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आपराधिक कानून
गर्भावस्था के दौरान ज़मानत
03-Dec-2024
सुरभि पुत्री राजू सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य, पीएसओ रेलवे पुलिस स्टेशन गोंदिया, ज़िला गोंदिया के माध्यम से "जेल में बच्चे को जन्म देने से माँ और बच्चे दोनों पर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं, इसलिये मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है।" न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी फाल्के |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति उर्मिला जोशी फाल्के की पीठ ने कहा कि गर्भवती महिला को ज़मानत पर रिहा किया जाना चाहिये।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुरभि पुत्री राजू सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य, पीएसओ रेलवे पुलिस स्टेशन गोंदिया, ज़िला गोंदिया के माध्यम से के मामले में यह निर्णय दिया।
सुरभि पुत्री राजू सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य, पीएसओ रेलवे पुलिस स्टेशन गोंदिया, ज़िला गोंदिया के माध्यम से मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपराध रजिस्ट्रीकृत कर छापेमारी की गई, जहाँ आवेदक सहित पाँच व्यक्तियों से प्रतिबंधित सामग्री बरामद की गई।
- मामला यह था कि आवेदक और उसके पति सह-अभियुक्त के साथ 6,64,020 रुपए मूल्य की व्यावसायिक मात्रा में “गांजा” ले जा रहे थे।
- पंचों की मौजूदगी में तलाशी ली गई और नमूने प्राप्त किये गए।
- गिरफ्तारी के समय आवेदक दो महीने की गर्भवती थी और अब उसका गर्भ उन्नत अवस्था में है, इसलिये वह स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS अधिनियम) की धारा 20 (b) (ii), 29 और 8 (c) के तहत अपराधों के लिये नियमित ज़मानत चाहती है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि यह पूरी तरह स्थापित है कि आवेदक और उसके पति के पास अन्य सह-अभियुक्तों के साथ प्रतिबंधित सामग्री थी।
- यह भी पाया गया कि चूँकि गिरफ्तारी की तिथि को आवेदक गर्भवती थी तथा अब उसकी गर्भावस्था काफी बढ़ गई है, इसलिये बच्चे के जन्म के दौरान जटिलताओं की आशंका है।
- यह माना गया कि जेल के माहौल में गर्भावस्था के दौरान बच्चे को जन्म देने से न केवल आवेदक पर बल्कि बच्चे पर भी प्रभाव पड़ेगा, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
- जेल में बच्चे को जन्म देने से माँ के साथ-साथ बच्चे पर भी दुष्प्रभाव पड़ सकता है, इसलिये मानवीय दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों को देखते हुए आवेदक को अस्थायी ज़मानत पर रिहा करने के आवेदन पर मानवीय आधार पर विचार किया जाना चाहिये।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के कौन-से प्रावधान ज़मानत का प्रबंध करते हैं?
- BNSS अध्याय XXXV के अंतर्गत ज़मानत का प्रावधान करता है।
प्रावधान संख्या |
इसमें क्या प्रावधान है |
संख्या 478 |
किस मामले में ज़मानत लेनी होगी |
संख्या 479 |
विचाराधीन कैदियों की हिरासत की अधिकतम अवधि |
संख्या 480 |
अज़मानती अपराधों में ज़मानत |
संख्या 482 |
अग्रिम ज़मानत |
संख्या 483 |
उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय की विशेष शक्ति |
धारा 478 निम्नलिखित का प्रावधान करती है:
- किसी व्यक्ति (जो अज़मानती अपराध का आरोपी न हो) को गिरफ्तार या हिरासत में लिया गया हो तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, बशर्ते वह ज़मानत देने को तैयार हो।
- यदि व्यक्ति ज़मानत के लिये प्रतिभू (गारंटर या ज़मानत) देने में असमर्थ है, तो अधिकारी या न्यायालय को उसे निजी बॉण्ड (न्यायालय में उपस्थित होने के वचन) पर रिहा करना होगा।
- यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तारी के एक सप्ताह के भीतर ज़मानत बॉण्ड प्रस्तुत नहीं कर पाता है, तो यह माना जाता है कि वह निर्धन है (वह ज़मानत बॉण्ड वहन करने में असमर्थ है)।
- ये प्रावधान विशिष्ट अन्य कानूनी धाराओं (जैसे, धारा 135 की उप-धारा (3) या धारा 492) को प्रभावित नहीं करते हैं।
- यदि कोई व्यक्ति ज़मानत की शर्तों का पालन करने में विफल रहता है (जैसे आवश्यकतानुसार न्यायालय में उपस्थित होना), तो न्यायालय भविष्य में उसी मामले में उसे ज़मानत देने से इनकार कर सकता है।
- यदि ज़मानत देने से इनकार कर दिया जाता है, तो भी न्यायालय ज़मानत बॉण्ड की शर्तों को तोड़ने के लिये दंड लागू कर सकता है (धारा 491 के तहत)।
धारा 480 में निम्नलिखित प्रावधान है
- किसी अज़मानती अपराध के अभियुक्त या संदिग्ध व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा नहीं किया जा सकता, यदि:
-
- इस अपराध के लिये मृत्युदंड या आजीवन कारावास का प्रावधान है, तथा यह मानने के लिये उचित आधार मौजूद हैं कि वे दोषी हैं।
- अपराध संज्ञेय है, तथा व्यक्ति पर पहले भी निम्नलिखित आरोप दर्ज हैं:
- ऐसा अपराध जिसके लिये मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 7 वर्ष या उससे अधिक कारावास की सज़ा हो।
- दो या अधिक अपराधों के लिये 3-7 वर्ष तक कारावास का दंड।
- न्यायालय ऐसे व्यक्तियों को ज़मानत दे सकता है यदि:
- वे एक बच्चा, एक महिला, या कोई बीमार या दुर्बल व्यक्ति हो सकते हैं।
- एक और विशेष कारण है जो ज़मानत देना उचित और न्यायसंगत बनाता है।
- किसी व्यक्ति को ज़मानत देने से केवल इसलिये इनकार नहीं किया जा सकता कि जाँच के दौरान उसे साक्षी की पहचान के लिये या 15 दिनों से अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखने की आवश्यकता हो सकती है, बशर्ते कि वह न्यायालय के निर्देशों का पालन करने के लिये सहमत हो।
- यदि अपराध मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 7 वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय है, तो न्यायालय को ज़मानत देने से पहले सरकारी अभियोजक को अपना पक्ष रखने का अवसर देना चाहिये।
-
क्या जमानत देते समय गर्भावस्था को ध्यान में रखा जाता है?
- गर्भावस्था एक ऐसा कारक है जिस पर किसी महिला को ज़मानत देते समय विचार किया जाना चाहिये।
- जेल में प्रसव कराने से माँ और बच्चे पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है।
- गर्भवती महिलाओं और उनके शिशुओं के स्वास्थ्य और कल्याण की रक्षा करने की आवश्यकता है।
- न्यायालयों ने यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर विचार किया है कि कैदी को आवश्यक चिकित्सीय देखभाल उपलब्ध हो।
- न्यायालयों ने यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर विचार किया है कि कैदी अपनी शारीरिक और मानसिक भलाई बनाए रख सके।
- न्यायालयों ने यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर विचार किया है कि कैदी अपने नवजात शिशु के लिये पोषणयुक्त वातावरण उपलब्ध करा सके।
गर्भावस्था के दौरान ज़मानत पर महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधि क्या हैं?
आर.डी. उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य (2007):
- न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित आदेश दिये:
- गर्भवती कैदियों के लिये अस्थायी रिहाई:
- गर्भवती कैदियों को अस्थायी रूप से रिहा किया जाना चाहिये (पैरोल या निलम्बित सज़ा पर) ताकि वे जेल के बाहर बच्चे को जन्म दे सकें, यदि उनके पास उपयुक्त विकल्प हो।
- यह सुविधा केवल असाधारण मामलों में ही अस्वीकार की जा सकती है, जैसे उच्च सुरक्षा जोखिम या इसी प्रकार की गंभीर परिस्थितियाँ।
- जन्म रजिस्ट्रीकरण:
- जेल में होने वाले जन्मों को स्थानीय जन्म रजिस्ट्रीकरण कार्यालय में रजिस्ट्रीकृत किया जाना चाहिये।
- जन्म प्रमाण पत्र में जेल का उल्लेख नहीं होना चाहिये; केवल सामान्य इलाके का पता दर्ज किया जाना चाहिये।
- बच्चों के नामकरण संस्कार:
- जहाँ तक संभव हो, जेल में जन्मे बच्चों के नामकरण समारोह आयोजित करने की सुविधा को बाहर रखा जाना चाहिये।
- गर्भवती कैदियों के लिये अस्थायी रिहाई:
आपराधिक कानून
निर्वहन आवेदन
03-Dec-2024
रजनीश कुमार विश्वकर्मा बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य “उच्च न्यायालय ने आरोप तय करते समय ट्रायल कोर्ट को दूसरे प्रतिवादी द्वारा दायर अपील और अकृतता की डिक्री पर विचार करने का निर्देश देकर घोर गलती की है।” न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, रजनीश कुमार विश्वकर्मा बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि निर्वहन आवेदन पर विचार करते समय केवल आरोप-पत्र के हिस्से वाले दस्तावेजों पर ही विचार किया जाना चाहिये।
रजनीश कुमार विश्वकर्मा बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला रजनीश कुमार विश्वकर्मा (अपीलकर्त्ता) और उसकी पत्नी (प्रतिवादी) के बीच वैवाहिक विवाद से संबंधित है।
- 8 मई, 2019 से पहले अपीलकर्त्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 12 के तहत याचिका दायर की थी।
- इस याचिका में उसने अपने विवाह को अकृत घोषित करने की मांग की।
- 8 मई, 2019 को अपीलकर्त्ता के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- FIR में उन पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 498A और 406 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया है।
- अपीलकर्त्ता ने शुरू में FIR रद्द करने के लिये एक रिट याचिका दायर की थी। हालाँकि, नवंबर 2020 में उसने यह याचिका वापस ले ली।
- 23 जून, 2021 को एक कुटुंब न्यायालय ने विवाह को अकृत घोषित करने का एकपक्षीय निर्णय पारित किया।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने FIR रद्द करने की मांग करते हुए एक और रिट याचिका दायर की। इस याचिका को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
- पत्नी (द्वितीय प्रतिवादी) ने एकपक्षीय आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट को वर्तमान रिट याचिका पर विचार करने का निर्देश दिया।
- अपीलकर्त्ता ने रिट याचिका दायर करने के बाद इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- उच्च न्यायालय की प्रक्रियात्मक त्रुटि:
- उच्च न्यायालय ने आरोप तय करते समय आरोप-पत्र के हिस्से न होने वाले दस्तावेजों पर विचार करने का निर्देश देकर ट्रायल कोर्ट को "घोर गलती" की।
- यह निर्देश उड़ीसा राज्य बनाम देबेन्द्र नाथ पाढ़ी (2005) मामले में स्थापित कानूनी सिद्धांत के विपरीत था, जिसमें कहा गया है कि निर्वहन पर विचार करते समय, ट्रायल कोर्ट आरोप-पत्र के बाहर के दस्तावेजों पर विचार नहीं कर सकता है।
- रिट याचिका की अधूरी सुनवाई:
- उच्च न्यायालय ने FIR को रद्द करने की मांग करने वाली रिट याचिका के गुणागुण पर विचार नहीं किया।
- न्यायालय ने कहा कि रिट याचिका में विभिन्न आधारों पर ज़ोर दिया गया था, जिसमें यह तर्क भी शामिल था कि विवाह अकृतता के लिये अपीलकर्त्ता की याचिका के बाद FIR दर्ज करना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग था।
- FIR को चुनौती देने का समय:
- न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि FIR को चुनौती उसके आरंभ में ही दी जानी चाहिये।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कोई अभियुक्त कार्यवाही के किसी भी चरण में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 या भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 के तहत FIR को चुनौती दे सकता है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसी चुनौती पर विचार करना या न करना उच्च न्यायालय के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है।
- उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को "पूरी तरह से अवैध" पाया।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया और अपीलकर्त्ता की मूल रिट याचिका को फिर से सुनवाई के लिये बहाल कर दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि निर्वहन आवेदन पर विचार करते समय केवल आरोप-पत्र का हिस्सा बनने वाले दस्तावेजों पर ही विचार किया जाना चाहिये।
निर्वहन आवेदन क्या है?
परिचय:
- इससे पहले CrPC की धारा 227 सत्र मामलों में अभियुक्तों के निर्वहन से संबंधित थी।
- इसे अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 250 के तहत कवर किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि मामले के रिकार्ड और उसके साथ प्रस्तुत दस्तावेजों पर विचार करने तथा इस ओर से अभियुक्त और अभियोजन पक्ष की दलीलें सुनने के बाद न्यायाधीश का मानना है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है, इसलिये वह अभियुक्त को आरोपमुक्त कर देंगे और ऐसा करने के उसके कारणों को दर्ज करेंगे।
- संहिता के अंतर्गत नई उपधारा (1) जोड़ी गई है, जिसमें कहा गया है कि अभियुक्त BNSS की धारा 232 के अंतर्गत मामले की प्रतिबद्धता की तिथि से साठ दिनों की अवधि के भीतर निर्वहन के लिये आवेदन कर सकता है।
- यह धारा अभियुक्तों को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाने के उद्देश्य से लागू की गई थी।
निर्णयज विधि:
- कर्नाटक राज्य बनाम एल. मुनिस्वामी (1977)
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 227 के तहत निर्वहन याचिका पर विचार करते समय सत्र न्यायाधीश को अपने कारणों को दर्ज करने की आवश्यकता वाले प्रावधानों का उद्देश्य उच्च न्यायालय को विवादित आदेश की अवैधता की जाँच करने में सक्षम बनाना है।
- उस मामले में ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को आरोपमुक्त करने से इनकार करते हुए अपने आदेश में कोई कारण नहीं बताया था, जिससे वह गंभीर रूप से दोषपूर्ण हो गया था।
- असीम शरीफ बनाम NIA (2019)
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 227 CrPC के तहत दाखिल निर्वहन आवेदन की जाँच करते समय, यह उम्मीद की जाती है कि ट्रायल न्यायाधीश अपने न्यायिक मस्तिष्क का उपयोग करके यह निर्धारित करेंगे कि ट्रायल के लिये मामला बनाया गया है या नहीं।
- न्यायालय को रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को एकत्र करके मिनी ट्रायल नहीं करना चाहिये।
आपराधिक कानून
परिवार द्वारा बाल यौन शोषण के लिये कानून बनाने की मद्रास उच्च न्यायालय की सिफारिश
03-Dec-2024
आर. बनाम राज्य “उच्च न्यायालय ने सौतेली बेटी से बलात्कार के लिये व्यक्ति की सज़ा बरकरार रखी, परिवार के सदस्यों द्वारा बाल यौन शोषण के विरुद्ध सख्त कानून बनाने का आह्वान किया।” न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामीनाथन और न्यायमूर्ति आर. पूर्णिमा |
स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय
चाचा में क्यों?
मद्रास उच्च न्यायालय ने परिवार के सदस्यों या करीबी मित्रों द्वारा बाल यौन शोषण से निपटने के लिये कड़े कानूनों और जागरूकता कार्यक्रमों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों पर प्रकाश डालते हुए, जिसमें दिखाया गया है कि 96% दुर्व्यवहार करने वाले पीड़ितों के परिचित होते हैं, न्यायालय ने राज्य से संरक्षण गृह स्थापित करने और स्कूलों व छात्रावासों में सतर्कता बढ़ाने का आग्रह किया।
- यह टिप्पणी एक व्यक्ति को अपनी सौतेली बेटी के साथ बलात्कार करने और उसे गर्भवती करने के जुर्म में दोषी ठहराए जाने के निर्णय को बरकरार रखते हुए की गई।
आर. बनाम राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पीड़िता एक ऐसी लड़की है जिसने चार महीने की आयु में अपने वास्तविक पिता को खो दिया था, और उसकी माँ ने बाद में अभियुक्त, उसके सौतेले पिता से दोबारा विवाह कर लिया था।
- अभियुक्त ने अपनी पत्नी को पीड़िता को उसके दादा-दादी के पास से घर लाने के लिये राजी किया और उसे स्थानीय सरकारी स्कूल में 10वीं कक्षा में दाखिला दिलाया।
- 12 अगस्त, 2018 को जब पीड़िता घर पर अकेली थी, तो अभियुक्त ने कथित तौर पर उसका यौन उत्पीड़न किया और दो सप्ताह बाद यह कृत्य दोहराया।
- अभियुक्त ने पीड़िता को धमकी दी कि अगर उसने किसी को इस बारे में बताया तो वह उसके भाई और परिवार के अन्य सदस्यों को जान से मार देगा, जिसके कारण उसने शुरू में कुछ नहीं कहा।
- 15 फरवरी, 2019 को पीड़िता ने अपनी माँ को बताया कि वह छह महीने की गर्भवती है और उसकी इस हालत के लिये उसका सौतेला पिता ज़िम्मेदार है।
- अभियुक्त ने गर्भधारण करने की बात स्वीकार की तथा पीड़िता को घर वापस न लाने पर माँ और उसके बच्चों को जान से मारने की धमकी दी।
- अपने अन्य बच्चों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए और अपने पिता से परामर्श करने के बाद, माँ ने 18 फरवरी, 2019 को अरन्थांगी के अखिल महिला पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई।
- पुलिस ने लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम और भारतीय दंड संहिता के तहत FIR दर्ज कर अभियुक्त के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी है।
- मेडिकल जाँच में पीड़िता के गर्भवती होने की पुष्टि हुई और इसके बाद मामले की जाँच की गई तथा आरोप-पत्र दाखिल किया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने बाल यौन शोषण के व्यापक मुद्दे की गंभीरता से जाँच की तथा इस बात पर प्रकाश डाला कि ऐसे 96% अपराध पीड़ितों के परिचित व्यक्तियों, मुख्यतः परिवार के सदस्यों द्वारा किये जाते हैं, जो धमकी और दबाव के माध्यम से अपने प्रभुत्व का फायदा उठाते हैं।
- न्यायालय ने यौन उत्पीड़न से बचे लोगों के प्रति गहरे सामाजिक कलंक को देखा है, जिसमें पीड़ितों को अक्सर हाशिये पर रखा जाता है और उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे कि उन्होंने कोई अपराध किया हो, जो व्यवस्थित रूप से प्रकटीकरण और न्याय की खोज को बाधित करता है।
- बच्चों की अंतर्निहित कमज़ोरी को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पीड़ित प्रायः पारिवारिक दबाव, सामाजिक परिणामों के भय, तथा अपराधियों द्वारा मनोवैज्ञानिक छल-कपट के कारण चुप रहते हैं, जो उनके विश्वास और निर्भरता की स्थिति का लाभ उठाते हैं।
