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आपराधिक कानून
SC/ST अधिनियम के अंतर्गत साशय अपमान के लिये प्रावधान
08-Oct-2024
छिन्दर सिंह बनाम राज्य "वर्तमान मामले में तथ्य समान हैं तथा भगवान सहाय मामले में की गई टिप्पणियाँ यहाँ भी लागू होती हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि याचिकाकर्त्ता को इसका लाभ क्यों न दिया जाए।" न्यायमूर्ति अरुण मोंगा |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय ने छिंदर सिंह बनाम राज्य के मामले में माना है कि ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (r) के अंतर्गत आरोप के लिये अपमान सार्वजनिक स्थान पर किया जाना चाहिये।
छिंदर सिंह बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, शिकायतकर्त्ता ने अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज कराई तथा उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1908 (CrPC) की धारा 156 (3) के अंतर्गत विवेचना के लिये पुलिस स्टेशन को भेज दिया गया।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई, तथा विवेचना प्रारंभ की गई जहाँ पुलिस द्वारा एक नकारात्मक रिपोर्ट दर्ज की गई।
- शिकायतकर्त्ता ने रिपोर्ट के विरुद्ध विरोध याचिका दायर की तथा साक्षियों के बयान CrPC की धारा 200 एवं 202 के अधीन दर्ज किये गए।
- यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्त्ता ने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करके उनका अपमान किया था तथा उनके शपथपत्रों के विषय में उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (r) के अंतर्गत संज्ञान लिया।
- इससे व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने विशेष न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की जिसे खारिज कर दिया गया।
- इससे व्यथित होकर वर्तमान याचिका राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि:
- ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (r) के अनुसार जब कोई व्यक्ति जो ST/SC से संबंधित नहीं है, सार्वजनिक स्थान पर ST/SC से संबंधित व्यक्ति का अपमान या अपमान करने का प्रयास करता है तो वह दण्ड का पात्र होगा।
- वर्तमान मामले में शिकायतकर्त्ता ने स्वयं अपने शपथपत्रों की पुष्टि के लिये याचिकाकर्त्ता से मुलाकात की तथा दर्ज किये गए अभिकथनों से यह संकेत नहीं मिलता है कि टिप्पणी सार्वजनिक रूप से की गई थी।
- बाद में यह प्रमाणित किया गया कि जिस समय यह टिप्पणी की गई थी, उस समय तीन साक्षी उपस्थित थे, लेकिन शिकायत दर्ज किये जाने के समय ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया गया था।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने उच्चतर न्यायालयों के कुछ निर्णयों का उदाहरण दिया, जहाँ यह माना गया था कि नकारात्मक रिपोर्ट के विरुद्ध निर्णय लेने के लिये न्यायालय को लिखित में कारण बताना चाहिये, जबकि वर्तमान मामले में ट्रायल कोर्ट ऐसा करने में विफल रहा।
- इसलिये, राजस्थान उच्च न्यायालय ने वर्तमान याचिका को स्वीकार कर लिया तथा ट्रायल कोर्ट के आदेश को खारिज कर दिया।
ST/SC (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 क्या है?
