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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

न्यायेतर संस्वीकृति

 03-Oct-2024

बुधु नाग चातर बनाम झारखंड राज्य

“पंचायत के समक्ष अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति, न्यायेतर संस्वीकृति मानी जाती है तथा इसकी विश्वसनीयता जंगल क्षेत्र से शव की बरामदगी से पुष्ट होती है।”

न्यायमूर्ति आनंद सेन एवं न्यायमूर्ति गौतम कुमार चौधरी

स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में झारखंड उच्च न्यायालय ने बुधु नाग चातर बनाम झारखंड राज्य के मामले में माना है कि यदि न्यायेत्तर संस्वीकृति निष्पक्षएवं और स्वतंत्र व्यक्ति के समक्ष की गई हो तो वह दोषसिद्धि का आधार हो सकती है।

बुधु नाग चातर बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में शिकायत गांव के मुखिया द्वारा दर्ज कराई गई थी ।
  • उन्होंने पुलिस को सूचित किया कि उनके सह-ग्रामीण (सोमा पूर्ति) लापता हैं।
  • तलाश करने पर पता चला कि उसे आखिरी बार उसके चचेरे भाईयों (अपीलकर्त्ताओं) के साथ देखा गया था, तथा उसके बाद वह कहीं नजर नहीं आया।
  • दोनों अपीलकर्त्ताओं ने स्वीकार किया कि उन्होंने सोमा पूर्ति की हत्या की है तथा यह भी स्वीकार किया कि शव को जंगल में छुपा दिया गया था।
  • हत्या का कारण ज़मीन का विवाद बताया गया। सारी सूचना पुलिस को सौंप दी गई है।
  • अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 302, 201 एवं 34 के अधीन अपराध दर्ज किया गया ।
  • ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों (अपीलकर्त्ताओं) को दोषी ठहराया तथा सजा सुनाई।
  • अपीलकर्त्ताओं ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर झारखंड उच्च न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • झारखंड उच्च न्यायालय ने कहा कि:
    • यह एक अनोखा मामला है जहाँ अपराध की संस्वीकृति पुलिस के सामने नहीं बल्कि पंचायत के सामने की गई।
    • विधि से यह स्पष्ट है कि पुलिस अधिकारियों के समक्ष दी गई संस्वीकृति स्वीकार्य साक्ष्य नहीं हैं।
    • अपीलकर्त्ताओं द्वारा किये गए संस्वीकृति की पुष्टि एक स्वतंत्र साक्षी द्वारा की गई।
    • अभियुक्तों के संस्वीकृति के अनुसार शव की बरामदगी ही उनके विरुद्ध भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA ) की धारा 106 के अधीन अनुमान उत्पन्न करती है।
    • अपीलकर्त्ताओं द्वारा की गयी संस्वीकृति न्यायेतर था, क्योंकि यह पंचायत के समक्ष दिया गया था।
    • झारखंड उच्च न्यायालय ने माना कि न्यायेतर संस्वीकृति दोषसिद्धि का आधार बन सकती है , यदि वह व्यक्ति जिसके समक्ष संस्वीकृति की जाती है, निष्पक्ष प्रतीत होता है तथा अभियुक्त के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं है और इसलिये, पंचायत के समक्ष अपीलकर्त्ताओं द्वारा की गई संस्वीकृति विश्वसनीय पाई गई।
    • इसलिये झारखंड उच्च न्यायालय ने अभियुक्तों की अपील खारिज कर दी तथा ट्रायल कोर्ट के आदेश को यथावत रखा।

न्यायेतर संस्वीकृति क्या है?

  • मजिस्ट्रेट की तत्काल उपस्थिति में न की गई संस्वीकृति न्यायेतर संस्वीकृति होता है। 
  • यह आरोपी द्वारा न्यायालय के बाहर अपने अपराध के संदर्भ में दिया गया स्वैच्छिक अभिकथन हो सकती है। 
  • इस तरह के संस्वीकृतिों को IEA के अधीन परिभाषित नहीं किया जाता है तथा इनका साक्ष्य मूल्य कम होता है। 
  • विधि में इसका कोई स्थायी प्रावधान जयरुख नहीं है क्योंकि इसकी कई संभावित व्याख्याएँ हैं।
  • परिवार, अजनबियों एवं स्वयं के समक्ष की गई संस्वीकृति को भी न्यायेतर संस्वीकृति माना जाता है।

