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आपराधिक कानून
भोपाल गैस त्रासदी
12-Dec-2024
आलोक प्रताप सिंह (मृतक) रेम बनाम भारत संघ एवं अन्य “भोपाल गैस त्रासदी के 40 वर्ष बाद, उच्च न्यायालय ने अधिकारियों की सुस्ती की आलोचना की और यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री साइट से ज़हरीले अपशिष्ट के तत्काल निपटान का आदेश दिया।” मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति विवेक जैन |
स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री साइट से ज़हरीले अपशिष्ट को न हटाना एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है, हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की जबलपुर पीठ ने विलंब पर कड़ी असहमति जताई है। भोपाल गैस त्रासदी के 40 वर्ष बाद, न्यायालय ने तत्काल सफाई का आदेश दिया और चार सप्ताह के भीतर अनुपालन सुनिश्चित न होने पर ज़िम्मेदार अधिकारियों के विरुद्ध अवमानना के आरोपों सहित सख्त कार्रवाई की धमकी दी। वर्ष 2004 से स्वीकृत योजना और संविदा प्रदान करने सहित कई निर्देशों के बावजूद, बहुत कम प्रगति हुई है, जिससे सार्वजनिक सुरक्षा और संभावित पर्यावरणीय खतरों के बारे में चिंताएँ बढ़ रही हैं।
आलोक प्रताप सिंह (मृतक) रेम बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री साइट, जो 40 वर्ष पहले घटित कुख्यात भोपाल गैस त्रासदी का स्थान था।
- भोपाल गैस त्रासदी पर न्यायालय द्वारा वर्ष 1989, 1991 और 2023 में कई निर्णय पारित किये गए हैं।
- वर्तमान जनहित याचिका (PIL) मूल रूप से वर्ष 2004 में दायर की गई थी, जिसका उद्देश्य फैक्ट्री साइट पर अभी भी मौजूद ज़हरीले अपशिष्ट और रसायनों के संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों की लगातार निष्क्रियता को बताना था।
- इस मामले में मुख्य मुद्दे निम्नलिखित हैं:
- व्यापक विषाक्त संदूषण: हज़ारों टन विषाक्त अपशिष्ट और खतरनाक रसायन परित्यक्त यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री साइट पर अभी भी फेंके गए हैं, जिससे आसपास के भोपाल शहर के लिये पर्यावरणीय और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है।
- लंबे समय से सरकारी निष्क्रियता: अनेक न्यायालयों के निर्देशों तथा मूल जनहित याचिका दायर होने के लगभग दो दशक बीत जाने के बावजूद, साइट की सफाई तथा विषाक्त पदार्थों को हटाने में न्यूनतम प्रगति हुई है।
- वित्तीय आवंटन और संविदात्मक देरी: केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को धनराशि प्रदान की है, जिसमें से राज्य को कथित तौर पर 126 करोड़ रुपए मिले हैं। 23 सितंबर, 2021 को अपशिष्ट हटाने का ठेका दिया गया और ठेकेदार को संविदा राशि का 20% भुगतान किया गया। हालाँकि, सफाई प्रक्रिया शुरू करने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।
- पर्यावरणीय खतरा: विषाक्त अपशिष्ट आसपास की मिट्टी और भूजल को दूषित कर रहा है, जिससे स्थानीय आबादी की सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिये खतरा बना हुआ है।
- कानूनी कार्यवाही में कई हितधारक शामिल हैं, जिनमें भारत संघ, मध्य प्रदेश राज्य सरकार, मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने वाले विभिन्न वकालत समूह शामिल हैं।