अधिनियम का परिचय:
- SC/ST अधिनियम 1989 संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जो SC और ST समुदायों के सदस्यों के विरुद्ध भेदभाव को प्रतिबंधित करने तथा उनके विरुद्ध अत्याचारों को रोकने के लिये बनाया गया है।
- यह अधिनियम 11 सितंबर 1989 को भारत की संसद में पारित किया गया था तथा 30 जनवरी 1990 को अधिसूचित किया गया था।
- यह अधिनियम इस निराशाजनक वास्तविकता की भी मान्यता है कि अनेक उपाय करने के बावजूद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियाँ उच्च जातियों के हाथों विभिन्न अत्याचारों का शिकार हो रही हैं।
- यह अधिनियम भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 15, 17 एवं 21 में उल्लिखित संवैधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है, जिसका दोहरा उद्देश्य इन कमजोर समुदायों के सदस्यों की सुरक्षा के साथ-साथ जाति आधारित अत्याचारों के पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास प्रदान करना है।
SC/ST (संशोधन) अधिनियम, 2015:
- इस अधिनियम को और अधिक कठोर बनाने के उद्देश्य से वर्ष 2015 में निम्नलिखित प्रावधानों के साथ इसमें संशोधन किया गया:
- अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिक मामलों को अपराध के रूप में मान्यता दी गई।
- इसने धारा 3 में कई नए अपराध जोड़े तथा पूरे धारा को फिर से क्रमांकित किया क्योंकि मान्यता प्राप्त अपराध लगभग दोगुना हो गया।
- इस अधिनियम ने अध्याय IVA धारा 15A (पीड़ितों और साक्षियों के अधिकार) को जोड़ा, तथा अधिकारियों द्वारा कर्त्तव्य की उपेक्षा एवं उत्तरदायी तंत्र को अधिक सटीक रूप से परिभाषित किया।
- इसमें विशेष न्यायालयों एवं विशेष सरकारी अभियोजकों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- सभी स्तरों पर लोक सेवकों के संदर्भ में इस अधिनियम ने जानबूझकर की गई उपेक्षा को परिभाषित किया।
SC/ST (संशोधन) अधिनियम, 2018:
- पृथ्वीराज चौहान बनाम भारत संघ (2020) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने अत्याचार निवारण अधिनियम में संसद के 2018 संशोधन की संवैधानिक वैधता को यथावत रखा। इस संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- इसने मूल अधिनियम में धारा 18A को जोड़ा।
- यह अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध विशिष्ट अपराधों को अत्याचार के रूप में चित्रित करता है तथा इन कृत्यों का सामना करने के लिये रणनीतियों का वर्णन करता है और दण्ड निर्धारित करता है।
- यह प्रावधानित करता है कि कौन से कृत्य "अत्याचार" माने जाते हैं तथा अधिनियम में सूचीबद्ध सभी अपराध संज्ञेय हैं। पुलिस बिना वारंट के अपराधी को गिरफ़्तार कर सकती है और न्यायालय से कोई आदेश लिये बिना मामले की जाँच शुरू कर सकती है।
- अधिनियम में सभी राज्यों से प्रत्येक जिले में विद्यमान सत्र न्यायालय को विशेष न्यायालय में परिवर्तित करने का आह्वान किया गया है, ताकि इसके अंतर्गत पंजीकृत मामलों की सुनवाई की जा सके तथा विशेष न्यायालयों में मामलों की सुनवाई के लिये लोक अभियोजकों/विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
- यह राज्यों के लिये प्रावधान करता है कि वे उच्च स्तर की जातिगत हिंसा वाले क्षेत्रों को "अत्याचार-प्रवण" घोषित करें तथा कानून एवं व्यवस्था की निगरानी तथा उसे बनाए रखने के लिये योग्य अधिकारियों को नियुक्त करें।
- यह गैर-SC/ST लोक सेवकों द्वारा जानबूझकर अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने पर दण्ड का प्रावधान करता है।
- इसे राज्य सरकारों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनों द्वारा लागू किया जाता है, जिन्हें उचित केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है।
ऐतिहासिक मामले:
- भगवान सहाय खंडेलवाल एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (2006):
- वर्तमान मामले में यह माना गया कि जब किसी याचिका के बाद नकारात्मक रिपोर्ट आती है तो मजिस्ट्रेट को याचिका स्वीकार करते समय नकारात्मक रिपोर्ट पर चर्चा करनी चाहिये और ऐसा करने से पहले न्यायिक विवेक का प्रयोग करना चाहिये तथा पर्याप्त कारण बताते हुए आदेश पारित करना चाहिये।
- संपत सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1992):
- वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नकारात्मक रिपोर्ट से असहमत होने से पहले मजिस्ट्रेट को ऐसा करने के लिये पर्याप्त कारण बताने होंगे।
SC/ST अधिनियम की धारा 3(1)(r) क्या है?
- इस अधिनियम की धारा 3 अत्याचार के अपराधों के लिये दण्ड से संबंधित है।
- धारा 3(1)(r) में कहा गया है कि जो कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य न होते हुए भी किसी सार्वजनिक स्थान पर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को अपमानित करने के आशय से जानबूझकर अपमानित या डराता है, उसे कम से कम छह महीने का कारावास एवं पाँच बर्ष तक की सजा एवं अर्थदण्ड से दण्डित किया जाएगा।
आपराधिक कानून
शासकीय गुप्त बात अधिनियम
08-Oct-2024
सुभाष रामभाऊ अठारे बनाम महाराष्ट्र राज्य “पुलिस द्वारा किया गया कोई भी कार्य शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 की धारा 3 के अंतर्गत बिल्कुल भी शामिल नहीं है।” न्यायमूर्ति एस.जी. चपलगांवकर एवं न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति एस.जी. चपलगांवकर एवं न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी की पीठ ने कहा कि पुलिस थाने में किया गया कोई भी कार्य शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 (OSA) की धारा 3 के अंतर्गत बिल्कुल भी शामिल नहीं है।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुभाष रामभाऊ अठारे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में यह निर्णय दिया।
सुभाष रामभाऊ अठारे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामला पाथर्डी पुलिस स्टेशन में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 120B एवं धारा 506 और शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 (OSA) की धारा 3 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने से संबंधित है।
- आवेदक ने आरोप लगाया है कि FIR मिथ्या एवं मनगढ़ंत है।
- आवेदक मुंबई पुलिस में तैनात एक पुलिस कांस्टेबल है, हालाँकि उसका मूल निवास पाथर्डी है।
- 21 अप्रैल 2022 को तीन व्यक्तियों ने आवेदक के घर में उस समय बलात प्रवेश किया जब आवेदक घर पर नहीं थे, हालाँकि माँ घर पर थी।
- इन तीनों व्यक्तियों ने माँ के साथ मारपीट की तथा धमकी दी और साथ ही उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाई।
- हालाँकि पाथर्डी पुलिस स्टेशन ने 26 अप्रैल 2022 को केवल असंज्ञेय मामला दर्ज किया।
- जब आवेदक ने पूछा कि केवल NCR मामला क्यों दर्ज किया गया, तो विवेचना अधिकारी ने उसे गंदी गाली दी तथा उसके साथ दुर्व्यवहार किया।
- आवेदक को कथित FIR में सूचक द्वारा 2 मई 2022 को बुलाया गया तथा उसे मां द्वारा दर्ज की गई शिकायत वापस लेने के लिये धमकाया और अत्याचार अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज करने की भी धमकी दी।
- आवेदक ने उक्त धमकी के संबंध में ऑडियो रिकॉर्डिंग की थी तथा पुलिस महानिदेशक को शिकायत की थी।
- आवेदक का मामला यह है कि वर्तमान FIR दर्ज की गई है।
- आवेदक ने आरोप लगाया है कि FIR स्वयं मनगढ़ंत एवं मिथ्या आधारित है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- यहाँ पर विचार करने योग्य पहला तथ्य यह है कि कथित रूप से पूरा प्रकरण पुलिस स्टेशन में हुआ।
- इस मामले में पुलिस ने OSA लगाया।
- न्यायालय ने पाया कि OSA की धारा 2 (8) में "निषिद्ध स्थान" को परिभाषित किया गया है तथा पुलिस स्टेशन इस परिभाषा में शामिल नहीं है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि पुलिस थाने में किया गया कोई भी कृत्य OSA की धारा 3 के अंतर्गत बिल्कुल भी शामिल नहीं है। इसलिये, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उक्त धारा के तत्त्व बिल्कुल भी निहित नहीं होते हैं।
- न्यायालय ने आगे यह देखना संबंधित न्यायालय पर छोड़ दिया कि क्या IPC की धारा 120बी और धारा 506 के अधीन अपराध बनते हैं या नहीं।
- इस प्रकार, न्यायालय ने आंशिक रूप से आवेदन को स्वीकार कर लिया।
शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 क्या है?
