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सांविधानिक विधि
समाजवाद का अर्थ
26-Nov-2024
बलराम सिंह बनाम भारत संघ “उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना में 'समाजवादी' शब्द किसी विशिष्ट आर्थिक नीति को अनिवार्य बनाए बिना कल्याणकारी राज्य होने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।” CJI संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' शब्द कल्याणकारी राज्य होने और विशिष्ट आर्थिक नीतियों को अनिवार्य बनाए बिना अवसर की समानता सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। न्यायालय ने भारत के मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल का अवलोकन किया, जहाँ सार्वजनिक और निजी क्षेत्र सह-अस्तित्व में हैं, जिससे हाशिये पर रह रहे समुदायों को लाभ मिलता है।
- CJI संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार ने बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले में यह निर्णय दिया।
- यह टिप्पणी 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करते हुए की गई।
बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्ष 2020 में, वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करने को चुनौती देते हुए कई रिट याचिकाएँ दायर की गईं।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि ये शब्द आपातकालीन अवधि के दौरान बिना किसी वास्तविक सार्वजनिक परामर्श के जोड़े गए थे, जबकि सामान्य संसदीय कार्यकाल पहले ही समाप्त हो चुका था।
- एक प्रमुख तर्क यह था कि संविधान सभा ने वर्ष 1949 में संविधान के मूल प्रारूपण के दौरान जानबूझकर इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया था।
- याचिकाकर्त्ताओं ने दावा किया कि संविधान को अपनाने के 27 वर्ष बाद इन वैचारिक शब्दों को पूर्वव्यापी रूप से इसमें शामिल करना प्रक्रियागत रूप से अनुचित था।
- उन्होंने विशेष रूप से तर्क दिया कि "समाजवादी" शब्द अनावश्यक रूप से लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारों के आर्थिक नीति विकल्पों को प्रतिबंधित करता है।
- इस चुनौती में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या आपातकाल के दौरान किया गया संशोधन संविधान के दार्शनिक ढाँचे को मौलिक रूप से बदल सकता है।
- कानूनी याचिका में कहा गया है कि संविधान सभा ने जानबूझकर इन शब्दों को मूल प्रस्तावना में शामिल नहीं किया था, तथा बाद में इन्हें शामिल करना अनुचित था।
- उल्लेखनीय बात यह है कि याचिकाकर्त्ताओं ने वास्तविक संशोधन के 44 वर्ष बाद अपनी चुनौती दायर की, जो स्वयं न्यायिक जाँच का विषय बन गया।
- मुख्य विधिक प्रश्न यह था कि क्या संसद को एक असाधारण राजनीतिक अवधि के दौरान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना के आधारभूत सिद्धांतों को एकतरफा रूप से संशोधित करने का संवैधानिक अधिकार था।
प्रस्तावना में सम्मिलित 42वें संशोधन के संबंध में याचिकाकर्त्ताओं के तर्क क्या थे?
- वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में तीन नए शब्द - "धर्मनिरपेक्ष", "समाजवादी" और "अखंडता" जोड़े गए।
- यह संशोधन वर्ष 1949 में संविधान को मूल रूप से अपनाए जाने के दशकों बाद किया गया था, जब संविधान सभा ने विचार करके प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" शब्दों को शामिल नहीं करने का निर्णय लिया था।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि वर्ष 1976 में इन वैचारिक शब्दों को पूर्वव्यापी रूप से जोड़ना प्रक्रियात्मक रूप से अनुचित था, क्योंकि इससे संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित दार्शनिक ढाँचे में मौलिक परिवर्तन हो गया।
- विशेष रूप से, "धर्मनिरपेक्ष" शब्द को शामिल करने को चुनौती दी गई, क्योंकि संविधान सभा ने पहले इस शब्द से परहेज़ किया था, तथा कुछ विद्वानों ने इसे धर्म के विपरीत माना था।
- इसी प्रकार, "समाजवादी" शब्द का भी याचिकाकर्त्ताओं द्वारा विरोध किया गया, जिन्होंने दावा किया कि यह लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारों के आर्थिक नीति विकल्पों को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करता है।
- सम्मिलित किया गया तीसरा शब्द "अखंडता" था, जिसका उद्देश्य किसी भी अलगाववादी प्रवृत्ति को समाप्त करना तथा संविधान के अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत को "राज्यों का संघ" के रूप में स्थापित करना था।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि आपातकालीन अवधि के दौरान किये गए इन संशोधनों में वास्तविक जनता की सहमति और परामर्श का अभाव था, क्योंकि इन्हें लोकसभा का सामान्य कार्यकाल समाप्त होने के बाद पारित किया गया था।