संस्वीकृति 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 में संस्वीकृति शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। संस्वीकृति किसी अपराध के लिये आरोपित व्यक्ति द्वारा दिया गया एक अभिकथन है जो किसी मुद्दे में या प्रासंगिक तथ्य के विषय में अनुमान लगाता है। 
  • यह अनुमान कि अभिकथन से यह पता चलता है कि वह किसी अपराध का दोषी है। स्वीकारोक्ति संस्वीकृति का एक विशेष रूप है। 
  • इस प्रकार, यह लोकप्रिय रूप से कहा जाता है कि "सभी स्वीकारोक्ति संस्वीकृति हैं, लेकिन सभी संस्वीकृति स्वीकारोक्ति नहीं हैं।"

न्यायिक संस्वीकृति एवं न्यायेतर संस्वीकृति में क्या अंतर है?

ऐतिहासिक निर्णय

  • महाराष्ट्र राज्य बनाम दामू (2000):
    • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में माना है कि IEA की धारा 27 बाद की घटनाओं के आधार पर पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है। 
    • यह माना जाता है कि यदि अभियुक्त द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर कोई तथ्य खोजा जाता है, तो ऐसी खोज इस बात की गारंटी है कि अभियुक्त द्वारा दी गई जानकारी सत्य है।
  • शिव करम पयस्वामी तेवर बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009):
    • इस मामले में यह माना गया कि न्यायेतर संस्वीकृति दोषसिद्धि का आधार बन सकती है, यदि वह व्यक्ति जिसके समक्ष संस्वीकृति की जाती है, निष्पक्ष प्रतीत होता है एवं अभियुक्त के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं है।
  • अमर नाथ शुक्ला बनाम उत्तरांचल राज्य (2009):
    • इस मामले में आरोपी द्वारा गांव के प्रशासनिक अधिकारी के समक्ष दिया गया न्यायिक संस्वीकृति विश्वसनीय पाया गया तथा उसके आधार पर कार्यवाही की गई।

आपराधिक कानून

आगे की विवेचना का आदेश

 03-Oct-2024

के. वाडिवेल बनाम के. शांति एवं अन्य

“CrPC की धारा 173(8) के अधीन, यदि आवेदन में कोई नई सामग्री नहीं है तो आगे की विवेचना का आदेश नहीं दिया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 173(8) के अधीन आगे की विवेचना के आदेश देने की सीमाओं पर ध्यान दिया। इसने निर्णय दिया कि आगे की विवेचना के लिये निवेचना नए साक्ष्यों या सामग्रियों पर आधारित होना चाहिये जो मामले को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकते हैं, न कि केवल अटकलों पर।

  • न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन ने के. वाडिवेल बनाम के. शांति एवं अन्य के मामले यह निर्णय दिया। 
  • जिससे अतिरिक्त विवेचना की अनुमति देने से पहले उचित आधार की आवश्यकता पर बल मिलता है।

