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आपराधिक कानून
घरेलू कर्मकारों के अधिकारों की रक्षा के लिये विधान
30-Jan-2025
अजय मलिक बनाम उत्तराखंड राज्य "वास्तव में, भारत में घरेलू कर्मकार बड़े पैमाने पर असुरक्षित हैं तथा उन्हें कोई व्यापक विधिक मान्यता नहीं दी गई है। परिणामस्वरूप, उन्हें अक्सर कम वेतन, असुरक्षित वातावरण एवं प्रभावी उपाय के बिना लंबे समय तक कार्य करना पड़ता है।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने केंद्र सरकार को घरेलू कर्मकारों के अधिकारों की रक्षा के लिये विधान बनाने पर विचार करने का निर्देश दिया है।
- यह कथन उच्चतम न्यायालय ने अजय मलिक बनाम उत्तराखंड राज्य (2025) मामले में कहा।
अजय मलिक बनाम उत्तराखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में अपीलकर्त्ता अजय मलिक DRDO के वैज्ञानिक हैं तथा अशोक कुमार (सह-आरोपी) अजय मलिक के पड़ोसी हैं।
- शिकायतकर्त्ता अनुसूचित जनजाति समुदाय से एक घरेलू कर्मकार है।
- शिकायतकर्त्ता बिरहिपानी नवाटोली बोखी, जिला जशपुर, छत्तीसगढ़ की रहने वाली थी।
- 2009 में, उसके पड़ोसी (सुभाष एवं मोहन राम) उसे नौकरी दिलाने का वचन देकर दिल्ली ले आए।
- उसे शंभू को सौंप दिया गया जो सेंट मरियम प्लेसमेंट सर्विसेज चलाता था।
- प्लेसमेंट एजेंसी ने उसे कई घरों में घरेलू सहायिका के तौर पर कार्य पर रखा।
- कथित तौर पर उसे उसके कार्य के लिये उचित पारिश्रमिक नहीं दिया गया।
- 16 अक्टूबर 2016 को अपीलकर्त्ता ने प्लेसमेंट एजेंसी के माध्यम से शिकायतकर्त्ता की भर्ती की।
- वह देहरादून में उनके आधिकारिक आवास पर कार्य करती थी।
- एक निश्चित दिन, अपीलकर्त्ता अपने परिवार के साथ कानपुर में आधिकारिक ड्यूटी के लिये चला गया।
- घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर ताला लगा हुआ था।
- एक अतिरिक्त चाबी अशोक कुमार (पड़ोसी) को दी गई थी।
- अपीलकर्त्ता ने शिकायतकर्त्ता के पास एक मोबाइल फोन छोड़ दिया।
- बाद में, शिकायतकर्त्ता ने पुलिस से संपर्क किया तथा आरोप लगाया कि उसे सदोष परिरोध में रखा गया है।
- पुलिस ने अशोक कुमार की सहायता से उसे परिसर से बरामद किया।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई तथा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 343 (सदोष परिरोध कारित करना) और 370 (दुर्व्यापार) के अधीन आरोप लगाए गए।
- अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में कार्यवाही रद्द करने के लिये याचिका संस्थित की, जिस पर उच्च न्यायालय ने सुनवाई की कार्यवाही पर रोक लगा दी।
- बाद में अपीलकर्त्ता ने समझौता हेतु आवेदन दायर किया।
- उच्च न्यायालय ने दोनों आवेदनों को खारिज कर दिया।
- सह-अभियुक्त ने आरोप मुक्त करने के लिये याचिका संस्थित की, जिसे प्रारंभ में सत्र न्यायालय ने खारिज कर दिया।
- बाद में उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण को स्वीकार कर लिया तथा उसे आरोप मुक्त कर दिया।
- अपीलकर्त्ता की अपनी निरस्तीकरण याचिका की अस्वीकृति के विरुद्ध अपील।
- सह-अभियुक्त को दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध उत्तराखंड राज्य की अपील।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- अपीलकर्त्ता के संबंध में:
