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आपराधिक कानून

किशोर की ज़मानत के लिये JJ अधिनियम की धारा 12(1) की औपचारिकता

 20-Aug-2024

विधि से संघर्षरत किशोर बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य।

“किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12(1) के प्रावधान की प्रयोज्यता के रिकॉर्ड किये गए निर्धारण के बिना किसी किशोर को ज़मानत से वंचित नहीं किया जा सकता।”

न्यायमूर्ति अभय ओका एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12(1) के प्रावधानों को विशेष रूप से लागू न करने के लिये अधीनस्थ न्यायालयों की आलोचना करते हुए, विधि के साथ संघर्षरत किशोर बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य के मामले में एक वर्ष से अधिक समय तक अभिरक्षा में रखे गए किशोर को ज़मानत दे दी। यह प्रावधान तब तक ज़मानत की अनुमति देता है जब तक कि किशोर की सुरक्षा या न्याय के विषय में विशेष चिंताएँ न हों।

  • न्यायमूर्ति अभय ओका एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने विधि से संघर्षरत किशोर बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य के मामले में निर्णय दिया।

विधि से संघर्षरत किशोर बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • एक किशोर जिस पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 354 एवं 506 के साथ-साथ लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 9 और 10 के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया था।
  • किशोर को 15 अगस्त, 2023 को अभिरक्षा में लिया गया तथा किशोर देखभाल गृह भेज दिया गया।
  • 25 अगस्त, 2023 को किशोर के विरुद्ध आरोप-पत्र दायर किया गया।
  • आरोप-पत्र दायर होने से दो दिन पहले 23 अगस्त, 2023 को किशोर न्याय (बालकों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ अधिनियम) की धारा 12(1) के अधीन किशोर की ज़मानत याचिका खारिज कर दी गई।
  • 11 दिसंबर, 2023 को किशोर न्याय बोर्ड (JJ बोर्ड) ने ज़मानत के लिये दूसरा आवेदन खारिज कर दिया।
  • किशोर ने ज़मानत देने से मना करने के JJ बोर्ड के निर्णय के विरुद्ध अपील की, लेकिन इस अपील को पॉक्सो अधिनियम के अधीन विशेष न्यायाधीश ने खारिज कर दिया।
  • इसके बाद, किशोर ने अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों को चुनौती देते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय में एक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने किशोर को ज़मानत देने से मना करने के निर्णय को यथावत रखते हुए पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया।
  • इस पूरी प्रक्रिया के दौरान किशोर एक वर्ष से अधिक समय तक अभिरक्षा में रहा।
  • किशोर की मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार की गई, जो केस रिकॉर्ड का हिस्सा बनी।
  • किशोर ने अपने अभिभावक-पिता के माध्यम से भारत के उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसमें अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय को चुनौती दी गई तथा ज़मानत मांगी गई।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12(1) के अधीन विधि का उल्लंघन करने वाले किशोर को ज़मानत पर रिहा करने का प्रावधान है, चाहे वह ज़मानतदार के साथ हो या उसके बिना, जब तक कि इस धारा का प्रावधान लागू न हो।
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 12(1) का प्रावधान केवल तभी ज़मानत से मना करने की अनुमति देता है, जब यह मानने के लिये उचित आधार हों कि रिहाई से किशोर ज्ञात अपराधियों के साथ जुड़ जाएगा, उन्हें नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे में डाल देगा, या न्याय के उद्देश्यों को पराजित करेगा।
  • न्यायालय ने पाया कि न तो किशोर न्याय बोर्ड, न ही विशेष न्यायालय तथा न ही उच्च न्यायालय ने कोई निष्कर्ष दर्ज किया था कि इस मामले में धारा 12(1) का प्रावधान लागू था।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस तरह के निष्कर्ष को दर्ज किये बिना, विधि के साथ संघर्ष करने वाले किशोर को ज़मानत देने से मना नहीं किया जा सकता था।
  • न्यायालय ने किशोर की मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट पर ध्यान दिया, जिसमें उल्लेख किया गया था कि किशोर उच्च जोखिम वाली श्रेणी में नहीं आता है तथा "संकटग्रस्त बच्चों की सूची" वाले कॉलम में "संकट मुक्त बच्चों की सूची" सूचीबद्ध किया गया है।
  • न्यायालय ने पाया कि रिपोर्ट पर एक योग्य नैदानिक ​​मनोवैज्ञानिक द्वारा हस्ताक्षर किये गए थे, जो इसके निष्कर्षों को विश्वसनीयता प्रदान करता है।
  • न्यायालय ने चिंता व्यक्त की कि धारा 12(1) के प्रावधान के आवेदन को उचित ठहराने वाले किसी भी निष्कर्ष की अनुपस्थिति के बावजूद, किशोर को एक वर्ष से अधिक समय तक ज़मानत देने से मना किया गया था।
  • न्यायालय ने माना कि धारा 12(1) की शब्दावली के अनुसार किशोर को ज़मानत पर रिहा करना आवश्यक है, जब तक कि प्रावधान लागू न हो, जो इस मामले में स्थापित नहीं था।
  • न्यायालय ने पाया कि विधि के अधीन उचित औचित्य के बिना किशोर को एक वर्ष तक अभिरक्षा में रखना अनुचित था।
  • न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा किशोर न्याय अधिनियम की धारा 12 के आवेदन में हस्तक्षेप करना एवं त्रुटि को ठीक करना आवश्यक समझा।

