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आपराधिक कानून
गंभीर अपराध जाँच पर्यवेक्षण दल
18-Sep-2024
सुनीत @सुमित सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य “गंभीर अपराध जाँच पर्यवेक्षण दल, जाँच का पर्यवेक्षण करेगा और जाँच अधिकारी, इस दल को रिपोर्ट करेगा।” न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर |
स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों ?
न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर की पीठ ने जाँच की निगरानी के लिये गंभीर अपराध जाँच पर्यवेक्षण दल गठित करने के निर्देश जारी किये।
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने सुनीत उर्फ सुमित सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।
सुनीत @ सुमित सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में कथित घटना 18 जून 2020 को हुई थी। आवेदक को 2 दिसंबर 2020 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह अभिरक्षा में है।
- आवेदक पिछले 3 वर्ष 8 महीने से अधिक समय से जेल में बंद है और यह संभावना है कि वाद के विचारण में काफी समय लगेगा।
- आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302, 34, 450, 397, 398, 114, 120B और शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 25 और 27 के अधीन मामला दर्ज किया गया।
- वर्तमान आवेदन भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 483 (दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 439) के अधीन आवेदक की छठी ज़मानत याचिका थी।
- पहले प्राप्त 5 आवेदनों में से 3 आवेदनों को वापस लिये जाने के कारण अस्वीकार कर दिया गया है तथा दो आवेदनों को आवेदक के बीमार होने के कारण अस्थायी रूप से स्वीकार किया गया है।
- यह ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान मामले में शुरू में केवल मोबाइल फोन ज़ब्त किया गया था, परंतु तीन दिनों के बाद उसकी पैंट भी ज़ब्त कर ली गई, जो अभियोजन पक्ष के अनुसार घटना के समय आवेदक ने पहनी हुई थी।
- अभियुक्त का कहना था कि DNA रिपोर्ट गलत तरीके से तैयार की गई थी, क्योंकि यह संभव नहीं है कि आवेदक अपनी पैंट को 6 महीने तक उसी स्थिति में रख सके, ताकि अभियोजन पक्ष उसे बरामद कर सके।
- हालाँकि राज्य ने तर्क दिया कि ज़मानत देने का कोई मामला ही नहीं था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि DNA रिपोर्ट उस पैंट के संबंध में है जिसे घटना की तिथि के 6 महीने बाद ज़ब्त किया गया था।
- इसके अतिरिक्त, आवेदक से डकैती से संबंधित कोई अन्य सामग्री भी ज़ब्त नहीं की गई है।
- इस तथ्य पर विचार करते हुए कि केवल 11 साक्षियों की जाँच की गई थी, तथा 18 अन्य साक्षियों की जाँच की जानी शेष थी, न्यायालय ने आरोपी को ज़मानत दे दी।
- तद्नुसार, न्यायालय ने आरोपी को ज़मानत दे दी।
- न्यायालय ने आगे कहा कि जाँच अधिकारी द्वारा की गई जाँच में गंभीर त्रुटियाँ थीं।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि यह कोई अकेली घटना नहीं है। वास्तव में पहले भी ऐसे मामले हुए हैं, जहाँ न्यायालय उचित तत्परता के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने में विफल रहा है।
उच्च न्यायालय द्वारा पुलिस महानिदेशक, मध्य प्रदेश, भोपाल को क्या निर्देश जारी किये गए हैं?