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 343 (सदोष परिरोध) के अधीन प्रथम दृष्टया कोई मामला स्थापित नहीं पाया गया:
- शिकायतकर्त्ता के पास वैकल्पिक निकास उपलब्ध था।
- शिकायतकर्त्ता के पास संचार के लिये एक मोबाइल फोन था।
- DRDO कॉलोनी द्वारा जारी अस्थायी पास।
- शिकायतकर्त्ता का अनापत्ति शपथपत्र जिसमें परिरोध से मना किया गया है।
- भारतीय दण्ड संहिता के अधीन धारा 370 (दुर्व्यापार) के आरोपों में कोई सत्यता नहीं पाई गई:
- FIR का बड़ा हिस्सा अन्य सह-आरोपियों पर केंद्रित था।
- शिकायतकर्त्ता के धारा 164 के अभिकथन में अपीलकर्त्ता के विरुद्ध न्यूनतम आरोप थे।
- शिकायतकर्त्ता के बाद के शपथपत्रों में किसी भी दुर्व्यापार या सदोष परिरोध कारित किये जाने से मना किया गया।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 343 (सदोष परिरोध) के अधीन प्रथम दृष्टया कोई मामला स्थापित नहीं पाया गया:
- आपराधिक षड्यंत्र पर (IPC के अधीन धारा 120B):
- सह-आरोपी के साथ किसी सुनियोजित व्यवस्था का कोई साक्ष्य नहीं मिला।
- केवल शिकायतकर्त्ता को कार्य पर रखने तक ही बातचीत सीमित थी।
- आरोपों को अत्यधिक काल्पनिक पाया गया।
- सह-अभियुक्त के संबंध में:
- उच्च न्यायालय के आरोपमुक्ति आदेश को यथावत रखा तथा कहा कि:
- शिकायतकर्त्ता द्वारा कोई प्रत्यक्ष आरोप नहीं।
- मूल FIR में नाम नहीं।
- किसी भी सदोष परिरोध के विषय में सज्ञान का कोई साक्ष्य नहीं।
- प्रत्यक्ष भागीदारी या दुराशय का अभाव।
- उच्च न्यायालय के आरोपमुक्ति आदेश को यथावत रखा तथा कहा कि:
- अतिरिक्त अवलोकन:
- घरेलू कर्मकारों के अधिकारों से संबंधित प्रणालीगत मुद्दों की पहचान की गई।
- घरेलू कर्मकारों के संरक्षण में विधिक शून्यता पर ध्यान दिया गया।
- न्यायालय ने व्यापक विधान के अभाव पर ध्यान दिया।
- घरेलू कर्मकारों को कई मौजूदा श्रम विधियों से बाहर रखा गया है।
- पिछले विधायी प्रयास विफल रहे हैं।
- घरेलू कर्मकारों के लिये विधिक ढाँचे पर विचार करने हेतु विशेषज्ञ समिति के गठन का निर्देश दिया गया, जिसमें निम्नलिखित पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा:
- कार्य करने की परिस्थितियाँ।
- सामाजिक सुरक्षा लाभ।
- शोषण से सुरक्षा।
- उचित वेतन एवं विनियमित कार्य घंटे।
- पंजीकरण एवं दस्तावेज़ीकरण।
- कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच।
- घरेलू कर्मकारों के अधिकारों की रक्षा के लिये विधायी हस्तक्षेप का आह्वान किया गया।
- न्यायालय ने अंतरिम दिशा-निर्देश जारी न करने का निर्णय लिया।
- शक्तियों के पृथक्करण का सम्मान किया।
- आवश्यक कदम उठाने के लिये विधायिका पर विश्वास किया।
- उच्चतम न्यायालय ने अंततः:
- अपीलकर्त्ता के विरुद्ध अपील स्वीकार की गई तथा कार्यवाही रद्द कर दी गई।
- अशोक कुमार को दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध राज्य की अपील खारिज कर दी गई।
- घरेलू कर्मकारों के अधिकारों की रक्षा के लिये निर्देश जारी किये गए।
अजय मलिक बनाम उत्तराखंड राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी निर्देश क्या थे?
- ये निर्देश शक्तियों के पृथक्करण के संवैधानिक ढाँचे का सम्मान करते हुए, भारत में घरेलू कर्मकारों के अधिकारों को मान्यता देने एवं उनकी रक्षा करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- ये निर्देश शक्तियों के पृथक्करण के संवैधानिक ढाँचे का सम्मान करते हुए, भारत में घरेलू कर्मकारों के अधिकारों को मान्यता देने एवं उनकी रक्षा करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- विशेषज्ञ समिति का गठन: कई मंत्रालयों को संयुक्त रूप से एक समिति गठित करने का निर्देश दिया गया:
- श्रम एवं रोजगार मंत्रालय।
- सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय।
- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय।
- विधि एवं न्याय मंत्रालय।
- समिति का अधिदेश: विधिक ढाँचे की अनुशंसा करने की वांछनीयता पर विचार करना तथा निम्नलिखित पर ध्यान केंद्रित करना:
- घरेलू कर्मकारों के लिये लाभ।
- घरेलू कर्मकारों की सुरक्षा।
- घरेलू कर्मकारों के अधिकारों का विनियमन।
- समिति की संरचना:
- विषय-वस्तु विशेषज्ञों को शामिल करना।
- सटीक संरचना भारत सरकार और संबंधित मंत्रालयों के विवेक पर छोड़ दी गई है।
- समय-सीमा: समिति को 6 महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
- सरकार की भूमिका: रिपोर्ट प्राप्त होने पर, भारत सरकार निम्नलिखित पर विचार करेगी:
- विधिक ढाँचा निर्मित करने की आवश्यकता।
- घरेलू कर्मकारों के कारणों एवं चिंताओं को दूर करने के प्रभावी तरीके।
सांविधानिक विधि
सभी भारतीयों के लिये एकल अधिवास
30-Jan-2025
तरूण धमेजा बनाम सुनील धमेजा एवं अन्य “पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों में अधिवास-आधारित आरक्षण असंवैधानिक है, यह अनुच्छेद 14 का अतिलंघन करता है।” न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, सुधांशु धुलिया एवं एस.वी.एन. भट्टी |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों??
हाल ही में न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने माना है कि पीजी मेडिकल सीटों में अधिवास-आधारित आरक्षण असंवैधानिक है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का अतिलंघन करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने तन्वी बहल बनाम श्रेय गोयल एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
- पीठ ने पिछले निर्णयों की पुष्टि करते हुए कहा कि राज्य कोटे की सीटें केवल NEET की मेरिट के आधार पर भरी जानी चाहिये।
- इस निर्णय का प्रभाव अधिवास-आधारित आरक्षण के अंतर्गत पहले से ही प्रवेश प्राप्त छात्रों पर नहीं पड़ेगा।
तन्वी बहल बनाम श्रेय गोयल एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ से आया, जिसमें इसका एकमात्र चिकित्सा संस्थान - गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, चंडीगढ़ शामिल था।
- मेडिकल कॉलेज में राज्य कोटे के अंतर्गत कुल 64 पीजी मेडिकल सीटें थीं।
- इन 64 सीटों को बराबर-बराबर बांटा गया - संस्थागत वरीयता के लिये 32 सीटें और UT चंडीगढ़ के अधिवासियों के लिये 32 सीटें।
- UT चंडीगढ़ पूल के लिये, उम्मीदवारों को तीन मानदंडों में से एक को पूरा करना होगा: चंडीगढ़ में 5 वर्ष का अध्ययन, माता-पिता का 5 वर्ष का अधिवास, या परिवार का 5 वर्ष का संपत्ति स्वामित्व।
- इन पीजी मेडिकल सीटों के लिये प्रवेश प्रक्रिया 28 मार्च, 2019 को प्रारंभ हुई।
- प्रॉस्पेक्टस में अधिवास/अधिवास मानदंड के आधार पर सीटें आरक्षित करने के लिये विशिष्ट प्रावधान थे।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष कई याचिकाओं ने इन अधिवास-आधारित आरक्षण प्रावधानों को चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने अधिवास-आधारित आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया।
- उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।
- संवैधानिक वैधता के निर्धारण के लिये मामले को उच्चतम न्यायालय की बड़ी पीठ को भेज दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने घोषणा की कि भारत केवल एक अधिवास को मान्यता देता है - भारत का अधिवास, तथा राज्यवार अधिवास की अवधारणा को खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने 'अधिवास' और 'निवास' के मध्य अंतर स्थापित किया, तथा यह देखा कि राज्य अक्सर इन शब्दों का दोषपूर्ण तरीके से परस्पर उपयोग करते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि अनुच्छेद 15 स्पष्ट रूप से अधिवास-आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित नहीं करता है, फिर भी ऐसे आरक्षणों को अनुच्छेद 14 के अंतर्गत उचित वर्गीकरण के मानक पर उत्तीर्ण होना चाहिये।
- न्यायालय ने माना कि राज्य के निवेश एवं स्थानीय आवश्यकताओं के कारण MBBS पाठ्यक्रमों में अधिवास-आधारित आरक्षण कुछ सीमा तक स्वीकार्य हो सकता है।
- पीजी पाठ्यक्रमों के लिये, न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि चयन के लिये योग्यता प्राथमिक मानदंड होनी चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रीय हित चिकित्सा शिक्षा के उच्च स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा के चयन की मांग करता है।
- न्यायालय ने पुष्टि की कि संस्थागत वरीयता आरक्षण एक उचित सीमा तक संवैधानिक रूप से वैध है।
- न्यायालय ने घोषणा की कि पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों में अधिवास-आधारित आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 14 का अतिलंघन करता है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि इस तरह के आरक्षण राज्यों के बीच कृत्रिम अवरोध उत्पन्न करते हैं, जो राष्ट्रीय एकता के प्रतिकूल है।
- न्यायालय ने कहा कि राज्य कोटे की सीटें नीट परीक्षा में योग्यता के आधार पर ही भरी जानी चाहिये।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसके निर्णय का उन छात्रों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जिन्होंने पहले ही आवासीय श्रेणी के अंतर्गत प्रवेश ले लिया है या अपना पाठ्यक्रम पूरा कर लिया है।
संवैधानिक उपबंध क्या हैं?
- अनुच्छेद 14 - समता का अधिकार
- राज्य विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से मना नहीं करेगा।
- अधिवास-आधारित आरक्षण को खत्म करने का प्राथमिक आधार बनता है।
- अन्य सभी समता का उपबंध (अनुच्छेद 15-18) अनुच्छेद 14 का विस्तार हैं।
- अनुच्छेद 15 - भेदभाव का निषेध
- धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
- अधिवास को निषिद्ध आधार के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करता है।
- पिछड़े वर्गों और EWS के लिये आरक्षण के लिये सक्षम उपबंध (खण्ड 4,5,6) शामिल हैं।
- अनुच्छेद 15(3) महिलाओं एवं बालकों के लिये विशेष उपबंध की अनुमति देता है
- अनुच्छेद 16 - सार्वजनिक रोजगार में समानता
- सार्वजनिक रोजगार में अधिवास के आधार पर भेदभाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है।
- केवल संसद ही राज्य रोजगार के लिये अधिवास की आवश्यकता वाले विधान बना सकती है (अनुच्छेद 16(3))।
- अधिवास-आधारित भेदभाव के विरुद्ध संवैधानिक मंशा को दर्शाता है।
- अनुच्छेद 5 - नागरिकता का उपबंध
- केवल "भारत के क्षेत्र में अधिवास" को संदर्भित करता है।
- एकल भारतीय अधिवास की अवधारणा स्थापित करता है।
- राज्यवार अधिवास के लिये कोई प्रावधान नहीं है।
- संवैधानिक संरचना
- भारत में एकल नागरिकता है।
- एकल एकीकृत विधिक प्रणाली।
- एकल न्यायिक पदानुक्रम के शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय।
- राज्य का विधान एकीकृत भारतीय विधिक प्रणाली के अंतर्गत संचालित होते हैं।
- मौलिक अधिकार
- पूरे भारत में स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार।
- भारत के किसी भी भाग में अधिवास करने एवं बसने का अधिकार।
- भारत में कहीं भी व्यवसाय करने का अधिकार।
- भारत के पूरे क्षेत्र में समान सुरक्षा का अधिकार।
- शक्तियों का वितरण
- राज्य सूची एवं समवर्ती सूची के विषयों पर राज्य विधि का निर्माण कर सकते हैं।
- लेकिन संविधियों को मौलिक अधिकारों की सीमा में ही कार्य करना चाहिये।
- अधिवास के आधार पर अवरोध उत्पन्न नहीं किये जा सकते।
संविधान में अधिवास के आधार पर आरक्षण पर रोक क्यों है?
- संवैधानिक एकता:
- भारत संविधान के अंतर्गत एकल नागरिकता की अवधारणा का पालन करता है।
- केवल एक अधिवास को मान्यता दी गई है - "भारत के क्षेत्र में अधिवास"।
- यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है तथा राज्य आधारित विभाजन को रोकता है।
- मौलिक अधिकार ढाँचा:
- नागरिकों को पूरे भारत में स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार है।
- उन्हें देश के किसी भी भाग में अधिवास करने एवं बसने का अधिकार है।
- भारत के किसी भी हिस्से में व्यवसाय करने के अधिकार की गारंटी है।
- इन अधिकारों को अधिवास या निवास के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।
- योग्यता एवं राष्ट्रीय हित:
- प्रतिभा किसी विशेष राज्य के अधिवासियों का एकाधिकार नहीं है।
- राष्ट्रीय विकास के लिये सर्वोत्तम उपलब्ध प्रतिभाओं का चयन आवश्यक है।
- अधिवास-आधारित प्रतिबंध योग्यता के लिये कृत्रिम अवरोध उत्पन्न करते हैं।
- ऐसे प्रतिबंध राष्ट्रीय प्रगति को हानि पहुँचा सकते हैं, विशेषकर विशिष्ट क्षेत्रों में।
- समान संरक्षण:
- अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- अधिवास के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव अनुचित वर्गीकरण बनाता है।
- इस तरह का भेदभाव भारत के एक राष्ट्र के रूप में संवैधानिक दृष्टिकोण को कमजोर करता है।
- यह विधि के समक्ष समता के सिद्धांत का अतिलंघन करता है।
संदर्भित ऐतिहासिक मामले कौन से हैं?
- जगदीश सरन बनाम भारत संघ (1980):
- न्यायालय ने माना कि पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों में संस्थागत-आधारित आरक्षण संवैधानिक रूप से वैध है तथा उचित सीमा तक स्वीकार्य है क्योंकि यह उद्देश्य के साथ संबंध रखते हुए एक उचित वर्गीकरण बनाता है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि शिक्षा के उच्च स्तर (पीएचडी, एमडी) पर, जहाँ प्रतिभा के अंतरराष्ट्रीय मापदंड लागू होते हैं, एक महान वैज्ञानिक या प्रौद्योगिकीविद् को खोना राष्ट्रीय क्षति है।
- न्यायालय ने कहा कि परिष्कृत कौशल एवं रणनीतिक रोजगार के उच्च स्तरों पर योग्यता प्राथमिक मानदंड होनी चाहिये, क्योंकि मानकों में ढील देने से राष्ट्रीय जोखिम उत्पन्न हो सकते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि शिक्षा के निचले स्तरों पर आरक्षण स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन पीजी पाठ्यक्रमों जैसी उच्च विशेषज्ञताओं में, क्षमता के आधार पर सर्वोत्तम कौशल एवं प्रतिभा का चयन किया जाना चाहिये।
- प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984):
- न्यायालय ने पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों में अधिवास-आधारित आरक्षण को सीधे संबोधित किया तथा इसे अस्वीकार्य तथा अनुच्छेद 14 का अतिलंघन करने वाला घोषित किया।
- न्यायालय ने स्थापित किया कि भारत केवल एक अधिवास को मान्यता देता है - "भारत के क्षेत्र में अधिवास" - तथा राज्यवार अधिवास की अवधारणा को खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने माना कि प्रतिभा किसी विशेष राज्य के अधिवासियों का एकाधिकार नहीं है तथा समान अवसर को इस तथ्य पर निर्भर नहीं बनाया जा सकता कि कोई नागरिक कहाँ रहता है।
- न्यायालय ने शैक्षणिक संस्थानों, विशेषकर मेडिकल कॉलेजों में अधिवास संबंधी आवश्यकताओं के उपयोग के विरुद्ध चेतावनी दी, क्योंकि इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हो सकता है।
- न्यायालय ने यूजी एवं पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों के बीच अंतर किया, MBBS पाठ्यक्रमों में कुछ अधिवास-आधारित आरक्षण की अनुमति दी, जबकि पीजी पाठ्यक्रमों में इस पर रोक लगाई।
- सौरभ चौधरी बनाम भारत संघ (2003):
- संविधान पीठ ने प्रदीप जैन मामले में निर्धारित सिद्धांतों की पुष्टि की तथा कहा कि पीजी मेडिकल पाठ्यक्रमों में अधिवास-आधारित आरक्षण संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है।
- न्यायालय ने संस्थागत वरीयता को उचित सीमा तक यथावत बनाए रखा, जबकि यह भी कहा कि अधिवास उच्च चिकित्सा शिक्षा में आरक्षण का आधार नहीं हो सकता।
- न्यायालय ने राष्ट्रीय विकास के लिये विशेष चिकित्सा शिक्षा में योग्यता-आधारित चयन के महत्त्व पर बल दिया।
- न्यायालय ने मगन मेहरोत्रा मामले में दिये गए तर्क का अनुसरण किया, जिसमें प्रदीप जैन के तर्क को आधार बनाया गया था, तथा स्थापित किया कि संस्थागत वरीयता के अतिरिक्त, संविधान में अधिवास-आधारित आरक्षण सहित किसी अन्य वरीयता की परिकल्पना नहीं की गई है।
सिविल कानून
लंबित वाद में अंतरिती का एक पक्षकार के रूप में अधिकार
30-Jan-2025
एच. अंजनप्पा एवं अन्य बनाम ए. प्रभाकर एवं अन्य “द्वितीयतः लंबित वाद के अंतरिती का अभिलेख पर पक्षकार के रूप में दर्ज होने का दावा अधिकार स्वरूप नहीं होता ।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ अंतरिती के लंबित वाद के पक्षकार के लिये पालन किये जाने वाले सिद्धांतों को निर्धारित किया।
- उच्चतम न्यायालय ने एच. अंजनप्पा बनाम ए. प्रभाकर एवं अन्य (2025) के मामले में निर्णय दिया।
एच. अंजनप्पा बनाम ए. प्रभाकर एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- स्वामित्व और विक्रय के लिये करार (1995):
- स्वर्गीय श्रीमती डेज़ी शांथप्पा (प्रतिवादी संख्या 1) के पास बगलूर गाँव में दो आसन्न भूमि थी।
- वह अपने पावर ऑफ अटॉर्नी धारक (प्रतिवादी संख्या 2) के माध्यम से वादी (अपीलकर्त्ताओं) को ₹20,00,000 में जमीन बेचने के लिये सहमत हो गई।
- अग्रिम राशि के रूप में ₹5,00,000 संदाय किया गया, और प्रतिवादी 1 एवं 2 अनाधिकृत रहने वालों को बेदखल करने के लिये सहमत हुए।
- पूरक करार (1997):
- चूंकि अनधिकृत रहने वालों को बेदखल नहीं किया गया था, इसलिये विक्रय विलेख निष्पादन समयसीमा को बढ़ाते हुए एक पूरक करार किया गया।
- वादी ने अतिरिक्त ₹10,00,000 का संदाय किया, जो सहमत राशि का कुल ₹15,00,000 था।
- तीसरे पक्षकार को संपत्ति का विक्रय (प्रतिवादी संख्या 3):
- वादी के साथ मौजूदा करार के बावजूद, प्रतिवादी संख्या 1 ने कथित तौर पर 42 एकड़ में से 40 एकड़ जमीन प्रतिवादी संख्या 3 को ₹40,00,000 में बेच दी।
- वादी को तब पता चला जब प्रतिवादी संख्या 3 ने राजस्व रिकॉर्ड बदलने का प्रयास किया।
- वादी की विधिक कार्रवाई (2003):
- वादी ने बैंगलोर ग्रामीण जिला न्यायालय में O.S. No.1093/2003 (बाद में O.S. No.458/2006) दायर की, जिसमें विक्रय करार के विनिर्दिष्ट पालन की मांग की गई।
- अस्थायी व्यादेश प्रदान किया गया (17 दिसंबर 2003), जिसके अधीन प्रतिवादी 1-3 को तीसरे पक्षकार के अधिकारों का अतिक्रमण करने या सृजित करने से रोका गया।
- व्यादेश का उल्लंघन तत्पश्चात विक्रय:
- प्रतिवादी संख्या 3 ने न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करते हुए प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2 को 10 एकड़ (4+6 एकड़) भूमि विक्रय कर दी ।
- प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा पुष्टि विलेख:
- प्रतिवादी संख्या 1 ने बाद में एक पुष्टि विलेख (Confirmation Deed) निष्पादित किया, जिसमें वादियों के साथ विक्रय करार की वैधता को स्वीकार किया एवं यह स्वीकार किया कि उन्हें प्रतिवादी संख्या 3 को विक्रय करने हेतु भ्रमित किया गया था।
- पक्षकार विनिश्चय हेतु आवेदन (2007):
- प्रतिवादी संख्या 1 और 2 ने प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित किये जाने की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया।
- विचारण न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया (06 अगस्त 2014), यह निर्णय देते हुए कि उन्होंने व्यादेश और संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 52 का उल्लंघन करते हुए संपत्ति खरीदी।
- इस आदेश के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की गई, जिससे यह अंतिम हो गया।
- विचारण न्यायालय का अंतिम निर्णय (2016):
- वाद का निर्णय वादी के पक्ष में सुनाया गया, जिसमें 2 महीने के भीतर विक्रय विलेख को निष्पादित करने का निर्देश दिया गया।
- प्रतिवादी संख्या 3 की अपील खारिज कर दी गई।
- प्रतिवादी संख्या 1 और 2 द्वारा विलंबित अपील (2018):
- उनकी पक्षकार बनने की याचिका (Impleadment) को खारिज कर दिये जाने और उनके विक्रेता की अपील खारिज किये जाने के बावजूद, उन्होंने 2 वर्ष पश्चात् डिक्री को चुनौती दी।
- 586 दिनों की देरी की क्षमा याचना (Condonation) एवं अपील दायर करने की अनुमति (Leave to Appeal) हेतु आवेदन प्रस्तुत किया गया।
- उच्च न्यायालय का निर्णय:
- उच्च न्यायालय ने दोनों आवेदनों को स्वीकार करते हुए अत्यधिक विलंब (Inordinate Delay) को क्षमा किया एवं अपील दायर करने की अनुमति प्रदान की।
- इस निर्णय का वादीगण द्वारा विरोध किया गया।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश I नियम 10 के अधीन दायर आवेदन को अस्वीकृति स्वतः अपील दायर करने की अनुमति के आवेदन को अस्वीकृति करने का आधार नहीं हो सकती।
- अपील न्यायालय को यह देखना होता है कि क्या लंबित वाद के दौरान अंतरिती डिक्री से व्यथित है या अन्यथा इससे प्रतिकूल रूप से प्रभावित है।
- न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित दो विधिक उपबंधों का अवलोकन किया:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश I नियम 10
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 22 नियम 10
- न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की दोनों उपबंध समान हैं और इसलिये आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन लंबित वाद में क्रेता को पक्षकार बनाने के लिये लागू सिद्धांत आदेश I नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता पर भी लागू होते हैं।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश I नियम 10(2) के अधीन, न्यायालय को यह निष्कर्ष दर्ज करना आवश्यक है कि वाद में पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाने वाला व्यक्ति या तो आवश्यक पक्षकार है या उचित पक्षकार है।
- जबकि धारा 146 और आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता वाद में पक्षकार के विधिक प्रतिनिधि को न्यायालय की अनुमति से पक्षकार बनने और वाद जारी रखने का अधिकार प्रदान करता है।
- धारा 146 और आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन एक आवेदन पर निर्णय करते समय, न्यायालय को इस विवाद में जाने की आवश्यकता नहीं है कि वाद में पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाने वाला व्यक्ति या तो आवश्यक पक्षकार है या उचित पक्षकार है। यदि पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाने वाला व्यक्ति वाद में पक्षकार का विधिक प्रतिनिधि है, तो न्यायालय के लिये ऐसे व्यक्ति को पक्षकार बनाने/प्रतिस्थापन करने का आदेश देना पर्याप्त है।
- इस प्रकार, एक वाद के लंबित रहने के दौरान अंतरिती, यद्यपि आदेश 22 नियम 10 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन अभिलेख (Record) में न लिया गया हो, फिर भी अंतरणकर्त्ता, वाद में प्रतिवादी के विरुद्ध पारित अंतिम डिक्री के विरुद्ध अपील करने की अनुमति मांगने का हकदार है।
- यद्यपि, इस तरह की अनुमति देना या न देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर है और प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस विवेक का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये।
- वर्तमान मामले के तथ्यों को देखते हुए न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को अपास्त कर दिया।
लंबित वाद के दौरान अंतरण क्या है?
- संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TOPA) की धारा 52 के अधीन इसका उपबंध है।
- इसमें यह उपबंध है कि जब किसी न्यायालय में कोई वाद या कार्यवाही लंबित हो और कोई अचल संपत्ति उस वाद या कार्यवाही का विषय हो, तो उस वाद या कार्यवाही के परिणामस्वरूप डिक्री या आदेश के अधीन संपत्ति में हित प्राप्त करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध वाद या कार्यवाही के किसी भी पक्षकार द्वारा उस संपत्ति का कोई भी अंतरण शून्य है
- धारा में संदर्भित अंतरण, वाद या कार्यवाही के संस्थित होने की तिथि से, पश्चात्वर्ती अंतरिती के विरुद्ध शून्य है।
- इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति वाद के लंबित रहने के दौरान अचल संपत्ति अंतरित करता है, और उस वाद में न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप कोई अन्य व्यक्ति संपत्ति में हित प्राप्त करता है, तो वाद के लंबित रहने के दौरान किया गया अंतरण शून्य माना जाएगा।
वाद के लंबित रहने के दौरान अंतरण पर ऐतिहासिक वाद क्या हैं?
- विनोद सेठ बनाम देविंदर बजाज, (2010):
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 52 वाद के लंबित रहने के दौरान किये गए अंतरण को शून्य नहीं बनाती है, अपितु ऐसे अंतरण को केवल उन अधिकारों के अधीन बनाती है, जिन्हें अंततः न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
- थॉमसन प्रेस (इंडिया) लिमिटेड बनाम नानक बिल्डर्स एंड इन्वेस्टर्स प्राइवेट लिमिटेड (2013):
- न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया कि वादग्रस्त संपत्ति का अंतरण आरंभ से ही शून्य नहीं होता, और ऐसी संपत्ति का क्रेता लंबित वाद में वादी के अधिकारों के अधीन उस सौदे को प्राप्त कर सकता है।
इस मामले में न्यायालय द्वारा अंतरिती को पक्षकार बनाने के लिये क्या सिद्धांत निर्धारित किये गए हैं?
- न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश इस प्रकार हैं:
- लंबित वाद के दौरान अंतरिती को पक्षकार बनाने के उद्देश्य से न्यायालय को तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये, तथा न्यायालय ऐसे पक्षकार को या तो आदेश I नियम 10 के अधीन या सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 10 के अधीन अभिलेख पर आने की अनुमति दे सकता है।
- द्वितीय, लंबित वाद के दौरान अंतरिती को अधिकार के रूप में अभिलेख पर आने का अधिकार नहीं है।
- तृतीय, ऐसा कोई पूर्ण नियम नहीं है कि न्यायालय की अनुमति से ऐसे लंबित वाद के दौरान अंतरिती को सभी मामलों में पक्षकार के रूप में अभिलेख पर आने की अनुमति दी जानी चाहिये।
- चतुर्थतः किसी अंतरिती का लंबित वाद के दौरान पक्षकार बनना वाद की प्रकृति और अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री की समीक्षा पर निर्भर करेगा।
- पाँचवाँ, जहाँ लंबित वाद के दौरान अंतरिती अभिलेख पर आने की अनुमति नहीं मांगता है, तो यह स्पष्ट रूप से उसके लिये जोखिम भरा होगा, और वाद का संचालन अनुचित रूप से किया जा सकता है।
- छठी, केवल इसलिये कि ऐसा अंतरिती अभिलेख पर नहीं आता है, उसके (लंबित वाद के दौरान अंतरिती) निर्णय से आबद्ध नहीं होने की अवधारणा उत्पन्न नहीं होती है और परिणामस्वरूप वह मुकदमे के परिणाम से आबद्ध होगा, यद्यपि उसका प्रतिनिधित्व नहीं किया गया हो।
- सातवाँ, विक्रय संव्यवहार संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 के उपबंधों द्वारा प्रभावित होता है।
- आठवाँ, एक अंतरिती लंबित वाद के दौरान, संपत्ति में हित का समनुदेशिती होने के नाते, जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 10 के अधीन परिकल्पित है, स्वयं या वाद के किसी भी पक्षकार के कहने पर अभिलेख में आने के लिये न्यायालय से अनुमति मांग सकता है।