के. वाडिवेल बनाम के. शांति एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 31 मार्च 2013 को पडिकासु (PW-1) की शिकायत के आधार पर कुमार नामक व्यक्ति की हत्या के संबंध में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी। 
  • 11 जुलाई 2013 को एक आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसमें अपीलकर्त्ता सहित आठ आरोपियों को नामजद किया गया था।
  • विचारण के दौरान: 
    • PW-1 (पडिकासु) की 20 दिसंबर 2016 को जांच की गई। 
    • प्रतिवादी संख्या 1 (मृतक की पत्नी) की 18 मार्च 2017 को PW-2 के रूप में विवेचना की गई। 
    • PW-1 को 25 जुलाई 2019 को वापस बुलाया गया तथा प्रतिपरीक्षा की गई।
  • 19 अक्टूबर 2019 को अंतिम दलीलें सुनने के बाद प्रतिवादी संख्या 1 ने दायर किया:
    • सबसे पहले, 22 अक्टूबर 2019 को धारा 311 CrPC के अधीन एक आवेदन, जिसमें अतिरिक्त साक्षियों की विवेचना करने की मांग की गई थी। 
    • इसे दिसंबर 2019 में ट्रायल कोर्ट एवं उच्च न्यायालय दोनों ने खारिज कर दिया था।
  • जनवरी 2020 में, प्रतिवादी नंबर 1 ने धारा 173(8) CrPC के अधीन आगे की विवेचना की मांग करते हुए एक नया आवेदन दायर किया:
    • ट्रायल कोर्ट ने इस आवेदन को खारिज कर दिया। 
    • उच्च न्यायालय ने इसे पुनरीक्षण में अनुमति दी, 
    • जिसके परिणामस्वरूप 2 दिसंबर, 2021 को एक अतिरिक्त आरोप पत्र दायर किया गया।
  • अपीलकर्त्ता ने 14 मार्च 2022 को दायर एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से आगे की विवेचना के निर्देश देने वाले उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी।
  • प्रमुख समय बिंदु:
    • घटना एवं आरोप पत्र के बीच का समय: लगभग 3.5 महीने।
    • आरोप पत्र एवं धारा 311 के पहले आवेदन के बीच का समय: लगभग 6 वर्ष।
    • घटना के बाद से बीता कुल समय: बिना वाद के निष्कर्ष के 11 वर्ष से अधिक।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब पुलिस ने पहले ही आरोप पत्र दाखिल कर दिया है, तो आगे की विवेचना को "सच का पता लगाने एवं की जाने वाली विवेचना" के रूप में अनुमति नहीं दी जा सकती। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी संख्या 1 (मृतक की पत्नी) ने 18 मार्च, 2017 को PW-2 के रूप में अपनी विवेचना के दौरान अतिरिक्त साक्षियों या विवेचना की विफलताओं के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं किया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय आगे की विवेचना का आदेश देने के लिये कोई ठोस विधिक तर्क देने में विफल रहा, केवल इसका हवाला दिया:
    • धारा 311 याचिका का अस्वीकार
    • प्रतिवादी संख्या 1 के प्रति संभावित पूर्वाग्रह
    • PW-1 का पक्षद्रोही हो जाना
    • मामला हत्या का है
  • न्यायालय ने यह महत्त्वपूर्ण पाया कि राज्य ने शुरू में ट्रायल कोर्ट एवं उच्च न्यायालय दोनों स्तरों पर आगे की विवेचना का विरोध किया था, तथा बिना कोई ठोस औचित्य बताए उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपना रुख बदल दिया।
    • न्यायालय ने वास्तविक आधारों पर वैध विलंब एवं अनुचित विलंब के बीच अंतर करते हुए इस मामले को अनुचित श्रेणी में रखा।
  • न्यायालय ने विधि के शासन के एक पहलू के रूप में त्वरित न्याय के महत्त्व पर जोर देते हुए कहा कि भले ही पक्षकार बिना किसी औचित्य के कार्यवाही में विलंब करने का प्रयास करें, लेकिन न्यायालयों को ऐसी विलंब को रोकने के लिये कार्यवाही करनी चाहिये। 
  • न्यायालय ने विशेष रूप से पारिवारिक कानून की कार्यवाही में "अपमानजनक एवं अविश्वसनीय कथनों" के साथ तुच्छ दलीलों एवं याचिकाओं को दायर करने के विषय में चिंता व्यक्त की।
  • न्यायालय ने कहा कि मामले को बिना निष्कर्ष के ग्यारह वर्षों तक विलंबित किया गया, जो पीड़ितों, अभियुक्तों एवं बड़े पैमाने पर समाज के लिये समय पर न्याय की वैध अपेक्षा के विपरीत है। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि इस स्तर पर रिकॉर्ड में अतिरिक्त आरोप पत्र जोड़ना स्थापित विधिक सिद्धांतों के विपरीत होगा।

BNSS की धारा 193 क्या है?

