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आपराधिक कानून

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) बनाम भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 (3)

 04-Feb-2025

ओम प्रकाश अंबडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

इसलिये, मजिस्ट्रेट से केवल डाकघर के रूप में कार्य करने की अपेक्षा नहीं की जाती है, अपितु पुलिस द्वारा अन्वेषण की मांग करने वाले आवेदन पर विचार करते समय उसे न्यायिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है”। 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने अभिनिर्धारित किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156 (3) के अधीन अन्वेषण का आदेश देने से पूर्व मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये ।      

  • उच्चतम न्यायालय ने ओम प्रकाश अंबडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) केमामले में यह निर्णय दिया । 

ओम प्रकाश अंबडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • इस मामले मेंप्रत्यर्थी सं. 3 शामिल है, जो मूल परिवादी अधिवक्ता नितिन देवीदास कुबादे, दिग्रस, यवतमाल में रहने वाले एक अभ्यस्त अधिवक्ता हैं । इस मामले में अपीलकर्त्ता एक पुलिस अधिकारी है जिसके विरुद्ध परिवाद दायर किया गया है । 
  • विचाराधीन घटना 31 दिसंबर 2011 को रात्रि 11:30 बजे से 11:40 बजे के बीच घटित हुई, जिसके दौरान परिवादी को कथित रूप से अपीलकर्त्ता, जो एक पुलिसकर्मी है, द्वारा अपमानित किया गया । 
  • घटना के पश्चात् परिवादी नेदिग्रस पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने का प्रयास किया, परंतु पुलिस अधिकारियों ने उसका परिवाद दर्ज करने से इंकार कर दिया । 
  • इस इंकार के प्रत्युत्तर में, परिवादी नेऔपचारिक परिवाद दर्ज करके बार एसोसिएशन, दिग्रस से सहायता मांगी । तत्पश्चात्, उन्होंने यवतमाल के पुलिस अधीक्षक को एक रिपोर्ट भी सौंपी, परंतु पुलिस अधिकारी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से बचते रहे , कथित तौर पर इसलिये क्योंकि आरोपी व्यक्ति पुलिस अधिकारी थे । 
  • इन असफल प्रयासों के परिणामस्वरूप, परिवादी नेदण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156 (3) के अधीन न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, दिग्रस के समक्ष एक आवेदन दायर किया । इस आवेदन में, उसने मजिस्ट्रेट से पुलिस अधिकारियों को उनके पूर्व परिवादों के आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निर्देश देने का अनुरोध किया । 
  • आवेदन, संलग्न रिपोर्टों और विधिक निवेदनों की समीक्षा करने के पश्चात्, न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, दिग्रस ने पाया किप्रथम दृष्टया आरोप भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धाराओं 323, 294, 500, 504 और 506 के अधीन संज्ञेय अपराधों के होने का संकेत देते हैं । 
  • परिणामस्वरूप, मजिस्ट्रेट ने दिग्रस पुलिस थाने को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) केअनुसार अन्वेषण प्रारंभ करने का निर्देश दिया । 
  • मजिस्ट्रेट के आदेश से व्यथित अपीलकर्त्ता नेआदेश की वैधता को चुनौती देते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय, नागपुर पीठ के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन एक आवेदन दायर किया । 
  • यद्यपि, उच्च न्यायालय ने16 अक्टूबर, 2019 के अपने निर्णय के माध्यम से आवेदन को खारिज़ कर दिया और मजिस्ट्रेट के आदेश की पुष्टि की, जिससे प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने और अन्वेषण को आगे बढ़ाने के निर्देश को बरकरार रखा गया । 
  • अपीलकर्त्ता ने अबउच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है । 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?  

  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि सामान्यतः दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) का प्रयोग परिवादी द्वारा तब किया जाता है, जब पुलिस अधिकारी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इंकार कर देते हैं ।
  • यद्यपि, यह संबंधित मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार है कि वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन पुलिस अन्वेषण का आदेश दे या परिवाद पर संज्ञान लेकर आदेशिका जारी करे या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 203 के अधीन परिवाद को खारिज़ कर दे ।
  • एक बार जब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन पुलिस अन्वेषण का आदेश पारित हो जाता है, तो यह एक पुलिस मामला बन जाता है और अन्वेषण के अंत मेंपुलिस या तो ‘आरोप-पत्र’ या ‘क्लोजर रिपोर्ट’ दायर कर सकती है । 
  • यद्यपि, जब भी धारा 156 (3) के अधीन अन्वेषण के लिये मजिस्ट्रेट को आवेदन किया जाता है, तो यह उसका कर्त्तव्य है कि वह यह पता लगाने के लिये अपने मस्तिष्क का प्रयोग करे कि क्या लगाए गए आरोप किसी संज्ञेय अपराध का गठन करते हैं या नहीं?
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वर्तमान तथ्यों मेंकथित अपराध के तत्त्व बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं हैं । यह उस यांत्रिक रीति को दर्शित करता है जिसमें धारा 156 (3) के अधीन पुलिस अन्वेषण का आदेश पारित किया गया है । 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) में प्रयुक्त शब्द ‘हो सकता है’ के आलोक में मजिस्ट्रेट कोदण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन अन्वेषण का आदेश देने से पूर्व अपने विवेक का प्रयोग करना आवश्यक है । 
  • इस प्रकार, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर पुलिस द्वारा अन्वेषण जारी रखना केवल विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा ।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 के बीच क्या अंतर है? 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 

 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 

(1) किसी पुलिस थाने का कोई भारसाधक अधिकारी, मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, किसी संज्ञेय मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति ऐसे थाने की सीमाओं के भीतर स्थानीय क्षेत्र पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय को अध्याय XIII के उपबंधों के अधीन होगी । 

 (1) किसी पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, किसी ऐसे संज्ञेय मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति ऐसे थाने की सीमाओं के भीतर स्थानीय क्षेत्र पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय को अध्याय XIV के उपबंधों के अधीन होगी । 

 परंतु यह कि अपराध की प्रकृति और गंभीरता को ध्यान में रखते हुए पुलिस अधीक्षक पुलिस उप-अधीक्षक को मामले का अन्वेषण करने के लिये कह सकेगा । 

(2) किसी ऐसे मामले में पुलिस अधिकारी की कोई कार्यवाही किसी भी प्रक्रम पर इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि मामला ऐसा था जिसका अन्वेषण करने के लिये ऐसा अधिकारी इस धारा के अधीन सशक्त नहीं था । 

(2) किसी ऐसे मामले में पुलिस अधिकारी की कोई कार्यवाही किसी भी प्रक्रम पर इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि मामला ऐसा था जिसका अन्वेषण करने के लिये ऐसा अधिकारी इस धारा के अधीन सशक्त नहीं था । 

(3) धारा 190 के अधीन सशक्त कोई भी मजिस्ट्रेट ऊपर वर्णित अन्वेषण का आदेश दे सकेगा । 

(3) धारा 210 के अधीन सशक्त कोई मजिस्ट्रेट, धारा 173 की उपधारा (4) के अधीन दिये गए शपथ-पत्र द्वारा समर्थित आवेदन पर विचार करने के पश्चात्, तथा ऐसी जांच करने के पश्चात्, जैसी वह आवश्यक समझे, तथा पुलिस अधिकारी द्वारा इस संबंध में किये गए निवेदन को ध्यान में रखते हुए, ऊपर वर्णित अन्वेषण का आदेश दे सकेगा । 

 

(4) धारा 210 के अधीन सशक्त कोई मजिस्ट्रेट, किसी लोक सेवक के विरुद्ध उसके पदीय के निर्वहन के अनुक्रम में उत्पन्न होने वाली परिवाद प्राप्त होने पर, निम्नलिखित के अधीन रहते हुए, अन्वेषण का आदेश दे सकेगा- 

(क) अपने से वरिष्ठ अधिकारी से घटना के तथ्यों और परिस्थितियों से संबंधित रिपोर्ट प्राप्त करना; तथा 

(ख) लोक सेवक द्वारा उस स्थिति के संबंध में किये गए कथनों पर विचार करने के पश्चात्, जिसके कारण कथित घटना घटी । 

 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 द्वारा प्रस्तुत सुरक्षा उपाय क्या हैं? 

  • विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपायों के रूप में निम्नलिखित नए परिवर्तन किये गए हैं:
    • सबसे पहले, पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इंकार करने पर पुलिस अधीक्षक कोआवेदन करने की आवश्यकता को अनिवार्य कर दिया गया है और धारा 175(3) के अधीन आवेदन करने वाले आवेदक को धारा 175(3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करते समय एक शपथ-पत्र के साथ धारा 173(4) के अधीन पुलिस अधीक्षक को किये गए आवेदन की एक प्रति प्रस्तुत करना आवश्यक है । 
    • दूसरे, मजिस्ट्रेट कोप्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का आदेश देने से पूर्व ऐसी जांच करने का अधिकार दिया गया है, जिसे वह आवश्यक समझे । 
    • तीसरा, मजिस्ट्रेट को धारा 175(3) के अधीन कोई भी निर्देश जारी करने से पूर्व प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इंकार करने के संबंध में पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की प्रस्तुत दलीलों पर विचार करना आवश्यक है ।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 (3), न्यायिक निर्णयों द्वारा विभिन्न वर्षों के दौरान निर्धारित विधि का परिणाम है ।
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015)के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करने से पूर्व आवेदक को अनिवार्य रूप से धारा 154(1) और 154(3) के अधीन आवेदन करना होगा । 
    • न्यायालय ने आगे यह प्रेक्षित किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन किये गए आवेदन कोआवेदक द्वारा शपथ-पत्र द्वारा समर्थित किया जाना आवश्यक है । 
    • न्यायालय द्वारा ऐसी आवश्यकता को लागू करने का कारण यह बताया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन आवेदन नियमित रूप से किये जा रहे हैं और विभिन्न मामलों में केवल अभियुक्तों को तंग करने के उद्देश्य से प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किये जा रहे हैं ।

वाणिज्यिक विधि

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 74 के अधीन दण्ड के रूप में बयाना राशि की ज़ब्ती

 04-Feb-2025

गोदरेज प्रोजेक्ट्स डेवलपमेंट लिमिटेड बनाम अनिल कार्लेकर और अन्य

“यदि किसी संविदा के अधीन बयाना राशि की ज़ब्ती युक्तियुक्त है, तो यह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 74 के अधीन नहीं आता है, क्योंकि ऐसी ज़ब्ती जुर्माना आरोपित करने के समान नहीं है”। 

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने अभिनिर्धारित कि यदि किसी संविदा के अधीन बयाना राशि की ज़ब्ती युक्तियुक्त है, तो यह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 74 के अधीन नहीं आता है, क्योंकि ऐसी ज़ब्ती जुर्माना आरोपित करने के समान नहीं है ।         

  • उच्चतम न्यायालय ने गोदरेज प्रोजेक्ट्स डेवलपमेंट लिमिटेड बनाम अनिल कार्लेकर (2025) के मामले में यह निर्णय दिया । 

गोदरेज प्रोजेक्ट्स डेवलपमेंट लिमिटेड बनाम अनिल कार्लेकर मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • अपार्टमेंट की बुकिंग:
    • 10 जनवरी2014 को, परिवादियों ने सेक्टर-104, गुड़गाँव, हरियाणा में “गोदरेज समिट” परियोजना में एक अपार्टमेंट बुक किया और आवेदन राशि के रूप में ₹10,00,000 जमा किये । 
  • अपार्टमेंट का आवंटन:
    • 20 जून2014 को अपीलकर्त्ता ने परिवादियों को अपार्टमेंट संख्या C-1501 (14वीं मंजिल, टॉवर ‘C’) आवंटित किया । 
    • दोनों पक्षकारों के बीच ‘अपार्टमेंट क्रेता करार’ निष्पादित किया गया ।
  • पूर्णता एवं अधिभोग प्रमाण-पत्र:
    • 20 जून2017 को अपीलकर्त्ता ने निदेशक, नगर एवं ग्राम नियोजन विभाग, हरियाणा से अधिभोग प्रमाण-पत्र प्राप्त किया । 
  • कब्ज़े का प्रस्ताव:
    • 28 जून2017 को अपीलकर्त्ता ने अपार्टमेंट पर कब्ज़ा देने का प्रस्ताव किया । 
    • परिवादियों ने कब्ज़े से इंकार कर दिया, आवंटन रद्द करने की मांग की तथा भुगतान की गईसंपूर्ण राशि वापस करने की मांग की । 
  • धन वापसी के लिये विधिक नोटिस:
    • 29 सितंबर2017 को परिवादी ने अपीलकर्त्ता को विधिक नोटिस जारी कर 51,12,310 रुपए की वापसी की मांग की । 
  • उपभोक्ता परिवाद:
    • 14 नवंबर2017 को, परिवादियों ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के समक्ष उपभोक्ता परिवाद संख्या 262/2018 दायर की, जिसमें निम्नलिखित मांग की गई: 
      • प्रत्येक भुगतान की तिथि से वसूली तक18% वार्षिक ब्याज के साथ 51,12,310 रुपए की वापसी । 
  • राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का आदेश:
    • 25 अक्टूबर2022 को राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने अपीलकर्त्ता को निर्देश दिया:  
      • रद्दकरण शुल्क के रूप मेंबीएसपी का 10% (17,08,140 रुपए) काट लें । 
      • शेष राशि 34,04,170 रुपए प्रत्येक भुगतान की तिथि से वापसी तक 6% प्रति वर्ष साधारण ब्याज के साथ तीन माह के भीतर वापस करें । 
  • समीक्षा-आवेदन खारिज़:
    • 5 दिसंबर2022 को राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने अपीलकर्त्ता द्वारा दायर समीक्षा-आवेदन को खारिज़ कर दिया । 
  • अपील दायर:
    • 10 जनवरी2023 को अपीलकर्त्ता ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के 25 अक्टूबर 2022 के आदेश को चुनौती देते हुए वर्तमान अपील दायर की । 
  • उच्चतम न्यायालय का स्थगन आदेश:
    • 24 अप्रैल2023 को न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के अधीन, आरोपित आदेश पर स्थगन प्रदान किया: 
      • बयाना राशि जमा के रूप में 20% की कटौती के बाद राशि वापस करना। 
      • संविदा रद्द करने की तिथि से 6% प्रति वर्ष ब्याज का भुगतान करना होगा । 
  • अब, यह मामला अंतिम निर्णय के लिये उच्चतम न्यायालय के समक्ष है ।

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?  

  • न्यायालय ने सबसे पहले विवादित संविदा की शर्तों पर टिप्पणी किया ।
    • करार के अनुसार, परिवादी को बीएसपी का 20% बयाना राशि जमा करानी थी ।
    • क्रेता की व्यतिक्रम के कारण समाप्ति पर डेवलपर को संपूर्ण बयाना राशि तथा संविदा में निर्दिष्ट विलंबित भुगतानों पर ब्याज सहित अन्य बकाया राशि जब्त करने का अधिकार होगा ।
  • यह उल्लेखनीय है कि प्रत्यर्थी (परिवादी अर्थात् क्रेता) नेबाजार में मंदी के कारण सौदा रद्द कर दिया था । 
  • न्यायालय ने पूर्ववर्ती मामलों का हवाला दिया, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था किअग्रिम राशि की “बयाना राशि” का भाग होने के कारण, ज़ब्ती को न्यायोचित ठहराने के लिये संविदा की शर्तें स्पष्ट और स्पष्ट होनी चाहिये । यद्यपि, यह स्पष्ट किया गया कि यदि भुगतान केवल प्रतिफल के आंशिक भुगतान के लिये किया जाता है और बयाना राशि के रूप में आशयित नहीं है, तो ज़ब्ती खण्ड लागू नहीं होगा । 
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि संविदा के अधीन बयाना राशि की ज़ब्ती युक्तियुक्त नहीं है, तो यह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 74 के अधीन नहीं आता है, क्योंकि ऐसीराशि “जुर्माना” के दायरे में नहीं आएगी । 
  • यद्यपि, यदि बयाना राशि की ज़ब्ती जुर्माने के रूप में हो, तो धारा 74 लागू होगी ।
  • इस संबंध में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने पहले भी विभिन्न मामलों में अभिनिर्धारित किया है कि बीएसपी का 10% एक उचित राशि है, जिसे बयाना राशि के रूप में जब्त किया जा सकता है ।
  • इस प्रकार, न्यायालय नेबीएसपी के 10% से अधिक राशि की वापसी के लिये राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के निर्देश में हस्तक्षेप नहीं किया । यद्यपि, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग द्वारा वापस की जाने वाली राशि पर ब्याज देने का निर्णय न्यायोचित नहीं था । 
  • न्यायालय ने आगे प्रेक्षित किया कि प्रतिवादियों ने फ्लैटों की कीमतों में भारी गिरावट के कारण आवंटन रद्द करने की मांग की है । इसलिये, यह संभव है कि प्रत्यर्थी ने इस धन का प्रयोग कम दर पर दूसरी संपत्ति खरीदने में किया हो ।
  • इस प्रकार, न्यायालय नेअपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया । 

बयाना राशि क्या है? 

  • सरल शब्दों में, ‘बयाना राशि’ वह राशि है जो स्थावर संपत्ति के संव्यवहार,जैसे कुछ प्रमुख संव्यवहार मेंप्रतिभूति जमा के एक विशिष्ट रूप में देय होती है । 
  • सतीश बत्रा बनाम सुधीर रावल (2013)के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ‘बयाना राशि’ संविदा के सम्यक् अनुपालन के लिये प्रतिज्ञा के रूप में दी जाती है और जमाकर्त्ता द्वारा संविदा का अनुपालन न करने की स्थिति में इसे जब्त कर लिया जाएगा । 
  • यह भी विधि है कि क्रय-मूल्य का आंशिक भुगतान तब तक जब्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि वह संविदा के सम्यक् अनुपालन की गारंटी न हो ।
  • न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि अग्रिम राशि को “बयाना राशि” का भाग मानने के लिये उसे जब्त करने को न्यायोचित ठहराने के लिये संविदा की शर्तें स्पष्ट एवं सुस्पष्ट होनी चाहिये ।
  • यद्यपि, यदि भुगतान केवल आंशिक भुगतान के लिये किया गया है तथा बयाना राशि के रूप में नहीं किया गया है, तो ज़ब्ती खण्ड लागू नहीं होगा ।

‘बयाना राशि’ जब्त करने की विधि और भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 74 क्या है? 

  • कैलाश नाथ एसोसिएट्स बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण (2015)के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 74 किसी संविदा के अधीन बयाना राशि जब्त करने के मामलों में लागू होगी । 
  • यद्यपि, यदि करार होने से पूर्व सार्वजनिक नीलामी की शर्तों के अधीन ज़ब्ती होती है, तो धारा 74 लागू नहीं होगी ।
  • इसके अतिरिक्त, दिल्ली उच्च न्यायालय ने अडानी एंटरप्राइजेज बनाम श्री सोमनाथ फैब्रिक्स प्राइवेट लिमिटेड (2024)के मामले में अभिनिर्धारित किया कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 73 और धारा 74 के आलोक में बयाना राशि जब्त करने के लिये वास्तविक हानि का सबूत आवश्यक है ।