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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

POCSO अधिनियम के तहत कार्यवाही को रद्द करना

 19-Dec-2024

अखिल मोहनन बनाम केरल राज्य

POCSO अधिनियम के तहत गंभीर अपराधों से जुड़ी कार्यवाही को पक्षों के बीच हुए समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।”

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन की पीठ ने कहा कि POCSO अधिनियम के तहत गंभीर अपराधों से जुड़ी कार्यवाही को पक्षों के बीच हुए समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।      

  • केरल उच्च न्यायालय ने अखिल मोहनन बनाम केरल राज्य (2024) मामले में यह निर्णय सुनाया।

अखिल मोहनन बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि पीड़िता की आयु 17 वर्ष है और B.Sc रसायन विज्ञान की पढ़ाई के दौरान उसकी अभियुक्त से पहचान हुई थी।
  • अभियुक्त ने पीड़िता से विवाह का वचन किया था।
  • 14 फरवरी, 2021 को जब पीड़िता के माता-पिता अपने काम पर गए हुए थे, तो अभियुक्त पीड़िता के घर आया।
  • वह आइसक्रीम लेकर पीड़िता के घर पहुँचा और उसके बाद उसे यौन संबंध बनाने के लिये मजबूर किया।
  • उसने विवाह के वचन के प्रति पीड़िता के प्रतिरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए उसके साथ ज़बरदस्ती यौन संबंध बनाए।
  • उसने बाद की तिथियों में भी यही जारी रखा।
  • अभियोजन पक्ष ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 450, 376 (2) (n), 354, 354A (1) (i), 354D (1) (i), 354D (1) (ii), के साथ पठित लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) की धारा 4 को 3, 6 (1) के साथ पठित 5 (1) के साथ पठित, 8 को 7 के साथ पठित, 10 को 9 (1) के साथ पठित, 12 को 11 (iv) के साथ पठित, धारा 15 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT अधिनियम) की धारा 66 E के तहत अपराध किये जाने का आरोप लगाया।
  • अभियुक्त ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत उसके विरुद्ध कार्यवाही को रद्द करने की मांग की।
    • अभियुक्त द्वारा दृढ़तापूर्वक यह दलील दी गई है कि लगाए गए आरोप झूठे हैं तथा प्रथम दृष्टया अभियुक्त के विरुद्ध कोई भी अपराध नहीं बनता है।
    • उपरोक्त के लिये अभियुक्त ने विजयलक्ष्मी एवं अन्य बनाम राज्य एवं अन्य (2021) में मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला दिया।
    • अभियुक्त का कहना है कि चूँकि वर्तमान मामला ऐसा है, जहाँ संबंध और सहमति से यौन संबंध पक्षकारों की किशोरावस्था के दौरान बने हैं, इसलिये यह कार्यवाही को रद्द करने का उपयुक्त मामला है।
  • इस प्रकार, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह है कि कार्यवाही रद्द की जाए या नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि विजयलक्ष्मी के मामले में अनुपात रामजी लाल बैरवा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2024) के मामले में भी यथावत रखा गया है।
  • इस प्रकार, कानूनी स्थिति यह है कि POCSO अधिनियम के तहत बहुत गंभीर अपराधों से संबंधित आपराधिक कार्यवाही को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि पक्षों ने मामले को सुलझा लिया है।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है।
  • इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी माना कि कार्यवाही को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि दोषसिद्धि की संभावना क्षीण हो गई है, क्योंकि पक्षों के बीच समझौता हो चुका है।
  • इसलिये, वर्तमान तथ्यों को देखते हुए न्यायालय ने CrPC की धारा 482 के तहत कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया।

 POCSO अधिनियम के तहत अपराध क्या हैं?

