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आपराधिक कानून

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 92

 05-Aug-2024

संजीदा बेगम बनाम मो. इकबाल  

धारा 90 के अंतर्गत अनुमान लगाने के लिये कम-से-कम, प्रथम दृष्टया यह प्रमाण आवश्यक है कि दस्तावेज़  तीस वर्ष पुराना है”।

न्यायमूर्ति गौतम कुमार चौधरी 

स्रोत : झारखंड उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति गौतम कुमार चौधरी की पीठ ने कहा कि दस्तावेज़ की अवधि मात्र उसके उचित निष्पादन का निर्णायक साक्ष्य नहीं है।  

  • झारखंड उच्च न्यायालय ने संजीदा बेगम बनाम मोहम्मद इकबाल मामले में यह निर्णय दिया।

संजीदा बेगम बनाम मोहम्मद इकबाल मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वाद संपत्ति में प्लॉट संख्या 1393 और प्लॉट संख्या 1397 पर स्थित संरचनाएँ शामिल हैं।
  • प्लॉट नंबर 1393 में प्रवेश और निकास प्लॉट नंबर 1397 से होता था और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। यह रास्ता फतेह मोहम्मद ने पंजीकृत विक्रय विलेख के ज़रिए खरीदा था।
  • वादीगणों ने फतेह मोहम्मद के माध्यम से स्वामित्व का दावा किया।
  • प्रतिवादियों का दावा है कि यह संपत्ति सुलेमान क्रिस्टान नामक व्यक्ति द्वारा गुलाम मोहम्मद को हस्तांतरित की गई थी।
  • इस मामले में याचिका अनुसूचित क्षेत्र विनियमन अधिनियम की धारा 71A के अंतर्गत दायर की गई थी।
  • वादी का कहना है कि स्वामित्व का आधार पूर्व मकान मालिक द्वारा 7 जनवरी 1950 को निष्पादित हुक्मनामा और मकान मालिक द्वारा जारी किराया रसीदें हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि वादी ने वर्ष 1950 में पूर्व मकान मालिक द्वारा किये गए समझौते और उसके बाद कब्ज़े के आधार पर स्वामित्व का दावा किया है। वहीं प्रतिवादी ने सुलेमान क्रिस्टन और अभिराम ओरांव द्वारा निष्पादित बिक्री विलेख के आधार पर स्वामित्व का दावा किया है।
  • उच्च न्यायालय ने माना कि हुक्मनामा को स्वामित्व के दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार न करने में ट्रायल कोर्ट का निर्णय सही था।
  • न्यायालय ने कहा कि दस्तावेज़  की अवधि मात्र उसके उचित निष्पादन का निर्णायक प्रमाण नहीं है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 90 के अधीन खंडनीय अनुमान लगाने के लिये कम-से-कम प्रथम दृष्टया यह प्रमाण आवश्यक है कि दस्तावेज़ तीस वर्ष पुराना है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि प्रावधान में "अनुमान लगाया जा सकता है" अभिव्यक्ति का प्रयोग किया गया है, इसलिये अनुमान लगाना या न लगाना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 92 की अनिवार्यताएँ क्या हैं?

  • BSA की धारा 92 में तीस साल पुराने दस्तावेज़ों के विषय में अनुमान लगाने का प्रावधान है। यह प्रावधान पहले IEA की धारा 90 के अंतर्गत उपलब्ध था।
  • धारा 92 में प्रावधान है:
    • कोई भी दस्तावेज़ जो तीस वर्ष पुराना सिद्ध  हो या माना गया हो,
    • किसी भी अभिरक्षा में पेश किया गया जिसे न्यायालय किसी विशेष मामले में उचित समझता है,
    • न्यायालय यह मान सकता है:
      • कि यह हस्ताक्षर या हस्तलेख उस व्यक्ति का है जिसका वह होने का दावा करता है,
      • यदि दस्तावेज़ निष्पादित या प्रामाणित किया जाता है तो यह उन व्यक्तियों द्वारा विधिवत् प्रामाणित और निष्पादित किया गया है जिनके द्वारा इसे निष्पादित तथा प्रामाणित किया जाना तात्पर्यित है।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि प्रावधान में “अनुमान लगाया जा सकता है” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है।
    • “मान सकते हैं” वाक्यांश BSA की धारा 2(h) में पाया जाता है।
    • धारा 2(h) में यह प्रावधान है कि जब कभी इस अधिनियम द्वारा यह प्रावधान किया जाता है कि न्यायालय किसी तथ्य की उपधारणा कर सकता है, तो वह ऐसे तथ्य को या तो सिद्ध मान सकता है, जब तक कि उसे अस्वीकृत न कर दिया जाए, या वह उसका प्रमाण मांग सकता है; 

IEA की धारा 90 और BSA की धारा 92 के बीच तुलना?

