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सिविल कानून
अनुच्छेद 226 के तहत CIRP
21-Oct-2024
KSK महानदी पावर कंपनी लिमिटेड के CoC बनाम उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अन्य। “उच्च न्यायालय के पास CIRP को स्थगित करने का निर्देश देकर अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने का कोई कारण नहीं था” भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चत्तम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में KSK महानदी पावर कंपनी लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अन्य के CoC के मामले में उच्चत्तम न्यायालय ने माना है कि तेलंगाना उच्च न्यायालय ने दिवालियापन कानूनों में निर्धारित प्रक्रिया का उल्लंघन किया है और उच्चत्तम न्यायालय CIRP प्रक्रिया को स्थगित करने के उच्च न्यायालय के निर्णय को अस्वीकार करता है।
KSK महानदी पावर कंपनी लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड एवं अन्य मामले की CoC की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, KSK महानदी पावर कंपनी लिमिटेड (याचिकाकर्त्ता), जोकि विद्युत उत्पादन में लगी एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी है, वर्तमान में कॉरपोरेट इनसॉल्वेंसी रिज़ाॅल्यूशन प्रक्रिया (CIRP) से गुज़र रही है।
- उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (प्रतिवादी) ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत तेलंगाना उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
- याचिका में याचिकाकर्त्ता कंपनी के CIRP को दो अन्य कंपनियों के साथ एकीकृत करने की मांग की गई थी।
- तीनों कंपनियों के संबंधित समाधान पेशेवरों के माध्यम से राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) के समक्ष एकीकरण का अनुरोध किया गया था।
- इससे पहले, एक वित्तीय ऋणदाता ने इन कॉर्पोरेट देनदारों के लिये CIRP के समान समेकन की मांग करते हुए NCLT के समक्ष एक आवेदन दायर किया था।
- NCLT ने 12 फरवरी 2021 को इस आवेदन को खारिज कर दिया।
- इसके बाद वित्तीय ऋणदाता ने NCLT की अस्वीकृति को चुनौती देते हुए राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) में अपील दायर की।
- इस अपील के लंबित रहने के दौरान, वित्तीय ऋणदाता ने NCLT में दो और आवेदन दायर किये।
- NCLT ने समाधान प्रक्रिया को स्थगित कर दिया तथा CIRP कार्यवाही पर रोक लगा दी, जो NCLAT के समक्ष लंबित अपील के परिणाम के अधीन है।
- तेलंगाना उच्च न्यायालय ने दोनों कंपनियों की CIRP को एकीकृत करने से इनकार कर दिया और दोनों कंपनियों की CIRP कार्यवाही स्थगित कर दी।
- याचिकाकर्त्ता कंपनी की ऋणदाताओं की समिति (CoC) ने तेलंगाना उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को चुनौती देते हुए उच्चत्तम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चत्तम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- उच्च न्यायालय के पास CIRP को स्थगित करने का निर्देश देने का कोई औचित्य नहीं था।
- यह निर्णय उच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए लिया गया था।
- उच्च न्यायालय ने याचिका में मांगी गई मुख्य राहत देने से इनकार कर दिया था, जो तीन कॉर्पोरेट संस्थाओं के CIRP के एकीकरण से संबंधित थी। इसके बावजूद, उच्च न्यायालय ने CIRP को स्थगित करने का निर्देश दिया।
- उच्चत्तम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 226 के तहत CIRP को स्थगित करने का उच्च न्यायालय का निर्देश दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता 2016 (IBC) में निर्धारित कानून के अनुशासन का उल्लंघन करता है।
- उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश सीओसी या अन्य प्रतिवादियों को नोटिस जारी किये बिना था, जो प्रक्रियात्मक अनियमितता थी।
- CIRP को स्थगित करने का निर्देश देकर उच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं का अतिक्रमण किया है।
- एक बार जब उच्च न्यायालय ने समेकन की मुख्य राहत देने से इनकार कर दिया, तो CIRP को स्थगित करने के लिये अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने का कोई कारण नहीं था।
- उच्चत्तम न्यायालय के विश्लेषण से पता चलता है कि उच्च न्यायालय द्वारा इस तरह के हस्तक्षेप से IBC में निर्धारित संरचित प्रक्रिया बाधित हो सकती है।
- उच्चत्तम न्यायालय ने पाया कि CIRP को स्थगित करने का उच्च न्यायालय का निर्णय अनुचित, प्रक्रियागत रूप से त्रुटिपूर्ण तथा दिवालियापन कानून ढाँचे के सिद्धांतों के साथ असंगत था।
वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 226 को कैसे लागू किया?