अपराध

परिभाषा

सज़ा

प्रवेशन लैंगिक हमला (POCSO की धारा 3 और 4 के तहत)

इसमें किसी के लिंग, वस्तु या शरीर के भाग को बालक की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग, या गुदा में घुसाना, या प्रवेश के लिये बालक के शरीर के भाग के साथ छेड़छाड़ करना शामिल है।

कठोर कारावास जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी, जिसे आजीवन या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है, और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमला (POCSO की धारा 5 और 6 के तहत)

इसमें पुलिस, सशस्त्र बलों, लोक सेवकों, कुछ संस्थानों के प्रबंधन/कर्मचारियों द्वारा लैगिक उत्पीड़न, सामूहिक हमला, घातक आयुधों का उपयोग आदि शामिल है।

कठोर कारावास जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी, जिसे आजीवन या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है, और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

 

लैंगिक हमला (POCSO की धारा 7 और 8 के तहत)

जो कोई, लैंगिक आशय से बालक की योनि, लिंग, गुदा या स्तनों को स्पर्श करता है या बालक से ऐसे व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति की योनि, लिंग, गुदा या स्तन का स्पर्श कराता है या लैंगिक आशय से कोई अन्य कार्य करता है जिसमें प्रवेशन किये बिना शारीरिक संपर्क अंतर्ग्रस्त होता है, लैंगिक हमला करता है, यह कहा जाता है।

जो कोई, लैंगिक हमला करेगा वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से जिसकी अवधि तीन वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु जो पाँच वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

गुरुतर लैंगिक हमला (POCSO की धारा 9 और 10 के तहत)

प्रवेशन लैंगिक हमले के समान लेकिन इसमें हथियारों का उपयोग, गंभीर चोट पहुँचाना, मानसिक बीमारी, गर्भावस्था या पिछली सज़ा जैसे गंभीर कारक शामिल हैं।

जो कोई, गुरुतर लैंगिक हमला करेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि पाँच वर्ष से कम की नहीं होगी, किंतु जो सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

लैंगिक उत्पीड़न (POCSO की धारा 11 और 12 के तहत)

लैंगिक संतुष्टि के आशय से किये जाने वाले विभिन्न कार्य जिनमें इशारे, शरीर के अंगों का प्रदर्शन, अश्लील उद्देश्यों के लिये प्रलोभन आदि शामिल हैं।

जो कोई, किसी बालक पर लैंगिक उत्पीड़न करेगा वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

अश्लील प्रयोजनों के लिये बालक का उपयोग (POCSO की धारा 13, 14 और 15 के तहत)

इसमें किसी बालक को अश्लील सामग्री या कृत्यों में कार्य कराना शामिल है। धारा 15 अश्लील सामग्री के भंडारकरण के लिये दण्डित करती है।

कम-से-कम पाँच वर्ष का कारावास, जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

किसी अपराध का दुष्प्रेरण और उसे करने का दुष्प्रेरण ((POCSO की धारा 16, 17 और 18 के तहत)

किसी अपराध के किये जाने का दुष्प्रेरण, साज़िश करना या सहायता करना शामिल है।

दुष्प्रेरण या प्रयत्न की गंभीरता के आधार पर, संबंधित अपराध के लिये सज़ा के अनुसार भिन्नता होती है।

किसी मामले की रिपोर्ट करने या अभिलिखित करने में विफलता (POCSO की धारा 21)

अधिनियम के तहत किसी अपराध की रिपोर्ट करने या उसे अभिलिखित करने में विफलता।

छह महीने तक का कारावास, ज़ुर्माना या दोनों से दण्डनीय होगा।

मिथ्या परिवाद या मिथ्या सूचना (POCSO की धारा 22)

विद्वेषपूर्ण आशय से मिथ्या परिवाद करना या मिथ्या सूचना प्रदान करना।

परिस्थितियों के आधार पर छह महीने तक का कारावास, ज़ुर्माना या दोनों से दण्डनीय।

 कार्यवाही रद्द करने के प्रावधान क्या हैं?

  • CrPC की धारा 482 के तहत प्रावधान लागू करके कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है।
  • यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 में निहित है।
  • इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायालय की इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये, या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये, या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी।
  • यह धारा तीन उद्देश्यों को सूचीबद्ध करती है जिनके लिये उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग कर सकता है:
    • संहिता के तहत किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देना।
    • किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना।
    • न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करना।

POCSO अधिनियम के तहत कार्यवाही रद्द करने के संबंध में क्या कानून है?