            BSA की धारा 92

IEA की धारा 90

जहाँ कोई दस्तावेज़ , जो तीस वर्ष पुराना तात्पर्यित है या सिद्ध  हुआ है, किसी ऐसी अभिरक्षा में से पेश किया जाता है जिसे न्यायालय उस विशेष मामले में उचित समझता है, वहाँ न्यायालय यह उपधारणा कर सकता है कि ऐसे दस्तावेज़ का हस्ताक्षर और प्रत्येक अन्य भाग, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के हस्तलेख में होने का तात्पर्यित है, उस व्यक्ति के हस्तलेख में है, और निष्पादित या अनुप्रामाणित दस्तावेज़  की दशा में, यह कि वह उन व्यक्तियों द्वारा सम्यक् रूप से निष्पादित और अनुप्रामाणित किया गया है जिनके द्वारा उसका निष्पादित और अनुप्रामाणित होना तात्पर्यित है।

स्पष्टीकरण- धारा 80 का स्पष्टीकरण इस धारा पर भी लागू होगा।

जहाँ कोई दस्तावेज़ , जो तीस वर्ष पुराना तात्पर्यित है या सिद्ध  हुआ है, किसी ऐसी अभिरक्षा से पेश किया जाता है जिसे न्यायालय विशेष मामले में उचित समझता है, वहाँ न्यायालय यह उपधारणा कर सकता है कि ऐसे दस्तावेज़  का हस्ताक्षर और प्रत्येक अन्य भाग, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के हस्तलेख में होने का तात्पर्यित है, उस व्यक्ति के हस्तलेख में है, और निष्पादित या प्रामाणित दस्तावेज़  की दशा में, यह कि वह उन व्यक्तियों द्वारा सम्यक् रूप से निष्पादित और प्रामाणित किया गया है जिनके द्वारा उसका निष्पादित और प्रामाणित होना तात्पर्यित है।

स्पष्टीकरण- दस्तावेज़ो को उचित अभिरक्षा में कहा जाता है यदि वे उस स्थान पर हैं जहाँ और उस व्यक्ति की देखरेख में हैं जिसके पास वे स्वाभाविक रूप से होतीं; किंतु कोई अभिरक्षा अनुचित नहीं है यदि यह सिद्ध  हो जाता है कि उसका वैध उद्गम हुआ है या यदि विशिष्ट मामले की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि ऐसे उद्गम की संभावना है। यह स्पष्टीकरण धारा 81 पर भी लागू होती है।

  • BSA की धारा 92 में परिवर्तन:
    • प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि IEA की धारा 90 का स्पष्टीकरण BSA की धारा 92 में नहीं आता। हालाँकि BSA की धारा 92 का स्पष्टीकरण यह बताता है कि BSA की धारा 80 का स्पष्टीकरण इस धारा पर भी लागू होता है।
    • BSA की धारा 80 के स्पष्टीकरण में कहा गया है: "इस धारा और धारा 92 के प्रयोजनों के लिये, दस्तावेज़ को उचित अभिरक्षा में कहा जाता है यदि वह उस स्थान पर है, और उस व्यक्ति द्वारा देखा जाता है जिसके पास ऐसे दस्तावेज़ को रखा जाना अपेक्षित है; परंतु कोई अभिरक्षा अनुचित नहीं है यदि यह सिद्ध हो जाता है कि इसका विधिक उद्गम है, या यदि विशेष मामले की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि उस उद्गम को संभावित माना  जा सकता है।"
    • अतः उपरोक्त बिंदु BSA की धारा 92 की व्याख्या करते समय उपयोगी होंगे।

