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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

चार्जशीट दाखिल करना

 04-Dec-2024

सतीश कुमार रवि बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य

“यदि 15 अप्रैल 2011 के पत्र के खंड 3 पर भरोसा करके किसी ऐसे आरोपी के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया जाता है जिसके पक्ष में बलपूर्वक कार्रवाई न करने का निर्देश देने वाला आदेश है, तो संबंधित अधिकारी स्वयं को अवमानना ​​क्षेत्राधिकार के अंतर्गत लाएगा”

न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, सतीश कुमार रवि बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि जब अभियुक्त के विरुद्ध बलपूर्वक कार्रवाई पर न्यायालय द्वारा अंतरिम आदेश द्वारा रोक लगा दी जाती है तो चार्जशीट दाखिल नहीं की जा सकती।

सतीश कुमार रवि बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला झारखंड राज्य के विरुद्ध याचिकाकर्त्ता सतीश कुमार रवि से जुड़ा एक आपराधिक मामला है।
  • वर्तमान मामला मकान मालिक-किराएदार विवाद से संबंधित है, जिसमें झारखंड के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक (DGP) की पत्नी शामिल हैं।
  • किरायेदार ने मकान मालिक के परिवार के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई जिसमें आरोप लगाया गया:
    • जबरन प्रवेश
    • संपत्ति को नुकसान
    • शारीरिक हमला
  • 18 अगस्त 2023 को उच्चतम न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश पारित कर पुलिस को मकान मालिक के खिलाफ आगे की कार्रवाई करने से रोक दिया।
  • अंतरिम आदेश के बावजूद 30 सितंबर 2023 को पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया।
  • इससे पहले, अप्रैल 2023 में याचिकाकर्त्ता के खिलाफ एक उद्घोषणा प्रकाशित की गई थी, जिसमें वर्ष 2017 के उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश का उल्लंघन किया गया था, जिसमें बलपूर्वक कार्रवाई पर रोक लगाई गई थी।
  • 1 अक्तूबर 2024 को उच्चतम न्यायालय ने इसमें शामिल तीन अधिकारियों को अवमानना ​​नोटिस जारी किया।
  • 4 नवंबर 2024 को अधिकारियों ने शपथ-पत्र के माध्यम से अपने आचरण को स्पष्ट करने के लिये  समय मांगा।
  • यह मामला विधि प्रवर्तन के संभावित प्रणालीगत मुद्दों को उजागर करता है, जिसमें न्यायालय द्वारा जारी अंतरिम आदेशों का पूरी तरह से सम्मान नहीं किया जाता है, भले ही उन आदेशों में किसी व्यक्ति के विरुद्ध कुछ कार्रवाइयों को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया गया हो।
  • यह विधिक कार्यवाही झारखंड उच्च न्यायालय, रांची में एक पूर्व मामले से उत्पन्न हुई, जिसके परिणामस्वरूप भारत के उच्चतम न्यायालय में विशेष अपील याचिका दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:

  • तीन अधिकारियों ने पिछले न्यायालय के आदेश की अलग-अलग व्याख्या की। उन्होंने याचिकाकर्त्ता के खिलाफ आगे कोई कार्रवाई न करने के न्यायालय के निर्देश को महज बलपूर्वक कार्रवाई रोकने के रूप में देखा, न कि विधिक कार्यवाही पर पूर्ण प्रतिबंध के रूप में।
  • न्यायालय को झारखंड के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक का 15 अप्रैल 2011 का एक समस्यामूलक पत्र मिला।
    • इस पत्र में कहा गया है कि यदि कोई न्यायालय बलपूर्वक कार्रवाई पर रोक लगाने का आदेश पारित भी करती है तो भी आरोपी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने पर कोई रोक नहीं है।
  • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि 15 अप्रैल 2011 के पत्र का पैराग्राफ 3 "पूरी तरह से अवैध" है।
  • न्यायालय ने राज्य के वकील को निर्देश दिया कि वे इस टिप्पणी को अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के ध्यान में लाएं तथा अपेक्षा की कि पत्र को तत्काल संशोधित किया जाए।
  • अपनी व्याख्या स्पष्ट करते हुए शपथ-पत्र प्रस्तुत करने वाले तीन अधिकारियों के संबंध में न्यायालय ने कहा:
    • उनकी माफी स्वीकार कर ली गई
    • उनके खिलाफ अवमानना ​​का नोटिस रद्द कर दिया गया
    • निर्णय लिया गया कि उनके खिलाफ आगे कोई कार्रवाई आवश्यक नहीं है
  • न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को पूर्व में दी गई अंतरिम राहत को भी बरकरार रखा तथा अगली सुनवाई 17 जनवरी 2025 के लिये निर्धारित की।
  • मुख्य अवलोकन न्यायालय के आदेशों के प्रति पुलिस विभाग के दृष्टिकोण की आलोचना प्रतीत होता है, जिसमें इस बात पर बल दिया गया है कि बलपूर्वक कार्रवाई को रोकने वाले आदेश का व्यापक रूप से सम्मान किया जाना चाहिये, न कि उसकी संकीर्ण व्याख्या की जानी चाहिये।

पुलिस रिपोर्ट या चार्जशीट क्या है?