  • रामजी लाल बैरवा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2024)
    • वर्तमान मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष POCSO अधिनियम के तहत दर्ज FIR को रद्द करने से संबंधित है।
    • इस मामले में न्यायालय ने मध्य प्रदेश राज्य बनाम लक्ष्मी नारायण (2019) के मामले का उल्लेख किया, जिसमें न्यायालय ने माना कि कोई FIR रद्द करने योग्य है या नहीं, यह निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है:
      • क्या अपराध समाज के विरुद्ध है या अकेले व्यक्ति के विरुद्ध है।
      • अपराध की गंभीरता और यह कैसे किया गया।
      • क्या अपराध किसी विशेष कानून के तहत किया गया है।
      • कार्यवाही का चरण और अभियुक्त ने परिवादी के साथ समझौता कैसे किया।
    • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान तथ्यों के आधार पर अपराध गंभीर प्रकृति के हैं और केवल इस आधार पर FIR को रद्द नहीं किया जा सकता कि पक्षों के बीच समझौता हो गया है।
  • सुनील रायकवार बनाम राज्य एवं अन्य (2021)
    • यह दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि:
      • पीड़िता के पिता को अभियुक्त के साथ विवाद सुलझाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
      • यह बात नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकती कि अभियुक्त पर ऐसे अपराध के लिये मुकदमा चलाया जा रहा है जो समाज की मूल्य प्रणाली को आघात पहुँचाता है और यह ऐसा मामला नहीं है जिसे समझौता योग्य छोटे अपराध के रूप में निपटाने की अनुमति दी जा सके।

सिविल कानून

PhD थीसिस RTI अधिनियम के तहत शामिल नहीं

 19-Dec-2024

राजीव कुमार बनाम CPIO एवं अन्य के माध्यम से केंद्रीय सूचना आयोग (CIC)

दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार, "व्यावसायिक रूप से संवेदनशील या सांपत्तिक जानकारी के बिना PhD थीसिस को RTI अधिनियम के तहत प्रकटीकरण से छूट नहीं दी जा सकती है।"

न्यायमूर्ति संजीव नरूला

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि व्यावसायिक रूप से संवेदनशील या सांपत्तिक जानकारी न रखने वाले PhD थीसिस को RTI अधिनियम, 2005 की धारा 8(1)(d) के तहत प्रकटीकरण से छूट नहीं दी जा सकती।

  • न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने कहा कि प्रतिस्पर्द्धी पदों को नुकसान पहुँचाने के साक्ष्य के बिना बौद्धिक संपदा या वाणिज्यिक मूल्य का मात्र दावा अपर्याप्त है।
  • न्यायालय ने प्रत्येक मामले का उसके गुणागुण के आधार पर मूल्यांकन करते हुए, संवेदनशील सूचना की सुरक्षा के साथ पारदर्शिता और जनहित के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया।