किशोर न्याय (बालकों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 12 क्या है?

  • JJ अधिनियम, 2015 की धारा 12 ऐसे व्यक्ति को ज़मानत देने से संबंधित है जो स्पष्टतः विधि का उल्लंघन करने वाला बालक है।
  • अनुप्रयोज्यता:
    • यह धारा ऐसे किसी भी व्यक्ति पर लागू होती है जो बालक प्रतीत होता है।
    • यह उन स्थितियों को शामिल करता है जहाँ ऐसे व्यक्ति पर कोई अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, चाहे वह ज़मानतीय हो या गैर-ज़मानती।
    • यह धारा तब लागू होती है जब बालक पकड़ा जाता है, पुलिस द्वारा अभिरक्षा में लिया जाता है, बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत होता है या बोर्ड के समक्ष लाया जाता है।
  • अधिभावी प्रभाव:
    • इस धारा का दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 तथा किसी भी अन्य लागू संविधि पर अधिभावी प्रभाव है।
    • इस धारा के प्रावधान अन्य विधियों के परस्पर विरोधी प्रावधानों पर वरीयता प्राप्त करते हैं।
  • रिलीज़ के लिये प्राथमिक नियम:
    • डिफॉल्ट स्थिति यह है कि बच्चे को रिहा कर दिया जाएगा।
    • रिहाई ज़मानत के साथ या बिना ज़मानत के हो सकती है।
    • वैकल्पिक रूप से, बच्चे को परिवीक्षा अधिकारी की देख-रेख में रखा जा सकता है।
    • बच्चे को किसी भी योग्य व्यक्ति की देख-रेख में रखा जाना चाहिये।
  • रिहाई के अपवाद (परंतुक):
    • रिहाई से मना किया जा सकता है यदि यह मानने के लिये उचित आधार हों:
      • रिहाई से बच्चे का ज्ञात अपराधियों के साथ संबंध होने की संभावना है, या
      • रिहाई से बच्चे को नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे का सामना करना पड़ सकता है, या
      • रिहाई से न्याय का उद्देश्य विफल हो सकता है।
    • यदि ज़मानत अस्वीकार कर दी जाती है, तो बोर्ड को अस्वीकृति के कारणों तथा इस निर्णय तक पहुँचने वाली परिस्थितियों को सूचीबद्ध करना होगा।
  • पुलिस द्वारा रिहा न किये जाने पर प्रक्रिया:
    • यदि पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी उपधारा (1) के अधीन बच्चे को ज़मानत पर रिहा नहीं करता है,
    • तो अधिकारी को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चे को केवल पर्यवेक्षण गृह में ही रखा जाए।
    • पर्यवेक्षण गृह में यह अभिरक्षा निर्धारित प्रक्रिया द्वारा होनी चाहिये।
    • बच्चे को वहाँ केवल तब तक रखा जाना चाहिये जब तक कि उसे बोर्ड के समक्ष नहीं लाया जा सकता।
  • बोर्ड द्वारा रिहा न किये जाने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया:
    • यदि बोर्ड उपधारा (1) के अंतर्गत बच्चे को ज़मानत पर रिहा नहीं करता है,
    • तो बोर्ड को बच्चे को पर्यवेक्षण गृह या सुरक्षित स्थान पर भेजने का आदेश देना होगा।