परिचय:

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023, (BNSS) की धारा 193 के तहत परिभाषित आरोप पत्र।
  • यह किसी मामले की जाँच पूरी करने के बाद पुलिस अधिकारी या जाँच एजेंसी द्वारा तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट होती है।
  • चार्जशीट का साक्ष्य मूल्य बहुत अधिक नहीं होता है क्योंकि यह पुलिस अधिकारी द्वारा बनाया जाता है और आरोप उसकी राय पर आधारित होते हैं जिसे अभी साबित किया जाना है।

चार्जशीट की विषय-वस्तु:

  • पक्षों के नाम।
  • सूचना की प्रकृति।
  • उन व्यक्तियों के नाम जो मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होते हैं।
  • क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है और यदि हाँ, तो किसके द्वारा।
  • क्या अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया है?
  • क्या उसे बंधपत्र पर रिहा किया गया है और यदि हाँ तो जमानत के साथ या जमानत के बिना।

ऐतिहासिक निर्णय:

  • एच.एन. रिशबुद और इंदर सिंह बनाम दिल्ली राज्य (1954):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जाँच की प्रक्रिया में सामान्यतः निम्नलिखित शामिल होते हैं:
      • संबंधित स्थान पर जाना।
      • तथ्यों और परिस्थितियों का पता लगाना।
      • खोज और गिरफ्तारी।
      • साक्ष्य एकत्र करना जिसमें विभिन्न व्यक्तियों की जाँच, स्थानों की तलाशी और चीजों को जब्त करना शामिल है।
      • अपराध बनता है या नहीं, इस पर राय बनाना और तद्नुसार आरोपपत्र दाखिल करना।
  • अभिनंदन झा और अन्य बनाम दिनेश मिश्रा (1968):
    • इस मामले में कहा गया कि अंतिम रिपोर्ट/चार्जशीट प्रस्तुत करना जाँच के बाद बनी राय की प्रकृति पर निर्भर करता है।
  • भगवंत सिंह बनाम पुलिस आयुक्त (1985):
    • न्यायालय ने धारा 173(2) के अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट के लिये उपलब्ध तीन विकल्पों पर चर्चा की:
      • रिपोर्ट स्वीकार करें और संज्ञान लें।
      • धारा 156(3) के तहत आगे की जाँच का निर्देश दें।
      • रिपोर्ट से असहमत हों और आरोपी को बरी करें।
  • के. वीरस्वामी बनाम भारत संघ (1991):
    • न्यायालय ने कहा कि आरोपपत्र में साक्ष्यों का विस्तृत मूल्यांकन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह परीक्षण चरण के लिये है।
    • हालाँकि, उसे धारा 173(2) CrPC और राज्य के नियमों की आवश्यकताओं के अनुसार तथ्यों को प्रकट करना/संदर्भ देना चाहिये।
  • ज़किया अहसन जाफरी बनाम गुजरात राज्य (2022):
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 173(2)(i)(d) CrPC के तहत राय बनाने के लिये जाँच अधिकारी को जाँच के दौरान प्राप्त किसी भी जानकारी का समर्थन करने के लिये पुष्टिकारी साक्ष्य एकत्र करना होगा।
    • मात्र संदेह पर्याप्त नहीं है, पर्याप्त सामग्री के आधार पर गंभीर संदेह होना चाहिये, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि अभियुक्त ने कथित अपराध किया है।
  • डबलू कुजूर बनाम झारखंड राज्य (2024):
    • उच्चतम न्यायालय ने धारा 173(2) CrPC के अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट/चार्जशीट में शामिल किये जाने वाले विवरणों के संबंध में निम्नलिखित दिशानिर्देश दिये:
      • पक्षों के नाम
      • सूचना की प्रकृति
      • परिस्थितियों से परिचित व्यक्तियों के नाम
      • क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है और किसके द्वारा किया गया
      • क्या आरोपी को गिरफ्तार किया गया
      • क्या आरोपी को जमानत के साथ या उसके बिना जमानत पर रिहा किया गया
      • क्या आरोपी को धारा 170 के तहत हिरासत में भेजा गया
      • क्या कुछ अपराधों में मेडिकल रिपोर्ट संलग्न की गई

BNSS की धारा 193 क्या है?

  • यह धारा जाँच पूरी होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट से संबंधित है।
  • उप-धारा (1) में कहा गया है कि इस अध्याय के अंतर्गत प्रत्येक जाँच बिना अनावश्यक विलंब के पूरी की जाएगी।
  • उप-धारा (2) में कहा गया है कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70, 71 या लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 4, 6, 8 या धारा 10 के अंतर्गत अपराध के संबंध में जाँच पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा सूचना दर्ज किये जाने की तारीख से दो महीने के भीतर पूरी की जाएगी।
  • उप-धारा (3) में कहा गया है कि:
    • जैसे ही जाँच पूरी हो जाती है, पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी इलेक्ट्रॉनिक संचार के माध्यम से पुलिस रिपोर्ट पर अपराध का संज्ञान लेने के लिये सशक्त मजिस्ट्रेट को एक रिपोर्ट भेजेगा, जैसा कि राज्य सरकार नियमों द्वारा प्रदान कर सकती है, जिसमें कहा गया हो -
      • पक्षों के नाम
      • सूचना की प्रकृति
      • मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम;
      • क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है और यदि ऐसा है, तो किसके द्वारा
      • क्या अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया है
      • क्या अभियुक्त को उसके बॉण्ड या जमानत बॉण्ड पर रिहा किया गया है;
      • क्या अभियुक्त को धारा 190 के तहत हिरासत में भेजा गया है; क्या महिला की चिकित्सा जाँच की रिपोर्ट संलग्न की गई है, जहाँ जाँच भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या धारा 71 के तहत अपराध से संबंधित है
      • इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के मामले में हिरासत का क्रम।
    • पुलिस अधिकारी 90 दिन की अवधि के भीतर जाँच की प्रगति की सूचना किसी भी माध्यम से देगा, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक संचार भी शामिल है तथा यह सूचना सूचक या पीड़ित को देगा।
    • अधिकारी को अपने द्वारा की गई कार्रवाई की रिपोर्ट उस व्यक्ति को भी देनी होगी, यदि कोई हो, जिसे अपराध के किये जाने से संबंधित सूचना सबसे पहले राज्य सरकार द्वारा अपने नियमों में निर्दिष्ट तरीके से दी गई थी।
  • उप-धारा (4) में कहा गया है कि जहाँ धारा 177 के अधीन पुलिस का एक वरिष्ठ अधिकारी नियुक्त किया गया है, वहाँ किसी भी मामले में, जिसमें राज्य सरकार सामान्य या विशेष आदेश द्वारा ऐसा निर्देश दे, रिपोर्ट उस अधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत की जाएगी और वह मजिस्ट्रेट के आदेश लंबित रहने तक पुलिस थाने के ऑफिसर इन चार्ज को आगे की जाँच करने का निर्देश दे सकता है।
  • उप-धारा (5) में कहा गया है कि जब कभी इस धारा के अधीन भेजी गई रिपोर्ट से यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त को उसके बॉण्ड या जमानत बॉण्ड पर रिहा कर दिया गया है तो मजिस्ट्रेट ऐसे बॉण्ड या जमानत बॉण्ड के उन्मोचन के लिये या अन्यथा ऐसा आदेश देगा जैसा वह ठीक समझे।
  • उप-धारा (6) में कहा गया है कि जब ऐसी रिपोर्ट किसी ऐसे मामले के संबंध में हो, जिस पर धारा 190 लागू होती है तो पुलिस अधिकारी रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजेगा-
    • सभी दस्तावेज़ या उनके प्रासंगिक अंश जिन पर अभियोजन पक्ष भरोसा करने का प्रस्ताव करता है, उनके अलावा जो जाँच के दौरान मजिस्ट्रेट को पहले ही भेजे जा चुके हैं।
    • उन सभी व्यक्तियों के धारा 180 के अंतर्गत दर्ज किये गए बयान जिन्हें अभियोजन पक्ष अपने गवाहों के रूप में परखना चाहता है।
  • उप-धारा (7) में कहा गया है कि यदि पुलिस अधिकारी की राय है कि ऐसे किसी कथन का कोई भाग कार्यवाही की विषय-वस्तु से सुसंगत नहीं है या अभियुक्त के समक्ष उसका प्रकटीकरण न्याय के हित में आवश्यक नहीं है तथा लोकहित में अनुचित है, तो वह कथन के उस भाग को इंगित करेगा तथा एक नोट संलग्न करेगा जिसमें मजिस्ट्रेट से अनुरोध किया जाएगा कि वह अभियुक्त को दी जाने वाली प्रतियों से उस भाग को निकाल दे तथा ऐसा अनुरोध करने के अपने कारण बताए।
  • उप-धारा (8) में कहा गया है कि उप-धारा (7) में निहित प्रावधानों के अधीन, मामले की जाँच करने वाला पुलिस अधिकारी भी धारा 230 के तहत अपेक्षित अभियुक्त को आपूर्ति के लिये मजिस्ट्रेट को विधिवत सूचीबद्ध अन्य दस्तावेजों के साथ पुलिस रिपोर्ट की प्रतियाँ प्रस्तुत करेगा: बशर्ते कि इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा रिपोर्ट और अन्य दस्तावेजों की आपूर्ति को विधिवत तामील माना जाएगा।
  • उप-धारा (9) में कहा गया है कि इस धारा की कोई बात किसी अपराध के संबंध में उप-धारा (3) के अधीन रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजे जाने के पश्चात् आगे की जाँच  में बाधा डालने वाली नहीं समझी जाएगी और जहाँ ऐसी जाँच के पश्चात् पुलिस थाने का ऑफिसर in चार्ज अधिकारी मौखिक या दस्तावेज़ी कोई और साक्ष्य प्राप्त करता है, वहाँ वह ऐसे साक्ष्य के संबंध में मजिस्ट्रेट को एक और रिपोर्ट या रिपोर्टें उस रूप में भेजेगा जैसा राज्य सरकार नियमों द्वारा प्रदान करे और उप-धारा (3) से (8) के उपबंध ऐसी रिपोर्ट या रिपोर्टों के संबंध में जहाँ तक ​​हो सके वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उप-धारा (3) के अधीन भेजी गई रिपोर्ट के संबंध में लागू होते हैं।
  • बशर्ते कि विचारण के दौरान आगे की जाँच मामले की सुनवाई करने वाले न्यायालय की अनुमति से की जा सकेगी और उसे 90 दिन की अवधि के भीतर पूरा किया जाएगा जिसे न्यायालय की अनुमति से बढ़ाया जा सकेगा।

आपराधिक कानून

विधिक सहायता अधिवक्ताओं और अभियोजकों के लिये दिशा-निर्देश

 04-Dec-2024

अशोक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

“विधिक सहायता प्राप्त करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अभियुक्तों का मौलिक अधिकार है।”

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों ? 

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने सरकारी अभियोजकों और विधिक सहायता अधिवक्ताओं के संबंध में निर्देश जारी किये।

  • उच्चतम न्यायालय ने अशोक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

अशोक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 27 मई, 2009 की सुबह, एक ग्रामीण चरागाह क्षेत्र में एक दुखद घटना घटी जिसमें एक 10 वर्षीय लड़की और एक ट्यूबवेल ऑपरेटर शामिल थे।
  • लड़की अपने सात वर्षीय चचेरे भाई के साथ बकरियाँ चराने गई थी, तभी उसे प्यास लगी और वह ट्यूबवेल ऑपरेटर के रूप में काम कर रहे अपीलकर्त्ता से पीने का पानी मांगने ट्यूबवेल केबिन के पास पहुँची।
  • अभियोजन पक्ष का आरोप है कि उसने युवती के साथ बलात्कार किया और बाद में उसकी हत्या कर दी।
  • कथित तौर पर उसके सात वर्षीय चचेरे भाई ने अपीलकर्त्ता को उसे ज़बरन केबिन में ले जाते हुए देखा था।
  • युवा चचेरे भाई ने पीड़िता के पिता को यह बात बताई, जो तुरंत घटनास्थल पर पहुँचे, जहाँ से आरोपी भाग गया था।
  • तत्काल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376, धारा 302 और धारा 201 तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (v) के तहत दोषी ठहराया।
  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को संवैधानिक प्राधिकारियों द्वारा संभावित छूट या क्षमादान के प्रावधान के साथ आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई।
  • उच्चतम न्यायालय ने 20 मई, 2022 को अपीलकर्त्ता को ज़मानत प्रदान की, यह ध्यानपूर्वक देखते हुए कि वह पहले ही लगभग 13 वर्षों तक वास्तविक कारावास काट चुका है।
  • कार्यवाही के दौरान न्यायालय ने मामले का उचित प्रतिनिधित्व और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये अनुभवी विधिक सलाहकारों की नियुक्ति की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि सात वर्षीय चचेरे भाई के साक्ष्य को उत्कृष्ट गुणवत्ता का नहीं कहा जा सकता। इसलिये, न्यायालय ने कई परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर भी विचार किया।
  • न्यायालय द्वारा निम्नलिखित साक्ष्यों पर विचार किया गया और उनका विश्लेषण किया गया:
    • इस मामले में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के तहत रिकवरी स्टेटमेंट को स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि यह संदिग्ध प्रतीत हो रहा था।
    • न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के तहत आरोपी से पूछताछ करते समय उसके सामने अपराध सिद्ध करने वाली परिस्थितियाँ प्रस्तुत करने में विफलता पाई। उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 313 के तहत आरोपी के सामने अपराध  सिद्ध करने वाली परिस्थितियों का अभाव उसे बरी होने का अधिकार प्रदान करता है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि सरकारी अभियोजक को यह सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभानी होगी कि प्रत्येक मुकदमा निष्पक्ष तरीके से चलाया जाए।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियुक्त को उचित विधिक सहायता पाने के अधिकार से वंचित किया गया है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को उनके विरुद्ध लगाए गए अपराधों से बरी कर दिया।

लोक अभियोजक की भूमिका और विधिक सहयुक्त अभिवक्ताओं की नियुक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा क्या निर्देश दिये गए हैं?

न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित निर्देश दिये:

  • यह सुनिश्चित करना न्यायालय का कर्त्तव्य है कि अभियुक्त को उचित विधिक सहायता प्रदान की जाए।
  • यह सुनिश्चित करना लोक अभियोजक की ज़िम्मेदारी है कि मुकदमा निष्पक्ष और विधिक रूप से संचालित हो। इसलिये, यदि अभियुक्त का कोई अधिवक्ता नहीं है, तो प्रत्येक लोक अभियोजक का यह दायित्व है कि वह न्यायालय को सूचित करे कि अभियुक्त को निःशुल्क विधिक सहायता की आवश्यकता है।
  • यह सुनिश्चित किया जाए कि अभियुक्त को बिना विधिक प्रतिनिधित्व के नहीं छोड़ा जाएगा
    • आरोप तय करने या अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही दर्ज करने से पहले, न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि अभियुक्त को विधिक सहायता उपलब्ध हो।
    • सरकारी अभियोजक का दायित्व है कि वह न्यायालय से अनुरोध करे कि जब तक अभियुक्त को विधिक प्रतिनिधित्व उपलब्ध नहीं करा दिया जाता, तब तक कार्यवाही रोक दी जाए।
    • यहाँ तक ​​कि जब अभियुक्त के पास कोई विधिक प्रतिनिधित्व नहीं होता है, तब भी सरकारी अभियोजक का हस्तक्षेप करना अनिवार्य कर्त्तव्य है।
  • CrPC की धारा 313 के तहत उचित जाँच करने का कर्त्तव्य:
    • लोक अभियोजक को CrPC की धारा 313 के तहत अभियुक्त का बयान दर्ज करने में ट्रायल कोर्ट की सहायता करने का दायित्व है।
    • यदि न्यायालय अभियुक्त के विरुद्ध प्रस्तुत किसी भी भौतिक परिस्थिति पर विचार करने में विफल रहता है, तो लोक अभियोजक को अभियुक्त की जाँच के दौरान सक्रिय रूप से इसे न्यायालय के ध्यान में लाना चाहिये।
    • सरकारी अभियोजक को परीक्षण के दौरान अभियुक्त से पूछे जाने वाले उचित प्रश्नों को तैयार करने में न्यायालय की सक्रिय रूप से सहायता करनी चाहिये।
    • यह लोक अभियोजक का कर्त्तव्य है कि वह किसी भी प्रक्रियात्मक अनियमितताओं या दोषों को रोकें जो संभावित रूप से आरोपी की विधिक स्थिति या परीक्षण प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं।
  • एक अभियुक्त को सभी चरणों में, यहाँ तक ​​कि ज़मानत याचिका दायर करने के लिये भी, निःशुल्क विधिक सहायता पाने का अधिकार है।
  • न्यायालय का कर्त्तव्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त को उचित प्रतिनिधित्व मिले।
    • न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह अभियुक्त को सभी भौतिक स्तरों पर निःशुल्क विधिक सहायता पाने के उसके अधिकार के बारे में जागरूक करे।
    • ट्रायल कोर्ट को यह सुनिश्चित करना होगा कि अभियुक्त का प्रतिनिधित्व करने के लिये एक विधिक सहायता अधिवक्ता नियुक्त किया जाए।
  • विधिक सहायता की गुणवत्ता 
    • गंभीर मामलों के लिये पात्रता: न्यूनतम 10 वर्ष का आपराधिक कानून अभ्यास करने वाले अधिवक्ताओं को आजीवन कारावास या मृत्युदंड वाले मामलों में एमिकस क्यूरी या विधिक सहायता अधिवक्ता के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिये।
    • अक्षमता की आवश्यकता: अन्य आपराधिक मामलों में आरोपी व्यक्ति कानूनी सहायता अधिवक्ताओं के हकदार हैं, जिनके पास आपराधिक कानून में मज़बूत विधिक ज्ञान और परीक्षण का अनुभव है।
    • विधिक सहायता अधिवक्ताओं के लिये प्रशिक्षण: विधिक सेवा प्राधिकरणों को नव नियुक्त विधिक सहायता अधिवक्ताओं के लिये उचित प्रशिक्षण उपलब्ध कराना चाहिये।
    • मार्गदर्शन और व्यावहारिक अनुभव: प्रशिक्षण में न केवल व्याख्यान शामिल होने चाहिये, बल्कि नए विधिक सहायता अधिवक्ताओं को कई दांडिक विचारण में वरिष्ठ वकीलों के साथ कार्य करने के अवसर भी शामिल होने चाहिये।
  • राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण का कर्त्तव्य
    • राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, विधिक सहायता अधिवक्ता के कार्य की निगरानी के लिये सभी स्तरों पर विधिक सेवा प्राधिकरणों को निर्देश जारी करेंगे।
    • यह सुनिश्चित किया जाएगा कि विधिक सहायता अधिवक्ता उन्हें सौंपे गए मामलों के निपटारे के समय नियमित रूप से और समय पर न्यायालय में उपस्थित हों।
  • पूरी प्रक्रिया के दौरान एक ही विधिक सहायता अधिवक्ता को जारी रखा जाना चाहिये, जब तक कि ऐसा न करने के लिये कोई बाध्यकारी कारण न हों।
  • गंभीर प्रकृति के अपराधों के मामले में
    • जटिल विधिक और तथ्यात्मक मुद्दों वाले बहुत गंभीर अपराधों के मामलों में, न्यायालय किसी नियमित विधिक सहायता अधिवक्ता के स्थान पर किसी वरिष्ठ एवं अनुभवी वकील को नियुक्त कर सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अभियुक्त को सर्वोत्तम संभव विधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
  • COI के अनुच्छेद 21 का अति लंघन 
    • दांडिक विचारण में अभियुक्त को अपना बचाव करने का अधिकार भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत है।
    • लेकिन यदि किसी अभियुक्त को प्रभावी विधिक सहायता उपलब्ध नहीं कराई जाती है, जो वकील रखने में असमर्थ है, तो यह अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।
  •  प्रदान की गई विधिक सहायता प्रभावी होनी चाहिये 
    • विधिक सहायता महज एक औपचारिकता नहीं है, बल्कि अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा के लिये वास्तव में सार्थक और अधिष्ठायी होनी चाहिये।
    • विधिक सहायता के लिये  नियुक्त वकीलों के पास निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिये:
      • आपराधिक विधि का व्यापक ज्ञान।
      • साक्ष्य विधि की गहरी समझ।
      • प्रक्रियात्मक विधि में गहन विशेषज्ञता।
      • अन्य प्रासंगिक विधियों से परिचित होना।
    • विधिक सहायता की संवैधानिक गारंटी तभी सार्थक है जब प्रदान की गई विधि प्रतिनिधित्व उच्च गुणवत्ता और क्षमता वाली हो।
    • एक अप्रभावी या अक्षम विधिक सहायता वकील मूलतः अभियुक्त के विधिक  अधिकारों को कमज़ोर कर सकता है तथा उनकी निष्पक्ष सुनवाई से समझौता कर सकता है।
    • केवल वकील नियुक्त करना पर्याप्त नहीं है, नियुक्त अधिवक्ता में निम्नलिखित योग्यता होनी चाहिये:
      • मामले की जटिलता को समझना।
      • मुकदमे का कुशलतापूर्वक संचालन करना।
      • अभियुक्त के हितों का प्रभावी ढंग से बचाव करना।
    • गुणवत्तापूर्ण विधिक सहायता केवल प्रतिनिधित्व से कहीं अधिक है और इसके लिये वास्तविक, कुशल और सक्षम विधिक वकालत की आवश्यकता होती है।

विधिक सहायता से संबंधित विधिक प्रावधान क्या हैं?

संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 39A:
    • निःशुल्क विधिक सहायता संविधान के भाग IV अर्थात् राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के अंतर्गत उपलब्ध है।
    • इसे 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया है।
    • इस प्रावधान में कहा गया है कि राज्य विशेष रूप से उपयुक्त विधि या योजनाओं या किसी अन्य तरीके से मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करेगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आर्थिक या अन्य असमर्थताओं के कारण किसी भी नागरिक को न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित न किया जाए।
    • इस प्रकार, उपरोक्त संवैधानिक लक्ष्य है।
  • अनुच्छेद 21:
    • यह एक मौलिक अधिकार है, जिसमें से निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार निकलता है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में व्याख्या की है।
    • COI के अनुच्छेद 21 में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित किया जाएगा।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS)/ CrPC:

  • CrPC की धारा 303 या BNSS की धारा 340:
    • यह प्रावधान उस व्यक्ति के अधिकारों का प्रावधान करता है जिसके विरुद्ध कार्यवाही शुरू की गई है।
    • इसमें यह प्रावधान है कि किसी व्यक्ति पर दंड न्यायालय में किसी अपराध का आरोप लगाया गया है या जिसके विरुद्ध इस संहिता के अंतर्गत कार्यवाही की जा रही है, उसका बचाव उसकी पसंद के वकील द्वारा किया जा सकता है।
  • CrPC की धारा 304 या BNSS की धारा 341:
    • CrPC की धारा 304 और BNSS की धारा 341 में अभियुक्त को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने का प्रावधान है।
    • इस प्रावधान के खंड (1) में प्रावधान है कि:
      • जहाँ, न्यायालय के समक्ष किसी मुकदमे या अपील में।
      • अभियुक्त का प्रतिनिधित्व किसी अधिवक्ता द्वारा नहीं किया जाता है।
      • जहाँ न्यायालय को ऐसा प्रतीत होता है कि अभियुक्त के पास अधिवक्ता नियुक्त करने के लिये पर्याप्त साधन नहीं हैं।
      • न्यायालय राज्य के व्यय पर उसके बचाव के लिये अधिवक्ता नियुक्त करेगा।

सिविल कानून

आयुध लाइसेंस से इंकार

 04-Dec-2024

रंजन कुमार मंडल बनाम बिहार राज्य और अन्य

“पटना उच्च न्यायालय: केवल विशिष्ट सुरक्षा खतरे या आसन्न खतरे की कमी के कारण आयुध लाइसेंस देने से इंकार नहीं किया जा सकता।”

न्यायमूर्ति मोहित कुमार शाह

स्रोत: पटना उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

पटना उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि आवेदक को केवल इस आधार पर आयुध लाइसेंस देने से मना नहीं किया जा सकता कि उसे कोई विशेष सुरक्षा खतरा या आसन्न खतरा नहीं है। न्यायालय ने ज़िला मजिस्ट्रेट, खगड़िया और संभागीय आयुक्त, मुंगेर के निर्णयों को खारिज कर दिया, जिन्होंने इस आधार पर याचिकाकर्त्ता के आवेदन को खारिज कर दिया था।

  • पिछले निर्णयों का हवाला देते हुए, न्यायालय ने कहा कि इस तरह के इंकार आयुध नियम, 2016 की मंशा के विपरीत हैं, जो लाइसेंस देने के लिये खतरे की धारणा को पूर्व शर्त के रूप में अनिवार्य नहीं बनाता है।

रंजन कुमार मंडल बनाम बिहार राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • बिहार के खगड़िया में पेट्रोल पंप चलाने वाले पूर्व सैन्यकर्मी रंजन कुमार मंडल ने जनवरी 2013 में आयुध लाइसेंस के लिये  आवेदन किया था। प्रारंभ में उनका आवेदन आशाजनक लगा और स्थानीय उप-विभागीय अधिकारी तथा पुलिस स्टेशन प्रभारी ने उन्हें लाइसेंस देने की अनुशंसा कर दी।
  • इन सिफारिशों के बावजूद, खगड़िया के ज़िला मजिस्ट्रेट ने मार्च 2018 में मंडल के आयुध लाइसेंस आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनके जीवन को कोई खतरा नहीं है। जब मंडल ने इस निर्णय के खिलाफ मुंगेर के डिवीजनल कमिश्नर के समक्ष अपील की तो नवंबर 2019 में उनकी अपील भी उन्हीं आधारों पर खारिज कर दी गई।
  • मंडल ने पटना उच्च न्यायालय में रिट मुकदमा दायर किया क्योंकि उनका मानना ​​था कि अस्वीकृति अनुचित थी। उन्होंने तर्क दिया कि खतरे की आशंका होना आयुध लाइसेंस से इंकार करने का एकमात्र मानदंड नहीं होना चाहिये, विशेषकर एक पूर्व सैन्यकर्मी और एक छोटे व्यवसाय के मालिक के रूप में उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए।
  • इस मामले ने बिहार में आयुध लाइसेंस प्रदान करने के मानदंडों के विषय में एक व्यापक कानूनी प्रश्न को उजागर किया, विशेष रूप से यह कि क्या किसी के जीवन को प्रत्यक्ष खतरा न होने पर भी आवेदक को लाइसेंस प्राप्त करने के लिये स्वतः ही अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिये।
  • मुख्य तर्क यह था कि लाइसेंसिंग अधिकारी आवेदक के पेशे, पृष्ठभूमि और व्यक्तिगत सुरक्षा की संभावित आवश्यकता जैसे अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बजाय केवल खतरे की धारणा पर ध्यान केंद्रित करके आयुध नियम, 2016 की बहुत संकीर्ण व्याख्या कर रहे थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

अवलोकन:

  • उच्च न्यायालय ने प्रशासनिक आदेशों का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण किया और पाया कि आयुध लाइसेंस को अस्वीकार करना मूल रूप से त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि यह केवल किसी विशिष्ट खतरे की आशंका के अभाव पर आधारित था, जो आयुध नियम, 2016 की न्यायिक व्याख्या के विपरीत है।
  • न्यायालय ने व्यापक रूप से पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ दिया, विशेष रूप से दीपक कुमार मामले में खंडपीठ के निर्णय का, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि आसन्न खतरे की अनुपस्थिति लाइसेंस अस्वीकृति के लिये स्पष्ट आधार नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसा दृष्टिकोण आयुध लाइसेंस प्रावधानों के पीछे विधायी मंशा को मूल रूप से कमज़ोर करेगा।
  • न्यायिक तर्क में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि लाइसेंसिंग प्राधिकारियों को आवेदक की आवश्यकताओं का व्यापक मूल्यांकन करना चाहिये तथा उनके पेशे की प्रकृति, संभावित भेद्यता और तत्काल खतरे के मापदंडों से परे व्यक्तिगत सुरक्षा की वास्तविक आवश्यकता पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिये।
  • आयुध नियम, 2016 के नियम 12(3)(a) की आलोचनात्मक व्याख्या एक अनिवार्य प्रावधान के रूप में की गई, जिसके तहत लाइसेंसिंग प्राधिकारियों को व्यापक पुलिस रिपोर्ट और उनके स्वतंत्र न्यायिक मूल्यांकन के आधार पर आवेदनों का मूल्यांकन करने की आवश्यकता होती है, विशेष रूप से ऐसे व्यक्तियों के लिये जिनकी व्यावसायिक परिस्थितियों के कारण सुरक्षा हेतु व्यक्तिगत आयुध रखना आवश्यक हो सकता है।
  • न्यायालय ने कहा कि आयुध लाइसेंस का निर्धारण एक सूक्ष्म, बहुआयामी मूल्यांकन के आधार पर किया जाना चाहिये, जिसमें जटिल कारकों पर विचार किया जाना चाहिये,  न कि खतरे की धारणा के एकल मानदंड के आधार पर यांत्रिक अस्वीकृति की जानी चाहिये।
  • न्यायिक व्याख्या में इस बात पर बल दिया गया कि आवेदक की आयुध की वास्तविक आवश्यकता के विषय में प्राधिकारी को समझाने की मूल क्षमता, उसकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि और संभावित प्रणालीगत जोखिमों को ध्यान में रखते हुए, लाइसेंस निर्णय में प्राथमिक विचारणीय बिंदु होना चाहिये।

संदर्भित मामला:

  • दीपक कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (2019);
    • एक ऐतिहासिक डिवीजन बेंच के निर्णय (LPA संख्या 758/2018) में स्पष्ट रूप से कहा गया कि विशिष्ट सुरक्षा खतरे की अनुपस्थिति आयुध लाइसेंस आवेदन को खारिज करने का आधार नहीं हो सकती।

आयुध नियम, 2016 की धारा 12 क्या है?

  • धारा 12 कुछ मामलों में लाइसेंसिंग प्राधिकारी के दायित्वों से संबंधित है।
  • उप धारा (1): यह परिचयात्मक खंड इंगित करता है कि लाइसेंसिंग प्राधिकरण को कुछ श्रेणियों में प्रतिबंधित या अनुमेय आयुधों और गोला-बारूद के लिये लाइसेंस प्रदान करते समय विशिष्ट मानदंडों का पालन करना होगा।
  • उप धारा (2): प्रतिबंधित आयुध लाइसेंस देने के मानदंड
  • लाइसेंसिंग प्राधिकारी निम्नलिखित परिस्थितियों में व्यक्तियों के आवेदनों पर विचार कर सकता है:
  • वे व्यक्ति जो गंभीर और प्रत्याशित जीवन खतरों का सामना कर रहे हैं, विशेष रूप से:
    • उच्च उग्रवादी, आतंकवादी या चरमपंथी गतिविधि वाले क्षेत्रों के निवासी।
    • वे व्यक्ति जो उग्रवादियों, आतंकवादियों या चरमपंथियों के मुख्य लक्ष्य हैं।
    • वे व्यक्ति जो उग्रवादी, आतंकवादी या चरमपंथी उद्देश्यों का विरोध करने के कारण खतरे का सामना कर रहे हैं।
  • सरकारी अधिकारी जो:
    • अपने पद या कर्त्तव्य की प्रकृति के कारण प्रत्याशित जोखिमों का सामना करना पड़ता है। 
    • आधिकारिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते समय संभावित जीवन खतरों के संपर्क में आते हैं।
  • संसद या विधान सभा के सदस्य जो:
    • उग्रवाद-विरोधी, आतंकवाद-विरोधी या चरमपंथ-विरोधी सरकारी कार्यक्रमों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं।
    • अपने राजनीतिक विचारों या रुख के कारण जोखिम में हैं।
  • ऐसे व्यक्तियों के परिवार के सदस्य या रिश्तेदार जो:
    • अतीत या वर्तमान में ऐसे कर्त्तव्य या पद हैं जो उन्हें जीवन के लिये जोखिम में डालते हैं।
    • ज्ञात या अज्ञात कारणों से असुरक्षित हैं।
  • कोई अन्य व्यक्ति जिसके पास वैध एवं वास्तविक कारण हो, जैसा कि लाइसेंसिंग प्राधिकारी द्वारा विस्तृत आदेश के माध्यम से निर्धारित किया गया हो।
  • महत्त्वपूर्ण शर्त: लाइसेंस देने से पहले, प्राधिकरण को यह करना होगा:
    • ज़िला मजिस्ट्रेट से सिफारिशें प्राप्त करना 
    • राज्य सरकार से परामर्श करना 
    • पुलिस रिपोर्ट की जाँच करना 
    • स्वतंत्र सत्यापन करना 
    • स्वयं को संतुष्ट करें कि आवेदक को वास्तव में लाइसेंस की आवश्यकता है
  • उप-धारा (3): अनुमेय शस्त्र लाइसेंस के लिये मानदंड
  • लाइसेंसिंग प्राधिकारी निम्नलिखित आवेदनों पर विचार कर सकता है:
  • ऐसे व्यक्ति जिनकी वास्तविक आवश्यकता जीवन या संपत्ति की सुरक्षा के लिये है:
    • व्यवसाय की प्रकृति
    • पेशेवर आवश्यकता
    • नौकरी से जुड़े जोखिम
  • समर्पित खिलाड़ी जो:
    • कम से कम दो वर्षों तक किसी लाइसेंस प्राप्त शूटिंग क्लब या राइफल एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य रहे हों।
    • संरचित शिक्षण प्रक्रिया के माध्यम से लक्ष्य अभ्यास को आगे बढ़ाने का प्रयास करना।
  • सेवा पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति, जिनमें शामिल हैं:
    • वर्तमान या पूर्व रक्षा बल कर्मी
    • केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के सदस्य
    • राज्य पुलिस बल के सदस्य
    • जिन्हें अपने जीवन या संपत्ति की रक्षा करने की वास्तविक आवश्यकता है

भारत में आग्नेयास्त्र लाइसेंस प्राप्त करने की शर्तें क्या हैं?

आग्नेयास्त्रों, गोला-बारूद के अधिग्रहण और कब्जे के लिये लाइसेंस:

  • सामान्य प्रावधान:
    • आयुध अधिनियम 1959 की धारा 3।
    • कोई भी व्यक्ति तब तक कोई आग्नेयास्त्र या गोला-बारूद प्राप्त नहीं करेगा, न ही अपने पास रखेगा और न ही उसे लेकर चलेगा, जब तक कि उसके पास इस अधिनियम तथा संबंधित नियमों के अनुसार जारी वैध लाइसेंस न हो।
      • अपवाद: कोई व्यक्ति लाइसेंस धारक की उपस्थिति में या उसके लिखित प्राधिकार के तहत लाइसेंस की मरम्मत या नवीनीकरण जैसे उद्देश्यों के लिये आग्नेयास्त्र या गोला-बारूद ले जा सकता है।
  • कब्जे पर सीमाएँ:
    • उप धारा (3) में उल्लिखित व्यक्तियों को छोड़कर कोई भी व्यक्ति किसी भी समय दो से अधिक आग्नेयास्त्र नहीं रखेगा।
      • संक्रमण खण्ड: शस्त्र (संशोधन) अधिनियम, 1983 के लागू होने पर जिन व्यक्तियों के पास तीन से अधिक आग्नेयास्त्र थे, वे तीन आग्नेयास्त्र रख सकते हैं तथा उन्हें अतिरिक्त आग्नेयास्त्रों को 90 दिनों के भीतर जमा करना होगा।
      • आगे के संशोधन: आयुध (संशोधन) अधिनियम, 2019 के लागू होने पर दो से अधिक आग्नेयास्त्र रखने वाले व्यक्ति दो आग्नेयास्त्र रख सकते हैं और उन्हें एक वर्ष के भीतर अतिरिक्त आग्नेयास्त्र जमा करना होगा।
  • अपवाद:
    • उपधारा (2) में निर्धारित सीमाएँ निम्नलिखित पर लागू नहीं होतीं:
      • आग्नेयास्त्रों के डीलर
      • लक्ष्य अभ्यास के लिये विशिष्ट प्रकार की राइफलों का उपयोग करने वाले लाइसेंस प्राप्त या मान्यता प्राप्त राइफल क्लबों या संघों के सदस्य।
  • आग्नेयास्त्र जमा करना:
    • उप धारा (2) के अंतर्गत आग्नेयास्त्रों के जमा करने के संबंध में प्रावधान इस अधिनियम की प्रासंगिक धाराओं के अंतर्गत किये गए किसी भी जमा पर समान रूप से लागू होंगे।

लाइसेंस प्रदान करना (धारा 13):

लाइसेंस देने से इंकार (धारा 14):