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आपराधिक कानून
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अंतर्गत अनुमान
29-Jan-2025
इवान रथिनम बनाम मियालन जोसेफ “यद्यपि, यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि ‘अतिरिक्त’ सहवास या ‘एकाधिक’ सहवास स्वयं ही पति-पत्नी के बीच हुए सहवास को मना नहीं करता तथा उनकी असहवासिता (non-access) को साबित नहीं करता।” न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
सोर्स: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्जल भुइयाँ की पीठ ने यह निर्णय दिया कि यदि यह साबित हो जाता है कि विवाहिता दंपत्ति के बीच संतान की गर्भाधान अवधि के दौरान सहवास की संभावना थी, तो संतान को वैध (वैध संतान) माना जाएगा, जिससे दंपत्ति की पितृत्व की पुष्टि होती है।
- उच्चतम न्यायालय ने इवान रथिनम बनाम मिलन जोसेफ (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
इवान रथिनम बनाम मिलन जोसेफ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- प्रतिवादी की माता का विवाह श्री राजू कुरियन से हुआ था, तथा वर्ष 1991 में उनकी एक पुत्री उत्पन्न हुई।
- प्रतिवादी का जन्म 11.06.2001 को हुआ था और जन्म रजिस्टर में श्री राजू कुरियन को उसके पिता के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।
- दांपत्य मतभेदों के कारण, प्रतिवादी की माता एवं श्री राजू कुरियन वर्ष 2003 में पृथक् हो गए तथा वर्ष 2006 में उन्हें विधिवत विवाह-विच्छेद प्राप्त हुआ।
- प्रतिवादी की माता ने दावा किया कि अपीलकर्त्ता ही जैविक पिता है, क्योंकि उसका उसके साथ विवाहेतर संबंध था, और जन्म रजिस्टर में नाम परिवर्तन हेतु निवेदन किया, जिसे न्यायालय के आदेश के बिना अस्वीकार कर दिया गया।
- मुकदमे का पहला चरण:
- 2007 में, प्रतिवादी और उसकी माता ने सिविल न्यायालय के समक्ष वाद संस्थित किया, जिसमें अपीलकर्त्ता को पिता घोषित करने एवं डीएनए परीक्षण कराने का निर्देश देने की प्रार्थना की गई।
- सिविल न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को डीएनए परीक्षण कराने का निर्देश दिया, परंतु अपीलकर्त्ता ने उक्त आदेश को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अंतर्गत केवल तभी पितृत्व परीक्षण (Paternity Test) का आदेश दिया जा सकता है जब प्रथम दृष्टया (Prima Facie) एक सशक्त प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हो।
- अपीलकर्त्ता ने कामती देवी बनाम पोशी राम वाद का संदर्भ देते हुए पुनर्विचार याचिका संस्थित की, जिसके परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में संशोधन किया। संशोधित आदेश में यह स्पष्ट किया गया कि डीएनए परीक्षण केवल तभी अनुमन्य होगा जब यह साबित हो जाए कि प्रतिवादी की माता एवं श्री राजू कुरियन के मध्य सहवास नहीं हुआ था।
- प्रतिवादी एवं उसकी माता ने इस आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, परंतु 14 सितंबर 2009 को यह याचिका खारिज कर दी गई।
- सिविल न्यायालय ने मूल वाद (Original Suit) को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि प्रतिवादी की माता असहवास (Non-Access) को सिद्ध करने में असफल रही।
- कुटुंब न्यायालय ने भरण-पोषण याचिका को समाप्त कर दिया, परंतु यह आदेश दिया कि यदि मूल वाद को पलटा जाता है, तो भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित किया जा सकता है।
- प्रतिवादी और उसकी माता ने तृतीय अतिरिक्त उप-न्यायाधीश, एर्नाकुलम के समक्ष अपील की, किंतु अपील 21 फरवरी 2011 को खारिज कर दी गई।
- उच्च न्यायालय के समक्ष एक दूसरी अपील (RSA संख्या 973/2011) भी 28 अक्टूबर 2011 को खारिज कर दी गई, जिसमें वैधता की उपधारणा को बरकरार रखा गया। उक्त आदेश अंतिम रूप से स्थायी हो गया ।
- मुकदमे का द्वितीय चरण:
- वर्ष 2015 में, प्रतिवादी ने आर्थिक कठिनाइयों एवं श्री राजू कुरियन द्वारा सहयोग न मिलने का हवाला देते हुए भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित करने हेतु अनुरोध किया।
- कुटुंब न्यायालय ने 09 नवंबर 2015 को याचिका को पुनर्संस्थित करते हुए निर्णय दिया कि भरण-पोषण और वैधता के मामलों पर उसको विशेष अधिकारिता है।
