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सांविधानिक विधि
राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान
11-Nov-2024
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार फैज़ान मुस्तफा के माध्यम से बनाम नरेश अग्रवाल “अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय महत्त्व” के रूप में नामित संस्थान अभी भी अपना अल्पसंख्यक चरित्र यथावत रख सकता है।” CJI धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता। |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) मामले में उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय में AMU को "राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान" घोषित किया गया है, लेकिन इससे उसका अल्पसंख्यक चरित्र खत्म नहीं होता। न्यायालय ने कहा कि संघ का तर्क है कि इस तरह के पदनाम के लिये आरक्षण के प्रति अधिक समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता होनी चाहिये, जिससे राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में संतुलन बनाने एवं अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया जा सके।
- यह निर्णय AMU की विशिष्ट पहचान की संवैधानिक मान्यता पर बल देता है, साथ ही यह सुनिश्चित करता है कि यह व्यापक सामाजिक न्याय सिद्धांतों के अनुरूप बना रहे।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार फैजान मुस्तफा बनाम नरेश अग्रवाल मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्ष 1977 में अलीगढ़ में मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की गई, जो प्रारंभ में कलकत्ता विश्वविद्यालय एवं बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध था।
- 1920 में, शाही विधायिका ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया, जिसने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की स्थापना की और उसे शामिल किया।
- AMU अधिनियम में दो महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गए:
- वर्ष 1951 संशोधन अधिनियम
- वर्ष 1965 संशोधन अधिनियम, जिसने मुस्लिम छात्रों के लिये धार्मिक निर्देशों एवं विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ढाँचे को संशोधित किया।
- संशोधनों ने कई प्रमुख पहलुओं को बदल दिया, जिसमें न्यायालय के सदस्यों के लिये मुस्लिम होने की आवश्यकता को हटाना एवं न्यायालय से कार्यकारी परिषद को महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हस्तांतरित करना शामिल है।
- वर्ष 1951 और वर्ष 1965 के संशोधन अधिनियमों के विरुद्ध अनुच्छेद 32 के अंतर्गत संवैधानिक चुनौतियाँ दायर की गईं, जिनमें मुख्य रूप से तर्क दिया गया कि ये संशोधन संविधान के अनुच्छेद 30(1) का उल्लंघन करते हैं।
- याचिकाकर्त्ताओं का मुख्य तर्क यह था कि AMU की स्थापना मुसलमानों (एक धार्मिक अल्पसंख्यक) द्वारा की गई थी, तथा इसलिये उन्हें संविधान के अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत इसे प्रशासित करने का अधिकार था।
- भारत संघ ने इन याचिकाओं का विरोध करते हुए तर्क दिया कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के पास प्रशासनिक अधिकार नहीं हैं क्योंकि उन्होंने संस्था की स्थापना नहीं की थी - बल्कि, इसे 1920 के अधिनियम के माध्यम से संसद द्वारा स्थापित किया गया था।
- मुख्य विधिक मुद्दे:
- क्या AMU संविधान के अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के रूप में योग्य है?
- मुख्य विवाद अनुच्छेद 30(1) में "स्थापना एवं प्रशासन" वाक्यांश का निर्वचन के आस-पास केंद्रित है, जो अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना एवं प्रशासन का अधिकार देता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि सूची 1 की प्रविष्टि 63 के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान के रूप में AMU की स्थिति स्वचालित रूप से इसके संभावित अल्पसंख्यक चरित्र को नकारती या कम नहीं करती है।
- न्यायालय ने कहा कि "राष्ट्रीय" एवं "अल्पसंख्यक" शब्दों द्वारा दर्शाए गए गुण परस्पर अनन्य या विरोधाभासी नहीं हैं; बल्कि, वे एक ही संस्थान के अंदर सह-अस्तित्व में रह सकते हैं।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जहाँ "राष्ट्रीय" शब्द अखिल भारतीय चरित्र को दर्शाता है, वहीं "अल्पसंख्यक" शब्द संस्थापकों की धार्मिक या भाषाई पृष्ठभूमि एवं उनके संवैधानिक अधिकारों को दर्शाता है।
- न्यायालय ने संघ के इस तर्क को खारिज कर दिया कि राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान होने के नाते AMU को अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे के लिये अधिक कठोर जाँच से गुजरना चाहिये, विशेष रूप से SC/ST/OBC आरक्षण के संबंध में।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुसूचित सूचियों के अंतर्गत राज्य या संघ की शक्तियाँ और अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यक अधिकार एक दूसरे के साथ ओवरलैप हो सकते हैं, जिसमें पूर्व की शक्तियाँ बाद की संवैधानिक स्थिति का अतिक्रमण नहीं करती हैं।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि शैक्षिक पहलुओं का राज्य विनियमन अल्पसंख्यक चरित्र के आत्मसमर्पण के बराबर नहीं है, और विश्वविद्यालयों पर विधायी क्षमता किसी संस्थान की अल्पसंख्यक दर्जे को प्रभावित नहीं करती है।
- न्यायालय ने माना कि किसी संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को खत्म करने के लिये उसके राष्ट्रीय महत्त्व के दर्जे को अनुमति देना प्रभावी रूप से अनुच्छेद 30(1) के अधिकारों को संसदीय शक्तियों के अधीन कर देगा।
- न्यायालय ने कहा कि प्रविष्टि 63 एवं 64 के अंतर्गत संस्थानों को राष्ट्रीय रूप से महत्त्वपूर्ण घोषित करने की संसद की शक्ति स्वचालित रूप से इन संस्थानों को अनुच्छेद 30(1) सुरक्षा से बाहर नहीं कर सकती है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत अपनी संवैधानिक सुरक्षा को संरक्षित करते हुए एक साथ राष्ट्रीय महत्त्व का दर्जा बनाए रख सकता है।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि संसद एवं राज्य विधानसभाओं के बीच विधायी क्षमता वितरण का किसी संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को निर्धारित करने पर कोई असर नहीं पड़ता है।
अल्पसंख्यक अधिकार एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास एवं विधिक महत्त्व क्या है?
- अल्पसंख्यक अधिकारों का इतिहास:
- इस अवधारणा का 17वीं शताब्दी के मध्य में वेस्टफेलिया शांति संधियों से हुई थी, जिसमें आरंभ में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
- यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय के साथ, अल्पसंख्यक अधिकारों में राष्ट्रीय पहचान एवं समूह शामिल हो गए।
- 1878 में बर्लिन कांग्रेस द्वारा, अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करना नए राष्ट्रों के लिये अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने की एक शर्त बन गई।
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ ने अल्पसंख्यक अधिकारों को प्राथमिकता दी, विशेष रूप से जातीय रूप से विविधतापूर्ण पूर्वी-मध्य यूरोप में।
- अल्पसंख्यकों की सुरक्षा धार्मिक पहचान से विकसित होकर समय के साथ भाषाई, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचानों को शामिल करने लगी।
- अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय ने 1920-30 के दशक में कई ऐतिहासिक मामलों के माध्यम से अल्पसंख्यक अधिकारों को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- भारत में अल्पसंख्यकों का अधिकार:
- ब्रिटिश शासन ने धार्मिक एवं जाति-आधारित वर्गीकरण के माध्यम से अल्पसंख्यकों का औपचारिक वर्गीकरण प्रारंभ किया।
- 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों ने अल्पसंख्यक समुदायों के लिये अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र एवं कोटा शुरू किया।
- 1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व में अल्पसंख्यक पहचान को और सशक्त किया।
- संविधान सभा ने प्रारंभ में अल्पसंख्यकों के लिये व्यापक सुरक्षा की योजना बनाई थी, लेकिन विभाजन के बाद इसे कम कर दिया गया।
- अंतिम संविधान ने अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सुरक्षा के लिये मौलिक अधिकारों के रूप में अनुच्छेद 29 एवं 30 को यथावत रखा।
- स्वतंत्रता के बाद, भाषाई अल्पसंख्यकों के लिये अनुच्छेद 350A एवं 350B के द्वारा अतिरिक्त सुरक्षा जोड़ी गई।
- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) का इतिहास:
- सर सैयद अहमद खान द्वारा 1875 में मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में स्थापित।
- बढ़ी हुई फीस एवं सख्त परीक्षा आवश्यकताओं के कारण 1895 तक गिरावट का सामना करना पड़ा।
- विश्वविद्यालय की स्थापना के लिये धन जुटाने के लिये 1898 में सर सैयद मेमोरियल फंड बनाया गया था।
- विश्वविद्यालय की स्थापना के विषय में अखिल भारतीय मुहम्मदन शैक्षिक सम्मेलन में महत्त्वपूर्ण विचार-विमर्श हुआ।
- AMU अधिनियम अंततः 1920 में पारित हुआ, जिसने औपचारिक विश्वविद्यालय संरचना की स्थापना की।
- अधिनियम ने चार मुख्य शासी निकाय बनाए: कार्यकारी परिषद, शैक्षणिक परिषद, न्यायालय एवं लॉर्ड रेक्टर सहित अन्य अधिकारी।
- 1951 संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ:
- लॉर्ड रेक्टर के स्थान पर 'विजिटर' का पद रखा गया, जो भारत के राष्ट्रपति के पास होना था।
- विजिटर को विश्वविद्यालय के संचालन पर व्यापक निरीक्षण एवं जाँच के अधिकार दिये गए।
- AMU कोर्ट की स्थापना उच्चतम शासी निकाय के रूप में की गई, जिसके पास कार्यकारी एवं अकादमिक परिषद के कार्यों की समीक्षा करने की शक्तियाँ थीं।
- न्यायालय को क़ानून बनाने, संशोधित करने एवं निरस्त करने का अधिकार दिया गया।
- छात्रों का प्रवेश, पाठ्यक्रम, शुल्क एवं संकाय की शर्तों को शामिल करने के लिये अध्यादेश बनाने की शक्तियों का विस्तार किया गया।
- 1965 संशोधन अधिनियम में प्रमुख संशोधन:
- न्यायालय की शक्तियों को महत्त्वपूर्ण रूप से कम कर दिया गया, तथा इसे मुख्य रूप से सलाहकार की भूमिका तक सीमित कर दिया गया।
- संविधि बनाने की शक्ति न्यायालय से कार्यकारी परिषद को हस्तांतरित कर दी गई।
- नए संविधि या संशोधनों के लिये कार्यकारी परिषद को विजिटर की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक कर दिया गया।
- न्यायालय की संरचना का पुनर्गठन किया गया, जिसमें चांसलर, प्रो-चांसलर एवं संविधि में निर्दिष्ट अन्य लोगों को शामिल किया गया।
- न्यायालय को मुख्य रूप से विजिटर एवं अन्य विश्वविद्यालय प्राधिकारियों के लिये एक सलाहकारी निकाय बनाया गया।
- अज़ीज़ बाशा मामला:
- यह मामला 1951 एवं 1965 के संशोधन अधिनियमों के लिये चुनौती बनकर उभरा।
- प्राथमिक संवैधानिक प्रश्न अनुच्छेद 30 (अल्पसंख्यक संस्थान अधिकार) पर केंद्रित था।
- यह निर्धारित करने पर केंद्रित था कि AMU अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के रूप में योग्य है या नहीं।
- यह चुनौती 1965 के संशोधनों के लागू होने के तुरंत बाद आई।
- संवैधानिक वैधता की जाँच अल्पसंख्यक अधिकार संरक्षण की दृष्टि से की गई।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30 क्या है?
- अनुच्छेद 30 दोहरे उद्देश्य की पूर्ति करता है: शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भेदभाव को रोकना एवं उनके प्रशासन में विशेष सुरक्षा प्रदान करना।
- शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार केवल अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं है (गैर-अल्पसंख्यकों को अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत यह अधिकार प्राप्त है), लेकिन अल्पसंख्यकों को अपने संस्थानों के प्रशासन में विशेष सुरक्षा प्राप्त है।
- हालाँकि अनुच्छेद 30 में स्पष्ट रूप से प्रतिबंधों की सूची नहीं दी गई है, लेकिन न्यायालयों ने माना है कि यह पूर्ण नहीं है - शैक्षिक मानकों, अनुशासन, स्वास्थ्य, स्वच्छता, नैतिकता एवं सार्वजनिक व्यवस्था के लिये विनियमन लागू किये जा सकते हैं।
- मुख्य अंतर यह है कि विनियमन संस्थान के "अल्पसंख्यक चरित्र" का उल्लंघन नहीं करना चाहिये - यह अनुच्छेद 30 द्वारा प्रदान की गई विशेष सुरक्षा है जो गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों को उपलब्ध नहीं है।
- प्रशासन के अधिकार में प्रबंध निकाय का चयन, शिक्षकों का चयन, छात्र प्रवेश पर नियंत्रण एवं संस्थान के लाभ के लिये संपत्तियों/परिसंपत्तियों का उपयोग करना शामिल है।
- राज्य के हस्तक्षेप की डिग्री इस आधार पर भिन्न होती है कि संस्थान:
- गैरवित्तपोषित एवं गैर-मान्यता प्राप्त (न्यूनतम हस्तक्षेप)।
- गैरवित्तपोषित, लेकिन मान्यता के लिये आवेदन किया है (मध्यम विनियमन)।
- राज्य द्वारा वित्तपोषित है (अल्पसंख्यक दर्जे को कम किये बिना निधि के उपयोग का विनियमन कर सकता है)।
- अल्पसंख्यक संस्थाएँ गैर-अल्पसंख्यक कर्मचारियों को नियुक्त कर सकती हैं, जिसमें नेतृत्व के पद भी शामिल हैं, क्योंकि यह प्रशासन में उनकी पसंद के संरक्षित अधिकार के अंतर्गत आता है।
- अनुच्छेद 30 धार्मिक शिक्षा से आगे बढ़कर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा तक विस्तृत है, जो अल्पसंख्यकों को उनकी धार्मिक/भाषाई पहचान के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से शिक्षा प्रदान करने की अनुमति देता है।
- कोई भी विनियमन मान्यता/सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से प्रासंगिक होना चाहिये तथा संस्था के अल्पसंख्यक चरित्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिये।
प्रविष्टि 63 पहली सूची
- पहली सूची (संघ सूची) की प्रविष्टि 63 संविधान के अनुच्छेद 246 द्वारा अपना महत्त्व प्राप्त करती है तथा संसद को कुछ संस्थाओं से संबंधित मामलों पर विधि निर्माण करने का विशेष अधिकार देती है।