- अनुच्छेद 226 के तहत अधिकारिता:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने या किसी अन्य उद्देश्य के लिये सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण को रिट, निर्देश या आदेश जारी करने की शक्ति देता है।
- प्रारंभिक याचिका:
- प्रतिवादी कंपनी ने तेलंगाना उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के तहत एक याचिका दायर की, जिसमें तीन कंपनियों के CIRP को एकीकृत करने की मांग की गई।
- मुख्य राहत से इनकार:
- उच्च न्यायालय ने याचिका में मांगी गई मुख्य राहत, जोकि CIRP का एकीकरण था, देने से इनकार कर दिया।
- वैकल्पिक दिशा-निर्देश:
- मुख्य राहत देने से इनकार करने के बावजूद, उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए निर्देश जारी किया, जिसका सीधे तौर पर अनुरोध नहीं किया गया था।
- स्थगन आदेश:
- उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि समाधान प्रक्रिया को तब तक स्थगित रखा जाना चाहिये जब तक कि NCLT में नया आवेदन दायर न कर दिया जाए और उस पर निर्णय न हो जाए।
- समय-सीमा लागू की गई:
- उच्च न्यायालय ने NCLT को ऐसे किसी भी नए आवेदन की जाँच करने और दो सप्ताह के भीतर उचित आदेश पारित करने का भी निर्देश दिया।
- अंतरिम उपाय:
- यह स्थगन मूलतः एक अंतरिम उपाय था, जिसे उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए लगाया था।
- उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 226 के तहत अपनी व्यापक शक्तियों का प्रयोग करते हुए दिशा-निर्देश जारी किया, जिससे चल रही CIRP प्रभावित हुई।
CIRP क्या है?
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सिविल कानून
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप का दायरा
21-Oct-2024
विवेक नायक (मृत) एवं अन्य बनाम मध्यस्थ / कलेक्टर अलीगढ़ एवं 3 अन्य “यदि दो दृष्टिकोण संभव थे, तो अधिकरण ने एक दृष्टिकोण अपनाया है और उक्त आधार पर आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती।" न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की पीठ ने कहा कि आदेश को तब तक चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक कि पक्ष यह साबित नहीं कर देते कि आदेश स्पष्ट रूप से अवैध या मनमाना है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवेक नायक (मृत) एवं अन्य बनाम मध्यस्थ/कलेक्टर अलीगढ़ एवं 3 अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
विवेक नायक (मृत) एवं अन्य बनाम मध्यस्थ/कलेक्टर अलीगढ़ एवं 3 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 10 जून, 2012 की अधिसूचना द्वारा गाज़ियाबाद के निकट भूमि अधिग्रहण के लिये आपत्तियाँ आमंत्रित की गई थीं।
- इसके अनुसरण में अपीलकर्त्ताओं ने आपत्ति दायर की और विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी द्वारा मुआवज़ा निर्धारित करते हुए एक निर्णय पारित किया गया।
- उक्त निर्णय से व्यथित होकर मध्यस्थ/कलेक्टर, अलीगढ़ के समक्ष एक आवेदन दायर किया गया, जिसमें छह मुद्दे तय किये गए।
- मध्यस्थ ने 29 सितंबर, 2013 के आदेश द्वारा सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित निर्णय को संशोधित किया।
- उपरोक्त आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्त्ताओं ने अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश, अलीगढ़ के समक्ष मध्यस्थता मामला संख्या 80/2013 पेश किया, जिसे 15 जनवरी, 2022 के निर्णय द्वारा खारिज कर दिया गया।
- इस मामले में अपीलकर्त्ताओं ने प्रस्तुत किया कि सक्षम प्राधिकारी ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर तथा पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 की धारा 26 के अनुसार पंचाट का निर्धारण करते समय बाज़ार मूल्य पर विचार नहीं किया।
- इसके अतीरिक्त, अपीलकर्त्ताओं ने प्रस्तुत किया कि उसे भारत संघ बनाम तरसेम सिंह (2019) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार क्षतिपूर्ति और ब्याज के वैध दावे से वंचित किया गया है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि रिकाॅर्ड के अवलोकन से पता चलता है कि आदेश उचित विचार-विमर्श के बाद पारित किया गया था तथा वाणिज्यिक दर के अनुसार मुआवज़ा न देने के लिये विस्तृत कारण बताए गए हैं।
- न्यायालय ने कहा कि यदि दो दृष्टिकोण संभव हैं और अधिकरण ने एक दृष्टिकोण के आधार पर आदेश दिया है तो उसे तब तक चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक कि पक्षकार यह साबित करने में सक्षम न हों कि आदेश स्पष्ट रूप से अवैध है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि क्षतिपूर्ति और ब्याज के भुगतान के संबंध में आधार स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त आधार भारत संघ बनाम तरसेम सिंह (2019) के मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद ही लिया गया था।
- दूसरे शब्दों में, न्यायालय ने कहा कि तरसेम सिंह के मामले में निर्णय लगभग छह वर्ष बाद आया।
- अतः न्यायालय ने अपीलें खारिज कर दीं।
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 37 के तहत अपील क्या है?