- न्यायालय ने यौन दुर्व्यवहार के बहुआयामी प्रभाव पर गौर करते हुए कहा कि हालाँकि शारीरिक चोटें समय के साथ ठीक हो सकती हैं, लेकिन बाल पीड़ितों पर पहुँचाई गई मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक आघात एक स्थायी घाव है, जो संभवतः उनके संपूर्ण विकासात्मक प्रक्षेपवक्र को बाधित कर देता है।
- न्यायालय ने विधायी सुधार, पारिवारिक यौन अपराधियों के विरुद्ध कठोर दंडात्मक उपाय, व्यापक जागरूकता कार्यक्रम और कमज़ोर बच्चों के लिये सुरक्षात्मक बुनियादी ढाँचे की स्थापना सहित व्यापक राज्य-स्तरीय हस्तक्षेप की ज़ोरदार सिफारिश की।
- अंततः न्यायालय ने प्रक्रियागत चुनौतियों को खारिज करके बाल पीड़ितों की सुरक्षा के प्रति न्यायिक प्रतिबद्धता की पुनः पुष्टि की, जो अभियोजन पक्ष के मामले को संभावित रूप से प्रभावित कर सकती थीं, तथा इस प्रकार तकनीकी बाधाओं के ऊपर न्याय के मूल हितों को प्राथमिकता दी गई।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के कृत्य को विशेष रूप से गंभीर पाया, तथा यह पाया कि सौतेले पिता द्वारा उस बच्चे के साथ यौन दुर्व्यवहार करना विश्वास का उल्लंघन है, जिसे उसकी देखभाल में सौंपा गया था, जबकि बच्चा पहले ही अपने वास्तविक पिता को खो चुका था।
- उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की प्रक्रिया संबंधी चुनौतियों को खारिज कर दिया, तथा विशेष रूप से कहा कि पीड़ित की गवाही में मामूली असंगतता, शिकायत दर्ज करने में देरी, तथा DNA साक्ष्य का अभाव, अभियोजन पक्ष के मामले को स्वतः ही अमान्य नहीं कर देता, विशेष रूप से संवेदनशील बाल यौन शोषण मामले में।
भारत में बाल यौन शोषण से निपटने के लिये कानूनी ढाँचा और प्रावधान क्या हैं?
- कानूनी ढाँचा और प्रावधान:
- वैधानिक संरक्षण
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 बच्चों को यौन शोषण के विरुद्ध व्यापक कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
- यह विशेष रूप से परिवार के सदस्यों, अभिभावकों और भरोसेमंद पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा किये गए यौन अपराधों को संबोधित करता है।
- वैधानिक संरक्षण
- POCSO अधिनियम के तहत प्रमुख प्रावधान
- धारा 5(l), 5(n), और 5(j)(ii) गंभीर यौन उत्पीड़न परिदृश्यों को कवर करती है।
- करीबी रिश्तेदारों द्वारा किये गए यौन अपराधों के लिये सज़ा बढ़ाई गई है।
- पारिवारिक यौन शोषण मामलों के लिये सख्त दायित्व प्रावधान।
- सज़ा संबंधी विशिष्टताएँ
- न्यूनतम सज़ा आजीवन कारावास।
- अधिकतम सज़ा कठोर कारावास तक हो सकती है।
- अनिवार्य मौद्रिक जुर्माना (आमतौर पर 5,000 रुपए)।
- लगातार सज़ा के लिये अतिरिक्त प्रावधान।
संदर्भित मामले
- तुलसीदास कनोलकर बनाम गोवा राज्य, 2003
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दाखिल करने में देरी से अभियोजन पक्ष का मामला स्वतः ही खारिज नहीं हो जाना चाहिये।
- न्यायालय को देरी के लिये संतोषजनक स्पष्टीकरण की तलाश करनी चाहिये।
- यदि स्पष्टीकरण स्वाभाविक और विश्वसनीय है, तो देरी अभियोजन पक्ष के मामले को अविश्वसनीय नहीं बनाती है।
- पंजाब राज्य बनाम गुरमित सिंह एवं अन्य 1996
- यौन उत्पीड़न के मामलों में, पीड़िता के बयान में मामूली विरोधाभास या महत्वहीन विसंगतियाँ अन्यथा विश्वसनीय अभियोजन मामले को खारिज करने का आधार नहीं होनी चाहिये।
- यौन उत्पीड़न पीड़िता की गवाही विश्वसनीय मानी जाती है और अगर उसका बयान विश्वास उत्पन्न करता है तो उसे पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है।