- न्यायालय ने कहा कि कुछ मामलों में जाँच अधिकारी और फोरेंसिक विशेषज्ञों द्वारा की गई गंभीर चूक के कारण ही अभियुक्त को संदेह का लाभ दिया जाता है।
- न्यायालय ने इस बात पर अफसोस जताया कि जब एक आपराधिक वाद आरंभ से ही लापरवाह जाँच के कारण असफल हो जाता है तो यह न्यायालय की प्रक्रिया के सरासर दुरुपयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
- इस प्रकार, उपरोक्त के विरोध में न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक, मध्य प्रदेश, भोपाल को एक गंभीर अपराध जाँच पर्यवेक्षण दल गठित करने का निर्देश दिया।
- गंभीर अपराध जाँच पर्यवेक्षण दल (SCIST)
- सदस्य : 2 सदस्य
- इसका नेतृत्व एक वरिष्ठ स्तर के पुलिस अधिकारी द्वारा किया जाएगा, जो किसी अनुभवी IPS अधिकारी के पद से नीचे का न हो।
- दूसरा पुलिस विभाग का अधिकारी होगा जो पुलिस उपनिरीक्षक के पद से नीचे का नहीं होगा, जिसे उक्त IPS अधिकारी द्वारा चुना जा सकता है।
- उद्देश्य:
- यह टीम जाँच की निगरानी करेगी।
- जाँच अधिकारी को जाँच की प्रगति के विषय में टीम को रिपोर्ट देनी होगी तथा सूचना देनी होगी, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जाँच में कोई चूक न हो तथा कमियों को सही समय पर दूर कर दिया जाए।
- जाँच में किसी भी चूक के लिये जाँच अधिकारी के साथ-साथ उक्त टीम को भी उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
- सदस्य : 2 सदस्य
दोषपूर्ण या अपूर्ण जाँच के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारक क्या हैं?
- अपराध की जाँच के दौरान जाँच अधिकारी कई गलतियाँ करते हैं, जिससे कई कमियाँ रह जाती हैं। दोषपूर्ण जाँच के कुछ कारण इस प्रकार हैं:
- जाँच से संबंधित प्रासंगिक विधि की अज्ञानता।
- जाँच अधिकारियों के समुचित प्रशिक्षण का अभाव।
- वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहायता की अनुपलब्धता।
- कार्यभार
- जाँच के प्रति गैर-पेशेवर रवैया और लापरवाही।
- अपराध स्थल पर पहुँचने में देरी।
- जाँच के दौरान जाँच अधिकारियों का स्थानांतरण और परिवर्तन।
- जाँच एजेंसियों का अपर्याप्त होना।
- वाद हारने की स्थिति में जाँच अधिकारियों के उत्तरदायित्व का अभाव।
- बाहरी कारक।
SCIST की आवश्यकता पर प्रकाश डालने वालीं निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- अभिषेक पुत्र दिनेश डे बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022)
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि न्यायालय को यह जानकर आश्चर्य और अविश्वास हुआ कि एकत्र किये गए नमूने फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला को प्राप्त नहीं हुए हैं।
- इसके अतिरिक्त जाँच अधिकारी ने DNA रिपोर्ट अतिशीघ्र तैयार करवाने का भी ध्यान नहीं रखा।
- न्यायालय ने कहा कि इस न्यायालय द्वारा लगातार ऐसे मामलों में की गई गंभीर टिप्पणियों के बावजूद अभियोजन एजेंसियों द्वारा ऐसी चूक अभी भी की जा रही है।
- हबू @ सुनील बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2012)
- इस मामले में भी जाँच अधिकारी और फोरेंसिक विशेषज्ञों की ओर से विफलता सामने आई।
- परिणामस्वरूप, आरोपी को संदेह का लाभ दिया गया।
सिविल कानून
मध्यस्थता खंड का आह्वान
18-Sep-2024
मूवी टाइम सिनेमाज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स चेतक सिनेमा “प्रथम दृष्टया निर्धारण का विधायी अधिदेश यह सुनिश्चित करता है कि निर्दिष्ट न्यायालय मध्यस्थ अधिकरण के अपने अधिकार क्षेत्र पर निर्णय देने के अधिकार को बाधित न करें।” न्यायमूर्ति डॉ. नूपुर भाटी |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय ने मूवी टाइम सिनेमाज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स चेतक सिनेमा के मामले में माना है कि यदि वैध मध्यस्थता करार की उपस्थिति स्थापित हो जाती है, तो इसे मध्यस्थ का नाम लिये बिना भी पक्षों द्वारा लागू किया जा सकता है।