    • यह आदेश बच्चे के संबंध में जाँच लंबित रहने के दौरान रहने की अवधि निर्दिष्ट करता है।
  • ज़मानत की शर्तें पूरी न करना:
    • यदि विधि का उल्लंघन करने वाला कोई बच्चा ज़मानत आदेश की शर्तों को आदेश के सात दिनों के अंदर पूरा नहीं कर पाता है,
    • तो बच्चे को बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
    • इस पेशी का उद्देश्य ज़मानत शर्तों में संशोधन करना है।
  • अधिनियम की धारा 12(1) में कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति, जो स्पष्टतः बालक है तथा जिस पर ज़मानतीय या गैर-ज़मानती अपराध करने का आरोप है, पुलिस द्वारा पकड़ा या निरुद्ध किया जाता है या बोर्ड के समक्ष उपस्थित होता है या लाया जाता है, तो ऐसे व्यक्ति को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) या किसी अन्य समय प्रवृत्त विधि में किसी तथ्य के होते हुए भी, ज़मानत पर या उसके बिना ज़मानत पर रिहा किया जाएगा या परिवीक्षा अधिकारी के पर्यवेक्षण में या किसी योग्य व्यक्ति की देख-रेख में रखा जाएगा।
    • परंतुक में यह प्रावधान है कि ऐसे व्यक्ति को इस प्रकार रिहा नहीं किया जाएगा यदि यह मानने के लिये उचित आधार प्रतीत होते हैं कि रिहाई से उस व्यक्ति का किसी ज्ञात अपराधी के साथ संबंध होने की संभावना है या उक्त व्यक्ति को नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरा हो सकता है या व्यक्ति की रिहाई से न्याय का उद्देश्य विफल हो जाएगा तथा बोर्ड ज़मानत से मना करने के कारणों एवं ऐसे निर्णय के लिये उत्तरदायी परिस्थितियों को सूचीबद्ध करेगा।

आपराधिक कानून

किसी वादी के विरुद्ध शपथ भंग के लिये कार्यवाही

 20-Aug-2024

जेम्स कुंजवाल बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य

“धारा 193 IPC: वादी के विरुद्ध शपथ भंग की कार्यवाही प्रारंभ करने के आधार”

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति संजय करोल एवं केवी विश्वनाथन

स्रोत:   उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एक वादी के विरुद्ध शपथ भंग की कार्यवाही को रद्द करने के मामले में भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 193 के अधीन ऐसी कार्यवाहियों के लिये दिशा-निर्देश जारी किये। यह मामला ज़मानत रद्द करने के मामले में शपथ भंग से संबंधित था। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के द्वारा दिये गए निर्देश को पलटते हुए इस निर्णय में शपथ भंग सिद्ध करने के लिये आवश्यक मानकों को स्पष्ट किया गया है।

  • न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति संजय करोल एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन ने जेम्स कुंजवाल बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य के मामले में निर्णय दिया।