- जनहित याचिका में सरकारी प्राधिकारियों को पर्यावरण कानूनों के तहत अपने कानूनी दायित्वों को पूरा करने तथा ज़हरीले अपशिष्ट को साफ करने और यूनियन कार्बाइड फैक्टरी साइट को संदूषित करने के लिये व्यापक उपचारात्मक उपाय करने के लिये बाध्य करने की मांग की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने इस मुकदमे की लंबी प्रकृति पर गंभीरता से विचार करते हुए कहा कि वर्ष 2004 में जनहित याचिका दायर किये जाने के बावजूद, लगभग 20 वर्ष बीत चुके हैं और प्रतिवादी पर्यावरणीय खतरे से निपटने के प्रारंभिक चरण में ही हैं।
- उच्च न्यायालय ने संयंत्र साइट से विषाक्त अपशिष्ट को हटाने, MIC और सेविन संयंत्रों को बंद करने तथा आसपास की मिट्टी और भूजल में फैले प्रदूषकों से निपटने को भोपाल शहर में सार्वजनिक सुरक्षा के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया है।
- न्यायालय ने निरंतर निष्क्रियता की स्थिति पर महत्त्वपूर्ण न्यायिक अप्रसन्नता व्यक्त की तथा कहा कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों के कई निर्देशों के बावजूद, संविदा दिये जाने और धन आवंटित किये जाने के बाद भी, विषाक्त अपशिष्ट/सामग्री को हटाने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
- न्यायिक पीठ ने कहा कि यदि तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई नहीं की गई तो एक और पर्यावरणीय त्रासदी की संभावना है। उन्होंने मूल भोपाल गैस त्रासदी की 40वीं वर्षगाँठ पर मामले की गंभीरता को रेखांकित किया।
- न्यायालय ने सरकारी जवाबों में विसंगतियाँ पाईं तथा केन्द्र सरकार के इस दावे पर गौर किया कि उसने राज्य सरकार को अपना हिस्सा दे दिया है, जबकि राज्य सरकार ने दावा किया कि उसे 126 करोड़ रुपए प्राप्त हो गए हैं तथा उसने ठेका भी दे दिया है, फिर भी कोई सार्थक कार्रवाई शुरू नहीं की गई है।
- न्यायिक टिप्पणियों में उठाए गए न्यूनतम कदमों की तीखी आलोचना की गई तथा सरकारी प्रतिक्रिया को अपर्याप्त बताया गया तथा कहा गया कि निरंतर विलंब और निष्क्रियता के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है।
- न्यायालय ने व्यापक पर्यावरणीय सुधार की आवश्यकता, पर्यावरण कानूनों के तहत राज्यों के कानूनी दायित्वों और विषाक्त पदार्थों के सुरक्षित निपटान की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता को स्पष्ट रूप से मान्यता दी।
- पीठ ने विशिष्ट समयसीमा के मुद्दों पर ध्यान दिया और कहा कि राज्य सरकार द्वारा 20 मार्च, 2024 को प्रस्तुत योजना में सफाई के लिये न्यूनतम 185 दिन और अधिकतम 377 दिन का समय दर्शाया गया था, फिर भी कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है।
भोपाल गैस त्रासदी का समय क्या था?
एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986)
तथ्य:
- श्रीराम फूड्स एंड फर्टिलाइज़र इंडस्ट्रीज़ का संयंत्र घनी आबादी वाले क्षेत्र में स्थित था, जिसके 3 किलोमीटर के दायरे में लगभग 200,000 लोग निवास करते थे।
- दिसंबर 1985 में संयंत्र से ओलियम गैस के रिसाव की घटनाएँ हुईं, जिससे वहाँ के निवासी प्रभावित हुए तथा सुरक्षा संबंधी चिंताएँ उत्पन्न हुईं।
- संयंत्र वर्ष 1949 में चालू किया गया था, और इसके सुरक्षा उपायों को वर्ष 1985 में भोपाल आपदा तक अद्यतन नहीं किया गया था।
- संयंत्र की सुरक्षा का आकलन करने और सुधार सुझाने के लिये कई विशेषज्ञ समितियाँ गठित की गईं।
- इस मामले में मुद्दा यह था कि क्या घनी आबादी वाले क्षेत्र में स्थित श्रीराम फूड्स एंड फर्टिलाइज़र इंडस्ट्रीज़ के कास्टिक क्लोरीन संयंत्र को समुदाय के लिये संभावित खतरे और जोखिम को देखते हुए पुनः शुरू किया जा सकता है?