मूवी टाइम सिनेमाज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स चेतक सिनेमा मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादी ने एक पंजीकृत पट्टा विलेख पर हस्ताक्षर किये, जिसके अंतर्गत एक इमारत की दो मंज़िलें प्रतिवादी द्वारा याचिकाकर्त्ता को पट्टे पर दी गईं।
- याचिकाकर्त्ता ने पट्टे पर ली गई जगह पर कब्ज़ा कर लिया।
- इसके बाद, प्रतिवादी ने आरोप लगाया कि पट्टे पर दी गई संपत्ति पर तीसरे पक्ष का अधिकार है और उसने पट्टा विलेख से याचिकाकर्त्ता के चिह्नों को हटाने का प्रयास किया।
- इसके परिणामस्वरूप याचिकाकर्त्ता द्वारा पट्टा विलेख में उल्लिखित मध्यस्थता खंड का आह्वान किया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने वाणिज्यिक न्यायालय के समक्ष मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 9 के अंतर्गत आवेदन दायर किया।
- वाणिज्यिक न्यायालय ने प्रतिवादी को पट्टे पर दी गई संपत्ति की यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।
- प्रतिवादी द्वारा वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश का पालन न करने के कारण याचिकाकर्त्ता ने मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये A & C अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत आवेदन दायर किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थता खंड लागू करने के लिये मध्यस्थता समझौता होना चाहिये।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि पक्षों के बीच पट्टा विलेख में वैध मध्यस्थता खंड है और इसलिये याचिकाकर्त्ता इसका सहारा ले सकता है।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि मध्यस्थ का नाम न होने के बावजूद याचिकाकर्त्ता ने पर्याप्त नोटिस दिये। न्यायालय ने मध्यस्थता मामलों में न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत को लागू किया।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों पर भरोसा किया।
- इसलिये राजस्थान उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के आवेदन को स्वीकार कर लिया और पक्षों के बीच विवाद का निपटारा करने के लिये एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया।
मूवी टाइम सिनेमाज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स चेतक सिनेमा मामले में संदर्भित निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- कॉक्स एंड किंग्स लिमिटेड बनाम SAP इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2022): इस मामले में यह माना गया कि A & C अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत न्यायालय के लिये वैध मध्यस्थता करार की स्थापना आवश्यक है।
- NTPC लिमिटेड बनाम मेसर्स SPML इंफ्रा लिमिटेड (2022): इस मामले में यह माना गया कि A & C अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत न्यायालय को केवल तभी हस्तक्षेप करना चाहिये जब मामला पूर्व-दृष्टया समय-बाधित एवं समाप्त हो या कोई विवाद मौजूद न हो।
- मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 तथा भारतीय स्टाम्प अधिनियम (1899) के तहत मध्यस्थता समझौतों के बीच परस्पर क्रिया के संबंध में: इस मामले में यह माना गया कि A & C अधिनियम की धारा 8 या धारा 11 के स्तर पर एक निर्दिष्ट न्यायालय केवल प्रथम दृष्टया निर्धारण में प्रवेश कर सकता है।
मध्यस्थता समझौता क्या है?
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A & C अधिनियम की धारा 11 क्या है?