जेम्स कुंजवाल बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • जेम्स कुंजवाल (अपीलकर्त्ता) को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 376 एवं 504 के अधीन FIR संख्या 109/2021 में आरोपी बनाया गया था।
  • FIR 'X' को एक आरोपी रूप में संदर्भित करने के रूप में दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि जेम्स कुंजवाल ने विवाह का मिथ्या वचन के आधार पर उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किये थे।
  • जेम्स कुंजवाल ने प्रारंभ में अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश, नैनीताल के समक्ष ज़मानत के लिये आवेदन दिया था, जिसे खारिज कर दिया गया था।
  • इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने उन्हें 8 जून, 2021 को ज़मानत दे दी।
  • इसके बाद शिकायत कर्त्ता ने जेम्स कुंजवाल की ज़मानत रद्द करने की मांग करते हुए एक आवेदन (सं. 24/2022) दायर किया।
  • ज़मानत रद्द करने के आवेदन में शिकायतकर्त्ता ने आरोप लगाया कि जेम्स कुंजवाल उस पर मामले का निपटान करने के लिये दबाव बना रहा था, उसे अश्लील संदेश भेज रहा था तथा उसके एवं उसके परिवार के साथ दुर्व्यवहार कर रहा था।
  • शिकायतकर्त्ता ने दावा किया कि उसने 24 जुलाई, 2022 को जेम्स कुंजवाल के व्यवहार के विषय में पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई थी।
  • आरोपों के प्रत्युत्तर में जेम्स कुंजवाल ने शिकायतकर्त्ता के दावों का खंडन करते हुए तथा घटनाओं का अपना संस्करण प्रस्तुत करते हुए एक शपथ-पत्र दायर किया।
  • उच्च न्यायालय ने ज़मानत रद्द करने की अर्जी खारिज कर दी, लेकिन जेम्स कुंजवाल एवं शिकायत कर्त्ता द्वारा दायर शपथ-पत्र पर कथित विरोधाभासों पर प्रश्न किया।
  • उच्च न्यायालय ने बाद में रजिस्ट्रार (न्यायिक) को जेम्स कुंजवाल के विरुद्ध कथित रूप से मिथ्या शपथ-पत्र दायर करने के लिये शिकायत दर्ज करने का निर्देश दिया, जिसके कारण IPC की धारा 193 के अधीन मामला दर्ज किया गया।
  • इसके बाद जेम्स कुंजवाल ने इस निर्णय के विरुद्ध भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील की तथा अपने विरुद्ध शपथ भंग का मामला दायर किया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने इस बात की जाँच की कि क्या जेम्स कुंजवाल द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष दायर शपथ-पत्र की विषय-वस्तु धारा 193 IPC के अधीन अपराध का गठन करती है, जैसा कि IPC की धारा 191 में परिभाषित किया गया है।
  • न्यायालय ने IPC की धारा 193 के अधीन कार्यवाही शुरू करने के मानदंड स्थापित करने के लिये कई उदाहरणों का हवाला दिया।
  • न्यायालय ने कहा कि शिकायतकर्त्ता के शपथ-पत्र में दिये गए कथनों से मना करना शपथभंग की सीमा को पूरा नहीं करता है।
  • यह नोट किया गया कि जेम्स कुंजवाल के शपथ-पत्र में दिये गए कथनों से कोई दुर्भावनापूर्ण आशय या जानबूझकर किया गया प्रयास नहीं समझा जा सकता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि केवल संदेह या दोषपूर्ण कथनों के आधार पर IPC की धारा 193 के अधीन अपराध नहीं बनता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जेम्स कुंजवाल के कथन न्याय के हित में धारा 193 IPC लागू करना समीचीन नहीं बनाते।
  • न्यायालय ने पाया कि परिस्थितियाँ, शपथभंग की कार्यवाही शुरू करने के लिये कोई असाधारण आधार का निर्माण नहीं करती।
  • यह देखा गया कि शपथभंग की कार्यवाही को उचित ठहराने के लिये स्थापित मानदंडों में से कम-से-कम तीन इस मामले में पूरे नहीं हुए।
  • न्यायालय ने नोट किया कि उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रतिवादी के दिये गए शपथ-पत्र में कोई विशिष्ट आरोप या सामग्री नहीं दी गई थी जिसे कथित रूप से सक्षम अभियोजन अधिकारियों या न्यायालय के समक्ष रखा गया हो।
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उपलब्ध तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर इस मामले में शपथ भंग के लिये अभियोजन अन्यायपूर्ण होगा।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 227 क्या है?