- A & C अधिनियम की धारा 37 में अपीलीय आदेश निर्धारित किये गए हैं।
- धारा 37 (1) एक सर्वोपरि खंड है जो यह प्रावधान करता है कि निम्नलिखित आदेशों के विरुद्ध अपील की जाएगी:
- धारा 8 के तहत पक्षों को माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करने से इनकार करना
- धारा 9 के तहत कोई उपाय प्रदान करना या प्रदान करने से इनकार करना
- धारा 34 के तहत मध्यस्थ निर्णय को रद्द करना या रद्द करने से इनकार करना
- धारा 37 (2) में प्रावधान है कि निम्नलिखित मामलों में मध्यस्थ अधिकरण के आदेश के विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकेगी:
- धारा 16 (2) या धारा 16 (3) में संदर्भित दलील को स्वीकार करना
- धारा 17 के तहत अंतरिम उपाय देना या देने से इनकार करना
- धारा 37 (3) में प्रावधान है कि:
- इस धारा के अंतर्गत अपील के आदेश के विरुद्ध कोई दूसरी अपील नहीं की जा सकेगी।
- इस धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उच्चतम न्यायालय में अपील करने के अधिकार को छीन ले।
A & C अधिनियम की धारा 34 और धारा 37 के बीच क्या संबंध है?
- A & C अधिनियम की धारा 34 में मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिये आवेदन का प्रावधान है।
- न्यायालय ने माना है कि अधिनियम की धारा 37 के तहत अपील में हस्तक्षेप का दायरा प्रतिबंधित है और उन्हीं आधारों के अधीन है जिन पर अधिनियम की धारा 34 के तहत किसी पंचाट को चुनौती दी जा सकती है।
- अधिनियम की धारा 37 के तहत शक्तियाँ अधिनियम की धारा 34 के तहत प्रदान किये गए हस्तक्षेप के दायरे से परे नहीं हैं।
- MMTC लिमिटेड बनाम वेदांता लिमिटेड (2019) के मामले में न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप अधिनियम की धारा 34 में निर्धारित प्रतिबंधों से आगे नहीं जा सकता है।
- धारा 37 के तहत अपील के मामले में न्यायालय को ऐसे समवर्ती निष्कर्षों को बाधित करने के लिये अत्यंत सतर्क और धीमा होना चाहिये।
A & C अधिनियम की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप के दायरे पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- कोंकण रेलवे कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम चिनाब ब्रिज प्रोजेक्ट अंडरटेकिंग (2023)
- यह निर्णय तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया था।
- न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 34 और धारा 37 के तहत अधिकारिता का दायरा सामान्य अपीलीय अधिकारिता की तरह नहीं होता है तथा न्यायालयों को मध्यस्थता के निर्णय में लापरवाही से हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
- तथ्यों पर वैकल्पिक दृष्टिकोण या संविदा की व्याख्या की संभावना मात्र से न्यायालयों को मध्यस्थता अधिकरण के निष्कर्षों को पलटने का अधिकार नहीं मिल जाता।
- पंजाब राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स सनमान राइस मिल्स एवं अन्य (2024):
- अधिनियम की धारा 37 की अपीलीय शक्ति अधिनियम की धारा 34 के दायरे में सीमित है।
- यह भी ध्यान रखना चाहिये कि अधिनियम की धारा 34 के तहत कार्यवाही प्रकृति में संक्षिप्त है और यह एक पूर्ण विकसित नियमित सिविल मुकदमे की तरह नहीं है। इसलिये, अधिनियम की धारा 37 का दायरा प्रकृति में बहुत अधिक संक्षिप्त है और एक सामान्य सिविल अपील की
- तरह नहीं है।
- इस तरह के पंचाट को तब तक नहीं छुआ जा सकता जब तक कि यह कानून के मूल प्रावधान; अधिनियम के किसी प्रावधान या समझौते की शर्तों के विपरीत न हो।
- अपीलीय न्यायालय के पास मध्यस्थ अधिकरण के समक्ष विवादित मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं होता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन पर मध्यस्थ अयाधिकरण का निर्णय सही है या गलत, जैसे कि वह एक
- सामान्य अपीलीय न्यायालय में बैठा हो।
पारिवारिक कानून
बाल विवाह का प्रभाव
21-Oct-2024
सोसायटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलंटरी एक्शन एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य “न्यायालय ने कहा कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिये केवल अभियोजन पर ध्यान केंद्रित करना पर्याप्त नहीं है; बाल विवाह की समस्या से निपटने में निवारण को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।” भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें अभियोजन की तुलना में निवारण को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने गरीबी और लैंगिक असमानता जैसे मुख्य कारणों के समाधान के लिये रणनीति तैयार करने पर ध्यान केंद्रित किया।
- व्यापक जागरूकता और अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न सरकारी मंत्रालयों को दिशा-निर्देश जारी किये गए।
- कानूनी कार्रवाई की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए न्यायालय ने केवल अभियोजन पर ध्यान केंद्रित करने के विरुद्ध चेतावनी दी, जो सामाजिक परिवर्तन लाने में अप्रभावी हैं।
सोसायटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलंटरी एक्शन एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?
- सोसायटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलंटरी एक्शन नामक एक गैर-सरकारी संगठन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की गई थी।
- इस मुद्दे पर भारत में डेढ़ शताब्दी से अधिक समय से विवाद चल रहा है, जिसका उल्लेख वर्ष 1885 में रुखमाबाई द्वारा टाइम्स ऑफ इंडिया को लिखे गए पत्र में मिलता है।
- NGO ने बाल विवाह के विरुद्ध बड़े पैमाने पर कार्य किया है और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 (PCMA) के अस्तित्व के बावजूद भारत में बाल विवाह की खतरनाक दर के बारे में चिंता जताई है।
- याचिकाकर्त्ता ने बाल विवाह रोकने में अधिकारियों की विफलता का उल्लेख किया तथा मांग की:
- मज़बूत प्रवर्तन तंत्र
- जागरूकता कार्यक्रमों का कार्यान्वयन
- बाल विवाह प्रतिषेध अधिकारियों की नियुक्ति
- बाल वधुओं के लिये व्यापक सहायता प्रणाली (शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और मुआवज़ा सहित)।
- मुद्दे का सांख्यिकीय संदर्भ:
- 2019-2021 राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार:
- 18 वर्ष से कम आयु की 23.3% लड़कियाँ विवाहित हैं।
- 21 वर्ष से कम आयु के 17.7% लड़के विवाहित हैं।
- यह NFHS-4 (2015-2016) की तुलना में कमी दर्शाता है, जिसमें बताया गया था:
- 26.8% लड़कियों का विवाह कानूनी आयु से कम आयु में हुआ।
- 20.3% लड़कों का विवाह कानूनी आयु से कम आयु में हुआ।
- 2019-2021 राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार:
- कानूनी ढाँचा:
- PCMA के तहत, बाल विवाह को ऐसे विवाह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें दोनों पक्षों में से कोई एक बच्चा हो।
- अधिनियम के तहत 18 वर्ष से कम आयु की लड़कियों और 21 वर्ष से कम आयु के लड़कों को बच्चा माना जाता है।
- बाल विवाह को एक सामाजिक बुराई और दाण्डिक अपराध दोनों माना जाता है।
- अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ:
- भारत ने 192 अन्य देशों के साथ सतत् विकास लक्ष्यों (लक्ष्य 5.3) के तहत बाल विवाह, कम आयु में विवाह और जबरन विवाह को समाप्त करने की प्रतिबद्धता जताई है।
- बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन बाल विवाह को मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता है।
- मूल कारणों की पहचान की गई:
- पितृसत्ता
- लैंगिक असमानता
- गरीबी
- शिक्षा और रोज़गार की कमी
- याचिकाकर्त्ता की मुख्य प्रस्तुतियाँ:
- किशोरावस्था में गर्भधारण से बाल विवाह की उच्च दर का प्रमाण मिलता है
- CMPO पर अक्सर कई ज़िम्मेदारियों का भार रहता है
- केवल हरियाणा और सिक्किम ने CMPO की विशेष नियुक्तियों की सूचना दी गई
- NCRB डेटा और राज्य विभाग की जानकारी के बीच विसंगति
- बाल विवाह के मामलों में कम रिपोर्टिंग और कम दोषसिद्धि दर
- भारतीय संघ की प्रस्तुतियाँ:
- सामाजिक धारणाओं और आर्थिक दबावों के कारण बाल विवाह की समस्या बनी रहती है।
- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे कार्यक्रमों का क्रियान्वयन।
- 13 राज्यों में 70 उच्च जोखिम वाले ज़िलों की पहचान।
- 640 ज़िलों में महिला शक्ति केंद्र का संचालन।
- बाल विवाह उन्मूलन के लिये विभिन्न राज्य स्तरीय उपाय।
- RTI के निष्कर्ष:
- 36 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल 23 ने प्रतिक्रिया दी
- केवल 14 ने स्पष्ट डेटा प्रदान किया
- अधिकांश प्रतिक्रियाओं में अन्य विभागों में स्थानांतरण का संकेत दिया गया
- सीमित अनन्य CMPO की नियुक्तियाँ
