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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

जाति ग्रहण का सिद्धांत

 28-Nov-2024

सी. सेल्वरानी बनाम  विशेष सचिव-सह ज़िला कलेक्टर एवं अन्य

न्यायालय ने निर्णय दिया कि ईसाई के रूप में जन्मे व्यक्ति हिंदू धर्म में धर्मांतरण के बाद जाति का दर्जा वापस पाने के लिये जाति ग्रहण के सिद्धांत का सहारा नहीं ले सकते।”

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, सुधांशु धूली और एस.वी.एन. भट्टी

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ईसाई के रूप में जन्मे व्यक्ति जाति ग्रहण के सिद्धांत का हवाला देकर जाति-आधारित लाभ का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि ईसाई धर्म जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं देता है।

  • यह सिद्धांत केवल जाति-आधारित धर्मों में जन्मे उन लोगों पर लागू होता है जो जाति-रहित धर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं और बाद में पुनः धर्म परिवर्तन कर लेते हैं।
  • यह निर्णय अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र की मांग करने वाली अपील को खारिज करते हुए आया, क्योंकि अपीलकर्त्ता हिंदू धर्म में अपने धर्मांतरण को साबित करने में विफल रही।

सी. सेल्वरानी बनाम  विशेष सचिव-सह ज़िला कलेक्टर एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • सी. सेल्वरानी का जन्म एक ईसाई पिता और एक ऐसी माँ से हुआ था, जिन्होंने कथित तौर पर विवाह के बाद हिंदू धर्म अपना लिया था, और दावा किया था कि वे वल्लुवन जाति से आती हैं, जिसे पांडिचेरी में अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता प्राप्त है।
  • उसका बपतिस्मा 6 जनवरी, 1991 को विल्लियानूर, पांडिचेरी के लूर्डेस मंदिर में एक शिशु के रूप में हुआ था, और उसका जन्म ऐसे माता-पिता से हुआ था जिनका विवाह ईसाई विवाह नियमों के तहत पंजीकृत था।
  • अपर डिवीज़न क्लर्क (UDC) पद के लिये आवेदन करते समय, सेल्वरानी ने शुरू में अनुसूचित जाति श्रेणी के तहत आवेदन किया और उनका चयन हो गया।
  • प्रमाण-पत्र सत्यापन के दौरान, स्थानीय अधिकारियों ने उसकी धार्मिक पृष्ठभूमि और सामुदायिक स्थिति की जाँच शुरू कर दी, और अंततः अनुसूचित जाति समुदाय प्रमाण-पत्र के लिये उसके आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • सेल्वरानी ने तर्क दिया कि उसका परिवार मूलतः वल्लुवन जाति से था, उसकी माँ ने हिंदू धर्म अपनाया था, तथा वह स्वयं हिंदू धर्म का पालन करती थी और उसे पहले भी समुदाय प्रमाण पत्र जारी किये गए थे।
  • स्थानीय प्राधिकारियों ने गाँव के प्रशासनिक अधिकारियों और समुदाय के बयानों के आधार पर विस्तृत जाँच के बाद कहा कि सेल्वरानी जन्म और व्यवहार से ईसाई हैं, और इसलिये अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र के लिये अयोग्य हैं।
  • उसने प्रशासनिक माध्यमों से कई अपीलें दायर कीं और तत्पश्चात एक रिट याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें उसके सामुदायिक प्रमाण-पत्र आवेदन की अस्वीकृति को चुनौती दी गई।
  • उच्च न्यायालय ने स्थानीय प्राधिकारियों से सहमति जताते हुए उसकी रिट याचिका खारिज कर दी कि वह अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र के लिये आवश्यक मानदंडों को पूरा नहीं करतीं।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर सेल्वरानी ने उच्चतम न्यायालय में अपील की, जो उसके मामले के समाधान के लिये अंतिम न्यायिक मंच बन गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना कि ईसाई के रूप में जन्मा कोई व्यक्ति जाति ग्रहण के सिद्धांत को लागू नहीं कर सकता, क्योंकि ईसाई धर्म मूल रूप से जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं देता है।
  • जाति ग्रहण का सिद्धांत विशेष रूप से तब लागू होता है जब जाति-आधारित धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति जाति-विहीन धर्म में धर्मांतरित हो जाता है, जिसमें संभावित पुनः धर्मांतरण तक उनकी मूल जाति ग्रहणग्रस्त रहती है।
  • न्यायालय ने कहा कि ईसाई धर्म अपनाने पर व्यक्ति अपनी पूर्व जातिगत पहचान हमेशा के लिये खो देता है, तथा उसे किसी भी पूर्व जाति वर्गीकरण से संबद्ध या पहचाना नहीं जा सकता।
  • पुनः धर्मांतरण के लिये प्रमाण का भार पूरी तरह से जाति पुनर्स्थापना का दावा करने वाले व्यक्ति पर है, जिसके लिये केवल अप्रमाणित दावे से अधिक की आवश्यकता होती है तथा अनुष्ठानिक पुनः धर्मांतरण और सामुदायिक स्वीकृति के प्रमाणित सबूत की आवश्यकता होती है।
  • न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के दावे की आलोचनात्मक जाँच की, तथा पाया कि हिंदू धर्म में वापसी के समर्थन में किसी भी औपचारिक पुनःधर्मांतरण समारोह, सार्वजनिक घोषणा या दस्तावेज़ी साक्ष्य का अभाव था, तथा पाया कि अपीलकर्त्ता ने ईसाई धर्म का सक्रिय रूप से पालन करना जारी रखा।
  • निर्णय में इस सिद्धांत को रेखांकित किया गया कि आरक्षण का लाभ अवसरवादी धर्म परिवर्तन के माध्यम से धोखाधड़ी से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तथा इस बात की पुष्टि की गई कि इस तरह की कार्रवाई ऐतिहासिक सामाजिक असमानताओं को दूर करने के लिये बनाए गए संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग होगी।
  • अंततः न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया, तथा इस बात पर बल दिया कि जन्म से ईसाई बने लोग रोज़गार या अन्य आरक्षण लाभों के लिये पूर्वव्यापी प्रभाव से अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकते।

