढ़ावा देने तथा विदेशी संस्थाओं को निवेश के लिये आमंत्रित करने के उद्देश्य से किया गया था।
- इससे तात्पर्य यह है कि आधार केवल घरेलू पंचाट को ही रद्द करने तक सीमित है।
- "स्पष्ट रूप से अवैध" शब्द को पहली बार ONGC बनाम सॉ पाइप्स लिमिटेड (2003) के मामले में परिभाषित किया गया था।
- दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस प्राइवेट लिमिटेड बनाम दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (2021)
- न्यायालय ने माना कि पेटेंट की अवैधता मामले की जड़ से ही निकलनी चाहिये।
- मध्यस्थ अधिकरण द्वारा की गई प्रत्येक दोषपूर्ण पेटेंट की अवैधता की परिधि में नहीं आएगी।
- अधिकरण द्वारा पारित मध्यस्थ पंचाट में हस्तक्षेप करते समय न्यायालय की अपनी सीमाएँ होती हैं।
- जब मध्यस्थ संविदा का दोषपूर्ण निर्वचन करता है या असंगत दृष्टिकोण अपनाता है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
- यदि मध्यस्थ बिना किसी साक्ष्य के आधार पर निष्कर्ष निकालता है या महत्त्वपूर्ण साक्ष्य को अनदेखा करता है, तो इस सिद्धांत को पंचाट को रद्द करने के लिये लागू किया जा सकता है।
- इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम श्री गणेश पेट्रोलियम (2022)
- किसी पंचाट को स्पष्ट रूप से अवैध कहा जा सकता है, जहाँ मध्यस्थ अधिकरण संविदा के अनुसार कार्य करने में विफल रहा हो या संविदा की विशिष्ट शर्तों को अनदेखा किया हो।
- न्यायालय ने माना कि संविदा के अनुसार कार्य करने में विफलता एवं संविदा की शर्तों का दोषपूर्ण निर्वचन के मध्य अंतर है। यह पहला मामला है जिसमें पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि वह अधिकरण द्वारा दिये गए निर्णय के विरुद्ध अपील में उपस्थित रहेगा तथा वह मध्यस्थ अधिकरण द्वारा संविदात्मक प्रावधान की व्याख्या में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा, जब तक कि ऐसी व्याख्या स्पष्ट रूप से अनुचित या विकृत न हो।
धारा 34 के अंतर्गत सार्वजनिक नीति क्या है?
- रेणुसागर पावर कंपनी लिमिटेड बनाम जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी (1994)
- इस ऐतिहासिक मामले में ‘लोक नीति’ शब्द पर चर्चा की गई।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ द्वारा पारित पंचाट लोक नीति के विरुद्ध होगा यदि वह “भारतीय विधि की मौलिक नीति, भारत के हित और न्याय एवं नैतिकता” के उल्लंघन करता हो।
- ONGC लिमिटेड बनाम सॉ पाइप्स लिमिटेड (2003)
- इस मामले में लोक नीति शब्द को पुनः व्यापक बनाया गया तथा न्यायालय ने रेणुसागर मामले में उल्लिखित आधारों के अतिरिक्त “पेटेंट की अवैधता” के लिये एक नया आधार जोड़ा।
- न्यायालय ने कहा कि “लोक नीति की अवधारणा में कुछ ऐसे मामले शामिल हैं जो लोक हित से संबंधित हैं जो समय-समय पर भिन्न होते हैं”।
- इससे मुकदमेबाज़ी के द्वार खुल गए।
- एसोसिएट बिल्डर्स बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण (2015)
- इस मामले में न्यायालय ने “न्याय एवं नैतिकता के सबसे मौलिक मानदंडों” की परिधि को स्पष्ट किया तथा कहा कि यदि निर्णय ऐसी प्रकृति का है कि वह न्यायालय की अंतरात्मा को हताहत करता है तो न्याय एवं नैतिकता के आधार पर पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
- 2015 संशोधन:
- वर्ष 2015 में विधि आयोग ने उपरोक्त पर प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा कुछ संशोधन प्रस्तुत किये गए।
- आयोग ने सॉ पाइप्स, एसोसिएट बिल्डर्स के निर्णयों की आलोचना की।
- विधि आयोग ने धारा 34 में संशोधन किया तथा सार्वजनिक नीति के अंतर्गत उल्लिखित आधारों के लिये एक स्पष्टीकरण जोड़ा, अर्थात् "संदेह से बचने के लिये यह परीक्षण कि क्या भारतीय विधि की मौलिक नीति का उल्लंघन हुआ है, विवाद के गुण-दोष पर समीक्षा की आवश्यकता नहीं होगी।"
- इससे तात्पर्य यह है कि यदि अधिकरण ने कोई विधिक चूक की है या न्यायालय साक्ष्य के संबंध में कोई अन्य दृष्टिकोण अपनाता है तो पंचाट को रद्द नहीं किया जाएगा।
- इस प्रकार, लोक नीति के आधार तत्त्व में भारी परिवर्तन आया है। वर्तमान व्यवस्था को मध्यस्थता के अनुकूल बनाने के लिये संशोधन प्रस्तुत किये गए थे।