- अपीलकर्त्ता ने उक्त आदेश को उच्च न्यायालय में यह तर्क देते हुए चुनौती दी कि इस विवाद्यक का पहले ही निपटान किया जा चुका है, अतः इसे पुनः संस्थित नहीं किया जा सकता।
- उच्च न्यायालय ने 21 मई 2018 को अपने निर्णय में निर्णय में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले:
- वैधता बच्चे के जैविक पिता से भरण-पोषण के अधिकार को प्रभावित नहीं करती है।
- पितृत्व जाँच दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन वैधता भिन्न एवं स्वतंत्र विषय है।
- वैधता पर सिविल न्यायालय के निर्णय कुटुंब न्यायालय को भरण-पोषण के लिये पितृत्व निर्धारित करने से नहीं रोकते हैं।
- व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष तत्काल अपील संस्थित की।
- उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दिये:
- क्या वैधता की उपधारणा विधि में पितृत्व निर्धारण करती है?
- क्या सिविल न्यायालय के पास मूल वाद पर विचार करने का अधिकार था; और तदनुसार, क्या कुटुंब न्यायालय भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित करने का हकदार था?
- क्या प्रतिवादी द्वारा शुरू किये गए मुकदमे के दूसरे चरण को पूर्व-न्याय (res judicata) के सिद्धांत द्वारा रोक दिया गया था?
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- प्रथम विवाद्यक के संबंध में:
- यह विवाद्यक दो महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर आधारित है:
- ‘वैधता’ और ‘पितृत्व’ के मध्य अंतर।
- हितों का संतुलन और डीएनए परीक्षण के लिये ‘आवश्यकता की कसौटी’।
- न्यायालय ने इस वैश्विक परिदृश्य का विश्लेषण करते हुए माना कि पितृत्व एवं वैधता के मध्य संबंध को वृहद रूप से स्वीकार किया गया है। धर्मजता (Legitimacy) कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है, अपितु यह पितृत्व का ही एक अभिन्न अंग है।
- आगे यह भी कहा गया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 112 में उपबंध है कि धर्मजत्व का निश्चायक सबूत पितृत्व के समतुल्य है।
- इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी संतान की पितृत्व की अनुचित जाँच से बचा जा सके।
- यदि कोई व्यक्ति को धर्मजता की उपधारणा का खण्डन करना चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम यह प्रमाणित करना होगा कि पति-पत्नी के बीच सहवास नहीं हुआ (Non-Access) तथा इसे पर्याप्त साक्ष्यों द्वारा साबित किया जाना आवश्यक है।
- भले ही यह मान लिया जाए कि प्रतिवादी की माता का विवाह के दौरान, विशेष रूप से प्रतिवादी के जन्म की अवधि में, अपीलकर्त्ता के साथ संबंध था, तो मात्र इस तथ्य से वैधता की धर्मजता की उपधारणा (Presumption of Legitimacy) स्वतः निष्प्रभावी नहीं हो जाती।
- यह स्पष्ट किया गया कि यदि किसी विवाहिता स्त्री के किसी अन्य व्यक्ति से ‘अतिरिक्त’ (Additional) या ‘एकाधिक’ (Multiple) संबंध हों, तो यह स्वतः यह प्रमाणित नहीं करता कि पति-पत्नी के मध्य सहवास नहीं हुआ था (Non-Access)।
- अंततः न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि इस मामले में हितों का संतुलन (Balance of Interest) ऐसा नहीं है कि डीएनए परीक्षण की अत्यावश्यकता हो।
- यह विवाद्यक दो महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर आधारित है:
- द्वितीय विवाद्यक के संबंध में:
- न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि कुटुंब न्यायालय को दिया गया क्षेत्राधिकार केवल दांपत्य विवादों (Matrimonial Causes) से उत्पन्न विवाद्यकों के निपटान के लिये प्रदान किया गया है।
- न्यायालय ने यह भी माना कि यह विवाद केवल कुटुंब न्यायालय की विशेष अधिकारिता (Exclusive Jurisdiction) में नहीं आता।
- तृतीय विवाद्यक के संबंध में:
- न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि परिवार न्यायालय द्वारा भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित करने का आदेश, पूर्व-न्याय (Res Judicata) के सिद्धांत का प्रत्यक्ष उल्लंघन है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 क्या है?
- धारा 112 - विवाह के दौरान जन्म, वैधता का निर्णायक प्रमाण - यह तथ्य किसी व्यक्ति का जन्म उसकी माता और पुरुष के बीच विधिमान्य विवाह के कायम रहते हुए या उसका विघटन होने के उपरांत माता के अविवाहित रहते हुए दो सौ अस्सी दिनों के भीतर हुआ था, इस बात का निश्चायक सबूत होगा कि वह उस पुरुष का धर्मज पुत्र है, जब तक कि यह दर्शित न किया जा सके कि विवाह के पक्षकारों की परस्पर पहुँच ऐसे किसी समय नहीं थी, जब उसका गर्भाधान किया जा सकता था।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 द्वारा निश्चायक सबूत को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
- जहाँ कि इस अधिनियम द्वारा एक तथ्य किसी अन्य तथ्य का निश्चायक सबूत घोषित किया गया है, वहाँ न्यायालय उस एक तथ्य के साबित हो जाने पर उस अन्य को साबित मानेगा और उसे नासाबित करने के प्रयोजन के लिए साक्ष्य दिए जाने की अनुज्ञा नहीं देगा।
- पितृत्व के निश्चायक सबूत को केवल तभी खारिज किया जा सकता है जब बच्चे के गर्भाधान के समय पति द्वारा सहवास न होने का प्रमाण दिया जाए। यहां सहवास से मतलब वास्तविक वैवाहिक संभोग से है।
- सभी मामलों में यह स्थापित किया जाना चाहिये कि गर्भधारण के समय पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे तक पहुँच की कोई संभावना नहीं थी। उदाहरण के लिए, गर्भधारण के समय एक लंदन में था जबकि दूसरा भारत में था।
- यह प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 116 में उल्लिखित है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- नंदलाल वासुदेव बड़वाइक बनाम लता नंदलाल बड़वाइक (2014):
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) उस समय पारित हुआ था जब आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकें अस्तित्व में नहीं थीं। जब सत्य ज्ञात होता है तो उपधारणा की कोई गुंजाइश नहीं होती है, किंतु जहाँ निश्चायक सबूत और आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों के बीच संघर्ष होता है, वहाँ तकनीक को पहले से ऊपर माना जाना चाहिये।
- दीपनविता रॉय बनाम रोनोब्रोती रॉय (2015):
- पति का बेवफाई का आरोप - पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत याचिका संस्थित करते हुए आरोप लगाया कि उसकी पत्नी विश्वासघाती थी और उसने अन्य व्यक्ति को संतान का पिता बताया ।
- डीएनए परीक्षण के लिये अनुरोध - अपने दावे को पुष्ट करने के लिये, पति ने बच्चे के पितृत्व को निर्धारित करने के लिए डीएनए परीक्षण की मांग की।
- विश्वासघात साबित करने में चुनौती - पति कथित व्यभिचार का प्रत्यक्ष सबूत देने के लिये संघर्ष करता रहा, जिससे उसके दावे को साबित करने के लिये डीएनए परीक्षण सबसे विश्वसनीय वैज्ञानिक तरीका बन गया।
- उच्च न्यायालय के डीएनए परीक्षण के आदेश को बरकरार रखा गया – उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि इस संदर्भ में डीएनए परीक्षण के लिये उच्च न्यायालय का निर्देश उचित था।
- व्यभिचार से संबंधित संबंध - पति का डीएनए परीक्षण के लिये अनुरोध सीधे उसकी पत्नी की विश्वासघात के आरोप से जुड़ा था।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम और आधुनिक विज्ञान की धारा 112 – न्यायालय ने माना कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112, जो धर्मजता की उपधारणा स्थापित करती है, डीएनए परीक्षण के आगमन से पहले अधिनियमित की गई थी।