ग्रहण का सिद्धांत

  • ग्रहण का सिद्धांत एक कानूनी सिद्धांत है जो विशेष रूप से उन कानूनों को संबोधित करता है जो अपने मूल अधिनियमन के समय वैध थे लेकिन भारतीय संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों के साथ असंगत हो गए।
  • इस सिद्धांत के तहत, ऐसे कानूनों को पूरी तरह से शून्य नहीं माना जाता है, बल्कि मौलिक अधिकारों की संवैधानिक गारंटी के साथ उनकी असंगतता के कारण उन्हें "ग्रहणग्रस्त" या निष्क्रिय माना जाता है।
  • यह कानून अभी भी निलम्बित अवस्था में है, तथा संवैधानिक असंगति की अवधि के दौरान प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन यह पूरी तरह से समाप्त या स्थायी रूप से अवैध नहीं हुआ है।
  • यदि बाद के संवैधानिक संशोधनों द्वारा उन विशिष्ट विसंगतियों को दूर कर दिया जाता है, जिनके कारण मूलतः कानून असंवैधानिक हो गया था, तो कानून स्वतः ही पुनर्जीवित हो जाता है तथा अपनी पूर्ण कानूनी प्रवर्तनीयता पुनः प्राप्त कर लेता है।
  • यह सिद्धांत अनिवार्यतः उन पूर्व-संवैधानिक कानूनों को संरक्षित करने के लिये एक तंत्र प्रदान करता है, जिन्हें अस्थायी रूप से अमान्य कर दिया गया हो, ताकि संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप होने पर उन्हें पुनर्जीवित किया जा सके।
  • ग्रहण सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य उन कानूनों को पूरी तरह से समाप्त करने से रोकना है जिनमें मामूली संवैधानिक विसंगतियाँ हो सकती हैं, तथा इसके स्थान पर विधायी सुधार और संरेखण के लिये मार्ग प्रदान करना है।
  • ऐसे कानूनों को स्थायी रूप से विलुप्त मानने के बजाय उन्हें मात्र "ग्रहणग्रस्त" मानकर, यह सिद्धांत कानूनी निरंतरता को बढ़ावा देता है तथा ऐतिहासिक विधायी रूपरेखाओं को संबोधित करने में अनुकूलता प्रदान करता है, जिनके लिये सूक्ष्म संवैधानिक सामंजस्य की आवश्यकता हो सकती है।