परिचय:
- इस अधिनियम की उत्पत्ति ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से मानी जा सकती है।
- इस अधिनियम का उद्देश्य जासूसी, राजद्रोह एवं राष्ट्र की अखंडता के लिये अन्य संभावित खतरों का सामना करना है।
- इस अधिनियम के अंतर्गत जासूसी, 'गुप्त' सूचना साझा करना, वर्दी का अनाधिकृत उपयोग, निषिद्ध/प्रतिबंधित क्षेत्रों में पुलिस या सशस्त्र बलों के साथ हस्तक्षेप करना आदि को दण्डनीय अपराध माना गया है।
- यह मुख्य कानून है जो राष्ट्रीय सुरक्षा को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है:
- जासूसी करना या किसी प्रतिबंधित जगह में प्रवेश करना आदि
- दोषपूर्ण संचार
- जासूसों को पनाह देना
- वर्दी का अनाधिकृत उपयोग, रिपोर्ट में गड़बड़ी
- किसी प्रतिबंधित जगह के पास पुलिस या सेना के कार्य में दखलंदाजी
- दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को 14 वर्ष तक की जेल की सजा हो सकती है।
शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 की धारा 3:
- दण्ड प्रावधानित करने वाली गतिविधियाँ-
- यह धारा यह प्रावधान करती है कि सूचीबद्ध कार्य राज्य की सुरक्षा या हितों के प्रतिकूल उद्देश्य से किये जाने चाहिये।
- सूचीबद्ध किये गए कार्य जो दण्डनीय बनाए गए हैं वे हैं:
- किसी निषिद्ध स्थान पर पहुँचता है, उसका निरीक्षण करता है, उसके ऊपर से गुजरता है या उसके आस-पास रहता है या उसमें प्रवेश करता है; या
- कोई ऐसा रेखाचित्र, योजना, मॉडल या नोट बनाता है जो किसी शत्रु के लिये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपयोगी हो सकता है या उपयोगी होने का आशय रखता है; या
- कोई गुप्त सरकारी कोड या पासवर्ड, या कोई रेखाचित्र, योजना, मॉडल, लेख या नोट या अन्य दस्तावेज या सूचना प्राप्त करना, एकत्र करना, रिकॉर्ड करना या प्रकाशित करना या किसी अन्य व्यक्ति को संप्रेषित करना, जो किसी शत्रु के लिये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपयोगी हो सकती है या होने का आशय रखती है या जो किसी ऐसे मामले से संबंधित है जिसके प्रकट होने से भारत की संप्रभुता एवं अखंडता, राज्य की सुरक्षा या विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों पर प्रभाव पड़ने की संभावना है।
- उपरोक्त कार्यवाही के लिये दण्ड-
- जहाँ अपराध रक्षा, शस्त्रागार, नौसेना, सैन्य या वायु सेना प्रतिष्ठान या स्टेशन, खदान, बारूदी सुरंग, कारखाने, डॉकयार्ड, शिविर, जहाज या विमान के किसी कार्य के संबंध में या सरकार के नौसेना, सैन्य या वायु सेना के मामलों के संबंध में या किसी गुप्त आधिकारिक कोड के संबंध में किया जाता है, तो दण्ड चौदह वर्ष तक कारावास है।
- अन्य मामलों में, दण्ड तीन वर्ष तक है।
धारा |
प्रावधान |
धारा 4 |
विदेशी एजेंटों के साथ संचार कुछ अपराधों के होने का साक्ष्य होगा |
धारा 5 |
सूचना आदि का दोषपूर्ण संचार |
धारा 6 |
वर्दी का अनाधिकृत उपयोग, रिपोर्ट में जालसाजी, छद्मवेश एवं झूठे दस्तावेज |
धारा 7 |
पुलिस अधिकारियों या संघ के सशस्त्र बलों के सदस्यों के कार्य में हस्तक्षेप करना |
धारा 8 |
अपराध किये जाने के संबंध में सूचना देने का कर्त्तव्य |
धारा 9 |
प्रयास, उकसावे, आदि |
धारा 10 |
जासूसों को शरण देने पर अर्थदण्ड |
धारा 15 |
कंपनियों द्वारा कारित अपराध |
सांविधानिक विधि
महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया
08-Oct-2024
मनीषा रवींद्र पानपाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य। "न्यायालय ने लोक पद संभालने में महिलाओं की चुनौतियों को पहचानने की आवश्यकता बताई है, तथा महिला प्रतिनिधियों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैये की निंदा की है।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत और उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय द्वारा तकनीकी आधार पर अयोग्य ठहराई गई एक महिला सरपंच को राहत प्रदान करना ग्रामीण शासन में महिलाओं के प्रति कारित भेदभावपूर्ण रवैये को दर्शाता है। न्यायालय ने निर्वाचित प्रतिनिधि, विशेष रूप से आरक्षित पद पर आसीन महिला को हटाने की गंभीरता पर बल दिया, तथा प्रशासनिक प्रक्रियाओं में व्यवस्थागत पूर्वाग्रहों की ओर इशारा किया जो नेतृत्व की भूमिकाओं में महिलाओं के अधिकार को चुनौती देते हैं।
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ ने मनीषा रवींद्र पानपाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
मनीषा रविन्द्र पानपाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मनीषा रवींद्र पानपाटिल को फरवरी 2021 में महाराष्ट्र के जलगांव जिले के विचखेड़ा ग्राम पंचायत का सरपंच (ग्राम प्रधान) चुना गया था।
- उनके चुनाव के बाद, कुछ ग्रामीणों (जिन्हें निजी प्रतिवादी कहा जाता है) ने उनके विरुद्ध अयोग्यता याचिका दायर की।
- अयोग्यता का आधार यह था कि वह कथित तौर पर अपनी सास के साथ सरकारी जमीन पर बने घर में रह रही थीं।
- सुश्री पानपाटिल ने इन आरोपों का विरोध करते हुए कहा कि:
- वह अपने पति एवं बच्चों के साथ किराए के मकान में अलग रहती थी।
- जिस घर की बात हो रही है, उसकी हालत इतनी खराब थी कि उसमें रहना संभव नहीं था।
- स्थानीय कलेक्टर ने उन्हें सरपंच के पद पर बने रहने से अयोग्य घोषित करते हुए एक आदेश जारी किया।
- सुश्री पानपाटिल ने इस निर्णय के विरुद्ध संभागीय आयुक्त के समक्ष अपील की, जिन्होंने कलेक्टर के आदेश की पुष्टि की।
- इसके बाद उन्होंने इन आदेशों को चुनौती देते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय (औरंगाबाद पीठ) में एक रिट याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय ने 3 अगस्त 2023 को तकनीकी आधार पर उनकी याचिका खारिज कर दी।
- इसके बाद सुश्री पानपाटिल ने विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील की।
- यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि जब उन्होंने सरपंच पद के लिये नामांकन पत्र दाखिल किया था, तब भूमि अतिक्रमण के विषय में कोई आपत्ति नहीं उठाई गई थी।
विशेष अनुमति याचिका
- भारत में विशेष अनुमति याचिका (SLP) भारत की न्यायिक प्रणाली में एक प्रमुख स्थान रखती है।
- उच्चतम न्यायालय को केवल उन मामलों में SLP पर विचार करने का अधिकार है, जब विधि का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हो।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 भारत के उच्चतम न्यायालय को भारत के क्षेत्र में किसी भी न्यायालय/न्यायाधिकरण द्वारा पारित किसी भी मामले या कारण में किसी भी निर्णय या आदेश या डिक्री के विरुद्ध अपील करने के लिये विशेष अनुमति देने की विशेष शक्ति प्रदान करता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने इसे ऐसे मामले के रूप में पहचाना, जहाँ गांव के निवासी एक महिला को अपने निर्वाचित सरपंच के रूप में स्वीकार करने में असमर्थ थे तथा एक महिला नेता के निर्देशों का पालन करने के लिये प्रतिरोधी थे।