IEA की धारा 90 (BSA की धारा 92) पर निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • श्री लकनी बरुआ और अन्य बनाम श्री पद्मा कांता कलिता और अन्य (1996)
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि यह धारा आवश्यकता और सुविधा पर आधारित है, क्योंकि 30 वर्ष पुराने दस्तावेज़ की लिखावट, हस्ताक्षर या निष्पादन को सिद्ध करने के लिये साक्ष्य प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन और कभी-कभी संभव नहीं होता है।
    • IEA की धारा 90 निजी दस्तावेज़ों के प्रमाण के सख्त नियम को समाप्त कर देती है।
    • यह ध्यान देने योग्य है कि यदि उचित अभिरक्षा से प्रस्तुत किया गया दस्तावेज़ धारा 65 के तहत द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकृत प्रतिलिपि है और यह तीस वर्ष पुराना है, तो प्रतिलिपि को प्रामाणित करने वाले हस्ताक्षर को वास्तविक सिद्ध  किया जा सकता है। परंतु यह धारा 90 के अधीन दस्तावेज़ के उद्गम के उचित निष्पादन की धारणा को उचित ठहराने के लिये पर्याप्त नहीं होगा।
    • इस प्रकार, स्थिति स्पष्ट है कि IEA की धारा 90 के अंतर्गत अनुमान किसी प्रतिलिपि या प्रामाणित प्रतिलिपि पर लागू नहीं होता, भले ही वह तीस वर्ष पुरानी हो।  
    • अंत में, न्यायालय ने यह भी माना कि IEA की धारा 90 के अंतर्गत अनुमान लगाना या न लगाना न्यायालय का विवेकाधिकार है।
  • आशुतोष सामंत (मृत) एल.आर. और अन्य बनाम एस.एम. रंजन बाला दासी एवं अन्य (2023)
    • न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या वसीयत के मामले में IEA की धारा 90 लागू होगी।
    • इस मामले में उच्चतम  न्यायालय ने भरपूर सिंह बनाम शमशेर सिंह (2009) के निर्णय का उदाहरण दिया, जिसमें कहा गया था कि 30 वर्ष पुराने दस्तावेज़ों के संबंध में अनुमान वसीयत पर लागू नहीं होता है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि वसीयत को केवल उसकी अवधि के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता, बल्कि इसे उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 (c) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के अनुसार सिद्ध करना होगा।

सांविधानिक विधि

SC/ST उप-वर्गीकरण मामले में असहमति

 05-Aug-2024

पंजाब राज्य और अन्य बनाम दविंदर सिंह और अन्य

“राज्य, औचित्यानुसार विभेदक कोटा आवंटन के लिये अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकरण  कर सकते हैं।”

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पंजाब राज्य और अन्य बनाम दविंदर सिंह और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय की 7 जजों की बेंच ने राज्यों को अनुसूचित जातियों (SC ) को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति दी ताकि SC श्रेणी के भीतर अधिक पिछड़े समूहों के लिये अलग कोटा प्रदान किया जा सके। परंतु जस्टिस त्रिवेदी ने असहमति जताते हुए तर्क दिया कि यह उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 341 के अंतर्गत स्थापित SC समुदाय की राष्ट्रपति सूची में हस्तक्षेप करता है, जिसे केवल संसदीय विधान द्वारा संशोधित किया जा सकता है।

  • उन्होंने चिंता व्यक्त की कि इस तरह के उप-वर्गीकरण से SC/ST सूची में राजनीतिक तत्व शामिल हो सकते हैं, जिससे राजनीतिक प्रभाव को रोकने का इसका मूल उद्देश्य कमज़ोर हो सकता है।

पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला पंजाब में अनुसूचित जाति (SC) आरक्षण के अंतर्गत कुछ समुदायों को वरीयता देने के प्रयास से उत्पन्न हुआ।
  • वर्ष 2006 में पंजाब विधानमंडल ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम पारित किया।
  • इस अधिनियम की धारा 4(5) में यह प्रावधान है कि सीधी भर्ती में अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत 50% रिक्तियाँ, यदि उपलब्ध हों, तो अनुसूचित जाति के अभ्यर्थियों में प्रथम वरीयता के रूप में बाल्मीकि और मज़हबी सिखों को दी जाएंगी।
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005) में उच्चतम  न्यायालय के निर्णय पर भरोसा करते हुए वर्ष 2010 में इस प्रावधान को रद्द कर दिया था।
  • ई.वी. चिन्नैया मामले में निर्णय में कहा गया था कि अनुसूचित जातियाँ एक समरूप वर्ग हैं और इन्हें आगे उप-विभाजित या उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
  • उप-वर्गीकरण के इसी तरह के प्रयास अन्य राज्यों द्वारा भी किये गए थे: a. वर्ष 1994 में, हरियाणा ने आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों को दो श्रेणियों (ब्लॉक A और B) में वर्गीकृत करने की अधिसूचना जारी की। b. वर्ष 2009 में, तमिलनाडु ने अरुंथथियार अधिनियम पारित किया, जिसके तहत शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित 16% सीटें अरुंथथियारों को आवंटित की गईं।
  • उप-वर्गीकरण के इन प्रयासों को ई.वी. चिन्नैया निर्णय का उदाहरण देते हुए विभिन्न न्यायालयों में चुनौती दी गई।
  • पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह के मामले में यह मामला उच्चतम  न्यायालय पहुँचा।
  • 27 अगस्त, 2020 को उच्चतम न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने माना कि ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर एक वृहद् पीठ द्वारा पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है।
  • न्यायालय ने पाया कि ई.वी. चिन्नैया मामला अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण से संबंधित महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करने में विफल रहा।
  • पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह मामले में इस रेफरल के परिणामस्वरूप सकारात्मक कार्यवाही और आरक्षण के लिये अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण की वैधता की जाँच करने के लिये सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ का गठन किया गया।
  • सात न्यायाधीशों की पीठ को दो मुख्य पहलुओं पर विचार करने का काम सौंपा गया था: (a) क्या आरक्षित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जानी चाहिये। (b) ई.वी. चिन्नैया निर्णय की सत्यता, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियाँ एक समरूप समूह बनाती हैं, जिन्हें आगे उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
  • इस मामले ने आरक्षण नीतियों और अनुसूचित जातियों से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या पर इसके संभावित प्रभाव के कारण काफी ध्यान आकर्षित किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने अपनी असहमति में कहा कि अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की राष्ट्रपति सूची को राज्यों द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
    • संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की अध्यक्षीय सूची प्रकाशन के बाद अंतिम हो जाती है तथा राज्यों द्वारा इसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
    • केवल संसद को विधि द्वारा अनुच्छेद 341(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में किसी जाति, मूलवंश, जनजाति या उसके समूह को शामिल करने या बाहर करने का अधिकार है।
  • स्पष्ट अर्थ या शाब्दिक व्याख्या का नियम प्राथमिक नियम है, जिसका संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते समय व्यापक और उदार दृष्टिकोण के साथ पालन किया जाना चाहिये।
    • अनुसूचित जातियाँ, विविध जातियों, नस्लों या जनजातियों से उत्पन्न होने के बावजूद, अनुच्छेद 341 के अंतर्गत राष्ट्रपति की अधिसूचना के आधार पर एक समरूप वर्ग का दर्जा प्राप्त करती हैं, जिसे राज्य की कार्यवाही से विभाजित नहीं किया जा सकता है।
  • राज्यों के पास राष्ट्रपति की अधिसूचना में उल्लिखित अनुसूचित जातियों को उपविभाजित, उप-वर्गीकृत या पुनर्समूहीकृत करके विशेष जातियों को आरक्षण या अधिमान्य उपचार प्रदान करने के लिये विधान बनाने की विधायी क्षमता का अभाव है।
  • राज्यों द्वारा कमज़ोर वर्गों के लिये आरक्षण या सकारात्मक कार्यवाही प्रदान करने की आड़ में राष्ट्रपति सूची में परिवर्तन करने या अनुच्छेद 341 में परिवर्तन करने का कोई भी प्रयास संविधान के विरुद्ध है।
  • ई.वी. चिन्नैया मामले में संविधान पीठ द्वारा स्थापित पूर्वनिर्णय, जिसमें इंदिरा साहनी सहित सभी पिछले पूर्व निर्णयों पर विचार किया गया था, पर संदेह नहीं किया जाना चाहिये था और पूर्वनिर्णय तथा एक निर्णीतानुसरण के सिद्धांतों के पालन में, बिना ठोस कारणों के इसे एक वृहद् पीठ को नहीं भेजा जाना चाहिये था।
  • अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम  न्यायालय की शक्ति का प्रयोग राज्य की उन कार्यवाहियों को वैध ठहराने के लिये नहीं किया जा सकता जो संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करती हैं, भले ही ऐसी कार्यवाहियाँ उचित आशय से की गई हों या सकारात्मक प्रकृति की हों।
  • सकारात्मक कार्यवाही और विधिक ढाँचे को, अधिक समतापूर्ण समाज का लक्ष्य रखते हुए, निष्पक्षता तथा संवैधानिकता सुनिश्चित करने के लिये कठिन विधिक सिद्धांतों पर भी विचार करना होगा।
  • पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा ई.वी. चिन्नैया मामले में प्रतिपादित विधि को अनुच्छेद 341 की सही व्याख्या माना गया है तथा इसकी पुष्टि की जानी चाहिये।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कौन हैं?