- मध्यस्थों की राष्ट्रीयता:
- किसी भी राष्ट्रीयता का कोई भी व्यक्ति मध्यस्थ हो सकता है, जब तक कि दोनों पक्ष अन्यथा सहमत न हों।
- नियुक्ति प्रक्रिया:
- उपधारा (6) के अधीन, पक्षकार मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये प्रक्रिया पर सहमत होने के लिये स्वतंत्र हैं।
- किसी करार के अभाव में, तीन-मध्यस्थ अधिकरण के लिये, प्रत्येक पक्ष एक मध्यस्थ की नियुक्ति करता है, तथा दो नियुक्त मध्यस्थ तीसरे (अध्यक्ष) मध्यस्थ का चयन करते हैं।
- मध्यस्थ संस्थाओं की भूमिका:
- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये श्रेणीबद्ध मध्यस्थ संस्थाओं को नामित कर सकते हैं।
- जिन न्यायक्षेत्रों में श्रेणीबद्ध संस्थाएँ नहीं हैं, वहाँ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मध्यस्थों का एक पैनल बनाए रख सकते हैं।
- इन मध्यस्थों को मध्यस्थ संस्थाएँ माना जाता है तथा वे चौथी अनुसूची में निर्दिष्ट शुल्क के अधिकारी होते हैं।
- विफलता की स्थिति में नियुक्ति:
- यदि कोई पक्ष अनुरोध प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहता है, या यदि दो नियुक्त मध्यस्थ 30 दिनों के भीतर तीसरे पर सहमत होने में विफल रहते हैं, तो नियुक्ति नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा की जाती है।
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिये उच्चतम न्यायालय संस्था को नामित करता है; अन्य मध्यस्थताओं के लिये उच्च न्यायालय ऐसा करता है।
- एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति:
- यदि पक्षकार 30 दिनों के भीतर एकमात्र मध्यस्थ पर सहमत होने में विफल रहते हैं, तो नियुक्ति उपधारा (4) के अनुसार की जाती है।
- सहमत प्रक्रिया के तहत कार्य करने में विफलता:
- यदि कोई पक्ष, नियुक्त मध्यस्थ, या नामित व्यक्ति/संस्था सहमत प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करने में विफल रहता है, तो न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था नियुक्ति करती है।
- प्रकटीकरण आवश्यकताएँ:
- मध्यस्थ नियुक्त करने से पहले, मध्यस्थ संस्था को धारा 12(1) के अनुसार भावी मध्यस्थ से लिखित प्रकटीकरण प्राप्त करना होगा।
- संस्था को पक्षों के करार और प्रकटीकरण की विषय-वस्तु द्वारा अपेक्षित किसी भी योग्यता पर विचार करना होगा।
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता:
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता में एकमात्र या तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये, नामित संस्था पक्षों से भिन्न राष्ट्रीयता के मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकती है।
- एकाधिक नियुक्ति अनुरोध:
- यदि विभिन्न संस्थाओं से कई अनुरोध किये जाते हैं, तो पहला अनुरोध प्राप्त करने वाली संस्था ही नियुक्ति करने के लिये सक्षम होगी।
- नियुक्ति के लिये समय-सीमा:
- मध्यस्थ संस्था को नियुक्ति के लिये आवेदन का निपटारा विपरीत पक्ष को नोटिस देने के 30 दिनों के भीतर करना होगा।
- शुल्क निर्धारण:
- मध्यस्थ संस्था, चौथी अनुसूची में निर्धारित दरों के अधीन, मध्यस्थ अधिकरण के शुल्क और भुगतान पद्धति निर्धारित करती है।
- यह अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थताओं पर लागू नहीं होता है या जहाँ पक्षकार मध्यस्थ संस्था के नियमों के अनुसार शुल्क निर्धारण पर सहमत हो गए हों।
- न्यायिक शक्ति का अप्रत्यायोजन:
- उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को नामित करना न्यायिक शक्ति का प्रत्यायोजन नहीं माना जाता है।
पारिवारिक कानून
हिंदू विवाह का संविदा के रूप में अविघटन
18-Sep-2024