- प्रविष्टि के दो मुख्य घटक हैं:
- एक मूलभूत भाग जो संवैधानिक रूप से BHU, AMU एवं दिल्ली विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान घोषित करता है,
- एक प्रक्रियात्मक भाग जो संसद को अन्य संस्थानों को राष्ट्रीय महत्त्व के रूप में घोषित करने की शक्ति देता है।
- संविधान सभा ने साशय BHU एवं AMU को सीधे प्रविष्टि 63 में शामिल करके उन्हें उच्च दर्जा देने का निर्णय किया।
- संसद नियमित कानून के माध्यम से BHU या AMU से "राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान" का दर्जा नहीं हटा सकती - इसके लिये संविधान संशोधन की आवश्यकता होगी।
- जबकि संसद अनुच्छेद 246 के माध्यम से नए संस्थानों को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है, वह इस शक्ति का उपयोग प्रविष्टि 63 में नामित संस्थानों को संविधान द्वारा पहले से दिये गए दर्जे को छीनने के लिये नहीं कर सकती।
सांविधानिक विधि
नियमित भर्ती प्रक्रिया
11-Nov-2024
राकेश लाल मीणा एवं अन्य बनाम सचिव, गृह मंत्रालय के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य "केवल इसलिये कि याचिकाकर्त्ताओं को जारी किये गए प्रारंभिक नियुक्ति आदेशों में उल्लेख किया गया था कि नियुक्ति संविदा के आधार पर की गई थी, यह नहीं कहा जा सकता कि याचिकाकर्त्ताओं की नियुक्ति नियमित आधार पर नहीं की गई थी।" मुख्य न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय एवं न्यायमूर्ति अमित बोरकर |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय एवं न्यायमूर्ति अमित बोरकर की पीठ ने कहा कि केवल इसलिये कि याचिकाकर्त्ताओं को जारी किये गए प्रारंभिक नियुक्ति आदेश में उल्लेख किया गया था कि नियुक्ति संविदा के आधार पर की गई थी, यह नहीं कहा जा सकता कि याचिकाकर्त्ताओं की नियुक्ति नियमित आधार पर नहीं की गई थी।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने राकेश लाल मीना एवं अन्य बनाम सचिव, गृह मंत्रालय के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
राकेश लाल मीना एवं अन्य बनाम सचिव, गृह मंत्रालय के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- नर्सों के एक समूह ने अपनी रोज़गार स्थिति से संबंधित याचिका दायर की। मुख्य मुद्दा यह था कि उचित भर्ती प्रक्रिया के माध्यम से चुने जाने के बावजूद, उन्हें संविदात्मकित कर्मचारियों के रूप में माना जाता था।
- वे वर्ष 2006 में भर्ती प्रक्रिया में शामिल हुए:
- रोजगार समाचार एवं स्थानीय समाचार पत्रों में नौकरियों के विज्ञापन दिये गए।
- स्थानीय रोजगार कार्यालय से भी नाम मंगवाए गए।
- स्टाफ नर्स पदों के लिये 154 अभ्यर्थी प्रस्तुत आए।
- चार वरिष्ठ अधिकारियों की एक उचित चयन समिति बनाई गई।
- चयन समिति के निर्णय इस प्रकार थे:
- मौजूदा रिक्तियों के लिये 15 अभ्यर्थियों का चयन किया गया।
- प्रस्तावित नए पदों के लिये 6 अभ्यर्थियों की अलग सूची तैयार की गई।
- 16 अभ्यर्थियों की प्रतीक्षा सूची बनाई गई।
- याचिकाकर्त्ताओं की स्थिति:
- याचिकाकर्त्ता संख्या 1 को 15 रिक्तियों में से एक के विरुद्ध प्रतीक्षा सूची से नियुक्त किया गया था।
- याचिकाकर्त्ता संख्या 2, 7 एवं 8 को मुख्य चयन सूची से नियुक्त किया गया था।
- याचिकाकर्त्ता संख्या 3, 4, 5 एवं 6 को प्रस्तावित छह नए पदों के विरुद्ध नियुक्त किया गया था।
- याचिकाकर्त्ता संख्या 9 एवं 10 अलग थे - उनके नाम चयन समिति के किसी भी लिस्ट में नहीं थे।
- मुख्य शिकायत:
- भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 309 के अंतर्गत उचित चयन प्रक्रिया से गुजरने के बावजूद।