ग्रहण का सिद्धांत और संवैधानिक प्रावधान

  • ग्रहण का सिद्धांत मूल रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 से संबंधित हुआ है, जो संवैधानिक गारंटियों के साथ संभावित टकराव वाले कानूनों को संबोधित करके मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये एक महत्त्वपूर्ण तंत्र के रूप में कार्य करता है।
  • अनुच्छेद 13(1) के तहत, कोई भी पूर्व-संवैधानिक कानून जो संविधान के भाग III में उल्लिखित मौलिक अधिकारों का खंडन करता है, ऐसी असंगति की सीमा तक अवैध हो जाता है, जिससे प्रभावी रूप से उन विशिष्ट प्रावधानों को अप्रवर्तनीय बना दिया जाता है, लेकिन संपूर्ण विधायी ढाँचे को समाप्त नहीं किया जाता है।
  • अनुच्छेद 13(2) यह घोषित करके इस संरक्षण को सुदृढ़ करता है कि संविधान के लागू होने के बाद बनाया गया कोई भी नया कानून स्वतः ही शून्य हो जाता है यदि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तथा न्यायालयों के पास आमतौर पर संपूर्ण विधायी कृत्यों को रद्द करने के बजाय विशिष्ट समस्याग्रस्त प्रावधानों को अमान्य करने की शक्ति होती है।
  • इस कानूनी सिद्धांत का एक अनूठा पहलू अनुच्छेद 13(4) है, जो स्पष्ट रूप से संवैधानिक संशोधनों को अमान्यकरण प्रक्रिया से छूट देता है, जिसका अर्थ है कि भले ही कोई संवैधानिक संशोधन मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करता हो, यह कानूनी रूप से वैध रहता है।
  • यह दृष्टिकोण पृथक्करण के सिद्धांत से भिन्न है, जो आमतौर पर किसी कानून से असंवैधानिक प्रावधानों को पूरी तरह से हटाने की सिफारिश करता है, जबकि ग्रहण का सिद्धांत कानूनों के संभावित पुनरुद्धार की अनुमति देता है, जब उनकी संवैधानिक विसंगतियों को दूर कर दिया जाता है।
  • अनुच्छेद 13 का दर्शन और ग्रहण का सिद्धांत एक लचीला तंत्र प्रदान करना है जो मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है, साथ ही विधायी मंशा को संरक्षित करता है और व्यापक कानूनी व्यवधान को न्यूनतम करता है।
  • अंततः ये संवैधानिक प्रावधान एक सूक्ष्म रूपरेखा का निर्माण करते हैं जो कानूनों को अस्थायी रूप से ग्रहण करने, संभावित रूप से पुनर्वास करने, तथा भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के सर्वोपरि विचार के अधीन रखने की अनुमति देता है।

ऐतिहासिक मामले

  • भीकाजी नारायण ढाकरास बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1955)
    • सी.पी. और बरार मोटर वाहन संशोधन अधिनियम, 1947 की अनुच्छेद 19(1)(g) के संभावित उल्लंघन के लिये आलोचनात्मक जाँच की गई, जो किसी भी पेशे का अभ्यास करने या किसी भी व्यवसाय, व्यापार या कारोबार को चलाने के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है।
    • यह मामला ग्रहण के सिद्धांत के व्यावहारिक अनुप्रयोग को प्रदर्शित करने में महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि संशोधन अधिनियम संविधान की स्थापना से पहले का था, जिससे इसके परस्पर विरोधी प्रावधान प्रभावी रूप से निलंबित हो गए, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हुए।
  • केशव माधव मेनन बनाम बॉम्बे राज्य (1955)
    • इस मामले ने अनुच्छेद 13(1) के अस्थायी अनुप्रयोग के बारे में जटिल प्रश्न उठाकर कानूनी परिदृश्य को और जटिल बना दिया, विशेष रूप से संवैधानिक संदर्भ में "अमान्य" की सूक्ष्म व्याख्याओं को संबोधित करते हुए।
    • इस मामले में विशेष रूप से अधिनियम के अनुच्छेद 19(1)(a) के संभावित उल्लंघन को चुनौती दी गई, जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है, जिसके लिये न्यायालय को विधायी प्रावधानों की संवैधानिक अनुकूलता की सावधानीपूर्वक जाँच करने की आवश्यकता है।

सांविधानिक विधि

आरक्षण के लाभ हेतु धार्मिक परिवर्तन

 28-Nov-2024

सी. सेल्वरानी बनाम  विशेष सचिव-सह ज़िला कलेक्टर एवं अन्य

"हालाँकि, यदि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य मुख्य रूप से आरक्षण का लाभ प्राप्त करना है, लेकिन दूसरे धर्म में किसी वास्तविक विश्वास के साथ नहीं है, तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि ऐसे गुप्त उद्देश्य वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देने से आरक्षण की नीति के सामाजिक लोकाचार को ही नुकसान पहुँचेगा।"

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, सी. सेल्वरानी बनाम विशेष सचिव-सह ज़िला कलेक्टर एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि धार्मिक परिवर्तन प्रशासनिक लाभ के लिये नहीं, बल्कि वास्तविक आध्यात्मिक विश्वासों से प्रेरित होना चाहिये और ऐसी प्रथाएँ आरक्षण नीतियों के एकमात्र उद्देश्य को कमज़ोर जार देंगी।