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि बाल विवाह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें आत्मनिर्णय, इच्छा, स्वायत्तता, कामुकता, स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार शामिल होते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि बाल विवाह बच्चों को उनकी स्वतंत्रता, स्वायत्तता तथा पूर्ण विकास एवं बाल्यावस्था का आनंद लेने के अधिकार से वंचित करता है, जिससे लड़के और लड़कियों दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- निर्णय में कहा गया कि बाल विवाह बच्चों को वस्तु की तरह पेश करता है, उन लोगों पर वयस्कता का बोझ डालता है जो विवाह के महत्त्व को समझने के लिये शारीरिक या मानसिक रूप से तैयार नहीं होते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि बाल विवाह महिला के प्रजनन संबंधी विकल्प, शारीरिक स्वायत्तता और अंतरंग विकल्प चुनने की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा अनुच्छेद 21 के तहत उसके अधिकारों का प्रभावी उल्लंघन करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि बाल विवाह से जीवन भर शारीरिक और मानसिक क्षति होती है, जिससे स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन होता है, जो सम्मानजनक जीवन जीने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि बाल विवाह अनुच्छेद 21-A के तहत शिक्षा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, विशेष रूप से लड़कियों के लिये, क्योंकि इससे अक्सर उनकी शिक्षा समाप्त हो जाती है।
- उच्चतम न्यायालय ने दण्ड के स्थान पर निवारण और संरक्षण को प्राथमिकता देने वाले दिशा-निर्देश जारी किये तथा समुदाय-संचालित रणनीतियों के माध्यम से बाल विवाह के मूल कारणों को दूर करने के लिये सभी हितधारकों से सामूहिक प्रयास करने का निर्देश दिया।
रुखमाबाई का मामला (1884):
- मामले की पृष्ठभूमि:
- वर्ष 1874 में जब रुखमाबाई 11 वर्ष की थीं और दादाजी भीकाजी 19 वर्ष के थे, तब उनका विवाह संपन्न हुआ।
- सौतेले पिता के सुधारवादी विचारों के कारण विवाह तुरंत संपन्न नहीं हुआ।
- रुखमाबाई ने इस दौरान शिक्षा प्राप्त की।
- वर्ष 1884 में दादाजी ने दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये मुकदमा दायर किया।
- प्रारंभिक न्यायालय निर्णय (न्यायमूर्ति पिनहे, बॉम्बे उच्च न्यायालय):
- दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये याचिका खारिज कर दी गई।
- यह माना गया कि विवेकाधिकार की आयु से पहले किया गया विवाह लागू नहीं किया जा सकता।
- पूर्व सहवास के बिना 11 वर्ष के बाद सहवास के लिये बाध्य करने में असमर्थता पर ज़ोर दिया गया।
- युवा महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी के साथ रहने के लिये मजबूर करने के विरुद्ध निर्णय दिया गया।
- रुखमाबाई द्वारा कानूनी तर्क:
- सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत असंगति के आधार पर विवाद किया गया।
- विवाह के समय विवेकाधिकार की कमी का तर्क दिया गया।
- बाल विवाह में सहमति की वैधता को चुनौती दी गई।
- अपील का परिणाम (डिवीज़न बेंच, बॉम्बे उच्च न्यायालय):
- न्यायमूर्ति पिनहे के निर्णय को पलट दिया गया।
- रुखमाबाई को एक माह के भीतर पति के पास जाने का आदेश दिया गया।
- अननुपालन के लिये छह माह के दण्ड का प्रावधान किया गया।
- हिंदू विधि के तहत असंगतता को वैध बचाव नहीं माना गया।
- अंतिम समाधान:
- रुखमाबाई ने न्यायालय के आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया।
- मामला समझौते के ज़रिए सुलझाया गया।
- दादाजी ने समझौते के तौर पर 2000 रुपए स्वीकार किये।
- इसके बाद रुखमाबाई ने ब्रिटेन में मेडिकल की पढ़ाई की।
फुलमोनी दासी का मामला (1889):
- मामले के तथ्य:
- पीड़िता की आयु 11 वर्ष और 3 माह थी।
- 35 वर्षीय हरि मैती से विवाहित।
- वैवाहिक बलात्कार के कारण रक्तस्राव से मृत्यु हो गई।
- मृत्यु का कारण: योनि का फटना।
- कानूनी मुद्दे:
- वैवाहिक संबंधों में बलात्कार कानून का लागू होना
- विवाह में सहमति की आयु
- कानून में वैवाहिक बलात्कार अपवाद
- न्यायालय का निर्णय:
- बलात्कार कानून को लागू नहीं माना गया क्योंकि पीड़िता की आयु 10 वर्ष से अधिक थी और वह विवाहित थी।
- अपराध के बजाय पीड़िता की आयु और शारीरिक परिपक्वता पर ध्यान केंद्रित किया गया।
- वैवाहिक बलात्कार अपवाद द्वारा प्रतिवादी को संरक्षण दिया गया
- वैधानिक प्रभाव:
- इस मामले ने मालाबारी के अभियान के लिये समर्थन को उत्प्रेरित किया
- एंड्रयू स्कॉबल द्वारा सहमति की आयु संबंधी विधेयक का नेतृत्व किया गया
