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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

राज्य की औद्योगिक अल्कोहल विनियामक शक्ति

 24-Oct-2024

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मेसर्स लालता प्रसाद वैश्य

"उच्चतम न्यायालय ने कहा कि औद्योगिक अल्कोहल को "मादक शराब" के रूप में विनियमित करने का राज्यों को अधिकार है, लेकिन न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस पर असहमति जताई।"

CJI डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, बी.वी. नागरत्ना, जे.बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्जल भुइयाँ, सतीश चंद्र शर्मा एवं ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह।

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 8:1 के बहुमत से निर्णय दिया कि राज्यों को डिनेचर्ड स्पिरिट या औद्योगिक अल्कोहल को विनियमित करने का अधिकार है, तथा राज्य सूची की प्रविष्टि 8 के अनुसार इसे "मादक शराब" के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

  • बहुमत की राय में माना गया कि इस शब्द की परिभाषा संकीर्ण रूप से नहीं करना चाहिये, जिसमें ऐसे पदार्थ भी शामिल हैं जिनका मानव उपभोग के लिये दुरुपयोग किया जा सकता है।
  • असहमति में, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने तर्क दिया कि औद्योगिक शराब विशेष रूप से मानव उपभोग के लिये नहीं है, उन्होंने "नशीली शराब" शब्द का अलग-अलग निर्वचन किया।

उत्तर प्रदेश बनाम मेसर्स लालता प्रसाद वैश्य राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला राज्यों एवं संघ के बीच होने वाले संवैधानिक विवाद से ऐसे संबंधित है कि औद्योगिक अल्कोहल/डिनेचर्ड स्पिरिट को विनियमित करने का अधिकार किसके पास है।
  • इसमें कई प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधान हैं:
    • सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि 8 "मादक मदिरा" से संबंधित है तथा राज्यों को उत्पादन, विनिर्माण, कब्जे, परिवहन, खरीद एवं बिक्री पर अधिकार देती है। 
    • सूची I (संघ सूची) की प्रविष्टि 52 संसद को संघ के नियंत्रण में घोषित उद्योगों पर अधिकार देती है। 
    • सूची III (समवर्ती सूची) की प्रविष्टि 33 राज्य एवं संघ दोनों को संघ के नियंत्रण में उद्योगों से उत्पादों के व्यापार एवं वाणिज्य को विनियमित करने की अनुमति देती है।
  • उद्योग (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1951 (IDRA) को सूची I की प्रविष्टि 52 के अंतर्गत संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था। इस अधिनियम की धारा 18G केंद्र सरकार को अनुसूचित उद्योगों से उत्पादों की आपूर्ति और वितरण को विनियमित करने की शक्ति देती है।
  • 2016 में, IDRA की पहली अनुसूची में संशोधन किया गया था ताकि विशेष रूप से "पेय शराब" को संघ के नियंत्रण से बाहर रखा जा सके, जबकि अन्य शराब को इसके दायरे में रखा जा सके।
  • इससे पहले, सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम स्टेट ऑफ यू.पी. मामले में, सात न्यायाधीशों की पीठ ने IDRA की धारा 18G का निर्वचन किया था, लेकिन राज्य की शक्तियों में इसके हस्तक्षेप को पूरी तरह से संबोधित नहीं किया था।
  • राज्यों के द्वारा प्रस्तुत मुख्य तर्क थे:
    • "नशीली शराब" शब्द का व्यापक निर्वचन किया जाना चाहिये, जिसमें डिनेचर्ड स्पिरिट/औद्योगिक शराब शामिल हो।
    • राज्यों के पास शराब के सभी रूपों पर विनियामक शक्ति होनी चाहिये।
    • केंद्रीय विधानों को अधिसूचनाओं के माध्यम से राज्य की शक्तियों को कम नहीं करना चाहिये।
    • संघ के मुख्य तर्क थे:
    • औद्योगिक शराब एवं पीने योग्य शराब के बीच स्पष्ट अंतर है।
    • संघ का IDRA के माध्यम से औद्योगिक शराब पर नियंत्रण है।
    • प्रविष्टि 52 (संघ सूची) एवं प्रविष्टि 33 (समवर्ती सूची) को एक साथ पढ़ा जाना चाहिये ताकि संघ को विनियमित उद्योगों पर पूर्ण नियंत्रण मिल सके।
  • मुख्य मुद्दा
    • क्या संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 52, सूची II की प्रविष्टि 8 को रद्द करती है; 
    • क्या संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 8 में 'मादक मदिरा' शब्द में पीने योग्य मदिरा के अतिरिक्त अन्य मदिरा शामिल है; 
    • क्या संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची III की प्रविष्टि 33 के अंतर्गत क्षेत्र पर कब्जा करने के लिये संसद के लिये IDRA की धारा 18G के अंतर्गत अधिसूचित आदेश आवश्यक है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

बहुमत की राय (8:1)

  • सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि 8:
    • यह प्रविष्टि उद्योग-आधारित एवं उत्पाद-आधारित दोनों प्रकृति की है।
    • प्रविष्टि 8 में "अर्थात्" के बाद आने वाले शब्द इसकी विषय-वस्तु को संपूर्ण नहीं बनाते।
    • इसका दायरा कच्चे माल से लेकर 'मादक शराब' के उपभोग तक विस्तृत है।
  • विधायी क्षमता:
    • संसद केवल सूची I की प्रविष्टि 52 के अंतर्गत एक घोषणा के माध्यम से पूरे उद्योग क्षेत्र पर कब्जा नहीं कर सकती है। 
    • सूची II की प्रविष्टि 24 के अंतर्गत राज्य विधानमंडल की क्षमता केवल सूची I की प्रविष्टि 52 के अंतर्गत संसदीय विधान द्वारा शामिल की गई सीमा तक ही सीमित है। 
    • सूची I की प्रविष्टि 52 के साथ अनुच्छेद 246 के अंतर्गत मादक शराब उद्योग को नियंत्रित करने के लिये संसद में विधायी क्षमता का अभाव है।
  • 'मादक शराब' का निर्वचन:
    • यह शब्द मादक पेय पदार्थों के लोकप्रिय अर्थ तक सीमित नहीं है जो नशा पैदा करते हैं। 
    • इसमें वह शराब भी शामिल है जिसका उपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले हानिकारक तरीके से किया जा सकता है। 
    • इस शब्द में शामिल हैं:
      • रेक्टिफाइड स्पिरिट
      • ENA (एक्स्ट्रा न्यूट्रल अल्कोहल)
      • डिनेचर्ड स्पिरिट d) अल्कोहल युक्त अंतिम उत्पाद शामिल नहीं हैं (जैसे, हैंड सैनिटाइज़र)
  • न्यायिक पूर्वनिर्णय:
    • सिंथेटिक्स (7J) निर्णय को खारिज कर दिया गया है। 
    • इस निर्णय में, IDRA की पहली अनुसूची के मद 26 में "मादक शराब" को शामिल नहीं किया जाना चाहिये।

असहमतिपूर्ण राय (न्यायमूर्ति नागरत्ना)

  • प्रविष्टि 8 सूची II का दायरा:
    • पारंपरिक अर्थों में विशेष रूप से "नशीली शराब" से संबंधित है। 
    • औद्योगिक शराब इसके दायरे से बाहर है। c) दुरुपयोग की संभावना निर्वचन का आधार नहीं हो सकता।
  • विधायी मंशा:
    • संविधान सभा ने पीने योग्य एवं गैर-पीने योग्य शराब के बीच स्पष्ट रूप से अंतर किया है। 
    • मादक शराब" केवल "किण्वन उद्योगों" का एक खंड दर्शाता है। 
    • प्रविष्टि 8 के अंतर्गत औद्योगिक या गैर-पीने योग्य शराब को शामिल करने का कोई आशय नहीं है।
  • विनियामक ढाँचा:
    • डिनेचर्ड शराब "औद्योगिक शराब" के अंतर्गत आता है।
    • IDRA की धारा 18G प्रविष्टि 33(a) सूची III के अंतर्गत औद्योगिक शराब को नियंत्रित करती है।
    • केवल संसद ही "किण्वन उद्योगों" के अनुसूचित उद्योग से संबंधित लेखों पर विधान बनाने के लिये सक्षम है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 246 

मौलिक ढाँचा

  • अनुच्छेद 246 के अंतर्गत वितरण योजना:
    • संसद के पास संघ सूची (सूची I) पर विशेष अधिकार है। 
    • राज्य विधानसभाओं के पास राज्य सूची (सूची II) पर विशेष अधिकार है। 
    • संसद एवं राज्य विधानसभाओं दोनों के पास समवर्ती सूची (सूची III) पर अधिकार है। 
    • संसद के पास केंद्र शासित प्रदेशों के लिये विधान बनाने का अधिकार है।

पदानुक्रमिक संरचना

  • संसदीय शक्तियाँ:
    • सूची I के मामलों पर विशेष अधिकार
    • सूची II या III में किसी भी तथ्य के बावजूद शक्ति संचालित होती है
    • राज्य विधान के साथ असंगत संघर्ष के मामले में प्रमुख शक्ति
  • राज्य विधानमंडल की शक्तियाँ:
    • सूची II के मामलों पर विशेष शक्ति
    • शक्ति अनुच्छेद 246 के खंड (1) एवं (2) के अधीन संचालित होती है
    • आवंटित क्षेत्र के अंदर संप्रभु, सिवाय जहाँ स्पष्ट रूप से सीमित हो

निर्वचन का सिद्धांत

  • संघीय संतुलन सिद्धांत:
    • प्रत्येक विधायी निकाय अपने आवंटित क्षेत्र में संप्रभु है। 
    • संसदीय प्रभुत्व केवल असंगत संघर्ष की स्थिति में ही लागू होता है। 
    • अनुच्छेद 246(1) में गैर-बाधा खंड संसद को सूची II के विषयों पर सीधे विधान बनाने की अनुमति नहीं देता है।
  • संघर्ष समाधान ढाँचा:
    • प्रविष्टियों को प्रतिबंधित अर्थ के बिना एक साथ पढ़ा जाना चाहिये।
    • सबसे पहले सामंजस्यपूर्ण निर्वचन का प्रयास किया जाना चाहिये।
    • संघीय सर्वोच्चता केवल "असंगत प्रत्यक्ष संघर्ष" के मामले में लागू होती है।