सी. सेल्वरानी बनाम विशेष सचिव-सह ज़िला कलेक्टर एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता, सी. सेल्वरानी का जन्म 22 नवंबर, 1990 को क्रिश्चियन पिता, जिनका नाम क्रिश्चियन (मूनिएन का पुत्र) और संथामेरी माता के घर हुआ था।
  • अपीलकर्त्ता ने दावा किया कि उसके पिता का परिवार मूल रूप से वल्लुवन जाति से संबंधित था, जिसे पांडिचेरी क्षेत्र में अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता प्राप्त है।
  • उसने दावा किया कि उसकी माँ ने विवाह के बाद हिंदू धर्म अपना लिया था और उनका परिवार हिंदू धर्म का पालन करता आ रहा है।
  • वर्ष 2015 में, सेल्वरानी ने अनुसूचित जाति श्रेणी के अंतर्गत अपर डिवीज़न क्लर्क (UDC) के पद के लिये आवेदन किया और उसका चयन हो गया।
  • सत्यापन प्रक्रिया के दौरान, उससे सामुदायिक, निवास और जन्म प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने को कहा गया।
  • अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र के लिये उसके आवेदन को स्थानीय प्राधिकारियों ने इस आधार पर अस्वीकार कर दिया था कि वह हिंदू धर्म को नहीं मानती है।
  • सेल्वरानी ने इस अस्वीकृति को कई अपीलों और कानूनी चैनलों के माध्यम से चुनौती दी, जिनमें शामिल हैं:
    • उच्च अधिकारियों के समक्ष प्रारंभिक अपील।
    • उच्च न्यायालय में रिट याचिका।
    • केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण में अपील।
  • उसने तर्क दिया कि शिशु अवस्था में बपतिस्मा लेने के बावजूद, वह और उसका परिवार हिंदू धर्म का पालन करते हैं तथा वल्लुवन जाति से संबंधित हैं।
  • इससे पहले उसे, उसके पिता और भाई को अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र जारी किया गया था।
  • स्थानीय प्राधिकारियों ने अपना पक्ष रखा कि वह धर्म से ईसाई है और इसलिये अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र के लिये अयोग्य है।
  • अपीलकर्त्ता ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष प्रतिवादियों के आदेश से संबंधित अभिलेख मंगाने के लिये प्रमाणित परमादेश रिट जारी करने की प्रार्थना की।
  • अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादियों द्वारा पारित आदेशों को रद्द करने की भी प्रार्थना की, क्योंकि वे अवैध, गैरकानूनी, मनमाने, असंवैधानिक और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले हैं।
  • उसने अपीलकर्त्ता तथा उसके परिवार के सदस्यों के पक्ष में प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा पहले से जारी सामुदायिक प्रमाण-पत्रों के आधार पर संविधान (पांडिचेरी) अनुसूचित जाति आदेश, 1964 के अनुसार अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र जारी करने का आदेश देने की प्रार्थना की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • धार्मिक परिवर्तन और जाति स्थिति
      • न्यायालय ने माना कि दूसरे धर्म में परिवर्तन करने से आमतौर पर व्यक्ति की मूल जाति की स्थिति समाप्त हो जाती है।
      • मूल धार्मिक समुदाय में वास्तविक वापसी के स्पष्ट साक्ष्य के बिना केवल पुनः परिवर्तन के दावे अपर्याप्त होते हैं।
    • प्रमाण का भार
      • अपीलकर्त्ता पर निम्नलिखित स्थापित करने का भार था:
        • हिंदू धर्म में उसका वास्तविक पुनः परिवर्तन।
        • मूल जाति समुदाय द्वारा स्वीकृति।
        • हिंदू प्रथाओं को पूरी तरह अपनाने का ईमानदार आशय।
    • दस्तावेज़ी साक्ष्य
      • न्यायालय को अपीलकर्त्ता के दावों का खंडन करने वाले दस्तावेज़ी साक्ष्य मिले:
      • बपतिस्मा प्रमाणपत्र जिसमें जन्म के दो महीने के भीतर उसका बपतिस्मा दिखाया गया हो।
      • ईसाई विवाह कानूनों के तहत उसके माता-पिता का विवाह पंजीकरण।
      • ग्रामीणों के बयान जो उसके परिवार के ईसाई रीति-रिवाजों की पुष्टि करते हैं।
    • परिवर्तन दावों के लिये प्रेरणा
      • न्यायालय ने मुख्य रूप से आरक्षण लाभ प्राप्त करने के लिये किये गए धर्म परिवर्तन के दावों पर संदेह व्यक्त किया।
      • इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि केवल रोज़गार आरक्षण प्राप्त करने के लिये धर्म परिवर्तन करना आरक्षण के संवैधानिक सिद्धांतों को पराजित करता है।
    • आरक्षण के सिद्धांत
      • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि आरक्षण नीतियों का उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों का उत्थान करना है।
      • धोखाधड़ी वाले दावे इन नीतियों के सामाजिक न्याय उद्देश्यों को कमज़ोर करते हैं।
    • प्रक्रियात्मक निष्पक्षता
      • न्यायालय ने पाया कि प्राधिकारियों ने उचित प्रक्रियाओं का पालन किया:
      • गहन जाँच की गई।
      • अपीलकर्त्ता को अपना मामला प्रस्तुत करने के लिये अवसर प्रदान किये गए।
      • उसे अपनी परिस्थितियों को स्पष्ट करने के लिये कई अवसर दिये गए।
    • कानूनी निर्णय
      • न्यायालय ने पिछले निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि:
      • धर्म परिवर्तन के परिणामस्वरूप आमतौर पर जातिगत पहचान समाप्त हो जाती है।
      • पुनः धर्म परिवर्तन के लिये व्यक्तिगत दावों से कहीं अधिक की आवश्यकता होती है।
      • जातिगत स्थिति को फिर से स्थापित करने के लिये जाति समुदाय की स्वीकृति बहुत ज़रूरी है।
    • धर्मनिरपेक्ष परिप्रेक्ष्य
      • धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की पुष्टि करते हुए न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धार्मिक परिवर्तन प्रशासनिक लाभ के लिये नहीं, बल्कि वास्तविक आध्यात्मिक विश्वासों से प्रेरित होना चाहिये ।
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्त्ता धर्म और व्यवहार से ईसाई थी।
    • हिंदू होने के उसके दावे को विश्वसनीय साक्ष्यों से पुष्ट नहीं किया गया।
    • टिप्पणियों ने मूल रूप से अपीलकर्त्ता के अनुसूचित जाति समुदाय के प्रमाण पत्र के दावे को खारिज कर दिया, अवसरवादी दावों पर वास्तविक धार्मिक पहचान के महत्त्व पर ज़ोर दिया और वर्तमान अपील को खारिज कर दिया।