राजीव कुमार बनाम CPIO एवं अन्य के माध्यम से केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राजीव कुमार ने 26 मार्च, 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के लोक सूचना अधिकारी के पास एक ऑनलाइन RTI आवेदन दायर किया, जिसमें श्री उमेश कुमार बागेश्वर द्वारा लिखित "स्टडीज़ ऑन सम नाइट्रोजन फिक्सिंग जीन ऑफ एज़ोटोबैक्टर वाइनलैंडी (Studies on some nitrogen fixing genes of Azotobacter vinelandii)" शीर्षक वाली PhD थीसिस तक पहुँच की मांग की गई थी।
  • विश्वविद्यालय के PIO ने 14 अप्रैल, 2019 को जवाब देते हुए केवल लाइब्रेरियन के उत्तर को आगे बढ़ाया, जिसमें कहा गया था कि थीसिस को दस्तावेज़ तक कोई वास्तविक पहुँच प्रदान किये बिना "पूर्ण रूप से सुरक्षित अभिरक्षा" में रखा गया था।
  • इस जवाब से असंतुष्ट होकर कुमार ने प्रथम अपील दायर की, जिसे 24 मई, 2019 को सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 8(1)(d) का हवाला देते हुए खारिज कर दिया गया।
  • इसके बाद कुमार ने प्रथम अपीलीय प्राधिकरण के निर्णय को चुनौती देते हुए केन्द्रीय सूचना आयोग (CIC) के समक्ष दूसरी अपील दायर की।
  • CIC ने 12 अप्रैल, 2021 को अपना आदेश जारी कर थीसिस तक पहुँच से इनकार करने के विश्वविद्यालय के निर्णय को बरकरार रखा।
  • विचाराधीन PhD थीसिस पहले भी उपलब्ध थी तथा अन्य शैक्षणिक कार्यों में भी इसका उल्लेख किया गया था, जैसा कि याचिका के साथ संलग्न संदर्भों से स्पष्ट होता है।
  • JMIU के नियमों के अनुसार, विशेष रूप से अध्यादेश 9(IX) के नियम 13(b) के अनुसार, विश्वविद्यालय को बिना किसी अपवाद के प्रत्येक PhD थीसिस उपलब्ध कराना आवश्यक है।
  • UGC के वर्ष 2016 के नियमों के अनुसार विश्वविद्यालयों को PhD थीसिस को इनफ्लिबनेट (INFLIBNET) पर जमा करना अनिवार्य है, ताकि वे सभी संस्थानों और विश्वविद्यालयों के लिये सुलभ हो सकें।
  • विश्वविद्यालय ने कहा कि थीसिस ने व्यावसायिक महत्त्व प्राप्त कर लिया है, इसमें बौद्धिक संपदा शामिल है, और यह RTI अधिनियम की धारा 8(1)(d) के तहत छूट के अंतर्गत आता है, जिससे इसे प्रकट नहीं किया जा सकता।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि PhD थीसिस ज्ञान के लिये एक विद्वत्तापूर्ण योगदान का प्रतिनिधित्व करती है और इसका प्राथमिक उद्देश्य अकादमिक चर्चा और आगे के अनुसंधान को सुविधाजनक बनाना है, जिससे इन उद्देश्यों के लिये पारदर्शिता और सुलभता आवश्यक हो जाती है।
  • न्यायालय ने कहा कि JMIU के नियम और UGC के दिशा-निर्देश स्पष्ट रूप से PhD थीसिस की पहुँच को अनिवार्य बनाते हैं, जिसमें कोई छूट या अपवाद नहीं है, जिससे ऐसे दस्तावेजों को पूरी तरह गोपनीय रखने से रोका जा सके।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8(1)(d) के तहत छूट प्राप्त करने के लिये, दो परिक्षण पुरे होने चाहिये: पहला, सूचना वाणिज्यिक गोपनीयता, व्यापार रहस्य या बौद्धिक संपदा की श्रेणियों में आना चाहिये; और दूसरा, इसके प्रकटीकरण से तीसरे पक्ष की प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थिति को स्पष्ट रूप से नुकसान पहुँचना चाहिये।
  • यह स्वीकार करते हुए कि PhD थीसिस को कॉपीराइट संरक्षण प्राप्त है, न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मात्र कॉपीराइट का अस्तित्व स्वतः ही धारा 8(1)(d) को लागू करने का औचित्य नहीं रखता है, क्योंकि कॉपीराइट कानून का उद्देश्य सूचना तक पहुँच को कम करने के बजाय आर्थिक और नैतिक अधिकारों की रक्षा करना है।
  • न्यायालय ने कहा कि विश्वविद्यालय पेटेंट आवेदन दायर होने तक संभावित पेटेंट योग्य आविष्कारों वाली थीसिस तक पहुँच को वैध रूप से प्रतिबंधित कर सकते हैं, लेकिन ऐसी छूट पूर्ण नहीं हैं और RTI अधिनियम के तहत व्यापक लोक हित द्वारा इसे ओवरराइड किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने पाया कि JMIU और CIC के "व्यावसायिक महत्त्व" और "हितधारकों की प्रतिस्पर्द्धी स्थिति" को संभावित नुकसान के दावे काल्पनिक और निराधार थे, जो धारा 8(1)(d) को लागू करने के लिये प्रारंभिक आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहे।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि एक बार थीसिस एक सार्वजनिक विश्वविद्यालय में जमा कर दी जाती है, तो लेखक इसके प्रकटीकरण को रोकने का अधिकार छोड़ देता है क्योंकि यह संस्थान के अकादमिक भंडार का हिस्सा बन जाता है, खासकर जब थीसिस पहले सार्वजनिक रूप से उपलब्ध थी।
  • न्यायालय ने कहा कि RTI अधिनियम के तहत PhD थीसिस के प्रकटीकरण से संबंधित निर्णयों में पारदर्शिता और लोक हित के साथ-साथ वास्तविक रूप से संवेदनशील जानकारी की सुरक्षा के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन की आवश्यकता होती है, जिसके लिये विशिष्ट सामग्री और संदर्भ के आधार पर केस-दर-केस मूल्यांकन आवश्यक है।

