Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

CrPC की धारा 195

 21-Nov-2024

श्री अजयन बनाम केरल राज्य और अन्य

“उच्च न्यालय ने गलत तरीके से टिप्पणी की कि वर्तमान कार्यवाही के संबंध में कोई न्यायिक आदेश नहीं है।"

न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय करोल।

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, श्री अजयन बनाम केरल राज्य एवं अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 195 (1) उच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित जाँच पर रोक नहीं लगाती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि CrPC की धारा 195 न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप के गंभीर आरोपों की जाँच को रोकने वाली तकनीकी बाधा नहीं होनी चाहिये।
  • इस प्रावधान का प्राथमिक उद्देश्य न्यायिक कार्यवाही की अखंडता को बनाए रखना है, जबकि व्यक्तियों को तुच्छ शिकायतों से बचाना है।

श्री अजायन बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अप्रैल 1990 में, एंड्रयू साल्वाटोर नामक एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक तिरुवनंतपुरम से मुंबई की यात्रा कर रहा था, जब उसे हवाई अड्डे पर उसके अंडरवियर में छिपाए गए चरस के दो पैकेटों के साथ पकड़ा गया, जिनका कुल वजन लगभग 61.6 ग्राम था।
  • गिरफ्तारी के बाद, जब्त की गई वस्तुओं, जिसमें उसका निजी सामान और अंडरवियर शामिल था, को वलियाथुरा पुलिस स्टेशन में पुलिस हिरासत में रखा गया था।
  • वस्तुओं को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया तथा न्यायालय के क्लर्क (आरोपी संख्या 1) को उनकी अभिरक्षा के लिये सौंप दिया गया।
  • जुलाई 1990 में, एंड्रयू सल्वाटोर की ओर से उनके निजी सामान की रिहाई की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया गया था, जिसे न्यायालय ने अनुमति दे दी थी।
  • ये सामान सल्वाटोर के वकील (आरोपी नंबर 2/केरल के विधायक एंटनी राजू) को सौंप दिए गए। जिसमे सल्वाटोर के निजी सामान, जिसमें उसकी अंडरवियर भी शामिल है।
  • बाद में, आरोपी नंबर 2 ने अंडरवियर को आरोपी नंबर 1 को लौटा दिया, जिसने फिर इसे ड्रग मामले में सत्र न्यायालय को भेज दिया।
  • सत्र न्यायालय ने शुरू में एन्ड्रयू साल्वाटोर को दोषी ठहराया, उसे नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (NDPS) के तहत 10 साल की कैद और 1 लाख रुपए का जुर्माना लगाया।
  • हालाँकि, जब साल्वाटोर ने अपील की, तो केरल उच्च न्यायालय ने एक व्यावहारिक परीक्षण करने के बाद उसे बरी कर दिया, जिसमें पता चला कि अंडरवियर साल्वाटोर के आकार से मेल नहीं खाती थी।
  • उच्च न्यायालय ने दृढ़ता से सुझाव दिया कि साक्ष्य के रूप में अंडरवियर साल्वाटोर की मदद के लिये बदला जा सकता है और इस संदर्भ में उचित जाँच का निर्देश दिया।
  • इसके बाद, उच्च न्यायालय के एक सतर्कता अधिकारी द्वारा जाँच की गई और एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई।
  • अक्तूबर, 1994 में उच्च न्यायालय की सिफारिश के आधार पर, एक प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि अंडरवियर को किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा बदल दिया गया था।
  • वर्ष 2006 में न्यायालय के क्लर्क और वकील के खिलाफ एक आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उन्होंने साल्वाटोर को सजा से बचने में मदद करने के लिये सबूतों को बदलने की साजिश रची थी।
  • वर्ष 2022 में, क्लर्क और केरल के विधायक (एंटनी राजू) ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय के समक्ष एक अलग याचिका दायर की।
  • उन्होंने दावा किया कि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान नहीं लिया जा सकता था क्योंकि धारा 195(1)(b) CrPC के तहत यह प्रतिबंधित था।
  • उच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
  • उच्च न्यायालय ने लगाए गए आरोपों के खिलाफ नए सिरे से जाँच करने के निर्देश भी जारी किये।
  • उच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर राजू और एमआर अजयन (संपादक, ग्रीन केरल न्यूज़) ने इस मुद्दे को उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया:
    • क्या धारा 195(1)(b) CrPC, जो कुछ स्थितियों में संज्ञान लेने पर प्रतिबंध लगाती है (न्यायालय द्वारा शिकायत के अलावा), वर्तमान मामले में लागू हुई?

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:

  • एम.आर. अजयन का तर्क:
    • न्यायालय ने माना कि सामाजिक रूप से जागरूक व्यक्ति और "ग्रीन केरला न्यूज" के संपादक के रूप में एम.आर. अजयन के पास विशेष अनुमति याचिका दायर करने का अधिकार है।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप के गंभीर आरोपों वाले मामलों में तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की अनुमति दी जा सकती है।
    • न्यायालय ने कहा कि अधिकार के कारण उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण की शुद्धता की जाँच करने में बाधा नहीं आनी चाहिये।
  • CrPC की धारा 195(1)(b):
    • धारा 195 के तहत रोक अनिवार्य है, लेकिन इसकी व्याख्या वैध जाँच को रोकने के लिये नहीं की जानी चाहिये।
    • कार्यवाही एक न्यायिक आदेश (उच्च न्यायालय का 1991 का निर्णय) से शुरू हुई थी, न कि किसी निजी शिकायत से।
    • साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ का कथित कृत्य न्यायिक निष्ठा की नींव को प्रभावित करता है।
  • जनहित;
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह मामला महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक हित से जुड़ा है।
    • न्यायिक कार्यवाही में कथित हस्तक्षेप से न्यायिक प्रणाली में जनता का भरोसा कम होता है।
    • ऐसी कार्रवाइयाँ विधि के शासन और निष्पक्षता के सिद्धांतों से समझौता करती हैं।
  • कार्यवाही की प्रकृति:
    • न्यायालय ने न्यायिक और प्रशासनिक आदेशों के बीच उच्च न्यायालय के भेद को खारिज कर दिया।
    • इसने कहा कि कार्यवाही की शुरूआत प्रत्यक्ष रूप से उच्च न्यायालय के वर्ष 1991 के उस फैसले से जुड़ी हुई थी जिसमें सल्वाटोर को बरी किया गया था।
  • पुन: परीक्षण और असाधारण परिस्थितियाँ:
    • न्यायालय ने पुष्टि की कि असाधारण परिस्थितियों में पुनः सुनवाई का आदेश दिया जा सकता है।
    • निष्पक्ष सुनवाई और सत्य की खोज के सिद्धांत सर्वोपरि हैं। प्रक्रियात्मक उल्लंघन जो मुकदमे को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं, पुनः सुनवाई को उचित ठहरा सकते हैं।

उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया:

  • आपराधिक कार्यवाही में संज्ञान लेने के आदेश को बहाल कर दिया गया।
  • ट्रायल कोर्ट को एक वर्ष के भीतर मुकदमा समाप्त करने का निर्देश दिया गया।
  • आरोपी को 20 दिसंबर, 2024 को ट्रायल कोर्ट के समक्ष पेश होने का आदेश दिया गया।

उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 195 के लिये उदाहरणों के आधार पर निम्नलिखित सिद्धांतों पर प्रकाश डाला:

  • अनिवार्य प्रक्रियात्मक आवश्यकता:
    • CrPC की धारा 195 एक अनिवार्य प्रक्रियात्मक प्रावधान है।
    • यह व्यक्तियों और मजिस्ट्रेटों के विशिष्ट प्रकार के अपराधों के लिये शिकायत दर्ज करने के सामान्य अधिकार को प्रतिबंधित करता है।
  • यह धारा अपराधों की तीन अलग-अलग श्रेणियों से संबंधित है:
    • लोक सेवकों के वैध अधिकार की अवमानना।
    • लोक न्याय के विरुद्ध अपराध।
    • साक्ष्य में दिये गए दस्तावेजों से संबंधित अपराध।
  • कार्यक्षेत्र और उद्देश्य:
    • यह धारा उन अपराधों पर लागू होती है:
      • लोक सेवकों के कर्त्तव्यों के निर्वहन पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
      • न्यायालय की कार्यवाही से सीधा संबंध होता है।
      • न्याय प्रशासन पर प्रभाव पड़ता है।
  • संज्ञान प्रतिबंध:
    • यह प्रावधान कुछ निर्दिष्ट अपराधों का संज्ञान लेने पर रोक लगाता है।
    • शिकायत पर संज्ञान केवल निम्नलिखित द्वारा लिया जा सकता है:
      • संबंधित न्यायालय
      • न्यायालय का अधिकृत अधिकारी
      • अधीनस्थ न्यायालय
  • दस्तावेज़-संबंधी अपराध:
    • यह प्रतिबंध विशेष रूप से तब लागू होता है जब अपराध में "कस्टोडिया लेगिस" (न्यायालय द्वारा हिरासत) में कोई दस्तावेज़ शामिल होता है।
    • न्यायालय में पेश किये जाने से पहले किसी दस्तावेज़ की जालसाजी इस प्रतिबंध के अंतर्गत नहीं आती।
    • यह प्रतिबंध केवल उन अपराधों पर लागू होता है जो दस्तावेज़ के न्यायालय में पेश किये जाने के बाद होते हैं।
  • उच्च न्यायालय धारा 195 के अंतर्गत अधिकारिता का प्रयोग कर सकते हैं:
    • किसी आवेदन पर
    • स्वप्रेरणा से (स्वयं)
    • जब न्याय के हित की मांग हो
  • इस धारा का उद्देश्य निर्दोष व्यक्तियों को निम्नलिखित से बचाना है:
    • झूठी शिकायतें
    • निजी व्यक्तियों द्वारा की गई तुच्छ कानूनी कार्यवाही।
  • "न्यायालय" शब्द का व्यापक अर्थ यह लगाया जाता है कि इसमें सिविल, राजस्व और आपराधिक न्यायालय शामिल हैं तथा इसमें केंद्रीय या राज्य अधिनियम द्वारा स्थापित न्यायाधिकरण भी शामिल हो सकते हैं।
  • पदानुक्रमिक विचार:
    • वे न्यायालय जिनमें सामान्यतः अपील की जाती है।
    • मूल सिविल अधिकारिता वाले प्रमुख न्यायालय।
    • एकाधिक अपीलीय न्यायालयों के लिये विशिष्ट प्रावधान।
  • असाधारण परिस्थितियाँ:
    • यद्यपि बार अनिवार्य है, परंतु ऐसा नहीं होना चाहिये:
      • वैध जाँच को रोकना।
      • न्याय की जाँच में बाधा डालना।
      • न्यायिक कदाचार के वास्तविक उदाहरणों को छिपाना।
  • स्पष्टीकरण के तहत मुख्य सिद्धांत:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि CrPC की धारा 195 न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप के गंभीर आरोपों की जाँच में तकनीकी बाधा नहीं बननी चाहिये।
    • इस प्रावधान का प्राथमिक उद्देश्य न्यायिक कार्यवाही की अखंडता को बनाए रखना, तथा तुच्छ शिकायतों से बचाना है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 215 क्या है?

  • यह धारा पहले CrPC की धारा 195 के अंतर्गत आती थी।
  • इस धारा में लोक सेवकों के वैध प्राधिकार की अवमानना, लोक न्याय के विरुद्ध अपराध तथा साक्ष्य के रूप में में दिये गए दस्तावेज़ों से संबंधित अपराधों के लिये अभियोजन के प्रावधान दिये गए हैं।

इसमें निम्नलिखित प्रावधान है:

  • अपराधों की दो प्राथमिक श्रेणियां शामिल हैं:
    • उपधारा 1(a) के अनुसार, कोई भी न्यायालय निम्नलिखित का संज्ञान नहीं लेगा:
      • BNS की धारा 206-223 के अंतर्गत अपराध (धारा 209 को छोड़कर)
      • जिसमें प्रत्यक्ष अपराध, ऐसे अपराधों के लिये दुष्प्रेरण और ऐसे अपराध करने की आपराधिक साजिश शामिल है।
      • केवल लिखित शिकायत पर ही संज्ञान लिया जा सकता है:
        • संबंधित लोक सेवक।
        • प्रशासनिक रूप से अधीनस्थ लोक सेवक।
        • संबंधित लोक सेवक द्वारा प्राधिकृत लोक सेवक।
    • उपधारा 1(b) के अनुसार:
      • धारा 229-233, 236, 237, 242-248 और 267 के तहत अपराध।
      • न्यायिक कार्यवाही या दस्तावेजों से संबंधित अपराध।
      • न्यायिक कार्यवाही के दौरान किये गए अपराध, साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत दस्तावेज़ों से जुड़े अपराध और आपराधिक साजिश, प्रयास या ऐसे अपराधों के लिये दुष्प्रेरण शामिल है।
      • लिखित शिकायत पर निम्नलिखित द्वारा ही संज्ञान लिया जा सकता है:
        • संबंधित न्यायालय
        • न्यायालय द्वारा अधिकृत अधिकारी
        • अधीनस्थ न्यायालय
    • इस धारा की उपधारा 2 में शिकायत वापस लेने से संबंधित प्रावधान इस प्रकार हैं:
      • प्राधिकृत प्रशासनिक अधिकारी शिकायत वापस लेने का आदेश दे सकते हैं।
      • यदि मुकदमा समाप्त हो गया है तो शिकायत वापस लेने की अनुमति नहीं है।
    • उपधारा 3 में “न्यायालय” को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
      • सिविल न्यायालय
      • राजस्व न्यायालय
      • आपराधिक न्यायालय
      • केंद्रीय/राज्य अधिनियमों के तहत गठित न्यायाधिकरण
    • उपधारा 4 में न्यायालय की अधीनता के बारे में कहा गया है:
      • अपील स्वीकार करने वाले न्यायालय
      • मूल सिविल क्षेत्राधिकार वाले प्रमुख न्यायालय।
    • इसमें आगे यह प्रावधान किया गया है कि:
      • जब अपील कई न्यायालयों में दायर की जाती है, तो जिस न्यायालय को दूसरे न्यायालय के अधीनस्थ माना जाता है, वह अवर क्षेत्राधिकार वाला अपीलीय न्यायालय होता है।
      • जिस मामले या कार्यवाही में अपराध का आरोप लगाया गया है, उसकी परिस्थितियों के आधार पर, अपील प्राप्त करने वाला न्यायालय को सिविल या राजस्व न्यायालय के अधीनस्थ माना जाएगा।

सिविल कानून

विबंध

 21-Nov-2024

अमित बनाम दिव्या

"केरल उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब अभिरक्षा विवाद मामले में न्यायालय द्वारा स्वयं कोई त्रुटि की जाती है तो किसी पक्षकार के विरुद्ध कोई रोक नहीं लगाई जा सकती।"

न्यायमूर्ति पी. बी. सुरेश कुमार और न्यायमूर्ति सी. प्रतीप कुमार

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

केरल उच्च न्यायालय ने हाल ही में अभिरक्षा विवाद में एक समीक्षा याचिका पर निर्णय दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि यदि न्यायालय द्वारा स्वयं कोई त्रुटि की जाती है तो किसी पक्षकार के विरुद्ध कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। न्यायालय ने अपनी त्रुटियों को सुधारने को अपना कर्तव्य बताया और कहा कि यदि परिस्थितियाँ बदलती हैं तो अभिरक्षा आदेश बदले जा सकते हैं।

  • यह मामला एक पिता द्वारा अपने बच्चे की अभिरक्षा की मांग से संबंधित था, लेकिन न्यायालय ने प्रारम्भ में मध्यस्थता समझौते के आधार पर, पिता के बच्चे से मिलने के अधिकार के अधीन, बच्चे की स्थायी अभिरक्षा माँ को प्रदान कर दी थी।

अमित बनाम दिव्या मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला एक तलाकशुदा दम्पति के बीच अपने अवयस्क बच्चे के संरक्षण के विवाद से संबंधित है, जिसमें पिता दुबई में काम करता है और माँ कनाडा में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है।
  • प्रारंभ में, दम्पति के बीच मध्यस्थता समझौता हुआ था, जिसके तहत बच्चे की स्थायी अभिरक्षा माँ को दी गई थी, तथा पिता को उससे मिलने का अधिकार दिया गया था।
  • पुनर्विवाह करने और कनाडा में स्थानांतरित होने के बाद, माँ ने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए बच्चे को भारत में अपने माता-पिता के पास छोड़ दिया।
  • पिता ने कुटुम्भ न्यायालय में कई आवेदन दायर किये जिनमें निम्नलिखित शामिल थे:
    • बच्चे की स्थायी अभिरक्षा।
    • बच्चे को शिक्षा के लिये दुबई ले जाने की अनुमति।
    • बच्चे की अंतरिम अभिरक्षा।
  • माँ ने एक साथ निम्नलिखित अनुरोध सहित अन्य आवेदन दायर किये:
    • बच्चे को कनाडा ले जाने की अनुमति।
    • मौजूदा मिलने के अधिकारों को संशोधित करने की अनुमति।
  • कुटुम्भ न्यायालय ने शुरू में माँ के कुछ आवेदनों को खारिज कर दिया था तथा पिता को कुछ शर्तों के अधीन आगामी शैक्षणिक वर्ष में बच्चे को दुबई ले जाने की अनुमति दे दी थी।
  • इसके बाद, दोनों पक्षकारों ने कुटुम्भ न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए मूल याचिकाएँ दायर कीं, जिसके परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय में आगे की कानूनी कार्यवाही हुई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने एकल न्यायाधीश के आदेश में स्पष्ट त्रुटि की पहचान की, तथा विशेष रूप से यह उल्लेख किया कि कुटुम्भ न्यायालय के आदेशों से संबंधित मूल याचिकाओं के मुख्य मुद्दों पर पर्याप्त रूप से विचार नहीं किया गया था।
  • न्यायालय ने कहा कि अभिरक्षा आदेश, चाहे अंतरिम हो या स्थायी, बदलती परिस्थितियों के आधार पर संशोधित किये जा सकते हैं और अपरिवर्तनीय नहीं हैं।
  • पीठ ने संभावित प्रक्रियागत जटिलताओं पर प्रकाश डाला, जो न्यायालयी अभिलेखों के उचित रखरखाव न किये जाने की स्थिति में उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे आगामी कार्यवाहियों में कुटुम्भ न्यायालय की अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने की क्षमता में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • न्यायालय ने विबंध के कानूनी सिद्धांत की सूक्ष्म व्याख्या की तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि किसी आदेश का लाभ स्वीकार करने वाले पक्षकारों को उसे चुनौती देने से रोका जा सकता है, लेकिन यह सिद्धांत समानता और अच्छे विवेक के सिद्धांतों को दरकिनार नहीं कर सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि कनाडा में भविष्य में बच्चे की देखभाल की मांग करने का माँ का अधिकार न्यायालय की गलती के कारण प्राप्त एक "अप्रत्याशित लाभ" प्रतीत होता है, जो कि पिछले कुटुम्भ न्यायालय के आदेशों के आधार पर उचित नहीं था।
  • पीठ ने सुझाव दिया कि प्रतिवादी एक अनुचित लाभ को बनाए रखने और समीक्षा याचिका पर विचार को रोकने के लिये रणनीतिक रूप से अनुमोदन और निंदनीय के सिद्धांत को लागू कर रहा है।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि जब कोई त्रुटि स्वयं न्यायालय द्वारा की जाती है, तो उस त्रुटि को सुधारने की मांग करने वाले पक्षकार के विरुद्ध कोई वैध रोक नहीं लगाई जा सकती है, तथा न्यायालय का अपनी त्रुटियों को सुधारने का मौलिक कर्तव्य है।

विबंध क्या है?

  • विबंध एक कानूनी सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति को उसके पिछले कथन या व्यवहार का खंडन करने से रोकता है, यदि अन्य लोगों ने अपने नुकसान के लिये उस पर भरोसा किया हो।
  • यह कानूनी और व्यक्तिगत व्यवहार में निष्पक्षता और स्थिरता सुनिश्चित करता है, जो लैटिन कहावत "एलेगन्स कॉन्ट्रैरिया नॉन ऑडिएंडस एस्ट" (allegans contraria non audiendus est- विरोधाभासी तथ्यों का आरोप लगाने वाले व्यक्ति की बात नहीं सुनी जानी चाहिये) पर आधारित है।

विबंध के प्रकार क्या हैं?

  • रेस जूडीकेटा (रिकॉर्ड द्वारा विबंध):
    • एक बार सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णायक रूप से निर्णय दिये जाने के बाद एक ही मामले में उन्हीं पक्षकारों के बीच पुनः मुकदमा दायर होने से रोकता है।
    • कानून में आधार: भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40-44 इस अवधारणा को संहिताबद्ध करती है।
  • विलेख द्वारा विबंध:
    • औपचारिक समझौते या विलेख के पक्षकार बाद में उसमें निहित तथ्यों से इनकार नहीं कर सकते, यदि उन्होंने उस पर कार्रवाई की है।
    • धोखाधड़ी वाले कार्य इस नियम के अपवाद हैं।
  • आचरण द्वारा विबंध:
    • यह तब होता है जब किसी व्यक्ति के व्यवहार या चूक के कारण कोई अन्य व्यक्ति किसी निश्चित तथ्य पर विश्वास करने लगता है, जिससे उस पर भरोसा हो जाता है।
    • व्यक्ति बाद में अपने प्रतिनिधित्व की वैधता से इनकार नहीं कर सकता।
  • वचन-विबंध:
    • यदि कोई व्यक्ति कोई वचन करता है, जिससे कोई दूसरा व्यक्ति उस पर कार्यवाई करने के लिये प्रेरित होता है, तो उसे औपचारिक विचार-विमर्श के बिना भी, वचन से मुकरने से रोका जाता है।
    • मुख्य मामला: सेंट्रल लंदन प्रॉपर्टी ट्रस्ट बनाम हाई ट्रीज़ हाउस लिमिटेड ने इसे अंग्रेजी कानून में पेश किया। भारतीय कानून के तहत, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 के तहत वचनबद्धता निजी और सरकारी दोनों पक्षकारों पर लागू होती है।

विबंध किसे किया जा सकता है?

  • किरायेदार, लाइसेंसधारी और कब्ज़ारखने वाला:
    • किरायेदार या लाइसेंसधारी अपनी किरायेदारी की शुरुआत में अपने मकान मालिक के स्वामित्व को अस्वीकार नहीं कर सकते (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 116)।
    • भले ही स्वामित्व बदल जाए, किरायेदार किरायेदारी के दौरान नए मालिक के स्वामित्व पर विवाद नहीं कर सकते, जब तक कि धोखाधड़ी शामिल न हो।
  • विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता, उपनिहिती या लाइसेंसधारी:
    • यदि परक्राम्य लिखत वैध रूप से जारी की गई है तो परक्राम्य लिखत का प्रतिग्रहीता, आहर्ता के अधिकार पर विवाद नहीं कर सकता (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 117)।
    • कोई उपनिहिती जो सुरक्षित रखने के लिये माल प्राप्त करता है, वह निक्षेपक के शीर्षक पर विवाद नहीं कर सकता, जब तक कि कोई तीसरा पक्ष श्रेष्ठ शीर्षक का दावा न करे।
  • अवयस्क:
    • अवयस्कों को, एक नियम के रूप में, विबंध द्वारा बाध्य नहीं किया जाता है क्योंकि अवयस्कों के साथ किये गए संविदा शुरू से ही शून्य होती हैं।
    • अपवाद: अंग्रेजी कानून के तहत, अवयस्कों को प्राप्त लाभों को बहाल करने की सीमा तक विबंध किया जा सकता है, जैसा कि लेस्ली बनाम शेल में हुआ।
  • सरकार एवं सरकारी एजेंसियाँ:
    • जबकि सरकारें आमतौर पर संप्रभु कृत्यों में विबंध से मुक्त होती हैं, वचन संबंधी विबंध उन्हें स्पष्ट, सुस्पष्ट वादों के मामलों में बाध्य कर सकता है जो हानिकारक निर्भरता की ओर ले जाता है।
    • सीमाएँ: यदि वचन को लागू करने से कानून या सार्वजनिक हित का उल्लंघन होता है तो विबंध लागू नहीं होता है।

विबंध के अपवाद क्या हैं?

  • धोखाधड़ी या दुर्व्यपदेशन:
    • विबंध का उपयोग धोखाधड़ी या अवैध कार्यों की रक्षा के लिये नहीं किया जा सकता है।
    • जाली विलेख या धोखाधड़ीपूर्ण प्रतिनिधित्व विबंध को निरस्त कर देता है।
  • पक्षकारों की योग्यता:
    • विबंध का आह्वान करने वाले पक्षकारों के पास बयान देने या उन पर भरोसा करने की कानूनी क्षमता होनी चाहिये।
  • सार्वजनिक हित और संप्रभु अधिनियम:
    • सरकारों को संप्रभु कार्यों में विबंध से छूट दी गई है।

वाणिज्यिक विधि

स्थावर संपत्ति की बिक्री को पूंजीगत अभिलाभ माना जाएगा

 21-Nov-2024

मेसर्स नोवेल रियलटर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम सहायक आयकर आयुक्त

“विचाराधीन दो वर्षों के दौरान संपत्तियों की बिक्री से प्राप्त आय का मूल्यांकन ‘व्यावसायिक आय’ के रूप में नहीं, केवल ‘पूंजीगत अभिलाभ’ के शीर्षक के अंतर्गत किया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति ए.के. जयशंकरन नांबियार और न्यायमूर्ति के.वी. जयकुमार

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति ए.के. जयशंकरन नांबियार और न्यायमूर्ति के.वी. जयकुमार की पीठ ने कहा कि स्थावर संपत्ति की बिक्री से प्राप्त आय को  'व्यावसायिक आय' नहीं, बल्कि 'पूंजीगत अभिलाभ' माना जाएगा।

  • केरल उच्च न्यायालय ने मेसर्स नोवेल रियलटर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम सहायक आयकर आयुक्त के मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स नोवेल रियलटर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम सहायक आयकर आयुक्त मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • कंपनी की स्थापना 27 सितंबर, 1996 को हुई थी और यह संपत्ति पट्टे और बिक्री के व्यवसाय में संलग्न है।
  • इससे पहले, अपीलकर्त्ता ने किराये की रसीदों को "गृह संपत्ति से आय" के रूप में घोषित किया था।
  • पहले कर रिटर्न बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लिये जाते थे।
  • कर निर्धारण वर्ष 2012-13 और 2015-16 के लिये कर विभाग ने अपना प्रस्ताव बदल दिया।
  • विभाग ने किराये की प्राप्तियों को "गृह संपत्ति आय" से "व्यावसायिक आय" में पुनर्वर्गीकृत किया।
  • उपरोक्त का परिणाम यह हुआ:
    • संपत्तियों की बिक्री को अब व्यावसायिक आय के रूप में मूल्यांकित किया जाता है।
    • यह अपीलकर्त्ता की पूंजीगत अभिलाभ की मूल घोषणा से भिन्न होता है।
    • इससे संभावित रूप से अलग-अलग कर निहितार्थ और देयता उत्पन्न होती है।
  • यहाँ निर्धारित किया जाने वाला मुख्य मुद्दा आयकर अधिनियम के तहत किराये की प्राप्तियों के लिये आय का सही शीर्षक निर्धारित करना था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि यह मूलभूत आवश्यकता है कि कर निर्धारण एकरूप और सुसंगत होना चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि करदाता को कर निर्धारण वर्ष से पूर्व और उसके बाद के सभी वर्षों में अपने स्वामित्व वाली गृह संपत्ति को किराये पर देने से आय प्राप्त होती रही है।
  • यह भी कहा गया कि केवल इसलिये कि किसी वर्ष में करदाता ने अपनी सम्पत्तियों की बिक्री की है, यह नहीं कहा जा सकता कि उसने वर्षों से सम्पत्तियों की बिक्री और खरीद का कारोबार किया है।
  • अंत में, न्यायालय ने माना कि विचाराधीन दो वर्षों में संपत्तियों की बिक्री को केवल एक ऐसी गतिविधि के रूप में देखा जाना चाहिये जो संपत्ति को किराये पर देने की गतिविधि से संबद्ध है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि दो वर्षों के दौरान करदाता द्वारा अपने स्वामित्व वाली संपत्तियों की बिक्री से प्राप्त आय को 'व्यावसायिक आय' के रूप में नहीं, केवल 'पूंजीगत अभिलाभ' के तहत मूल्यांकित किया जा सकता है।

कर कितने प्रकार के होते हैं?

  • कर दो प्रकार के होते हैं: प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर।
  • प्रत्यक्ष कर: प्रत्यक्ष कर किसी व्यक्ति या संगठन की आय या संपत्ति पर उद्गृहीत किये जाते हैं। इन्हें करदाता द्वारा सीधे सरकार को भुगतान किया जाता है। ये इस प्रकार हैं:
    • आयकर: व्यक्तियों, हिंदू अविभाजित परिवारों (HUF) और व्यवसायों पर उनकी आय के आधार पर लगाया जाता है।
    • कॉर्पोरेट कर: कंपनियों की शुद्ध आय या मुनाफे पर उद्गृहीत किया जाता है।
    • पूंजीगत अभिलाभ कर: संपत्ति, स्टॉक या बॉण्ड जैसी पूंजीगत परिसंपत्तियों की बिक्री से अर्जित लाभ पर लगाया जाता है। यह निम्न प्रकार के हो सकता है:
      • Long-term capital gains tax (LTCG).
      • अल्पकालिक पूंजीगत अभिलाभ कर (STCG)।
      • दीर्घकालिक पूंजीगत अभिलाभ कर (LTCG)।
    • प्रतिभूति संव्यवहार कर (STT): शेयर बाज़ार में संव्यवहार पर कर, जैसे इक्विटी शेयरों की बिक्री या खरीद।
    • लाभांश वितरण कर (DDT): लाभांश वितरित करने वाली कंपनियों द्वारा भुगतान किया जाता है (वर्ष 2020 में समाप्त कर दिया गया और शेयरधारकों को स्थानांतरित कर दिया गया)।
    • संपत्ति कर: (वर्ष 2015 में समाप्त) पहले यह कर किसी व्यक्ति की एक निश्चित सीमा से अधिक निवल संपत्ति पर लगाया जाता था।
  • अप्रत्यक्ष कर: अप्रत्यक्ष कर वस्तुओं और सेवाओं पर उद्गृहीत किये जाते हैं और इन्हें वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमत में शामिल किया जाता है, जिसका भुगतान उपभोक्ता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। अप्रत्यक्ष करों के प्रकार निम्नलिखित हैं:
    • वस्तु एवं सेवा कर (GST): वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति पर एक व्यापक कर, जिसमें कई अन्य अप्रत्यक्ष कर शामिल हैं। इसमें शामिल हैं:
      • CGST: केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर।
      • SGST: राज्य वस्तु एवं सेवा कर।
      • IGST: एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर।
      • UTGST: केंद्रशासित प्रदेश वस्तु एवं सेवा कर।
    • सीमा शुल्क: भारत में आयातित या भारत से निर्यातित वस्तुओं पर उद्गृहीत किया जाता है।
    • स्टाम्प शुल्क: संपत्ति बिक्री विलेख जैसे कानूनी दस्तावेजों पर उद्गृहीत किया जाता है।
    • मनोरंजन कर: (अधिकांश मामलों में GST के अंतर्गत शामिल) पहले यह कर फिल्म टिकट, कार्यक्रम आदि पर उद्गृहीत किया जाता था।

“पूंजीगत अभिलाभ” से आय और “व्यवसाय” से आय क्या है?

  • जब भी संव्यवहार में पूंजीगत परिसंपत्तियों का अंतरण शामिल होता है तो यह पूंजीगत अभिलाभ से आय होती है।
  • हालाँकि, जब संव्यवहार व्यवसाय के सामान्य क्रम में किया जाता है तो यह व्यावसायिक आय होती है।
  • केंटन लीज़र सर्विसेज़ (पी) लिमिटेड बनाम डीसीआईटी 18 taxmann.com 158 (आईटीए टी-कोचीन) (2012) के मामले में, न्यायालय ने माना कि जहाँ कई समझौते होते हैं जो आपस में जुड़े हुए होते हैं, उन सभी को एकल, एकीकृत संव्यवहार के हिस्से के रूप में माना जाना चाहिये और उन्हें अलग से नहीं देखा जाना चाहिये।
    • इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि इन समझौतों से प्राप्त सम्पूर्ण आय का मूल्यांकन ‘व्यावसायिक आय’ के शीर्षक के अंतर्गत किया जाना चाहिये।
  • यह निर्धारित करने के लिये कि क्या आय व्यावसायिक आय है या पूंजीगत अभिलाभ आय है, निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाना चाहिये:
    • व्यवसाय का सामान्य क्रम: यदि संव्यवहार व्यवसाय के सामान्य क्रम के समान है तो इसे व्यवसाय आय माना जाता है।
    • संव्यवहार की आवृत्ति: संव्यवहार की आवृत्ति जितनी अधिक होगी, उसे व्यावसायिक आय के रूप में माने जाने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
    • व्यापार की प्रकृति में साहसिक कार्य: व्यापार की प्रकृति में साहसिक कार्य या चिंता से प्राप्त आय को व्यावसायिक आय के समान माना जाएगा।