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आपराधिक कानून

किशोरों को रोमांटिक संबंध बनाने की अनुमति

 20-Feb-2025

राज्य बनाम हितेश 

"मेरा मानना ​​है कि किशोर प्रेम पर सामाजिक एवं विधिक दृष्टिकोण में युवा व्यक्तियों के शोषण एवं दुर्व्यवहार से मुक्त रोमांटिक संबंधों में संलग्न होने के अधिकारों पर जोर दिया जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति जसमीत सिंह

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की पीठ ने कहा कि किशोरों को अपराधीकरण के भय के बिना रोमांटिक एवं सहमति से संबंध बनाने की अनुमति दी जानी चाहिये।

राज्य बनाम हितेश मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 10 दिसंबर 2014 को सुबह 12:25 बजे एक पिता ने अपनी 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली बेटी के लापता होने की शिकायत दर्ज कराई। 
  • बेटी (अभियोक्ता) ट्यूशन के लिये गई थी, लेकिन घर वापस नहीं लौटी। 
  • पिता ने हितेश नामक एक व्यक्ति पर संदेह व्यक्त किया, जो उसके घर से लापता था। दो दिन बाद अभियोक्ता एवं हितेश दोनों को धारूहेड़ा में पाया गया और वापस दिल्ली लाया गया। 
  • अभियोक्ता की मेडिकल जाँच की गई तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 164 के अंतर्गत उसका अभिकथन दर्ज किया गया।
  • हितेश (प्रतिवादी) को गिरफ्तार किया गया तथा 6 अगस्त 2015 को उसके विरुद्ध लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 की धारा 4 के अधीन आरोप तय किये गए। 
  • अभियोजन पक्ष ने मुकदमे के दौरान 12 साक्षी प्रस्तुत किये। 
  • प्रतिवादी ने CrPC की धारा 313 के अंतर्गत अपने अभिकथन में स्वयं को निर्दोष बताया तथा अभियोक्ता एवं उसके माता-पिता पर मिथ्या आरोप लगाया। 
  • अभियोक्ता की उम्र को लेकर विवाद था:
    • स्कूल के रिकॉर्ड में उसकी जन्मतिथि 20 जनवरी 1998 दर्ज है। 
    • अभियोक्ता और उसकी माँ ने गवाही दी कि उसकी जन्मतिथि 22 दिसंबर 1998 है। 
    • स्कूल में प्रवेश उसके चाचा के शपथपत्र के आधार पर दिया गया था, जिसमें जन्मतिथि 20 जनवरी 1998 बताई गई थी।
  • अपनी गवाही के दौरान अभियोक्ता ने कहा कि वह हितेश के साथ स्वेच्छा से गई थी तथा कोई भी शारीरिक संबंध सहमति से था।
  • मेडिकल जाँच रिपोर्ट (MLC) में किसी भी यौन क्रिया के प्रति प्रतिरोध का संकेत देने वाली कोई चोट नहीं दिखाई गई।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी के पक्ष में संदेह के लाभ के सिद्धांत को लागू किया तथा आरोपी को POCSO अधिनियम की धारा 4 के अधीन दोषमुक्त कर दिया।
  • इसी के विरुद्ध दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आयु निर्धारण के लिये किशोर न्याय अधिनियम 2015 (JJ अधिनियम) की धारा 94 को लागू किया, जिसके लिये प्राथमिकता के क्रम में विशिष्ट दस्तावेजी साक्ष्य की आवश्यकता होती है:
    • स्कूल/मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट। 
    • नगर निगम अधिकारियों से जन्म प्रमाण पत्र। 
    • मेडिकल आयु निर्धारण परीक्षण।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आयु निर्धारण के सिद्धांतों को इस प्रकार लागू किया:
    • अभियोजन पक्ष को पीड़ित की अल्पवयस्कता को निर्णायक रूप से सिद्ध करना होगा।
    • जब कथित आयु 18 वर्ष के करीब हो तो कठोर प्रमाण की आवश्यकता होती है।
    • जब आयु प्रमाण अनिर्णायक हो तो संदेह का लाभ लागू होता है।
    • 14-15 वर्ष से कम आयु वाले पीड़ितों के लिये अलग-अलग मानक लागू हो सकते हैं।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने सहमति निर्धारित करने के लिये विभिन्न साक्ष्यों पर भी विचार किया:
    • अभियोक्ता ने CrPC की धारा 164 अभिकथन में लगातार सहमति बनाए रखी।
    • कोर्ट में दी गई गवाही ने सहमति से संबंधों की पुष्टि की।
    • मेडिकल जाँच में कोई प्रतिरोध चोट नहीं दिखाई दी।
    • अभियोक्ता ने आरोपी को पीछे बैठाकर मोटरसाइकिल चलाई।
    • उसने आरोपी के विरुद्ध शिकायत या कार्यवाही की कोई इच्छा नहीं जताई।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्थापित किया:
    • वयस्कता की आयु का प्रासंगिक निर्वचन की आवश्यकता।
    • पीड़ित की परिपक्वता और इच्छाओं पर विचार करने का महत्त्व।
    • POCSO मामलों में निश्चित आयु प्रमाण की आवश्यकता।
    • सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि:
    • अभियोजन पक्ष संदेह से परे अप्राप्तवय होने को सिद्ध करने में विफल रहा।
    • स्पष्ट साक्ष्य के आधार पर यह संबंध सहमति से बना था।
    • ट्रायल कोर्ट का निर्णय तर्कसंगत था।
    • अपील को गुण-दोष के आधार पर खारिज कर दिया गया।
    • यह निर्णय युवा व्यक्तियों के बीच संबंधों से संबंधित मामलों के विचारण में न्यायशास्त्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, जहाँ एक साथी वयस्कता की आयु के करीब है।

