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आपराधिक कानून

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 के अधीन 'साशय अपमान'

 13-Feb-2025

बी.वी. राम कुमार बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य

“वरिष्ठ की चेतावनी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 के अधीन ' प्रकोपित करने के आशय से साशय अपमान' के रूप में नहीं माना जा सकता है।” 

जस्टिस संजय करोल और संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति संजय करोल और संदीप मेहता की पीठ ने कहा है कि कार्यस्थल पर एक साधारण मौखिक झगड़ा अपीलकर्त्ता को साशय अपमान के अपराध के लिये उत्तरदायी नहीं बनाता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने बी.वी. राम कुमार बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य (2025) के वाद में यह निर्णय सुनाया।

बी.वी. राम कुमार बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • डॉ. बी.वी. राम कुमार (अपीलकर्त्ता) सिकंदराबाद में बौद्धिक विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण के लिये राष्ट्रीय संस्थान में कार्यवाहक निदेशक के रूप में कार्यरत थे।
  • 2 फरवरी 2022 को उन्होंने अपने परिचारक के माध्यम से बाल रोग के सहायक प्रोफेसर (परिवादकर्त्ता) को अपने कक्ष में बुलाया।
  • परिवादकर्त्ता हाल ही में कोविड-19 से ठीक हुआ था और उस समय उसे लगातार चिकित्सा संबंधी समस्याएँ हो रही थीं। 
  • परिवादकर्त्ता के अनुसार, जब वह उसके कक्ष में दाखिल हुई, तो अपीलकर्त्ता ने उससे उच्च स्वर में बात करना प्रारंभ कर दिया, और उच्च अधिकारियों के समक्ष उसके विरुद्ध शिकायत दर्ज कराने के संबंध में उससे प्रश्न करने लगा।
  • परिवादकर्त्ता ने हाल ही में कोविड-19 से ठीक होने और चिकित्सा समस्याओं का हवाला देते हुए उसकी उच्च स्वर का विरोध किया। उसे शारीरिक लक्षण (हाथ कांपना और पसीना आना) महसूस होने लगे और वह यह कहते हुए चैंबर से बाहर चली गई कि वह लिखित जवाब देगी। 
  • परिवादकर्त्ता ने उसी दिन पुलिस में परिवाद दर्ज कराया, जिसके कारण 5 फरवरी 2022 को हैदराबाद के बोवेनपल्ली पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई।
  • प्रारंभिक प्राथमिकी में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 269, 270, 504 और 354 के अधीन आरोप सम्मिलित थे।

  • विवेचना के दौरान, पुलिस को यह भी पता चला कि अपीलकर्त्ता संस्थान में पर्याप्त पीपीई किट और दस्ताने (PPE kits and gloves ) उपलब्ध कराने में असफल रहा था, जिससे कोविड-19 के फैलने का खतरा पैदा हो गया था।
  • अन्वेषण के पश्चात्, पुलिस ने 27 सितंबर, 2022 को आरोप पत्र दाखिल किया, जिसमें धारा 354 को हटा दिया गया, किंतु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 269, 270 और 504 के अधीन आरोप बरकरार रखे गए।
  • परिवादकर्त्ता ने आरोप लगाया कि अपीलकर्त्ता अक्टूबर 2021 से कार्यस्थल पर उसका मानसिक उत्पीड़न कर रहा था, जिसमें आंतरिक शिकायतों में हस्तक्षेप करना और उसके मेडिकल अवकाश के दौरान ज्ञापन भेजना सम्मिलित था।
  • संस्थान के दो साक्षियों (एक हिंदी अनुवादक और एक डाटा एंट्री ऑपरेटर) ने कथन किया कि संस्थान में पीपीई किट, मास्क या सैनिटाइज़र की कोई कमी नहीं थी।
  • यह घटना छात्रों के संरक्षकों की मौजूदा शिकायतों के संदर्भ में हुई, जिसमें परिवादकर्त्ता की ड्यूटी के दौरान कथित रूप से अनुपलब्ध रहने की बात कही गई थी, जो निदेशक के रूप में डॉ. राम कुमार के पास लंबित थी।
  • विचारण न्यायालय (11वें अतिरिक्त मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट, हैदराबाद) ने आरोप पत्र के आधार पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 269, 270 और 504 के अधीन अपराधों का संज्ञान लिया।
  • अपीलकर्त्ता ने तेलंगाना उच्च न्यायालय में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन एक याचिका दायर की जिसमें आरोप पत्र को रद्द करने की मांग की गई जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
  • उच्च न्यायालय के निर्णयों से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय से असहमति जताई और अपील स्वीकार कर ली।
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई मुख्य टिप्पणियाँ: 
    • आरोपपत्र में लगाए गए आरोप पूरी तरह से काल्पनिक थे।
    • आरोप भारतीय दण्ड संहिता की धारा 269 और 270 के अधीन अपराध के तत्त्व नहीं थे।
    • विवेचना अधिकारी संवेदनशील स्थिति से अनुचित रूप से प्रभावित दिखाई दिये।
    • पीपीई किट की कमी के आरोप का साक्षियों के कथन से खण्डन किया गया।
    • एक साधारण मौखिक झगड़े ने अपीलकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता धारा 504 के अधीन उत्तरदायी नहीं बनाया।
    • निदेशक के रूप में, अपीलकर्त्ता के लिये अपने कनिष्ठों से उच्च अपेक्षाएँ रखना उचित था।
    • अधीनस्थों को अनुशासन बनाए रखने के लिये फटकारना 'साशय अपमान' नहीं माना जा सकता।
    • अनुशासन बनाए रखने की कोशिश करने के लिये निदेशक के विरुद्ध आपराधिक आरोप लगाने की अनुमति देने से विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।
    • अपराध के लिये आवश्यक तत्त्व मौजूद नहीं थे।
    • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध दायर आरोप पत्र को रद्द कर दिया।