टिप्पणी:
- न्यायालय ने क्लोरीन गैस रिसाव के खतरे तथा इसके गंभीर परिणामों की संभावना को स्वीकार किया।
- न्यायालय को श्रीराम प्रबंधन द्वारा संयंत्र के रखरखाव और संचालन में लापरवाही के सबूत मिले।
- न्यायालय ने सुरक्षा उपायों और विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के पालन के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
- न्यायालय ने माना कि दीर्घकालिक समाधान संयंत्र को स्थानांतरित करने में निहित है, लेकिन परिचालन पुनः आरंभ करने के संबंध में तत्काल निर्णय लेने की आवश्यकता को भी स्वीकार किया।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने इस मामले में पूर्ण दायित्व के सिद्धांत को स्पष्ट रूप से मान्यता दी, जिसके अनुसार जो लोग खतरनाक गतिविधियों में संलग्न हैं, वे किसी भी प्रकार की हानि के लिये उत्तरदायी हैं, चाहे गलती किसी की भी हो।
यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ (UOI) एवं अन्य (1989)
तथ्य:
- 3 दिसंबर, 1984 को भारत के भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (UCIL) के कीटनाशक संयंत्र में भयावह गैस रिसाव हुआ।
- भारी मात्रा में ज़हरीली मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस निकली, जिसने संयंत्र के आसपास के घनी आबादी वाले क्षेत्रों को अपनी चपेट में ले लिया।
- इसका तात्कालिक प्रभाव विनाशकारी था, जिसमें हज़ारों लोगों की जान चली गई तथा अनगिनत लोग गंभीर रूप से घायल हो गए।
- इसके दीर्घकालिक परिणाम भी उतने ही दुखद रहे हैं, तथा बचे हुए लोगों को लगातार स्वास्थ्य समस्याओं और पर्यावरण प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है।
- इसके बाद कानूनी लड़ाइयाँ शुरू हो गईं और भारतीय तथा अमेरिकी दोनों न्यायालयों में मामले दायर किये गए।
- अंततः वर्ष 1989 में समझौता हो गया, लेकिन पीड़ितों को प्रदान किया गया मुआवज़ा अपर्याप्त बताकर उसकी व्यापक आलोचना की गई।
टिप्पणी:
- भोपाल गैस रिसाव त्रासदी के पीड़ितों के लिये न्यायालय द्वारा अनुमोदित समझौता निम्नलिखित विचारों पर आधारित था:
- पीड़ित व्यक्तियों को तत्काल अनुतोष।
- न्यायिक प्रक्रिया में निहित अनिश्चितताएँ और विलंब।
- मृत्यु और गंभीर व्यक्तिगत चोटों की संख्या का प्रथम दृष्टया अनुमान।
- आपदा की प्रकृति के कारण मुआवज़े के उच्च मानकों को लागू करने की आवश्यकता।
- न्यायालय ने अति-खतरनाक प्रौद्योगिकियों और सख्त दायित्व से संबंधित व्यापक कानूनी सिद्धांतों को संबोधित करने में समझौते की सीमाओं को स्वीकार किया।
- न्यायालय ने ऐसे खतरनाक कार्यों से सुरक्षा के लिये एक राष्ट्रीय नीति विकसित करने के महत्त्व पर बल दिया है।
यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ (UOI) एवं अन्य (1991)
तथ्य:
- यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन ने भारतीय रेड क्रॉस सोसाइटी (IRCS) के माध्यम से पीड़ितों को अंतरिम अनुतोष के रूप में 5 मिलियन डॉलर की पेशकश की।
- एक अमेरिकी न्यायालय के आदेश में निर्देश दिया गया कि यह राशि अंतिम निपटान में जमा कर दी जाएगी।
- बाद में, भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ 470 मिलियन डॉलर में मामला सुलझा लिया।
- IRCS ने दावा किया कि 5 मिलियन डॉलर एक अलग निधि थी और समझौते का हिस्सा नहीं थी।
न्यायालय की टिप्पणी:
- अमेरिकी न्यायालय के आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि 5 मिलियन डॉलर किसी अंतिम निर्णय के विरुद्ध अग्रिम भुगतान या ऋण था।
- निधि की प्रकृति के संबंध में IRCS और अमेरिकन रेड क्रॉस के बीच किसी भी समझौते से अमेरिकी न्यायालय के आदेश में कोई बदलाव नहीं होगा।
- न्यायालय ने IRCS की अर्ज़ी खारिज कर दी।
- 5 मिलियन डॉलर का बचा हुआ हिस्सा भोपाल गैस अनुतोष कोष का हिस्सा बन जाता है।
यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ (UOI) एवं अन्य (2023)
तथ्य:
- भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (UCC) के विरुद्ध अमेरिका में मुकदमा दायर किया, लेकिन मामला खारिज कर दिया गया और विवाद भारतीय न्यायालयों में स्थानांतरित हो गया।
- वर्ष 1989 में एक समझौता हुआ, जिसमें UCC ने पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिये भारत सरकार को 470 मिलियन डॉलर का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की।
- भारत संघ ने उस मामले को फिर से खोलने और बढ़े हुए मुआवज़े की मांग करने के लिये यह मुकदमा दायर किया।
टिप्पणी:
- न्यायालय ने परिस्थितियों और तत्काल अनुतोष की आवश्यकता को देखते हुए समझौता राशि को उचित माना।
- न्यायालय ने भविष्य में पीड़ितों द्वारा दावे की संभावना को स्वीकार किया, जिनमें बाद में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
- न्यायालय ने भारत सरकार पर यह ज़िम्मेदारी डाली कि वह पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान करे, भले ही निपटान राशि अपर्याप्त साबित हो।
- न्यायालय ने कानूनी मामलों में अंतिमता के महत्त्व पर ज़ोदिया, विशेषकर उन मामलों में जिनमें विलंब होता है।
- न्यायालय ने भारत संघ द्वारा दायर सुधारात्मक याचिकाओं को खारिज कर दिया, क्योंकि वे वैध कानूनी आधार पर आधारित नहीं थीं और अंतिमता तथा पूर्वन्याय के सिद्धांतों को कमज़ोर करतीं।
- न्यायालय ने वर्ष 1989 के समझौते को बरकरार रखा, तथा मामले को फिर से खोलने के भारत संघ के प्रयास को खारिज कर दिया। न्यायालय ने अंतिम निर्णय की आवश्यकता तथा पीड़ितों को तत्काल अनुतोष प्रदान करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
आपराधिक कानून
POSH अधिनियम के तहत जाँच प्रक्रिया
12-Dec-2024
सुश्री X बनाम भारत संघ एवं अन्य "इस मामले के तथ्यों के आधार पर जहाँ जाँच रिपोर्ट याचिकाकर्त्ता को नहीं दी गई है, वहाँ स्पष्ट रूप से अधिनियम की धारा 13 का उल्लंघन हुआ है। इसलिये हम 25,000 रुपए का जुर्माना लगाते हैं, जो सीमा सुरक्षा बल द्वारा याचिकाकर्त्ता को दिया जाएगा।" न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, सुश्री X बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH) के तहत उचित प्रक्रिया का पालन करने के लिये जाँच रिपोर्ट की प्रति परिवादी को दी जानी चाहिये।
सुश्री X बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
यह मामला सीमा सुरक्षा बल (BSF) में कार्यरत एक महिला कांस्टेबल से संबंधित है, जिसने एक वरिष्ठ अधिकारी के विरुद्ध यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी।
- प्रारंभिक शिकायत और प्रथम जाँच:
- याचिकाकर्त्ता (कांस्टेबल) ने एक BSF अधिकारी के विरुद्ध यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी।
- POSH अधिनियम के तहत प्रारंभिक जाँच की गई।
- इस प्रथम जाँच में कोई कार्रवाई नहीं हुई तथा अभियुक्त अधिकारी को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया।
