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आपराधिक कानून
अगली याचिका पर रोक
06-Jan-2025
मुस्कान एंटरप्राइज़ेज़ एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य “न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि धारा 482 CrPC के तहत पिछली याचिका खारिज होने से कानून में परिवर्तन होने पर अगली याचिका पर रोक नहीं लगती।” न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि रेस जूडीकेटा का सिद्धांत आपराधिक कार्यवाही पर सख्ती से लागू नहीं होता है, अगर कानून में परिवर्तन के कारण ऐसा होता है तो धारा 482 CrPC के तहत अगली याचिका दायर करने की अनुमति दी जा सकती है। इसने माना कि बिना दोबारा दायर करने की स्वतंत्रता के पिछली याचिका को वापस लेना बदली हुई कानूनी परिस्थितियों में नई याचिका दायर करने से नहीं रोकता है। यह निर्णय पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध अपील में आया है, जिसमें चेक बाउंस मामले में अगली याचिका को खारिज कर दिया गया था।
- न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा ने मुस्कान एंटरप्राइज़ेज़ एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य के मामले में निर्णय सुनाया।
मुस्कान एंटरप्राइज़ेज़ एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मुस्कान एंटरप्राइज़ेज़ और उसके मालिक को न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी, अमलोह, ज़िला फतेहगढ़ द्वारा चेक बाउंस मामले में दोषी ठहराया गया।
- इस सज़ा में निम्नलिखित बातें शामिल थीं:
- मालिक को 2 वर्ष का कठोर कारावास।
- परिवादी को 74,00,000 रुपए (चेक की राशि का दोगुना) का मुआवज़ा दिया जाएगा।
- दोषी पक्षों ने सत्र न्यायालय, फतेहगढ़ साहिब में अपील की।
- सत्र न्यायालय:
- उनकी अपील स्वीकार की।
- अपील पर निर्णय होने तक सज़ा को निलंबित कर दिया।
- मालिक को ज़मानत दे दी।
- उन्हें 60 दिनों के भीतर मुआवज़े की राशि का 20% जमा करने का आदेश दिया।
- परिवादी को अपील सफल होने पर इसे वापस करने के वचन के साथ जमा की गई राशि वापस लेने की अनुमति दी।
- अपीलकर्त्ताओं ने 20% जमा की इस शर्त को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में धारा 482 CrPC याचिका के माध्यम से चुनौती दी।
- उस समय, उच्चतम न्यायालय का सुरिंदर सिंह देसवाल मामला (2019) एक मिसाल था, जिसने इस तरह की जमाराशि को अनिवार्य बना दिया था।
- इस बाध्यकारी मिसाल के कारण, अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय से अपनी याचिका वापस ले ली।
- इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के एक नए निर्णय (जंबू भंडारी केस, 2023) ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 148 की व्याख्या को संशोधित किया।
- कानून में इस परिवर्तन के आधार पर अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के समक्ष धारा 482 के तहत एक नई याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय ने दूसरी याचिका केवल इसलिये खारिज कर दी क्योंकि पिछली याचिका को नए सिरे से याचिका दायर करने की स्वतंत्रता प्राप्त किये बिना ही वापस ले लिया गया था।
- इसके बाद अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय द्वारा इस बर्खास्तगी को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्च न्यायालय ने एक आपराधिक मामले में नई याचिका दायर करने से पहले अनुमति प्राप्त करने पर ज़ोर देकर सिविल प्रक्रिया सिद्धांतों को लागू करने में गलती की, क्योंकि CPC की धारा 11 के तहत रेस जूडीकेटा का सिद्धांत आपराधिक कार्यवाही पर लागू नहीं होता है।
- CrPC की धारा 482, न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक आदेश देने के लिये उच्च न्यायालयों की अंतर्निहित शक्तियों को संरक्षित करती है, जिसे सिविल कानून की प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है।
- कानून में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन धारा 482 CrPC के तहत अगली याचिका दायर करने के लिये वैध आधार बनाता है, भले ही पिछली याचिका को नए सिरे से दायर करने की स्पष्ट अनुमति प्राप्त किये बिना वापस ले लिया गया हो।
- न्यायालय ने पुनर्विचार याचिका और परिवर्तित कानून के आधार पर नई याचिका के बीच अंतर करते हुए कहा कि अपीलकर्त्ताओं की बाद की याचिका छद्म पुनर्विचार याचिका नहीं थी, बल्कि वर्तमान कानूनी स्थिति को लागू करने का प्रयास थी।
- NI अधिनियम की धारा 148 के संबंध में न्यायालय ने कहा कि विधानमंडल द्वारा एक ही धारा के तहत अलग-अलग संदर्भों में 'हो सकता है' और 'करेगा' शब्दों का जानबूझकर प्रयोग करना, जमाराशि के आदेश देने में अपीलीय न्यायालयों को विवेकाधीन शक्ति प्रदान करने के स्पष्ट विधायी आशय को दर्शाता है।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि अपीलीय न्यायालयों को सामान्यतः जमाराशि जमा करने का आदेश देना चाहिये, परन्तु वे असाधारण मामलों में जमाराशि की आवश्यकता को समाप्त करने का विवेकाधिकार रखते हैं, बशर्ते कि ऐसे विचलन के लिये कारण दर्ज किये जाएँ।
- जब दो समन्वय पीठें भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त करती हैं (जैसा कि सुरिंदर सिंह देसवाल और जंबू भंडारी के मामले में हुआ), तो पहले वाले निर्णय पर विचार करने के बाद दूसरा निर्णय तब तक प्रचलित कानून बन जाता है जब तक कि कोई बड़ी पीठ अन्यथा निर्णय न दे दे।
रेस जूडीकेटा क्या है?
- रेस जूडीकेटा, जिसका अर्थ "न्यायित मामला" है, मूल रूप से CPC की धारा 11 के तहत संहिताबद्ध है तथा तीन सिद्धांतों द्वारा शासित है:
- किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिये, मुकदमेबाज़ी अंतिम होनी चाहिये, तथा न्यायिक निर्णयों को सही माना जाना चाहिये।
- रेस जूडीकेटा लागू होने के लिये, पाँच आवश्यक तत्त्वों का एक साथ मौजूद होना आवश्यक है:
- विवादित मामला एक जैसा होना चाहिये।
- पक्षकार एक ही होने चाहिये।
- पक्षकार एक ही शीर्षक के तहत मुकदमा लड़ रहे होने चाहिये।
- पिछले न्यायालय के पास सक्षम अधिकार क्षेत्र होना चाहिये।
- मामले की सुनवाई हो चुकी होनी चाहिये और अंतिम रूप से निर्णय हो चुका होना चाहिये।
- आपराधिक कार्यवाही में, विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत, रेस जूडीकेटा का अनुप्रयोग सीमित है - जबकि तकनीकी खारिजियाँ कोई बाधा उत्पन्न नहीं करती हैं, पूर्ण सुनवाई के बाद गुणागुण के आधार पर लिये गए निर्णय, दोहरे खतरे के विरुद्ध CrPC की धारा 300 के संरक्षण को लागू करते हैं।
- तलाक के मामलों में, रेस जूडीकेटा का अनुप्रयोग, मांगे गए अनुतोष के बजाय कार्रवाई के कारण पर केंद्रित होता है - एक वैवाहिक कार्यवाही (जैसे कि पुनर्स्थापन वाद) में प्राप्त निष्कर्ष, बाद की कार्यवाहियों (जैसे कि तलाक वाद) में विरोधाभासी दावों पर रोक लगा सकते हैं।
- यह सिद्धांत दोहरे उद्देश्यों की पूर्ति करता है - एक तो एक ही मामले से संबंधित कार्यवाहियों की बहुलता को रोकना, तथा दूसरे, सक्षम न्यायालयों द्वारा पहले से तय मुद्दों पर बार-बार मुकदमेबाज़ी का सामना करने से पक्षों को बचाना।
CrPC की धारा 482, BNSS की धारा 528 और CPC की धारा 151 के बीच क्या अंतर हैं?
पहलू |
CrPC की धारा 482 |
BNSS की धारा 528 |
CPC की धारा 151 |
प्रकृति |
आपराधिक विधि |
आपराधिक विधि |
सिविल विधि |
न्यायालय |
केवल उच्च न्यायालय |
केवल उच्च न्यायालय |
सभी सिविल न्यायालय |
मूल उद्देश्य |
आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का संरक्षण |
आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का संरक्षण (CrPC की धारा 482 का अद्यतन संस्करण) |
सिविल मामलों में न्यायालयों की अंतर्निहित शक्तियों का संरक्षण |
दायरा |
तीन विशिष्ट उद्देश्य: ● CrPC के आदेशों को प्रभावी बनाना ● न्यायालय प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना ● न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करना |
CrPC की धारा 482 के समान लेकिन नए BNSS ढाँचे के तहत |
दो उद्देश्य: ● न्यायालय प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना ● न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करना |
अनुप्रयोग |
इसका उपयोग अन्तरवर्ती आदेशों के विरुद्ध नहीं किया जा सकता; केवल अंतिम आदेशों के विरुद्ध किया जा सकता है |
BNSS के तहत अद्यतन प्रावधानों के साथ 482 CrPC के समान प्रतिबंध |
इसका उपयोग अन्तरवर्ती और अंतिम दोनों आदेशों के विरुद्ध किया जा सकता है |
सीमाएँ |
पुलिस जाँच में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता या FIR को केवल इसलिये रद्द नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें अपराध का खुलासा नहीं किया गया है। |
आधुनिक ढाँचे के साथ 482 CrPC के समान सीमाएँ |
CPC के व्यक्त प्रावधानों को रद्द नहीं किया जा सकता; यदि विशिष्ट उपाय मौजूद हो तो इसका उपयोग नहीं किया जा सकता |
समय-सीमा |
कोई निर्धारित सीमा अवधि नहीं है, लेकिन उचित समय के भीतर दाखिल किया जाना चाहिये |
नए ढाँचे के तहत 482 CrPC के समान |
कोई विशिष्ट सीमा अवधि नहीं |
प्रक्रियात्मक प्रकृति |
CrPC के व्यक्त प्रावधानों के अनुपूरक |
BNSS के व्यक्त प्रावधानों के अनुपूरक |
CPC के व्यक्त प्रावधानों के अनुपूरक
|
नोट: धारा 528 BNSS भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के तहत धारा 482 CrPC का उत्तराधिकारी है, जो समकालीन आवश्यकताओं के लिये अद्यतन के साथ समान सिद्धांतों को बनाए रखता है।
न्यायालय द्वारा संदर्भित मामला
- सुरिंदर सिंह देसवाल @ कर्नल एस.एस. देसवाल बनाम वीरेंद्र गांधी (2019)
- माना गया कि NI अधिनियम की धारा 148 के तहत जमा करने की शर्त अनिवार्य थी।
- जब अपीलकर्त्ताओं ने पहली बार उच्च न्यायालय में अपील की, तब यही मिसाल थी।
- जंबू भंडारी बनाम मध्य प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड (2023)
- यह माना गया कि धारा 148 को उद्देश्यपूर्ण व्याख्या दी जानी चाहिये।
- यह स्थापित किया गया कि अपीलीय न्यायालय न्यायोचित मामलों में 20% जमा आवश्यकता के लिये अपवाद बना सकते हैं।
- ऐसे अपवादों के लिये कारणों को विशेष रूप से दर्ज किया जाना चाहिये।
- इस निर्णय ने सुरिंदर सिंह देसवाल में सख्त अनिवार्य व्याख्या को संशोधित किया।
- एस.एम.एस. फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड बनाम नीता भल्ला (2007)
- यह स्थापित किया गया कि उच्च न्यायालयों के पास धारा 482 के तहत क्रमिक याचिकाओं पर निर्णय लेने की अंतर्निहित शक्ति है।
- पुष्टि की गई कि रेस जूडीकेटा सिद्धांत इस शक्ति को सीमित नहीं करता है।
- देवेन्द्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2009)
- इस बात को दोहराया गया कि आपराधिक कार्यवाही में रेस जूडीकेटा का सिद्धांत लागू नहीं होता।
- भीष्म लाल वर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023)
- न्यायालय ने माना कि धारा 482 CrPC के तहत लगातार याचिकाएँ दाखिल करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
- यह स्थापित किया गया कि तथ्यों या परिस्थितियों में परिवर्तन बाद की याचिकाओं को दाखिल करने को उचित ठहरा सकता है।
- न्यायालय को यह जाँच करनी चाहिये कि क्या ऐसे परिवर्तनों के कारण नई याचिका दायर करना आवश्यक था।
पारिवारिक कानून
संबंध वापसी का सिद्धांत
06-Jan-2025
“भावकन्ना शाहपुरकर की विधवा, प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा दत्तक ग्रहण, दत्तक पिता की मृत्यु की तिथि से संबंधित होगा जो 04.03.1982 है, लेकिन फिर प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा किये गए सभी वैध अन्यसंक्रामण अपीलकर्त्ता/वादी पर बाध्यकारी होंगे।” न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, श्री महेश बनाम संग्राम एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि संबंध वापसी के सिद्धांत के नाम से प्रसिद्द यह सिद्धांत कुछ अधिकारों या कृत्यों को घटना की वास्तविक तिथि से पहले की तिथि से पूर्वव्यापी रूप से प्रभावी होने की अनुमति देता है। यह सिद्धांत व्यक्ति को उस क्षति से रक्षण करता है जो प्रवर्तन के समय एवं अधिकारों या हितों की वास्तविक घटना के बीच होता है क्योंकि अधिकार पहले से ही लागू थे।
श्री महेश बनाम संग्राम एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, भावकन्ना शाहपुरकर विवादित संपत्तियों के मूल स्वामी थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं - पार्वतीबाई (पहली पत्नी) एवं लक्ष्मीबाई (दूसरी पत्नी)।
- पार्वतीबाई उनकी विधिक रूप से विवाहित पहली पत्नी थीं। चूँकि उनके कोई संतान नहीं थी, इसलिये उन्होंने पहले विवाह को भंग किये बिना भावकन्ना को लक्ष्मीबाई से विवाह करने की सहमति दे दी।
- लक्ष्मीबाई के साथ उनका विवाह से भावकन्ना के दो बच्चे हुए - परशुराम एवं रेणुका।
- 4 मार्च 1982 को भावकन्ना की मृत्यु हो गई, वे अपने पीछे दो विधवाएँ छोड़ गए।
- उनकी मृत्यु के बाद, पार्वतीबाई (पहली पत्नी) ने लक्ष्मीबाई, परशुराम एवं रेणुका के विरुद्ध संपत्ति के विभाजन एवं अलग कब्जे के लिये वाद संस्थित किया।
- इस वाद का निपटान करार के माध्यम से हुआ तथा अंतिम डिक्री की कार्यवाही में, पार्वतीबाई को अनुसूची 'A' एवं 'D' के अंतर्गत संपत्तियों में 9/32 अंश आवंटित किया गया।
- 16 जुलाई 1994 को पार्वतीबाई ने महेश (अपीलकर्त्ता) को अपने बेटे के रूप में दत्तक के रूप में ग्रहण किया। दत्तक ग्रहण करने के दस्तावेज पर उसके प्राकृतिक पिता और पार्वतीबाई ने हस्ताक्षर किये और उसे पंजीकृत किया।
- दत्तक ग्रहण प्रक्रिया पूरी होने के बाद, अपीलकर्त्ता पार्वतीबाई के साथ रहने लगा तथा उसने अपने जैविक परिवार में प्रदत्त सभी अधिकार त्याग दिये।
- दत्तक ग्रहण करने के समय उसकी आयु 21 वर्ष थी। बाद में, पार्वतीबाई ने दो विवादित वित्तीय संव्यवहार किये:
- प्रतिवादी संख्या 2 एवं 3 के पक्ष में दिनांकित एक विक्रय विलेख।
- प्रतिवादी संख्या 4 एवं 5 के पक्ष में एक उपहार विलेख।
- अपीलकर्त्ता (दत्तक पुत्र) ने दावा करते हुए वाद संस्थित किया:
- वह संस्थित वाद में उल्लिखित संपत्तियों में आधे अंश का अधिकारी था।
- पार्वतीबाई द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख एवं उपहार विलेख उसकी सहमति के बिना अमान्य थे।
- उसने वाद में उल्लिखित संपत्तियों के विभाजन की मांग की।
- मामले के लंबित रहने के दौरान पार्वतीबाई (प्रतिवादी नंबर 1) की मृत्यु हो गई।
- ट्रायल कोर्ट की टिप्पणियाँ:
- अपीलकर्त्ता द्वारा संस्थित वाद को आंशिक रूप से खारिज कर दिया।
- पार्वतीबाई द्वारा प्रतिवादी संख्या 4 एवं 5 के पक्ष में निष्पादित उपहार विलेख को शून्य एवं अमान्य घोषित किया।
- पार्वतीबाई के एकमात्र विधिक उत्तराधिकारी के रूप में अपीलकर्त्ता को संस्थित वाद में उल्लिखित संपत्ति को अनुसूची B एवं C के अंतर्गत पूरी संपत्ति प्रदान की।
- अनुसूची A के अंतर्गत संपत्ति के संबंध में महेश के दावे को खारिज कर दिया।
- प्रतिवादी संख्या 2 एवं 3 के पक्ष में पार्वतीबाई द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख को यथावत रखा।
- पाया कि पार्वतीबाई को उपहार विलेख की सामग्री के विषय में सूचना नहीं थी।
- ध्यान दिया कि उपहार में दी गई संपत्तियाँ (अनुसूची B एवं C) प्रतिवादी संख्या 4 एवं 5 को कभी नहीं सौंपी गईं।
- उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- ट्रायल कोर्ट के निर्णय एवं डिक्री को खारिज कर दिया।
- पार्वतीबाई को वाद में उल्लिखित के अंतर्गत अनुसूचित संपत्तियों का पूर्ण स्वामी माना गया।
- पाया गया कि अपीलकर्त्ता के पास पंजीकृत उपहार विलेख को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं था।
- विस्तृत चर्चा के बिना उपहार विलेख के संबंध में ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों में हस्तक्षेप किया गया।
- वर्तमान निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता द्वारा यह याचिका संस्थित की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- विक्रय विलेख के संबंध में:
- अधीनस्थ न्यायालयों के समवर्ती निष्कर्षों की पुष्टि की कि दिनांकित विक्रय विलेख वैध था।
- यह माना गया कि अपीलकर्त्ता पहले के करार की डिक्री के संचयी प्रभाव के कारण इस अन्यसंक्रामण से बंधा हुआ था।
- उपहार विलेख के संबंध में:
- उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया गया तथा उसे अलग रखा गया।
- उपहार विलेख को अमान्य घोषित करने वाले ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बहाल किया गया क्योंकि:
- उपहार स्वीकार करना सिद्ध नहीं हुआ।
- संपत्ति का कोई परिदान नहीं हुआ।
- प्रतिवादी संख्या 4 एवं 5 ने पार्वतीबाई के पोते होने का मिथ्या दावा किया।
- संपत्ति पार्वतीबाई के कब्जे में उनकी मृत्यु तक रही।
- उच्च न्यायालय ने बिना किसी ठोस कारण के ट्रायल कोर्ट के निष्कर्ष को पलटने में चूक की।
- लागू किये गए प्रमुख विधिक सिद्धांत:
- दत्तक ग्रहण एवं इसके प्रभाव:
- यह अभिनिर्धारित किया गया है कि एक बार पंजीकृत विलेख के माध्यम से दत्तक ग्रहण करने को सिद्ध कर दिया जाता है, तो इसे तब तक वैध माना जाता है जब तक कि हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (HAMA) की धारा 16 के अंतर्गत इसे मिथ्या सिद्ध न कर दिया जाए।
- दत्तक बालक दत्तक ग्रहण करने की तिथि से विधिक रूप से प्राकृतिक रूप से जन्मे बच्चे के तुल्य हो जाता है।
- जन्म देने वाले परिवार के साथ सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं तथा दत्तक परिवार के लोगों द्वारा प्रतिस्थापित कर दिये जाते हैं।
- संबंध वापसी का सिद्धांत:
- विधवा द्वारा दत्तक ग्रहण करने का संबंध उसके पति की मृत्यु की तिथि से होता है।
- गोद लिये गए बच्चे को मृत पति से जन्मे बच्चे के रूप में माना जाता है।
- संयुक्त संपत्ति में तत्काल सहदायिक हित का निर्माण होता है।
- हालाँकि, दत्तक ग्रहण करने से पहले किये गए वैध अन्यसंक्रामण गोद लिये गए बच्चे पर बाध्यकारी रहते हैं।
- दत्तक बालकों के अधिकार एवं सीमाएँ:
- HAMA की धारा 12 के अंतर्गत दत्तक ग्रहण करने से पहले निहित संपत्ति से किसी भी व्यक्ति को वंचित नहीं किया जा सकता है।
- पिछले अन्यसंक्रामणों को चुनौती देने का अधिकार इस पर निर्भर करता है:
- अन्यसंक्रामण कारित करने वाले व्यक्ति की क्षमता।
- अन्यसंक्रामण की प्रकृति।
- वैध उपहार के लिये आवश्यक तत्त्व (संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 122):
- बिना किसी विचार के स्वैच्छिक अंतरण होना चाहिये।
- इसके लिये दो आवश्यक तत्त्व आवश्यक हैं:
- दानकर्त्ता द्वारा प्रस्ताव
- दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा स्वीकृति
- स्वीकृति में संपत्ति का वास्तविक परिदान निहित होना चाहिये।
- वास्तविक कब्जे के अंतरण के बिना केवल उपहार विलेख का पंजीकरण अपर्याप्त है।
- महिला हिंदू के संपत्ति अधिकार (हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1955 की धारा 14(1)):
- महिला हिंदू के पास कब्ज़े की संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति बन जाती है।
- वह इसे सीमित स्वामी के रूप में नहीं, बल्कि पूर्ण स्वामी के रूप में रखती है।
- इसमें उत्तराधिकार, विभाजन या रखरखाव सहित विभिन्न माध्यम से अर्जित संपत्ति निहित है।
- इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि:
- अपीलकर्त्ता का दत्तक ग्रहण वैध एवं विधिक रूप से अभिनिर्धारित था।
- दत्तक पुत्र के रूप में, वह अवैध अन्यसंक्रामण को चुनौती देने का अधिकारी था।
- वह पार्वतीबाई के एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में संपूर्ण B एवं C अनुसूची के अंतर्गत संपत्तियों का अधिकारी था।
- A अनुसूची के अंतर्गत संपत्ति का विक्रय विलेख वैध रहेगा तथा उस पर बाध्यकारी रहेगा।
- इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने वैध वित्तीय संव्यवहार को यथावत रखते हुए, अवैध अंतरण के विरुद्ध दत्तक पुत्र के अधिकारों की रक्षा करते हुए एक संतुलित निर्णय दिया।
संबंध वापसी का सिद्धांत क्या है?
परिचय:
- ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार इस सिद्धांत को ‘एक सिद्धांत के रूप में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार आज किया गया कार्य पहले किया गया माना जाता है’।
- इससे तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति द्वारा वर्तमान में किया गया कार्य उसके पिछले कार्यों से जुड़ा हो सकता है।
- इस सिद्धांत का अलग-अलग विधियों के साथ अलग-अलग प्रयोज्यता है।
उद्देश्य:
- यह सिद्धांत न्याय प्रदान करते समय अस्पष्टता को दूर करने के लिये उपयोगी है।
- यह किसी मामले में सीमाओं एवं प्रतिबंधों से बचने में सहायता करता है।
- यह चूक होने की संभावनाओं को और कम करता है।
अनुप्रयोज्यता:
- हिंदू विधि:
- HAMA की धारा 12 में यह प्रावधान है कि दत्तक बालक व्यक्ति को उस संपत्ति से वंचित या वंचित नहीं करेगा जो दत्तक ग्रहण करने से पहले उसके पास निहित है। इस प्रकार, दत्तक ग्रहण करने का उस संपत्ति पर कोई प्रभाव नहीं होगा जो पहले से ही किसी व्यक्ति के पास निहित है।
- HAMA की धारा 12 (c) संबंध के सिद्धांत को अस्वीकृत करती है जिसे संपत्ति के निहित होने एवं विनिवेश के मामले में लागू एवं प्रयोग किया गया था।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC): संहिता के आदेश VI नियम 17 के अंतर्गत संबंध वापसी का सिद्धांत विस्तृत दिया गया है। यह प्रावधान करता है कि यदि पक्षों के बीच मुद्दों को निर्धारित करना आवश्यक हो, तो न्यायालय वाद से पहले किसी भी समय किसी पक्ष को तर्कों में संशोधन करने की अनुमति दे सकता है।
- भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA): ICA के अनुसार संबंध के सिद्धांत का अनुप्रयोग ICA की धारा 196 के अंतर्गत दिये गए अनुसमर्थन की अवधारणा में पाया जा सकता है।
- परिसीमा अधिनियम, 1963: परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 21 में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान किया गया है कि पक्षों का प्रतिस्थापन या वर्धन संबंध के सिद्धांत द्वारा शासित होगा।
वाणिज्यिक विधि
IBC, एक सम्पूर्ण संहिता
06-Jan-2025
मोहम्मद इंटरप्राइजेज (तंजानिया) लिमिटेड बनाम फारुक अली खान एवं अन्य “उच्च न्यायालय को यह ध्यान देना चाहिये था कि IBC अपने आप में एक पूर्ण संहिता है जिसमें पर्याप्त जाँच एवं संतुलन है।” न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि IBC अपने आप में एक पूर्ण संहिता है, जिसमें पर्याप्त जाँच एवं संतुलन निहित है।
- उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद इंटरप्राइजेज (तंजानिया) लिमिटेड बनाम फारूक अली खान एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
मोहम्मद इंटरप्राइजेज (तंजानिया) लिमिटेड बनाम फारूक अली खान मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 26 अक्टूबर 2018 को कॉरपोरेट ऋणी के विरुद्ध कॉरपोरेट दिवाला समाधान कार्यवाही (CIRP) स्वीकार की गई, जिसकी शुरुआत वित्तीय लेनदार ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने की।
- लेनदारों की 19वीं समिति (CoC) की बैठक के दौरान, समाधान योजनाओं की समीक्षा की गई। अपीलकर्त्ता को कुछ मदों को शामिल करने के लिये कहा गया, तथा बैठक 11 फरवरी 2020 तक स्थगित कर दी गई।
- निलंबित निदेशक मोहम्मद फारूक दरवेश का प्रतिनिधित्व करने वाले सचिन मिसाल ने योजनाओं या प्रक्रिया पर कोई आपत्ति नहीं होने की पुष्टि की। हालाँकि, निलंबित निदेशक के अधिवक्ता श्री श्याम दीवान ने इसका विरोध किया।
- समाधान हेतु नियुक्त पेशेवर ने 11 फरवरी 2020 को दूसरी स्थगित 19वीं CoC बैठक के लिये नोटिस जारी किया, लेकिन श्री श्याम दीवान ने दावा किया कि उनके मुवक्किल को नोटिस नहीं मिला।
- स्थगित बैठक में संशोधित समाधान योजना पर विचार-विमर्श किया गया, मतदान किया गया और CoC द्वारा 100% वोटिंग शेयर के साथ सर्वसम्मति से अनुमोदित किया गया, जिससे अपीलकर्त्ता को सफल समाधान आवेदक घोषित किया गया।
- एक अन्य कंपनी, स्वामित्व, जिसकी समाधान योजना प्रस्तुत की गई थी, ने पुनर्विचार के लिये एक अंतरिम आवेदन दायर किया। इसे 19 सितंबर 2022 को NCLAT ने खारिज कर दिया।
- निलंबित निदेशक ने भी इसी तरह की आपत्तियाँ जताते हुए अपीलकर्त्ता की समाधान योजना को खारिज करने के लिये एक आवेदन दायर किया। NCLAT ने इन अपीलों को खारिज कर दिया।
- NCLAT के आदेश के विरुद्ध स्वामित्व की अपील को उच्चतम न्यायालय ने 25 नवंबर 2022 को खारिज कर दिया।
- निलंबित निदेशक ने पहले की CoC बैठकों (16वीं, 17वीं एवं 18वीं) में समाधान योजना प्रस्तुत करने में रुचि व्यक्त की, जहाँ समाधान योजनाओं पर विचार-विमर्श किया गया था।
- उच्च न्यायालय ने रिट याचिका को अनुमति दे दी तथा मुख्य रूप से इस आधार पर समाधान योजना को रद्द कर दिया कि 24 घंटे का नोटिस नहीं दिये जाने के कारण प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ।
- वर्तमान अपीलें भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध दायर की गई थीं, जिसमें कॉरपोरेट दिवाला प्रक्रिया पर रोक लगाई गई थी, जिसका समापन 11 फरवरी 2020 की बैठक के मिनटों में लेनदारों की समिति द्वारा समाधान योजना को स्वीकार करने के साथ हुआ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (IBC) की धारा 60(5)(c) के अंतर्गत न्याय निर्णय प्राधिकरण के अधिकार क्षेत्र एवं शक्ति को उच्चतम न्यायालय द्वारा पहले ही पुनर्विचारित किया जा चुका है।
- न्यायालय ने कई अवसरों पर CIRP कार्यवाही को समय पर समाप्त करने के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय में जाने में हुए विलंब को देखते हुए, विशेष रूप से जब प्रतिवादी संख्या 1 ने स्वयं इसी तरह की राहत की मांग करते हुए अंतरिम आवेदन दायर करके संहिता के अंतर्गत कार्यवाही प्रारंभ की है, उच्च न्यायालय ने रिट याचिका पर विचार करने में त्रुटि की है।
- उच्च न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिये था कि IBC अपने आप में एक पूर्ण संहिता है जिसमें पर्याप्त जाँच एवं संतुलन, उपचारात्मक रास्ते व अपील हैं।
- प्रोटोकॉल और प्रक्रियाओं का पालन विधिक अनुशासन बनाए रखता है तथा व्यवस्था की आवश्यकता एवं न्याय की खोज के बीच संतुलन बनाए रखता है।
- उच्च न्यायालयों में निहित पर्यवेक्षी एवं न्यायिक समीक्षा शक्तियाँ महत्त्वपूर्ण संवैधानिक सुरक्षा उपायों का प्रतिनिधित्व करती हैं, फिर भी उनके प्रयोग के लिये कठोर जाँच एवं विवेकपूर्ण आवेदन की आवश्यकता होती है।
- न्यायालय ने माना कि यह निश्चित रूप से उच्च न्यायालय के लिये IBC संहिता के अंतर्गत CIRP कार्यवाही को बाधित करने का मामला नहीं था।
IBC क्या है?
- भारत में गैर-निष्पादित आस्तियों एवं अक्षम ऋण वसूली तंत्र की बढ़ती समस्या को दूर करने के लिये 2016 में दिवाला एवं धन शोधन अक्षमता संहिता (IBC) प्रस्तुत की गई थी।
- इसने कॉर्पोरेट वित्तीय संकट को हल करने के लिये पुरानी प्रणालियों को समयबद्ध, लेनदार-संचालित प्रक्रिया से बदल दिया।
- IBC के अंतर्गत, दिवालियेपन का परिणाम या तो समाधान या परिसमापन हो सकता है। सबसे पहले कंपनी के पुनर्गठन या स्वामित्व को अंतरित करने के प्रयास किये जाते हैं, तथा यदि ये विफल हो जाते हैं, तो कंपनी की संपत्ति को समाप्त कर दिया जाता है।
IBC के अंतर्गत क्या प्रक्रिया अपनाई जाती है?
- दिवालियापन की प्रक्रिया को नीचे दिये गए फ्लोचार्ट से समझा जा सकता है:
एक सम्पूर्ण संहिता के रूप में IBC पर महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- ई.एस. कृष्णमूर्ति एवं अन्य बनाम मेसर्स भारत हाईटेक बिल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड (2021):
- IBC अपने आप में एक संपूर्ण संहिता है। अधिकरण एवं अपीलीय प्राधिकरण संविधि के अंग हैं।
- उनका अधिकार क्षेत्र सांविधिक रूप से प्रदान किया गया है।
- अधिकार क्षेत्र प्रदान करने वाला विधान ऐसे अधिकार क्षेत्र की सीमा को संरचित, चैनलाइज़ एवं परिसीमित भी करता है।
- इस प्रकार, जबकि अधिकरण एवं अपीलीय प्राधिकरण करार को प्रोत्साहित कर सकते हैं, वे साम्या न्यायालयों के रूप में कार्य करके उन्हें निर्देशित नहीं कर सकते।
- इंडियन ओवरसीज बैंक बनाम RCM इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (2022):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रारंभ से ही IBC स्वयं में एक पूर्ण संहिता है।
- साथ ही, IBC की धारा 238 के प्रावधानों के अनुसार, IBC के प्रावधान वर्तमान में लागू किसी भी अन्य संविधि में निहित किसी भी असंगत तथ्य के बावजूद लागू रहेंगे।