- न्यायालय ने नोट किया कि निजी प्रतिवादियों ने कोई व्यावसायिक कदाचार न पाते हुए, अपीलकर्त्ता को पद से हटाने के लिये उस पर आक्षेप लगाने का सहारा लिया।
- न्यायालय ने पाया कि विभिन्न स्तरों पर सरकारी अधिकारियों ने आरोपों की पुष्टि के लिये उचित तथ्य की खोज का प्रयास किये बिना प्रशासनिक एवं सारांश आदेश पारित किये।
- न्यायालय को अपीलकर्त्ता द्वारा सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के आरोपों को प्रमाणित करने के लिये रिकॉर्ड पर कोई विश्वसनीय या ठोस सामग्री नहीं मिली।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि एक निर्वाचित प्रतिनिधि, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र की एक महिला को हटाने के मामले में अधिकारियों द्वारा अनुचित लापरवाही बरती गई।
- न्यायालय ने स्वीकार किया कि जो महिलाएँ सार्वजनिक कार्यालयों पर कब्जा करने में सफल होती हैं, वे काफी संघर्ष के बाद ही ऐसा करती हैं।
- न्यायालय ने आरोपों की प्रकृति एवं परिणामी दण्ड (कार्यालय से हटाना) को अत्यधिक असंगत पाया।
- न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि जमीनी स्तर पर इस तरह की भेदभावपूर्ण कार्यवाहियाँ लैंगिक समानता एवं सार्वजनिक कार्यालयों में महिला सशक्तिकरण की दिशा में देश की प्रगति को कमजोर करती हैं।
- न्यायालय ने निर्देश दिया कि अधिकारियों को स्वयं को संवेदनशील बनाने तथा महिला प्रतिनिधियों के लिये उनके निर्वाचित पदों पर सेवा करने के लिये अधिक अनुकूल वातावरण बनाने की दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है।
- न्यायालय ने कहा कि निर्वाचित निकायों में पर्याप्त महिला प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के प्रयास के व्यापक संदर्भ को देखते हुए इस मामले का उपचार विशेष रूप से चिंताजनक था।
भारत में महिलाओं की वर्तमान दशा बदलने वाले ऐतिहासिक मामले
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997):
- कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को परिभाषित किया गया तथा इसकी रोकथाम के लिये दिशा-निर्देश प्रदान किये गए।
- महिलाओं के लिये सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के लिये नियोक्ताओं को उत्तरदायी बनाया गया।
- कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013 तक कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न पर प्राथमिक संविधि बना रहा।
- मैरी रॉय बनाम केरल राज्य (1986):
- सीरियाई ईसाई महिलाओं को अपने पिता की संपत्ति में बराबर अंश पाने का अधिकार दिया गया।
- त्रावणकोर ईसाई उत्तराधिकार अधिनियम को अमान्य कर दिया गया, जिसके अंतर्गत महिलाओं को सीमित उत्तराधिकार अधिकार दिये गए थे।
- संपत्ति अधिकारों के संबंध में पर्सनल लॉ में महत्त्वपूर्ण सुधार किये गए।
- अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) (शाह बानो मामला):
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण पाने के अधिकार को यथावत रखा।
- निर्णय दिया कि मुस्लिम महिलाओं को इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण पाने का अधिकार है।
- समान नागरिक संहिता एवं पर्सनल लॉ पर देशव्यापी चर्चा शुरू की।
- लक्ष्मी बनाम भारत संघ (2014):Laxmi v. Union of India (2014):
- एसिड की बिक्री एवं एसिड अटैक पीड़ितों के लिये क्षतिपूर्ति पर कड़े नियम बनाए गए।
- एसिड अटैक को गैर-ज़मानती अपराध बनाया गया।
- अस्पतालों को एसिड अटैक पीड़ितों को मुफ्त इलाज उपलब्ध कराने के लिये बाध्य किया गया।
- इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (सबरीमाला केस, 2018):
- सबरीमाला मंदिर में मासिक धर्म की आयु वाली महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध हटा दिया गया।
- माना गया कि शारीरिक विशेषताएँ संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने का आधार नहीं हो सकतीं।
- इस बात पर बल दिया गया कि बहिष्कार संबंधी प्रथाएँ पूजा के अधिकार का उल्लंघन करती हैं।
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018):
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 497 को निरस्त करके व्यभिचार को अपराध से मुक्त कर दिया गया।
- महिलाओं को उनके पति की संपत्ति मानने की धारणा को खारिज कर दिया गया।
- विवाह के अंतर्गत महिलाओं के यौन स्वायत्तता के अधिकार पर बल दिया गया।
- विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020):
- संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में बेटियों को समान सहदायिक अधिकार दिये गए।
- अधिकार को पूर्वव्यापी बनाया गया, जो जीवित सहदायिकों की जीवित बेटियों पर भी लागू होगा।
- पिछले परस्पर विरोधी निर्णयों द्वारा उत्पन्न अस्पष्टता को ठीक किया गया।
- सचिव, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया (2020):
- भारतीय सेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन दिया गया।
- शारीरिक सीमाओं एवं सामाजिक मानदण्डों पर आधारित तर्कों को खारिज किया गया।
- इस बात पर बल दिया गया कि महिला अधिकारियों को समान अवसर न देना भेदभावपूर्ण है।
- अपर्णा भट बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021):
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने यौन उत्पीड़न के एक मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई ज़मानत की समस्याग्रस्त शर्तों पर विचार किया, जिसमें आरोपी को ज़मानत की शर्तों के अंतर्गत पीड़िता के पास राखी का धागा एवं मिठाई लेकर जाने का आदेश दिया गया था।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी स्थितियाँ यौन अपराधों को महत्त्वहीन बनाती हैं, हानिकारक लैंगिक रूढ़ियों को बढ़ावा देती हैं, तथा संभावित रूप से पीड़ितों को उनके उत्पीड़कों के साथ संपर्क करने के लिये विवश करके उन्हें और अधिक आघात पहुँचाती हैं।
- निर्णय में भारत भर की न्यायालयों के लिये व्यापक दिशा-निर्देश दिये गए हैं, जिसमें उन्हें लैंगिक रूढ़िवादिता, पितृसत्तात्मक धारणाओं तथा ऐसी किसी भी स्थिति से बचने का निर्देश दिया गया है जो यौन अपराधों की गंभीरता को कम करती है या अभियुक्त एवं पीड़ित के बीच संपर्क को अनिवार्य बनाती है।
- न्यायालय ने न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं अभियोजकों के लिये लैंगिक संवेदनशीलता प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया तथा राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी और भारतीय बार काउंसिल को विधिक शिक्षा एवं न्यायिक प्रशिक्षण में इन मुद्दों को संबोधित करने के लिये उपयुक्त पाठ्यक्रम विकसित करने का निर्देश दिया।
- निर्णय में विचारकों के रूप में न्यायाधीशों की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला गया तथा लिंग-संबंधी अपराधों के प्रति संवेदनशील रहते हुए निष्पक्ष बने रहने और ऐसी भाषा या शर्तों से बचने के उनके कर्त्तव्य पर बल दिया गया जो न्याय प्रणाली में पीड़ितों के विश्वास को कमजोर कर सकती हैं।