- उपधारणा को चुनौती दी जा सकती है – न्यायलय ने कहा कि धारा 112 एक निश्चायक उपधारणा प्रदान करती है, लेकिन यह निरपेक्ष नहीं है और इसे वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ खण्डित किया जा सकता है।
- वैज्ञानिक साक्ष्य बनाम विधिक उपधारणा – उच्चतम न्यायालय ने डीएनए परीक्षण को एक अत्यधिक सटीक वैज्ञानिक साक्ष्य के रूप में मान्यता दी और इस बात पर बल दिया कि जब विधिक उपधारणाएं विश्व स्तर पर स्वीकृत वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ संघर्ष करती हैं, तो बाद वाले को ही प्रबल होना चाहिये।
- न्याय और सर्वोत्तम वैज्ञानिक तरीके - न्यायालय ने निर्णय दिया कि ऐसे मामलों में जहाँ वैज्ञानिक साक्ष्य विधिक उपधारणाओं का खण्डन करते हैं, न्यायालयों को न्याय सुनिश्चित करने के लिये विधिक तकनीक पर वैज्ञानिक साक्ष्य को प्राथमिकता देनी चाहिये।
सिविल कानून
AOR की उपस्थिति
29-Jan-2025
मध्य प्रदेश राज्य बनाम दिलीप "रिकॉर्ड पर उपस्थित एक अधिवक्ता, जिसे वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया है, वह किसी भी मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में तब तक उपस्थित नहीं हो सकता जब तक कि वह रजिस्ट्री को 2013 के नियमों के आदेश IV के नियम 18 के अनुपालन की रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं करता।" न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने अभिनिर्धारित की है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड (AOR) जिन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया है, उन्हें अपने मुवक्किलों को अपनी नियुक्ति के विषय में सूचित करना चाहिये तथा रजिस्ट्री को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिये' जिसमें पुष्टि की गई हो कि उनके मुवक्किलों के प्रतिनिधित्व के लिये वैकल्पिक व्यवस्था की गई है।
- उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश राज्य बनाम दिलीप (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम दिलीप मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला आपराधिक अपील से उत्पन्न हुआ था, जिसमें मध्य प्रदेश राज्य अपीलकर्त्ता था और दिलीप प्रतिवादी था।
- कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादी दिलीप का प्रतिनिधित्व करने वाले एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड (AOR) को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया था।
- यह मामला AOR को वरिष्ठ अधिवक्ता की पदवी दिये जाने पर उचित प्रक्रिया के विषय में एक प्रशासनिक मामले को प्रकटित करता है।
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 16 के अंतर्गत, एक बार किसी अधिवक्ता को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित कर दिया जाता है, तो वे:
- वकालतनामा दाखिल करें
- बिना AOR के प्रस्तुत हों
- ग्राहकों से सीधे संक्षिप्त विवरण स्वीकार करें
- उच्चतम न्यायालय नियम, 2013, विशेष रूप से नियम 18, आदेश IV, वरिष्ठ अधिवक्ताओं के रूप में नामित AOR के दायित्वों को नियंत्रित करता है।
- रजिस्ट्री ने प्रतिवादी (दिलीप) को उनके AOR के वरिष्ठ अधिवक्ता के दर्जे में पदोन्नत होने के बाद एक वैकल्पिक व्यवस्था नोटिस जारी किया था।
- इस प्रक्रियात्मक मामले ने ऐसे पदनामों के होने पर अधिवक्ताओं एवं उनके मुवक्किलों के बीच संचार की उत्तरदायित्व के विषय में प्रश्न किये।
- इस मामले में ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड की लंबित जाँच भी शामिल है, क्योंकि रजिस्ट्री को अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता को सॉफ्ट कॉपी उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- नियम 18 के दायित्व:
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि आदेश IV का नियम 18 अनेक दायित्वों को सम्मिलित करता है:
- सबसे पहले, अधिवक्ताओं को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में अपनी पदनाम के विषय में पक्षकारों को सूचित करना चाहिये।
- दूसरा, उन्हें रजिस्ट्री को रिपोर्ट करना चाहिये कि:
- सभी पक्षों को सूचित कर दिया गया है।
- पक्षों के प्रतिनिधित्व के लिये आवश्यक व्यवस्थाएँ कर दी गई हैं।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि आदेश IV का नियम 18 अनेक दायित्वों को सम्मिलित करता है:
- वर्तमान रजिस्ट्री प्रेक्टिस:
- न्यायालय ने कहा कि रजिस्ट्री अक्सर वादियों को नोटिस जारी करती है जब उनका AOR वरिष्ठ अधिवक्ता बन जाता है।
- इस परंपरा के कारण नोटिस न मिलने के कारण मामले के निपटान में विलंब होता है।
- न्यायालय ने इस दृष्टिकोण पर चिंता व्यक्त की।
- व्यावसायिक ड्यूटी:
- न्यायालय ने यह स्थापित करने के लिये पापन्ना बनाम कर्नाटक राज्य (2023) मामले का संदर्भ दिया:
- वरिष्ठ अधिवक्ताओं का यह व्यवसायिक कर्त्तव्य है कि वे अपने मुवक्किलों को उनके पदनाम के विषय में सूचित करें।
- उन्हें मुवक्किलों से वैकल्पिक व्यवस्था करने का निवेदन करना चाहिये।
- यह कर्त्तव्य 2013 के नियमों से पहले भी मौजूद था।
- न्यायालय ने यह स्थापित करने के लिये पापन्ना बनाम कर्नाटक राज्य (2023) मामले का संदर्भ दिया:
- अनुपालन एवं परिणाम:
- न्यायालय ने कहा कि वरिष्ठ अधिवक्ता तब तक न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हो सकते जब तक वे नियम 18 के दायित्वों को पूरा नहीं करते।
- इसका पालन न करने पर उन्हें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने से रोक दिया जाएगा।
- न्यायालय की भूमिका:
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे परिवर्तनों के विषय में मुवक्किल को सूचित करना उसके लिये बाध्य नहीं है।
- हालाँकि, जहाँ वादी का प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता है, वहाँ नोटिस जारी करने का विवेकाधिकार उसके पास है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि यह उत्तरदात्यित्व AOR की है, न्यायालय की नहीं।
- ऐतिहासिक संदर्भ:
- न्यायालय ने कहा कि ये दायित्व 2013 के नियमों से पहले भी मौजूद थे।
- इन संचारों को संभालना अधिवक्ता का व्यवसायिक कर्त्तव्य है, न्यायालय का उत्तरदायित्व नहीं।
- न्यायालय ने रजिस्ट्रार (न्यायिक) को 27 फरवरी 2025 तक एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया, जिसमें 1 जनवरी 2024 से वरिष्ठ अधिवक्ताओं के रूप में नामित AOR के अनुपालन का विवरण हो, जिसमें गैर-अनुपालन करने वाले अधिवक्ताओं के नाम भी शामिल हों।
उच्चतम न्यायालय नियम, 2013 का नियम 18, आदेश IV क्या है?
- आदेश IV में अधिवक्ताओं से संबंधित नियम प्रावधानित किये गए हैं।
- नियम 18 में विशेष रूप से कहा गया है कि:
- कोई एडवोकेट ऑन रिकार्ड, जो वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में पदनामित होने पर या न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने पर या किसी अन्य कारण से किसी मामले में किसी पक्षकार के लिये एडवोकेट ऑन रिकार्ड नहीं रह जाता है, वह उस पक्षकार को शीघ्र सूचित करेगा कि उसने मामले में एडवोकेट ऑन रिकार्ड के रूप में उक्त पक्षकार का प्रतिनिधित्व करना बंद कर दिया है।
- इस प्रकार नामित वरिष्ठ अधिवक्ता तब तक वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में उपस्थित नहीं होंगे, जब तक कि वे रजिस्ट्री को यह रिपोर्ट नहीं दे देते कि उनके द्वारा पूर्व में प्रतिनिधित्व किये गए पक्षकारों को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में उनके पदनाम के विषय में सूचित कर दिया गया है तथा तब तक उनके द्वारा प्रतिनिधित्व किये गए सभी मामलों में पक्षकारों के न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के लिये आवश्यक व्यवस्था कर दी गई है।
वाणिज्यिक विधि
बैंक खाते का धन
29-Jan-2025
सहायक आयकर आयुक्त बनाम मोहम्मद सलीह “बैंक खाते में जमा धन ‘संपत्ति’ माना जाता है तथा इसे आयकर अधिनियम की धारा 281B के अंतर्गत अस्थायी रूप से जब्त किया जा सकता है।” न्यायमूर्ति सतीश निनान एवं शोबा अन्नम्मा ईपेन |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सतीश निनान एवं न्यायमूर्ति शोभा अन्नम्मा इपेन की खंडपीठ ने माना है कि बैंक खाते में नकदी 'संपत्ति' के रूप में योग्य है, जिसे आयकर अधिनियम की धारा 281B के अंतर्गत अनंतिम कुर्की के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है।
- केरल उच्च न्यायालय ने सहायक आयकर आयुक्त बनाम मोहम्मद सलीह (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
- न्यायालय ने कहा कि "किसी भी संपत्ति" शब्द में बैंक जमा शामिल है, भले ही उनका स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो।
- यह निर्णय उस मामले में आया, जिसमें आयकर विभाग ने बेहिसाब नकदी जब्त होने के बाद एक करदाता के बैंक खाते को कुर्क कर लिया था।
सहायक आयकर आयुक्त बनाम मोहम्मद सलीह (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 12 अप्रैल 2022 को पुलिस ने एक कार को रोका तथा दो व्यक्तियों (बाद में प्रतिवादी) से ₹1,56,00,000/- की नकदी जब्त की।
- जब्त की गई राशि को प्रारंभ में न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की न्यायालय में प्रस्तुत किया गया।
- आयकर विभाग ने आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 132A के अंतर्गत विभाग को राशि जारी करने के लिये आवेदन किया।
- प्रतिवादियों ने इस आदेश को आपराधिक विविध मामलों में उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने 21 दिसंबर, 2023 के आदेश के माध्यम से प्रतिवादियों को राशि के लिये बॉण्ड प्रस्तुत करने पर नकदी जारी करने का निर्देश दिया।
- इसके बाद, आयकर विभाग ने नकदी के लिये कोई स्पष्टीकरण न मिलने तथा यह निर्धारित करने के बाद कार्यवाही प्रारंभ की कि कर योग्य आय मूल्यांकन से बच गई थी।
- विभाग ने पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही शुरू करने के लिये आयकर अधिनियम की धारा 148 के अंतर्गत एक नोटिस जारी किया।
- यह अनुमान लगाते हुए कि दण्ड सहित मूल्यांकन पर अपेक्षित मांग दो करोड़ से अधिक होगी, विभाग ने धारा 281B के अंतर्गत प्रतिवादियों के बैंक खातों की अनंतिम कुर्की का आदेश दिया।
- प्रतिवादियों ने इन कुर्की आदेशों को एक रिट याचिका के माध्यम से चुनौती दी, जिसे प्रारंभ में एकल न्यायाधीश द्वारा अनुमति दी गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- धारा 281B (1) के अंतर्गत "किसी भी संपत्ति" शब्द का निर्वचन व्यापक रूप से किया जाना चाहिये, न कि बैंक खातों में पड़े धन को सीमित अर्थ में।
- धारा 281B (1) में "संपत्ति" से पहले "किसी भी" शब्द की उपस्थिति कुर्क की जा सकने वाली संपत्तियों के दायरे को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण विधिक महत्त्व रखती है।
- न्यायालय ने माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत छूट प्राप्त संपत्तियों को छोड़कर, अन्य सभी संपत्तियाँ आयकर अधिनियम की अनुसूची II के अंतर्गत कुर्क की जा सकती हैं।
- अंतरिम रिहाई के लिये मजिस्ट्रेट की न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई सुरक्षा को आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 147 के अंतर्गत संभावित कर मांगों के लिये पर्याप्त सुरक्षा नहीं माना जा सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि अनंतिम कुर्की आदेश दण्ड सहित संभावित मांग के अनुपात में होने चाहिये।
- कुर्की संभावित मांग से काफी अधिक मूल्य की संपत्तियों को शामिल करने वाले व्यापक आदेश नहीं होने चाहिये।
- न्यायालय ने स्वीकार किया कि यद्यपि अनंतिम कुर्की चरण में सटीक मांग निर्धारित नहीं की जा सकती है, लेकिन अधिकारियों को संभावित मांग के विषय में एक उचित राय बनानी चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि बैंक खातों की कुर्की अंतिम उपाय के रूप में की जानी चाहिये, तथा जब भी संभव हो अचल संपत्तियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- धारा 281B के अंतर्गत कुर्की की शक्ति का प्रयोग अत्यधिक सावधानी एवं सतर्कता के साथ किया जाना चाहिये, क्योंकि यह करदाताओं के अधिकारों को प्रभावित करने वाला एक कठोर उपाय है।
आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 281B क्या है?
- धारा 281 कुछ अंतरणों को शून्य करने से संबंधित है।
- धारा 281B कुछ मामलों में राजस्व की सुरक्षा के लिये अनंतिम कुर्की से संबंधित है।
- यह धारा मूल्यांकन अधिकारी को लंबित मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही के दौरान करदाता की किसी भी संपत्ति को अनंतिम रूप से कुर्क करने का अधिकार देती है।
- कुर्की शक्ति का प्रयोग केवल उच्च अधिकारियों (प्रधान मुख्य आयुक्त, मुख्य आयुक्त, प्रधान आयुक्त, आयुक्त, प्रधान महानिदेशक, महानिदेशक, प्रधान निदेशक या निदेशक) से पूर्व अनुमोदन के साथ ही किया जा सकता है।
- राजस्व के हितों की रक्षा के लिये कुर्की को आवश्यक समझा जाना चाहिये, जिसके लिये मूल्यांकन अधिकारी को यह राय बनाने एवं रिकॉर्ड करने की आवश्यकता होती है।
- कुर्की के तरीके को आयकर अधिनियम की दूसरी अनुसूची में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना चाहिये।
- कुर्की अस्थायी है, प्रारंभ में छह महीने के लिये वैध है, हालाँकि इसे मूल्यांकन/पुनर्मूल्यांकन आदेश के बाद दो वर्ष या साठ दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, जो भी बाद में हो।
- करदाता, कुर्क की गई संपत्ति के उचित बाजार मूल्य के बराबर या उससे अधिक की बैंक गारंटी प्रदान करके कुर्की रद्द करवा सकता है।
- यदि कर निर्धारण अधिकारी संतुष्ट हो कि इससे राजस्व हितों की पर्याप्त सुरक्षा होती है, तो वह कम राशि की बैंक गारंटी स्वीकार कर सकता है।
- संपत्ति के मूल्य का निर्धारण करने के लिये, कर निर्धारण अधिकारी मूल्यांकन अधिकारी को संदर्भित कर सकता है, जिसे 30 दिनों के अंदर रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
- यदि करदाता कर निर्धारण के बाद मांगी गई राशि का भुगतान करने में विफल रहता है, तो कर निर्धारण अधिकारी राशि वसूलने के लिये बैंक गारंटी का सहारा ले सकता है, तथा अतिरिक्त राशि प्रधान आयुक्त या आयुक्त के व्यक्तिगत जमा खाते में जमा कर दी जाएगी।
आयकर अधिनियम की धारा 281B के अंतर्गत "किसी संपत्ति" की सीमा को दर्शाने वाले प्रमुख प्रावधान क्या हैं?
- धारा 281B का प्रावधान है कि "कोई भी संपत्ति"।
- किसी विशिष्ट प्रकार की संपत्ति तक सीमित नहीं।
- बैंक गारंटी द्वारा मूल्यांकन एवं प्रतिस्थापन के अधीन।
- मूल्यांकनकर्त्ता के स्वामित्व में होना चाहिये।
- केवल निर्धारित प्रक्रियाओं के माध्यम से ही कुर्क किया जा सकता है।
- राजस्व हितों की रक्षा के लिये आनुपातिक होना चाहिये।