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आपराधिक कानून
निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किये जाने का अधिकार
09-Dec-2024
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य बनाम मो. जाबिर "यह स्पष्ट है कि प्रावधान के पीछे का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जिस व्यक्ति की तलाशी ली जा रही है, उसे तलाशी लेने वाले व्यक्ति के अलावा किसी तीसरे व्यक्ति के समक्ष ले जाने के विकल्प के बारे में अवगत कराया जाए।" मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की खंडपीठ ने निर्णय सुनाया कि स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 की धारा 50 का उद्देश्य संदिग्ध को, जिसकी तलाशी ली जा रही है, राजपत्रित अधिकारी के पास ले जाने के अधिकार के बारे में सूचित करना है।
- उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य बनाम मो. जाबिर में यह अभिनिर्धारित किया।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य बनाम मो. जाबिर मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS) के तहत मोहम्मद जाबिर को प्रदत्त ज़मानत आदेश के खिलाफ NCT दिल्ली राज्य द्वारा की गई आपराधिक अपील शामिल है।
- उच्च न्यायालय ने पहले मोहम्मद जाबिर को इस आधार पर ज़मानत प्रदान की थी कि उसकी तलाशी के दौरान दिये गए नोटिस में "निकटतम राजपत्रित अधिकारी" के बजाय "कोई राजपत्रित अधिकारी" शब्द का इस्तेमाल किया गया था, जिसे NDPS अधिनियम की धारा 50 का उल्लंघन माना गया था।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने दो मुख्य पहलुओं पर ज़मानत दी थी:
- धारा 50 NDPS Act के तहत आरोपी को दिया गया नोटिस गलत सूचना पर आधारित था।
- आरोपी की तलाशी किसी स्वतंत्र अधिकारी द्वारा नहीं बल्कि एसीपी द्वारा की गई।
- मो. जाबिर पहले से ही एक अन्य मामले (FIR संख्या 217/2019) में ज़मानत पर है, जो स्वापक औषधि से संबंधित है।
- इस प्रकार, यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश हुआ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- इस प्रकार, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि 50 अधिनियम की धारा 50 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जिस व्यक्ति की तलाशी ली जा रही है उसे तलाशी लेने वाले व्यक्ति के अलावा किसी तीसरे व्यक्ति के समक्ष ले जाने के विकल्प के बारे में अवगत कराया जाए।
- "निकटतम" अभिव्यक्ति का उपयोग संदिग्ध की तलाशी के लिये सुविधा को संदर्भित करता है।
- देरी से बचना चाहिये, जैसा कि "अनावश्यक देरी" शब्द के उपयोग और NDPS Act की धारा 50 की उपधारा (5) में किए गए अपवाद से पता चलता है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि 'कोई भी' शब्द का उपयोग 'निकटतम' राजपत्रित अधिकारी के अधिदेश का संकेतन नहीं है और इसलिये प्रतिवादी ज़मानत का हकदार है।
- इसलिये उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि मो. जाबिर ज़मानत का हकदार है।
NDPS अधिनियम की धारा 50 क्या है?
परिचय:
- NDPS अधिनियम की धारा 50 उन शर्तों का प्रावधान करती है जिनके तहत व्यक्तियों की तलाशी ली जाएगी।
- धारा 50 (1):
- यदि विधिक रूप से अधिकृत औषध प्रवर्तन अधिकारी किसी की तलाशी लेना चाहता है, तो जिस व्यक्ति की तलाशी ली जा रही है वह किसी उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी या मजिस्ट्रेट के पास ले जाने का अनुरोध कर सकता है।
- यदि ऐसा अनुरोध किया जाता है तो अधिकारी को तुरंत और अनावश्यक देरी के बिना उस व्यक्ति को निकटतम उपलब्ध राजपत्रित अधिकारी या नजदीकी मजिस्ट्रेट के पास ले जाना होगा।
- यह नियम जिस व्यक्ति की तलाशी ली जा रही है उसे एक स्वतंत्र अधिकारी द्वारा अपनी तलाशी का साक्षी प्राप्त होने की सुविधा प्रदान करता है, जिससे संभावित कदाचार के खिलाफ सुरक्षा की एक अतिरिक्त संस्तर मिलती है।
- धारा 50 (2) में प्रावधान है कि यदि ऐसी अपेक्षा की जाती है, तो ऐसा अधिकारी ऐसे व्यक्ति को तब तक हिरासत में रख सकेगा जब तक कि वह उसे उपधारा (1) में निर्दिष्ट राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट के समक्ष नहीं ले जा सकता।
- धारा 50 (3) में यह प्रावधान है कि राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट जिसके सामने ऐसे किसी व्यक्ति को लाया जाता है, यदि तलाशी के लिये कोई उचित आधार नहीं पाता है तो ऐसे व्यक्ति को तत्काल उन्मोचित कर देगा लेकिन अन्यथा यह निदेश देगा कि तलाशी की जाए।
- धारा 50(4) महिलाओं के लिये विशेष प्रावधान करती है।
- धारा 50(5) में प्रावधान है कि:
- यदि विधिक रूप से अधिकृत औषध प्रवर्तन अधिकारी का मानना है कि संदिग्ध को राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट के पास ले जाने से संदिग्ध को दवाएं, सबूत या दस्तावेज खो सकते हैं या नष्ट हो सकते हैं, तो अधिकारी के पास विशेष प्रावधान हैं।
- ऐसी परिस्थितियों में, अधिकारी को व्यक्ति को एक स्वतंत्र अधिकारी के पास ले जाने की मानक प्रक्रिया से इतर उपाय करने की अनुमति होती है।
- इसके बजाय, अधिकारी आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 100 में उल्लिखित अन्वेषण प्रक्रियाओं का उपयोग करके सीधे व्यक्ति की तलाशी कर सकता है।
- यह अपवाद विधि प्रवर्तन को स्वापक दवाओं से संबंधित जाँच के दौरान तलाशी करने के लिये विधिक ढाँचे को बनाए रखते हुए साक्ष्यों के संभावित नुकसान को रोकने की अनुमति देता है।
- धारा 50 (6) में प्रावधान है कि उप-धारा (5) के अधीन तलाशी लिये जाने के पश्चात् उक्त अधिकारी ऐसे विश्वास के कारणों को लेखबद्ध करेगा, जिसकी वजह से ऐसी तलाशी की आवश्यकता पड़ी थी और उसकी एक प्रति अपने अव्यवहित वरिष्ठ पदधारी को बहत्तर घंटे के भीतर भेजेगा।
निर्णयज विधि:
- भारत संघ बनाम राम समुझ (1999):
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संसद ने प्रावधान किया है कि NDPS अधिनियम के तहत अपराध के आरोपी व्यक्ति को मुकदमे के दौरान ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा जब तक कि धारा 37 में अनिवार्य शर्तें प्रदान न की जाएं, अर्थात्-
- यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं है।
- कि ज़मानत पर रहते हुए उसके कोई अपराध कारित होने की संभावना नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संसद ने प्रावधान किया है कि NDPS अधिनियम के तहत अपराध के आरोपी व्यक्ति को मुकदमे के दौरान ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा जब तक कि धारा 37 में अनिवार्य शर्तें प्रदान न की जाएं, अर्थात्-
आपराधिक कानून
लोक सेवक पर अभियोजन करने की स्वीकृति
09-Dec-2024
तेलंगाना राज्य बनाम. सी. शोभा रानी "बाद की अनुमति उसी सामग्री के आधार पर दी गई। इसलिये किसी अन्य प्रतिकूल सामग्री के अभाव में, जो कि स्वीकृति प्राधिकारी के दिमाग में थी, उसे विधि की दृष्टि से बरकरार नहीं रखा जा सकता।" न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने तेलंगाना राज्य बनाम. सी. शोभा रानी मामले में अभिनिर्धारित किया कि यदि किसी लोक सेवक पर अभियोजन करने की स्वीकृति एक बार के अस्वीकार कर दी जाती है तो बाद में उसी सामग्री के आधार पर स्वीकृति नहीं दी जा सकती है।
तेलंगाना राज्य बनाम. सी. शोभा रानी मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में सी. शोभा रानी (प्रतिवादी) के खिलाफ तेलंगाना राज्य द्वारा दायर आपराधिक आरोप शामिल हैं।
- प्रतिवादी के खिलाफ मूल आरोपों में भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के तहत निम्नवत अनके गंभीर अपराध शामिल थे:
- धारा 420 (छल करना)
- धारा 467 (मूल्यवान प्रतिभूति की कूटरचना)
- धारा 468 (छल के प्रयोजन से कूटरचना)
- धारा 471 (कूटरचित दस्तावेज़ का असली के रूप में उपयोग में लाना)
- धारा 120B (आपराधिक षड्यंत्र)
- इसके अतिरिक्त, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PVC) के तहत भी आरोप थे:
- धारा 13(2) की व्याख्या धारा 13(1)(c) और (d) के संयोजन में की जाती है, जो प्रायः एक लोक सेवक के आपराधिक कदाचार से संबंधित होती है।
- इन आरोपों की जांच के बाद आरोप पत्र दायर किया गया था।
- यह मामला अनेक विधिक चरणों से गुज़रा:
- प्रारंभ में, प्रतिवादी के खिलाफ आरोप दायर किये गए थे।
- इसमें एक स्वीकृति (विधिक अनुमति) प्रक्रिया शामिल थी।
- उच्च न्यायालय ने पहले आपराधिक कार्यवाही को खारिज़ कर दिया था।
- इसके बाद तेलंगाना राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
- इसमें मुख्य विवाद दो मुख्य मुद्दों पर केंद्रित है:
- स्वीकृति प्रक्रिया की विधिमान्यता
- प्रतिवादी के विरुद्ध आपराधिक आरोपों के गुणागुण
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- स्वीकृति मुद्दे के संबंध में:
- उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय से सहमत था कि बाद की स्वीकृति समस्यात्मक थी।
- प्रदत्त नई स्वीकृति पिछली जैसी ही सामग्री पर आधारित थी।
- किसी भी नई प्रतिकूल सामग्री के बिना, बाद की स्वीकृति को विधिक रूप से बरकरार नहीं रखा जा सकता है।
- आपराधिक आरोपों पर:
- न्यायालय ने तेलंगाना राज्य के इस तर्क में सार पाया कि उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 420, 467, 468, 471 और 120B के तहत आरोपों की पर्याप्त जाँच नहीं की।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इन विशिष्ट आरोपों के लिये CrPC की धारा 197 के तहत किसी प्रकार की स्वीकृति आवश्यक नहीं है।
- प्रक्रियात्मक टिप्पणियाँ:
- न्यायालय ने मामले के गुणागुण की जाँच किये बिना आपराधिक कार्यवाही को खारिज करने के उच्च न्यायालय के कार्य की आलोचना की।
- न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि जाँच के बाद आरोप पत्र पहले ही दाखिल किया जा चुका है।
- उच्चतम न्यायालय ने तेलंगाना राज्य की अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया और मामले को पुनः उच्च न्यायालय में प्रेषित दिया।
- उच्च न्यायालय से मामले, विशेष रूप से उल्लिखित IPC धाराओं की प्रयोज्यता पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया।
- उच्च न्यायालय को आपराधिक याचिका पर शीघ्र, अधिमानतः चार माह के भीतर, निर्णय सुनाने का निर्देश दिया।
- ट्रायल कोर्ट द्वारा आवश्यक होने तक प्रतिवादी की उपस्थिति से अस्थायी रूप से छूट दी गई।
- स्वीकृति मुद्दे के संबंध में:
- उच्चतम न्यायालय ने अनिवार्य रूप से पाया कि उच्च न्यायालय के पूर्वतन आदेश की, विशेष रूप से प्रतिवादी के खिलाफ आपराधिक आरोपों के संबंध में समीक्षा की आवश्यकता है।
CrPC की धारा 197 से क्या अभिप्राय है?