परिचय:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 173 के अनुसार, विवेचना पूरी होने के बाद प्रभारी अधिकारी को अपराध का संज्ञान लेने के लिये अधिकृत मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिये। 
  • यह रिपोर्ट, जिसे आमतौर पर पुलिस रिपोर्ट या चार्जशीट के रूप में जाना जाता है, में यह विवरण होना चाहिये कि क्या कोई अपराध किया गया है, अभियुक्तों के नाम, एकत्र किये गए साक्ष्य की प्रकृति और क्या अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया है।
  • प्रावधान में यह भी कहा गया है कि जिन मामलों में आरोपी को जमानत पर रिहा किया गया है, वहाँ रिपोर्ट में यह भी बताया जाना चाहिये कि क्या शिकायतकर्त्ता को ऐसी रिहाई पर आपत्ति करने के उनके अधिकार के विषय में सूचित किया गया है। 
  • नए आपराधिक विधि के अंतर्गत यह प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 193 के अधीन दिया गया है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 193 के विधिक प्रावधान

  • BNSS की धारा 193 विवेचना पूरी होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट से संबंधित है।
  • अस्थायी आवश्यकताएँ:
    • सभी विवेचना बिना किसी अनावश्यक विलंब के पूरी की जानी चाहिये। 
    • विशिष्ट अपराधों (भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64-68, 70-71 एवं POCSO अधिनियम की धारा 4, 6, 8, 10) के लिये, सूचना दर्ज होने की तिथि से दो महीने के अंदर विवेचना पूरी की जानी चाहिये।
  • रिपोर्टिंग आवश्यकताएँ:
    • पूरा होने पर, अधिकारी को एक सशक्त मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजनी होगी। 
    • रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये इलेक्ट्रॉनिक संचार की अनुमति है।
  • रिपोर्ट में निम्नलिखित निर्दिष्ट तत्त्व शामिल होने चाहिये:
    • पक्षों के नाम
    • सूचना की प्रकृति
    • मामले की परिस्थितियों से परिचित व्यक्तियों के नाम
    • क्या अपराध किया गया है तथा किसके द्वारा किया गया है
    • आरोपी की गिरफ्तारी की स्थिति
    • बॉन्ड/ज़मानत पर रिहाई की स्थिति
    • अभिरक्षा अग्रेषित करने की सूचना 
    • विशिष्ट अपराधों के लिये चिकित्सा परीक्षण रिपोर्ट
  • संचार दायित्व:
    • अधिकारियों को 90 दिनों के भीतर विवेचना की प्रगति की सूचना गुप्तचर/पीड़ित को देनी होगी।
    • संचार किसी भी माध्यम से हो सकता है, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक माध्यम भी शामिल है।
    • राज्य सरकार के नियमों के अनुसार की गई कार्यवाही की सूचना मूल गुप्तचर को अवश्य दी जानी चाहिये।
  • पर्यवेक्षी प्रावधान:
    • जहाँ नियुक्त किया गया है, वरिष्ठ अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश तक आगे की विवेचना का निर्देश दे सकते हैं। 
    • राज्य सरकार के निर्देशों के अनुसार वरिष्ठ अधिकारियों के माध्यम से रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता हो सकती है।
  • दस्तावेज़ीकरण आवश्यकताएँ:
    • अभियोजन के लिये सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ रिपोर्ट के साथ भेजे जाने चाहिये। 
    • प्रस्तावित अभियोजन साक्षियों के अभिकथन शामिल किये जाने चाहिये। 
    • अधिकारी उन अभिकथानों के हिस्सों को हटाने का अनुरोध कर सकते हैं जो अप्रासंगिक या अनुपयुक्त माने जाते हैं।
  • आगे की विवेचना के प्रावधान:
    • प्रारंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद आगे की विवेचना की अनुमति दी जाती है। 
    • अतिरिक्त साक्ष्य के लिये आगे की रिपोर्ट अग्रेषित करने की आवश्यकता होती है। 
    • वाद के दौरान, आगे की विवेचना के लिये न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता होती है। 
    • ऐसी विवेचना 90 दिनों के अंदर पूरी होनी चाहिये। 
    • न्यायालय 90-दिन की अवधि बढ़ा सकती है।
  • प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय:
    • मजिस्ट्रेट बॉण्ड के निर्वहन के संबंध में आदेश दे सकते हैं।
    • आरोपी के लिये रिपोर्ट की निर्दिष्ट संख्या में प्रतियाँ प्रस्तुत की जानी चाहिये।
    • रिपोर्ट का इलेक्ट्रॉनिक संचार एक वैध सेवा मानी जाती है।