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आपराधिक कानून
पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर दिशानिर्देश
14-Jan-2025
अब्दुल नासिर बनाम केरल राज्य एवं अन्य "जबकि हम ट्रायल कोर्ट एवं उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए अंतिम निष्कर्ष से सहमत हैं, हम पारिस्थितिजन्य साक्ष्य के विश्लेषण में दोनों न्यायालयों द्वारा अपनाई गई कार्यप्रणाली की कमियों को अनदेखा नहीं कर सकते।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने दिशानिर्देश निर्धारित किये जिनका पारिस्थितिजन्य साक्ष्यों का मूल्यांकन करते समय अधीनस्थ न्यायालयों को पालन करना होगा।
- उच्चतम न्यायालय ने अब्दुल नासिर बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2024) मामले में यह निर्णय दिया।
अब्दुल नासिर बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 4 अप्रैल 2012 को सुबह करीब 6:30 बजे 9 वर्ष की बच्ची अमराम्बलम गांव में मदरसे जा रही थी, तभी वह आरोपी के घर पर उसकी बेटी के साथ जाने के लिये रुकी।
- आरोपी ने बच्ची को अकेला पाकर सुबह करीब 6:45 बजे अपने घर में उसके साथ बलात्संग कारित किया। इसके बाद उसने बच्ची का गला घोंट दिया तथा उसकी हत्या कर दी, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
- आरोपी ने पीड़िता के शव को अपने घर में चारपाई के नीचे छिपा दिया तथा बाद में उसे बाथरूम में ले गया। उसने शव को सेप्टिक टैंक के स्लैब से पत्थर निकालकर उसमें फेंकने की कोशिश की।
- पीड़िता के पिता ने थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई।
- पीड़िता का शव उसी दिन शाम करीब साढ़े सात बजे आरोपी के घर के बाथरूम में मिला।
- आरोपी पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376, 201 और किशोर न्याय (देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 (JJ अधिनियम) की धारा 23 के तहत आरोप लगाए गए थे।
- जाँच अधिकारी ने फोरेंसिक साक्ष्य एकत्र किये, आरोपी के प्रकटीकरण अभिकथनों के आधार पर बरामदगी की और धारा 376, 302 और 201 IPC और JJ अधिनियम की धारा 23 के अधीन अपराधों के लिये आरोप पत्र प्रस्तुत किया।
- ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी करार दिया तथा उसे IPC की धारा 302 के अधीन मृत्यु की सजा दी।
- आरोपी ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष धारा 374 (2) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अधीन अपील की।
- ट्रायल कोर्ट की मृत्यु की सजा को CrPC की धारा 366 के अधीन पुष्टि के लिये उच्च न्यायालय को भेजा गया था। उच्च न्यायालय ने मृत्यु की सजा के संदर्भ को स्वीकार किया तथा मृत्यु की सजा की पुष्टि की।
- इसलिये, उपरोक्त आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में प्रस्तुत किये गए सभी साक्षी या तो पीड़िता के रिश्तेदार हैं या पड़ोस के निवासी हैं तथा वे आरोपी के विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं रख सकते।
- न्यायालय ने फोरेंसिक साक्ष्य को भी विश्वसनीयता प्रदान की तथा कहा कि अभियोजन पक्ष ने जब्ती के समय से लेकर फोरेंसिक प्रयोगशाला में प्राप्ति तक नमूनों को सुरक्षित रखने के लिये ठोस साक्ष्य दिये हैं।
- इस प्रकार, न्यायालय ने अभियुक्त के DNA युक्त वीर्य को अभियुक्त के शरीर पर लगाए जाने की किसी भी संभावना को खारिज कर दिया।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में कई परिस्थितियाँ थीं जो अभियुक्त के विरुद्ध तार्किक रूप से संबंधित थीं।
- न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के अंतिम निर्णयों से सहमति जताते हुए भी पारिस्थितिजन्य साक्ष्य के मूल्यांकन एवं विश्लेषण में न्यायालयों द्वारा अपनाई गई कार्यप्रणाली में कमियों के संबंध में न्यायालयों की आलोचना की।
- उच्चतम न्यायालय ने यह देखा कि अधीनस्थ न्यायालयों ने साक्षियों की साक्षीी की जाँच की है, लेकिन उससे निकाले जाने वाले निष्कर्षों को रेखांकित करना छोड़ दिया है।
- इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर अपील खारिज कर दी गई।
पारिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 3 के अंतर्गत साक्ष्य है:
- सभी अभिकथन जिनकी न्यायालय जाँच के अधीन तथ्यों के संबंध में साक्षियों द्वारा अपने समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति देता है या अपेक्षा करता है, ऐसे कथनों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है;
- न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किये गए इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों सहित सभी दस्तावेज, ऐसे दस्तावेजों को दस्तावेजी साक्ष्य कहा जाता है।
- साक्ष्य की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 2 (e) में पाई जा सकती है।
- BSA में इलेक्ट्रॉनिक रूप से दिये गए अभिकथन तथा इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड साक्ष्य के दायरे में आते हैं।
- भारत में साक्ष्य को दो व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है, प्रत्यक्ष साक्ष्य एवं अप्रत्यक्ष साक्ष्य अर्थात पारिस्थितिजन्य साक्ष्य।
- प्रत्यक्ष साक्ष्य वे होते हैं जो तथ्य को निर्णायक रूप से सिद्ध करते हैं जबकि पारिस्थितिजन्य साक्ष्य परिस्थितियों की श्रृंखला होती है जिसका उपयोग किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिये किया जाता है।
- इसकी उत्पत्ति रोमन विधि प्रणाली से हुई है, जहाँ इसका उपयोग किसी मामले की जाँच के लिये एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में किया जाता था।
- यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि "मनुष्य झूठ बोल सकता है, लेकिन परिस्थितियाँ नहीं बोलतीं"।
- पारिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि के संबंध में पाँच स्वर्णिम सिद्धांत शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) के मामले में बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किये गए हैं।
इस मामले में न्यायालय द्वारा पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर क्या सिद्धांत निर्धारित किये गए हैं?
- न्यायालय द्वारा निम्नलिखित सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया, जिन पर विचार किया जाना चाहिये, जहाँ अभियोजन का मामला पारिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित हो:
- प्रत्येक अभियोजन पक्ष एवं बचाव पक्ष के साक्षी के अभिकथन पर सावधानीपूर्वक चर्चा एवं विश्लेषण किया जाना चाहिये। प्रत्येक साक्षी के साक्ष्य का मूल्यांकन उसकी संपूर्णता में किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी महत्त्वपूर्ण पहलू नज़रअंदाज़ न हो।
- पारिस्थितिजन्य साक्ष्य वह साक्ष्य है जो तथ्य के निष्कर्ष से जुड़ने के लिये किसी अनुमान पर निर्भर करता है। इस प्रकार, प्रत्येक साक्षी के अभिकथन से निकाले जा सकने वाले उचित अनुमानों को स्पष्ट रूप से चित्रित किया जाना चाहिये।
- अपराध सिद्ध करने वाले पारिस्थितिजन्य साक्ष्य की प्रत्येक कड़ी की सावधानीपूर्वक जाँच की जानी चाहिये, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या प्रत्येक परिस्थिति व्यक्तिगत रूप से सिद्ध होती है तथा क्या सामूहिक रूप से, वे एक अटूट श्रृंखला बनाती हैं जो केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप है और उसकी निर्दोषता के साथ पूरी तरह से असंगत है।
- निर्णय में साक्ष्य के विशिष्ट अंशों को स्वीकार या अस्वीकार करने के औचित्य को व्यापक रूप से स्पष्ट किया जाना चाहिये, तथा यह दर्शाया जाना चाहिये कि साक्ष्यों से निष्कर्ष तार्किक रूप से कैसे प्राप्त किया गया। इसमें स्पष्ट रूप से यह बताया जाना चाहिये कि प्रत्येक साक्ष्य दोष के समग्र आख्यान में किस प्रकार योगदान देता है।
- निर्णय में यह प्रतिबिंबित होना चाहिये कि दोष का निष्कर्ष, यदि कोई हो, परिस्थितियों के उचित एवं सावधानीपूर्वक मूल्यांकन के बाद निकाला गया है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वे किसी अन्य उचित परिकल्पना के साथ संगत हैं या नहीं।
पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर महत्त्वपूर्ण मामले कौन से हैं?
- शरद बिरदीचंद शारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984)
- इस मामले में पाँच स्वर्णिम नियम निर्धारित किये गये जिन्हें पंचशील के नाम से भी जाना जाता है, जो इस प्रकार हैं:
- जिन परिस्थितियों से दोष का निष्कर्ष निकाला जाना है, उन्हें पूरी तरह से अभिनिर्धारित किया जाना चाहिये,
- इस प्रकार स्थापित तथ्य केवल अभियुक्त के दोष की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिये, अर्थात्, उन्हें किसी अन्य परिकल्पना पर स्पष्ट नहीं किया जाना चाहिये, सिवाय इसके कि अभियुक्त दोषी है,
- परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति एवं प्रवृत्ति की होनी चाहिये,
- उन्हें सिद्ध की जाने वाली परिकल्पना को छोड़कर हर संभावित परिकल्पना को बाहर करना चाहिये
- साक्ष्यों की एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिये कि अभियुक्त की निर्दोषता के अनुरूप निष्कर्ष के लिये कोई उचित आधार न बचे तथा यह दिखाना चाहिये कि सभी मानवीय संभावनाओं में यह कृत्य अभियुक्त द्वारा किया गया होगा।
- इस मामले में पाँच स्वर्णिम नियम निर्धारित किये गये जिन्हें पंचशील के नाम से भी जाना जाता है, जो इस प्रकार हैं:
- अनवर अली बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2020):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि के लिये एक परिस्थिति के रूप में आशय के संबंध में विभिन्न निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों का अवलोकन किया।
- न्यायालय ने कहा कि सुरेश चंद्र बाहरी बनाम बिहार राज्य (1995) के मामले में यह माना गया था कि यदि आशय सिद्ध हो जाता है तो यह साक्ष्य की परिस्थितियों की श्रृंखला में एक कड़ी प्रदान करेगा, लेकिन आशय की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने का आधार नहीं हो सकती है।
- वहीं बाबू बनाम केरल राज्य (2010) में न्यायालय ने माना कि पारिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर किसी मामले में आशय एक ऐसा कारक है जो अभियुक्त के पक्ष में भारी पड़ता है।
सिविल कानून
SRA की धारा 12
14-Jan-2025
विजय प्रभु बनाम ST लाजपति एवं अन्य “धारा 12(3) के अंतर्गत दावों का त्याग अपीलीय चरण सहित वाद के किसी भी चरण में किया जा सकता है।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 12 (3) के अंतर्गत दावों के त्याग के संबंध में याचिका वाद के किसी भी चरण में संस्थित की जा सकती है।
- उच्चतम न्यायालय ने विजय प्रभु बनाम एस.टी. लाजपति एवं अन्य (2024) मामले में यह निर्णय दिया।
विजय प्रभु बनाम एस.टी. लाजपति एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में याचिकाकर्त्ता मूल वादी है जिसने बिक्री का करार के विनिर्दिष्ट पालन एवं वाद में उल्लिखित संपत्ति के कब्जे की डिलीवरी के लिये वाद संस्थित किया था। वैकल्पिक रूप से, वाद संस्थित करने की तिथि से क्षति के लिये 12% प्रति वर्ष ब्याज के साथ 60,00,000 रुपये की अपील की गई थी।
- ट्रायल कोर्ट ने विनिर्दिष्ट पालन के लिये प्रार्थना को खारिज कर दिया तथा 12% ब्याज के साथ 20,00,000 रुपये की अग्रिम राशि वापस करने का निर्देश दिया।
- ट्रायल कोर्ट ने यह भी दर्ज किया कि वादी संविदा के अपने हिस्से को पूरा करने के लिये तैयार और इच्छुक नहीं था।
- इसके अतिरिक्त, मामला उच्च न्यायालय में गया, जहाँ न्यायालय ने माना कि वादी विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 12 (3) में निहित प्रावधानों को लागू करने के लिये योग्य नहीं है क्योंकि उसने सभी दावों का त्याग नहीं किया है।
- इसलिये, वादी की अपील खारिज कर दी गई। उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध वर्तमान विशेष अनुमति याचिका उच्चतम न्यायालय के समक्ष संस्थित की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने SRA की धारा 12 (3) पर विचार किया जो कि तथ्यों पर लागू होती है।
- न्यायालय ने माना कि SRA की धारा 12 (3) में प्रयुक्त शब्द ‘पालन करने में असमर्थ’ केवल तभी लागू होता है जब पक्षकार किसी भी कारण से अपने द्वारा दिये गए वचन को पूरा नहीं कर सकता।
- असमर्थता किसी भी कारण से उत्पन्न हो सकती है, जिसमें कोई भी सांविधिक सीमाएँ शामिल हैं। प्रदर्शन करने में असमर्थता निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हो सकती है-
- विषय-वस्तु की मात्रा में कमी,
- या गुणवत्ता में भिन्नता,
- या शीर्षक में दोष;
- या कुछ विधिक निषेध;
- या अन्य कारण।
- SRA की धारा 12 (3) के अनुसार अनुतोष देने की शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है तथा इसका उपयोग केवल तभी किया जा सकता है जब संपत्ति में पक्षों के अधिकारों एवं हितों का पृथक्करण हो।
- न्यायालय ने कहा कि संविदा के शेष भाग के आगे के निष्पादन के लिये दावे का त्याग एवं क्षतिपूर्ति के सभी अधिकार वाद के किसी भी चरण में किये जा सकते हैं।
- इसलिये, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अधिनियम की धारा 12(3) के अंतर्गत लाभ के लिये वादी-अपीलकर्त्ता के निवेदन को उच्च न्यायालय द्वारा केवल इसलिये खारिज नहीं किया गया क्योंकि इसे अपीलीय चरण में पहली बार उठाया गया था।
- न्यायालय ने माना कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उच्च न्यायालय द्वारा आरोपित आदेश पारित करने में कोई विधिक त्रुटि नहीं की गई है।
- इसलिये, न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया।
SRA के अंतर्गत भागिक निष्पादन क्या है?
- SRA की धारा 12 संविदाओं के भागिक पालन पर प्रावधान करती है।
- SRA की धारा 12 (1) में प्रावधान है कि:
- इस धारा में इसके पश्चात अन्यथा प्रावधानित के सिवाय, न्यायालय संविदा के किसी भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निर्देश नहीं देगा।
- SRA की धारा 12 (2) में प्रावधान है कि:
- निम्नलिखित तत्त्वों की पूर्ति होने पर संविदा के भागिक पालन की अनुमति दी जा सकती है:
- यदि कोई पक्ष संविदा के अंतर्गत अपने दायित्वों को पूरी तरह से पूरा नहीं कर सकता है, तो न्यायालय अभी भी उस हिस्से को लागू कर सकता है जिसे पूरा किया जा सकता है।
- अधूरे हिस्से की तुलना पूरे संविदा से की जानी चाहिये।
- न्यायालय अधूरे हिस्से के लिये आर्थिक क्षतिपूर्ति देने का आदेश दे सकता है।
- यह कमी को संबोधित करते हुए दोनों पक्षों के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित करता है।
- निम्नलिखित तत्त्वों की पूर्ति होने पर संविदा के भागिक पालन की अनुमति दी जा सकती है:
- SRA की धारा 12 (3) में प्रावधान है कि:
- निम्नलिखित आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर संविदा के भागिक पालन की अनुमति दी जा सकती है:
- यदि कोई पक्ष संविदा के अंतर्गत अपने दायित्वों को पूरी तरह से पूरा नहीं कर सकता है, तो विनिर्दिष्ट पालन का आदेश नहीं दिया जा सकता है, यदि:
- अधूरे हिस्से की भरपाई आर्थिक रूप से की जा सकती है, फिर भी वह एक महत्त्वपूर्ण भाग है।
- अधूरे हिस्से की भरपाई आर्थिक रूप से नहीं की जा सकती।
- यदि कोई पक्ष संविदा के अंतर्गत अपने दायित्वों को पूरी तरह से पूरा नहीं कर सकता है, तो विनिर्दिष्ट पालन का आदेश नहीं दिया जा सकता है, यदि:
- ऐसे मामलों में, यदि दूसरा पक्ष सहमत हो तो न्यायालय चूककर्त्ता पक्ष को संविदा का वह हिस्सा पूरा करने का आदेश दे सकता है जिसे वे पूरा कर सकते हैं।
- दूसरे पक्ष को यह करना होगा:
- खंड (a): अधूरे हिस्से के मूल्य को घटाकर सहमत राशि का भुगतान करना।
- खंड (b): बिना किसी कटौती के पूरी सहमत राशि का भुगतान करना।
- दूसरे पक्ष को संविदा के शेष भाग के पालन तथा चूक के लिये किसी भी क्षतिपूर्ति के दावे को भी छोड़ देना होगा।
- निम्नलिखित आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर संविदा के भागिक पालन की अनुमति दी जा सकती है:
- SRA की धारा 12 (4) में यह प्रावधान है कि जब किसी संविदा का एक भाग, जिसका स्वयं में विनिर्दिष्ट रूप से पालन किया जा सकता है तथा किया जाना चाहिये, उसी संविदा के दूसरे भाग से पृथक एवं स्वतंत्र आधार पर खड़ा हो, जिसका विनिर्दिष्ट रूप से पालन नहीं किया जा सकता या नहीं किया जाना चाहिये, तो न्यायालय पूर्व भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निर्देश दे सकता है।
इस मुद्दे पर महत्त्वपूर्ण मामले कौन से हैं?
- वरयाम सिंह बनाम गोपी चंद (1930)
- वरयाम सिंह के मामले में, प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2 ने 200 कनाल निर्दिष्ट भूमि बेचने पर सहमति व्यक्त की, लेकिन बाद में पाया गया कि वे उस भूमि के केवल दो-तिहाई हिस्से के मालिक थे।
- ट्रायल कोर्ट में, वादी ने पूरे संविदा के विनिर्दिष्ट पालन पर बल तथा दिया तथा निवेदन किया कि प्रतिवादी अपनी उल्लिखित भूमि से दोष को पूर्ण करें।
- चर्चा के दौरान, वादी ने पुरानी धारा 15 का उदाहरण देते हुए एक आवेदन किया, जिसमें प्रतिवादियों को पूरी जमीन बेचने में अक्षम पाए जाने पर इसका लाभ मांगा गया।
- डिवीजन बेंच ने माना कि वादी अपीलीय न्यायालय के अंतिम निर्णय से पहले किसी भी समय धारा 15 की शर्तों के अंतर्गत संपत्ति के किसी भी हिस्से पर अपना दावा छोड़ सकता है।
- कल्याणपुर लाइम वर्क्स बनाम बिहार राज्य (1954)
- इस मामले में वादी ने बिहार राज्य पर पट्टा संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद संस्थित किया।
- न्यायालय ने पाया कि किसी अन्य कंपनी के साथ मौजूदा पट्टे को जब्त नहीं किया जा सकता, जिससे सरकार को वादी को पट्टा देने से रोका जा सके।
- अपीलीय चरण में, वादी ने पुरानी धारा 15 का उद्दहरण देते हुए मौजूदा पट्टे की अवधि समाप्त होने के बाद शेष अवधि के लिये पाँच वर्ष के पट्टे का निवेदन किया।
- न्यायालय ने कहा कि कोई भी पक्ष वाद के किसी भी चरण में आगे के प्रदर्शन के लिये दावा छोड़ सकता है।
- राम निवास बनाम श्रीमती ओमकारी एवं अन्य (1983)
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भागिक पालन के लिये इस तरह के दावे को केवल इसलिये खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि इसे वादपत्र में शामिल नहीं किया गया था।
- यह भी माना गया कि दावे की वैधता ट्रायल कोर्ट के समक्ष लिखित रूप में प्रस्तुत किये जाने पर निर्भर नहीं करती है।
पारिवारिक कानून
भरण-पोषण हेतु कार्यवाही
14-Jan-2025
रीना कुमारी उर्फ रीना देवी उर्फ रीना बनाम दिनेश कुमार महतो उर्फ दिनेश कुमार महतो एवं अन्य “CrPC की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण सिविल है, भले ही इसका पालन न करने पर दण्डात्मक परिणाम हो: उच्चतम न्यायालय।” CJI संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण की कार्यवाही प्रकृति में सिविल है, भले ही इसका पालन न करने पर दण्डात्मक हों। CJI संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि ऐसी कार्यवाही का उद्देश्य आपराधिक न्यायालयों के माध्यम से प्रभावी एवं त्वरित उपचार प्राप्त करना है, क्योंकि वे सिविल मुकदमेबाजी की तुलना में प्रवर्तन के लिये बेहतर ढंग से सुसज्जित हैं।
- न्यायालय ने यह भी माना कि दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के आदेश का पालन करने से पत्नी की वैध अस्वीकृति उसे भरण-पोषण का दावा करने से नहीं रोकता है।
- CJI संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार ने रीना कुमारी उर्फ रीना देवी उर्फ रीना बनाम दिनेश कुमार महतो उर्फ दिनेश कुमार महतो एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
रीना कुमारी उर्फ रीना देवी उर्फ रीना बनाम दिनेश कुमार महतो उर्फ दिनेश कुमार महतो एवं अन्य, 2024 मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- रीना कुमारी (रीना) और दिनेश कुमार महतो का विवाह 1 मई, 2014 को हुआ था, लेकिन अगस्त 2015 में वे पृथक हो गए, जब रीना अपने माता-पिता के घर रहने चली गई।
- जनवरी 2015 में, रीना का गर्भपात हो गया, इस दौरान दिनेश न तो उससे मिलने गया तथा न ही उसके इलाज का खर्च उठाया - उसके भाई को उसे इलाज के लिये धनबाद ले जाना पड़ा।
- रीना ने आरोप लगाया कि अपने ससुराल में रहते हुए उसे शारीरिक एवं मानसिक यातना दी गई, दिनेश ने चार पहिया वाहन खरीदने के लिये 5 लाख रुपये की मांग की तथा उसके लिये शौचालय की व्यवस्था न करना या उसे खाना पकाने के लिये LPG स्टोव का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी गई।
- जुलाई 2018 में, दिनेश ने कुटुंब न्यायालय, रांची के समक्ष दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये वाद संस्थित किया, जिसमें दावा किया गया कि रीना बिना किसी कारण के चली गई थी तथा उसके वृद्ध माता-पिता की देखभाल में सहायता नहीं कर रही थी।
- अगस्त 2018 में, रीना ने दिनेश के विरुद्ध IPC की धारा 498 A (घरेलू हिंसा) के अधीन एक आपराधिक शिकायत दर्ज की, जिसके कारण उसे कारावास हुआ तथा बिजली बोर्ड में जूनियर इंजीनियर के रूप में उसकी नौकरी से अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया।
- अगस्त 2019 में, रीना ने धारा 125 CrPC के अधीन भरण-पोषण के लिये आवेदन किया, जिसे फरवरी 2022 में कुटुंब न्यायालय ने स्वीकृत कर लिया, जिसमें दिनेश को उसके 43,211 रुपये के शुद्ध वेतन के आधार पर 10,000 रुपये मासिक भुगतान करने का आदेश दिया गया।
- अप्रैल 2022 में, कुटुंब न्यायालय ने भरण पोषण के वाद में दिनेश के पक्ष में निर्णय दिया, जिसमें रीना को दो महीने के अंदर दांपत्य जीवन पुनः प्रारंभ करने का निर्देश दिया गया, जिसका उसने पालन नहीं किया।
- दिनेश ने झारखंड उच्च न्यायालय में एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से भरण-पोषण आदेश को चुनौती दी, जिसमें तर्क दिया गया कि चूंकि रीना ने भरण पोषण आदेश का पालन करने से मना कर दिया, इसलिये वह CrPC की धारा 125 (4) के अधीन भरण-पोषण की अधिकारी नहीं है।
- उच्च न्यायालय द्वारा दिनेश के पक्ष में निर्णय दिये जाने के बाद रीना ने उच्चतम न्यायालय में अपील की, जिसके परिणामस्वरूप यह मामला सामने आया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि CrPC की धारा 125 सामाजिक न्याय के लिये एक उपाय है, जिसे विशेष रूप से महिलाओं एवं बच्चों की सुरक्षा के लिये अधिनियमित किया गया है, जो संविधान के अनुच्छेद 39 द्वारा सुदृढ़ किये गए अनुच्छेद 15(3) के संवैधानिक दायरे में आता है।
- न्यायालय ने कहा कि भरण-पोषण की कार्यवाही अनिवार्य रूप से सिविल प्रकृति की होती है, तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता में उनका समावेश मुख्य रूप से सिविल न्यायालयों में उपलब्ध उपचार की तुलना में अधिक त्वरित एवं किफायती उपचार प्रदान करने के लिये किया गया था।
- न्यायालय ने कहा कि दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये केवल आदेश पारित करना तथा पत्नी द्वारा उसका अनुपालन न करना, स्वयं में, CrPC की धारा 125(4) के अंतर्गत अयोग्यता को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं होगा; प्रत्येक मामले का निर्णय उसके व्यक्तिगत गुण-दोष के आधार पर किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानों एवं पूर्व न्यायिक निर्णयों के अनुसार, दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये कार्यवाही में निष्कर्ष CrPC की धारा 125 के अंतर्गत कार्यवाही पर निर्णायक रूप से बाध्यकारी नहीं हो सकते।
- मानसिक क्रूरता पर, न्यायालय ने कहा कि इसका मूल्यांकन कदाचार के अलग-अलग उदाहरणों के बजाय परिस्थितियों एवं व्यवहार के पैटर्न की समग्रता के आधार पर संचयी रूप से किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि गर्भपात के बाद रीना को अनदेखा करने में दिनेश का आचरण, साथ ही उसके वैवाहिक संबंध में सिद्ध दुर्व्यवहार, भरण पोषण डिक्री के बावजूद उसके वैवाहिक संबंध से दूर रहने के लिये पर्याप्त कारण थे।
- न्यायालय ने आलोचनात्मक रूप से टिप्पणी की कि भरण पोषण डिक्री को निष्पादित करने या उसके बाद विवाह-विच्छेद की मांग करने में दिनेश की निष्क्रियता उसकी ईमानदारी की कमी को दर्शाती है तथा भरण पोषण के दावों के विरुद्ध ढाल के रूप में डिक्री का उपयोग करते हुए अपनी पत्नी के प्रति अपने उत्तरदायित्व से बचने का प्रयास प्रदर्शित करती है।
- न्यायालय ने कहा कि पत्नी का अपने पति के साथ रहने में "असफलता" "अस्वीकृति" से अलग है, तथा यह भी कहा कि CrPC की धारा 125(4) में दिया गया महत्त्वपूर्ण शब्द "असफलता" के बजाय "अस्वीकृति" है।
दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना क्या है?
- दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के अंतर्गत प्रावधानित किया गया एक विधिक उपाय है, जिसका उद्देश्य उन पति-पत्नी के बीच वैवाहिक सहवास को पुनर्स्थापित करना है, जो पहले दांपत्य अधिकारों का उपभोग करते थे, लेकिन अब पृथक रह रहे हैं।
- यह उपचार किसी भी पति या पत्नी द्वारा तब मांगा जा सकता है, जब दूसरा बिना किसी उचित कारण के उनकी संगति से हट जाता है, तथा उचित कारण को सिद्ध करने का भार हटने वाले पति या पत्नी पर पड़ता है।
- इस उपचार को प्राप्त करने के लिये, तीन आवश्यक शर्तें पूरी होनी चाहिये:
- दोनों पक्षों का विधिक रूप से विवाहित होना आवश्यक है,
- एक पति या पत्नी ने दूसरे के समाज से स्वयं को अलग कर लिया हो,
- ऐसी वापसी वैध औचित्य के बिना होनी चाहिये।
- याचिका उचित अधिकारिता वाले कुटुंब न्यायालय में संस्थित की जानी चाहिये -
- या तो जहाँ विवाह संपन्न हुआ हो, जहाँ प्रतिवादी रहता हो, जहाँ दंपत्ति अंतिम बार साथ रहे हों,
- जहाँ पत्नी रहती हो, यदि वह याचिकाकर्त्ता है।
- न्यायालय तभी डिक्री जारी करेगा जब वह संतुष्ट हो जाएगा कि याचिका में दिये गए कथन सत्य हैं तथा आवेदन को खारिज करने का कोई विधिक आधार नहीं है।
- डिक्री पारित होने के बाद, प्रतिवादी के लिये याचिकाकर्त्ता के साथ सहवास फिर से प्रारंभ करना विधिक दायित्व बन जाता है।
- न्यायालय तभी डिक्री जारी करेगा जब वह संतुष्ट हो जाएगा कि याचिका में दिये गए कथन सत्य हैं और आवेदन को खारिज करने का कोई विधिक आधार नहीं है। डिक्री पारित होने के बाद, प्रतिवादी के लिये याचिकाकर्त्ता के साथ सहवास पुनः प्रारंभ करना विधिक दायित्व बन जाता है।
- यदि प्रतिवादी डिक्री पारित होने के एक वर्ष के अंदर उसका अनुपालन करने में विफल रहता है, तो यह हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह-विच्छेद का आधार बन जाता है, जिससे किसी भी पक्ष को विवाह विच्छेद की मांग करने की अनुमति मिल जाती है।
HMA, 1955 की धारा 9 क्या है?
- HMA, 1955 की धारा 9 दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना से संबंधित है।
- यह धारा किसी भी पति या पत्नी को विधिक उपचार प्रदान करती है, जब दूसरा बिना किसी उचित औचित्य के साथ रहने या सहवास से पीछे हट जाता है।
- पति या पत्नी जो यह महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है (पीड़ित पक्ष) वे दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये जिला न्यायालय में याचिका संस्थित कर सकते हैं।
- डिक्री देने से पहले न्यायालय को दो शर्तों को पूरा करना होगा:
- याचिका में दिये गए कथन सत्य हैं
- आवेदन को अस्वीकार करने का कोई विधिक आधार नहीं है
- साक्ष्य का भार विशेष रूप से उस पति या पत्नी पर होता है जिसने विवाह से पृथक होने का निर्णय लिया है, ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि ऐसा करने के लिये उनके पास उचित कारण था।
- इस संदर्भ में "समाज से पृथक होने" का अर्थ है पति एवं पत्नी के रूप में एक साथ रहना बंद करना, जिससे वैवाहिक सहवास प्रभावी रूप से समाप्त हो जाता है।
- यह धारा लिंग-तटस्थ है, जो पति या पत्नी में से किसी को भी इस उपचार की मांग करने की अनुमति देती है यदि उनका जीवनसाथी विवाह से पृथक हो गया है।
- अधिनियम में "उचित कारण" शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, इसलिये प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर पुनर्स्थापना के लिये वैध कारण निर्धारित करने का कार्य न्यायालयों पर छोड़ दिया गया है।
- इस धारा का उद्देश्य दांपत्य रिश्ते को बनाए रखने के लिये एक विधिक तंत्र प्रावधानित करना है, ताकि पृथक हुए पति या पत्नी को वैवाहिक संबंध में वापस लाया जा सके।
CrPC, 1973 की धारा 125(4) क्या है?
- CrPC की धारा 125 या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 के अंतर्गत पत्नियों, बच्चों एवं माता-पिता के भरण-पोषण का प्रावधान दिया गया है।
- CrPC की धारा 125(4) उस अपेक्षा से संबंधित है, जहाँ भरण-पोषण की अनुमति नहीं है।
- तीन विशिष्ट परिस्थितियों में पत्नी अपने पति से भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार खो देती है:
- पहली अयोग्यता: यदि वह व्यभिचार में रह रही है, तो वह अपने पति से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती।
- दूसरी अयोग्यता: यदि वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से अस्वीकृति देने करती है, तो वह भरण-पोषण का अपना अधिकार खो देती है।
- तीसरी अयोग्यता: यदि पति एवं पत्नी आपसी सहमति से पृथक रह रहे हैं, तो पत्नी भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती।
- अयोग्यता नियमित भरण-पोषण हेतु भुगतान और विधिक कार्यवाही के दौरान अंतरिम भरण-पोषण दोनों पर लागू होती है।
- इन अयोग्यता वाली शर्तों को सिद्ध करने का भार आमतौर पर पति पर होता है जो भरण-पोषण से अस्वीकृति देने करना चाहता है।
- दूसरी अयोग्यता लागू होने के लिये, पति के साथ रहने से "अस्वीकृति देने" करने पर बल दिया जाता है, न कि केवल ऐसा करने में "असफल" होने पर, तथा अस्वीकृति पर्याप्त कारण के बिना होना चाहिये।
- प्रावधान में "पर्याप्त कारण" शब्द का तात्पर्य यह है कि यदि पत्नी के पास अपने पति के साथ रहने से अस्वीकृति देने करने के लिये वैध आधार हैं, तो भरण-पोषण का उसका अधिकार यथावत रहेगा।
दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का आदेश स्वतः ही भरण-पोषण पर रोक क्यों नहीं लगाता?
- उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये केवल एक डिक्री का अस्तित्व, भले ही पत्नी द्वारा उसका अनुपालन न किया गया हो, CrPC की धारा 125(4) के अंतर्गत अयोग्यता को ट्रिगर नहीं कर सकता है, जब तक कि यह जाँच न की जाए कि पत्नी के पास वैवाहिक संबंध में वापस लौटने से अस्वीकृति देने के पर्याप्त कारण थे या नहीं।
- दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना कार्यवाही में प्राप्त निष्कर्ष, CrPC की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण कार्यवाही पर निर्णायक रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, क्योंकि ये स्वतंत्र कार्यवाहियाँ हैं, जहाँ न्यायालय को अलग से मूल्यांकन करना होगा कि क्या पत्नी के पास पृथक रहने का पर्याप्त कारण है।
- भरण-पोषण हेतु संस्थित वाद में न्यायालय को सभी परिस्थितियों की स्वतंत्र रूप से जाँच करनी चाहिये, जिसमें क्रूरता, दुर्व्यवहार या वैध आधार निहित हैं जो पत्नी के वैवाहिक संबंध स्थापित करने से अस्वीकृति देने को उचित मानते हैं, भले ही प्रतिपूर्ति डिक्री मौजूद हो या नहीं।
- CrPC की धारा 125(4) प्रतिपूर्ति डिक्री के साथ केवल गैर-अनुपालन के बजाय "पर्याप्त कारण के बिना अस्वीकृति देने" पर है, जिससे गैर-अनुपालन के तथ्य के बजाय अस्वीकृति देने करने के पीछे के कारणों की जाँच करना आवश्यक हो जाता है।