X बनाम Y “उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि विवाह को संविदा की भाँति भंग नहीं किया जा सकता”। न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और दोनादी रमेश |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि हिंदू विवाह, संस्कारों पर आधारित है, इसलिये संविदाओं की भाँति इसे भंग नहीं किया जा सकता। यह निर्णय एक महिला की अपील को स्वीकार करते हुए आया, जिसमें उसने एक पारिवारिक न्यायालय के उस निर्णय को चुनौती दी थी, जिसमें केवल उसके पति के अनुरोध पर उसके विवाह को भंग कर दिया गया था।
- न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह को केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही अमान्य घोषित किया जा सकता है, नपुंसकता के मामलों में पर्याप्त साक्ष्यों की आवश्यकता होती है।
X v. Y की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एक जोड़े ने वर्ष 2006 में हिंदू विवाह विधि के अंतर्गत विवाह किया।
- पति, जो भारतीय सेना में कर्मचारी है, ने वर्ष 2008 में तलाक के लिये आवेदन किया, जिसमें उसने अपनी पत्नी पर वर्ष 2007 में उसे छोड़ने का आरोप लगाया और दावा किया कि वह बाँझ है।
- आरंभ में, पत्नी ने वर्ष 2008 में विवाह-विच्छेद के लिये सहमति जताते हुए एक लिखित बयान दायर किया।
- मामला मध्यस्थता के लिये भेजा गया, जो 25 अप्रैल, 2008 को समाप्त हुआ।
- वर्ष 2010 में, पत्नी ने तलाक का विरोध करते हुए और बाँझपन के दावे को चुनौती देते हुए दूसरा लिखित बयान दायर किया।
- पत्नी ने वर्ष 2008 और 2010 में दो बच्चों को जन्म देने का प्रमाण प्रस्तुत किया।
- पति ने दूसरा लिखित बयान दाखिल करने पर आपत्ति जताई।
- अगस्त 2010 में दूसरा मध्यस्थता प्रयास किया गया, जो विफल रहा।
- मार्च 2011 में, पारिवारिक न्यायालय ने पति की आपत्ति को स्वीकार कर लिया और पत्नी के दूसरे लिखित बयान पर विचार करने से इनकार कर दिया।
- उसी दिन, पारिवारिक न्यायालय ने मामले की योग्यता के आधार पर सुनवाई की और पति की तलाक याचिका स्वीकार कर ली।
- रिकॉर्ड पर उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि दंपति ने नवंबर 2009 में सैन्य अधिकारियों के माध्यम से सुलह का प्रयास किया था तथा साथ रहने तथा अपने वैवाहिक रिश्ते को पुनर्जीवित करने पर सहमति व्यक्त की थी।
- पत्नी ने उच्च न्यायालय में अपील दायर करके पारिवारिक न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता (पत्नी) द्वारा वर्ष 2008 में दिये गए प्रारंभिक लिखित बयान और सहमति पर ही भरोसा करके गलती की, जबकि मामले में बाद के घटनाक्रमों को अनदेखा कर दिया।
- न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को यह जाँच करनी चाहिये थी कि क्या डिक्री के समय अपीलकर्त्ता की विवाह-विच्छेद के लिये सहमति हुई थी, क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-B के तहत विवाह-विच्छेद की कार्यवाही में आपसी सहमति एक क्षेत्राधिकार संबंधी तथ्य है।
- न्यायालय ने विवादित निर्णय को रद्द कर दिया तथा मामले को विधि के अनुसार पुनर्विचार के लिये ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया।
- न्यायालय ने कहा कि एक बार जब अपीलकर्त्ता ने अपनी सहमति वापस ले ली थी और यह तथ्य रिकॉर्ड में था, तो ट्रायल कोर्ट के लिये वापस ली गई सहमति पर विलंब से, विशेष रूप से तीन वर्ष बीत जाने के बाद, कार्यवाही करना संभव नहीं था।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हिंदू विवाह के मामले में, जिसे एक संस्कार माना जाता है, विवाह-विच्छेद को महज़ संविदागत समाप्ति नहीं माना जाना चाहिये तथा इसे केवल विधि द्वारा निर्धारित सीमित परिस्थितियों में ही प्रदान किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश VIII नियम 9 के अंतर्गत ट्रायल कोर्ट को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह बाद में याचिका दायर करने की अनुमति दे या बदली हुई परिस्थितियों की जाँच करने के लिये अतिरिक्त बयान मांगे, विशेष रूप से कार्यवाही की दीर्घकालीन प्रकृति को देखते हुए।
हिंदू विवाह एक संविदा है या नहीं?
