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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

पुलिस अधिकारी को दी गई संस्वीकृति अग्राह्य

 25-Nov-2024

रणदीप सिंह @ राणा एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य

“साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत, अभियुक्त के बयान का केवल वह हिस्सा ग्राह्य होता है जो साक्ष्य की खोज से सीधे संबंधित होता है”

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और ए.जी. मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत अभियुक्त के बयान का केवल वह हिस्सा ग्राह्य होता है जो साक्ष्य की खोज से सीधे संबंधित होता है, इसमें अपराध की किसी भी संस्वीकृति को शामिल नहीं होती है। इसने अभियोजन पक्ष की मुख्य परीक्षा में शामिल अग्राह्य संस्वीकृति से ट्रायल कोर्ट के प्रभावित होने पर चिंता व्यक्त की। यह निर्णय एक हत्या के मामले में अपील के दौरान आया, जिसमें जाँच अधिकारी ने साक्ष्य देते समय अभियुक्त के संस्वीकृति को अनुचित तरीके से शामिल किया था।

रणदीप सिंह @ राणा एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में आठ अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 364 (व्यपहरण), 302 (हत्या), 201 (साक्ष्य मिटाना), 212 (अपराधी को आश्रय देना) और 120-B (आपराधिक साजिश) के तहत आरोप लगाए गए थे।
  • घटना 8 जुलाई, 2013 को घटित हुई, जब मृतक गुरपाल सिंह अपनी बहन परमजीत कौर से मिलने के बाद शाम करीब 6:30 बजे फोर्ड फिएस्टा कार में अपने घर से निकला था।
  • अभियोजन पक्ष के अनुसार, जब मृतक प्रभु प्रेम पुरम आश्रम के मुख्य द्वार पर पहुँचा, तो एक सफेद कार में सवार अज्ञात लोगों ने उसकी गाड़ी रोकी और उसका अपहरण कर लिया। अपराधी पीड़ित और उसकी कार दोनों को ले गए।
  • पीड़ित के बेटे जगप्रीत सिंह (PW-8) ने अपने पिता का पता न लगा पाने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई।
  • 9 जुलाई, 2013 को पीड़ित के क्षत-विक्षत शरीर के अंग एक नहर से बरामद किये गए।
  • अभियोजन पक्ष ने कई साक्ष्य प्रस्तुत किये जिनमें शामिल थे:
    • अपराध स्थल के पास बैंक ऑफ बड़ौदा से सीसीटीवी फुटेज।
    • एक प्रत्यक्षदर्शी साक्षी (PW-26, पीड़ित की बहन) का परिसाक्ष्य।
    • अपराध में उपयोग की गई मारुति कार की बरामदगी।
    • हत्या के हथियार की बरामदगी।
    • ड्राइविंग लाइसेंस सहित पीड़ित के निजी सामान की बरामदगी।
  • सत्र न्यायालय ने प्रारम्भ में सभी आठ अभियुक्तों को दोषी ठहराया तथा उन्हें निम्नलिखित सजाएँ सुनाईं:
    • धारा 364, 302 और 120-B के तहत अपराध के लिये आजीवन कारावास।
    • धारा 201 के तहत अपराध के लिये तीन वर्ष का सश्रम कारावास।
  • उच्च न्यायालय में अपील पर:
    • वर्तमान अपीलकर्त्ताओं (रणदीप सिंह उर्फ ​​राणा एवं अन्य) की दोषसिद्धि की पुष्टि की गई।
    • अन्य अभियुक्त व्यक्तियों को बरी कर दिया गया।