आयु निर्धारण की प्रक्रिया क्या है?

  • JJ अधिनियम की धारा 94 में समिति या बोर्ड के समक्ष उपस्थित होने वाले व्यक्ति की आयु के निर्धारण की प्रक्रिया बताई गई है, जिससे आयु निर्धारण प्रक्रियाओं में एकरूपता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित होती है:
    • प्रत्यक्ष आयु आकलन:
    • यदि किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि वह बालक है, तो समिति या बोर्ड इस अवलोकन को अनुमानित आयु के साथ दर्ज कर सकता है। 
      • इसके बाद वे अतिरिक्त आयु पुष्टि की प्रतीक्षा किये बिना अपनी जाँच आगे बढ़ा सकते हैं।
    • आयु निर्धारण प्रक्रिया:
      • यदि इस तथ्य पर उचित संदेह है कि व्यक्ति बालक है या नहीं, तो समिति या बोर्ड को साक्ष्य के माध्यम से उसकी आयु निर्धारित करनी होगी।
    • साक्ष्य को प्राथमिकता के निम्नलिखित सख्त क्रम में एकत्र किया जाना चाहिये:
      • स्कूल जन्म तिथि प्रमाण पत्र या परीक्षा बोर्ड से मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र।
      • निगम, नगर निगम प्राधिकरण या पंचायत से जन्म प्रमाण पत्र।
      • केवल यदि उपरोक्त दस्तावेज उपलब्ध न हों, तो चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण जैसे कि ऑसिफिकेशन टेस्ट।
    • चिकित्सा परीक्षण आवश्यकताएँ:
      • किसी भी चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण को आदेश दिये जाने की तिथि से 15 दिनों के अंदर पूरा किया जाना चाहिये। 
      • चिकित्सा परीक्षण केवल तभी आदेशित किया जा सकता है जब स्कूल रिकॉर्ड और जन्म प्रमाण पत्र दोनों अनुपलब्ध हों।
    • आयु निर्धारण की विधिक स्थिति:
      • एक बार जब समिति या बोर्ड आयु दर्ज कर देता है, तो यह इस अधिनियम के अंतर्गत सभी प्रयोजनों के लिये व्यक्ति की विधिक रूप से मान्यता प्राप्त आयु बन जाती है।
    • आयु निर्धारण के लिये साक्ष्यों का एक स्पष्ट पदानुक्रम उपलब्ध है।
      • दस्तावेजी साक्ष्य चिकित्सा परीक्षणों से अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।
      • यदि व्यक्ति स्पष्ट रूप से बालक है तो शारीरिक उपस्थिति पर्याप्त हो सकती है।
      • विधि में चिकित्सा आयु निर्धारण के लिये विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित की गई है।
      • समिति या बोर्ड द्वारा आयु निर्धारण अधिनियम के अंतर्गत अंतिम एवं बाध्यकारी माना जाता है।