- कुल मिलाकर, मुख्य विधिक चुनौती संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना के आधारभूत सिद्धांतों को एकतरफा रूप से संशोधित करने की वैधता के इर्द-गिर्द घूमती है, विशेष रूप से आपातकाल जैसे असाधारण राजनीतिक काल के दौरान।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है, जिसमें संसद को अनुच्छेद 368 के तहत वैध संशोधन शक्तियाँ प्राप्त हैं, जो प्रस्तावना को संशोधित करने तक विस्तारित हैं।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया कि "समाजवाद" की व्याख्या प्रतिबंधात्मक आर्थिक विचारधारा के रूप में नहीं की जानी चाहिये, बल्कि इसे कल्याण और अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिये राज्य की प्रतिबद्धता के रूप में समझा जाना चाहिये।
- "धर्मनिरपेक्षता" के संबंध में न्यायालय ने विस्तार से बताया कि यह किसी विशिष्ट धर्म का समर्थन या दंड दिये बिना, सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करने की राष्ट्र की मौलिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है, चाहे उनकी धार्मिक संबद्धता कुछ भी हो।
- न्यायालय ने कहा कि समाजवाद का भारतीय ढाँचा आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मूर्त रूप देता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण वंचित न रहे।
- न्यायपालिका ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न तो संविधान और न ही प्रस्तावना किसी विशिष्ट आर्थिक नीति संरचना का आदेश देती है, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, बल्कि यह सामाजिक कल्याण के प्रति व्यापक प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करती है।
- न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत ने निरंतर मिश्रित आर्थिक मॉडल को अपनाया है, जहाँ निजी उद्यमशीलता सार्वजनिक क्षेत्र की पहलों के साथ मिलकर काम करती है, तथा सामाजिक उत्थान में योगदान देती है।
- निर्णय में कहा गया कि संवैधानिक प्रावधान, विशेषकर अनुच्छेद 14, 15, 16, 25 और 26, स्वाभाविक रूप से गैर-भेदभाव और धार्मिक स्वतंत्रता के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करते हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इन याचिकाओं को संशोधन के 44 वर्ष बाद देरी से दायर किया जाना, उनकी विश्वसनीयता को काफी कम कर देता है तथा यह इन संवैधानिक परिवर्तनों की व्यापक सार्वजनिक स्वीकृति को दर्शाता है।
- अंततः न्यायालय ने 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली सभी दलीलों को खारिज कर दिया, तथा इस बात की पुष्टि की कि "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करना वैध संवैधानिक संशोधन थे, जो मौलिक अधिकारों या बुनियादी संवैधानिक ढाँचे का उल्लंघन नहीं करते थे।
भारतीय संविधान में "समाजवाद" क्या है?
- भारतीय संविधान में "समाजवाद" शब्द की व्याख्या निर्वाचित सरकार पर थोपी गई प्रतिबंधात्मक आर्थिक विचारधारा के रूप में नहीं की जानी चाहिये।
- बल्कि, "समाजवाद" कल्याणकारी राज्य होने तथा सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता सुनिश्चित करने के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- भारत ने निरंतर मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल को अपनाया है, जहाँ निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ फलता-फूलता रहा है।
- भारतीय संदर्भ में, "समाजवाद" आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मूर्त रूप देता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी नागरिक को उसकी आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण नुकसान न पहुँचे।
- "समाजवाद" शब्द समाज के हाशिये पर रह रहे और वंचित वर्गों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को दर्शाता है।
- महत्त्वपूर्ण बात यह है कि "समाजवाद" निजी उद्यमशीलता या संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत किसी भी व्यवसाय या व्यापार को चलाने के मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करता है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न तो संविधान और न ही प्रस्तावना में निर्वाचित सरकार के लिये किसी विशिष्ट वामपंथी या दक्षिणपंथी आर्थिक नीति संरचना का प्रावधान है।
- प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द का समावेश राज्य की अपने नागरिकों के कल्याण तथा सभी प्रकार के शोषण, चाहे वह सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक हो, के उन्मूलन के प्रति व्यापक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 368 क्या है?