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दो शेष दोषी अभियुक्तों द्वारा दायर की गई थी, जिसमें उनकी दोषसिद्धि को चुनौती दी गई थी।
  • अभियोजन पक्ष का मामला मुख्य रूप से पारिस्थितिक साक्ष्य, एक प्रत्यक्षदर्शी साक्षी के परिसाक्ष्य और जाँच के दौरान की गई बरामदगी पर निर्भर था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षी (PW-26) के बयान में महत्त्वपूर्ण चूकें थीं, जो CrPC की धारा 162 के तहत विरोधाभास के बराबर थीं, और पहचान परेड के अभाव में अभियुक्त की पहचान संदिग्ध थी, जिससे उसका साक्ष्य अविश्वसनीय हो गया।
  • न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा PW-26 के पति, जो कथित रूप से एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी साक्षी था तथा परिसाक्ष्य के लिये उपलब्ध था, की जाँच करने में विफलता के कारण साक्ष्य को रोकने के लिये अभियोजन पक्ष के विरुद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
  • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के संबंध में, न्यायालय ने माना कि सीसीटीवी फुटेज अग्राह्य है, क्योंकि अभियोजन पक्ष साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत अनिवार्य प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में विफल रहा, तथा न तो PW-1 और न ही PW-24 ने सीडी की सामग्री को व्यक्तिगत रूप से सत्यापित किया था।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पारिस्थितिक साक्ष्य के मामलों में, शृंखला का हिस्सा बनने वाली सभी परिस्थितियों को उचित संदेह से परे साबित किया जाना चाहिये, और एक भी परिस्थिति को स्थापित करने में विफलता साक्ष्य की शृंखला को तोड़ देती है।
  • न्यायालय ने पाया कि ट्रायल न्यायाधीश ने जाँच अधिकारी (PW-27) को पुलिस हिरासत में अभियुक्त द्वारा कथित रूप से दिये गए बयानों को साबित करने की अनुमति गलती से दे दी थी, जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 के तहत स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित है।
  • न्यायालय ने दोहराया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत अभियुक्त के बयान का केवल वह हिस्सा ग्राह्य होता है जो स्पष्ट रूप से तथ्यों की खोज से संबंधित है तथा उसका परिणाम है, और साक्षी के बयानों में अग्राह्य संस्वीकृति अंशों को शामिल करने से ट्रायल न्यायालयों पर प्रभाव पड़ने का खतरा है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अपराध की क्रूर प्रकृति के बावजूद, दोषसिद्धि कानूनी रूप से ग्राह्य साक्ष्य पर आधारित होनी चाहिये, जो उचित संदेह से परे अपराध को साबित करे, तथा नैतिक दोषसिद्धि कानूनी प्रमाण का स्थान नहीं ले सकती।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष के साक्षी के परिसाक्ष्य में अग्राह्य संस्वीकृति को शामिल करना साक्ष्य कानून के स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन है और मुकदमे की कार्यवाही की निष्पक्षता से समझौता करता है।

