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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

महिलाओं द्वारा कानूनों का दुरुपयोग

 11-Dec-2024

दारा लक्ष्मी नारायण एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य

"वैवाहिक विवाद से उत्पन्न आपराधिक मामले में परिवार के सदस्यों के नामों का मात्र उल्लेख, बिना किसी विशिष्ट आरोप के उनकी सक्रिय भागीदारी को इंगित करने वाले मामले को शुरू में ही रोक दिया जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन.कोटीश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि जो आरोप अस्पष्ट या बहुप्रयोजनीय होते हैं, उन्हें खारिज किया जाना चाहिये।             

  • उच्चतम न्यायालय ने दारा लक्ष्मी नारायण एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

दारा लक्ष्मी नारायण एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता संख्या 1 (पति) और प्रतिवादी संख्या 2 (पत्नी) का विवाह आंध्र प्रदेश के चेन्नाकेशव स्वामी मंदिर में हुआ।
  • अपीलकर्त्ता संख्या 2 और 3 ससुर और सास हैं, और अपीलकर्त्ता संख्या 4 से 6 प्रतिवादी संख्या 2 की ननद हैं।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने नेरेडमेट पुलिस स्टेशन में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 82/2022 दर्ज कराई, जिसमें निम्नलिखित अपराधों का आरोप लगाया गया:
    • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A।
    • दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम, 1961 (DPA) की धारा 3 और 4।
  • अभियुक्तों में अपीलकर्त्ता संख्या 1 से 6 और अभियुक्त संख्या 7 (प्रतिवादी संख्या 2 का देवर) शामिल हैं।
  • FIR में आरोप लगाया गया कि:
    • प्रतिवादी संख्या 2 के पिता द्वारा 10 लाख रुपए का दहेज़, 10 तोला सोना और अन्य सामान दिया गया था, तथा विवाह पर 5 लाख रुपए खर्च किये गए थे।
    • प्रतिवादी संख्या 2 ने अतिरिक्त दहेज़, उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और अपीलकर्त्ता संख्या 1 के अवैध संबंध का आरोप लगाया।
    • अपीलकर्त्ता संख्या 2 से 6 ने कथित तौर पर अपीलकर्त्ता संख्या 1 को अधिक दहेज़ की मांग करने के लिये उकसाया।
  • अपीलकर्त्ताओं और अभियुक्त संख्या 7 ने FIR को रद्द करने की मांग करते हुए एक आपराधिक याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने FIR रद्द करने से इनकार कर दिया लेकिन जाँच अधिकारी को निर्देश दिया कि:
    • अर्नेश कुमार के दिशा-निर्देशों का पालन करें।
    • आरोप-पत्र दाखिल होने तक अपीलकर्त्ताओं को गिरफ्तार करने से बचें।
  • अपीलकर्त्ता संख्या 1 से 6 के विरुद्ध मामला प्रथम अतिरिक्त जूनियर सिविल न्यायाधीश-सह-अतिरिक्त मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, मलकाजगिरी के न्यायालय में लंबित है।
  • अपीलकर्त्ताओं ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इनकार करने के निर्णय को चुनौती देते हुए वर्तमान अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या वर्तमान तथ्यों के आधार पर उच्च न्यायालय द्वारा धारा 498A तथा DPA की धारा 3 और 4 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इंकार करना सही था।
  • न्यायालय ने कहा कि FIR के अवलोकन से पता चलता है कि लगाए गए आरोप अस्पष्ट और बहुप्रयोजनीय हैं तथा FIR में कोई विशिष्ट विवरण नहीं दिया गया है या उत्पीड़न के किसी मामले का वर्णन नहीं किया गया है।
  • न्यायालय ने कहा कि दिये गए तथ्यों और FIR के समय और संदर्भ को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्रतिवादी संख्या 2 ने अपीलकर्त्ता के साथ झगड़ा करने के बाद वैवाहिक घर छोड़ दिया था।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि अपीलकर्त्ता संख्या 2 से 6 को बिना किसी कारण या तर्क के अपराध के जाल में नहीं घसीटा जाना चाहिये।
  • परिवार के सदस्यों के निहितार्थ के संबंध में न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय दिया:
    • बिना किसी विशेष आरोप के परिवार के सदस्यों के नाम का उल्लेख करना, जिससे उनकी संलिप्तता का संकेत मिलता हो, को प्रारम्भ में ही समाप्त कर दिया जाना चाहिये।
    • यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि परिवार के सभी सदस्यों को इसमें शामिल करने की प्रवृत्ति होती है।
    • ठोस साक्ष्य द्वारा समर्थित न किये गए ऐसे सामान्यीकृत आरोप आपराधिक अभियोजन का आधार नहीं बन सकते।
    • न्यायालयों को ऐसे मामलों में कानूनी प्रावधानों और कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने तथा निर्दोष परिवार के सदस्यों को अनावश्यक रूप से परेशान होने से बचाने के लिये सावधानी बरतनी चाहिये।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के तहत महिलाओं के प्रति क्रूरता से संबंधित कानून क्या है?