ओवरलैप एवं संघर्ष समाधान

  • ओवरलैपिंग प्रविष्टियों का उपचार:
    • 'ओवरलैप' एवं 'संघर्ष' के बीच अंतर बनाए रखा जाना चाहिये।
    • न्यायालय को संघर्ष को बढ़ाने के बजाय ओवरलैप को कम करने का प्रयास करना चाहिये।
    • संघीय सर्वोच्चता केवल वास्तविक संघर्ष के चरण पर लागू होती है।
  • निर्वचन संबंधी दिशानिर्देश:
    • प्रविष्टियों को व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिये।
    • आकस्मिक एवं सहायक मामलों को दायरे में शामिल किया जाना चाहिये।
    • संघीय संतुलन बनाए रखने के लिये सामंजस्यपूर्ण निर्वचन को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • कोई भी प्रविष्टि निरर्थक नहीं होनी चाहिये।

विशिष्ट सीमाएँ

  • राज्य सूची प्रतिबंध:
    • प्रविष्टियाँ सूची I या सूची III के विशिष्ट प्रावधानों के अधीन हो सकती हैं।
    • संपूर्ण सूची के प्रावधानों के अधीन हो सकती हैं।
    • सूची I में निर्दिष्ट मामलों को छोड़ सकती हैं।
    • संसदीय विधान की सीमाओं के अधीन हो सकती हैं।
  • कराधान शक्तियाँ:
    • सामान्य प्रविष्टियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
    • विशिष्ट कराधान प्रविष्टियों की आवश्यकता है।
    • सामान्य एवं कराधान प्रविष्टियों के बीच स्पष्ट अंतर बनाए रखा गया है।

विधायी विवेक

  • शक्ति का प्रयोग:
    • प्रविष्टियाँ विधान बनाने की बाध्यता नहीं दर्शाती हैं।
    • संवैधानिक सीमाओं के अंदर विधानमंडल के पास पूर्ण शक्ति है।
    • विधान बनाने के तरीके में विवेकाधिकार सुरक्षित है।

संवैधानिक सुरक्षा

  • संघीय शेष संरक्षण:
    • भाषा उपकरण प्रविष्टियों के बीच संघर्ष को रोकते हैं।
    • क्षेत्रों का स्पष्ट सीमांकन बनाए रखा जाता है।
    • राज्य शक्ति की सीमा के लिये स्पष्ट अधीनता आवश्यक है।
  • संघीय ढाँचे को संरक्षित करने के लिये सामंजस्यपूर्ण निर्वचन अनिवार्य है।

मादक शराब एवं औद्योगिक अल्कोहल के विनियमन के संबंध में सूची II की प्रविष्टि 8 का दायरा एवं महत्त्व क्या है?

  • सूची II की प्रविष्टि 8 उद्योग-आधारित एवं उत्पाद-आधारित दोनों है, जिसमें कच्चे माल के चरण से लेकर 'मादक शराब' की खपत तक सब कुछ निहित है। प्रविष्टि स्वयं मादक शराब के "उत्पादन, निर्माण, कब्ज़ा, परिवहन, खरीद एवं बिक्री" को शामिल करके इस व्यापक दायरे को इंगित करती है। 
  • सूची II की प्रविष्टि 8 में "अर्थात" वाक्यांश सीमित करने के बजाय व्याख्यात्मक एवं उदाहरणात्मक है। उच्चतम न्यायालय ने माना है कि विधायी प्रविष्टियों (कर लगाने वाले विधानों के विपरीत) के लिये, इस वाक्यांश का निर्वचन प्रतिबंधात्मक गणना के बजाय व्यापक एवं उदारतापूर्वक की जानी चाहिये।
  • सूची I (संघ सूची) की प्रविष्टि 52 में "जिस सीमा तक" वाक्यांश का अभाव है, जो प्रविष्टि 54 जैसी अन्य प्रविष्टियों में दिखाई देता है। इससे तात्पर्य यह है कि प्रविष्टि 52 के अंतर्गत उद्योगों पर संसद के नियंत्रण के लिये नियंत्रण की सीमा को निर्दिष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि प्रविष्टि 54 के अंतर्गत विनियमों में ऐसा नहीं है।
  • प्रविष्टि 8 में "मादक शराब" शब्द केवल नशा पैदा करने वाले पेय पदार्थों तक ही सीमित नहीं है। FN बलसारा में सुप्रीम कोर्ट के निर्वचन के आधार पर, इसमें अल्कोहल युक्त सभी तरल पदार्थ निहित हैं, जिनका संभावित रूप से मादक पेय के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है। 
  • प्रविष्टि 8 एक विशेष प्रविष्टि है जो विशेष रूप से 'मादक शराब' को विधायी क्षेत्र के रूप में सूचीबद्ध करती है, जिसमें अन्य सभी सामान्य प्रविष्टियों को शामिल नहीं किया गया है, जिसके अंतर्गत इसे अन्यथा शामिल किया जा सकता था।
  • उच्चतम न्यायालय ने प्रविष्टि 8 के दायरे का निर्वचन इसके विधायी इतिहास एवं मादक पेय पदार्थों के निषेध के संबंध में अनुच्छेद 47 के संवैधानिक निर्देश दोनों के प्रकाश में की है, जिससे एक व्यापक निर्वचन सामने आया है जिसमें स्वास्थ्य एवं सार्वजनिक व्यवस्था की चिंताएँ शामिल हैं।
  • जबकि सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि 24 सामान्य रूप से उद्योगों से संबंधित है और सूची I की प्रविष्टि 52 के अधीन है, प्रविष्टि 8 मादक शराब से निपटने वाली एक विशिष्ट प्रविष्टि के रूप में है तथा अन्य प्रविष्टियों में पाए जाने वाले उद्योग-उत्पाद के भेद का पालन नहीं करती है।
  • संवैधानिक ढाँचे में यह उपबंध है कि जब संसद सूची I की प्रविष्टि 52 के अंतर्गत किसी उद्योग का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेती है, तो उस उद्योग के उत्पाद राज्य सूची से समवर्ती सूची (सूची III की प्रविष्टि 33) में चले जाते हैं, यद्यपि इस सामान्य सिद्धांत पर प्रविष्टि 8 के विशेष दर्जे के साथ विचार किया जाना चाहिये ।

