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आपराधिक कानून
पहले पति से विवाह भंग न होने पर भी दूसरे पति से भरण-पोषण का दावा
06-Feb-2025
श्रीमती एन उषा रानी एवं अन्य बनाम मूडुदुला श्रीनिवास “CrPC की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण का अधिकार पत्नी को मिलने वाला लाभ नहीं है, बल्कि यह पति का विधिक एवं नैतिक कर्त्तव्य है।” न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि एक महिला अपने दूसरे पति से भरण-पोषण पाने की अधिकारी है, भले ही उसका पहले पति से विवाह भंग न हुआ हो।
- उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती एन उषा रानी एवं अन्य बनाम मूडुदुला श्रीनिवास (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
श्रीमती एन उषा रानी एवं अन्य बनाम मूडुदुला श्रीनिवास मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता संख्या 1 (एन. उषा रानी) ने पहली शादी 30 अगस्त 1999 को हैदराबाद में नोमुला श्रीनिवास से की थी तथा 15 अगस्त 2000 को उनके साई गणेश नाम का एक बेटा हुआ।
- फरवरी 2005 में संयुक्त राज्य अमेरिका से लौटने के बाद, दंपति अलग-अलग रहने लगे तथा 25 नवंबर 2005 को उन्होंने अपनी शादी को भंग करने के लिये एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किये।
- अपीलकर्त्ता संख्या 1 ने फिर 27 नवंबर 2005 को प्रतिवादी (उसकी पड़ोसी) से शादी की, लेकिन प्रतिवादी द्वारा दायर याचिका के बाद 1 फरवरी 2006 को कुटुंब न्यायालय, हैदराबाद द्वारा इस विवाह को अमान्य घोषित कर दिया गया।
- अपीलकर्त्ता संख्या 1 एवं प्रतिवादी ने 14 फरवरी 2006 को फिर से विवाह किया तथा यह विवाह 11 सितंबर 2006 को हैदराबाद में विवाह रजिस्ट्रार के पास पंजीकृत हुआ।
- दंपति की 28 जनवरी 2008 को एक बेटी, वेंकट हर्षिनी (अपीलकर्त्ता संख्या 2) हुई, लेकिन बाद में उनके बीच मतभेद उत्पन्न हो गए।
- अपीलकर्त्ता संख्या 1 ने प्रतिवादी और उसके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता और दहेज निषेध अधिनियम की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत शिकायत दर्ज कराई।
- कुटुंब न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अंतर्गत अपीलकर्त्ता संख्या 1 को 3,500 रुपये प्रति माह तथा अपीलकर्त्ता संख्या 2 (बेटी) को 5,000 रुपये प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
- उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के प्रत्युत्तर में बेटी के भरण-पोषण को यथावत बनाए रखा, लेकिन अपीलकर्त्ता संख्या 1 के भरण-पोषण को खारिज कर दिया तथा निर्णय दिया कि उसे प्रतिवादी की विधिक पत्नी नहीं माना जा सकता क्योंकि उसकी पहली शादी विधिक डिक्री के माध्यम से भंग नहीं हुई थी।
- इस प्रकार, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि वर्तमान तथ्यों में प्रतिवादी अपीलकर्त्ता संख्या 1 (पत्नी) के भरण-पोषण के अधिकार को इस आधार पर पराजित करना चाहता है कि प्रतिवादी के साथ उसका विवाह अपीलकर्त्ता संख्या 1 की पहली शादी के कारण शुरू से ही शून्य था, जो अभी भी कायम है।
- न्यायालय ने इस मामले में दो बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अवलोकन किया:
- यह ऐसा मामला नहीं है जिसमें प्रतिवादी से सत्यता छिपाई गई हो।
- पृथक्करण का समझौता ज्ञापन न्यायालय के समक्ष रखा गया था, जो अलगाव का विधिक आदेश नहीं है, लेकिन यह दस्तावेज एवं अन्य साक्ष्य इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि पक्षों ने अपने संबंध समाप्त कर लिये हैं और अलग-अलग रह रहे हैं।
- इसलिये, अपीलकर्त्ता वास्तव में अपने पहले पति से अलग हो चुकी है तथा उसे पहली शादी से कोई अधिकार और उत्तराधिकार नहीं मिलता है।