  • BNS की धारा 86 के तहत क्रूरता को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
    • कोई भी जानबूझकर किया गया आचरण जो ऐसी प्रकृति का हो जिससे महिला को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या खतरा उत्पन्न करने की संभावना हो; या
    • महिला का उत्पीड़न, जहाँ ऐसा उत्पीड़न उसे या उसके किसी संबंधित व्यक्ति को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की किसी अवैध मांग को पूरा करने के लिये मजबूर करने के उद्देश्य से किया जाता है या उसके या उसके किसी संबंधित व्यक्ति द्वारा ऐसी मांग को पूरा करने में विफलता के कारण किया जाता है।
  • BNS की धारा 85 में यह प्रावधान है कि जो कोई, किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए, ऐसी महिला के साथ क्रूरता करता है, उसे तीन वर्ष तक के कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माना भी देना होगा।

महिलाओं द्वारा कानून के दुरुपयोग के ऐतिहासिक मामले कौन-से हैं?

  • अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014)
    • न्यायालय ने गिरफ्तारी के लिये संक्षेप में निम्नलिखित दिशानिर्देश निर्धारित किये:
    • पुलिस के लिये गिरफ्तारी संबंधी दिशा-निर्देश: पुलिस को IPC की धारा 498A के तहत अभियुक्त किसी भी व्यक्ति को स्वतः गिरफ्तार नहीं करना चाहिये। CrPC की धारा 41 के दिशा-निर्देशों के अनुसार, और स्थिति का मूल्यांकन करने के बाद ही गिरफ्तारी की जानी चाहिये।
    • चेकलिस्ट और रिपोर्टिंग: पुलिस को गिरफ्तारी को उचित ठहराने वाली एक चेकलिस्ट तैयार करनी होगी तथा अभियुक्त को हिरासत में पेश करते समय उसे कारणों और साक्ष्यों के साथ मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना होगा।
    • मजिस्ट्रेट की भूमिका: मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट की समीक्षा करनी चाहिये, यह सुनिश्चित करना चाहिये कि गिरफ्तारी उचित है, और हिरासत को अधिकृत करने से पहले अपनी संतुष्टि दर्ज करनी चाहिये। अनुचित हिरासत के निर्णय से अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है।
    • अननुपालन के लिये जवाबदेही: पुलिस या मजिस्ट्रेट द्वारा इन दिशानिर्देशों का अननुपालन करने पर संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय कार्रवाई या न्यायालय की अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू की जा सकती है।
  • जी.वी. राव बनाम एल.एच.वी. प्रसाद (2000)
    • हाल ही में, विवाहित युगलों के बीच झगड़ों में वृद्धि हुई है, जो अक्सर गंभीर मुद्दों का कारण बन जाते हैं।
    • विवाह का उद्देश्य दम्पतियों को एक साथ शांतिपूर्ण और स्थिर जीवन जीने में सहायता करना है, लेकिन छोटी-छोटी असहमतियाँ बड़ी समस्याओं का रूप ले सकती हैं।
    • इन विवादों में कभी-कभी परिवार के बुज़ुर्ग शामिल होते हैं, जो मध्यस्थता कर सकते थे, लेकिन इसके बजाय वे कानूनी मामलों में आरोपी बन जाते हैं, जिससे स्थिति और खराब हो जाती है।
    • बेहतर है कि दम्पति आपसी समझ के माध्यम से अपने मुद्दों को सुलझाएँ, न कि लम्बी और तनावपूर्ण न्यायालयी लड़ाइयों में उलझकर, जो उनके जीवन के बहुमूल्य वर्ष बर्बाद कर देती हैं।
  • प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य (2010)
    • न्यायालयों को इन शिकायतों से निपटने में अत्यंत सावधान और सतर्क रहना होगा तथा वैवाहिक मामलों से निपटते समय व्यावहारिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखना होगा।
    • पति के करीबी रिश्तेदारों द्वारा उत्पीड़न के आरोप, जो अलग-अलग शहरों में रह रहे थे और कभी भी उस स्थान पर नहीं गए या कभी-कभार ही गए जहाँ शिकायतकर्त्ता रहती थी, का स्वरूप पूरी तरह से अलग होगा।
    • शिकायतकर्त्ता के आरोपों की बहुत सावधानी एवं सतर्कता से जाँच की जानी आवश्यक है।
  • राजेश शर्मा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2017)
    • न्यायालय ने इस मामले में इस बात पर चर्चा की कि क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के दुरुपयोग को रोकने के लिये कोई निर्देश दिये जाने की आवश्यकता है।
    • न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित निर्देश दिये:
      • परिवार कल्याण समितियाँ: ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण IPC की धारा 498A के अंतर्गत शिकायतों की समीक्षा के लिये परिवार कल्याण समितियों का गठन करेंगे, जिनकी ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा समय-समय पर समीक्षा की जाएगी।
      • नामित जाँच अधिकारी: शिकायतों का निपटारा केवल विशेष रूप से प्रशिक्षित अधिकारियों द्वारा किया जाएगा, जिन्हें चार महीने के भीतर अपना प्रशिक्षण पूरा करना होगा।
      • केस हैंडलिंग और ज़मानत: समझौते से वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों द्वारा केस बंद किया जा सकता है। ज़मानत के निर्णय में निष्पक्षता पर विचार किया जाना चाहिये, केवल दहेज़ वसूली के लिये ज़मानत देने से इनकार नहीं किया जाना चाहिये, और व्यक्तिगत भूमिकाओं और न्याय को ध्यान में रखना चाहिये।
      • विशेष प्रावधान: NRI के पासपोर्ट नियमित रूप से ज़ब्त नहीं किये जाने चाहिये। शारीरिक क्षति या मृत्यु के मामलों को छोड़कर, संभव होने पर ट्रायल में परिवार के सदस्यों को वीडियो के ज़रिये पेश होने की अनुमति दी जानी चाहिये।

सिविल कानून

सादा बंधक और सशर्त विक्रय द्वारा बंधक के बीच अंतर

 11-Dec-2024

लीला अग्रवाल बनाम सरकार एवं अन्य

“अधिनियम की धारा 58(c) के तहत सशर्त विक्रय द्वारा बंधक के सभी आवश्यक तत्त्व वर्तमान मामले में संतुष्ट हैं क्योंकि बंधककर्त्ता द्वारा बंधकदार को संपत्ति का स्पष्ट विक्रय किया गया था और विक्रय सशर्त था”।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, लीला अग्रवाल बनाम सरकार एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि जब मूल बंधक "सशर्त विक्रय द्वारा बंधक" था, तो बंधककर्त्ता द्वारा मात्र कब्ज़ा लेना "सादा बंधक" नहीं माना जाता है।