- अनुवर्ती कार्यवाही:
- मामला महानिरीक्षक के पास पहुँचा दिया गया।
- नए सिरे से जाँच करने के लिये एक सामान्य सुरक्षा बल का गठन किया गया।
- इस बार जाँच सीमा सुरक्षा बल अधिनियम, 1968 (BSFA) के तहत की गई।
- विस्तृत जाँच के बाद अभियुक्त अधिकारी को निम्नलिखित दंड दिये गए:
- 89 दिन का कठोर कारावास।
- पदोन्नति के उद्देश्य से 5 वर्ष की सेवा का समपहरण।
- पेंशन के उद्देश्य से 5 वर्ष की पिछली सेवा का समपहरण।
- दंड के बाद का परिदृश्य:
- दंड लागू किया गया।
- अभियुक्त अधिकारी ने आदेश के विरुद्ध अपील दायर नहीं की।
- याचिकाकर्त्ता दंड से असंतुष्ट थी और उसे लगा कि POSH अधिनियम के तहत उचित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया।
- इस निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान रिट याचिका उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
- प्रक्रियागत उल्लंघन
- न्यायालय ने POSH अधिनियम की धारा 13(1) का स्पष्ट उल्लंघन पाया।
- जाँच रिपोर्ट याचिकाकर्त्ता को नहीं दी गई, जिसे अनिवार्य रूप से "संबंधित पक्षों" के साथ साझा किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता (पीड़ित) को "संबंधित पक्ष" माना, जिसे रिपोर्ट मिलनी चाहिये थी।
- सज़ा का आकलन
- न्यायालय ने पाया कि अभियुक्त कर्मचारी को पहले ही सज़ा दी जा चुकी है।
- न्यायालय ने महसूस किया कि मौजूदा सज़ा "न्याय के उद्देश्यों को पूरा करती है"।
- प्रक्रियागत उल्लंघन को संबोधित करने के अलावा कोई और कार्रवाई आवश्यक नहीं समझी गई।
- अननुपालन के लिये जुर्माना
- न्यायालय ने BSF पर 25,000 रुपए का जुर्माना लगाया।
- यह जुर्माना सीधे याचिकाकर्त्ता को दिया जाना था।
- यह जुर्माना विशेष रूप से POSH अधिनियम की धारा 13 का उल्लंघन करने के लिये था।
- उच्चतम न्यायालय ने किसी अतिरिक्त कार्रवाई या हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं समझी; मौजूदा दंड को पर्याप्त माना गया।
- प्रक्रियागत उल्लंघन
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न क्या है?
- किसी भी प्रकार की अवांछित यौन पहल, यौन अनुग्रह के लिये अवांछित अनुरोध या यौन प्रकृति का कोई अन्य अवांछित आचरण जो किसी व्यक्ति को अपमानित या भयभीत महसूस कराता है, उसे यौन उत्पीड़न माना जा सकता है।
POSH अधिनियम की धारा 13 क्या है?
यह धारा जाँच रिपोर्ट के बारे में बताती है।
- जाँच रिपोर्ट प्रस्तुत करना (उपधारा 1)
- ज़िम्मेदार संस्थाओं की रिपोर्टिंग
- आंतरिक समिति।
- स्थानीय समिति।
- ज़िम्मेदार संस्थाओं की रिपोर्टिंग
- प्रस्तुत करने की आवश्यकताएँ
- निष्कर्षों की रिपोर्ट प्रस्तुत करना:
- नियोक्ता।
- ज़िला अधिकारी।
- समयसीमा: जाँच पूरी होने के 10 दिनों के भीतर।
- सभी संबंधित पक्षों को अनिवार्य प्रकटीकरण।
- निष्कर्ष और अनुशंसाएँ (उपखंड 2)
- नकारात्मक खोज का परिदृश्य
- यदि प्रतिवादी के विरुद्ध कोई आरोप साबित नहीं होता है।
- सिफारिश: कोई कार्रवाई की आवश्यकता नहीं है।
- संप्रेषित किया जाता है:
- नियोक्ता।
- ज़िला अधिकारी।
- निष्कर्षों की रिपोर्ट प्रस्तुत करना:
- निष्कर्ष और अनुशंसाएँ (उपधारा 3)
- सकारात्मक खोज का परिदृश्य
- यदि प्रतिवादी के विरुद्ध आरोप सिद्ध हो जाता है।
- नियोक्ता/ज़िला अधिकारी को सिफारिशें:
- अनुशासनात्मक कार्रवाई
- यौन उत्पीड़न को कदाचार मानकर कार्रवाई करना।
- प्रतिवादियों पर लागू होने वाले सेवा नियम लागू करना।
- यदि कोई सेवा नियम मौजूद नहीं है, तो निर्धारित तरीके का पालन करना।
- वित्तीय मुआवज़ा
- प्रतिवादी के वेतन से उचित राशि कम कर लेना।
- भुगतान किया जाएगा:
- पीड़ित महिला को।
- पीड़ित महिलाओं के कानूनी उत्तराधिकारी को।
- मुआवज़े के लिये विशेष प्रावधान
- यदि नियोक्ता निम्नलिखित कारणों से वेतन नहीं काट सकता:
- प्रतिवादी का ड्यूटी से अनुपस्थित रहना।
- रोज़गार की समाप्ति।
- विकल्प: प्रतिवादी को राशि का भुगतान करने का निर्देश देना।
- पुनर्प्राप्ति तंत्र
- यदि प्रतिवादी भुगतान करने में असफल रहता है:
- समिति वसूली के लिये आदेश भेज सकती है।
- वसूली को भू-राजस्व बकाया माना जाएगा।
- संबंधित ज़िला अधिकारी के माध्यम से प्रक्रिया की जाएगी।
- सकारात्मक खोज का परिदृश्य
- कार्यान्वयन की समयसीमा (उपधारा 4)
- नियोक्ता/ज़िला अधिकारी को सिफारिशों पर कार्रवाई करनी होगी।
- समयसीमा: रिपोर्ट प्राप्त होने के 60 दिनों के भीतर।
विशाखा दिशानिर्देश
आपराधिक कानून
SC/ST अधिनियम की धारा 3(1) के तहत अपराध
12-Dec-2024
रवींद्र कुमार छतोई बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य "कथित कृत्य को सार्वजनिक दृष्टि में किसी भी सार्वजनिक स्थान पर नहीं किया गया है।" न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि जहाँ कथित कथन निजी घर के पिछवाड़े में दिया गाय था, वहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि यह कृत्य किसी सार्वजनिक स्थान पर किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने रवींद्र कुमार छतोई बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य के मामले में यह निर्णय सुनाया।
रवींद्र कुमार छतोई बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में अपीलकर्त्ता ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 294 और धारा 506 के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC & ST (POA) अधिनियम) की धारा 3 (1) (x) के तहत एक आपराधिक शिकायत दर्ज की।
- जिस घटना की शिकायत की गई है वह अपीलकर्त्ता के घर के पिछले हिस्से में घटित हुई।
- अपीलकर्त्ता का मामला यह है कि परिवादी अपने कर्मचारियों के साथ उसके घर के पिछवाड़े में प्लास्टर करने के लिये घुस आई थी और उसने बिना किसी अनुमति के अपीलकर्त्ता की संपत्ति में अतिचार कर लिया था, जिसके कारण अपीलकर्त्ता ने ये शब्द कहे होंगे।
- अपीलकर्त्ता ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 239 के तहत रिहाई के लिये आवेदन दायर किया।
- इस आवेदन को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के साथ-साथ उच्च न्यायालय ने भी खारिज कर दिया था।
- इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि यदि धारा 3 के तहत कोई अपराध माना जाता है तो यह साबित करना होगा कि ये शब्द अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 के अनुसार किसी सार्वजनिक स्थान पर कहे गए थे, जैसा कि संशोधन से पहले था।
- न्यायालय ने कहा कि घटनास्थल एक निजी घर का पिछवाड़ा था, जिसे सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं कहा जा सकता।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि इन परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्त्ता का कथित कथन किसी सार्वजनिक स्थान पर था।
- इस प्रकार, न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया।
SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 क्या है?