सिविल कानून
विधवा पुत्री को अनुकंपा नियुक्ति
26-Nov-2024
पुनीता भट्ट उर्फ पुनीता धवन बनाम बीएसएनएल, नई दिल्ली "विधवा पुत्री को भी 'पुत्री' की परिभाषा में शामिल किया जाएगा यदि वह अपने मृत पिता या माता पर आश्रित है।" न्यायमूर्ति रंजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति रंजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की पीठ ने कहा कि विधवा पुत्री अनुकंपा नियुक्ति की हकदार होगी।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पुनीता भट्ट उर्फ पुनीता धवन बनाम बीएसएनएल, नई दिल्ली मामले में यह निर्णय दिया।
पुनीता भट्ट उर्फ पुनीता धवन बनाम बीएसएनएल, नई दिल्ली मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता एक विधवा पुत्री है और उसके पिता महाप्रबंधक (दूरसंचार) के कार्यालय में TOA (TL) के पद पर कार्यरत रहते हुए सेवाकाल के दौरान ही मर गए थे तथा उनके परिवार में पत्नी, याचिकाकर्त्ता सहित चार पुत्रियाँ और एक पुत्र थे।
- याचिकाकर्त्ता ने अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति की मांग करते हुए आवेदन दायर किया था।
- याचिकाकर्त्ता ने दलील दी कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है और पति की मृत्यु के बाद वह अपने अवयस्क बेटे के साथ अपने पिता के पास रह रही थी।
- इसके अलावा, उसने आग्रह किया कि यदि उसे नियुक्ति दी जाती है तो वह अपनी पूरी क्षमता से अपने दिवंगत पिता के उत्तराधिकारियों की देखभाल करेंगी।
- तथापि, सहायक महाप्रबंधक (दूरसंचार) ने उसे बताया कि चूँकि विधवा पुत्री प्रसारित दिशा-निर्देशों के पात्रता मानदंडों में सूचीबद्ध नहीं है, इसलिये अनुकंपा नियुक्ति के लिये उसके आवेदन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।
- मामले का सामना करने पर CAT ने यह निष्कर्ष दिया कि दिशानिर्देश के अनुसार विधवा पुत्री को पात्र व्यक्तियों की सूची में शामिल नहीं किया गया है, तथा अधिकरण दिशानिर्देश तैयार करने में कार्यपालिका के स्थान पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
- अधिकरण ने आवेदन खारिज कर दिया।
- अंततः इस मामले पर उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की गई।
- वर्तमान याचिका में न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाने वाला मुद्दा यह था कि “क्या किसी मृतक कर्मचारी की विधवा पुत्री ‘आश्रित पारिवारिक सदस्य’ है या नहीं, ताकि वह अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति के लिये पात्र हो?”
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि भारत सरकार, कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय द्वारा अनुकंपा नियुक्ति के लिये जारी दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि अनुकंपा नियुक्ति योजना ‘आश्रित पारिवारिक सदस्य’ पर लागू होती है।
- न्यायालय ने कई निर्णयों का विश्लेषण करते हुए कहा कि इन सभी निर्णयों में एक बात समान है कि 'परिवार के सदस्य' शब्द की उद्देश्यपूर्ण और व्यापक व्याख्या की गई है।
- उच्च न्यायालयों ने विवाहित पुत्रियों को भी आश्रित परिवार के अर्थ में शामिल किया है।
- न्यायालय ने कहा कि अनुकंपा नियुक्ति के संबंध में विवाहित और अविवाहित पुत्री के बीच कोई भी भेद विभेदकारी होगा और यह भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14 और 15 के विरुद्ध होगा।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि यहाँ 'पुत्री' में अविवाहित पुत्रियाँ भी शामिल होंगी।
- न्यायालय ने आगे इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्या विधवा पुत्री भी पुत्री की परिभाषा के दायरे में आती है।
- यह देखा गया है कि विवाह के बाद तथा विधवा होने के बाद भी पुत्री की स्थिति उसके पिता की मृत्यु के बाद भी बनी रहती है।
- इसलिये, न्यायालय ने माना कि विधवा पुत्री भी पुत्री की परिभाषा में शामिल होगी।
- साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई विधवा पुत्री अपने पिता पर आश्रित नहीं है, तो वह दिशानिर्देशों के तहत अनुकंपा नियुक्ति की हकदार नहीं होगी।
अनुकंपा नियुक्ति क्या है और इसे नियंत्रित करने वाले दिशानिर्देश क्या हैं?