- जिसके परिणामस्वरूप सहमति की आयु अधिनियम, 1891 बना
- सहमति की आयु 10 से बढ़ाकर 12 वर्ष की गई
- 12 वर्ष से कम आयु की लड़कियों के लिये वैवाहिक स्थिति की परवाह किये बिना बलात्कार के वैधानिक प्रावधान स्थापित किये गए।
उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देश क्या हैं?
- कानूनी प्रवर्तन:
- राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को ज़िला स्तर पर समर्पित बाल विवाह रोकथाम अधिकारी (CMPO) नियुक्त करने चाहिये, जिनकी नियमित कार्य-निष्पादन समीक्षा तथा अनिवार्य प्रशिक्षण होना चाहिये।
- कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक अपने ज़िलों में बाल विवाह को सक्रिय रूप से रोकने एवं इसमें सहयोग करने वालों पर मुकदमा चलाने के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- राज्य बाल विवाह निवारण ढाँचे में विशेष किशोर पुलिस इकाइयों (SJPU) को एकीकृत करने पर विचार करेंगे
- एक राज्य विशेष बाल विवाह प्रतिषेध इकाई का गठन किया जाएगा, जिसमें बाल अधिकारों में अनुभवी CMPO और सामाजिक कार्यकर्त्ता शामिल होंगे।
- न्यायिक उपाय:
- मजिस्ट्रेटों को बाल विवाह रोकने के लिये स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई करने और निवारक व्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया है।
- बाल विवाह मामलों के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना की व्यवहार्यता का आकलन किया जाएगा।
- बाल विवाह मामलों में अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा करने वाले लोक सेवकों के विरुद्ध सख्त अनुशासनात्मक और कानूनी कार्रवाई अनिवार्य है।
- मजिस्ट्रेटों को बाल विवाह रोकने के लिये सामूहिक विवाह के लिये जाने जाने वाले "शुभ दिनों" पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- सामुदायिक भागीदारी:
- राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को बाल विवाह को रोकने के लिये प्रमुख प्रदर्शन संकेतकों के साथ वार्षिक कार्य योजनाएँ विकसित करनी चाहिये।
- “बाल विवाह मुक्त गाँव” पहल शुरू की जानी चाहिये, जिसमें पंचायतों और सामुदायिक नेताओं को बाल विवाह को सक्रिय रूप से रोकने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- सभी हितधारकों के बीच क्षमता निर्माण के लिये नियमित अभिविन्यास कार्यक्रम और कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिये।
- बाल विवाह से संबंधित स्थानीय सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों को संबोधित करने के लिये समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाए जाने चाहिये।
- जागरूकता अभियान:
- CMPO को स्कूलों, धार्मिक संस्थानों और पंचायतों में नियमित जागरूकता अभियान चलाना चाहिये।
- स्कूली पाठ्यक्रम में व्यापक यौन शिक्षा को शामिल किया जाना चाहिये, जिसमें बाल विवाह रोकथाम की जानकारी भी शामिल होनी चाहिये।
- स्कूलों और सार्वजनिक संस्थानों में बाल विवाह रोकथाम पर शैक्षिक सामग्री को प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाना चाहिये।
- लक्षित सामुदायिक जागरूकता अभियान, लड़कियों के लिये सशक्तीकरण कार्यक्रम और हेल्पलाइन जागरूकता पहल को लागू किया जाना चाहिये।
- प्रशिक्षण/क्षमता निर्माण:
- सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं, कानून प्रवर्तन अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों को बाल विवाह रोकथाम पर विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये।
- शिक्षकों और स्कूल प्रशासकों को संभावित बाल विवाह के संकेतों को पहचानने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
- स्थानीय नेताओं और सामुदायिक प्रभावशाली लोगों को हानिकारक सामाजिक मानदण्डों को चुनौती देने के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- स्वयंसेवकों और कर्मचारियों को बाल विवाह रोकथाम पर प्रशिक्षित करने के लिये गैर-सरकारी संगठनों के साथ सहयोग स्थापित किया जाना चाहिये।
बाल विवाह से निपटने और अधिकार सुनिश्चित करने के लिये प्रमुख कानून क्या है?