परिचय:
- न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोक सेवकों पर अभियोजन करने के प्रावधानों को वर्तमान में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 218 के तहत शामिल किया गया है।
इस धारा का उद्देश्य है:
- लोक सेवकों की निरर्थक अभियोजनों से सुरक्षा करना।
- विधिक कार्यवाही में प्रशासनिक निगरानी सुनिश्चित करना।
- आधिकारिक कर्तव्यों की सुरक्षा के साथ जवाबदेही को संतुलित करना।
सुरक्षा का दायरा:
- न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोक सेवकों पर अनुप्रयोज्य।
- आधिकारिक क्षमता में कार्य करते समय किये गए अपराध शामिल हैं।
संज्ञान संबंधी प्रतिबंध:
- सामान्य प्रतिषेध:
- कोई भी न्यायालय पूर्व अनुमति के बिना अपराधों का संज्ञान नहीं लेगा।
- लोक सेवकों की मनमाने अभियोजन से रक्षा करता है।
- स्वीकृति प्राधिकारी:
- केंद्र सरकार की अधिकारिता:
- संघ/केंद्र सरकार के कार्यों में कार्यरत व्यक्तियों हेतु।
- केंद्र सरकार के कर्मचारियों के अपराधों पर अनुप्रयोज्य।
- राज्य सरकार की अधिकारिता:
- राज्य सरकार के कार्यों में कार्यरत व्यक्तियों हेतु।
- राज्य सरकार के कर्मचारियों से संबंधित अपराध शामिल हैं।
- केंद्र सरकार की अधिकारिता:
सशस्त्र बलों के लिये विशेष प्रावधान:
- सशस्त्र बल के कर्मियों का अभियोजन:
- कोई भी न्यायालय सशस्त्र बलों के कर्मियों द्वारा कारित अपराधों का संज्ञान नहीं लेगा।
- केंद्र सरकार से पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता है।
- राज्य स्तरीय बल के कर्मियों संबंधी प्रावधान:
- राज्य सरकार विशिष्ट लोक व्यवस्था रखरखाव बलों को अधिसूचित कर सकती है।
- यह निर्देश दे सकता है कि केंद्र सरकार के स्वीकृति प्रावधान राज्य स्तरीय बलों पर अनुप्रयोज्य हों।
आपात प्रावधान:
- राज्य आपातकालीन संज्ञान:
- राष्ट्रपति शासन के दौरान (भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356)।
- लोक व्यवस्था बनाए रखने वाले बलों पर अभियोजन करने पर विशेष प्रतिबंध।
- केंद्र सरकार की स्वीकृति की आवश्यकता होती है।
- पूर्व की प्रदत्त स्वीकृति की विधिमान्यता:
- विशिष्ट ऐतिहासिक अवधियों के दौरान प्रदत्त स्वीकृति को अमान्य करता है।
- केंद्र सरकार को नई स्वीकृति देने का अधिकार प्रदान करता है।
अभियोजन प्रबंधन:
- अभियोजन निर्धारण:
- केंद्र या राज्य सरकार:
- अभियोजक का निर्धारण कर सकती है।
- अभियोजन पद्धति निर्दिष्ट कर सकती है।
- अभियोजन के लिये विशिष्ट अपराधों को परिभाषित कर सकती है।
- ट्रायल कोर्ट का चयन कर सकती है।
- केंद्र या राज्य सरकार:
निर्णयज विधि:
- उड़ीसा राज्य बनाम गणेश चंद्र यहूदी, (2004):
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि CrPC की धारा 197 के तहत दी गई सुरक्षा ज़िम्मेदार लोक सेवकों को उनके द्वारा लोक सेवक के रूप में कार्य करते समय या कार्य करने के दौरान किये गए अभिकथित अपराधों के लिये संभवतः कष्टप्रद आपराधिक कार्यवाही शुरू करने से बचाने के लिये है।
भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2018 की धारा 19 के तहत स्वीकृति प्रक्रिया क्या है?
पूर्व स्वीकृति का आवश्यक होना:
- कोई भी न्यायालय पूर्व संस्वीकृति के बिना किसी लोक सेवक के विरुद्ध धारा 7, 11, 13 और 15 के अधीन किये गए अपराधों का संज्ञान नहीं ले सकती।
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में अपवादों का प्रावधान किया गया है।
स्वीकृति प्राधिकरण:
- संघ संबंधी मामलों हेतु: केंद्र सरकार
- राज्य संबंधी मामलों हेतु: राज्य सरकार
- अन्य: संबद्ध व्यक्ति को पद से हटाने के सक्षम प्राधिकारी द्वारा
स्वीकृति हेतु अनुरोध करने की प्रक्रिया:
- यह अनुरोध पुलिस अधिकारियों, जाँच एजेंसियों या अन्य विधि प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा किया जा सकता है।
- अन्य व्यक्तियों को पहले सक्षम न्यायालय में शिकायत दर्ज करनी होगी।
- न्यायालय CrPC की धारा 203 के अधीन की गयी शिकायत को अवीकार नहीं कर सकता।
लोक सेवकों के लिए सुरक्षा उपाय:
- स्वीकृति देने से पूर्व लोक सेवकों को विचारण का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये (अन्य विधिक प्रवर्तन अनुरोधों के लिये)।
स्वीकृति निर्णय के लिये समय सीमा:
- उपयुक्त प्राधिकारी को प्रस्ताव प्राप्त होने के तीन माह के भीतर निर्णय लेने का प्रयास करना चाहिये।
- यदि विधिक परामर्श की आवश्यकता हो तो एक अतिरिक्त माह का समय दिया जा सकता है।
स्वीकृति के लिये दिशा-निर्देश:
- केंद्र सरकार अभियोजन की संस्वीकृति के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित कर सकती है।
लोक सेवक की परिभाषा:
- इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो उस अवधि के दौरान पद पर नहीं थे, जिस अवधि में अपराध का आरोप लगाया गया है।
- इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो अभियोजन के समय भिन्न पद पर आसीन थे।
स्वीकृति प्रदाता अधिकरण पर स्पष्टीकरण:
- संशय की स्थिति में, कथित अपराध के समय लोक सेवक को हटाने के लिये सक्षम प्राधिकारी द्वारा संस्वीकृति दी जानी चाहिये।
विधिक कार्यवाही और प्रतिबंध:
- संस्वीकृति की अनुपस्थिति या त्रुटि से न्यायालय के निर्णय को तब तक नहीं पलटा जा सकता जब तक कि न्याय में विफलता न हुई हो।
- न्यायालय, संस्वीकृति में त्रुटि के कारण कार्यवाही पर रोक नहीं लगा सकते, जब तक कि इससे न्याय में विफलता न हो।
- अन्य आधारों पर कार्यवाही पर रोक नहीं लगाई जाएगी अथवा अंतरिम आदेशों में संशोधन नहीं किया जाएगा।
न्याय की विफलता का निर्धारण:
- न्यायालयों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या कार्यवाही के दौरान भी आपत्तियाँ उठाई जा सकती थीं।
स्पष्टीकरण:
- "त्रुटि" के अंतर्गत स्वीकृति देने वाले प्राधिकारी की सक्षमता भी है।
- "स्वीकृति" में निर्दिष्ट प्राधिकारियों या व्यक्तियों द्वारा अभियोजन हेतु आवश्यकताएँ शामिल हैं।
निर्णयज विधि:
- नंजप्पा बनाम कर्नाटक राज्य (2012):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि वाद निष्कर्ष पर पहुँच गया है और कोई निर्णय या सजा हुई है, तो अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा उसमें केवल इसलिये हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि धारा 19(1) के अधीन अभियोजन की संस्वीकृति देने वाले आदेश में कोई चूक, त्रुटि या अनियमितता थी।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि ट्रायल कोर्ट, संस्वीकृति को आदेश की अवैधता के बावजूद आगे बढाता है, तो उसे विधि के अनुसार अवैध माना जाएगा और ऐसे अभियोजन के लिये वैध स्वीकृति दिये जाने पर, उसी अपराध के लिये दूसरे ट्रायल पर रोक नहीं लगाई जाएगी।