सांविधानिक विधि

निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार

 24-Oct-2024

सुहास चकमा बनाम भारत संघ एवं अन्य

“गरीबों को दी जाने वाली विधिक सहायता गुणवत्ताविहीन विधिक सहायता नहीं होनी चाहिये”।

न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने जेल के कैदियों को निःशुल्क विधिक सहायता के संबंध में दिशानिर्देश जारी किये।

सुहास चकमा बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत एक रिट याचिका दायर की गई थी। रिट याचिका में निम्नलिखित दलीलें दी गई थीं:
    • प्रतिवादी भारत संघ, राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दें कि किसी भी कैदी को जेल में भीड़भाड़ एवं अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में रहने के कारण यातना, क्रूर, अमानवीय एवं अपमानजनक व्यवहार का सामना न करना पड़े।
    • अपनी गरिमा से वंचित सभी व्यक्तियों के साथ अंतर्निहित गरिमा के सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिये।
    • भीड़भाड़ वाली जेलों में भीड़भाड़ कम करने के लिये एक स्थायी तंत्र बनाएँ।
  • न्यायालय ने 17 मई 2024 को अपने आदेश में दो मुद्दों पर ध्यान दिया:
    • स्वतंत्र सुधार संस्थानों से संबंधित
    • जेल में अधिवक्ताओं द्वारा मुलाकात के लिये नियमावली, जिससे योग्य जेल कैदियों को निःशुल्क विधिक सहायता सुनिश्चित की जा सके।
  • हालाँकि यह निर्णय केवल जेल के कैदियों के लिये निःशुल्क विधिक सहायता के पहलू तक ही सीमित है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने जेल के कैदियों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने के संबंध में निम्नलिखित निर्देश दिये:
    • न्यायालय ने निर्देश दिया कि राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSA) एवं जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) के सहयोग से यह सुनिश्चित करेगा कि कैदियों को विधिक सेवाओं तक पहुँच के लिये प्रक्रिया के मानक (SOP) एवं जेल विधिक सहायता क्लिनिक (PLAC) का संचालन व्यवहार में कुशलतापूर्वक किया जाए। 
    • विभिन्न स्तरों पर विधिक सेवा प्राधिकरण PLAC की निगरानी को सशक्त करने के लिये उपाय अपनाएँगे तथा समय-समय पर उनके कार्यदक्षता की समीक्षा करेंगे।
    • विधिक सेवा प्राधिकरण समय-समय पर सांख्यिकीय डेटा को अपडेट करेंगे। 
    • विधिक सेवा प्राधिकरण यह सुनिश्चित करेंगे कि विधिक सहायता बचाव परामर्श प्रणाली अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करे। 
    • विधिक सहायता तंत्र के विषय में जागरूकता बहुत महत्त्वपूर्ण है। न्यायालय ने निर्देश दिया कि विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा प्रचारित विभिन्न लाभकारी योजनाओं को अधिकतम लोगों तक पहुँचाने के लिये एक सशक्त तंत्र होना चाहिये।
    • न्यायालय ने निर्देश दिया कि जागरूकता फ़ैलाने करने के लिये उपरोक्तानुसार निम्नलिखित चरण में कार्य करना चाहिये:
      • पुलिस स्टेशन, डाकघर, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन आदि सार्वजनिक स्थानों पर प्रमुख स्थानों पर बोर्ड लगाकर संपर्क के लिये पता एवं निकटतम विधिक सहायता कार्यालय के फोन नंबर दिये जाने चाहिये। 
      • डिजिटलीकरण प्रक्रिया के अतिरिक्त रेडियो के माध्यम से भी प्रचार अभियान चलाया जाना चाहिये।
      • प्रचार अभियानों में नुक्कड़ नाटकों के आयोजन जैसे अन्य रचनात्मक उपाय भी शामिल हो सकते हैं। 
      • विधिक सेवा प्राधिकरण विचाराधीन समीक्षा समिति (UTRC) के लिये SOP-2022 को अपडेट करेंगे। 
      • UTRC द्वारा चुने गए व्यक्तियों की कुल संख्या एवं रिहाई के लिये अनुशंसित व्यक्तियों की संख्या के बीच भारी अंतर पर गौर किया जाना चाहिये तथा पर्याप्त सुधारात्मक उपाय किये जाने चाहिये।
        • इसी प्रकार, रिहाई के लिये अनुशंसित कैदियों/कैदियों की संख्या एवं दायर जमानत आवेदनों की संख्या के बीच के अंतर पर विशेष रूप से NALSA/SLSA/DLSA द्वारा गौर किया जाना चाहिये तथा पर्याप्त सुधारात्मक उपाय किये जाने चाहिये।
      • NALSA द्वारा मुकदमे-पूर्व सहायता के लिये स्थापित "गिरफ्तारी-पूर्व, गिरफ्तारी और रिमांड चरण में न्याय तक शीघ्र पहुँच" ढाँचे का पूरी लगन से पालन किया जाना चाहिये और ढाँचे के अंतर्गत किये गए कार्यों की समय-समय पर समीक्षा की जानी चाहिये। 
      • दोषियों को निःशुल्क विधिक सहायता के उनके अधिकार के विषय में जागरूक किया जाना चाहिये।
        • विभिन्न स्तरों पर विधिक सेवा प्राधिकरणों को उन दोषियों से संवाद करना चाहिये जिन्होंने अपील नहीं की है तथा यह कार्य समय-समय पर किया जाना चाहिये।
      • जेल विजिटिंग अधिवक्ताओं (JVL) एवं पैरा लीगल वालंटियर्स (PLV) के साथ समय-समय पर बातचीत होनी चाहिये। 
      • यह उनके ज्ञान को अद्यतन करने के लिये है ताकि पूरी व्यवस्था कुशलतापूर्वक कार्य कर सके। मुकदमे से पहले दी जाने वाली सहायता:
        • विधिक सेवा प्राधिकरणों द्वारा मुकदमा-पूर्व सहायता में शामिल अधिवक्ताओं एवं विधिक सहायता बचाव परामर्शदाता व्यवस्था से जुड़े अधिवक्ताओं की सतत शिक्षा के लिये कदम उठाए जाने चाहिये।
        • इसके अतिरिक्त, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि मुकदमा-पूर्व सहायता चरण में लगे अधिवक्ताओं एवं विधिक बचाव परामर्शदाता सेट-अप से जुड़े लोगों को पर्याप्त विधिक पुस्तकें एवं ऑनलाइन पुस्तकालयों तक पहुँच उपलब्ध हो।
    • DLSA द्वारा SLSA को तथा NALSA को समय-समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत की जानी चाहिये। 
    • उपरोक्त का डिजिटलीकरण अवश्य किया जाना चाहिये। राज्य सरकार तथा भारत संघ उपायों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये विभिन्न स्तरों पर विधिक सेवा प्राधिकरणों के साथ सहयोग करना जारी रखेंगे। 
    • न्यायालय ने आगे निर्देश दिया कि निर्णय की एक प्रति सभी उच्च न्यायालयों को भेजी जाएगी।
      • न्यायालय ने अभीनिर्णीत किया कि उच्च न्यायालय इस आशय का व्यावहारिक निर्देश जारी करने की व्यवहार्यता पर विचार कर सकता है कि उच्च न्यायालय सहित सभी न्यायालय दोषसिद्धि/बर्खास्तगी/दोषमुक्ति के निर्णय को पलटने/जमानत आवेदनों को खारिज करने के निर्णय की प्रति प्रस्तुत करते समय, दोषी को उच्च उपचार प्राप्त करने के लिये निःशुल्क विधिक सहायता सुविधाओं की उपलब्धता के विषय में सूचित करते हुए निर्णय के साथ एक कवरशीट संलग्न कर सकते हैं।
      • कवरशीट में उचित मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये न्यायालय से जुड़ी विधिक सहायता समिति का संपर्क पता एवं फोन नंबर दिया जा सकता है। 
      • दोषमुक्ति किये जाने के विरुद्ध अपील में संबंधित न्यायालयों द्वारा प्रतिवादियों को जारी किये गए नोटिस में भी इसी तरह की सूचना उपलब्ध कराई जा सकती है। 
      • उच्च न्यायालय अपने वेबपेज पर राज्य में उपलब्ध विधिक सहायता सुविधाओं के विषय में सूचना दे सकते हैं।