  • धारा 227 मिथ्या साक्ष्य देने के अपराध से संबंधित है (पहले यह भारतीय दण्ड संहिता, 1872 की धारा 191 के अधीन दी गई थी)
  • यह उस व्यक्ति पर लागू होती है जो सत्य प्रस्तुत करने के लिये शपथ या विधि के किसी स्पष्ट प्रावधान द्वारा विधिक रूप से बाध्य है।
  • यह किसी भी विषय पर घोषणा करने के लिये विधि द्वारा बाध्य व्यक्ति पर भी लागू होती है।
  • अपराध तब होता है जब ऐसा व्यक्ति कोई ऐसा बयान देता है जो मिथ्या होता है।
  • व्यक्ति को या तो यह पता होना चाहिये कि कथन मिथ्या है, या उसे यह विश्वास होना चाहिये कि यह मिथ्या है, या उसे यह विश्वास नहीं होना चाहिये कि यह सत्य है।
  • स्पष्टीकरण 1 स्पष्ट करता है कि इस धारा के निर्वचन के अंतर्गत एक कथन मौखिक रूप से या अन्यथा दिया जा सकता है।
  • स्पष्टीकरण 2 में कहा गया है कि प्रमाणित करने वाले व्यक्ति के विश्वास के विषय में दिया गया एक मिथ्या कथन इस धारा के निर्वचन के अंतर्गत है।
  • कोई व्यक्ति यह कहकर मिथ्या साक्ष्य प्रस्तुत करने का दोषी हो सकता है कि वह किसी ऐसी तथ्य पर विश्वास करता है जिस पर वह विश्वास नहीं करता।
  • इसी तरह, कोई व्यक्ति यह कहकर दोषी हो सकता है कि वह किसी ऐसी तथ्य को जानता है जो वह नहीं जानता।
  • अपराध का सार यह है कि जब सत्य प्रस्तुत करने का विधिक दायित्त्व होता है, तब मिथ्या कथन दिया जाता है।

विधिक प्रावधान

  • धारा 227
    • धारा 227 में कहा गया है कि जो कोई शपथ द्वारा या विधि के किसी अभिव्यक्त उपबंध द्वारा सत्य कथन प्रस्तुत करने के लिये वैध रूप से आबद्ध होते हुए, या किसी विषय पर घोषणा करने के लिये विधि द्वारा आबद्ध होते हुए, कोई ऐसा कथन करता है जो मिथ्या है, और जिसके विषय में वह या तो जानता है या विश्वास करता है कि वह मिथ्या है, या जिसके सत्य होने का उसे विश्वास नहीं है, तो यह कहा जाता है कि उसने मिथ्या साक्ष्य दिया है।
    • स्पष्टीकरण 1 में कहा गया है कि कथन मौखिक रूप से या अन्यथा इस धारा के अर्थ के अंतर्गत आता है।
    • स्पष्टीकरण 2 में कहा गया है कि सत्यापन करने वाले व्यक्ति के विश्वास के विषय में मिथ्या कथन इस धारा के अर्थ के अंतर्गत आता है और कोई व्यक्ति यह कहकर मिथ्या साक्ष्य देने का दोषी हो सकता है कि वह किसी ऐसे कथन पर विश्वास करता है जिस पर वह विश्वास नहीं करता, साथ ही यह कहकर कि वह किसी ऐसी कथन को जानता है जिसे वह नहीं जानता।
  • धारा 229
    • धारा 229 मिथ्या साक्ष्य के लिये सज़ा से संबंधित है। (पहले यह IPC की धारा 193 के अधीन दिया गया था)
    • इसमें कहा गया है कि धारा 229 (1) के अधीन जो कोई भी जानबूझकर न्यायिक कार्यवाही के किसी भी चरण में मिथ्या साक्ष्य देता है, या न्यायिक कार्यवाही के किसी भी चरण में प्रयोग किये जाने के उद्देश्य से मिथ्या साक्ष्य गढ़ता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है तथा वह दस हज़ार रुपए तक के अर्थदण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
    • उप-धारा (2) में कहा गया है कि जो कोई भी उपधारा (1) में निर्दिष्ट मामले के अतिरिक्त किसी अन्य मामले में जानबूझकर मिथ्या साक्ष्य देता है या गढ़ता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है तथा वह पाँच हज़ार रुपए तक के अर्थदण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।

इस अपराध के आवश्यक तत्त्व क्या हैं?

  • अभियुक्त को सत्य बताने के लिये शपथ, प्रतिज्ञान या सांविधिक प्रावधान द्वारा विधिक रूप से बाध्य होना चाहिये।
  • अभियुक्त ने मिथ्या साक्ष्य या गवाही दी होगी।
  • ऐसे मिथ्या साक्ष्य जानबूझकर दिये गए होंगे।
  • वैकल्पिक रूप से, अभियुक्त ने जानबूझकर भौतिक तथ्यों को छिपाया गया होगा।
  • मिथ्या साक्ष्य न्यायिक कार्यवाही में दिये जाने चाहिये।
  • न्यायिक कार्यवाही में परीक्षण, विचारण एवं कथन शामिल हैं, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है।
  • अपराध अन्य अर्द्ध-न्यायिक या प्रशासनिक कार्यवाहियों तक विस्तृत है, जहाँ साक्ष्य विधिक रूप से लिया जाता है।
  • ऐसी कार्यवाहियों में विभागीय पूछताछ, अधिकरण या साक्ष्य प्राप्त करने के लिये सशक्त सांविधिक निकाय शामिल हो सकते हैं।
  • मिथ्या को संबंधित कार्यवाही के लिये महत्त्वपूर्ण होना चाहिये।
  • अभियुक्त की मानसिक प्रवृत्ति में मिथ्या के विषय में ज्ञान या उनके कथन की सत्यता पर अविश्वास शामिल होना चाहिये।

किसी वादी के विरुद्ध शपथभंग के लिये कार्यवाही कब प्रारंभ की जा सकती है?

  • 'पेरजरी' शब्द लैटिन शब्द पेरजुरियम से लिया गया है।
    • 'पेरजुरियम' को पाप तो कहा गया, लेकिन लोक अपराध नहीं।
  • किसी वादी के विरुद्ध शपथ भंग की कार्यवाही तब प्रारंभ की जा सकती है जब वे विधिक कार्यवाही में शपथ के अधीन जानबूझकर मिथ्या कथन देते हैं, बशर्ते कि मिथ्या बयान मामले के लिये महत्त्वपूर्ण हों तथा सिद्ध हो कि वे केवल दोष या अशुद्धियाँ नहीं बल्कि जानबूझकर दिये गए मिथ्या हैं।
  • IPC की धारा 191, उन व्यक्तियों पर लागू होती है जो शपथ के अंतर्गत या सत्य सूचना प्रदान करने के लिये एक स्पष्ट विधिक दायित्त्व के अंतर्गत, जानबूझकर मिथ्या कथन देते हैं, या ऐसे कथन देते हैं जिन्हें वे या तो मिथ्या मानते हैं या सच नहीं मानते हैं।
  • ऐसे मिथ्या साक्ष्य लिखित या मौखिक रूप में दिये जा सकते हैं।

निर्णयज विधियाँ

  • अब्दुल माजिद बनाम कृष्ण लाल नाग, (1893)
    • न्यायालय ने कहा कि ऐसी कार्यवाही में मिथ्या साक्ष्य अवश्य दिये जाने चाहिये जिसमें अभियुक्त विधि द्वारा सत्य बोलने के लिये बाध्य हो।
    • यदि न्यायालय के पास शपथ दिलाने का अधिकार नहीं है तो कार्यवाही न्यायसंगत नहीं होगी तथा झूठे साक्ष्य के लिये अभियोजन नहीं चल सकता।
    • ऐसा ही मामला तब भी होगा जब न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम कर रहा हो।”