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 क्या है?

  • यह धारा लोक शांति भंग करने को प्रकोपित करने के आशय से साशय अपमान करने से संबंधित है।
  • यह धारा बताती है कि जो कोई किसी व्यक्ति को साशय अपमानित करेगा और तद्द्वारा उस व्यक्ति को इस आशय से, या यह संभाव्य जानते हुए, प्रकोपित करेगा कि ऐसे प्रकोपन से वह लोक शांति भंग या कोई अन्य अपराध कारित करेगा, वह दोनों में से ती भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
  • यह एक असंज्ञेय, शमनीय और जमानतीय अपराध है और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण किया जा सकता है।
  • इसी धारा को भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 352 के अधीन बताया गया है।

सिविल कानून

आदेश 22 नियम 4

 13-Feb-2025

ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ ​​लल्लूवा (अब मृतक) और अन्य बनाम सतीश चंद्र (अब मृतक) 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 22 नियम 4 - प्रतिस्थापन आवेदन पर्याप्त है; उपशमन को अपास्त करने के लिये अलग से कोई अभिवचन आवश्यक नहीं है” 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और पी.के. मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और पी.के. मिश्रा की पीठ ने कहा है कि आदेश आदेश 22 नियम 4 के अधीन प्रतिस्थापन आवेदन दाखिल करने में स्वाभाविक रूप से उपशमन को अपास्त करने का अनुरोध सम्मिलित है, जिससे अलग से आवेदन करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।  

  • ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ ​​लल्लूवा (अब मृतक) बनाम सतीश चंद्र (2025) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय सुनाया 
  • यह मामला तब सामने आया जब उच्च न्यायालय ने उपशमन को अपास्त करने के लिये अलग से आवेदन किये बिना दूसरी अपील को बहाल करने से इंकार कर दिया। यह निर्णय प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को स्पष्ट करता है, यह सुनिश्चित करता है कि तकनीकी कारणों से न्याय में विलंब न हो। 

ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ ​​लल्लूवा (अब मृतक) और अन्य बनाम सतीश चंद्र (अब मृतक) की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह मामला दूसरी अपील से संबंधित है जो मूल आवेदक की मृत्यु के पश्चात् विधिक उत्तराधिकारियों के प्रतिस्थापन न होने के कारण समाप्त हो गई थी। 
  • मृतक आवेदक के विधिक प्रतिनिधियों (legal representatives) ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें आवेदक की मृत्यु की सूचना दी गई तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 22 नियम 4 के अधीन प्रतिस्थापन के लिये उत्तराधिकारियों का विवरण प्रदान किया गया। 
  • उक्त आवेदन में स्पष्ट रूप से अपील के उपशमन को अपास्त करने के लिये अलग से प्रार्थना नहीं की गई थी। 
  • उच्च न्यायालय ने प्रारंभ में द्वितीय अपील को बहाल कर दिया था, किंतु बाद में अपने बहाली आदेश को वापस ले लिया। 
  • उच्च न्यायालय द्वारा अपील वापस लेने के पीछे तर्क इस प्रक्रियागत आवश्यकता पर आधारित था कि अपील को, उपशमन को अपास्त करने के लिये पृथक् और विशिष्ट आवेदन के बिना अपील को बहाल नहीं किया जा सकता था। 
  • उच्च न्यायालय ने विधिक प्रतिनिधि द्वारा दायर प्रतिस्थापन आवेदन पर विचार करने से इंकार कर दिया, यह कहते हुए कि उपशमन को अपास्त करने के लिये एक पृथक् आवेदन अनिवार्य था। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष लाया गया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधिक प्रतिनिधियों के प्रतिस्थापन और उपशमन से संबंधित मामलों में न्यायोन्मुखी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि विधिक उत्तराधिकारियों के प्रतिस्थापन के लिये आवेदन में उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना निहित है, भले ही स्पष्ट रूप से न कहा गया हो। 
  • न्यायालय ने कहा कि विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिये आवेदन दायर करने का कार्य ही प्रभावी रूप से उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना बन जाता है। 
  • मिठाईलाल दलसांगर सिंह बनाम अन्नाबाई देवराम किनी (2003) में स्थापित पूर्व निर्णय से प्रेरणा लेते हुए, न्यायालय ने दोहराया कि प्रतिस्थापन आवेदन में उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना निहित है। 
  • न्यायालय ने कहा कि उपशमन को अपास्त करने के अनुतोष के लिये स्पष्ट शब्दों में विशेष रूप से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह प्रतिस्थापन के लिये प्रार्थना में अनिवार्य रूप से निहित है।  
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि ऐसे मामलों में कठिन प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन न्याय के हितों पर अधिभावी नहीं होना चाहिये 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय ने उपशमन को अपास्त करने के लिये एक पृथक् आवेदन पर जोर देकर गलती की, जबकि प्रतिस्थापन आवेदन पहले से ही अभिलेख में था। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निश्चित रूप से स्थापित किया कि न्याय के उद्देश्यों के लिये, प्रतिस्थापन के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 4 के अधीन एक आवेदन प्रभावी रूप से उपशमन को अपास्त करने की आवश्यकता को पूर्ण करता है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश नियम 4 क्या है? 

  • नियम के अनुसार, एकमात्र प्रतिवादी या कई प्रतिवादियों में से किसी एक की मृत्यु होने पर, जहाँ वाद करने का अधिकार बना रहता है, मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि(यों) को वाद में आगे बढ़ाने के लिये अभिलेख पर लाने के लिये न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर किया जाना चाहिये 
  • प्रतिस्थापन के लिये उचित आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिये आबद्ध है कि मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि(यों) को वाद में पक्षकार बनाया जाए, बशर्ते कि ऐसे विधिक प्रतिनिधि(यों) के विरुद्ध वाद करने का अधिकार बना रहे। 
  • कोई भी व्यक्ति जिसे विधिक प्रतिनिधि के रूप में अभिलेख पर लाया जाता है, उसके पास मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि के रूप में उनके चरित्र के लिये उपयुक्त और सुसंगत प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने का अधिकार होता है। 
  • निर्धारित परिसीमा काल के भीतर प्रतिस्थापन के लिये आवेदन दायर करने में असफलता के परिणामस्वरूप मृतक प्रतिवादी के विरुद्ध वाद का स्वतः उपशमन हो जाता है, तथा जिसके लिये किसी विशिष्ट आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • न्यायालय के पास उन मामलों में वादी को विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता से छूट देने का विवेकाधीन अधिकार है, जहाँ मृतक प्रतिवादी या तो लिखित कथन दाखिल करने में असफल रहा हो या इसे दाखिल करने के पश्चात्, उपस्थित होने और वाद का विरोध करने में असफल रहा हो। 
  • ऐसे मामलों में जहाँ न्यायालय छूट की अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करता है, मृतक प्रतिवादी के विरुद्ध सुनाया गया कोई भी निर्णय उसी तरह बल और प्रभाव रखेगा जैसे कि वह मृत्यु होने से पूर्व सुनाया गया हो। 
  • यह नियम उन वादियों को विशेष अनुतोष प्रदान करता है जो प्रतिवादी की मृत्यु के बारे में अनभिज्ञ थे और परिणामस्वरूप परिसीमा अधिनियम, 1963 द्वारा विहित परिसीमा काल के भीतर प्रतिस्थापन आवेदन दायर नहीं कर सके। 
  • जहाँ प्रतिवादी की मृत्यु के बारे में वादी की अनभिज्ञता के कारण किसी वाद का उपशमन हो गया है, वहाँ वादी, परिसीमा काल के पश्चात्, परिसीमा को अपास्त करने और विलंब के लिये क्षमा मांगने के लिये, परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अधीन आवेदन दायर कर सकता है।  
  • विलंब की क्षमा के लिये परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत आवेदनों पर विचार करते समय न्यायालय को विलंब के पर्याप्त कारण के रूप में प्रतिवादी की मृत्यु के बारे में वादी की अज्ञानता के साबित तथ्य पर उचित विचार करना चाहिये 
  • यह नियम वादी के वाद को आगे बढ़ाने के अधिकार, मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधियों के अधिकारों और प्रक्रियागत तकनीकी कारणों से वादों की अनावश्यक समाप्ति को रोकने की न्यायालय की शक्ति के बीच संतुलन स्थापित करते हुए एक व्यापक प्रक्रियात्मक ढाँचा स्थापित करता है। 

पारिवारिक कानून

शून्य विवाह में स्थायी और अंतरिम भरण-पोषण

 13-Feb-2025

खदेव सिंह बनाम सुखबीर कौर 

किसी महिला को “नाजायज पत्नी” या “वफादार रखैल” कहना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन उस महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।” 

न्यायमूर्ति अभय एस ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति अभय एस ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा किकिसी महिला को “नाजायज पत्नी” या “वफादार रखैल” कहना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन उस महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।” 

  • उच्चतम न्यायालय ने सुखदेव सिंह बनाम सुखबीर कौर (2025) के वाद में यह माना। 

सुखदेव सिंह बनाम सुखबीर कौर मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • इस मामले में न्यायालय ने दो मुद्दों पर विचार किया: 
  • क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 11 के अधीन सक्षम न्यायालय द्वारा शून्य घोषित किये गए विवाह का पति या पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के अधीन स्थायी निर्वाह-व्यय और भरण-पोषण का दावा करने का हकदार है? 
  • क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 के अधीन घोषणा की मांग करते हुए दायर याचिका में, पति या पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अधीन वादकालीन भरण-पोषण की मांग करने का हकदार है? 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 वैवाहिक न्यायालय को “किसी भी डिक्री को पारित करते समय या उसके पश्चात् किसी भी समय” स्थायी निर्वाह-व्यय देने की शक्ति प्रदान करती है। 
  • हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी भी न्यायालय द्वारा कोई डिक्री पारित किये जाने पर पति या पत्नी के लिये स्थायी निर्वाह-व्यय और भरण-पोषण के लिये आवेदन करने का कारण बनता है। 
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के अधीन पात्रता इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि द्विविवाह नैतिक है या अनैतिक।  
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के अधीन डिक्री का अनुदान विवेकाधीन है और न्यायालय हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के अधीन स्थायी निर्वाह-व्यय देने की प्रार्थना को कभी भी ठुकरा सकता है। 
  • इसके अतिरिक्त, निर्वाह-व्यय दिये जाने के संबंध में न्यायालय ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 की प्रयोज्यता की शर्तें इस प्रकार हैं: 
    • 1955 अधिनियम के अधीन एक कार्यवाही लंबित होनी चाहिये, और 
    • न्यायालय को इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिये कि पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, के पास अपने भरण-पोषण और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के लिये पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं है। 
  • अंत में, न्यायालय द्वारा निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए: 
    • जिस पति या पत्नी का विवाह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 के अधीन शून्य घोषित किया गया है, वह 1955 अधिनियम की धारा 25 का आह्वान करके दूसरे पति या पत्नी से स्थायी निर्वाह-व्यय या भरण-पोषण मांगने का हकदार है। स्थायी निर्वाह-व्यय का ऐसा अनुतोष दिया जा सकता है या नहीं, यह सदैव प्रत्येक मामले के तथ्यों और पक्षकारों के आचरण पर निर्भर करता है। धारा 25 के अधीन अनुतोष प्रदान करना सदैव विवेकाधीन होता है; और 
    • यहाँ तक कि यदि न्यायालय प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि पक्षकारों के बीच विवाह शून्य या शून्यकरणीय है, तो हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन कार्यवाही के अंतिम निपटारे तक, न्यायालय को भरण-पोषण देने से रोका नहीं जा सकता है, बशर्ते कि धारा 24 में उल्लिखित शर्तें पूरी हों।  
    • धारा 24 के अधीन अंतरिम अनुतोष के लिये प्रार्थना पर निर्णय करते समय, न्यायालय सदैव अनुतोष मांगने वाले पक्षकार के आचरण को ध्यान में रखेगा, क्योंकि धारा 24 के अधीन अनुतोष प्रदान करना सदैव विवेकाधीन होता है।  

हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन शून्य विवाह क्या है? 

  • जब हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 के साथ पढ़ा जाता है, तो विवाह की निम्नलिखित श्रेणियाँ शून्य हो जाती हैं: 
    • यदि एक या दोनों पक्षकारों में किसी का पति या पत्नी विवाह के समय जीवित है; 
    • विवाह के पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर हैं, जब तक कि उनमें से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हों, और 
    • जब तक कि उनमें से प्रत्येक पक्षकार को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हों पक्षकार एक दूसरे के सपिंड हैं। 
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 में विवाह को शून्य घोषित करने का उपबंध बताया गया है। 
  • ऐसे विवाह आरंभ से ही शून्य हैं। उपरोक्त श्रेणियों में आने वाले विवाह विधि की दृष्टि में अस्तित्व में नहीं हैं। 

इस मामले में पूर्व के निर्णयों का निर्वचन कैसे किया गया?  

  • यमुनाबाई अनंतराव अधव बनाम अनंतराव शिवराम अधव एवं अन्य (1988) 
    • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जब विवाह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के अधीन अकृत (nullity) है, तो ऐसे विवाह का पति या पत्नी दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण पाने का हकदार नहीं है। 
  • न्यायालय ने वर्तमान मामले अर्थात् सुखदेव सिंह बनाम सुखबीर कौर (2025) में कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 पूरी तरह से अलग क्षेत्र में कार्य करती है। यह पत्नी और बच्चों के लिये उपलब्ध एक त्वरित और प्रभावी उपचार है। 
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन कार्यवाही संक्षिप्त प्रकृति की है। 
    • न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन उपचार के बीच अंतर किया: 
      • 1955 अधिनियम की धारा 25 के अधीन उपचार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन उपचार से पूर्णतः भिन्न है। 
      • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25, 1955 अधिनियम की धारा 11 के अधीन शून्य घोषित विवाह के पति-पत्नी को दूसरे पति-पत्नी से भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार प्रदान करती है। यह उपचार पति और पत्नी दोनों के लिये उपलब्ध है।  
      • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 पर लागू होने वाले सिद्धांत हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 पर लागू नहीं हो सकते। 
      • इसके अतिरिक्त, धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन पति को अनुतोष नहीं दिया जा सकता 
  • भाऊसाहेब @ संधू पुत्र रघुजी मगर बनाम लीलाबाई पत्नी भाऊसाहेब मगर (2004) 
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने इस निर्णय के पैरा 18 में शून्य घोषित विवाह की पत्नी को “नाजायज पत्नी” (illegitimate wife) कहा है। 
    • वस्तुतः पैरा 24 में न्यायालय ने ऐसी पत्नी को “वफादार रखैल” (faithful mistress) कहा है। 
    •  न्यायालय ने सुखदेव सिंह बनाम सुखबीर कौर (2025) के मामले में कहा कि शून्य विवाह की पत्नी को "नाजायज" कहना बहुत अनुचित है। 
      • न्यायालय ने कहा कि ऐसी पत्नी को " नाजायज पत्नी" या "वफादार रखैल" कहना भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के अधीन अधिकारों का उल्लंघन होगा। 
      • न्यायालय ने कहा कि इस तरह की भाषा का प्रयोग स्त्री विरोधी है। 
      • यह भी कहा कि कोई भी व्यक्ति ऐसी महिला के लिये ऐसे विशेषणों का प्रयोग नहीं कर सकता जो शून्य विवाह में पक्षकार हो