  • परिचय:
    • संविधान में यह परिभाषित नहीं किया गया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कौन है।
    • तथापि, अनुच्छेद 341 और 342 राष्ट्रपति को इन जातियों तथा जनजातियों की सूची तैयार करने का अधिकार देते हैं।
    • अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ वे जातियाँ या जनजातियाँ हैं जिन्हें राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट कर सकते हैं। 
    • यदि ऐसी अधिसूचना किसी राज्य के संबंध में है तो ऐसा संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श के बाद किया जा सकता है।
    • राष्ट्रपति की अधिसूचना में किसी भी जाति, वंश या जनजाति को शामिल या बहिष्कृत करने का कार्य संसद द्वारा विधान बनाकर किया जा सकता है।
    • यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विशेष जनजाति इस अनुच्छेद के अर्थ में जनजाति है या नहीं, तो अनुच्छेद 341 (l) के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी सार्वजनिक अधिसूचना को देखना होगा।
    • संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा के लिये निम्नलिखित विशेष प्रावधान किये गए हैं।
  • विधिक प्रावधान:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों की सूची से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 341(1) राष्ट्रपति किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में, और जहाँ वह राज्य है, वहाँ उसके राज्यपाल से परामर्श के पश्चात्, लोक अधिसूचना द्वारा, उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या समूहों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जो इस संविधान के प्रयोजनों के लिये, यथास्थिति, उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जातियाँ समझी जाएंगी।
    • अनुच्छेद 341(2) संसद विधि द्वारा खंड (1) के अधीन जारी की गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में किसी जाति, मूलवंश या जनजाति अथवा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या समूह को सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से निकाल सकेगी, किंतु जैसा पूर्वोक्त है उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन जारी की गई अधिसूचना में किसी पश्चातवर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 क्या है?

  • अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय के आदेशों और डिक्रियों के प्रवर्तन तथा खोज आदि से संबंधित आदेशों से संबंधित है।
  • उच्चतम  न्यायालय को अपने समक्ष आने वाले मामलों में पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिये आवश्यक कोई भी आदेश या डिक्री जारी करने का अधिकार है।
    • ऐसे आदेश या डिक्री संपूर्ण+ भारत क्षेत्र में लागू होंगे।
    • प्रवर्तन पद्धति संसदीय विधान द्वारा या उसके अभाव में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा निर्धारित की जा सकती है।
  • उच्चतम  न्यायालय को भारत के संपूर्ण क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त है। 
    a. किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित करना
    b. दस्तावेज़ों की खोज या उत्पादन का आदेश 
    c. स्वयं की अवमानना ​​की जाँच करने  या दण्डित करने
  • ये शक्तियाँ संसद द्वारा पारित किसी भी प्रासंगिक कानून के अधीन हैं।
  • यह प्रावधान उच्चतम न्यायालय को विचाराधीन मामलों में न्याय सुनिश्चित करने के लिये असाधारण उपाय करने का अधिकार देता है।
    • यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को उन विशिष्ट परिस्थितियों से निपटने के लिये व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है, जो मौजूदा विधानों या प्रक्रियाओं के अंतर्गत नहीं आती हैं।
  • इस अनुच्छेद के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय का अधिकार व्यापक है, परंतु असीमित नहीं है, क्योंकि यह संसदीय कानून के अधीन है।

भारत में आरक्षण को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?