आरक्षण क्या है?

  • आरक्षण सकारात्मक भेदभाव का एक रूप है, जो हाशिये पर रह रहे वर्गों के बीच समानता को बढ़ावा देने के लिये बनाया गया है, ताकि उन्हें सामाजिक और ऐतिहासिक अन्याय से बचाया जा सके।
  • सामान्यतः इसका अर्थ- समाज के हाशिये पर रह रहे वर्गों को रोज़गार और शिक्षा तक पहुँच में प्राथमिकता देना है।
  • इसे मूलतः वर्षों से चले आ रहे भेदभाव को दूर करने तथा वंचित समूहों को बढ़ावा देने के लिये विकसित किया गया था।
  • भारत में ऐतिहासिक रूप से जाति के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव किया जाता रहा है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में संक्षेप में उन प्रावधानों का उल्लेख है जो बिना किसी भेदभाव के सार्वजनिक रोज़गार में सभी नागरिकों को समान अवसर की गारंटी देते हैं, जो एक सामान्य नियम होता है, लेकिन कुछ अपवादों के अधीन होता है।
    • खंड (4) में आरक्षण के प्रावधान इस प्रकार हैं:
      • यह राज्य को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये प्रावधान करने की शक्ति प्रदान करता है, जिसका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।

आरक्षण प्रणाली में मुख्य मुद्दे और कमियाँ क्या हैं?

  • धोखाधड़ी से नॉन-क्रीमी लेयर (NCL), आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) और निःशक्तता प्रमाण-पत्र प्राप्त करना।
  • आरक्षण लाभ के लिये पात्रता की अपर्याप्त जाँच।
  • क्रीमी लेयर के बहिष्कार से बचने के लिये रणनीतियाँ, जैसे संपत्ति उपहार में देना या माता-पिता द्वारा समय से पहले सेवानिवृत्ति लेना।
  • क्रीमी लेयर निर्धारण में आवेदक या उसके पति/पत्नी की आय पर विचार न किया जाना।
  • OBC जातियों/उप-जातियों के एक छोटे प्रतिशत के बीच लाभों का संकेन्द्रण।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिये क्रीमी लेयर अवधारणा का अभाव।
  • उच्च आरक्षण प्रतिशत के बावजूद आरक्षित सीटों पर लगातार रिक्तियाँ बनी रहना।
  • आरक्षित श्रेणियों में उप-वर्गीकरण का अभाव, जिसके कारण कुछ समुदायों का प्रतिनिधित्व कम हो रहा है।
  • आरक्षित सीटों तक पहुँचने के लिये निःशक्तता प्रमाण-पत्रों का संभावित दुरुपयोग।
  • वंचित समूहों में सबसे अधिक हाशिये पर रह रहे लोगों तक लाभ पहुँचाने के लिये अपर्याप्त तंत्र।
  • पिछड़े वर्गों और आय सीमा की सूची की नियमित समीक्षा और अद्यतन का अभाव।
  • एक परिवार की कई पीढ़ियों को आरक्षण का निरन्तर लाभ मिलने से रोकने तथा उन पर नज़र रखने के लिये एक व्यापक प्रणाली का अभाव।

भारत में धर्म परिवर्तन कानून की स्थिति क्या है?

  • भारत में धर्म परिवर्तन एक अत्यधिक बहस का विषय बन गया है, तथा कई राज्यों ने कुछ प्रकार के धर्म परिवर्तन को विनियमित करने या प्रतिबंधित करने के लिये कानून बनाए हैं।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • भारतीय संविधान की संहिता के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धर्म को मानने, प्रचार करने और आचरण करने की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, तथा सभी धार्मिक वर्गों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन, धर्म के मामलों में अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन करने की अनुमति दी गई है।
    • हालाँकि, किसी भी व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वासों को थोपने के लिये मजबूर नहीं किया जाएगा और परिणामस्वरूप, किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी भी धर्म का पालन करने के लिये मजबूर नहीं किया जाना चाहिये।
  • भारत में राज्य स्तरीय धर्म परिवर्तन विरोधी कानून
    • अरुणाचल प्रदेश: अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1978
      • बलपूर्वक, धोखाधड़ी या प्रलोभन द्वारा धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • धर्म परिवर्तन के लिये अधिकारियों को सूचना देना आवश्यक होता है।
    • छत्तीसगढ़: छत्तीसगढ़ धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1968
      • बलपूर्वक, प्रलोभन या धोखाधड़ी से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • धर्म परिवर्तन के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट को सूचना देना आवश्यक होता है।
    • गुजरात: गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2003 (वर्ष 2021 में संशोधित)
      • बलपूर्वक धर्म परिवर्तन और प्रलोभन, धोखाधड़ी या विवाह द्वारा धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • इसमें भार-स्थानांतरण प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्म परिवर्तन के लिये पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है।
    • हरियाणा: हरियाणा गैरकानूनी धर्म परिवर्तन रोकथाम अधिनियम, 2022
      • गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • इसमें विवाह के लिये धर्म परिवर्तन के विरुद्ध प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्म परिवर्तन के लिये 30 दिन की पूर्व सूचना की आवश्यकता होती है।
    • हिमाचल प्रदेश: हिमाचल प्रदेश धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 2019
      • गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन या किसी भी धोखाधड़ी के माध्यम से धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है।
      • इसमें भार-स्थानांतरण प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्मांतरण के लिये 30 दिन की पूर्व सूचना की आवश्यकता होती है।
    • झारखंड: झारखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2017
      • बलपूर्वक, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • धर्म परिवर्तन के लिये अधिकारियों को सूचना देना आवश्यक है।
    • कर्नाटक: कर्नाटक धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार संरक्षण अधिनियम, 2022
      • गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से गैरकानूनी धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है।
      • इसमें भार-स्थानांतरण प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्मांतरण के लिये 30 दिन की पूर्व सूचना की आवश्यकता होती है।
    • मध्य प्रदेश: मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2021
      • गलत बयानी, प्रलोभन, बल या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्मांतरण पर रोक लगाता है।
      • इसमें भार-स्थानांतरण प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्मांतरण के लिये 60 दिन की पूर्व सूचना की आवश्यकता होती है।
    • ओडिशा: ओडिशा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1967
      • बलपूर्वक, धोखाधड़ी या प्रलोभन द्वारा धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • धर्म परिवर्तन के लिये अधिकारियों को सूचना देना आवश्यक होता है।
    • राजस्थान: राजस्थान धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 2006 (नियमों के अभाव के कारण लागू नहीं)
      • बलपूर्वक, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • धर्म परिवर्तन के लिये अधिकारियों को सूचना देना आवश्यक होता है।
    • उत्तराखंड: उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 2018
      • गलत बयानी, बल, धोखाधड़ी, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन या विवाह द्वारा धर्मांतरण पर रोक लगाता है।
      • इसमें भार-स्थानांतरण प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्मांतरण के लिये एक महीने पहले घोषणा की आवश्यकता होती है।
    • उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021
      • गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।
      • इसमें विवाह के लिये धर्म परिवर्तन के विरुद्ध प्रावधान शामिल हैं।
      • धर्म परिवर्तन के लिये 60 दिन की पूर्व सूचना की आवश्यकता होती है।
  • भारत में राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशिष्ट "गैरकानूनी धर्म परिवर्तन अधिनियम" नहीं है।
    • कुछ राज्यों ने धर्म परिवर्तन से संबंधित कानून पेश किये हैं, जिन्हें अक्सर धर्म परिवर्तन विरोधी कानून कहा जाता है।
    • इन कानूनों का उद्देश्य आमतौर पर धार्मिक धर्म परिवर्तन को विनियमित या प्रतिबंधित करना होता है, विशेष रूप से ऐसे धर्म परिवर्तन जो जबरन या धोखाधड़ी से किये गए हों।

सिविल कानून

रेस जूडीकेटा का उपयोजन

 28-Nov-2024

X बनाम Y

 "रेस जूडीकेटा और आदेश 2 नियम 2 के सिद्धांत दोनों ही कानून के नियम पर आधारित हैं कि किसी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाएगा।"

न्यायमूर्ति रंजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति रंजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की पीठ ने कहा कि चूँकि दोनों याचिकाओं में वाद हेतुक भिन्न है, इसलिये उन्हें रेस जूडीकेटा द्वारा वर्जित नहीं किया जा सकता।     

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने X बनाम Y मामले में यह निर्णय दिया।

X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता (पति) और प्रतिवादी (पत्नी) विवाहित थे।
  • अपीलकर्त्ता ने मुख्य रूप से अभित्यजन के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिये हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 के तहत वैवाहिक मामला दायर किया।
  • उपरोक्त मामला पति द्वारा पत्नी के विरुद्ध दायर किया गया पहला विवाह-विच्छेद का मामला था।
  • हालाँकि इसे इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अपीलकर्त्ता द्वारा प्रतिवादी की ओर से अभित्यजन साबित नहीं किया गया।
  • दूसरा मामला पति द्वारा पत्नी के विरुद्ध वर्ष 2021 में दर्ज कराया गया जिसमें:
    • पति ने पहले मामले जैसे ही आरोप लगाए।
    • इसके अतिरिक्त, क्रूरता के नए दावे भी किये गए, जिसमें पति ने आरोप लगाया कि:
      • पत्नी, उसके जीजा और एक अन्य संबंधी ने कथित तौर पर पति की माँ और बहन पर हमला किया।
      • पत्नी ने घर का सामान तोड़ दिया।
      • गाँव वालों को बुलाया गया और कथित हमलावर भाग गए।
      • इसके बाद पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई।
  • पत्नी ने आरोपों पर निम्नलिखित प्रतिक्रिया दी:
    • उसने क्रूरता के आरोपों से इनकार किया।
    • उसने पुष्टि की कि वह वैवाहिक घर में दो कमरों के आवास में रहती है (पिछले घरेलू हिंसा मामले के आदेश के अनुसार)।
    • उसने तर्क दिया कि चूँकि पहला विवाह-विच्छेद का मामला खारिज कर दिया गया था, इसलिये दूसरा मामला भी खारिज कर दिया जाना चाहिये
  • कुटुंब न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत विवाह-विच्छेद के लिये अपीलकर्त्ता द्वारा दायर वैवाहिक मामले को रेस जूडीकेटा द्वारा वर्जित होने के आधार पर खारिज कर दिया।
  • वर्तमान अपील कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 (1) सहपठित हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 28 के अंतर्गत प्रधान न्यायाधीश, कुटुंब न्यायालय अंबेडकर नगर द्वारा पारित निर्णय के विरुद्ध दायर की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि हालाँकि दूसरी विवाह-विच्छेद की याचिका में कुछ पैराग्राफ पहली याचिका के समान थे, तथापि दूसरी याचिका में अतिरिक्त आधार प्रस्तुत किये गए थे जो पहली याचिका में मौजूद नहीं थे।
  • न्यायालय ने कहा कि दूसरी याचिका में नए तत्त्व इस प्रकार हैं:
    • दूसरी याचिका में मुकदमेबाज़ी की लागत और पत्नी को दिये गए व्यय पर प्रकाश डाला गया।
    • इसमें वर्ष 2020 की एक विशेष घटना का उल्लेख किया गया जिसमें पति के परिवार के सदस्यों पर शारीरिक और मानसिक हमला किया गया था।
  • न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 11 का संदर्भ दिया, जो यह निर्धारित करने पर केन्द्रित थी कि क्या दूसरे मुकदमे में वाद हेतुक पहले से भिन्न था।
  • न्यायालय ने कहा कि रेस जूडीकेटा के प्रतिबंध को लागू करने के लिये, न्यायालय को यह आकलन करने की आवश्यकता है कि क्या वाद हेतुक बदल गया है।
  • यह देखा गया कि नए आधारों और घटनाओं को जोड़ने से वाद हेतुक का संभावित भिन्न कारण सुझाया गया।
  • तदनुसार, न्यायालय ने वर्तमान अपील स्वीकार कर ली तथा विवादित डिक्री को रद्द कर दिया।

रेस जूडीकेटा क्या है?

  • रेस का अर्थ है “विषय वस्तु” और जूडीकेटा का अर्थ है “न्यायनिर्णीत” या निर्णयित और साथ में इसका अर्थ है “न्यायनिर्णीत मामला”
  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 11 में रेस जूडीकेटा के सिद्धांत या निर्णय की निर्णायकता के नियम को शामिल किया गया है।
  • इसमें यह प्रावधान किया गया है कि एक बार जब कोई मामला सक्षम न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से तय कर दिया जाता है, तो किसी भी पक्ष को आगामी मुकदमे में उस मामले को पुनः खोलने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
  • यह कार्यवाहियों की बहुलता को रोकने तथा पक्षकारों को एक ही कारण से दो बार परेशान होने से बचाने का काम करता है।
  • रेस जूडीकेटा के सिद्धांत का उद्देश्य तीन न्यायिक सिद्धांतों द्वारा पता लगाया जा सकता है:
    • निमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट ईएडेम कॉसा (Nemo debet bis vexari pro una et eadem causa): इसका अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिये।
    • इंटरेस्ट रिपब्लिका यूट सिट फिनिस लिटियम (Interest reipublicae ut sit finis litium): इस कहावत का अर्थ है कि यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाज़ी का अंत होना चाहिये।
    • रेस जूडीकेटा प्रो वेरिटेट ओसीसीपिटुर (Res judicata pro veritate occipitur): एक न्यायिक निर्णय को सही के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये।
  • आवश्यक तत्त्व:
    • विवाद्यक मामला समान होना चाहिये: रेस जूडीकेटा के सिद्धांत को लागू करने के लिये, बाद के वाद का मामला पूर्व वाद से प्रत्यक्षतः और मूलतः समान होना चाहिये।
    • समान पक्षकार: पूर्ववर्ती वाद समान पक्षकारों के बीच, या उन पक्षकारों के बीच होना चाहिये जिनके अंतर्गत वे या उनमें से कोई दावा करता है।
    • समान शीर्षक: पक्षकारों को पूर्व और बाद के दोनों वादों में समान शीर्षक के तहत मुकदमा लड़ना होगा।
    • सक्षम क्षेत्राधिकार: जिस न्यायालय ने पूर्ववर्ती वाद का निर्णय किया था, उसके पास आगामी वाद या उस वाद की सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार होना चाहिये जिसमें मुद्दा उठाया गया हो।
    • सुनवाई हुई और अंतिम रूप से निर्णय हुआ: विवादित मामले की सुनवाई पूर्व न्यायालय द्वारा की गई होगी और अंतिम रूप से निर्णय हुआ होगा।

विवाह-विच्छेद के मामलों में रेस जूडीकेटा का उपयोजन कैसे निर्धारित किया जाता है?

  • वैवाहिक स्थिति में पूर्व और बाद की कार्यवाहियों में अनुतोषों में अंतर, रेस जूडीकेटा के सिद्धांत की प्रासंगिकता को आकर्षित करने के लिये अप्रासंगिक है।
  • रेस जूडीकेटा के उपयोजन के लिये दोनों मामलों में वाद हेतुक भिन्न होना चाहिये।
  • एक पति ने पहले दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये वाद दायर किया था, जिसे इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि पत्नी को घर से निकाल दिया गया था तथा उसके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया था।
    • इसके बाद पति ने अन्य बातों के साथ-साथ अभित्यजन के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिये वाद दायर किया।
    • यह माना गया कि अभित्यजन का मुद्दा रेस जूडीकेटा द्वारा वर्जित था।

इस मुद्दे पर निर्णयज विधि क्या मामले हैं?

  • बलवीर सिंह बनाम हरजीत कौर (2017)
    • यह निर्णय उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया।
    • अपीलकर्त्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13-A के तहत विवाह-विच्छेद की मांग करते हुए याचिका दायर की थी।
    • उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या यह याचिका सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 11 (जो रेस जूडीकेटा से संबंधित है, जिसका अर्थ है कि पहले से तय मामले पर फिर से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता) द्वारा निषिद्ध है।
    • यह प्रश्न इसलिये उठा क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 (दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन से संबंधित) के तहत एक पूर्व मामला पहले ही सुलझा लिया गया था।
    • न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 13A के तहत कार्यवाही को अधिनियम की धारा 9 के तहत पूर्व कार्यवाही के आधार पर रेस जूडीकेटा द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जाएगा।