- सार्वभौमिक रूपरेखा:
- UDHR (1948) ने स्थापित किया कि विवाह स्वतंत्र और पूर्ण सहमति पर आधारित होना चाहिये, जिससे जबरन विवाह के विरुद्ध प्रारंभिक रूपरेखा तैयार हो गई।
- गुलामी पर पूरक अभिसमय (1956) ने राज्यों को विवाह के लिये न्यूनतम आयु निर्धारित करने तथा सहमति को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने को सुनिश्चित करने का आदेश दिया।
- ICCPR ने विवाह योग्य आयु के पुरुषों और महिलाओं को विवाह करने का अधिकार स्थापित किया तथा इच्छुक जीवन साथी की स्वतंत्र एवं पूर्ण सहमति पर ज़ोर दिया।
- CEDAW (1979) ने स्पष्ट रूप से बाल विवाह को अमान्य घोषित कर दिया तथा विवाह की न्यूनतम आयु और अनिवार्य पंजीकरण स्थापित करने के लिये कानून बनाने की मांग की।
- CRC (1989) ने 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बच्चा माना है तथा सभी प्रकार के दुर्व्यवहार और शोषण से व्यापक सुरक्षा की अपेक्षा की है।
- क्षेत्रीय रूपरेखा:
- अफ्रीकी चार्टर ऑन राइट्स एंड वेलफेयर ऑफ द चाइल्ड (1990) में विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई है तथा बाल विवाह और सगाई को प्रतिबंधित किया गया है।
- मानव अधिकारों पर यूरोपीय कन्वेंशन विवाह योग्य आयु के लोगों के विवाह के अधिकार की रक्षा करता है तथा अमानवीय/अपमानजनक व्यवहार को प्रतिबंधित करता है।
- सार्क कन्वेंशन (2002) बाल विवाह को अधिकारों का उल्लंघन मानता है तथा न्यूनतम आयु कानून और जागरूकता की वकालत करता है।
- यूरोपीय न्यायालय शरणार्थियों से जुड़े सीमा पार मामलों में विवाहों की मान्यता के साथ अवयस्कों की सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करने की अपेक्षा करता है।
- साझा क्षेत्रीय रूपरेखाओं के बावजूद दक्षिण एशियाई देशों में बाल विवाह की अलग-अलग दरें (बांग्लादेश में 50% से लेकर मालदीव में 2%) दिखाई देती हैं।
- अधिकार-आधारित रूपरेखा
- स्वतंत्र चुनाव और स्वायत्तता का अधिकार:
- विवाह के लिये दोनों पक्षों की स्वतंत्र और पूर्ण सहमति की आवश्यकता होती है।
- विवाह की ज़िम्मेदारियों को समझने के लिये दोनों पक्षों में संज्ञानात्मक क्षमता होनी चाहिये।
- राज्य व्यक्तियों के लिये साथी नहीं चुन सकते या उनकी व्यवस्था नहीं कर सकते।
- व्यक्तिगत स्वायत्तता में संबंधों और पहचान को परिभाषित करने का अधिकार शामिल होता है।
- लिंग आधारित हिंसा के विरुद्ध अधिकार:
- बाल विवाह को यौन शोषण का एक रूप माना जाता है।
- राज्यों को महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकना और
- ण्डित करना चाहिये।
- सांस्कृतिक/धार्मिक परंपराएँ महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को उचित नहीं ठहरा सकतीं।
- महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की संरचनात्मक प्रकृति को स्वीकार किया जाता है।
- स्वतंत्र चुनाव और स्वायत्तता का अधिकार:
- शिक्षा का अधिकार:
- राज्यों को निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करनी चाहिये।
- बाल वधुओं के स्कूल छोड़ने की संभावना चार गुना अधिक होती है।
- व्यापक यौन शिक्षा का अधिकार सुरक्षित है।
- शिक्षा से बच्चे की संपूर्ण क्षमता का विकास होना चाहिये।
- विकास का अधिकार:
- बच्चों को व्यक्तित्व, प्रतिभा और योग्यता विकसित करने का अधिकार है।
- विकास में शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक आयाम शामिल होते हैं।
- शिक्षा को बच्चों को स्वतंत्र समाज में ज़िम्मेदार जीवन के लिये तैयार करना चाहिये।