- इस मामले में न्यायालय ने यह देखा कि सामाजिक कल्याण को ध्यान में रखने वाले प्रावधानों को व्यापक एवं लाभकारी रूप दिया जाना चाहिये।
- कोई भी वैकल्पिक निर्माण प्रावधान के उद्देश्य को विफल कर देगा, जिसका उद्देश्य व्यभिचार एवं अभाव को रोकना है।
- इस मामले में एकमात्र संभावित शरारत यह हो सकती है कि अपीलकर्त्ता नंबर 1 दोहरे भरण-पोषण का दावा कर सकता है, जो वर्तमान तथ्यों में मामला नहीं है।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण महिला द्वारा प्राप्त लाभ नहीं है, बल्कि पति द्वारा निभाया गया विधिक एवं नैतिक कर्त्तव्य है।
- इसलिये, न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया तथा वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर पत्नी को भरण-पोषण प्रदान किया।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 के अंतर्गत भरण पोषण क्या है?
- भरण-पोषण का प्रावधान CrPC की धारा 125 एवं BNSS की धारा 144 के अंतर्गत किया गया है।
- कैप्टन रमेश चंद्र कौशल बनाम वीना कौशल एवं अन्य (1978) के मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के माध्यम से उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 125 (अब BNSS की धारा 144) का उद्देश्य निर्धारित किया।
- न्यायालय ने माना कि यह प्रावधान सामाजिक न्याय का एक उपाय है और महिलाओं एवं बच्चों की सुरक्षा के लिये अधिनियमित किया गया है तथा यह अनुच्छेद 39 द्वारा सुदृढ़ किये गए अनुच्छेद 15 (3) के संवैधानिक दायरे में आता है।
- BNSS की धारा 144 (1) भरण-पोषण के अनुदान का प्रावधान करती है:
- यदि पर्याप्त साधन संपन्न व्यक्ति अपने परिवार के कुछ सदस्यों का भरण-पोषण करने से मना करता है, तो प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट भरण-पोषण भुगतान का आदेश दे सकता है।
- वे लोग जो भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं:
- एक पत्नी जो स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकती।
- कोई भी वैध या नाजायज बच्चा (विवाहित या अविवाहित) स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकता।
- कोई भी वयस्क वैध या नाजायज बच्चा जो अविवाहित है तथा शारीरिक या मानसिक विकलांगता के कारण स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
- माता-पिता जो स्वयं का भरण-पोषण नहीं कर सकते।
- मजिस्ट्रेट मासिक भरण-पोषण राशि तय कर सकता है तथा निर्देश दे सकता है कि भुगतान किसे मिलना चाहिये।
- बालिकाओं के लिये विशेष प्रावधान:
- यदि किसी विवाहित पुत्री का पति उसका भरण-पोषण नहीं कर सकता, तो मजिस्ट्रेट उसके पिता को आदेश दे सकता है कि वह उसके वयस्क होने तक भरण-पोषण का भुगतान करे।
- अंतरिम भरण पोषण:
- चल रहे भरण-पोषण मामले के दौरान, मजिस्ट्रेट अस्थायी मासिक भुगतान का आदेश दे सकता है।
- इसमें भरण-पोषण एवं विधिक व्यय दोनों शामिल हैं।
- अंतरिम भरण-पोषण के लिये आवेदन पर नोटिस देने के 60 दिनों के अंदर निर्णय लिया जाना चाहिये।
- "पत्नी" के विषय में महत्त्वपूर्ण नोट:
- "पत्नी" शब्द में वे तलाकशुदा महिलाएँ शामिल हैं जिन्होंने दोबारा शादी नहीं की है।
- इससे तात्पर्य यह है कि तलाकशुदा महिलाएँ अपने पूर्व पति से भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं, अगर उन्होंने दोबारा शादी नहीं की है।
- मजिस्ट्रेट को निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं:
- निर्धारित करें कि व्यक्ति के पास पर्याप्त साधन हैं या नहीं।
- मासिक भरण-पोषण राशि निर्धारित करना।
- तय करना कि भुगतान किसे मिलना चाहिये।
- कार्यवाही के दौरान अंतरिम भरण-पोषण का आदेश देना।
दूसरे विवाह के दौरान भरण-पोषण अनुदान के संबंध में ऐतिहासिक मामले क्या हैं?
- द्वारिका प्रसाद सतपति बनाम विद्युत प्रावा दीक्षित एवं अन्य (1999):
- न्यायालय ने गुजारा भत्ता प्रदान किया, जहाँ विवाह का प्रमाण अनिर्णायक था।
- न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 125 के अधीन प्रावधान का उपयोग निराश्रित महिलाओं, बच्चों या माता-पिता को विधायिका द्वारा दिये गए अधिकारों के विरुद्ध नहीं किया जाना चाहिये।
- यमुनाबाई अनंतराव आधव बनाम अनंतराव शिवराम आधव एवं अन्य (1988):
- इस मामले में न्यायालय ने CrPC की धारा 125 के अंतर्गत 'पत्नी' शब्द का कठोर निर्वचन के आधार पर पति की पहली शादी के दौरान दूसरी पत्नी को भरण-पोषण देने से मना कर दिया।
- न्यायालय ने विधायिका की मंशा को प्राथमिकता दी, जिसमें तलाकशुदा पत्नी को CrPC की धारा 125 के दायरे में शामिल किया गया, लेकिन उन वास्तविक पत्नियों का उल्लेख नहीं किया, जिनका विवाह शुरू से ही अमान्य है।
- बादशाह बनाम उर्मिला बादशाह गोडसे एवं अन्य (2014):
- इस मामले में न्यायालय ने दूसरी पत्नी को भरण-पोषण भत्ता दिया, जिसे उसके पति की पहली शादी के विषय में अंधेरे में रखा गया था।
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि न्याय के लिये आगे बढ़ना न्यायालय का परम कर्त्तव्य है।
आपराधिक कानून
BSA के अंतर्गत FIR में अभियुक्त के नाम का लोप
06-Feb-2025
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर सिंह “FIR में लोप महत्त्वपूर्ण है और साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 के अधीन एक सुसंगत तथ्य है।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि FIR में अभियुक्त का नाम उल्लिखित करने में लोप भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 11 के अधीन सुसंगत है।
- उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर सिंह (2025) के वाद में यह निर्णय दिया।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मृतक के परिवार का प्रतिवादी (अभियुक्त) के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध था।
- 1991 में, प्रतिवादी को परिवादकर्त्ता के भाई सीताराम की हत्या के लिये दोषसिद्ध ठहराया गया और आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया।
- मृतक एक निजी परिवहन कंपनी में ड्राइवर के रूप में कार्यरत था और सामान्यतः देर शाम को घर लौटता था।
- 28 अगस्त 2004 को मृतक घर वापस नहीं आया, जिसके बाद उसके परिवार ने उसकी तलाश की।
- रात करीब 10:30 बजे मृतक के पिता, भाई और बेटे ने प्रतिवादी और दो किशोर सह-अपराधियों को मृतक पर चाकुओं से हमला करते देखा।
- हमला इतना गंभीर था कि मृतक का सिर पूरी तरह से धड़ से अलग हो गया।
- घटना देर रात होने के बावजूद, लगभग 14 घंटे बाद, अगले दिन दोपहर करीब 1:00 बजे प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई।
- पुलिस ने शव को सतपाल (DW-1)) के खेत से बरामद किया और दो साक्षियों की मौजूदगी में जाँच पंचनामा तैयार किया।
- शव को पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया गया, तथा साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के अधीन प्रतिवादी के प्रकटीकरण के आधार पर अपराध में प्रयुक्त हथियार बरामद कर लिये गए।
- मृतक के कपड़े तथा अभियुक्त के कपड़े एकत्र किये गए तथा उन्हें फोरेंसिक विश्लेषण के लिये भेज दिया गया।
- प्रतिवादी तथा दो किशोर सह-अभियुक्तों के विरुद्ध हत्या के लिये धारा 302 सहपठित 34 के अधीन आरोप पत्र दाखिल किया गया।
- विचारण न्यायालय ने किशोर सह-अभियुक्तों के लिये विचारण को पृथक् कर दिया तथा प्रतिवादी के विरुद्ध कार्यवाही की।
- अभियोजन पक्ष ने नौ साक्षियों की जाँच की, जबकि बचाव पक्ष ने चार साक्षियों को पेश किया।
- अभियुक्त ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के अधीन अपने कथन के दौरान सभी आरोपों से इंकार किया, तथा मिथ्या आरोप लगाने का दावा किया।
- विचारण न्यायालय ने प्रतिवादी को दोषी पाया तथा उसे जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की दण्ड दिया।
- प्रतिवादी ने दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की।
- उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और प्रतिवादी को दोषमुक्त कर दिया।
- राज्य ने अब दोषमुक्ति को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में वर्तमान अपील दायर की है।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामला तीन प्रत्यक्षदर्शियों, हथियार की खोज, अभिकथित हेतुक और बचाव पक्ष के साक्षियों के मौखिक साक्ष्य पर आधारित है।
- इसके अलावा, FIR के संबंध में न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया:
- FIR 14 घंटे की विलंब के पश्चात् दर्ज की गई थी।
- FIR में केवल प्रतिवादी-अभियुक्त का उल्लेख किया गया था, दो किशोर सह-अभियुक्तों के नाम छोड़ दिये गए थे, जिससे प्रत्यक्षदर्शी के परिसाक्ष्य की विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न हुआ।
- जबकि FIR दर्ज करने में विलंब से वाद अपने आप बदनाम नहीं होता है, किंतु अभियोजन पक्ष के साक्ष्य में अन्य विसंगतियों के साथ इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने माना कि FIR में अभियुक्त का नाम न होना भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 के अधीन एक सुसंगत तथ्य है।
- यह देखा गया कि विचारण करने वाला न्यायाधीश को साक्ष्य की संभावनाओं का मूल्यांकन करना चाहिये और अभियुक्त के पक्ष में किसी भी उचित संदेह पर विचार करना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि तीन प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों पर अविश्वास करने में उच्च न्यायालय द्वारा कोई त्रुटि नहीं की गई।
- प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के साक्ष्य को खारिज कर दिये जाने के बाद, मामला हथियार की खोज पर निर्भर हो गया।
- उच्च न्यायालय ने हथियार की खोज पर भी अविश्वास किया, क्योंकि स्वतंत्र साक्षी (पंच) पंचनामा की सामग्री को सत्यापित करने में विफल रहे।
- इन कारकों के आधार पर, अभियुक्तों को दोषमुक्त करने का उच्च न्यायालय का निर्णय उचित था।
- इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 में यह उपबंध है कि वे तथ्य, जो अन्यथा सुसंगत नहीं है तब सुसंगत हो जाते हैं।
- यह एक अवशिष्ट उपबंध है जो अन्य सभी तथ्यों की बात करता है जो अन्यथा असंगत हैं।
- यह प्रावधानित करता है कि निम्नलिखित तथ्य सुसंगत हैं:
- यदि वे किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य से असंगत हैं।
- यदि वे स्वयंमेव या अन्य तथ्यों के संबंध में किसी विवाद्यक या सुसंगत तथ्य का अस्तित्व या अनस्तित्व अत्यंत अधिसंभाव्य या अनधिसंभाव्य बनाते हैं।
- यह प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 9 के अधीन उल्लिखित है।
FIR क्या है और इसका साक्ष्यिक मूल्य क्या है?
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अधीन दी गई सूचना को सामान्यत: प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में जाना जाता है, यद्यपि इस शब्द का प्रयोग संहिता में नहीं किया जाता है।
- यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 173 के अधीन उपबंधित किया गया है।
- FIR के संबंध में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में शुरू की गई नई विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- जीरो FIR (Zero FIR): भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में उपबंध है कि संज्ञेय अपराध से संबंधित सूचना को पंजीकृत किया जाना चाहिये, चाहे अपराध किसी भी क्षेत्र में किया गया हो।
- FIR इलेक्ट्रॉनिक रूप में दर्ज की जा सकती है: धारा 173 (1) में उपबंध है कि सूचना इलेक्ट्रॉनिक रूप में भी दी जा सकती है। इस मामले में FIR देने वाले व्यक्ति द्वारा तीन दिन के अंदर हस्ताक्षरित किये जाने पर उसके द्वारा लेखबद्ध की जाएगी।
- प्रारंभिक अन्वेषण का उपबंध: यदि संज्ञेय अपराध ऐसा है जिसके लिये 3 वर्ष या उससे अधिक का दण्ड किंतु 7 वर्ष से अधिक नहीं है, तो पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अपराध की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए पुलिस अधीक्षक की पूर्व अनुमति से:
- चौदह दिनों की अवधि के अंदर मामले में कार्यवाही करने के लिये प्रथमदृष्टया: मामला विद्यमान है या नहीं, यह पता लगाने के लिये प्रारंभिक जाँच संचालित करने के लिये आगे बढ़ सकता है; या
- जब प्रथमदृष्टया: मामला विद्यमान हो तो अन्वेषण के साथ आगे बढ़ सकता है।
आपराधिक कानून
अप्राप्तवय के साथ बलात्संग
06-Feb-2025
सूरज कुमार उर्फ विश्वप्रताप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं तीन अन्य "भारत में अप्राप्तवय बलात्संग पीड़िताा द्वारा किसी पर मिथ्या आरोप लगाने की अपेक्षा चुपचाप सहने की अधिक संभावना होती है।" न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह की पीठ ने 11 वर्षीय लड़की से बलात्संग के आरोपी व्यक्ति को जमानत देने से अस्वीकार करते हुए कहा कि अप्राप्तवय पीड़िता शायद ही कभी मिथ्या आरोप लगाते हैं।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सूरज कुमार उर्फ विश्वप्रताप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं तीन अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
- इन्होंने निर्णय दिया कि प्रवेशन के बिना भी, यह कृत्य भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) के अधीन बलात्संग की परिभाषा के अंतर्गत आता है। लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 29 का उदाहरण देते हुए, न्यायालय ने अपराध मान लिया तथा पीड़िता के अभिकथनों को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में यथावत बनाए रखा।
सूरज कुमार उर्फ विश्वप्रताप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं तीन अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 5 सितंबर 2024 को 23:20 बजे एक घटना के संबंध में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई, जो उसी दिन 05:30 बजे घटित हुई थी।
- आरोपी सूरज कुमार उर्फ विश्वप्रताप सिंह पर BNS की धारा 65(2), 351(2), 332(c) और POCSO अधिनियम की धारा 3/4 के अधीन आरोप लगाए गए थे।
- पीड़िता 11 वर्ष की लड़की थी, घटना के समय उसकी उम्र 11 वर्ष, 7 महीने एवं 27 दिन थी।
- शिकायतकर्त्ता (पीड़िता के पिता) ने आरोप लगाया कि जब वह जगे तो उन्होंने अपनी बेटी को उसके बिस्तर से गायब पाया तथा देखा कि दूसरा कमरा अंदर से बंद था।
- खिड़की से देखने पर, शिकायतकर्त्ता ने देखा कि आरोपी ने पीड़िता का मुंह दबाते हुए कथित तौर पर अपराध कारित किया।
- जब शिकायतकर्त्ता ने चिल्लाकर अपनी पत्नी को बुलाया, तो आरोपी ने दरवाजा खोलकर, शिकायतकर्त्ता को धक्का देकर और धमकियाँ देते हुए मौके से भाग गया।
- आरोपी को 6 सितंबर 2024 को गिरफ्तार किया गया था, हालाँकि उसने दावा किया कि उसे 5 सितंबर 2024 को शिकायतकर्त्ता के परिवार द्वारा बलपूर्वक घर में घसीटा गया था।
- पीड़िता के अभिकथन BNSS की धारा 180 एवं 183 के अधीन दर्ज किये गए, जहाँ उसने घटना एवं आरोपी की कृत्यों का वर्णन किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि FIR दर्ज करने में 17 घंटे का विलंब स्वाभाविक रूप से लैंगिक अपराध पीड़िताों और उनके परिवारों की प्रतिष्ठा की चिंताओं के कारण पुलिस से संपर्क करने की अनिच्छा को देखते हुए की गई थी।
- BNSS की धारा 180 एवं 183 के अधीन पीड़िता के अभिकथनों में मामूली विसंगतियों को महत्त्वहीन माना गया क्योंकि वे मुख्य अभियोजन द्वारा दिये गए अभिकथन को प्रभावित नहीं करते थे।
- न्यायालय ने पाया कि अलग-अलग व्यक्तियों के पास अवलोकन, अवधारण एवं पुनरुत्पादन की अलग-अलग शक्तियाँ होती हैं, जिससे सत्यतापूर्ण गवाही में स्वाभाविक रूप से भिन्नताएँ होती हैं।
- प्रवेशन के स्पष्ट उल्लेख की अनुपस्थिति के संबंध में, न्यायालय ने माना कि अभियुक्त का कृत्य प्रयास चरण से आगे निकल गईं तथा BNS की धारा 63 में प्रावधानित बलात्संग की परिभाषा के अंतर्गत आती हैं।
- न्यायालय ने कहा कि प्रवेशन के बिना भी, अभियुक्त BNS की धारा 65 (2) के अंतर्गत उत्तरदायी होगा क्योंकि पीड़िताा की आयु 12 वर्ष से कम है।
- न्यायालय ने मेडिकल रिपोर्ट में बल के संकेतों की अनुपस्थिति के विषय में बचाव पक्ष के तर्क को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि अंतिम राय FSL रिपोर्ट के अंतर्गत लंबित है।
- न्यायालय ने कहा कि लैंगिक हिंसा के मामलों से कठोरता से और गंभीरता से निपटा जाना चाहिये, विशेषकर जब इसमें असहाय मासूम बच्चे शामिल हों।
- न्यायालय ने कहा कि ग्रामीण भारत में, किसी लड़की द्वारा लैंगिक उत्पीड़न के आरोप गढ़ना असामान्य बात होगी, क्योंकि पीड़िता आमतौर पर किसी को मिथ्या रूप से फंसाने के बजाय चुपचाप सहना पसंद करते हैं।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मिथ्या आरोप लगाने या अप्राप्तवय पीड़िता के अभिकथनों पर विश्वास न करने के लिये रिकॉर्ड पर कोई सामग्री नहीं थी।
भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) की धारा 65 क्या है?
- 16 वर्ष से कम आयु की बलात्संग पीड़िताओं के लिये:
- न्यूनतम सजा: 20 वर्ष सश्रम कारावास।
- अधिकतम सजा: आजीवन कारावास (प्राकृतिक जीवन के लिये)।
- अनिवार्य अर्थदण्ड जो पीड़िता को देना होगा।
- अर्थदण्ड की राशि में चिकित्सा व्यय और पुनर्वास शामिल होना चाहिये।
- 12 वर्ष से कम आयु की बलात्संग पीड़ितााओं के लिये:
- न्यूनतम सजा: 20 वर्ष सश्रम कारावास।
- अधिकतम सजा: आजीवन कारावास (प्राकृतिक जीवन के लिये) या मृत्युदण्ड।
- अनिवार्य अर्थदण्ड जो पीड़िता को देना होगा।
- अर्थदण्ड की राशि में चिकित्सा व्यय एवं पुनर्वास निहित होना चाहिये।
- दोनों श्रेणियों के बीच मुख्य अंतर ये हैं:
- मृत्युदण्ड केवल 12 वर्ष से कम आयु की पीड़िताओं के साथ बलात्संग के विरुद्ध दण्ड के रूप में उपलब्ध है।
- दोनों श्रेणियों में न्यूनतम कारावास अवधि 20 वर्ष है।
- दोनों में ही पीड़िताों को उनकी चिकित्सा देखभाल और पुनर्वास के लिये सीधे अर्थदण्ड देना होता है।
- दोनों में आजीवन कारावास को दोषी के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास के रूप में परिभाषित किया गया है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 180 क्या है?
- धारा 180 किसी भी विवेचनाकर्त्ता पुलिस अधिकारी या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत निर्धारित रैंक के किसी भी पुलिस अधिकारी को किसी मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से परिचित माने जाने वाले व्यक्तियों की मौखिक रूप से जाँच करने का अधिकार देती है।
- जिस व्यक्ति की जाँच की जा रही है, वह मामले से संबंधित सभी प्रश्नों का सत्यता से उत्तर देने के लिये विधिक रूप से बाध्य है, सिवाय उन प्रश्नों के जो उसे आपराधिक आरोपों, दण्ड या जब्ती की सीमा में ला सकते हैं।
- पुलिस अधिकारी के पास परीक्षा के दौरान दिये गए किसी भी अभिकथन को लिखित रूप में दर्ज करने का विवेकाधिकार है, तथा ऐसा करने पर, प्रत्येक व्यक्ति के अभिकथन के लिये अलग एवं सटीक रिकॉर्ड बनाए रखना चाहिये।
- यह खंड लिखित दस्तावेजीकरण के विकल्प के रूप में ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से अभिकथन दर्ज करने का प्रावधान करता है।
- भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 64-71, 74-79 या 124 के अधीन महिलाओं के विरुद्ध अपराधों से जुड़े मामलों के लिये, अभिकथन या तो एक महिला पुलिस अधिकारी या किसी भी महिला अधिकारी द्वारा दर्ज किये जाने चाहिये।
- यह खंड जाँच अध्याय के अंतर्गत आता है और आपराधिक जाँच के दौरान गवाही एकत्र करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है।
- यह खंड अनिवार्य रूप से पुलिस विवेचना के दौरान साक्षियों के अभिकथन दर्ज करने की प्रक्रिया को संहिताबद्ध करता है, साथ ही महिला पीड़िता से संबंधित मामलों में उचित दस्तावेजीकरण एवं लिंग-संवेदनशील हैंडलिंग सुनिश्चित करता है।
BNSS की धारा 183 क्या है?
- धारा 183 किसी भी जिला मजिस्ट्रेट को जाँच के दौरान अधिकारिता की चिंता किये बिना अभिकथन या संस्वीकृति दर्ज करने का अधिकार देती है, लेकिन ऐसी रिकॉर्डिंग जाँच या सुनवाई आरंभ होने से पहले होनी चाहिये।
- मजिस्ट्रेट शक्तियों वाले पुलिस अधिकारियों को संस्वीकृति दर्ज करने से स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया गया है, तथा अभियुक्त के अधिवक्ता की उपस्थिति में ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से संस्वीकृति/अभिकथन दर्ज किये जा सकते हैं।
- मजिस्ट्रेट को व्यक्ति को यह सूचित करना चाहिये कि वे संस्वीकृति करने के लिये बाध्य नहीं हैं, तथा किसी भी संस्वीकृति को उनके विरुद्ध साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि संस्वीकृति स्वेच्छा से की गई है।
- यदि कोई व्यक्ति रिकॉर्डिंग से पहले संस्वीकृति करने की अनिच्छा व्यक्त करता है, तो मजिस्ट्रेट पुलिस अभिरक्षा में उनकी अभिरक्षा को अधिकृत नहीं कर सकता है।
- विशिष्ट अपराधों (धारा 64-71, 74-79, या 124) से जुड़े मामलों के लिये, पीड़िताओं के अभिकथन अधिमानतः एक महिला मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किये जाने चाहिये, या यदि उपलब्ध न हो, तो एक महिला की उपस्थिति में एक पुरुष मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किये जाने चाहिये।
- मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के अभिकथन दर्ज करने के लिये विशेष प्रावधान उपलब्ध हैं, जिसके लिये दुभाषियों या विशेष शिक्षकों की सहायता की आवश्यकता होती है, तथा ऐसे अभिकथनों को ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से रिकॉर्ड किया जा सकता है।
- विकलांग व्यक्ति के दर्ज किये गए अभिकथन को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के अधीन मुख्य परीक्षा के तुल्य माना जाता है, जिससे अभियोजन प्रक्रिया के दौरान दोबारा रिकॉर्डिंग की आवश्यकता के बिना प्रतिपरीक्षा की अनुमति मिलती है।
- सभी दर्ज किये गए अभिकथनों और साक्ष्यों को मजिस्ट्रेट को भेजा जाना चाहिये जो मामले की जाँच या सुनवाई करेंगे।
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के अंतर्गत प्रवेशनात्मक यौन हमले के लिये विधिक प्रावधान एवं दण्ड क्या हैं?
- धारा 3 - प्रवेशनात्मक लैंगिक हमला परिभाषा:
- प्रवेशनात्मक लैंगिक हमले को बच्चे की योनि, मुंह, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग के प्रवेशन के रूप में परिभाषित किया गया है।
- इसमें बच्चे की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में किसी भी वस्तु या शरीर के अंग (लिंग को छोड़कर) में प्रवेशन शामिल है।
- इसमें बच्चे के शरीर के किसी भी अंग में प्रवेशन के लिये छेड़छाड़ करना शामिल है।
- इसमें बच्चे के निजी अंगों पर मुंह लगाना या बच्चे को ऐसा करने के लिये विवश करना शामिल है।
- धारा 4 - प्रवेशनात्मक लैंगिक हमले के लिये प्रावधानित सजा:
- न्यूनतम सात वर्ष का कारावास की सज़ा का प्रावधान है।
- अधिकतम सज़ा आजीवन कारावास तक हो सकती है।
- इसके अतिरिक्त अर्थदण्ड की देयता भी शामिल है।
- धारा 5 - गंभीर प्रवेशनात्मक लैंगिक हमला:
- पुलिस अधिकारियों, सशस्त्र बलों, लोक सेवकों सहित अपराधियों की विशिष्ट श्रेणियों पर लागू होता है।
- जेलों, अस्पतालों, शैक्षणिक या धार्मिक संस्थानों के कर्मचारियों द्वारा किये गए अपराधों को शामिल करता है।
- इसमें सामूहिक लैंगिक उत्पीड़न भी शामिल है।
- हथियारों, गंभीर चोट या गर्भधारण के कारण होने वाले मामलों को संबोधित करता है।
- मानसिक/शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों पर हमले शामिल हैं।
- बारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर बार-बार होने वाले अपराध और हमले शामिल हैं।
- रिश्तेदारों, अभिभावकों या विश्वसनीय पदों पर बैठे लोगों द्वारा किये गए हमले शामिल हैं।
- धारा 6 - गंभीर प्रवेशनात्मक लैंगिक हमले के विरुद्ध प्रावधानित सजा:
- इसमें न्यूनतम दस वर्ष का कठोर कारावास निर्धारित किया गया है। इसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
- इसमें अनिवार्य अर्थदण्ड शामिल है।
- इसमें मूलभूत लैंगिक उत्पीड़न की तुलना में अधिक कठोर सजा का प्रावधान है, जो अपराध की अधिक गंभीरता को दर्शाता है।