- नियमित रिक्त पदों के विरुद्ध चयनित होने के बावजूद।
- उन्हें केवल 6 महीने का संविदात्मक दिया गया।
- उन्हें 9075 रुपये प्रति माह का निश्चित वेतन दिया गया।
- उनके संविदात्मक में कहा गया था कि वे "पद सृजित होने एवं नियमित आधार पर भरे जाने तक" काम करेंगे।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि चूँकि उनका चयन उचित भर्ती चैनलों (विज्ञापन, रोजगार कार्यालय, चयन समिति) द्वारा किया गया था, इसलिये उन्हें नियमित कर्मचारी माना जाना चाहिये, न कि संविदात्मक कर्मचारी।
- न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाने वाला मुद्दा यह था कि क्या 22 फरवरी 2006 को आयोजित विभागीय चयन समिति की बैठक में किये गए चयन के आधार पर स्टाफ नर्स के रूप में याचिकाकर्त्ताओं की प्रारंभिक नियुक्ति को नियमित नियुक्ति माना जाए या ऐसी नियुक्ति को अन्यथा माना जाए; यानी संविदात्मक के आधार पर नियुक्ति।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- गोवा सरकार (स्वास्थ्य सेवा निदेशालय) गैर-मंत्रालयी, गैर-राजपत्रित तृतीय श्रेणी भर्ती नियम, 1967 सेवा नियम (सेवा नियम, 1967) के अनुसार स्टाफ नर्स के पद के लिये निम्नलिखित आवश्यकताएँ हैं:
- नौकरी की श्रेणी: यह एक तृतीय श्रेणी का पद है (यह दर्शाता है कि यह एक गैर-राजपत्रित पद है)।
- आयु की अर्हता: अभ्यर्थियों की आयु 35 वर्ष या उससे कम होनी चाहिये।
- आवश्यक अर्हताएँ:
- किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से नर्सिंग में A ग्रेड प्रमाण पत्र होना चाहिये।
- मिडवाइफरी में प्रमाण पत्र होना चाहिये।
- नियुक्ति प्रक्रिया:
- पदों को सीधी भर्ती के माध्यम से भरा जाता है।
- नियुक्ति के लिये UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं है।
- किसी नियुक्ति को नियमित मानने के लिये एक शर्त यह है कि चयन विधिवत स्वीकृत पद में उपलब्ध रिक्तियों के विरुद्ध किया जाना चाहिये। न्यायालय ने माना कि नियुक्तियाँ विधिवत स्वीकृत पदों में स्पष्ट रिक्तियों के विरुद्ध की गई थीं।
- सेवा नियम, 1967 में चयन समिति की संरचना के संबंध में किसी स्पष्ट निर्देश के अभाव में, यह नहीं कहा जा सकता है कि याचिकाकर्त्ताओं का चयन विधिवत गठित चयन समिति द्वारा नहीं किया गया था।
- यदि सेवा नियम, 1967 में चयन समिति की कोई विशेष संरचना प्रदान की गई होती तथा 22 फरवरी 2006 को हुई चयन समिति की संरचना सेवा नियम, 1967 में दी गई संरचना से मेल नहीं खाती, तो यह कहा जा सकता था कि याचिकाकर्त्ताओं को विधिवत गठित चयन समिति द्वारा चयन प्रक्रिया के अधीन नहीं किया गया था। हालाँकि, जैसा कि पहले ही ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, चूँकि सेवा नियम, 1967 में चयन समिति की कोई संरचना निर्धारित नहीं की गई है, इसलिये हमें यह निष्कर्ष निकालने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि याचिकाकर्त्ताओं की नियुक्ति उचित रूप से गठित चयन समिति द्वारा की गई सिफारिश के आधार पर की गई थी।
- यदि सेवा नियम, 1967 में उपलब्ध प्रावधानों के अनुसार नियमित चयन प्रक्रिया का पालन किया गया है, तो केवल इसलिये कि याचिकाकर्त्ताओं के प्रारंभिक नियुक्ति आदेश में नियुक्ति को संविदात्मक के आधार पर वर्णित किया गया था, हमारी सुविचारित राय में, यह याचिकाकर्त्ताओं की नियुक्ति को किसी भी तरह से संविदात्मक के आधार पर या अनियमित नहीं मानता है।
- इन परिस्थितियों में, स्टाफ नर्स के पद पर याचिकाकर्त्ताओं को नियमित नियुक्ति के लाभ से वंचित करना न्यायालय द्वारा पूरी तरह से मनमाना, अनुचित एवं अवैध माना गया।
गोवा सरकार (स्वास्थ्य सेवा निदेशालय) गैर-मंत्रालयिक, अराजपत्रित तृतीय श्रेणी की भर्ती प्रक्रिया नियम, 1967 क्या हैं?
- उक्त नियम 2 फरवरी 1967 को अधिसूचित किये गए थे।
- इन्हें भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 309 में संलग्न प्रावधान के अंतर्गत तैयार किया गया है।
- COI के अनुच्छेद 309 के उपबंध में यह प्रावधान है कि निम्नलिखित सरकारें ऐसी सेवाओं एवं पदों पर भर्ती एवं नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों को विनियमित करने वाले नियम बना सकती हैं, जब तक कि इस अनुच्छेद के अंतर्गत उपयुक्त विधानमंडल के अधिनियम द्वारा या उसके अंतर्गत उस संबंध में प्रावधान नहीं किया जाता है:
- संघ के कार्यकलापों से संबंधित सेवाओं एवं पदों के मामले में राष्ट्रपति या ऐसा अन्य व्यक्ति जिसे वह निर्दिष्ट करे।
- राज्य के कार्यकलापों से संबंधित सेवाओं एवं पदों के मामले में राज्य का राज्यपाल या ऐसा अन्य व्यक्ति जिसे वह निर्दिष्ट करे।
- सेवा नियम, 1967 के नियम 2 के अनुसार, उक्त सेवा नियम, अनुसूची के कॉलम 1 में निर्दिष्ट पदों पर लागू होंगे।
- नियम 3 में प्रावधान है कि पदों की संख्या, पदों का वर्गीकरण एवं पदों से जुड़े वेतनमान अनुसूची के कॉलम 2 से 4 में निर्दिष्ट अनुसार होंगे, जिसके अनुसार स्टाफ नर्स के पद की कैडर क्षमता 164 थी तथा स्टाफ नर्स के पद को तृतीय श्रेणी (गैर-लिपिकीय, अराजपत्रित) पद के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
- सेवा नियम, 1967 के नियम 4 में पदों पर भर्ती की पद्धति, आयु सीमा, योग्यताएँ तथा उससे संबंधित अन्य मामलों का प्रावधान है, जैसा कि अनुसूची के स्तंभ 5 से 13 में उल्लिखित है।
- सेवा नियम, 1967 के नियम 5 में प्रावधान है कि उक्त नियम अधिसूचना की तिथि से प्रभावी होंगे।
नियुक्ति की नियमित नियुक्ति कब माना जाएगा?
- नियमित नियुक्ति से तात्पर्य है किसी व्यक्ति को प्राधिकृत पूर्णकालिक पद पर नियुक्त करना।
- पंजाब राज्य बनाम बहादुर सिंह एवं अन्य (2008) के मामले में संविधान पीठ ने माना कि यदि यह संविदात्मक नियुक्ति है, तो नियुक्ति संविदात्मक के अंत में समाप्त हो जाती है, यदि यह दैनिक वेतन या आकस्मिक आधार पर नियुक्ति या नियुक्ति है, तो यह नियुक्ति समाप्त होने पर समाप्त हो जाएगी।
- नियमित नियुक्ति के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिये नियुक्ति, भर्ती नियमों की आवश्यकता के अनुसार विधिवत गठित चयन समिति द्वारा किये गए चयन के आधार पर की जानी चाहिये।
सांविधानिक विधि
विधि का शासन
11-Nov-2024
इन री मनोज टिबरेवाल आकाश "विधि के शासन में बुलडोजर का न्याय पूर्णतः अस्वीकार्य है। अगर इसकी अनुमति दी गई तो अनुच्छेद 300A के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी।" CJI डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
Why in News?
हाल ही में, मनोज टिबरेवाल आकाश के मामले में उच्चतम न्यायालय ने “बुलडोजर का न्याय” प्रवृत्ति की निंदा की है तथा इसे विधि के शासन के विरुद्ध बताया है।
मनोज टिबरेवाल आकाश मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता, जो एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ने अपने पैतृक आवासीय घर एवं दुकान के अवैध विध्वंस के विरुद्ध अपील किया।
- जिस सड़क पर टिबरेवाल का घर स्थित था, उसे राष्ट्रीय राजमार्ग के रूप में अधिसूचित किया गया था। इससे पहले, यह जिला पीलीभीत से बहराइच, बलरामपुर एवं महाराजगंज होते हुए पडरौना तक जाने वाला एक राज्य राजमार्ग था।
- भारत सरकार ने मौजूदा सड़क के चौड़ीकरण को स्वीकृति दी। एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में कहा गया है कि किमी 484 से किमी 505.120 के बीच दायाँ रास्ता 30 मीटर होना चाहिये।
- 2 मई 2018 को राज्य लोक निर्माण विभाग एवं महाकालेश्वर इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड के बीच कार्य को पूर्ण करने के लिये एक करार पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- अधिकारियों ने दावा किया कि टिबरेवाल उन कई लोगों में से एक थे जिन्होंने NH 730 की ज़मीन पर अतिक्रमण किया था। राज्य का दावा है कि उन्होंने अतिक्रमण हटाने के लिये सार्वजनिक घोषणा (मुनादी) की थीं।
- टिबरेवाल की माँ ने जिला मजिस्ट्रेट से निवेदन किया कि वे उनके घर को न गिराएँ, उन्होंने 1975 के उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश का उदाहरण दिया जिसमें विध्वंस के लिये उचित नोटिस एवं सांविधिक प्रावधानों की आवश्यकता थी।
- टिबरेवाल के भाई ने एक पत्र प्रस्तुत किया जिसमें कहा गया था कि उन्होंने घर/भूमि (आबादी भूमि के रूप में पंजीकृत) खरीदी है तथा यदि ध्वस्तीकरण आवश्यक हो तो क्षतिपूर्ति मांगा है।
- अधिकारियों ने कथित तौर पर पिछली शाम को रहने वालों से अपना सामान हटाने के लिये कहने के बाद घर को ध्वस्त कर दिया।
- संपत्ति के पास ऐतिहासिक स्वामित्व दस्तावेज थे:
- इसे टिबरेवाल के पिता ने पंजीकृत विलेख के माध्यम से खरीदा था।
- परिवार में विभाजन का पंजीकृत विलेख निष्पादित किया गया था।
- संपत्ति एक दो मंजिला पूर्वजों का घर था।
- विध्वंस से कुछ दिन पहले, टिबरेवाल के पिता ने कथित तौर पर NH-730 पर 185 करोड़ रुपये की सड़क निर्माण परियोजना में कथित अनियमितताओं एवं भ्रष्टाचार की SIT जाँच की मांग की थी, जिसे स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया था।
- विध्वंस के बाद कई जाँचे हुईं:
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जाँच की।
- बस्ती मंडल के आयुक्त ने अलग से जाँच की।
- विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष भी लाया गया।
- यह मामला मुख्य रूप से इस विवाद से संबंधित है कि क्या संपत्ति को ध्वस्त करने में उचित विधिक प्रक्रियाओं का पालन किया गया था तथा क्या सड़क चौड़ीकरण परियोजना के अंतर्गत ध्वस्तीकरण की सीमा उचित थी।
- भारतीय संविधान, 1950 ( COI) के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक स्वप्रेरणा रिट याचिका दर्ज की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- उत्तर प्रदेश राज्य निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण दस्तावेज प्रस्तुत करने में विफल रहा:
- राज्य राजमार्ग (बाद में NH 730) की मूल चौड़ाई दिखाने वाले कोई दस्तावेज नहीं।
- कोई उचित अतिक्रमण जाँच या सीमांकन दिखाने वाली कोई सामग्री नहीं।
- कोई साक्ष्य नहीं कि विध्वंस से पहले भूमि विधिक रूप से अधिग्रहित की गई थी।
- कथित अतिक्रमण की सटीक सीमा का कोई दस्तावेज नहीं।
- मौजूदा सड़क या अधिसूचित राजमार्ग की चौड़ाई दिखाने वाले कोई रिकॉर्ड नहीं।
- कथित 3.70 मीटर अतिक्रमण से परे विध्वंस का कोई औचित्य नहीं।
- न्यायालय ने गंभीर प्रक्रियागत उल्लंघन पाया:
- ध्वस्तीकरण की कार्यवाही केवल एक "मुनादी" (सार्वजनिक घोषणा) के साथ की गई।
- कब्जाधारियों को कोई लिखित नोटिस जारी नहीं किया गया।
- सीमांकन के आधार के विषय में कोई प्रकटन नहीं किया गया।
- योजनाबद्ध ध्वस्तीकरण की सीमा के विषय में कोई सूचना नहीं दी गई।
- यहाँ तक कि कथित रूप से अतिक्रमित क्षेत्र के लिये भी उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।
- न्यायालय ने "बुलडोजर का न्याय" की कड़ी निंदा की:
- कहा कि बुलडोजर के द्वारा न्याय करना किसी भी सभ्य न्यायशास्त्र प्रणाली के लिये अज्ञात है।
- संपत्ति विध्वंस के द्वारा चयनात्मक प्रतिशोध के खतरे से आगाह किया।
- इस बात पर बल दिया कि नागरिकों की आवाज को उनकी संपत्तियों को नष्ट करने की धमकी देकर दबाया नहीं जा सकता।
- इस बात पर बल दिया कि किसी व्यक्ति का घर उसकी अंतिम सुरक्षा का प्रतिनिधित्व करता है।
- न्यायालय ने अवधारित किया कि यद्यपि अतिक्रमण को क्षमा नहीं किया जाता है:
- नगर निगम विधि एवं नगर नियोजन विधि में अवैध अतिक्रमण से निपटने के लिये पर्याप्त प्रावधान हैं।
- जहाँ ऐसा संविधि उपलब्ध है, वहाँ इसके सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिये।
- अनुच्छेद 300A के अंतर्गत संपत्ति के संवैधानिक अधिकार की रक्षा की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने जवाबदेही की आवश्यकता पर बल दिया:
- जो अधिकारी अविधिक तरीके से तोड़फोड़ करते हैं या उसे स्वीकृति देते हैं, उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जानी चाहिये।
- विधि का उल्लंघन करने पर उन पर आपराधिक दण्ड लगाया जाना चाहिये।
- सरकारी अधिकारियों के लिये सार्वजनिक जवाबदेही आदर्श होनी चाहिये।
- न्यायालय ने आदेश दिया कि सार्वजनिक या निजी संपत्ति से संबंधित कोई भी कार्यवाही:
- विधि की उचित प्रक्रिया का समर्थन करना।
- उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना।
- संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करना।
- न्यायालय ने राज्य द्वारा अपनाई गई पूरी प्रक्रिया को निरंकुश एवं विधिक अधिकारविहीन पाया, जिसके कारण यह आवश्यक हो गया:
- दण्डात्मक क्षतिपूर्ति का भुगतान।
- उत्तरदायी अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही।
- CB-CID के माध्यम से आपराधिक जाँच।
- विधि का उल्लंघन करने वाले व्यक्तिगत अधिकारियों के लिये उत्तरदायी उपाय।
- ये टिप्पणियाँ उचित प्रक्रिया, विधि के शासन, तथा राज्य की मनमानी कार्यवाही के विरुद्ध नागरिकों के संपत्ति अधिकारों की सुरक्षा पर उच्चतम न्यायालय के सख्त रवैये को दर्शाती हैं।
विधि का शासन क्या है?
परिचय:
- विधि का शासन' शब्द फ्रेंच शब्द 'ले प्रिंसिपे डी लीगलाइट' से लिया गया है जिसका अर्थ है 'वैधता का सिद्धांत'।
- विधि का शासन, जिसे विधि की उच्चतमता के रूप में भी जाना जाता है, का अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति (सरकार सहित) विधि से ऊपर नहीं है।
- विधि का शासन एक विधिक सिद्धांत है कि विधि को सरकारी अधिकारियों द्वारा मनमाने निर्णयों के विरुद्ध एक राष्ट्र पर शासन करना चाहिये।
- प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति एवं पद के बावजूद विधि के सामान्य न्यायालयों के अधिकारिता के अधीन है।
डाइसी की विधि के शासन की अवधारणा:
- प्रोफेसर ए.वी. डाइसी को विधि के शासन की अवधारणा का मुख्य प्रतिपादक माना जाता है।
- 1885 में, उन्होंने अपनी क्लासिक पुस्तक ‘लॉ एंड द कॉन्स्टिट्यूशन’ में विधि के शासन के तीन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया।
- प्रोफेसर ए.वी. डाइसी के अनुसार, विधि की उच्चतमता प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित तीन सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिये:
- विधि की उच्चतमता
- विधि के समक्ष समानता
- विधिक भावना की प्रधानता: न्यायालय को निष्पक्षता एवं अन्य बाहरी प्रभाव से मुक्त होना चाहिये।
भारत में विधि का शासन:
- भारत का संविधान देश का विधान है तथा न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका पर इसका प्रभुत्व है।
- राज्य के इन तीनों अंगों को संविधान में उल्लिखित सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना होगा।
- संविधान के अंतर्गत, विधि के शासन को इसके कई उपबंधों में शामिल किया गया है।
- अनुच्छेद 13 भारत में विधि के शासन के सिद्धांत को बढ़ावा देता है।
- अनुच्छेद 13 के अंतर्गत नियमों, विनियमों, उपनियमों एवं अध्यादेशों के रूप में परिभाषित “कानूनों” को रद्द किया जा सकता है यदि वे भारत के संविधान के विपरीत हैं।
- अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता एवं विधियों के समान संरक्षण के अधिकार की गारंटी देता है।
- इसमें यह उपबंधित किया गया है कि किसी को भी विधि के समक्ष समता एवं राज्य द्वारा विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने विधि के शासन को संविधान की मूल विशेषता के रूप में शामिल किया है।
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अनुच्छेद 14 राज्य की कार्यवाहियों में मनमानी पर रोक लगाता है, व्यवहार में निष्पक्षता एवं समता सुनिश्चित करता है।
- विधि के शासन का एक और महत्त्वपूर्ण व्युत्पन्न दोष न्यायिक समीक्षा है।
- केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विधायी अधिनियमों एवं कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करना न्यायपालिका का अधिकार है।
- यह न केवल संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा करता है बल्कि प्रशासनिक कार्यों एवं उनकी वैधानिकता की भी जाँच करता है।
- शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान की गई थी।
- न्यायिक समीक्षा की शक्तियाँ अनुच्छेद 226 एवं अनुच्छेद 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को तथा अनुच्छेद 32 एवं अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालयों को सौंपी गई हैं।
निर्णयज विधियाँ:
- ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976):
- इस मामले को "बंदी प्रत्यक्षीकरण मामला" के नाम से भी जाना जाता है। यह विधि के शासन के मामले में सबसे महत्त्वपूर्ण मामलों में से एक है।
- माननीय न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न किया गया कि क्या भारत में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अतिरिक्त कोई विधि का शासन है।
- DC वाधवा बनाम बिहार राज्य (1986):
- उच्चतम न्यायालय ने विधि के शासन का उपयोग राज्य सरकारों की निंदा करने के लिये किया, जो विधानमंडल द्वारा विधि निर्माण के स्थान पर अपनी अध्यादेश बनाने की शक्ति का बार-बार उपयोग कर रही थीं।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि अध्यादेशों का पुनः प्रवर्तन असंवैधानिक है, क्योंकि विधान बनाने के बिना एक से चौदह वर्ष की अवधि के लिये अध्यादेशों का पुनः प्रवर्तन कार्यपालिका द्वारा शक्ति का रंग-रूपी प्रयोग है।
- यूसुफ खान बनाम मनोहर जोशी (2000):
- उच्चतम न्यायालय ने यह प्रस्ताव दिया रखा है कि विधियों को संरक्षित एवं सुरक्षित रखना राज्य का कर्त्तव्य है तथा वह किसी भी हिंसक कृत्य की अनुमति नहीं देगा, जो विधि के शासन को नकारता हो।