- अनुकंपा नियुक्ति का आधार:
- इन नियुक्तियों का आधार और औचित्य संकटग्रस्त तथा अभावग्रस्त परिवारों को अनुतोष प्रदान करना है।
- इसलिये इन नीतियों का उद्देश्य परिवार को तत्काल सहायता प्रदान करना है।
- यह ध्यान देने योग्य बात है कि ऐसा अधिकार सेवा के दौरान मरने वाले कर्मचारी की सेवा की शर्त नहीं है, जिसे किसी भी प्रकार की जाँच या चयन प्रक्रिया के बिना आश्रित को दिया जाना चाहिये।
- इसलिये, अनुकंपा नियुक्ति, अत्यधिक वित्तीय कठिनाई का सामना कर रहे मृतक कर्मचारी के परिवार को अनुतोष देने के लिये प्रदान की जाती है, क्योंकि रोज़गार के बिना, परिवार संकट का सामना करने में सक्षम नहीं होगा।
- यह किसी भी मामले में दावेदार द्वारा ऐसी अनुकंपा नियुक्ति के लिये नीति, निर्देश या नियमों में निर्धारित आवश्यकताओं को पूरा करने के अधीन होगा।
- अनुकंपा नियुक्ति को नियंत्रित करने वाले दिशानिर्देश:
- भारत सरकार द्वारा अनुकंपा नियुक्ति के लिये दिशानिर्देश जारी किये गए हैं और इनमें कहा गया है कि अनुकंपा नियुक्ति की योजना ‘आश्रित पारिवारिक सदस्य’ पर लागू होती है।
- इसमें प्रावधान है कि 'आश्रित पारिवारिक सदस्य' का अर्थ होगा:
- पति या पत्नी, या
- पुत्र (दत्तक पुत्र सहित)
- पुत्री (दत्तक पुत्री सहित)
- अविवाहित सरकारी कर्मचारी के मामले में भाई या बहन।
- नियुक्ति के लिये पूर्व शर्त यह है कि आवेदक मृतक कर्मचारी का पारिवारिक सदस्य हो तथा उस पर आश्रित हो।
- एक बार ये शर्तें पूरी हो जाने पर आश्रित सहित परिवार की आर्थिक या वित्तीय स्थिति का आकलन किया जाना आवश्यक है।
पुत्री की स्थिति को उजागर करने वाले मामले कौन-से हैं?
- सुनीता बनाम भारत संघ (1996):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुत्री की स्थिति का सारांश इस प्रकार दिया:
- ‘पुत्र तब तक पुत्र ही रहता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिल जाती। पुत्री जीवन भर पुत्री ही रहती है।’
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुत्री की स्थिति का सारांश इस प्रकार दिया:
- श्रीमती विमला श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2015):
- इस मामले में न्यायालय के समक्ष "उत्तर प्रदेश सरकारी कर्मचारी (सेवा में मृत्यु) के आश्रितों की भर्ती नियमावली, 1974" के अंतर्गत अनुकंपा नियुक्ति के लिये "विवाहित पुत्री" की पात्रता का मुद्दा था।
- न्यायालय ने इस मामले में माना कि नियम 2 (c) में “परिवार” अभिव्यक्ति के दायरे से विवाहित पुत्री को बाहर रखना अवैध और असंवैधानिक है, जो संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है।
- उधम सिंह नगर ज़िला सहकारी बेंच लिमिटेड एवं अन्य बनाम अंजुला सिंह एवं अन्य (2019):
- उत्तराखंड उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के समक्ष यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या “विवाहित पुत्री” को “परिवार” की परिभाषा में शामिल न करना विभेदकारी है और भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन है।
- न्यायालय ने माना कि विवाहित पुत्री को परिवार के दायरे में शामिल न करना विभेदकारी है तथा COI के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन है।
पारिवारिक कानून
रेस जूडीकेटा और स्थायी निर्वाह व्यय का सिद्धांत
26-Nov-2024
X बनाम Y “न्याय के अंतर्निहित सिद्धांतों पर विचार किये बिना प्रक्रियात्मक नियमों का सख्ती से पालन करने से ऐसे परिणाम सामने आ सकते हैं, जहाँ तकनीकी बातें मूल अधिकारों से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं, जिससे पक्षकारों के पास कोई सार्थक उपाय नहीं रह जाता।” न्यायमूर्ति पुष्पेंद्र सिंह भाटी और न्यायमूर्ति मुन्नुरी लक्ष्मण |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने X बनाम Y के मामले में माना है कि रेस जूडीकेटा का सिद्धांत स्थायी अनुतोष और स्त्रीधन के अनुतोष पर लागू नहीं होगा।
X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, उदयपुर ज़िले में 12 जून, 2017 को एक विवाहित पत्नी और पति के बीच वैवाहिक विवाद उत्पन्न हुआ।
- विवाह के कुछ समय बाद ही पति ने पत्नी को मानसिक रूप से विशेषकर उसके कुछ सोने के आभूषणों को लेकर, प्रताड़ित करना शुरू कर दिया।
- पत्नी का आरोप है कि उसके पति का विवाह से पहले किसी अन्य महिला के साथ अवैध संबंध था और वह उस पर नौकरी छोड़ने का दबाव बना रहा था।
- 25 जनवरी, 2018 को पति ने उसे अपने वैवाहिक घर से निकाल दिया और उसे अपने माता-पिता के साथ रहने के लिये मजबूर कर दिया।
- पति गुजरात के गांधीनगर में रहता था।
- इसके बाद, पत्नी को पता चला कि उसके पति ने 8 मार्च, 2021 को गांधीनगर की एक न्यायालय से एकपक्षीय विवाह-विच्छेद का आदेश प्राप्त कर लिया है।
- उत्तर में, उसने उदयपुर के कुटुंब न्यायालय में एक आवेदन दायर किया, जिसमें निम्न मांगें शामिल थीं:
- विवाह-विच्छेद
- स्थायी निर्वाह व्यय
- स्त्रीधन (निजी संपत्ति) पर कब्ज़ा
- कुटुंब न्यायालय ने यह कहते हुए उसकी अर्ज़ी खारिज कर दी कि पिछली विवाह-विच्छेद की डिक्री के कारण मामला रेस जूडीकेटा द्वारा वर्जित है।
- इसके बाद पत्नी ने राजस्थान उच्च न्यायालय में एक सिविल अपील दायर की, जिसमें अपने पति के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A और 406 के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज कराई, जो दहेज़ उत्पीड़न और आपराधिक विश्वासघात से संबंधित हैं।
- उसकी अपील का मुख्य उद्देश्य स्थायी निर्वाह व्यय और स्त्रीधन की वसूली के लिये उसके दावों को खारिज किये जाने को चुनौती देना था, तथा तर्क दिया कि पिछली एकपक्षीय विवाह-विच्छेद की डिक्री को उसे इन कानूनी उपायों को लेने से नहीं रोकना चाहिये।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 25 (स्थायी निर्वाह व्यय) की व्याख्या:
- धारा 25 एक सामाजिक कल्याण प्रावधान है जिसका उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करना है।
- यह प्रावधान सतत् प्रकृति का है और वैवाहिक कार्यवाही के किसी भी चरण में इसका प्रयोग किया जा सकता है।
- इस विधायी उद्देश्य महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता प्रदान करना है।
- न्यायालय ने सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने वाली उद्देश्यपूर्ण व्याख्या की आवश्यकता पर बल दिया।
- राजस्थान में महिलाओं का सामाजिक-आर्थिक संदर्भ:
- न्यायालय ने महिलाओं के सामने आने वाली महत्त्वपूर्ण सामाजिक और वित्तीय बाधाओं को स्वीकार किया।
- अधिकार क्षेत्र संबंधी विचार:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 19, पत्नी को उस न्यायालय में याचिका दायर करने की अनुमति देती है जिसके अधिकार क्षेत्र में वह रहती है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि महिलाओं को मौलिक कानूनी अनुतोष पाने के लिये "एक जगह से दूसरी जगह भटकना" नहीं चाहिये।
- स्त्रीधन (निजी संपत्ति):
- यह एक महिला की पूर्ण संपत्ति होती है।
- इस बात पर प्रकाश डाला कि स्त्रीधन पर पति का कोई नियंत्रण नहीं होता है।
- इस बात पर ज़ोर दिया कि स्त्रीधन में किसी अन्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
- पूर्व विवाह-विच्छेद आदेश:
- उल्लेखनीय है कि गुजरात न्यायालय द्वारा एकपक्षीय विवाह-विच्छेद का आदेश पहले ही पारित किया जा चुका है।
- यह देखा गया है कि ऐसे आदेश को केवल अपीलीय न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती है।
- प्रक्रियात्मक दृष्टिकोण:
- इस बात पर ज़ोर दिया गया कि प्रक्रिया को "न्याय की दासी होना चाहिये, न कि उसकी स्वामिनी" (handmaid of justice, not its mistress)।
- कठोर प्रक्रियात्मक व्याख्याओं के विरुद्ध तर्क दिया गया जो वास्तविक न्याय को रोक सकती हैं।
- कानूनी व्याख्या:
- व्याख्या के "सुनहरे नियम" को लागू किया।
- कानूनी कहावत "यूटी रेस मैगिस वैलेट क्वाम पेरेट- ut res magis valeat quam pereat" (व्याख्या को सिस्टम के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करना चाहिये) का उपयोग किया।
- HMA की धारा 25 को लागू करके कानूनों की व्याख्या इस तरह से करने पर ध्यान केंद्रित किया कि उनका वास्तविक विधायी उद्देश्य प्राप्त हो।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के प्रावधानों के अनुसार रेस जूडीकेटा का सिद्धांत स्थायी अनुतोष और स्त्रीधन के राहत पर लागू नहीं होगा।
- न्यायालय की टिप्पणियाँ मूलतः न्याय सुनिश्चित करने, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने तथा कानूनों की व्याख्या इस प्रकार करने पर केंद्रित थीं, जिससे उनका सामाजिक कल्याण उद्देश्य पूरा हो सके।
रेस जूडीकेटा का सिद्धांत क्या है?
परिचय:
- इस सिद्धांत का स्पष्ट अर्थ यह है कि किसी भी मामले पर दोबारा निर्णय नहीं दिया जाना चाहिये, अथवा उसी मुद्दे पर कोई दूसरा मुकदमा दायर नहीं किया जाना चाहिये जिस पर न्यायालय पहले ही निर्णय दे चुका है।
- रेस जूडीकेटा का सिद्धांत तीन लैटिन सिद्धांतों पर आधारित है:
- इंटरेस्ट रिपब्लिका यूटी सिट फिनिस लिटियम (Interest Reipublicae Ut Sit Finis Litium): इसका अर्थ है कि यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाज़ी का अंत होना चाहिये।
- निमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना ईटी ईएडेम कॉसा (Nemo Debet Bis Vexari Pro Una Et Eadem Causa): इसका अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिये।
- रेस जुडीकाटा प्रो वेरिटेट ओसीसीपिटुर (Res Judicata Pro Veritate Occipitur): इसका अर्थ है कि न्यायिक निर्णय को सही माना जाना चाहिये। ऐसे मामलों में जहाँ निर्णय में विरोधाभास होता है, तो इससे न्यायपालिका को शर्मिंदगी उठानी पड़ती है।
आवश्यक तत्त्व:
- विवादित मामला समान होना चाहिये: रेस जूडीकेटा के सिद्धांत को लागू करने के लिये, बाद के वाद में मामला सीधे और मूलतः पूर्ववर्ती वाद के समान होना चाहिये।
- समान पक्षकार: पूर्ववर्ती वाद समान पक्षकारों के बीच, या उन पक्षकारों के बीच होना चाहिये जिनके अंतर्गत वे या उनमें से कोई दावा करता है।
- समान शीर्षक: पक्षकारों को पूर्व और बाद के दोनों वादों में समान शीर्षक के तहत मुकदमा लड़ना होगा।
- सक्षम क्षेत्राधिकार: जिस न्यायालय ने पूर्ववर्ती वाद का निर्णय किया था, उसके पास आगामी वाद या उस वाद की सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार होना चाहिये जिसमें मुद्दा उठाया गया हो।
- सुना गया और अंततः निर्णय लिया गया: विवादित मामले की सुनवाई पूर्व न्यायालय द्वारा की गई होगी और अंतिम रूप से निर्णय हुआ होगा।
विस्तार और प्रयोज्यता:
- रेस जूडीकेटा का सिद्धांत सिविल वादों, निष्पादन कार्यवाही, कराधान मामलों, औद्योगिक न्यायनिर्णयन, प्रशासनिक आदेशों, अंतरिम आदेशों आदि पर लागू होता है।
- CPC की धारा 11 में संहिताबद्ध रेस जूडीकेटा का सिद्धांत संपूर्ण नहीं है।
स्थायी भरण-पोषण क्या है?
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