- राज्यों को बाल विकास के आठ विशिष्ट आयामों की रक्षा करनी चाहिये।
बाल विवाह प्रतिषेध, 2006
- परिचय:
- यह अधिनियम बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाता है, जिसमें 18 वर्ष से कम आयु की लड़कियाँ और 21 वर्ष से कम आयु के लड़के शामिल हैं।
- यह कानून पूर्ववर्ती ‘बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929’ का स्थान लेता है तथा इसका उद्देश्य बच्चों, विशेषकर छोटी लड़कियों के शोषण को रोकना है।
- कोई भी विवाह जिसमें अवयस्क शामिल हो, ‘बाल विवाह निषेध अधिनियम’ के तहत अमान्य होता है और ऐसे विवाह की व्यवस्था करने या उसे सुविधाजनक बनाने में शामिल पक्षों को कारावास और ज़ुर्माने से दण्डित किया जा सकता है।
- इस कानून में ज़िला प्राधिकारियों पर बाल विवाह को रोकने तथा बाल विवाह के शिकार बच्चों की सुरक्षा और पुनर्वास सुनिश्चित करने के लिये उचित उपाय करने का दायित्व डाला गया है।
- यह कानून बच्चों, विशेषकर लड़कियों के स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास पर बाल विवाह के हानिकारक प्रभावों को मान्यता देता है।
- यह अधिनियम बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाता है, जिसमें 18 वर्ष से कम आयु की लड़कियाँ और 21 वर्ष से कम आयु के लड़के शामिल हैं।
अधिनियम के तहत दण्ड:
- धारा 9- वयस्क पुरुष दूल्हे के लिये दण्ड:
- अवयस्क लड़की से विवाह करने वाले 18 वर्ष से अधिक आयु के पुरुषों पर लागू होता है।
- दण्ड: 2 वर्ष तक का कठोर कारावास या ₹1 लाख तक का ज़ुर्माना या दोनों।
- न्यायालय को कारावास, ज़ुर्माना या दोनों में से किसी एक को चुनने का विवेकाधिकार है।
- अवयस्क पुरुषों से विवाह करने वाली वयस्क महिलाओं पर लागू नहीं होता (हरदेव सिंह बनाम हरप्रीत कौर मामले के अनुसार)।
- धारा 10 - बाल विवाह का अनुष्ठान करने के लिये दण्ड:
- यह उन सभी लोगों पर लागू होता है जो बाल विवाह करते हैं, उसका अनुष्ठान करते हैं, उसका निर्देशन करते हैं या उसे बढ़ावा देते हैं।
- दण्ड: 2 वर्ष तक का कठोर कारावास और ₹1 लाख तक का ज़ुर्माना।
- कारावास और ज़ुर्माना दोनों अनिवार्य हैं।
- उपलब्ध बचाव: उचित विश्वास कि यह बाल विवाह नहीं था।
- धारा 11 -बाल-विवाह के अनुष्ठान का संवर्द्धन करने या उसे अनुज्ञात करने के लिये दण्ड
- माता-पिता, अभिभावकों या बच्चे के प्रभारी किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है।
- दण्ड: 2 वर्ष तक का कठोर कारावास और ₹1 लाख तक का ज़ुर्माना।
- कारावास और ज़ुर्माना दोनों अनिवार्य हैं।
- महिलाओं को कारावास से छूट दी गई है।
- इसमें बाल विवाह को रोकने में लापरवाही शामिल है।
- बच्चे के प्रभारी व्यक्ति के विरुद्ध लापरवाही का अनुमान लगाया जाता है।
- धारा 12 - कतिपय परिस्थितियों में किसी अवयस्क बालक के विवाह का शून्य होना, जहाँ:
- बच्चे को वैध अभिभावक से छीना/फुसलाया जाता है।
- बच्चे को बलपूर्वक या धोखे से बाध्य किया जाता है।
- बच्चे को विवाह के लिये बेचा जाता है।
- बच्चे की तस्करी की जाती है या विवाह के बाद अनैतिक उद्देश्यों के लिये उसका उपयोग किया जाता है।
- अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ:
- सभी अपराध संज्ञेय और अज़मानती हैं (धारा 15)।
- कोई अनिवार्य न्यूनतम दण्ड निर्धारित नहीं है।
- धारा 10 और 11 को छोड़कर न्यायालयों को दण्ड सुनाने में विवेकाधिकार है।
- धारा 11 के मामलों में दोष की धारणा लागू होती है जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए।