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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

अग्रिम जमा की शर्त

 12-Nov-2024

आशा देवी बनाम नारायण कीर एवं अन्य

“राशि का 20% जमा करने के निर्देश से उसकी अपील खतरे में पड़ जाएगी।”

न्यायमूर्ति अरुण मोंगा

स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अरुण मोंगा की पीठ ने कहा कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 148 के तहत अग्रिम जमा की शर्त अनिवार्य नहीं है।                 

  • राजस्थान उच्च न्यायालय ने आशा देवी बनाम नारायण कीर एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

आशा देवी बनाम नारायण कीर एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 389 के तहत सज़ा निलंबित करने के लिये आवेदन दायर किया है।
  • सत्र न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 148 के अनुसार जुर्माना/मुआवज़ा की राशि का 20% भुगतान करना होगा।
  • यदि याचिकाकर्त्ता सत्र न्यायालय के आदेश के अनुसार राशि का भुगतान करने में विफल रहता है तो उसे को ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सज़ा भुगतनी होगी।
  • सत्र न्यायालय का आदेश मुख्यतः इस आधार पर था कि NI अधिनियम की धारा 148 के अनुसार सज़ा को तभी निलंबित किया जा सकता है जब जुर्माने की राशि का न्यूनतम 20% परिवादी को भुगतान कर दिया जाए।
  • याचिकाकर्त्ता का कहना है कि वह एक गरीब महिला है जो दैनिक मज़दूरी पर काम करती है और इसलिये वह इतनी बड़ी राशि यानी चेक की राशि का 20% जमा करने की स्थिति में नहीं है।
  • इसलिये मामला उच्च न्यायालय के समक्ष था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि उपलब्ध तथ्यों के आधार पर याचिकाकर्त्ता की वित्तीय स्थिति को देखते हुए उसे 20% राशि जमा करने का निर्देश देना याचिकाकर्त्ता के बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार को खतरे में डालेगा।
  • चूँकि महिला आर्थिक संकट में है, इसलिये न्याय के व्यापक हित में उसे रियायत दी जानी चाहिये ताकि वह लंबित अपील में अपना बचाव कर सके।
  • इसलिये, न्यायालय ने अंतरिम मुआवज़े की 20% राशि अग्रिम जमा करने की शर्त को खारिज कर दिया।

NI अधिनियम की धारा 148 क्या है?

  • NI अधिनियम की धारा 148 में अपीलीय न्यायालय को दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील लंबित रहने तक भुगतान का आदेश देने की शक्ति प्रदान की गई है।
  • धारा 148(1): अपील पर अग्रिम जमा की शर्त।
    • सर्वोपरि खंड: यह उपधारा “CrPC में निहित किसी भी बात के बावजूद” शब्दों से शुरू होती है।
    • यह खंड तब लागू होता है जब NI अधिनियम की धारा 138 के तहत दोषसिद्धि के विरुद्ध लेखीवाल द्वारा अपील दायर की जाती है।
    • ऐसी स्थिति में अपीलीय न्यायालय अपीलकर्त्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा अधिरोपित जुर्माने या मुआवज़े की न्यूनतम 20% राशि जमा करने का आदेश दे सकता है।
    • प्रावधान: इसमें प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत देय राशि NI अधिनियम की धारा 143A के अंतर्गत अपीलकर्त्ता द्वारा भुगतान किये गए किसी भी अंतरिम मुआवज़े के अतिरिक्त होगी।
  • धारा 148 (2): राशि जमा करने की समयसीमा।
    • उपधारा 1 के अंतर्गत राशि आदेश की तिथि से 60 दिनों के भीतर जमा की जाएगी।
    • इस अवधि को पर्याप्त कारण बताने पर, निर्देशानुसार 30 दिन से अधिक की अवधि के भीतर बढ़ाया जा सकता है।
  • धारा 148 (3): राशि जारी करने का निर्देश
    • अपील के लंबित रहने के दौरान, अपीलीय न्यायालय अपीलकर्त्ता द्वारा जमा की गई राशि को जारी करने का आदेश दे सकता है।
    • प्रावधान: इसमें यह प्रावधान है कि यदि अपीलकर्त्ता को दोषमुक्त कर दिया जाता है तो न्यायालय परिवादी को निर्देश देगा कि वह अपीलकर्त्ता को जारी की गई राशि, प्रासंगिक वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रकाशित बैंक दर पर ब्याज सहित वापस करे।
      • उपरोक्त भुगतान की समयावधि: आदेश की तिथि से साठ दिनों के भीतर, या परिवादी द्वारा पर्याप्त कारण बताए जाने पर न्यायालय द्वारा निर्देशित तीस दिनों से अनधिक की अतिरिक्त अवधि के भीतर।

NI अधिनियम की धारा 148 पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • जम्बू भंडारी बनाम MP राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड एवं अन्य (2023):
    • न्यायालय ने कहा कि NI अधिनियम की धारा 148 की उद्देश्यपूर्ण व्याख्या की जानी चाहिये।
    • इसलिये, न्यायालय ने माना कि सामान्यतः अपीलीय न्यायालय द्वारा धारा 148 NI अधिनियम के तहत जमा राशि की शर्त लगाना न्यायोचित होगा।
    • तथापि, ऐसे मामलों में जहाँ 20% जमा करना अनुचित होगा या ऐसी शर्त लगाने से अपीलकर्त्ता को अपील के अधिकार से वंचित किया जाएगा, वहाँ लिखित रूप में कारण दर्ज करके अपवाद बनाया जा सकता है।
    • इस प्रकार,  न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अपीलीय न्यायालय के लिए यह विचार करने की स्वतंत्रता हमेशा उपलब्ध है कि क्या यह एक असाधारण मामला है, जिसमें जुर्माना/मुआवज़ा राशि का 20% जमा करने की शर्त लगाए बिना सज़ा को निलंबित करने का प्रावधान है।
    • न्यायालय ने यह भी दोहराया कि जब अपीलीय न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यह एक असाधारण मामला है तो ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचने के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिये।
  • सुरिंदर सिंह देसवाल बनाम वीरेंद्र गांधी (2019):
    • न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या वर्ष 2018 के संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित NI अधिनियम की धारा 148 अनुप्रयोग में भूतलक्षी है या पूर्वेक्षित।
    • न्यायालय ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त-अपीलकर्त्ता के अपील का कोई निहित अधिकार छीन लिया गया है और/या प्रभावित हुआ है।
    • इस प्रकार, अपील का कोई भी मूल अधिकार छीना नहीं गया है और/या प्रभावित नहीं हुआ है।
    • इस प्रकार न्यायालय ने माना कि धारा 148 NI अधिनियम में संशोधन के उद्देश्य और कारणों के कथन पर विचार करने तथा उसकी उद्देश्यपूर्ण व्याख्या करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि NI अधिनियम की धारा 148 में संशोधन प्रकृति में भूतलक्षी हैं।

आपराधिक कानून

गृह अतिचार

 12-Nov-2024

सोनू चौधरी बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य

"यह घटना घायल द्वारा संचालित एक रेस्तोराँ में हुई थी, जिसे न तो मानव आवास, न ही पूजा स्थल या संपत्ति की देखरेख के लिये उपयोग किया जाने वाला स्थान कहा जा सकता है।"

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, सोनू चौधरी बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि रेस्तोराँ को ऐसा स्थान नहीं कहा जा सकता जो गृह अतिचार की आवश्यकता को पूरा करता हो।

सोनू चौधरी बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • वर्तमान मामले में, दिल्ली के बैठक रेस्टोरेंट में एक आपराधिक घटना घटी।
  • परिवादी रजत ध्यानी (PW-1) बैठक रेस्टोरेंट चला रहे थे, तभी अभियुक्त सोनू चौधरी वहाँ आया।
  • अभियुक्त ने शराब पीने के आशय से एक जग पानी मांगा।
  • जब रजत ध्यानी ने पानी देने से इनकार कर दिया तो मामला बिगड़ गया।
  • अभियुक्त ने कथित तौर पर ब्लेड निकाला और रजत ध्यानी की जाँघ, कंधे और पीठ पर वार किया।
  • जब रजत ने सहायता के लिये अपने दोस्त इमरान खान (PW-3) को बुलाया, तो अभियुक्त ने कथित तौर पर इमरान पर भी हमला कर दिया, जिससे ब्लेड से उसके पेट पर चोट लग गई।
  • घटना की सूचना मिलने पर जाँच अधिकारी घटनास्थल पर पहुँचे और दो लोगों को घायल अवस्था में पाया।
  • अभियुक्त को मौके पर ही पकड़ लिया गया।
  • मेडिकल जाँच कराई गई, जिसमें रजत की चोटों की पुष्टि हुई।
  • मुकदमे के दौरान, रजत ध्यानी ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन किया, जबकि इमरान खान अपने बयान से मुकर गया और उसने अभियोजन पक्ष के बयान का समर्थन नहीं किया।
  • बाद में डॉक्टरों ने रजत को लगी चोटों को साधारण श्रेणी में रखा।
  • प्रारंभ में, अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की दो धाराओं के तहत आरोप लगाए गए:
    •  धारा 324 (स्वेच्छा से हानि पहुँचाना)
    • धारा 452 (चोट पहुँचाने की तैयारी के बाद गृह अतिचार)
  • ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को आरोपित अपराध के लिये दोषी ठहराया तथा उच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा। 
  • अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्चतम न्यायालय ने पाया कि:

  • IPC की धारा 324 (स्वेच्छा से हानि पहुँचाना):
    • न्यायालय ने IPC  की धारा 324 के तहत दोषसिद्धि की पुष्टि की: 
    • अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे अभियुक्त के अपराध को सफलतापूर्वक साबित कर दिया।
  • IPC की धारा 452 (गृह-अतिचार):
    • न्यायालय ने इस धारा के तहत दोषसिद्धि में महत्त्वपूर्ण कमियाँ पाईं। 
    • दोनों अधीनस्थ न्यायालय धारा 452 के आवश्यक संघटकों पर उचित रूप से विचार करने में विफल रहे।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी रेस्तराँ को इस प्रकार वर्गीकृत नहीं किया जा सकता:
    • मानव आवास के लिये उपयोग किये जाने वाले स्थान 
    • पूजा का स्थान
    • संपत्ति के कब्ज़े का स्थान
  • अभियोजन पक्ष आपराधिक अतिचार (धारा 441) और गृह अतिचार (धारा 442) की बुनियादी आवश्यकताओं को स्थापित करने में विफल रहा। इसलिये, धारा 452 के तहत दोषसिद्धि कानूनी रूप से असंधार्य थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 324 के तहत दो वर्ष के साधारण कारावास, 1,00,000 रुपए के जुर्माने तथा जुर्माना अदा न करने पर छह माह के अतिरिक्त कारावास की सज़ा के साथ दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
  • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 452 के तहत दोषसिद्धि को भी रद्द कर दिया।
  • चूँकि अभियुक्त पहले ही दो वर्ष जेल में बिता चुका था, इसलिये न्यायालय ने अन्य किसी मामले में अपेक्षित न होने पर तत्काल रिहाई का आदेश दिया तथा यदि जुर्माना अदा न किया गया हो तो उसे अदा करने का निर्देश दिया।
  • उच्चतम न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के लिये प्रक्रिया निर्देश भी जारी किया:
    • सज़ा पूरी होने की स्थिति की पुष्टि करना
    • जुर्माना भुगतान की स्थिति की जाँच करना
    • सज़ा के किसी भी लंबित पहलू के लिये उचित कानूनी कार्रवाई करना

हानि की तैयारी के बाद गृह अतिचार क्या है?

गृह अतिचार

  • यह आपराधिक अतिचार का एक अधिक विशिष्ट प्रकार है।
  • गृह अतिचार विशेष रूप से आवासीय, धार्मिक और भंडारण स्थानों की सुरक्षा करता है।
  • गृह अतिचार को अधिक गंभीर माना जाता है, क्योंकि इसमें निजी स्थानों या पवित्र स्थानों पर अतिक्रमण शामिल होता है।
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 329 की उपधारा (2) में कहा गया है कि जो कोई भी किसी भवन, तम्बू या जहाज़ में प्रवेश करके या उसमें रहकर आपराधिक अतिचार करता है, जिसका उपयोग मानव आवास के रूप में किया जाता है या किसी भवन का उपयोग पूजा स्थल के रूप में या संपत्ति की अभिरक्षा के स्थान के रूप में किया जाता है, तो उसे गृह-अतिचार करने वाला कहा जाता है।
  • इस धारा की उपधारा (4) में कहा गया है कि जो कोई गृह-अतिचार करता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना जो पाँच हज़ार रुपए तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
  • BNS की धारा 330 की उपधारा (2) में वे स्थितियाँ बताई गई हैं जब गृह अतिचार किया गया माना जाता है:
    • कोई व्यक्ति गृह-भेदन करने वाला गृह-अतिचारी कहा जाता है यदि वह इसमें आगे वर्णित छह तरीकों में से किसी भी तरीके से गृह में या उसके किसी भाग में प्रवेश करता है; या यदि वह अपराध करने के प्रयोजन से गृह में या उसके किसी भाग में होते हुए, या उसमें अपराध करने के बाद, निम्नलिखित तरीकों में से किसी भी तरीके से गृह या उसके किसी भाग से बाहर निकलता है, अर्थात:
      • यदि वह गृह-अतिचार करने के लिये स्वयं द्वारा या गृह-अतिचार के किसी दुष्प्रेरक द्वारा बनाए गए मार्ग से प्रवेश करता है या बाहर निकलता है।
      • यदि वह किसी ऐसे मार्ग से प्रवेश करता है या बाहर निकलता है जो उसके या अपराध के दुष्प्रेरक के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मानव प्रवेश के लिये अभिप्रेत नहीं है; या किसी ऐसे मार्ग से प्रवेश करता है जिस तक वह किसी दीवार या भवन पर चढ़कर या चढ़कर पहुँचा है।
      • यदि वह किसी ऐसे मार्ग में प्रवेश करता है या बाहर निकलता है जिसे उसने या गृह-अतिचार के किसी दुष्प्रेरक ने गृह-अतिचार करने के लिये किसी ऐसे साधन से खोला है जिसके द्वारा उस मार्ग को गृह के अधिभोगी द्वारा खोले जाने का आशय नहीं था।
      • यदि वह गृह-अतिचार करने के लिये, या गृह-अतिचार के पश्चात गृह से बाहर निकलने के लिये, किसी ताले को खोलकर प्रवेश करता है या बाहर निकलता है।
      • यदि वह आपराधिक बल का प्रयोग करके या हमला करके, या किसी व्यक्ति को हमले की धमकी देकर प्रवेश या प्रस्थान करता है।
      • यदि वह किसी ऐसे मार्ग से प्रवेश करता है या बाहर निकलता है जिसके बारे में वह जानता है कि वह ऐसे प्रवेश या प्रस्थान के विरुद्ध बंद किया गया था, तथा जिसे उसने स्वयं या गृह-अतिचार के दुष्प्रेरक द्वारा खोल दिया है।
  • BNS की धारा 333 में हानि की तैयारी के बाद गृह अतिचार के प्रावधान के बारे में बताया गया है:
    • जो कोई किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने या किसी व्यक्ति पर हमला करने या किसी व्यक्ति को सदोष रोकने या किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने, या हमला करने, या सदोष रोकने के भय में डालने की तैयारी करके गृह-अतिचार करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

वाणिज्यिक विधि

भागीदारी से अलग होने वाले भागीदार का शेयर

 12-Nov-2024

मेसर्स क्रिस्टल ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम फातिमा फरीद उनिसा एवं अन्य

“न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि जो भागीदार फर्म के विघटन के बाद अलग हो जाने जा रहा है, वह फर्म की संपत्तियों में से अपने हिस्से से प्राप्त लाभ का हकदार है।”

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मेसर्स क्रिस्टल ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम फातिमा फरीद उनीसा एवं अन्य मामले में उच्चत्तम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि विघटित फर्म के अलग हो जाने वाले भागीदार को लेखा विवरण तथा फर्म की परिसंपत्तियों से अर्जित लाभ में हिस्सा मांगने का अधिकार है, भले ही भागीदार की सहमति के बिना परिसंपत्तियों का अधिग्रहण किसी अन्य संस्था द्वारा कर लिया गया हो।

  • मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कंपनी की परिसंपत्तियों से प्राप्त लाभ को निवर्तमान भागीदार के बीच आनुपातिक रूप से वितरित किया जाना चाहिये।
  • यह निर्णय क्रिस्टल ट्रांसपोर्ट सर्विस भागीदारी के विघटन और लेखा के निपटान से संबंधित विवाद में आया।

मेसर्स क्रिस्टल ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम फातिमा फरीद उनिसा एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • क्रिस्टल ट्रांसपोर्ट सर्विस नामक एक भागेदारी फर्म की स्थापना 1970 के दशक के प्रारंभ में चार भागीदारों के साथ की गई थी, जिनमें से प्रत्येक के पास व्यवसाय में एक-चौथाई हिस्सा था।
  • वर्ष 1978 में, तीन भागीदारों ने कथित तौर पर चौथे भागीदार (वादी) की सहमति प्राप्त किये बिना भागीदार फर्म से धन को एक निजी लिमिटेड कंपनी (चौथे प्रतिवादी) में स्थानांतरित कर दिया।
  • जब वादी ने अन्य तीन भागीदारों से इस धन के वितरण के बारे में विवरण मांगा, तो उन्होंने विवरण प्रदान करने से मना कर दिया।
  • इसके बाद, वादी ने मूल वाद संख्या 286/1978 दायर किया, जिसमें भागीदारी को समाप्त करने, लेखा के निपटान, शेयरों के वितरण और समापन तक फर्म की परिसंपत्तियों के प्रबंधन के लिये एक रिसीवर की नियुक्ति की मांग की गई।
  • तीन प्रतिवादी भागीदारों ने यह दावा करते हुए वाद दायर किया कि जॉइंट स्टॉक कंपनी वादी सहित सभी भागीदारों की मंज़ूरी से बनाई गई थी और फर्म की सभी परिसंपत्तियाँ एवं देनदारियाँ 25 जून, 1978 के एक समझौते के माध्यम से चौथी प्रतिवादी कंपनी को हस्तांतरित कर दी गई थीं।
  • समय के साथ परिसंपत्तियों के प्रबंधन तथा लेखा रखने के लिये कई रिसीवर नियुक्त किये गए, लेकिन उन्हें अपने कर्त्तव्यों को प्रभावी ढंग से निष्पादित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप कई अंतरिम आवेदन व विधिक कार्यवाहियाँ हुईं।
  • इस मामले में प्रारंभिक आदेश, अपील, पुनरीक्षण और प्रति-आपत्ति सहित जटिल कार्यवाहियाँ शामिल थीं, जो मुख्य रूप से फर्म की परिसंपत्तियों के उचित लेखांकन तथा वादी के उचित हिस्से के निर्धारण पर केंद्रित थीं।
  • मामले का मुख्य विवाद इस बात के इर्द-गिर्द घूमता था कि क्या वादी को कंपनी के परिसंपत्तियों से उत्पन्न लाभों का अधिकार था, विशेष रूप से उन लाभों का जो चौथे प्रतिवादी कंपनी द्वारा विघटन की तिथि के बाद अर्जित किये गए थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय को स्वीकार किया कि पक्षों को उन रिपोर्टों को प्रस्तुत करने या उन पर आपत्ति करने का उचित अवसर नहीं दिया गया, जो अंतिम निर्णय का आधार बनीं, जिसके परिणामस्वरूप मामले को पुनः विचार के लिये भेजना आवश्यक हो गया।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रारंभिक डिक्री के अनुसार, जो अंतिम हो चुकी है, स्पष्ट निर्देश था कि आयुक्त भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 37 और 48 को ध्यान में रखते हुए लेखा लेगा।
  • न्यायालय ने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित किया कि चौथे प्रतिवादी (अपीलकर्त्ता कंपनी) ने फर्म की संपत्तियों का अधिग्रहण किया है, जिससे यह मामला भागेदारी अधिनियम की धारा 37 के दायरे में स्पष्ट रूप से आता है।
  • न्यायालय ने धारा 37 की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि कोई इकाई फर्म की परिसंपत्तियों के साथ अंतिम निपटान के बिना व्यापार करती है, तो अलग होने वाला भागीदार भागीदारी समाप्ति के बाद उन लाभों का हकदार होगा जो उसकी संपत्ति के हिस्से के उपयोग के कारण उत्पन्न हो सकते हैं।
  • पीठ ने स्पष्ट किया कि अपीलकर्त्ता कंपनी द्वारा फर्म की संपत्तियों से प्राप्त व्यापार की मात्रा एक साक्ष्य का विषय है, जिसे पक्षों को कार्यवाही के दौरान अंतिम डिक्री की तैयारी के लिये स्थापित करना आवश्यक होगा।
  • न्यायालय ने अपीलों का निपटारा करते समय, किसी भी पक्ष के दावों के गुणागुण पर कोई बाध्यकारी राय व्यक्त करने से स्पष्ट रूप से परहेज किया तथा उन्हें अंतिम डिक्री कार्यवाही के दौरान प्रस्तुत साक्ष्य के अधीन कर दिया।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि, विघटन की तिथि चाहे जो भी हो, अंतिम निपटान होने तक निवर्तमान भागीदार को लाभ प्राप्त करने का अधिकार बना रहेगा, बशर्ते कि व्यवसाय फर्म की परिसंपत्तियों का उपयोग करते हुए संचालित होता रहे।

भागीदारी अधिनियम 1932 की धारा 37

  • धारा 37 मुख्य रूप से ऐसे परिदृश्यों में अलग हो जाने वाले भागीदारों या उनकी संपदाओं के अधिकारों से संबंधित है, जहाँ लेखा के अंतिम निपटान के बिना व्यवसाय फर्म की संपत्ति का उपयोग करते हुए संचालित होता रहता है।
  • यह धारा दो विशिष्ट परिस्थितियों में लागू होती है:
  • जब एक भागीदार की मृत्यु हो गई हो, या
  • जब कोई भागीदार अन्यथा भागीदार नहीं रह गया हो
  • धारा 37 को लागू करने के लिये तीन आवश्यक शर्तें पूरी होनी चाहिये:
    • जीवित/निरंतर भागीदारों को फर्म का व्यवसाय जारी रखना होगा।
    • उन्हें फर्म की संपत्ति का उपयोग करना होगा।
    • अलग हो जाने वाले भागीदार/संपत्ति के साथ लेखा का कोई अंतिम निपटान नहीं होना चाहिये।
  • किसी भी विपरीत समझौते के अभाव में, अलग हो जाने वाले भागीदार या उनकी संपत्ति के पास दो विकल्प हैं:
    • फर्म की संपत्ति में अपने हिस्से के कारण होने वाले लाभ में हिस्सेदारी का दावा करें या 
    • फर्म की संपत्ति में अपने हिस्से पर 6% प्रति वर्ष की दर से ब्याज का दावा करें
  • बाद के मुनाफे का दावा करने का अधिकार तब तक जारी रहता है जब तक कि पार्टियों के बीच लेखा का अंतिम निपटान नहीं हो जाता, चाहे भागीदारी की समाप्ति की तारीख कुछ भी हो।
  • इस धारा में एक प्रावधान शामिल है जो अपवाद उत्पन्न करता है, जहाँ कोई संविदा मौजूद है जो जीवित/निरंतर भागीदारों को निवर्तमान/मृत भागीदार के हित को खरीदने का विकल्प देता है।
  • यदि इस विकल्प का प्रयोग संविदा के अनुसार उचित रूप से किया जाता है, तो अलग हो जाने वाला भागीदार/ परिसंपत्ति लाभ में किसी भी अतिरिक्त हिस्से का दावा करने का अधिकार खो देता है।
  • हालाँकि, यदि वर्तमान भागीदार क्रय विकल्प की सभी महत्त्वपूर्ण शर्तों का पालन करने में असफल होते हैं, तो वे धारा 37 के मुख्य प्रावधानों के तहत उत्तरदायी हो जाते हैं।
  • यह धारा अनिवार्य रूप से वर्तमान भागीदारों द्वारा फर्म की संपत्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती है तथा अंतिम निपटान तक अलग हो जाने वाले भागीदारों को उचित मुआवज़ा सुनिश्चित करती है।

भागीदारी अधिनियम 1932 की धारा 48

  • धारा 48 किसी फर्म के विघटन के बाद भागीदारों के बीच लेखा के निपटान के लिये वैधानिक नियम निर्धारित करती है, जो भागीदारों के बीच किसी भी विपरीत समझौते के अधीन हैं।
  • यह धारा घाटे के भुगतान के लिये एक पदानुक्रमिक क्रम स्थापित करती है:
    • सबसे पहले लाभ द्वारा 
    • फिर पूँजी द्वारा 
    • अंत में, यदि आवश्यक हो, तो भागीदारों से व्यक्तिगत रूप से उनके लाभ-साझाकरण अनुपात में
  • फर्म की परिसंपत्तियों के उपयोग के लिये, यह धारा निम्नलिखित क्रम में एक अनिवार्य वॉटरफॉल तंत्र बनाती है:
    • प्राथमिकता 1: तीसरे पक्ष के ऋणों का भुगतान
    • प्राथमिकता 2: भागीदारों द्वारा दिये गए अग्रिम का भुगतान
    • प्राथमिकता 3: भागीदारों को पूँजी अंशदान का भुगतान
    • प्राथमिकता 4: लाभ-साझाकरण अनुपात में भागीदारों के बीच अवशेष का वितरण
  • भागीदारों के अग्रिमों को पूँजी अंशदान से अलग किया जाता है तथा उन्हें पूँजी की वापसी पर प्राथमिकता दी जाती है, जो इस सिद्धांत को प्रतिबिंबित करता है कि अग्रिम अनिवार्यतः भागीदारों द्वारा फर्म को दिया गया ऋण है।
  • यह धारा यह अनिवार्य बनाकर न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करती है कि भागीदारों को अग्रिम राशि और पूँजी के लिये भुगतान 'अनुपातिक' रूप से किया जाना चाहिये अर्थात उनके संबंधित अधिकारों के अनुसार आनुपातिक रूप से किया जाना चाहिये।
  • यह धारा एक मानक ढाँचा प्रस्तुत करती है, फिर भी भागीदारों को भागीदारी समझौते के माध्यम से इन नियमों को संविदात्मक रूप से संशोधित करने की स्वतंत्रता प्राप्त है, जो निपटान शर्तों को निर्धारित करने में भागीदारों की स्वायत्तता के महत्त्व को रेखांकित करता है।