- हिंदू विवाह को एक पवित्र मिलन माना जाता है, न कि केवल एक संविदा।
- 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम विवाह को एक संविदात्मक करार के बजाय एक संस्कार के रूप में मान्यता देता है।
- संविदाओं के विपरीत, हिंदू विवाह को केवल संबंधित पक्षों की आपसी सहमति (भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 10 के अनुसार) से भंग नहीं किया जा सकता है।
- हिंदू विवाहों में विवाह-विच्छेद केवल विशिष्ट आधारों पर ही किया जाता है, इसे भंग करने योग्य संविदा मानकर नहीं।
- हिंदू विवाह की पवित्र प्रकृति कुछ ऐसे कर्त्तव्यों और दायित्वों को लागू करती है जो सामान्य संविदात्मक संबंधों से परे हैं।
- हिंदू विवाह को विधिक व्यवस्था से परे धार्मिक और सामाजिक महत्त्व के साथ आजीवन प्रतिबद्धता के रूप में माना जाता है।
- हिंदू धर्म में विवाह को एक संस्कार के रूप में माना जाता है, जो इसकी स्थायित्व और अविच्छेद्यता को दर्शाता है।
- हिंदू विवाह को विघटनीय संविदा नहीं माना जा सकता।
- हिंदू विवाह का असंविदात्मक दृष्टिकोण पारंपरिक धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को दर्शाता है।
हिंदू विवाह की पवित्र प्रकृति:
- प्राचीन वेदों और शास्त्रों के अनुसार, हिंदू विवाह को मुख्य रूप से एक संस्कार माना जाता है, जो धार्मिक तथा पवित्र प्रकृति का होता है एवं इसकी वैधता के लिये विशिष्ट धार्मिक समारोहों व संस्कारों का पालन करना आवश्यक होता है।
- हिंदू विवाह की पवित्र प्रकृति को विधिक रूप से तीन प्रमुख विशेषताओं के रूप में मान्यता प्राप्त है:
- स्थायित्व: एक बार विवाह संपन्न हो जाने के बाद यह अटूट माना जाता है।
- शाश्वतता: ऐसा माना जाता है कि विवाह वर्तमान जीवन से आगे बढ़कर भविष्य के जीवन तक चलता है।
- पवित्रता: इसके पूर्ण होने के लिये धार्मिक अनुष्ठानों का पालन आवश्यक है।
- शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, पत्नी की 'अर्धांगिनी' (पुरुष का आधा भाग) की अवधारणा को विधिक रूप से स्वीकार किया गया है, जिसका अर्थ है कि पुरुष तब तक अधूरा माना जाता है जब तक वह विवाह नहीं कर लेता।
- शिवानंदी बनाम भगवतीअम्मा, 1961 में न्यायालय ने माना कि पवित्र अग्नि के समक्ष सप्तपदी के माध्यम से किया गया हिंदू विवाह एक धार्मिक बंधन बनाता है, जो विधिक रूप से अविभाज्य है।
- हिंदू विधि में विवाह को पैतृक ऋणों के निर्वहन तथा धार्मिक और आध्यात्मिक कर्त्तव्यों के निर्वहन के लिये अनिवार्य माना गया है, विशेष रूप से पुत्र प्राप्ति के माध्यम से।
- हिंदू विवाह की विधिक वैधता कुछ आवश्यक संस्कारों एवं समारोहों के निष्पादन पर निर्भर करती है, जैसे होम (हवन) और कन्यादान, जो मंत्रोच्चार के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में किये जाने चाहिये।
- जैसा कि पिया बाला घोष बनाम सुरेश चंद्र घोष, 1971 में स्थापित किया गया था कि होम तथा सप्तपदी का प्रदर्शन एक वैध हिंदू विवाह के लिये आवश्यक संस्कार माना जाता है और इनका प्रदर्शन न करने पर विवाह विधिक रूप से संदिग्ध हो सकता है।
- यद्यपि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में कुछ संविदात्मक तत्त्वों को शामिल किया गया है, फिर भी यह हिंदू विवाह की संस्कारात्मक प्रकृति को पूरी तरह से नहीं नकारता है, जिसके परिणामस्वरूप एक संकर विधिक अवधारणा सामने आती है, जिसमें संस्कारात्मक और संविदात्मक दोनों आयाम सम्मिलित हैं।