लीला अग्रवाल बनाम सरकार एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला दो पक्षों के बीच भूमि बंधक संव्यवहार के इर्द-गिर्द घूमता है।
  • वादी (एक भूस्वामी) ने वित्तीय आवश्यकताओं के कारण प्रतिवादी को 2 एकड़ कृषि भूखंड बंधकित किया था।
  • प्रारंभिक बंधक राशि ₹75,000 थी, इस समझौते के साथ कि वादी तीन वर्षों के भीतर कुल ₹1,20,000 (जिसमें मूलधन, ब्याज और व्यय शामिल थे) चुकाकर भूमि को छुड़ा सकता है।
  • बंधक विलेख में एक महत्त्वपूर्ण खंड था: यदि वादी तीन वर्षों के भीतर राशि चुकाने में विफल रहा, तो बंधक स्वतः ही प्रतिवादी के पक्ष में पूर्ण विक्रय में परिवर्तित हो जाएगा।
  • वर्ष 1993 में जब वादी ने 1,20,000 रुपए की बंधक राशि चुकाने का प्रयास किया तो प्रतिवादी ने भुगतान स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि बंधक विलेख की शर्तों के अनुसार, वादी द्वारा निर्धारित समय सीमा के भीतर ऋण चुकाने में विफल रहने के कारण भूमि पहले ही उसकी पूर्ण संपत्ति बन चुकी थी।
  • प्रतिवादी के इनकार से असंतुष्ट होकर वादी ने वर्ष 2001 में एक सिविल वाद दायर किया जिसमें निम्नलिखित मांगें की गईं:
    • बंधक का मोचन।
    • यह घोषणा कि प्रतिवादी का स्वामित्व का दावा अमान्य था।
  • मामला बंधक की प्रकृति की व्याख्या करने पर टिका था - क्या यह एक सादा बंधक था या सशर्त विक्रय द्वारा बंधक था, और संपरिवर्तन खंड की वैधता।
  • ट्रायल कोर्ट ने माना कि बंधक के विक्रय में परिवर्तित करने की शर्त "मोचन की इक्विटी पर अवरोध" थी।
  • इसके बाद मामले की अपील की गई, जिसके बाद छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी की अपील को खारिज कर दिया और इस बात पर ज़ोर दिया कि वादी के पास भूमि का कब्ज़ा बना हुआ है, जिससे पता चलता है कि यह एक सादा बंधक था और इस बात पर सहमति थी कि संपरिवर्तन खंड मोचन की इक्विटी पर एक अवरोध था।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • यह पाया गया कि बंधक विलेख संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 58 (c) के तहत सशर्त विक्रय द्वारा बंधक के सभी तत्त्वों को संतुष्ट करता है।
    • यह पाया गया कि वादी द्वारा कब्जे से संव्यवहार की प्रकृति का खंडन नहीं होता।
  • अवर न्यायालयों की आलोचना की गई:
    • कब्ज़े पर अनावश्यक ज़ोर देना।
    • बंधक विलेख की स्पष्ट शर्तों की अनदेखी करना।
    • पक्षों के स्पष्ट आशय की अनदेखी करना।
  • यह उल्लेख किया गया कि वादी निम्नलिखित में असफल रहा:
    • न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से साक्ष्य देने में।
    • भुगतान के प्रयास का विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत करने में।
    • छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता, 1959 की धारा 165 की प्रयोज्यता स्थापित करने में।
  • अंततः अपील स्वीकार कर ली गई और:
    • ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों के निर्णय को खारिज कर दिया।
    • वादी के वाद को खारिज कर दिया।
    • ट्रायल कोर्ट को जमा की गई राशि ब्याज सहित वापस करने का निर्देश दिया।
  • उच्चतम न्यायालय ने मूलतः पूर्ववर्ती न्यायालयों की व्याख्या को पलट दिया तथा बंधक विलेख के बारे में प्रतिवादी की समझ के पक्ष में निर्णय दिया।

बंधक क्या है?

  • TPA की धारा 58 (a) के तहत बंधक को किसी विशिष्ट स्थावर संपत्ति में हित के अंतरण के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसका उद्देश्य ऋण के रूप में अग्रिम या दिये जाने वाले धन का भुगतान, मौजूदा या भविष्य का ऋण, या किसी ऐसे कार्य का निष्पादन जिससे आर्थिक (मौद्रिक) दायित्व उत्पन्न हो सकता है।
  • अंतरक को बंधककर्त्ता, अंतरिती को बंधकदार कहा जाता है; वह मूलधन और ब्याज जिसका भुगतान कुछ समय के लिये सुरक्षित है, बंधक-धन कहलाता है, तथा वह लिखत (यदि कोई हो) जिसके द्वारा अंतरण किया जाता है, बंधक-विलेख कहलाता है।

सादा बंधक और सशर्त विक्रय द्वारा बंधक के बीच क्या अंतर है?

पहलू

सादा बंधक

सशर्त विक्रय द्वारा बंधक

परिभाषा (धारा)

TPA की धारा 58(b) के तहत परिभाषित

TPA की धारा 58(c) के तहत परिभाषित

संव्यवहार की प्रकृति

बंधककर्त्ता संपत्ति का कब्ज़ा दिये बिना ऋण चुकाने के लिये स्वयं को व्यक्तिगत रूप से बाध्य करता है।

बंधककर्त्ता, बंधक रखी गई संपत्ति को, भुगतान न करने या डिफाॅल्ट होने की शर्त के साथ बेचता है।

कब्ज़ा और उपभोग

बंधककर्त्ता के साथ बने रहता है

संपत्ति का कब्ज़ा विक्रय और पुनर्भुगतान की शर्तों से संबंधित होता है

डिफाॅल्ट के संबंध में शर्त

यदि ऋण का भुगतान नहीं किया जाता है तो बंधककर्त्ता को न्यायालय के माध्यम से संपत्ति बेचने का अधिकार होता है।

पुनर्भुगतान की स्थिति के आधार पर विक्रय पूर्ण, शून्य हो जाता है, या संपत्ति पुनः अंतरित कर दी जाती है।

स्वामित्व या कब्ज़े का वितरण

संपत्ति का स्वामित्व या कब्जा नहीं दिया जाएगा।

स्वामित्व पुनर्भुगतान की शर्तों पर निर्भर करते हुए दृश्यमान विक्रय।

पुरोबंध

कोई पुरोबंध नहीं।

इसका उपाय पुरोबंध है।

विक्रय की शक्ति

केवल न्यायालय के माध्यम से ही प्रयोग किया जाता है।

विक्रय की कोई शक्ति नहीं; उपाय पुरोबंध में निहित है।

रजिस्ट्रीकरण की आवश्यकताएँ

रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा प्रभावित होना चाहिये।

अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण केवल तभी होगा जब राशि 500 ​​रुपए से अधिक हो।

शामिल दस्तावेज़

निर्दिष्ट नहीं है लेकिन रजिस्ट्रीकरण की आवश्यकता होती है।

विक्रय और पुनर्भुगतान की शर्तों को शामिल करने वाला एक ही दस्तावेज़ होना चाहिये।

बंधककर्त्ता का व्यक्तिगत दायित्व

बंधककर्त्ता पुनर्भुगतान के लिये व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार होता है।

ऋण चुकाने के लिये बंधककर्त्ता की कोई व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी नहीं होती।

बंधकदार के उपाय

  • बंधककर्त्ता के विरुद्ध धन संबंधी आदेश प्राप्त करें।
  • संपत्ति के विक्रय के लिये डिक्री प्राप्त करें।

इसका उपाय केवल पुरोबंध होता है।

 

मोचन पर रोक क्या है?

  • रोक का अर्थ प्रतिबंध है।
  • मोचन के अधिकार पर कोई भी प्रतिबंध अमान्य और आरंभ से ही शून्य होता है।
  • यह बंधक विलेख में उसके अधिकारों के विरुद्ध कोई प्रतिबंधात्मक शर्तें डालकर बंधककर्त्ता के विरुद्ध किया जाने वाला कार्य है।
  • मोचन पर रोक केवल न्यायालय के आदेश पारित होने के पश्चात ही लागू की जा सकती है, अन्यथा नहीं।
  • मोचन पर रोक केवल तभी लागू हो सकती है जब बंधककर्त्ता का मोचन का अधिकार पूरी तरह समाप्त हो जाए।