परिचय:
- SC/ST अधिनियम 1989 संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जो SC & ST समुदायों के सदस्यों के विरुद्ध भेदभाव का निषेध करने तथा उनके विरुद्ध अत्याचार को रोकने के लिये बनाया गया है।
- यह अधिनियम 11 सितम्बर, 1989 को भारतीय संसद में पारित किया गया तथा 30 जनवरी, 1990 को अधिसूचित किया गया।
- यह अधिनियम इस निराशाजनक वास्तविकता को भी स्वीकार करता है कि अनेक उपाय करने के बावजूद अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को उच्च जातियों के हाथों विभिन्न प्रकार के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है।
- यह अधिनियम भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 15, 17 और 21 में उल्लिखित संवैधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए लागू किया गया है, जिसका दोहरा उद्देश्य - इन कमज़ोर समुदायों के सदस्यों की सुरक्षा करना तथा जाति आधारित अत्याचारों के पीड़ितों को अनुतोष और पुनर्वास प्रदान करना है।
SC/ST (संशोधन) अधिनियम, 2015:
- इस अधिनियम को और अधिक कठोर बनाने के उद्देश्य से वर्ष 2015 में निम्नलिखित प्रावधानों के साथ संशोधित किया गया:
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिक मामलों को अपराध के रूप में मान्यता दी गई।
- इसने धारा 3 में कई नए अपराध जोड़े तथा संपूर्ण धारा को पुनः क्रमांकित किया, क्योंकि मान्यता प्राप्त अपराध लगभग दोगुना हो गया।
- अधिनियम में अध्याय IVA की धारा 15A (पीड़ितों और गवाहों के अधिकार) को जोड़ा गया, तथा अधिकारियों द्वारा कर्तव्य की उपेक्षा और जवाबदेही तंत्र को अधिक सटीक रूप से परिभाषित किया गया।
- इसमें विशेष न्यायालयों और विशेष सरकारी अभियोजकों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- सभी स्तरों पर लोक सेवकों के संदर्भ में इस अधिनियम में जानबूझकर की गई लापरवाही शब्द को परिभाषित किया गया है।
SC/ST (संशोधन) अधिनियम, 2018:
- पृथ्वीराज चौहान बनाम भारत संघ (2020) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने अत्याचार निवारण अधिनियम में संसद के वर्ष 2018 संशोधन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इस संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- इसने मूल अधिनियम में धारा 18A जोड़ी।
- इसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध विशिष्ट अपराधों को अत्याचार के रूप में वर्णित किया गया है तथा इन कृत्यों से निपटने के लिये रणनीतियों का वर्णन और दंड का प्रावधान किया गया है।
- यह बताता है कि कौन से कृत्य "अत्याचार" माने जाते हैं और अधिनियम में सूचीबद्ध सभी अपराध संज्ञेय हैं। पुलिस बिना वारंट के अपराधी को गिरफ़्तार कर सकती है और न्यायालय से कोई आदेश लिये बिना मामले की जाँच शुरू कर सकती है।
- अधिनियम में सभी राज्यों से प्रत्येक ज़िले में विद्यमान सत्र न्यायालय को विशेष न्यायालय में परिवर्तित करने का आह्वान किया गया है, ताकि इसके अंतर्गत पंजीकृत मामलों की सुनवाई की जा सके तथा विशेष न्यायालयों में मामलों की सुनवाई के लिये लोक अभियोजकों/विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
- इसमें राज्यों के लिये प्रावधान किया गया है कि वे उच्च स्तर की जातिगत हिंसा वाले क्षेत्रों को "अत्याचार-प्रवण" घोषित करें तथा कानून और व्यवस्था की निगरानी और उसे बनाए रखने के लिये योग्य अधिकारियों की नियुक्ति करें।
- इसमें गैर-SC/ST लोक सेवकों द्वारा जानबूझकर अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने पर दंड का प्रावधान है।
- इसका कार्यान्वयन राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेश प्रशासनों द्वारा किया जाता है, जिन्हें उचित केन्द्रीय सहायता प्रदान की जाती है।
SC/ST अधिनियम की धारा 3(1) क्या है?