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005

  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 एक ऐतिहासिक कानून है, जो भारतीय नागरिकों को सार्वजनिक प्राधिकारियों से सूचना प्राप्त करने का अधिकार देता है, तथा नागरिकों द्वारा सूचना प्राप्त करने के लिये एक व्यवस्थित तंत्र की स्थापना करके सार्वजनिक संस्थाओं के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देता है।
  • अधिनियम की धारा 2(f) के अंतर्गत "सूचना" को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
    • किसी भी रूप में कोई भी सामग्री, जिसमें अभिलेख, दस्तावेज़, ज्ञापन, ई-मेल, राय, सलाह, प्रेस विज्ञप्ति, परिपत्र, आदेश, लॉगबुक, संविदा, रिपोर्ट, कागज़ात, नमूने, मॉडल, इलेक्ट्रॉनिक रूप में रखी गई डेटा सामग्री, तथा किसी निजी निकाय से संबंधित सूचना शामिल है, जिसे किसी अन्य कानून के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
  • अधिनियम में सूचना अनुरोधों के लिये त्रिस्तरीय संरचना स्थापित की गई है: संस्थान स्तर पर लोक सूचना अधिकारी (PIO), उसके बाद प्रथम अपीलीय प्राधिकारी, तथा अंत में द्वितीय अपील के लिये केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोग, जिसमें प्रत्येक स्तर पर प्रत्युत्तर के लिये विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित है।
  • अधिनियम की धारा 8(1)(d) के तहत, वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार रहस्य या बौद्धिक संपदा सहित सूचना को प्रकटीकरण से छूट दी गई है यदि इसके प्रकटीकरण से किसी तीसरे पक्ष की प्रतिस्पर्द्धी स्थिति को नुकसान पहुँचेगा, हालाँकि यह छूट धारा 8(2) के तहत बड़े लोक हित परीक्षण के अधीन है।

RTI अधिनियम, 2005 की धारा 8 क्या है?

  • RTI अधिनियम की धारा 8 प्रकटीकरण से विशिष्ट छूट स्थापित करती है, जबकि साथ ही धारा 8(2) के तहत एक सर्वोपरि लोक हित परीक्षण को शामिल करती है जो लोक हित संरक्षित हितों से अधिक होने पर इन छूटों को हटा सकती है।
  • धारा 8(1) के तहत छूट योग्य छूट हैं, पूर्ण प्रतिबंध नहीं हैं, और उनकी सख्ती से व्याख्या की जानी चाहिये क्योंकि वे अधिनियम द्वारा स्थापित पारदर्शिता के सामान्य सिद्धांत से अलग हैं।
  • धारा 8(1)(d) विशेष रूप से सूचना की तीन श्रेणियों की रक्षा करती है: वाणिज्यिक गोपनीयता, व्यापार रहस्य और बौद्धिक संपदा, लेकिन केवल तभी जब प्रकटीकरण से तीसरे पक्ष की प्रतिस्पर्द्धी पद को नुकसान पहुँचे, जो लोक हित के अधीन है।
  • अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि जो सूचना संसद या राज्य विधानमंडल को देने से मना नहीं की जा सकती, उसे किसी भी व्यक्ति को देने से मना नहीं किया जा सकता, जिससे सूचना तक समान पहुँच का मूलभूत सिद्धांत स्थापित होता है।
  • धारा 8(3) के तहत, राष्ट्रीय संप्रभुता, संसदीय विशेषाधिकार और कैबिनेट के कागज़ात से संबंधित जानकारी को छोड़कर, अधिकांश छूटों की परवाह किये बिना ऐतिहासिक जानकारी (20 वर्ष से अधिक पुरानी) का खुलासा किया जाना चाहिये।
  • धारा 8(1)(j) व्यक्तिगत जानकारी के लिये एक विशिष्ट व्यवस्था बनाती है, जिसके तहत प्रकटीकरण के लिये लोक गतिविधि या हित से स्पष्ट संबंध की आवश्यकता होती है, जब तक कि व्यापक लोक हित ऐसे प्रकटीकरण को उचित न ठहराए।
  • धारा 8(2) के तहत प्रावधान स्पष्ट रूप से सरकारी गोपनीयता अधिनियम, 1923 को दरकिनार करता है, तथा पारंपरिक सरकारी गोपनीयता पर प्रकटीकरण में सार्वजनिक हित की प्रधानता स्थापित करता है।
  • प्रत्ययी संबंध में रखी गई जानकारी को धारा 8(1)(e) के तहत संरक्षित किया जाता है, लेकिन यह सुरक्षा व्यापक लोक हित परीक्षण के अधीन है, जिसके लिये गोपनीयता दायित्वों और सार्वजनिक लाभ के बीच संतुलन की आवश्यकता होती है।
  • अधिनियम के तहत सक्षम प्राधिकारियों को छूट पर विचार करते समय हानि परीक्षण और जनहित परीक्षण लागू करने की आवश्यकता होती है, जिससे छूट प्रक्रिया स्वचालित आवेदन के बजाय एक गहन विश्लेषणात्मक अभ्यास बन जाती है।

निर्णयज विधि

  • इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया बनाम शौनक एच. सत्या (2011)
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परीक्षा और मूल्यांकन पूरा होने के बाद प्रश्नपत्र, मॉडल उत्तर और परीक्षकों को दिये जाने वाले निर्देशों को धारा 8(1)(d) के तहत रोका नहीं जा सकता।
    • ऐसे प्रकटीकरण से उस स्तर पर किसी तीसरे पक्ष की प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थिति को कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा।
  • नरेश त्रेहन बनाम राकेश कुमार गुप्ता (2014)
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कर निर्धारण कार्यवाही निजी है, सार्वजनिक कार्यवाही नहीं।
    • न्यायालय ने कहा कि मूल्यांकन कार्यवाही में सार्वजनिक भागीदारी की अनुमति देने से प्रक्रिया में हस्तक्षेप हो सकता है और यह व्यापक जनहित में उचित नहीं है।
    • आयकर रिटर्न और संबंधित मूल्यांकन जानकारी धारा 8(1)(d) के तहत संरक्षित हैं।
  • शोंख टेक्नोलॉजी इंटरनेशनल लिमिटेड बनाम राज्य सूचना आयोग महाराष्ट्र (2011)
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि सरकारी विभागों और तीसरे पक्ष के बीच स्मार्ट कार्ड सेवाओं के लिये समझौतों को धारा 8(1)(d) के तहत अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसे समझौतों के खुलासे से व्यापार रहस्य या बौद्धिक संपदा का खुलासा नहीं होता।
    • ऐसे संविदाओं की सार्वजनिक जाँच से व्यापक जनहित की पूर्ति होती है, तथा छूट को दरकिनार कर दिया जाता है।
  • इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ तमिलनाडु लिमिटेड बनाम तमिलनाडु सूचना आयोग (2010):
    • मद्रास उच्च न्यायालय ने IT विकास के लिये जल निकायों और भूमि के बारे में क्षेत्रीय निरीक्षण रिपोर्ट का खुलासा अनिवार्य कर दिया है।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि व्यापक जनहित में ऐसी पर्यावरण और विकास संबंधी जानकारी का खुलासा आवश्यक है।
    • धारा 8(1)(d) के तहत छूट को जनहित के आधार पर रद्द कर दिया गया।

RTI 2005 के अंतर्गत क्या जानकारी शामिल है?

RTI अधिनियम के अंतर्गत निश्चित रूप से शामिल:

  • सरकारी परिचालन एवं प्रशासन:
    • मंत्रिपरिषद के निर्णय (निर्णय पूर्ण होने के बाद)।
    • प्रशासनिक प्रक्रियाएँ और निर्णय।
    • सार्वजनिक प्राधिकरण का कामकाज और संचालन।
    • आधिकारिक परिपत्र, आदेश और अधिसूचनाएँ।
    • नीतिगत निर्णय और उनका औचित्य।
    • सरकारी कार्यक्रम और योजनाएँ।
  • वित्तीय जानकारी:
    • बजट आवंटन और व्यय।
    • सार्वजनिक निधियों का उपयोग।
    • निविदा प्रक्रियाएँ और दिये गए संविदा।
    • सार्वजनिक प्राधिकरणों के वित्तीय विवरण।
    • लेखापरीक्षा रिपोर्ट।
    • सरकारी सब्सिडी और लाभ।
  • कार्मिक और रोज़गार:
    • भर्ती प्रक्रियाएँ।
    • स्थानांतरण और पोस्टिंग नीतियाँ।
    • नियुक्ति आदेश।
    • लोक सेवकों की मूल वेतन जानकारी।
    • संगठनात्मक संरचना।
    • रिक्त पद।
  • लोक सेवाएँ:
    • नागरिक सेवा प्रक्रियाएँ।
    • आवेदन प्रक्रिया की स्थिति।
    • लोक शिकायत निवारण तंत्र।
    • सेवा वितरण मानक।
    • कल्याणकारी योजना कार्यान्वयन।
  • संस्थागत अभिलेख:
    • वार्षिक रिपोर्ट।
    • सांख्यिकीय डेटा।
    • आधिकारिक दस्तावेज़ और रिकॉर्ड।
    • बैठक के मिनट (अगोपनीय)।
    • विभागीय अध्ययन और सर्वेक्षण।
    • सार्वजनिक प्राधिकरण प्रकाशन।

संभावित रूप से लुप्त या अतिरिक्त क्षेत्र जिन्हें कवर किया जा सकता है:

  • पर्यावरण संबंधी जानकारी:
    • पर्यावरण प्रभाव आकलन।
    • प्रदूषण नियंत्रण डेटा।
    • वन मंज़ूरी।
    • पर्यावरण अनुपालन रिपोर्ट।
    • प्राकृतिक संसाधन आवंटन।
  • बुनियादी ढाँचा और विकास:
    • विकास परियोजना विवरण।
    • शहरी नियोजन दस्तावेज़।
    • बुनियादी ढाँचा परियोजना की स्थिति।
    • भूमि अधिग्रहण विवरण।
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी समझौते।
  • शैक्षिक जानकारी:
    • शैक्षिक संस्थान मान्यता।
    • पाठ्यक्रम विवरण।
    • संकाय योग्यता मानक।
    • अनुसंधान अनुदान आवंटन।
    • शैक्षणिक प्रदर्शन मेट्रिक्स।
  • स्वास्थ्य देखभाल जानकारी:
    • सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम विवरण।
    • चिकित्सा सुविधा मानक।
    • रोग निगरानी डेटा।
    • स्वास्थ्य सुरक्षा विनियम।
    • चिकित्सा सेवा उपलब्धता।
  • नियामक जानकारी:
    • अनुपालन आवश्यकताएँ।
    • निरीक्षण रिपोर्ट।
    • लाइसेंस जारी करने के मानदंड।
    • गुणवत्ता नियंत्रण मानक।
    • विनियामक उल्लंघन डेटा।
  • सामाजिक कल्याण:
    • लाभार्थी चयन मानदंड।
    • कल्याणकारी लाभों का वितरण।
    • सामाजिक लेखापरीक्षा रिपोर्ट।
    • कार्यान्वयन सांख्यिकी।
    • प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन।