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सांविधानिक विधि
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 (1) और गिरफ्तारी के बारे में सूचित किये जाने का अधिकार
10-Feb-2025
विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य “जब किसी व्यक्ति को बिना वारण्ट के गिरफ्तार किया जाता है, और गिरफ्तारी के पश्चात् यथाशीघ्र उसे गिरफ्तारी के आधारों की सूचना नहीं दी जाती है, तो यह अनुच्छेद 21 के अधीन प्रतिभूत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा”। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह |
स्रोत:उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने अभिनिर्धारित किया कि मजिस्ट्रेट को यह पता लगाना चाहिये कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 22 (1) का अनुपालन किया गया है या नहीं? इसका कारण यह है कि अनुपालन न होने के कारण गिरफ्तारी अवैध हो जाती है और इसलिये गिरफ्तारी अवैध होने के पश्चात् गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड पर नहीं लिया जा सकता ।
- उच्चतम न्यायालय ने विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपील में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के विद्वान एकल न्यायाधीश द्वारा पारित 30 अगस्त 2024 के निर्णय और आदेश को चुनौती दी गई है ।
- अपीलकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 120-ख सपठित धारा 409, 420, 467, 468 और 471 के अधीन अपराधों के लिये 25 मार्च 2023 को पंजीकृत प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 121/2023 के संबंध में गिरफ्तार किया गया था ।
- अपीलकर्त्ता के अनुसार, उसे 10 जून 2024 को सुबह 10:30 बजे हुडा सिटी सेंटर, गुरुग्राम, हरियाणा स्थित उसके कार्यालय से गिरफ्तार किया गया और डीएलएफ पुलिस थाना, सेक्शन 29, गुरुग्राम ले जाया गया ।
- अपीलकर्त्ता को कथित तौर पर 11 जून 2024 को अपराह्न 3:30 बजे गुड़गाँव में विद्वान न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रभारी) के समक्ष पेश किया गया, जिससे संविधान के अनुच्छेद 22(2) और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 57 के उल्लंघन का दावा किया गया ।
- अपीलकर्त्ता का दावा है कि न तो रिमाण्ड रिपोर्ट और न ही 11 जून 2024 के आदेश में गिरफ्तारी के समय का उल्लेख किया गया है ।
- यद्यपि, प्रथम प्रतिवादी का दावा है कि अनुच्छेद 22(2) के अनुपालन को सुनिश्चित करते हुए अपीलकर्त्ता को 10 जून 2024 को शाम 6:00 बजे गिरफ्तार किया गया था ।
- 4 अक्टूबर 2024 को दिये गए आदेश में अभिलिखित है कि अपीलकर्त्ता को गिरफ्तारी के पश्चात् पीजीआईएमएस, रोहतक में भर्ती कराया गया था ।
- अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने तस्वीरें प्रस्तुत कीं, जिनमें दर्शित किया गया कि अस्पताल में भर्ती होने के दौरान उसे हथकड़ी और जंजीरों से बाँधकर बिस्तर पर रखा गया था ।
- परिणामस्वरूप, 4 अक्टूबर 2024 को पीजीआईएमएस के चिकित्सा अधीक्षक को एक नोटिस जारी किया गया, जिसमें एक शपथ-पत्र मांगा गया कि क्या अपीलकर्त्ता को हथकड़ी और जंजीर लगाई गई थी?
- 21 अक्टूबर 2024 के आदेश में चिकित्सा अधीक्षक की यह स्वीकारोक्ति अभिलिखित है कि अपीलकर्त्ता को वास्तव में हथकड़ी और जंजीर लगाई गई थी ।
- 24 अक्टूबर 2024 को, श्री अभिमन्यु, एचपीएस, सहायक पुलिस आयुक्त, ईओडब्ल्यू I और II, गुरुग्राम, हरियाणा ने एक शपथ-पत्र दायर कर पुष्टि की, कि अपीलकर्त्ता को पीजीआईएमएस ले जाने वाले अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया था ।
- निलंबित अधिकारियों के विरुद्ध 23 अक्टूबर 2024 को पुलिस उपायुक्त द्वारा विभागीय जांच शुरू की गई ।
- अतः एक रिट याचिका दायर की गई जिसमें यह दावा किया गया कि अपीलकर्त्ता को गिरफ्तारी के आधार या गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित नहीं किया गया था ।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 22 (1) के अनुसार गिरफ्तारी के आधार को गिरफ्तार व्यक्ति को प्रभावी ढंग से और संपूर्ण रूप में बताया जाना चाहिये ।
- इसके अतिरिक्त, गिरफ्तारी के आधार को उस भाषा में बताया जाना चाहिये जिसे गिरफ्तार व्यक्ति समझ सके ।
- आगे न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों को सूचित करना औपचारिकता नहीं, अपितु एक अनिवार्य सांविधानिक आवश्यकता है ।
- गिरफ्तार किये गए और निरोध में रखे गए प्रत्येक व्यक्ति का यह मौलिक अधिकार है कि उसे गिरफ्तारी के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित किया जाए ।
- जब किसी व्यक्ति को बिना वारण्ट के गिरफ्तार किया जाता है, और गिरफ्तारी के पश्चात् यथाशीघ्र उसे गिरफ्तारी के आधारों को सूचित नहीं किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 21 के अधीन गारंटीकृत उसके मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन होगा ।
- यदि गिरफ्तारी के कारणों को यथाशीघ्र सूचित करने की आवश्यकता का अनुपालन करने में विफलता होती है, तो गिरफ्तारी को अमान्य माना जाता है । एक बार गिरफ्तारी के अमान्य घोषित कर दिये जाने के पश्चात्, गिरफ्तार व्यक्ति एक सेकंड के लिये भी निरोध में नहीं रह सकता है ।
- एक बार जब अनुच्छेद 22(1) के उल्लंघन के कारण गिरफ्तारी को असांविधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो गिरफ्तारी स्वयं दोषपूर्ण हो जाती है और रिमाण्ड के आदेश के आधार पर ऐसे व्यक्ति का निरंतर निरोध भी दोषपूर्ण हो जाता है ।
- न्यायालय ने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की, कि आरोप-पत्र दाखिल करना और संज्ञान लेना गिरफ्तारी को वैध नहीं ठहराएगा, जो कि स्वयं असांविधानिक है तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 का उल्लंघन है ।
- आगे न्यायालय ने स्पष्ट किया कि व्यक्ति को पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है ।
- यह भी कि, जब कोई गिरफ्तार व्यक्ति न्यायालय के समक्ष यह दलील देता है कि गिरफ्तारी के आधार नहीं बताए गए, तो अनुच्छेद 22(1) के अनुपालन को साबित करने का भार पुलिस पर होता है ।
- आगे न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मजिस्ट्रेट पर यह पता लगाने का कर्त्तव्य आरोपित किया गया है कि अनुच्छेद 22 (1) का अनुपालन किया गया है या नहीं? इसका कारण यह है कि अनुपालन न करने के कारण गिरफ्तारी अवैध हो जाती है और इसलिये गिरफ्तारी अवैध होने के पश्चात् गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड पर नहीं लिया जा सकता ।
- मौलिक अधिकारों को कायम रखना न्यायालय का कर्त्तव्य है ।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट किया कि पत्नी को गिरफ्तारी के आधार संसूचित करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) का वैध अनुपालन नहीं है ।
- अतः न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मामले के तथ्यों को देखते हुए, न्यायालय को यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि अपीलकर्त्ता की गिरफ्तारी अवैध थी, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) के अधीन अपीलकर्त्ता को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित नहीं किया गया था ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) के अधीन उपलब्ध अधिकार क्या हैं?
- भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 22(1) एक मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जो गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों के बारे में सूचित किये जाने के अधिकार की गारंटी देता है ।
- इसमें अभिकथित किया गया है कि गिरफ्तार और निरोध में रखे गए किसी भी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिये तथा उसे अपनी पसंद के विधिक अधिवक्ता से परामर्श करने और प्रतिरक्षा करने का अधिकार होना चाहिये ।
- यह प्रावधान गिरफ्तारी और निरोध में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करता है तथा मनमाने या अवैध निरोध को रोकता है ।
- इसके अतिरिक्त, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 50 में यह प्रावधान है कि गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार और जमानत के अधिकार के बारे में सूचित किया जाना चाहिये ।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 47, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 50 में उपबंधित प्रावधानों को दोहराती है ।
इस मामले में न्यायालय द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 पर कौन-से महत्त्वपूर्ण बिंदु अभिनिर्धारित किये गए हैं?
- इस मामले में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 पर अभिनिर्धारित महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित हैं:
- गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों को सूचित करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) की अनिवार्य आवश्यकता है ।
- गिरफ़्तारी के आधारों की जानकारी गिरफ़्तार व्यक्ति को इस तरह से दी जानी चाहिये कि आधारों को बनाने वाले बुनियादी तथ्यों की पर्याप्त जानकारी गिरफ़्तार व्यक्ति को दी जाए और उसे उस भाषा में प्रभावी ढंग से संप्रेषित की जाए जिसे वह समझता है । संप्रेषण का तरीका और विधि ऐसी होनी चाहिये जिससे सांविधानिक सुरक्षा का उद्देश्य प्राप्त हो सके ।
- जब गिरफ्तार अभियुक्त अनुच्छेद 22(1) की आवश्यकताओं का अनुपालन न करने का आरोप लगाता है, तो अनुच्छेद 22(1) की आवश्यकताओं के अनुपालन को साबित करने का भार सदैव अन्वेषण अधिकारी/अभिकरण पर होगा ।
- अनुच्छेद 22(1) का पालन न करना अभियुक्त के उस अनुच्छेद द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा । आगे, यह संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा । इसलिये, अनुच्छेद 22(1) की आवश्यकताओं का पालन न करना अभियुक्त की गिरफ्तारी को अमान्य करता है ।
- अतः आपराधिक न्यायालय द्वारा रिमाण्ड के लिये पारित किये गए प्रतिप्रेषण के आदेश भी अमान्य हैं । यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इससे अन्वेषण, आरोप-पत्र और विचारण पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।
- परंतु साथ ही, आरोप-पत्र दाखिल करना अनुच्छेद 22(1) के अधीन सांविधानिक जनादेश के उल्लंघन को वैध नहीं मानेगा ।
- जब किसी गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड के लिये न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट का यह कर्त्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि अनुच्छेद 22(1) और अन्य अनिवार्य सुरक्षा उपायों का अनुपालन किया गया है या नहीं; तथा
- जब अनुच्छेद 22(1) का उल्लंघन सिद्ध हो जाता है, तो न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह अभियुक्त को तत्काल रिहा करने का आदेश दे । यह जमानत देने का आधार होगा, भले ही जमानत देने पर वैधानिक प्रतिबंध मौजूद हों । संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 का उल्लंघन सिद्ध होने पर न्यायालय की जमानत देने की शक्ति पर वैधानिक प्रतिबंध प्रभाव नहीं डालते ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?
- पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2024):
- संविधान के अनुच्छेद 22(1) में अन्य बातों के साथ-साथ यह प्रावधान है कि गिरफ्तार किये गए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों की यथाशीघ्र सूचना दिये बिना निरोध में नहीं रखा जाएगा ।
- चूँकि यह गिरफ्तार व्यक्ति को दिया गया मौलिक अधिकार है, इसलिये गिरफ्तारी के आधार को सूचित करने का तरीका आवश्यक रूप से सार्थक होना चाहिये ताकि इच्छित उद्देश्य की पूर्ति हो सके ।
- प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2024):
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी अपराध के संबंध में गिरफ्तार व्यक्ति या निवारक निरोध में रखे गए व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) और 22(5) के अधीन गिरफ्तारी या निरोध के आधार को लिखित रूप में बताने की आवश्यकता पवित्र है और किसी भी स्थिति में इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है ।
- इस सांविधानिक आवश्यकता और वैधानिक आदेश का पालन न करने पर, यथास्थिति, निरोध या अभिरक्षा को अवैध माना जाएगा |
सांविधानिक विधि
पुराने अधिनियम का निरसन करने वाला नया अधिनियम
10-Feb-2025
मेसर्स एसआरएस ट्रेवल्स द्वारा मालिक के.टी. राजशेखर बनाम कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम श्रमिक एवं अन्य (2025) “निरसन सांविधिक विधिक ढांचे को नए सिरे से नहीं बनाता, अपितु पहले के अधिनियम के प्रवर्त्तनशील प्रावधानों को समाप्त कर देता है।” न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले की पीठ ने माना कि पुराने अधिनियम का निरसन करने वाले नए अधिनियम को राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स एसआरएस ट्रेवल्स द्वारा मालिक के.टी. राजशेखर बनाम कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम श्रमिक एवं अन्य (2025) के मामले में यह माना।
मेसर्स एसआरएस ट्रैवल्स द्वारा मालिक केटी राजशेखर बनाम कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम श्रमिक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- कर्नाटक ठेका गाड़ी (अधिग्रहण) अधिनियम, 1976 (केसीसीए अधिनियम) निजी तौर पर संचालित ठेका गाड़ी का अधिग्रहण करने, उन्हें सार्वजनिक नियंत्रण में लाने और उन्हें कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम सहित राज्य के स्वामित्व वाली सड़क परिवहन निगमों को अंतरित करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक राज्य बनाम रंगनाथ रेड्डी (1978) में केसीसीए अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा और बाद में विजयकुमार शर्मा बनाम कर्नाटक राज्य (1990) में इसकी पुष्टि की, जिसमें कहा गया कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 39(ख) और (ग) के अधीन निदेशित सिद्धांतों के अनुरूप है।
- मोटर यान अधिनियम, 1988 (MV Act) को बाद में अधिनियमित किया गया, जिसमें "ठेका गाड़ी" और "मंजिली गाड़ी" को परिभाषित किया गया, साथ ही परिवहन विनियमन पर शक्तियों के साथ राज्य और क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकरण (STA & RTA) की स्थापना भी की गई।
- कर्नाटक मोटर यान नियम, 1989 ने STA और RTA को अपने सचिवों को ठेका गाड़ी परमिट जारी करने सहित शक्तियों को सौंपने के लिये प्राधिकृत किया।
- सार्वजनिक परिवहन की बढ़ती मांग और निजी गाड़ियों पर परिसीमाओं के कारण, सार्वजनिक परिवहन को उदार बनाने और निजी ऑपरेटरों को अनुमति देने के लिये कर्नाटक अधिनियम संख्या 9, 2003 (2003 निरसन अधिनियम) के माध्यम से केसीसीए अधिनियम को निरसित कर दिया गया।
- निरसन के पश्चात्, निजी बस ऑपरेटरों ने ठेका गाड़ी परमिट के लिये आवेदन किया, और कुछ परमिट एसटीए और आरटीए के सचिवों द्वारा दिए गए।
- कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम और उसके कर्मचारियों ने 2003 के निरसन अधिनियम और परमिट देने की शक्तियों के प्रत्यायोजन को चुनौती दी, तथा तर्क दिया कि केसीसीए अधिनियम का निरसन करने के लिये राष्ट्रपति की पुनः स्वीकृति की आवश्यकता होगी तथा परमिट जारी करने का अधिकार बहु-सदस्यीय निकायों के पास ही रहना चाहिये।
- 17 नवंबर 2004 को, कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक एकल न्यायाधीश ने फैसला सुनाया कि 2003 का निरसन अधिनियम असांविधानिक था और केएमवी नियमों के नियम 55 और 56 अधिकारातीत थे क्योंकि वे सांविधिक प्राधिकरण के बजाय सचिव द्वारा परमिट जारी करने की अनुमति देते थे।
- मामला एक खण्डपीठ को भेजा गया, जिसने 28 मार्च 2011 को 2003 के निरसन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा और फैसला सुनाया कि विधान सभा के पास राष्ट्रपति की पुनः स्वीकृति के बिना 1976 के अधिनियम का निरसन करने की शक्ति है।
- हालाँकि, खण्डपीठ ने सचिव, एसटीए/आरटीए को परमिट देने की शक्ति सौंपने को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ऐसी शक्ति अर्ध-न्यायिक है और इसके लिये सामूहिक निर्णय की आवश्यकता है।
- खण्डपीठ के आदेश से व्यथित होकर, निजी बस ऑपरेटरों, कर्नाटक एसटीए और कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम द्वारा उच्चतम न्यायालय में कई विशेष अनुमति याचिकाएँ (एसएलपी) दायर की गईं:
- निजी बस ऑपरेटरों (एसएलपी (सी) संख्या 27833-27834 ऑफ 2011) ने उस विनिर्णय को चुनौती दी, जिसमें परमिट देने की शक्तियों के प्रत्यायोजन को अस्वीकार कर दिया गया था, परंतु 2003 के निरसन अधिनियम की वैधता को स्वीकार किया गया था।
- कर्नाटक एसटीए (एसएलपी (सी) संख्या 32499-525 ऑफ 2011) ने भी 2003 के निरसन अधिनियम की वैधता का समर्थन करते हुए प्रत्यायोजन पर प्रतिबंध को चुनौती दी। कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (एसएलपी (सी) संख्या 25787-956/2012) ने 2003 निरसन अधिनियम को बरकरार रखने वाले फैसले को चुनौती दी तथा इसे अमान्य घोषित करने की मांग की, लेकिन इस बात पर सहमति जताई कि सचिव, एसटीए/आरटीए के पास परमिट देने की शक्तियां नहीं होनी चाहिये।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (केएसआरटीसी) ने तर्क दिया कि केसीसीए अधिनियम का निरसन करना असांविधानिक था क्योंकि इसने कथित तौर पर रंगनाथ रेड्डी बनाम रंगनाथ रेड्डी (1978) और विजयकुमार शर्मा बनाम कर्नाटक राज्य (1990) में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को खारिज कर दिया था।
- न्यायालय ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णयों ने अधिनियमन के समय केसीसीए अधिनियम की वैधता की पुष्टि की थी और विधानमंडल को नीतिगत परिवर्तनों के जवाब में इसे बाद में संशोधित या निरसन करने से नहीं रोका था।
- न्यायालय ने माना कि निरसन के लिये राष्ट्रपति की पुनः स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि निरसन विधि एक नया विधिक ढांचा नहीं बनाता है अपितु पुरानी विधि के प्रावधानों को केवल निष्प्रभावी करता है।
- निरसन सूची II (कराधान) की प्रविष्टि 57 के अधीन अधिनियमित किया गया था, जहां राज्य के पास स्वतंत्र विधायी क्षमता है, जबकि मूल केसीसीए अधिनियम प्रविष्टि 42 (संपत्ति का अधिग्रहण और अभिग्रहण) के अधीन अधिनियमित किया गया था।
- यह निरसन एक नीतिगत विनिश्चय था जिसका उद्देश्य केसीसीए अधिनियम पर न्यायिक निर्णयों को दरकिनार करने के प्रयास के बजाय अधिक नम्य परिवहन प्रणाली बनाना था।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कर्नाटक मोटर यान कराधान और कुछ अन्य विधिक (संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 3, जिसने केसीसीए अधिनियम का निरसन किया, सांविधानिक थी।
- कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम निरसन में कोई विधायी दोष साबित करने में विफल रहा, और न्यायालय ने केसीसीए अधिनियम का निरसन करने के लिये राज्य विधानमंडल की शक्ति को बरकरार रखा।
संसद और राज्य विधानमंडल की विधायी शक्तियाँ क्या हैं?
- संविधान में ‘विधायी शक्तियों का वितरण’ शीर्षक के अंतर्गत संविधान का अनुच्छेद 246 दिया गया है।
- इसमें उन विषय-वस्तुओं का उल्लेख है जिन पर विधान सभाओं और संसद को विधि बनाने की शक्ति है।
- अनुच्छेद 246 (1) में प्रावधान है कि खण्ड (2) और (3) में किसी बात के होते हुए भी, संसद को सातवीं अनुसूची की सूची I में (जिसे संविधान में जिसे “संघ सूची” कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की अनन्य शक्ति है। इसमें रक्षा, विदेशी मामले, रेलवे, बैंकिंग आदि जैसी प्रविष्टियाँ शामिल होंगी।
- अनुच्छेद 246 (2) में प्रावधान है कि खण्ड (3) में किसी बात के होते हुए भी, संसद और खण्ड (1) के अधीन रहते हुए, किसी भी राज्य के विधानमंडल को भी सातवीं अनुसूची की सूची III में (जिसे इस संविधान में जिसे “समवर्ती सूची” कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की शक्ति है।
- समवर्ती सूची दोहरे वितरण की अत्यधिक कठोरता को कम करने के लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करती है।
- सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के अनुसार समवर्ती सूची के विषय न तो पूरी तरह से राष्ट्रीय मुद्दा के हैं और न ही स्थानीय मुद्दा के, इस लिये वे सांविधानिक रूप से अस्पष्ट क्षेत्र में आते हैं।
- अनुच्छेद 246 (3) में प्रावधान है कि खण्ड (1) और (2) के अधीन रहते हुए, किसी भी राज्य के विधानमंडल को सातवीं अनुसूची की सूची II में (जिसे इस संविधान में "राज्य सूची" कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में ऐसे राज्य या उसके किसी भाग के लिये विधि बनाने की विशेष शक्ति है।
- इस प्रकार, सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ हैं, जो उन विषयों को प्रगणित करती हैं, जिन पर संसद या राज्य विधानमंडल को विधि बनाने की शक्ति है।
बौद्धिक संपदा अधिकार
व्यापार चिन्ह अधिनियम के अधीन ‘सुविख्यात व्यापार चिन्ह’
10-Feb-2025
आदित्य बिड़ला फैशन एण्ड रिटेल लिमिटेड बनाम फ्रेंड्स इंक एवं अन्य “इस न्यायालय का दृष्टिकोण है कि वादी का चिह्न, ‘पीटर इंग्लैंड’ एक ‘सुविख्यात चिह्न’ के रूप में घोषित किये जाने का हकदार है । तदनुसार, इसे ऐसा घोषित किया जाता है” । न्यायमूर्ति मिनी पुष्करणा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति मिनी पुष्करणा की पीठ ने अभिनिर्धारित किया कि ‘पीटर इंग्लैंड’ व्यापार चिन्ह अधिनियम, 1999 की धारा 2(1)(य छ) के अधीन सभी मानदण्डों को पूरा करता है, जिससे इसे एक ‘सुविख्यात व्यापार चिन्ह’ के रूप में घोषित किया जा सकता है ।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने आदित्य बिड़ला फैशन एण्ड रिटेल लिमिटेड बनाम फ्रेंड्स इंक एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया ।
आदित्य बिड़ला फैशन एण्ड रिटेल लिमिटेड बनाम फ्रेंड्स इंक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- आदित्य बिड़ला फैशन एण्ड रिटेल लिमिटेड ने व्यापार चिन्ह ‘पीटर इंग्लैंड’ के संबंध में फ्रेंड्स इंक और एक अन्य प्रतिवादी के विरुद्ध वाद संस्थित किया ।
- पीटर इंग्लैंड ब्राण्ड का इतिहास काफी पुराना है, जिसे मूलतः वर्ष1889 में इंग्लैंड में कैरिंगटन वियेला गारमेंट्स लिमिटेड द्वारा बनाया गया था ।
- यह ब्राण्ड वर्ष 1997 में भारतीय बाजार में आया और वर्ष 2000 में औपचारिक असाइनमेंट डीड के माध्यम से आदित्य बिड़ला समूह द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया ।
- वादी, आदित्य बिड़ला फैशन, ने भारत में 180 से अधिक कस्बों और शहरों में 382 स्टोरों के साथ महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बना ली है ।
- उनके पास विभिन्न श्रेणियों में पीटर इंग्लैंड के लिये विभिन्न व्यापार चिन्ह पंजीकरण हैं और उन्होंने अपने ब्राण्ड नाम की कलात्मक प्रस्तुति के लिये कॉपीराइट पंजीकरण भी प्राप्त कर लिया है ।
- इस ब्राण्ड ने व्यापक मार्केटिंग के माध्यम से बाजार में महत्त्वपूर्ण पहचान हासिल की है, जिसमें आयुष्मान खुराना और चेन्नई सुपर किंग्स क्रिकेट टीम जैसी मशहूर हस्तियों द्वारा किया गया समर्थन भी शामिल है ।
- उनके स्टोर एक विशिष्ट डिजाइन पैटर्न का पालन करते हैं, जिसमें उनके व्यापार चिन्ह वाले कलात्मक कार्य का प्रमुख प्रदर्शन होता है ।
- कंपनी ने वर्ष 2023-2024 के लिये लगभग 1,289 करोड़ रुपए के कारोबार के साथ उल्लेखनीय विक्रय सफलता हासिल की है, जिसे उसी अवधि में लगभग 31 करोड़ रुपए के महत्त्वपूर्ण विज्ञापन व्यय से समर्थन मिला है ।
- प्रतिवादी, फ्रेंड्स इंक और उनके प्रबंधक अमनदीप सिंह, अपने साइनबोर्ड और व्यावसायिक सामग्रियों पर पीटर इंग्लैंड चिह्न का प्रयोग कर रहे थे ।
- इसके परिणामस्वरूप आदित्य बिड़ला फैशन ने प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की, ताकि उन्हें पीटर इंग्लैंड से संबंधित व्यापार चिन्ह और कलात्मक कार्य का प्रयोग करने से रोका जा सके ।
- वादी ने विभिन्न चैनलों के माध्यम से व्यापक बाजार उपस्थिति प्रदर्शित की है, जिसमें वर्ष 1997 से पंजीकृत डोमेन नाम (peterengland.com), व्यापक खुदरा परिचालन और महत्त्वपूर्ण ब्राण्ड पहचान शामिल है ।
- कंपनी को पीटर इंग्लैंड ब्राण्ड के लिये विभिन्न पुरस्कार और मान्यता भी मिली है, जिससे यह भारतीय फैशन खुदरा क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में स्थापित हो गयी है ।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने सबसे पहले अनुपालन इतिहास पर गौर किया तथा प्रेक्षित किया कि प्रतिवादियों ने पहले ही अपनी दुकान से पीटर इंग्लैंड का साइनबोर्ड हटा लिया था तथा अपने चालानों और अन्य व्यावसायिक सामग्रियों पर इस चिह्न का प्रयोग करना बंद कर दिया था ।
- प्रतिवादियों ने इन कार्रवाईयों की पुष्टि करते हुए एक औपचारिक शपथ-पत्र दायर किया तथा वादी की अनुमति के बिना भविष्य में व्यापार चिन्ह का प्रयोग न करने का वचन दिया ।
- व्यापार चिन्ह की सुविख्यात प्रस्थिति के संबंध में न्यायालय ने विभिन्न महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:
- न्यायालय ने पीटर इंग्लैंड चिह्न के ऐतिहासिक महत्त्व को स्वीकार किया तथा इसकी वर्ष 1889 से सदियों पुरानी उत्पत्ति तथा वर्ष 1997 से भारत में इसकी सुस्थापित उपस्थिति को ध्यान में रखा ।
- न्यायालय ने इस बात को मान्यता प्रदान की, कि आदित्य बिड़ला फैशन ने वर्ष 2000 में औपचारिक असाइनमेंट के माध्यम से अधिकार प्राप्त कर लिये थे ।
- बाजार में उपस्थिति के संबंध में न्यायालय ने उल्लिखित किया कि ब्राण्ड के 180 शहरों में 380 आउटलेट्स का व्यापक नेटवर्क महत्त्वपूर्ण भौगोलिक पहुँच को प्रदर्शित करता है ।
- न्यायालय ने विशेष रूप से इस बात पर ध्यान दिया कि इस व्यापक उपस्थिति ने इस चिह्न को संपूर्ण भारत में ग्राहकों के लिये पहचानने योग्य बना दिया है ।
- न्यायालय ने ब्राण्ड के वित्तीय प्रदर्शन पर विशेष ध्यान दिया, वर्ष 2010 से करोड़ों में विक्रय के आँकड़ों पर गौर किया और विशेष रूप से 2023-2024 के लिये 1,289 करोड़ रुपए के कारोबार पर प्रकाश डाला ।
- इसी अवधि के दौरान 31 करोड़ रुपए का पर्याप्त विज्ञापन व्यय, महत्त्वपूर्ण ब्राण्ड निवेश के साक्ष्य के रूप में देखा गया ।
- ब्राण्ड संरक्षण के संबंध में, न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि वादी ने विभिन्न श्रेणियों में अनेक व्यापार चिन्ह पंजीकरण प्राप्त किये थे तथा इन पंजीकरणों को दो दशकों से अधिक समय तक बनाए रखा था ।
- न्यायालय ने बौद्धिक संपदा अधिकारों की सुरक्षा में कंपनी के सक्रिय दृष्टिकोण पर भी ध्यान दिया ।
- न्यायालय ने ब्राण्ड की विशिष्टता के बारे में विशेष टिप्पणियां कीं तथा कहा कि पीटर इंग्लैण्ड ने वादी के व्यवसाय के संबंध में द्वितीयक महत्त्व प्राप्त कर लिया है ।
- न्यायालय ने पाया कि क्रेता जनता, व्यापार और उद्योग ने स्पष्ट रूप से उस चिह्न की पहचान केवल वादी से की है ।
- सुविख्यात प्रस्थिति का निर्धारण करते समय, न्यायालय ने टाटा संस लिमिटेड बनाम मनोज डोडिया मामले (2011) के सिद्धांतों का संदर्भ लिया, जिसमें सार्वजनिक ज्ञान, प्रयोग की अवधि, उत्पादों और सेवाओं की सीमा, विज्ञापन प्रयास, भौगोलिक पहुँच और अधिकारों के सफल प्रवर्तन जैसे कारकों पर विचार किया गया ।
- इन व्यापक टिप्पणियों के आधार पर, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पीटर इंग्लैंड ने व्यापार चिन्ह अधिनियम की धारा 2 (1)(य छ) के अधीन सभी मानदण्डों को पूरा किया है, जो इसे एक ‘सुविख्यात व्यापार चिन्ह’ के रूप में घोषित करने की वारण्टी है |
- यह टिप्पणी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि इससे चिह्न को उपलब्ध विधिक सुरक्षा बढ़ गई ।
‘सुविख्यात व्यापार चिन्ह’ क्या है?
- व्यापार चिन्ह अधिनियम की धारा 2 (1)(य छ) में ‘सुविख्यात व्यापार चिन्ह’ की परिभाषा दी गई है ।
- यह अभिकथित करती है कि किसी भी माल या सेवा के संबंध में ‘सुविख्यात व्यापार चिह्न’ से ऐसा चिह्न अभिप्रेत है जो जनता के ऐसे पर्याप्त भाग में ऐसे माल या सेवा की बाबत सुविख्यात हो गया है, जो ऐसे माल का इस प्रकार प्रयोग करता है या ऐसी सेवा प्राप्त करता है कि अन्य माल या सेवा के संबंध में चिह्न का प्रयोग को उस माल या सेवा और प्रथम उल्लिखित माल या सेवा के संबंध में चिह्न का प्रयोग करने वाले किसी व्यक्ति के बीच व्यापार के या सेवा प्रदान करने के अनुक्रम में संबंध के उपदर्शन के रूप में माना जाना संभाव्य होगा ।