SC/ST अधिनियम की धारा 3(1) में निम्नलिखित अपराधों का प्रावधान है:
खंड |
निषिद्ध कार्य |
विवरण |
दंड |
(a) |
अखाद्य/अप्रिय पदार्थों के सेवन के लिये मजबूर करना |
इसमें ऐसे पदार्थों को मुँह में डालना या जबरदस्ती सेवन कराना शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(b) |
परिसर में अप्रिय पदार्थ फेंकना |
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के परिसर में या उसके निकट मल, शव आदि डालना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(c) |
पड़ोस में अप्रिय पदार्थ फेंकना |
अपमान या परेशानी उत्पन्न करने के आशय से। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(d) |
जूतों की माला पहनाना या नग्न/अर्द्धनग्न होकर परेड करना |
SC/ST सदस्यों के विरुद्ध। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(e) |
अपमानजनक कार्य करने के लिये मजबूर करना |
इसमें जबरन सिर मुंडवाना, शरीर पर पेंटिंग करना, कपड़े उतारना आदि शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(f), (g) |
भूमि पर गलत कब्ज़ा/बेदखल करना |
इसमें इच्छा के विरुद्ध भूमि पर कब्ज़ा करना, दबाव में सहमति प्राप्त करना, या अभिलेखों में हेराफेरी करना शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(h) |
जबरन बेगार, बंधुआ या बलपूर्वक श्रम कराना |
सरकार द्वारा लगाई गई अनिवार्य सार्वजनिक सेवा के अलावा। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(i) |
शवों को नष्ट करने या कब्र खोदने के लिये मजबूर करना |
SC/ST सदस्यों के विरुद्ध। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(j) |
मैला ढोने के लिये मजबूर करना |
ऐसी गतिविधियों को नियोजित करना या अनुमति देना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(k) |
महिलाओं को देवदासी या इसी तरह की प्रथाओं के रूप में समर्पित करना |
इसमें ऐसी प्रथाओं को बढ़ावा देना भी शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(l) |
चुनावों में मतदान/नामांकन के लिये बाध्य करना या रोकना |
इसमें जबरदस्ती, धमकी या रोकथाम शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(m) |
निर्वाचित SC/ST प्रतिनिधियों के कर्तव्यों में बाधा डालना |
पंचायतों या नगर पालिकाओं में। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(n) |
चुनाव-पश्चात हिंसा |
नुकसान पहुँचाना, बहिष्कार करना, या सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच को रोकना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(o) |
मतदान व्यवहार के कारण अपराध |
इसमें किसी विशिष्ट उम्मीदवार को वोट देने या न देने पर हिंसा शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(p) |
झूठी कानूनी कार्यवाही |
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध दुर्भावनापूर्ण या परेशान करने वाले मामले। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(q) |
लोक सेवकों को गलत जानकारी प्रदान करना |
जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को चोट या परेशानी हो। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(r), (s) |
सार्वजनिक रूप से अपमान या गाली देना |
इसमें सार्वजनिक रूप से अपमान, धमकी या जाति-आधारित दुर्व्यवहार शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(t) |
पवित्र वस्तुओं को अपवित्र करना |
इसमें मूर्तियों, तस्वीरों या चित्रों को नुकसान पहुँचाना भी शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(u) |
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध शत्रुता या दुर्भावना को बढ़ावा देना |
शब्दों, संकेतों या चित्रणों के माध्यम से। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(v) |
श्रद्धेय मृतक व्यक्तियों का अनादर करना |
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों द्वारा उच्च सम्मान प्राप्त व्यक्तियों का अनादर करना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(w) |
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति महिलाओं का यौन उत्पीड़न |
इसमें बिना सहमति के यौन प्रकृति का स्पर्श या इशारे करना शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(x) |
जल स्रोतों को दूषित करना |
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के उपयोग के लिये जल को अनुपयुक्त बनाना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(y) |
सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश से इनकार करना |
इसमें सार्वजनिक संसाधनों के उपयोग या मार्ग में बाधा डालना भी शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(z) |
जबरदस्ती बेदखल करना |
सार्वजनिक कर्तव्य मामलों को छोड़कर, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को अपना निवास छोड़ने के लिये मजबूर करना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(za) |
साझा संसाधनों के उपयोग में बाधा डालना |
इसमें कब्रिस्तान, स्नान स्थल, सार्वजनिक सड़कें और पूजा स्थल शामिल हैं। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(zb) |
जादू-टोने के आरोप लगाना |
ऐसे आरोपों के आधार पर नुकसान पहुँचाना। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
(zc) |
सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार |
इसमें ऐसे बहिष्कार की धमकियाँ या वास्तविक रूप से लागू करना भी शामिल है। |
कारावास (6 महीने से 5 वर्ष) + जुर्माना |
- उल्लेखनीय है कि दिनांक 26 जनवरी, 2016 के संशोधन से पहले, धारा 3 (1) (x) में निम्नलिखित प्रावधान थे:
- इस अपराध में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य का जानबूझकर अपमान करना या उसे डराना शामिल है।
- यह उस व्यक्ति द्वारा किया जाएगा जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का नहीं है।
- उपर्युक्त कथित कृत्य किसी सार्वजनिक स्थान पर किया गया होगा।
- अपराधी को कम-से-कम छह महीने से लेकर पाँच वर्ष तक की कैद और जुर्माने की सज़ा हो सकती है।