संस्वीकृति क्या होती है और कानून के तहत उनकी ग्राह्यता क्या है?

संस्वीकृति कब अग्राह्य होती है?

  • भारतीय कानून में आमतौर पर पुलिस अधिकारियों को दी गई संस्वीकृति को अग्राह्य माना जाता है, जो दुरुपयोग को रोकने के लिये एक सतर्क दृष्टिकोण को दर्शाता है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25: यह घोषित करती है कि किसी पुलिस अधिकारी को दी गई संस्वीकृति अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में उपयोग नहीं की जाएगी।
    • यह अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 23 (1) के अंतर्गत आता है।
  • IEA की धारा 26: इस सिद्धांत का विस्तार करते हुए पुलिस हिरासत में दी गई संस्वीकृति पर रोक लगाती है, जब तक कि मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में दर्ज न की जाए। यह तटस्थता सुनिश्चित करता है और व्यक्तियों को जबरदस्ती से बचाता है।
    • अब यह BSA की धारा 23(2) के अंतर्गत आता है।

संस्वीकृति कब ग्राह्य होती है?

  • IEA की धारा 27, जो अब BSA की धारा 23 के प्रावधान के अंतर्गत आती है, एक अपवाद के रूप में कार्य करती है, जिसके तहत पुलिस हिरासत में दिये गए विशिष्ट कथनों को ग्राह्य माना जाता है, यदि वे सीधे तौर पर किसी प्रासंगिक तथ्य की खोज में परिणत होते हैं।
  • खोज का नियम: कथन से स्पष्ट रूप से अपराध से संबंधित एक नए तथ्य की खोज होनी चाहिये।
  • बाद के निर्णयों ने इस व्याख्या को परिष्कृत किया है:
    • उत्तर प्रदेश राज्य बनाम देवमन उपाध्याय (1960) मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि तथ्य की खोज सीधे तौर पर उपलब्ध कराई गई सूचना से संबंधित होनी चाहिये।
    • राजस्थान राज्य बनाम भूप सिंह (1997) में माना गया कि IEA की धारा 27 लागू करने के लिये बयान देते समय अभियुक्त पर औपचारिक रूप से आरोप लगाने की आवश्यकता नहीं है।

संस्वीकृति में हिरासत की भूमिका

  • IEA की धारा 26 के तहत हिरासत की परिभाषा महत्त्वपूर्ण है। न्यायालयों ने हिरासत की व्याख्या ऐसे परिदृश्यों को शामिल करने के लिये की है, जहाँ औपचारिक गिरफ्तारी के बिना भी किसी व्यक्ति की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
  • आंध्र प्रदेश राज्य बनाम गंगुला सत्य मूर्ति (1997) में, न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हिरासत के परीक्षण में पुलिस द्वारा व्यक्ति पर नियंत्रण की डिग्री की जाँच करना शामिल है।

संस्वीकृति पर महत्वपूर्ण न्यायिक अंतर्दृष्टि

  • स्वैच्छिकता:
    • ज़बरदस्ती या अनुचित प्रभाव के माध्यम से प्राप्त बयान अग्राह्य होते हैं। उदाहरण के लिये, बॉम्बे राज्य बनाम काठी कालू ओघद (1961) में, न्यायालय ने निर्णय दिया कि ज़बरदस्ती से प्राप्त किये गए बयान संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन करते हैं।
  • आंशिक ग्राह्यता:
    • बयान का केवल वह हिस्सा ही ग्राह्य है जो सीधे तौर पर किसी खोज की ओर ले जाता है। शेष को बाहर रखा गया है, जैसा कि मोहम्मद इनायतुल्लाह बनाम महाराष्ट्र राज्य (1976) में दोहराया गया है।
  • संयुक्त प्रकटीकरण:
    • राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) बनाम नवजोत संधू (2005) मामले में, न्यायालय ने सह-अभियुक्तों द्वारा संयुक्त खुलासे को ग्राह्य माना, बशर्ते कि उनसे अलग-अलग खोजें हुई हों।

निर्णयज विधि

  • अघनू नागेसिया बनाम बिहार राज्य (1966)
    • जब कोई संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धाराओं (धारा 24-26) के अंतर्गत आती है, तो संपूर्ण संस्वीकृति को खारिज कर दिया जाना चाहिये, हालाँकि विशिष्ट भागों को बचाया जा सकता है, यदि उन्हें धारा 27 के तहत साबित किया जा सके, जो एक अपवाद के रूप में कार्य करता है।
  • पुलुकुरी कोटाय्या बनाम किंग एम्परर (1946)
    • धारा 27 के अंतर्गत संस्वीकृति के ग्राह्य अंशों में आमतौर पर ऐसी जानकारी शामिल होती है, जिससे हत्या के शिकार लोगों के शवों की पहचान, अपराध में प्रयुक्त हथियारों की खोज, या चोरी की संपत्ति की बरामदगी हो सकती है, बशर्ते कि ये खोजें स्वतंत्र पुष्टि प्रदान करें।
  • लीगल रिमेंबरेंसर बनाम ललित मोहन सिंह रॉय (1921)
    • न्यायालय संस्वीकृति के कई भागों को ग्राह्य कर सकता है जो उद्देश्य, अवसर और प्रारंभिक तथ्यों को स्थापित करते हैं, भले ही मुख्य संस्वीकृति अग्राह्य हो, जब तक कि इन भागों को अग्राह्य भागों से स्पष्ट रूप से अलग किया जा सके।

आपराधिक कानून

प्रत्यक्ष साक्ष्य

 25-Nov-2024

जय प्रकाश यादव बनाम झारखंड राज्य

“साक्ष्य अधिनियम की धारा 60 के तहत, कोई व्यक्ति जिसने घटना को देखा या सुना हो, उसे प्रत्यक्ष साक्ष्य कहा जा सकता है।”

न्यायमूर्ति आनंद सेन और न्यायमूर्ति गौतम कुमार चौधरी 

स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, झारखंड उच्च न्यायालय ने जय प्रकाश यादव बनाम झारखंड राज्य के मामले में माना है कि घटना को प्रत्यक्ष रूप से देखने या सुनने वाले प्रत्यक्षदर्शी साक्षी का परिसाक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य होता है।

जय प्रकाश यादव बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में अपीलकर्त्ता भारतीय रिज़र्व बटालियन में कांस्टेबल के पद पर कार्यरत था।
  • 18-19 मई, 2014 को अपीलकर्त्ता को पिपरवार शस्त्रागार (IRB-3 कैंप) में उमेश कुमार (हवलदार) और तीन अन्य कांस्टेबलों के साथ संतरी ड्यूटी (पहरेदारी) सौंपी गई थी।
  • अपीलकर्त्ता को आधिकारिक तौर पर उसकी ड्यूटी के लिये बट संख्या 351 वाली एक INSAS राइफल, 100 राउंड कारतूस और 5 मैगज़ीन आवंटित की गई थी।
  • यह घटना शाम करीब साढ़े सात बजे घटी जब कैंप में गोलियों की आवाज़ सुनी गई।
  • पीड़ित सुनील सोरेन, जो सब-इंस्पेक्टर (S.I.) के पद पर थे, कैंप में अपने कमरे में मृत पाए गए।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 और आयुध अधिनियम, 1878 (AA) की धारा 27 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
  • अपराध स्थल से एकत्र भौतिक साक्ष्य में शामिल थे:
    • ग्यारह खाली कारतूस।
    • खून से सना प्लास्टर।
    • एक भरी हुई मैगज़ीन।
    • INSAS राइफल।
  • 19 मई, 2014 को पोस्टमार्टम किया गया, जिसमें मृतक के शरीर पर छह मृत्यु-पूर्व चोटों के निशान पाए गए।
  • अभियोजन पक्ष ने मुकदमे के दौरान दस साक्षी पेश किये, और तीन अतिरिक्त साक्षियों की न्यायालयी साक्षी के रूप में जाँच की गई।
  • साक्ष्य के तौर पर कई दस्तावेज़ प्रस्तुत किये गये, जिनमें शामिल थे:
    • पोस्टमार्टम रिपोर्ट।
    • अभिग्रहण सूची।
    • फर्दबयान (पुलिस को दिया गया पहला बयान)।
    • हथियार और गोला-बारूद निरीक्षण रिपोर्ट।
  • यह तर्क दिया गया कि यह मामला पारिस्थितिक साक्ष्य का नहीं बल्कि प्रत्यक्ष साक्ष्य का था।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 302 और AA अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषी ठहराया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

झारखंड उच्च न्यायालय ने कहा कि:

  • साक्षी के परिसाक्ष्य के संबंध में:
    • न्यायालय ने पाया कि साक्षियों में से एक प्रत्यक्षदर्शी साक्षी था, जिसका परिसाक्ष्य प्रतिपरीक्षा के दौरान भी बरकरार रहा।
    • न्यायालय ने पाया कि साक्षियों में से एक के साक्ष्य ने मुखबिर के बयान की पुष्टि की।
  • साक्ष्य शृंखला के संबंध में:
    • न्यायालय ने कहा कि यह विशुद्धतः पारिस्थितिक साक्ष्य नहीं था, बल्कि इसमें प्रत्यक्ष प्रत्यक्षदर्शी साक्षी भी शामिल थे।
    • न्यायालय ने राइफल एक्सचेंज के बारे में मोहम्मद अजमल हुसैन के स्पष्टीकरण को स्वीकार कर लिया, और स्पष्ट किया कि अपीलकर्त्ता के पास आवंटित राइफल नंबर 329 के बजाय राइफल नंबर 351 क्यों थी।
  • साक्ष्यिक मूल्य पर:
    • न्यायालय ने साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 6 के तहत मुखबिर के साक्ष्य को प्रासंगिक पाया।
    • छुट्टी न मिलने के कारण हत्या करने के बारे में अपीलकर्त्ता के बयान को न्यायेतर स्वीकारोक्ति माना गया।
    • न्यायालय ने कहा कि घटना के दिन ही FIR दर्ज कर ली गई थी।
    • न्यायालय ने पाया कि भौतिक साक्ष्य (अभिग्रहण की गई वस्तुएँ) मुखबिर के परिसाक्ष्य की पुष्टि करते हैं।
  • न्यायालय ने एक ही संव्यवहार के हिस्से के रूप में घटनाओं की निरंतरता स्थापित करने के लिये IEA की धारा 6 को लागू किया।
  • न्यायालय ने साक्षी के कथन की स्थिति को प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में स्थापित करने के लिये IEA की धारा 60 को लागू किया।
  • साक्षियों के परिसाक्ष्य की पुष्टि के संबंध में IEA की धारा 157 का संदर्भ दिया गया।
  • न्यायालय ने पाया कि जाँच अधिकारी के परिसाक्ष्य घटनास्थल के बारे में मुखबिर के बयान की पुष्टि करती थी।
  • इन टिप्पणियों के आधार पर न्यायालय ने IPC की धारा 302 और AA अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषसिद्धि में "कोई दोष" नहीं पाया।
  • इसलिये, झारखंड उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की और कहा कि घटना को प्रत्यक्ष रूप से देखने या सुनने वाले प्रत्यक्षदर्शी साक्षी का परिसाक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य होता है।

प्रत्यक्ष साक्ष्य क्या है?

  • सामान्य नियम यह है कि किसी वाद के पक्षकार को न्यायालय के समक्ष मौखिक रूप से अथवा भौतिक या इलेक्ट्रॉनिक रूप में दस्तावेज़ प्रस्तुत करके अपना पक्ष सिद्ध करना आवश्यक होता है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) के अध्याय IV में कहा गया है कि मौखिक साक्ष्य से संबंधित प्रावधानों को प्रत्यक्ष साक्ष्य माना जाएगा।
  • प्रत्यक्ष साक्ष्य को मूल साक्ष्य माना जाता है तथा संबंधित तथ्यों को सिद्ध या असिद्ध करने के लिये किसी अन्य पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती।

BSA के अध्याय IV के अंतर्गत दो धाराएँ बताई गई हैं:

  • धारा 54: यह धारा मौखिक साक्ष्य द्वारा तथ्यों के प्रमाण के बारे में बताती है:
    • दस्तावेजों की अंतर्वस्तु को छोड़कर सभी तथ्य मौखिक साक्ष्य द्वारा साबित किये जा सकेंगे।
  • धारा 55: इस धारा में कहा गया है कि मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होगा:
    • मौखिक साक्ष्य को प्रत्यक्ष माना जाएगा यदि:
      • कोई तथ्य जो किसी साक्षी द्वारा देखा गया हो और ऐसा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी यह स्वीकार करता हो कि उसने उसे देखा है।
      • कोई भी तथ्य जो किसी साक्षी द्वारा सुना गया हो और ऐसे साक्षी को यह स्वीकार करना होगा कि उसने वह तथ्य सुना है।
      • कोई भी तथ्य जिसे किसी अन्य इंद्रिय द्वारा देखा जा सकता है और ऐसे साक्षी को यह स्वीकार करना होगा कि उसने उसे देखा है।
      • किसी साक्षी द्वारा दी गई राय या वह आधार जिस पर ऐसी राय दी गई है और साक्षी को ऐसी राय स्वीकार करनी होगी।
      • यह प्रावधान है कि सामान्यतः विक्रय के लिये प्रस्तुत किसी ग्रंथ में व्यक्त विशेषज्ञों की राय और वे आधार, जिन पर ऐसी राय रखी गई है, ऐसी ग्रंथ को प्रस्तुत करके साबित की जा सकती है, यदि लेखक मर चुका है या मिल नहीं सकता है, या साक्ष्य देने में असमर्थ हो गया है, या उसे बिना किसी विलम्ब या व्यय के, जिसे न्यायालय अनुचित समझता है, साक्षी के रूप में नहीं बुलाया जा सकता है।
      • आगे यह भी उपबंधित है कि यदि मौखिक साक्ष्य में दस्तावेज़ के अलावा किसी भौतिक वस्तु के अस्तित्व या स्थिति का उल्लेख है तो न्यायालय, यदि वह ठीक समझे, अपने निरीक्षण के लिये ऐसी भौतिक वस्तु को पेश करने की अपेक्षा कर सकता है।

प्रत्यक्ष और पारिस्थितिक साक्ष्य के बीच क्या अंतर है?

प्रत्यक्ष साक्ष्य

पारिस्थितिक साक्ष्य

प्रत्यक्ष साक्ष्य किसी तथ्य को प्रत्यक्षतः सिद्ध करता है।

पारिस्थितिक साक्ष्य को निष्कर्ष से जोड़ने के लिये अनुमान की आवश्यकता होती है।

प्रत्यक्षदर्शी साक्षी के परिसाक्ष्य को आमतौर पर प्रत्यक्ष साक्ष्य माना जाता है।

अपराध स्थल पर पाए जाने वाले भौतिक सुराग अक्सर पारिस्थितिक होते हैं।

न्यायालय आमतौर पर प्रत्यक्ष साक्ष्य को अधिक महत्त्व देते हैं।

पारिस्थितिक साक्ष्य भी समान रूप से वैध हो सकते हैं यदि वे साक्ष्यों की एक पूरी शृंखला बनाते हैं।

प्रत्यक्ष साक्ष्य को आमतौर पर कम पुष्टि की आवश्यकता होती है।

पारिस्थितिक साक्ष्य को अक्सर अपने सत्यापनात्मक मूल्य को मज़बूत करने के लिये सहायक तथ्यों की आवश्यकता होती है।


सिविल कानून

कुटुंब न्यायालय के समक्ष कार्यवाही में CPC की प्रयोज्यता

 25-Nov-2024

नगेन्द्र शर्मा एवं अन्य बनाम न्यायालय प्रधान न्यायाधीश कुटुंब न्यायालय गोंडा

CPC के प्रावधान प्राकृतिक न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांत पर आधारित हैं, इसलिये CPC के सभी प्रावधान कुटुंब न्यायालय अधिनियम की धारा 10 के अंतर्गत कुटुंब न्यायालय के समक्ष कार्यवाही पर लागू होते हैं।”

न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम की पीठ ने कहा कि CPC के प्रावधान कुटुंब न्यायालय के समक्ष कार्यवाही पर भी लागू होते हैं।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने नगेन्द्र शर्मा एवं अन्य बनाम प्रधान न्यायाधीश कुटुंब न्यायालय गोंडा के मामले में यह निर्णय दिया।

नगेन्द्र शर्मा एवं अन्य बनाम प्रधान न्यायाधीश कुटुंब न्यायालय गोंडा मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता संख्या 1 का विवाह प्रतिवादी संख्या 2 से हुआ था और उनके दो बच्चे हुए।
  • याचिकाकर्त्ता संख्या 1 द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 के तहत आवेदन दायर किया गया था, जिसे प्रधान न्यायाधीश, कुटुंब न्यायालय, गोंडा द्वारा 16 जनवरी, 2019 और 28 जनवरी, 2019 को पारित निर्णय और डिक्री द्वारा अनुमति दी गई थी।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश IX नियम 13 के तहत एक आवेदन दायर किया, साथ ही विलंब को क्षमा करने के लिये परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत आवेदन और दिनांक 16 जनवरी, 2019 और 28 जनवरी, 2019 के निर्णय तथा डिक्री पर स्थगन आवेदन दायर किया।
  • याचिकाकर्त्ता ने प्रतिवादी संख्या 1 को CPC के आदेश IX नियम 13 के तहत कार्यवाही के साथ आगे बढ़ने से रोकने के लिये प्रतिषेध रिट की मांग की है, इस आधार पर कि कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 (FCA) की धारा 19 और धारा 20 के मद्देनज़र प्रधान न्यायाधीश, कुटुंब न्यायालय के पास CPC की धारा 151 के साथ पठित आदेश IX नियम 13 के तहत याचिका पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होता है।
  • तथापि, प्रतिवादी ने प्रस्तुत किया है कि प्रतिवादी संख्या 1, सीपीसी के आदेश IX नियम 13 के साथ सीपीसी की धारा 151 के अंतर्गत याचिका पर विचार करने के अधिकार क्षेत्र में था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने सर्वप्रथम प्रतिषेध रिट पर निम्नलिखित बिंदुओं पर चर्चा की:
    • प्रतिषेध का सर्वोपरि उद्देश्य अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण को रोकना होता है।
    • प्रतिषेध रिट निजी वादियों के बीच की कार्यवाही नहीं होती है।
    • वास्तव में, यह दो न्यायालयों, एक उच्च न्यायालय और एक अवर न्यायालय के बीच की कार्यवाही होती है, तथा यह वह साधन है जिसके द्वारा उच्च न्यायालय अवर न्यायालय पर अधीक्षण की अपनी शक्ति का प्रयोग करता है, तथा अवर न्यायालय को कानून द्वारा उसे प्रदत्त अधिकारिता की सीमाओं के भीतर रखता है।
  • न्यायालय ने FCA की धारा 10 का अवलोकन किया तथा कहा कि प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि CPC के प्रावधान कुटुंब न्यायालय के समक्ष कार्यवाही पर लागू होंगे तथा कुटुंब न्यायालय को सिविल न्यायालय माना जाएगा तथा उसे ऐसे न्यायालय की शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि इस मामले में प्रतिषेध जारी नहीं किया जा सकता क्योंकि कुटुंब न्यायालय को CPC के आदेश IX नियम 13 के तहत आवेदन पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र प्राप्त है।

FCA की धारा 10 क्या है?

  • FCA की धारा 10 (1) कुटुंब न्यायालय के समक्ष कार्यवाही में लागू होने वाली प्रक्रिया का प्रावधान करती है:
    • कानूनों की प्रयोज्यता: कुटुंब न्यायालय निम्नलिखित नियमों का पालन करता है:
      • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908
      • वर्तमान में लागू कोई अन्य कानून।
    • अपवाद: ये नियम दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अध्याय IX के तहत मामलों पर लागू नहीं होते हैं, जो भरण-पोषण से संबंधित कार्यवाही से संबंधित है।
    • कुटुंब न्यायालय की स्थिति: सिविल मामलों के लिये, कुटुंब न्यायालय को सिविल न्यायालय के समान माना जाता है।
    • सिविल न्यायालय की शक्तियाँ: कुटुंब न्यायालय के पास वे सभी शक्तियाँ होती हैं जो एक सिविल न्यायालय के पास होती हैं।
  • धारा 10 (2) CrPC के अध्याय IX के तहत कार्यवाही का प्रावधान करती है:
    • आपराधिक प्रक्रिया की प्रयोज्यता: दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय IX के अंतर्गत मामलों (भरण-पोषण और संबंधित मामलों से संबंधित) के लिये, कुटुंब न्यायालय की कार्यवाही में उस संहिता के नियम लागू होते हैं।
    • अधिनियम एवं नियमों के अधीन: इन नियमों का पालन तब तक किया जाता है जब तक वे कुटुंब न्यायालय अधिनियम या उसके नियमों के प्रावधानों के साथ टकराव नहीं करते हैं।
    • अध्याय IX पर ध्यान: कुटुंब न्यायालय अध्याय IX के अंतर्गत आने वाले मामलों में दंड प्रक्रिया संहिता को विशेष रूप से लागू करता है।
  • धारा 10 (3) निम्नलिखित प्रावधान करती है:
    • कुटुंब न्यायालय की समुत्थानशीलता: कुटुंब न्यायालय उप-धारा (1) या उप-धारा (2) में उल्लिखित प्रक्रियाओं द्वारा प्रतिबंधित नहीं है।
    • अपनी स्वयं की प्रक्रिया बनाना: न्यायालय अपनी स्वयं की प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है:
      • पक्षकारों के बीच समझौता कराने में सहायता करके।
      • एक पक्षकर द्वारा प्रस्तुत और दूसरे पक्षकार द्वारा अस्वीकार किये गए तथ्यों की सच्चाई का पता लगाकर।
    • उद्देश्य: यह समुत्थानशीलता विवादों का शीघ्र एवं निष्पक्ष समाधान सुनिश्चित करती है।

कुटुंब न्यायालय के समक्ष कार्यवाही में CPC की प्रयोज्यता पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • मुन्ना लाल एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1990)
    • सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) और अन्य वर्तमान कानून कुटुंब न्यायालय में वादों और कार्यवाहियों पर लागू होते हैं।
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के अध्याय IX के अंतर्गत मामलों के लिये, CrPC के प्रावधान लागू होते हैं।
    • अधिनियम की धारा 7(1) (स्पष्टीकरण) में उल्लिखित मामलों के लिये कुटुंब न्यायालय को सिविल न्यायालय माना जाता है।
    • यह मामले के आधार पर ज़िला न्यायालयों या अधीनस्थ सिविल न्यायालयों के स्थान पर कार्य करता है।
    • धारा 10 यह सुनिश्चित करती है कि कुटुंब न्यायालय द्वारा निपटाए जाने वाले मामले के प्रकार के आधार पर, CPC सिविल मामलों पर लागू होती है, तथा CrPC भरण-पोषण और संबंधित कार्यवाहियों पर लागू होती है।
  • रणवीर कुमार बनाम न्यायाधीश, कुटुंब न्यायालय, मुरादाबाद एवं अन्य (1998)
    • इस मामले में न्यायालय इस मुद्दे पर विचार कर रहा था कि क्या कुटुंब न्यायालय अधिनियम की धारा 19 के तहत अपील दायर की जा सकती है या कुटुंब न्यायालय के आदेश IX नियम 13 CPC के तहत आदेश को चुनौती देने के लिये रिट याचिका की आवश्यकता है।
    • न्यायालय ने कहा कि कुटुंब न्यायालय द्वारा CPC के आदेश IX नियम 13 के तहत आवेदन स्वीकार करने के आदेश को अंतिम आदेश माना जाता है, न कि अन्तरवर्ती आदेश।
    • इसलिये, न्यायालय ने माना कि इसे चुनौती देने के लिये कुटुंब न्यायालय अधिनियम की धारा 19 के तहत अपील दायर की जा सकती है।
  • रवीन्द्र सिंह बनाम वित्तीय आयुक्त सहकारिता पंजाब एवं अन्य (2008)
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
      • न्यायालयों के पास एकपक्षीय आदेश को रद्द करने की अंतर्निहित शक्तियाँ होती हैं, भले ही ऐसा करने की अनुमति देने वाला कोई स्पष्ट कानूनी प्रावधान न हो।
      • ये शक्तियाँ प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखने की आवश्यकता से उत्पन्न होती हैं, जो कानूनी कार्यवाही में निष्पक्षता सुनिश्चित करती हैं।
      • किसी विशिष्ट वैधानिक प्रावधान का अभाव न्यायालय को ऐसी शक्तियों का प्रयोग करने से नहीं रोकता है।
      • निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि न्यायालयी प्रक्रियाओं में निष्पक्षता और न्याय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।