  • भाग XVI केंद्रीय एवं राज्य विधानमंडलों में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण से संबंधित है।
  • संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) राज्य तथा केंद्र सरकारों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिये सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने का अधिकार देते हैं।
  • संविधान (77वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन किया गया तथा अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4A) जोड़ा गया, ताकि सरकार पदोन्नति में आरक्षण प्रदान कर सके।
    • बाद में, आरक्षण देकर पदोन्नत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिये संविधान (85वें संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा खंड (4A) को संशोधित किया गया।
  • संविधान के 81वें संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा अनुच्छेद 16 (4B) को शामिल किया गया, जो राज्य को किसी वर्ष में अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित रिक्तियों को अगले वर्ष भरने का अधिकार देता है, जिससे उस वर्ष की कुल रिक्तियों पर पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा समाप्त हो जाती है।
  • अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व का प्रावधान करते हैं।
  • अनुच्छेद 243D प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 233T प्रत्येक नगर पालिका में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों के आरक्षण का प्रावधान करता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 335 में कहा गया है कि प्रशासन की प्रभावकारिता बनाए रखने के लिये अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों पर विचार किया जाएगा।

सिविल कानून

साम्या एवं निष्पक्षता का सिद्धांत

 05-Aug-2024

मारुती ट्रेडर्स बनाम इट्राॅन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड 

"किसी प्रस्ताव की स्वीकृति पूर्ण, बिना किसी शर्त के होनी चाहिये तथा उसे किसी सामान्य एवं उचित तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिये"।

न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने मारुति ट्रेडर्स बनाम इट्राॅन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के मामले में माना है कि संविदा की शर्तें वाणिज्यिक मामलों में साम्या एवं निष्पक्षता के सिद्धांत को पीछे छोड़ देंगी।

मारुति ट्रेडर्स बनाम इट्राॅन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता को प्रतिवादी द्वारा छत्तीसगढ़ में घरेलू, थोक जल मीटर एवं सहायक उपकरण के लिये एक गैर-अनन्य डीलर के रूप में कार्य करने के लिये अधिकृत किया गया था। 
  • दस्तावेज़  की कीमत एवं मीटर के निर्माण से संबंधित विशिष्टताओं के संबंधित सभी शर्तों को पक्षों के मध्य सुलझा लिया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने दावा किया कि दोनों पक्षों के मध्य एक अंतर्निहित समझ थी कि याचिकाकर्त्ता ग्राहकों से ऐसी कीमत वसूल सकता है जिसमें प्रतिवादी द्वारा तय की गई कीमत से अधिक शुद्ध लाभ निहित हो। 
  • याचिकाकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि प्रतिवादी ने दूसरों को डीलरशिप अधिकार दिये जिसके परिणामस्वरूप याचिकाकर्त्ता को क्षति कारित हुई।
  • याचिकाकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि जिन पक्षों को प्रतिवादी ने डीलरशिप अधिकार दिये हैं, वे प्रारंभ में याचिकाकर्त्ता के संपर्क में थे, जो उनके संविदा का उल्लंघन है। 
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि पक्षों के मध्य ऐसा कोई बाध्यकारी करार नहीं है कि प्रतिवादी सीधे बाजार में पानी के मीटर नहीं विक्रय कर सकता।
  • प्रतिवादी ने प्रस्तुत किया कि पुनर्विक्रेता संविदा के खंड 2.01 में उन्हें सीधे विक्रय करने एवं अन्य पुनर्विक्रेताओं को नियुक्त करने की अनुमति दी गई थी, जो उल्लंघन नहीं था। 
  • विवाद के कारण पक्षों के मध्य मध्यस्थता की कार्यवाही संपन्न हुई तथा प्रतिवादी के पक्ष में पंचाट पारित किया गया। 
  • पंचाट से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C) की धारा 34 की परिधि का अवलोकन किया। 
  • न्यायालय ने विभिन्न मामले संबंधी विधियों का हवाला देते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि मध्यस्थ अधिकरण के निर्णयों में न्यायालय के हस्तक्षेप का दायरा केवल A&C की धारा 34 के अंतर्गत दिये गए प्रावधानों तक ही सीमित होना चाहिये। 
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि जब लोक नीति, सिद्धांतों एवं विधियों को कोई हानि होती है, तभी न्यायालय पंचाटों के विषय में हस्तक्षेप कर सकता है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता प्रतिवादी द्वारा उल्लंघन को सिद्ध करने में विफल रहा क्योंकि भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 10 एवं धारा 7 के अनुसार पुनर्विक्रेता करार से पहले पक्षों के मध्य ऐसा कोई संविदा नहीं था जो याचिकाकर्त्ता के दावों को स्वीकार कर सके।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि वाणिज्यिक संविदाओं में साम्या लागू नहीं होगी क्योंकि यह संविदाओं की शर्तों द्वारा सख्ती से शासित होती है तथा राहत केवल विधि के अंतर्गत दिये गए अधिकारों के आधार पर ही दी जा सकती है। 
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने पंचाट को सही पाया तथा याचिका को खारिज कर दिया।

साम्या क्या है?

  • यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अंतर्गत न्याय का एक रूप है। 
  • साम्या, आवश्यकता पड़ने पर अच्छे विवेक का प्रयोग करके निष्पक्षता एवं न्याय सुनिश्चित करने का एक तरीका है। 
  • साम्या की अवधारणा तर्कसंगतता, अनुचित कार्यों को चुनौती देने एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विचारों का पूरक है।
  • साम्या मुख्य रूप से उचित प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करती है तथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण प्रथाओं पर अंकुश लगाती है। 
  • साम्या संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन को सुनिश्चित करती है, न्यायसंगत रोक को लागू करती है तथा संविदात्मक विवादों के मामलों में अनुचित प्रभाव के मामलों में न्यायसंगत राहत प्रदान करती है। 
  • साम्या विधिक सूत्र पर कार्य करती है "साम्या बिना उपाय के दोषपूर्ण कृत्य सहती है" जिसका अर्थ है कि साम्या तब भूमिका में आती है जब विधि में कोई कमी होती है।

साम्या एवं समानता में क्या अंतर है?

साम्या

समानता

व्यक्तिगत साम्या पर ध्यान केंद्रित करता है।

सभी के बीच समानता पर ध्यान केंद्रित करता है।

यह आवश्यकता के आधार पर संसाधनों का वितरण है।

यह सभी लोगों के लिये संसाधनों का वितरण है।

यह समानता का साधन है।

यह समानता का परिणाम है

यह निष्पक्षता सुनिश्चित करता है।

यह एकरूपता सुनिश्चित करता है।

साम्या, विधि का द्वितीयक स्रोत कैसे है?

  • साम्या न तो प्रथागत विधियों से ली गई है तथा न ही सांविधिक विधियों से। यह चांसरी न्यायालयों में ब्रिटिश विधियों द्वारा विवेक पर आधारित न्यायिक पूर्वनिर्णय से ली गई है।
  • इंग्लैंड में विशेष न्यायालयों की स्थापना "साम्या न्यायालयों" के रूप में की गई थी, जो साम्या के सिद्धांत को लागू करके विवादों को हल करने के लिये स्थापित किये गए थे, जहाँ सामान्य विधि लागू नहीं किया जा सकता है। 
  • यह उन विवादों का समाधान प्रदान करता है, जहाँ सामान्य विधि उचित रूप से उपाय नहीं दे सकता है। 
  • साम्या निष्पक्षता एवं न्याय सुनिश्चित करने के लिये असंहिताबद्ध नियमों का एक समूह है।

निष्पक्षता का सिद्धांत क्या है?

  • निष्पक्षता न्याय का साधन है। 
  • निष्पक्षता का सिद्धांत किसी भी मनमाने या अनुचित व्यवहार को रोकने के लिये विधि की उचित प्रक्रिया में प्रक्रियागत निष्पक्षता सुनिश्चित करता है। 
  • यह सुनिश्चित करता है कि निर्णय सुनाने वाला या पक्षों के मध्य विवाद को सुलझाने के लिये उत्तरदायी तीसरा पक्ष निष्पक्ष होना चाहिये।
  • निष्पक्षता का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि नियमों या विधियों को इस तरह से लागू किया जाना चाहिये कि परिणाम न्यायसंगत, निष्पक्ष एवं साम्यापूर्ण हो। 
  • निष्पक्षता का मुख्य उद्देश्य निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन करके न्याय के लक्ष्यों को पूरा करना है।