निःशुल्क विधिक सहायता क्या है?

परिचय

  • विधिक सहायता से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सेवाएँ प्रदान करना है जो विधिक प्रतिनिधित्व का व्यय वहन करने में असमर्थ है।
  • ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत एक कल्याणकारी राज्य है तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करता है।
  • सहकारिता अधिनियम का अनुच्छेद 14 निष्पक्षता के आधार पर न्याय सुनिश्चित करता है तथा इसलिये निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करना राज्य का कर्त्तव्य है।
  • सहकारिता अधिनियम की धारा 39 A के अंतर्गत निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार मिलता है तथा इसे SLA अधिनियम के अंतर्गत औपचारिक मान्यता भी दी गई है।

भारत में निःशुल्क विधिक सहायता का इतिहास

निःशुल्क विधिक सहायता पाने के लिये पात्र व्यक्ति

निःशुल्क विधिक सहायता के संबंध में विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • अनुच्छेद 39 A: समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता
    • संविधान के भाग IV में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) के अंतर्गत निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध है। 
    • इसे 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया है। 
    • इस प्रावधान में यह उपबंधित किया गया है कि राज्य विशेष रूप से उपयुक्त विधि या योजनाओं या किसी अन्य तरीके से निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करेगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण किसी भी नागरिक को न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित न किया जाए। 
    • इस प्रकार, उपरोक्त संवैधानिक लक्ष्य है।
    • संविधान के भाग IV यानी राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) के अंतर्गत निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध है। 
    • इसे 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया है। 
    • इस प्रावधान में कहा गया है कि राज्य विशेष रूप से उपयुक्त कानून या योजनाओं या किसी अन्य तरीके से निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करेगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण किसी भी नागरिक को न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित न किया जाए। 
    • इस प्रकार, उपरोक्त संवैधानिक लक्ष्य है।
  • विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (SLA अधिनियम)
    • समाज के कमजोर वर्गों को निःशुल्क एवं सक्षम विधिक सेवाएँ प्रदान करने के लिये विधिक सेवा प्राधिकरणों का गठन करने के लिये विधि बनाई गयी है। 
    • इस विधि का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी नागरिक को किसी भी आर्थिक या अन्य अक्षमता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित न किया जाए। 
    • SLA अधिनियम की धारा 3 ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) का गठन किया। 
    • SLA की धारा 4 NALSA के कार्यों को निर्धारित करती है तथा प्रासंगिक कार्य इस प्रकार हैं:
      • इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत विधिक सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिये नीतियाँ एवं सिद्धांत निर्धारित करना। 
      • इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत विधिक सेवाएँ उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सबसे प्रभावी और किफायती योजनाएं तैयार करना। 
      • अपने निपटान में उपलब्ध निधियों का उपयोग करना और राज्य प्राधिकरणों एवं जिला प्राधिकरणों को निधियों का उचित आवंटन करना। 
      • समय-समय पर विधिक सहायता कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की निगरानी एवं मूल्यांकन करना तथा इस अधिनियम के अंतर्गत प्रदान की गई निधियों द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से कार्यान्वित कार्यक्रमों एवं योजनाओं के स्वतंत्र मूल्यांकन की व्यवस्था करना।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 341
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अंतर्गत यह प्रावधान कुछ मामलों में राज्य के व्यय पर अभियुक्तों को विधिक सहायता प्रदान करता है। 
    • धारा 341 (1) में यह प्रावधान है कि न्यायालय निम्नलिखित मामलों में राज्य के व्यय पर अभियुक्तों के बचाव के लिये एक अधिवक्ता नियुक्त कर सकता है:
      • जहाँ न्यायालय के समक्ष किसी वाद या अपील में अभियुक्त का प्रतिनिधित्व किसी अधिवक्ता द्वारा नहीं किया जाता है, 
      • और जहाँ न्यायालय को ऐसा प्रतीत होता है कि अभियुक्त के पास अधिवक्ता नियुक्त करने के लिये पर्याप्त साधन नहीं हैं
    • धारा 341 (2) में यह प्रावधान है कि उच्च न्यायालय राज्य सरकार के पूर्व अनुमोदन से निम्नलिखित के लिये नियम बना सकता है:
      • उप-धारा (1) के अधीन बचाव के लिये अधिवक्ताओं के चयन की पद्धति
      • न्यायालय द्वारा ऐसे अधिवक्ताओं को दी जाने वाली सुविधाएँ
      • सरकार द्वारा ऐसे अधिवक्ताओं को देय फीस, तथा सामान्यतः, उप-धारा (1) के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिये
    • धारा 341 (3) में यह प्रावधान है कि राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निर्देश दे सकती है कि अधिसूचना में निर्दिष्ट तिथि से उप-धारा (1) एवं (2) के प्रावधान राज्य में अन्य न्यायालयों के समक्ष किसी भी वर्ग के परीक्षणों के संबंध में उसी तरह लागू होंगे जैसे वे सत्र न्यायालयों के समक्ष परीक्षणों के संबंध में लागू होते हैं।

निःशुल्क विधिक सहायता के संबंध में महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • हुसैनारा खातून एवं अन्य बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य, पटना (1980)
    • ऐसी प्रक्रिया जो किसी अभियुक्त व्यक्ति को विधिक सेवाएँ उपलब्ध नहीं कराती, जो अधिवक्ता का व्यय वहन करने में असमर्थ है तथा इसलिये उसे विधिक सहायता के बिना ही मुकदमे से गुजरना पड़ता है, उसे संभवतः "उचित, निष्पक्ष एवं न्यायसंगत" नहीं माना जा सकता।
    • यह एक उचित, निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण प्रक्रिया का एक अनिवार्य तत्त्व है कि एक कैदी, जो न्यायालय की प्रक्रिया के माध्यम से अपनी मुक्ति चाहता है, उसे विधिक सेवाएँ उपलब्ध होनी चाहिये।
  • माधव हयावदनराव होसकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978)
    • कैदी के लिये अधिवक्ता प्राप्त करने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है। 
    • विधिक सहायता का अधिकार राज्य का कर्त्तव्य है, न कि सरकार का दान। 
    • न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वतंत्रता के सार के लिये प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय अपरिहार्य हैं।

पर्यावरणीय विधि

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 15

 24-Oct-2024

एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ

"जो लोग विधि का उल्लंघन करते हैं, वे अब निडर हैं, क्योंकि उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। विद्वान ASG ने न्यायालय को आश्वासन दिया कि दो सप्ताह के अंदर पूरा प्रशासन अस्तित्व में आ जाएगा", न्यायालय ने अपने आदेश में कहा।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह, एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि 2023 जन विश्वास संशोधन के बाद पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 (EPA) की धारा 15 प्रभावी हो जाएगी।

एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, याचिकाकर्त्ता द्वारा एक सिविल रिट दायर की गई थी जिसमें कहा गया था कि EPA की धारा 15 लागू नहीं है। 
  • यह कहा गया था कि पराली जलाने की प्रथा ने विशेष रूप से पंजाब एवं हरियाणा राज्य में वायु प्रदूषण को बढ़ा दिया है। 
  • याचिकाकर्त्ता द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि इस तरह की प्रथाओं के विरुद्ध अधिकारियों द्वारा कोई सख्त कार्यवाही नहीं की गई है।
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) ने पर्यावरण सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव कृषि आदि सहित पंजाब एवं हरियाणा दोनों के अधिकारियों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। 
  • यह भी देखा गया कि निगरानी समिति अपने सदस्यों की अनुपस्थिति के कारण कार्य नहीं कर रही है, जिसके लिये भारत संघ ने न्यायालय को आश्वासन दिया कि वह उन सदस्यों को स्थानांतरित करेगा जो ठीक से कार्य नहीं कर रहे हैं।
  • न्यायमित्र अपराजिता सिंह ने टिप्पणी की कि न्यायालय के बार-बार निर्देशों के बावजूद निगरानी समिति ने नगण्य प्रगति की है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एवं आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग अधिनियम, 2021 (CAQM) की धारा 14 के अंतर्गत अपनी शक्ति का उपयोग करने के बजाय केवल पराली जलाने पर नोटिस जारी करने के लिये CAQM की आलोचना की। 
    • उच्चतम न्यायालय ने EPA की धारा 15 को लागू नहीं करने के लिये भारत संघ की भी आलोचना की क्योंकि संशोधन के कारण दण्डात्मक प्रावधानों को दण्ड द्वारा बदल दिया गया है।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि EPA की धारा 15C के अंतर्गत न्यायनिर्णयन अधिकारियों की नियुक्ति से संबंधित नियमों  के अभाव के कारण दण्ड आरोपित करना कठिन हो गया है। 
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि EPA की धारा 15 के अंतर्गत संशोधन ने अधिनियम के उद्देश्य को आधारहीन एवं शक्तिहीन बना दिया है।
    • उच्चतम न्यायालय ने CAQM अधिनियम की धारा 15 को उचित तरीके से लागू न करने तथा पर्यावरण क्षतिपूर्ति की दरों का निर्धारण न करने के लिये CAQM से भी प्रश्न किये। 
    • न्यायालय ने पिछले सप्ताह पंजाब एवं हरियाणा के मुख्य सचिवों को तलब किया था।
    • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि पराली जलाने के मामले में CAQM के आदेशों के उल्लंघन के लिये CAQM अधिनियम के अंतर्गत कोई वाद संस्थित नहीं किया गया। 
    • उच्चतम न्यायालय ने निगरानी समिति के सदस्यों की अनुचित कार्यप्रणाली को बताते हुए राज्य तथा CAQM के कार्य की भी आलोचना की।
      • यह देखा गया कि सदस्य अधिकांश समय अनुपस्थित रहते हैं तथा इसलिये पर्याप्त प्रयास नहीं कर पाते।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि:
    • CAQM को उचित क्षतिपूर्ति दरें निर्धारित करके CAQM अधिनियम की धारा 15 को लागू करने के लिये नियम बनाने चाहिये तथा उसे केवल राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा निर्धारित फार्मूले पर निर्भर नहीं रहना चाहिये। 
    • उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ को 2 सप्ताह के अंदर CAQM की धारा 15 के अंतर्गत नियमों में संशोधन करने तथा पर्यावरण क्षतिपूर्ति की उचित दरें प्रदान करने का भी निर्देश दिया।
    • न्यायालय ने केंद्र एवं दिल्ली NCR सरकार को वायु प्रदूषण के कारणों (कचरा जलाना, परिवहन प्रदूषण, भारी ट्रकों से प्रदूषण एवं औद्योगिक प्रदूषण) के आधार पर प्रदूषण की रिपोर्ट उपलब्ध कराने का भी निर्देश दिया है।

EPA की धारा 15 क्या है?

धारा 15 में अधिनियम, नियमों, आदेशों एवं निर्देशों के प्रावधानों के उल्लंघन के लिये दण्ड का प्रावधान किया गया है

  • मुख्य दण्ड
    • उपधारा (1) में यह प्रावधानित किया गया है कि कोई भी व्यक्ति जो इस अधिनियम या बनाए गए नियमों या जारी किये गए आदेशों या निर्देशों के किसी भी प्रावधान का पालन नहीं करता है, जहाँ ऐसे उल्लंघन के लिये कोई दण्ड का प्रावधान नहीं है, वह 10 लाख रुपये का भुगतान करने के लिये उत्तरदायी होगा जो 15 लाख रुपये से अधिक हो सकता है।
    • इस उपधारा को जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) अधिनियम, 2023 (JV) की धारा 3 के अनुसार संशोधित किया गया है। 
    • इसके अंतर्गत उपधारा (1) के अंतर्गत जुर्माना एवं दण्ड का प्रावधान प्रारंभ होने की तिथि से हर 3 महीने की समाप्ति के बाद 10% (न्यूनतम राशि) बढ़ाया जाएगा।

पुराना उपखंड (1)

  • संशोधन से पहले उपधारा (1) में यह कहा गया था कि:
    • कोई भी व्यक्ति जो इस अधिनियम या बनाए गए नियमों या जारी किये गए आदेशों या निर्देशों के किसी भी प्रावधान का पालन नहीं करता है, जहाँ कोई दण्ड प्रदान नहीं किया गया है, तो ऐसे उल्लंघन के लिये कारावास के साथ जो पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है या अर्थदण्ड के साथ जो एक लाख रुपये तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों के साथ दण्डनीय होगा।
    • यदि आदेशों की विफलता या उल्लंघन जारी रहता है, तो अतिरिक्त जुर्माने से, जो प्रथम विफलता या उल्लंघन के लिये दोषसिद्धि के पश्चात प्रत्येक दिन के लिये पाँच हजार रुपए तक हो सकेगा, जिसके दौरान ऐसी विफलता या उल्लंघन जारी रहता है।
  • उपधारा (1) का निरंतर उल्लंघन
    • उपधारा (2) में यह प्रावधानित किया गया है कि उपधारा (1) के अंतर्गत उल्लंघन जारी रखने पर व्यक्ति प्रत्येक दिन के लिये दस हजार रुपये के अतिरिक्त जुर्माने के लिये उत्तरदायी होगा, जिसके दौरान ऐसा उल्लंघन किया जाता रहा है।
  • पुराना उपखंड (2)
    • संशोधन से पहले उपधारा (2) में यह प्रावधानित किया गया था कि:
      • यदि दोषसिद्धि की तिथि के बाद एक वर्ष की अवधि से अधिक समय तक विफलता या उल्लंघन जारी रहता है, तो अपराधी को सात वर्ष तक के कारावास से दण्डित किया जा सकेगा।
      • संयुक्त उद्यम अधिनियम द्वारा EPA की धारा 15C भी शमनीय की गई, जिसमें निर्णायक अधिकारी के लिये प्रावधान किया गया है।
  • न्यायनिर्णायक अधिकारियों की नियुक्ति
    • उपधारा (1) में यह प्रावधानित किया गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दण्ड निर्धारित करने के प्रयोजनों के लिये, केंद्र सरकार भारत सरकार के संयुक्त सचिव या राज्य सरकार के सचिव के पद से नीचे के अधिकारी को न्यायनिर्णायक अधिकारी नियुक्त कर सकती है, जो जाँच करेगा और निर्धारित तरीके से दण्ड आरोपित किया जाएगा: 
    • हालाँकि केंद्र सरकार उतने न्यायनिर्णायक अधिकारियों को नियुक्त कर सकती है, जितने की आवश्यकता हो।
  • न्यायनिर्णायक अधिकारी की शक्तियाँ
    • उपधारा (2) में यह प्रावधानित किया गया है कि न्यायनिर्णायक अधिकारी-
      • इस अधिनियम तथा इसके अधीन प्रावधानित किये गए नियमों के उपबंधों का उल्लंघन करने या उनका अनुपालन न करने का अभिकथन करने वाले किसी व्यक्ति को या मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों की सूचना रखने वाले किसी व्यक्ति को बुलाना। 
      • ऐसे व्यक्ति से उसके कब्जे में मौजूद कोई अभिलेख, रजिस्टर या अन्य दस्तावेज या कोई अन्य दस्तावेज प्रस्तुत करने की अपेक्षा करना, जो न्यायनिर्णायक अधिकारी की राय में विषय-वस्तु से सुसंगत हो।
  • सुनवाई एवं जुर्माना का अधिरोपण
    • उपधारा (3) में यह प्रावधानित किया गया है कि न्यायनिर्णायक अधिकारी, व्यक्ति को मामले में सुनवाई का उचित अवसर देने के पश्चात्, तथा यदि ऐसी जाँच पर, वह संतुष्ट हो जाता है कि संबंधित व्यक्ति ने इस अधिनियम या इसके अधीन बनाए गए नियमों के उपबंधों का उल्लंघन किया है या उनका अनुपालन नहीं किया है, तो वह धारा 14A, 14B, 15, 15A या धारा 15B के उपबंधों के अनुसार, जैसा भी मामला हो, ऐसा जुर्माना लगा सकता है, जैसा वह ठीक समझे।
  • दण्ड निर्धारण के कारक
    • उपधारा (4) में यह प्रावधानित किया गया है कि न्यायनिर्णायक अधिकारी उपधारा (3) के अंतर्गत दण्ड की मात्रा का न्यायनिर्णयन करते समय निम्नलिखित तथ्यों पर समुचित ध्यान देगा, अर्थात्:-
      • ऐसे किये गए उल्लंघन या गैर-अनुपालन के कारण प्रभावित या प्रभावित होने वाली आबादी एवं क्षेत्र
      • ऐसे किये गए उल्लंघन या गैर-अनुपालन की आवृत्ति एवं अवधि
      • ऐसे किये गए उल्लंघन या गैर-अनुपालन से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों के वर्ग की भेद्यता।
      • ऐसे किये गए उल्लंघन या गैर-अनुपालन के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति को हुई या होने वाली क्षति, यदि कोई हो।
      • ऐसे किये गए उल्लंघन या गैर-अनुपालन से प्राप्त अनुचित लाभ।
      • ऐसा अन्य कारक, जैसा कि निर्धारित किया जा सकता है।
  • अतिरिक्त दायित्व
    • उपधारा (5) में यह प्रावधानित किया गया है कि धारा 14ए, 14B, 15, 15A या 15B के प्रावधानों के अंतर्गत आरोपित किये गए जुर्माने की राशि, जैसा भी मामला हो, राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 (2010 का 19) की धारा 17 के साथ शमनीय धारा 15 के अंतर्गत राहत या क्षतिपूर्ति का भुगतान करने की देयता के अतिरिक्त होगी।