इससे संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • न्यायालय ने स्वप्रेरणा से (लज्जा देवी) बनाम राज्य (दिल्ली), (2012):
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किये:
      • न्यायालयों को 16 वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों के आपसी संबंधों के मामलों में उनकी सहमति के विषय में दिये गए अभिकथनों को उचित महत्त्व देना चाहिये। 
      • परिपक्वता का आकलन केवल उम्र के आधार पर नहीं होना चाहिये, बल्कि व्यक्ति की समग्र समझ और विकास पर विचार करना चाहिये। 
      • न्यायालयें सभी मामलों में एक समान फॉर्मूला लागू नहीं कर सकती हैं तथा उन्हें प्रत्येक स्थिति का मूल्यांकन उसकी विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर करना चाहिये। 
      • लड़की के जीवन को प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय को लेते समय उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्त्व दिया जाना चाहिये।
      • न्यायालयों को निर्णय लेते समय अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय संबंधों जैसी सामाजिक वास्तविकताओं को पहचानना और उन पर विचार करना चाहिये।
      • विशेष गृहों को अभिरक्षा में रखने की जगह नहीं बनना चाहिये, तथा वयस्क अप्राप्तवयों की स्वतंत्रता को अनुचित रूप से प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिये।
      • वयस्क नाबालिगों की आवाज़ और इच्छाओं का सम्मान किया जाना चाहिये तथा विधिक कार्यवाही में उन्हें उचित ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • महेश कुमार बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) (2023):
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
      • न्यायालयों को युवा लोगों के बीच शोषणकारी संबंधों एवं सहमति से बने रोमांटिक संबंधों के बीच स्पष्ट अंतर करना चाहिये। 
      • युवा लोगों के बीच वास्तविक रोमांटिक संबंधों से जुड़े मामलों में विधि का निर्वचन सहानुभूतिपूर्वक किया जाना चाहिये। 
      • रिश्ते की प्रकृति का मूल्यांकन करते समय दोनों पक्षों की भावनात्मक परिपक्वता पर विचार किया जाना चाहिये। 
      • साक्ष्यों एवं गवाही के माध्यम से बलपूर्वक या शोषण की अनुपस्थिति को सावधानीपूर्वक सत्यापित किया जाना चाहिये।
  • रजक मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2018):
    • इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किये:
      • न्यायालयों को आयु निर्धारण में प्रमाण के उच्च मानकों को बनाए रखना चाहिये, विशेषकर उन मामलों में जहाँ कथित आयु विधिक सीमा के करीब है।
      • उन मामलों में संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिये जहाँ आयु प्रमाण निर्णायक नहीं है।
      • POCSO अधिनियम के अंतर्गत कठोर दण्ड को सावधानीपूर्वक लागू करने की आवश्यकता होती है तथा इसे यंत्रवत् नहीं लगाया जाना चाहिये।
  • अलामेलु एवं अन्य बनाम राज्य (2011):
    • इस मामले में न्यायालय द्वारा निम्नलिखित टिप्पणियाँ की गईं:
      • आयु निर्धारण के लिये विधि द्वारा निर्धारित दस्तावेजी साक्ष्यों के स्पष्ट पदानुक्रम का पालन किया जाना चाहिये।
      • केवल स्कूल रिकॉर्ड ही आयु सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं, जब तक कि अन्य पुष्टि करने वाले साक्ष्यों द्वारा समर्थित न हों।
      • आयु संबंधी दस्तावेजों की प्रामाणिकता स्थापित करने के लिये मूल आयु संबंधी सूचना प्रदान करने वाले व्यक्ति की जाँच की जानी चाहिये।
  • स्वप्रेरणा से न्यायालय बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य (2024):
    • इस मामले में निम्नलिखित सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया:
      • न्यायालयों को वास्तविक रोमांटिक रिश्तों का सम्मान करते हुए अप्राप्तवयों को शोषण से बचाने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाना चाहिये। 
      • युवा रिश्तों से जुड़े मामलों में निर्णय लेते समय सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों पर विचार किया जाना चाहिये। 
      • शोषण के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए व्यक्तिगत पसंद एवं सम्मान के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिये। 
      • उम्र या सहमति के विषय में निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले साक्ष्य की सावधानीपूर्वक जाँच एवं सत्यापन किया जाना चाहिये। 
      • उम्र निर्धारण एवं सहमति सत्यापन के लिये प्रक्रियात्मक दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिये।
      • रिश्तों से संबंधित मामलों का मूल्यांकन करते समय पारिवारिक गतिशीलता और सांस्कृतिक संदर्भों पर विचार किया जाना चाहिये।
      • न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि अप्राप्तवयों की सुरक्षा के कारण वास्तविक रिश्तों से जुड़े मामलों में अन्याय या अनुचित उत्पीड़न न हो।

आपराधिक कानून

IPC की धारा 34 एवं धारा 149 के बीच अंतर

 20-Feb-2025

फोटो कंटेंट:   

वसंत उर्फ गिरीश अकबरसाब सनावले एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य

“'एकसमान आशय' (IPC की धारा 34) और 'एकसमान उद्देश्य' (IPC की धारा 149) के बीच अंतर धारा 34 में सक्रिय, साझा आशय की आवश्यकता होती है, जबकि धारा 149 सभी विधानसभा सदस्यों को एक एकसमान उद्देश्य के लिये उत्तरदायी मानती है।”

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 (एकसमान आशय) एवं 149 (एकसमान उद्देश्य) के बीच अंतर को स्पष्ट किया है।

  • उच्चतम न्यायालय ने वसंत उर्फ गिरीश अकबरसाब सनावले एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

वसंत उर्फ गिरीश अकबरसाब सनावले एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला एक दांपत्य विवाद से संबंधित है, जिसके परिणामस्वरूप गीता की मृत्यु हो गई, जो घटना के समय लगभग 8 वर्षों से वसंत उर्फ ​​गिरीश अकबरसाब सनावाले (अपीलकर्त्ता संख्या 1) से विवाहित थी। 
  • अभियोजन पक्ष के अनुसार, विवाह के एक वर्ष बाद, गीता के पति एवं उसके परिवार के सदस्यों ने दहेज और घरेलू कार्य को लेकर उसे परेशान करना आरंभ कर दिया। 
  • घटना की तिथि को, रात करीब 8:00 बजे, जब गीता अपने ससुराल में थी, उसकी सास (अपीलकर्त्ता संख्या 2) ने कथित तौर पर उसके शरीर पर मिट्टी का तेल डाला और उसे आग लगा दी।
  • पड़ोसी घटनास्थल पर पहुँचे तथा गीता को अस्पताल पहुँचाया, जहाँ एक सप्ताह बाद उसकी जली हुई अवस्था में मौत हो गई। 
  • मौत का कारण सेप्टीसीमिया पाया गया। गीता की मां, तिप्पव्वा चंद्रू पाटिल ने 3 जनवरी, 2013 को एक प्राथमिकी दर्ज कराई, जिसे कर्नाटक के जिला बेलगावी के मुदलागी सर्कल के मुदलागी पुलिस स्टेशन में अपराध संख्या 2/2013 के रूप में दर्ज किया गया। 
  • प्राथमिकी में आरोप लगाया गया कि आरोपी ने विवाह के एक वर्ष बाद तक गीता के साथ अच्छा व्यवहार किया, लेकिन बाद में उसके साथ शारीरिक एवं मानसिक रूप से दुर्व्यवहार किया, जिससे उसे घर के कार्य करने और दूसरों के घरों में कार्य करने के लिये सुबह जल्दी उठने पर विवश होना पड़ा।
  • FIR में आगे आरोप लगाया गया है कि आरोपियों ने गीता पर उसके मायके से 5,000 रुपये लाने का दबाव बनाया तथा जब वह ऐसा करने में विफल रही, तो उन्होंने कथित तौर पर उस पर मिट्टी का तेल डाला एवं उसे आग लगा दी। 
  • FIR दर्ज होने के बाद, तहसीलदार ने घटना के चार घंटे के अंदर अस्पताल में गीता का मृत्युकालिक कथन (प्रदर्श-46) दर्ज किया। 
  • पुलिस ने पति एवं सास पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 34 के साथ धारा 498A, 302 एवं 504 तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 एवं 4 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये आरोप लगाए। 
  • ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया, यह पाते हुए कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे अपना मामला सिद्ध करने में विफल रहा।
  • राज्य ने उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने दोषमुक्त करने के निर्णय को पलट दिया तथा दोनों आरोपियों को जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 
  • इसके बाद पति एवं सास ने इस मामले को उच्चतम न्यायालय में अपील किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने तहसीलदार द्वारा दर्ज किये गए मृत्युकालिक कथन की जाँच की, जिसमें गीता ने कहा था कि उसकी सास जैतुनबी सनावले ने अपने बच्चों को लेकर हुए विवाद के दौरान उस पर मिट्टी का तेल डाला और उसे आग लगा दी
  • न्यायालय ने कहा कि गीता के अभिकथन के अनुसार, जब वह बाथरूम जा रही थी, तो उसकी सास ने माचिस जलाकर उस पर फेंक दी, जबकि उसके पति वसंत ने उस पर पानी छिड़ककर आग बुझाने की कोशिश की। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिपरीक्षा के दौरान तहसीलदार की साक्षीी को प्रभावी ढंग से चुनौती नहीं दी गई, तथा ऐसा कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिला जिससे यह विश्वास न हो कि मृतक मृत्युकालिक कथन देने के लिये मानसिक रूप से स्वस्थ थी।
  • न्यायालय ने डॉ. गोपाल रामू वागामुडे की साक्षीी की जाँच की, जिसने गीता के इस कथन की पुष्टि की कि उसकी सास ने उस पर मिट्टी का तेल डाला और उसे आग लगा दी, तथा गीता 90% जल गई थी। 
  • न्यायालय ने नोट किया कि डॉ. वागामुडे से कोई प्रतिपरीक्षा नहीं की गई, जिससे मृतका द्वारा उसके समक्ष दिये गए मौखिक मृत्युकालिक कथन पर विश्वास न किया जा सके। 
  • न्यायालय ने कहा कि न तो डॉक्टर को दिये गए मौखिक मृत्युकालिक कथन में और न ही तहसीलदार को दिये गए अभिकथन में पति को अपराध में भागीदार के रूप में दर्शाया गया है।
  • न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस तर्क से असहमति जताई कि पति अपनी पत्नी को अस्पताल ले जाने में कथित विफलता के आधार पर IPC की धारा 34 (एकसमान आशय) के आधार पर दोषी है। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 34 लागू होने के लिये, सभी पक्षों द्वारा आपराधिक कृत्य में भागीदारी और साझा आशय होने चाहिये। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 34 के लिये पहले से तय योजना की आवश्यकता होती है तथा इसमें पूर्व सहमति की आवश्यकता होती है, जिसके लिये पक्षों के बीच विचारों का मिलन आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 की प्रयोज्यता को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि अपराध घर के अंदर हुआ था, लेकिन यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे कि पति और उसकी मां के बीच एकसमान आशय था।
  • न्यायालय ने पाया कि पति द्वारा अपनी पत्नी पर पानी डालकर आग बुझाने का प्रयास, समान आशय के आरोप का खंडन करता है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय ने अपराध के लिये सास को दोषी ठहराना तो सही माना, लेकिन पति की भागीदारी या समान आशय के पर्याप्त साक्ष्य के बिना उसे IPC की धारा 34 के अधीन दोषसिद्धि का निर्णय देकर चूक की।

IPC की धारा 34 (एकसमान आशय) और धारा 149 (एकसमान उद्देश्य) के बीच क्या अंतर हैं?

  • धारा 34 IPC (एकसमान आशय को आगे बढ़ाने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कृत्य)
    • भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 3(5) एकसमान आशय से संबंधित है। आशय की आवश्यकता: सभी प्रतिभागियों द्वारा साझा किये गए एकसमान आशय की आवश्यकता होती है। 
    • प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से आशय को साझा करना चाहिये। 
    • भागीदारी की आवश्यकता: आपराधिक कृत्य में वास्तविक भागीदारी आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति को कृत्य में योगदान देना चाहिये, भले ही न्यूनतम हो। 
    • शारीरिक उपस्थिति: अपराध स्थल पर शारीरिक उपस्थिति की आवश्यकता होती है, हालाँकि आवश्यक नहीं कि बिल्कुल उसी कमरे में हो (बाहर पहरा दे सकते हैं, आदि)। 
    • व्यक्तिगत दायित्व: व्यक्तिगत एवं सामूहिक पहलुओं को संतुलित करता है - व्यक्ति की भूमिका एवं समूह के एकसमान उद्देश्य दोनों पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • भागीदारी की प्रकृति: भागीदारी किसी भी कृत्य, हाव-भाव, शब्द, आचरण (सक्रिय या निष्क्रिय) के माध्यम से हो सकती है जो सामान्य डिजाइन का समर्थन करती है।
  • धारा 149 IPC (विधिविरुद्ध सभा का एकसमान उद्देश्य)
    • भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 190 एकसमान उद्देश्य से संबंधित है
    • आशय बनाम उद्देश्य: व्यक्तिगत आशय के बजाय सभा के एकसमान उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • व्यक्तिगत आशय की अवहेलना: व्यक्तिगत सदस्यों के आशय की अवहेलना करता है तथा समग्र रूप से सभा के एकसमान उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • भागीदारी के बिना दायित्व: कोई व्यक्ति कृत्य में प्रत्यक्ष भागीदारी के बिना भी दोषी हो सकता है।
    • सदस्यता की आवश्यकता: अपराध के समय विधिविरुद्ध सभा में मात्र सदस्यता ही पर्याप्त है।
  • विपरीत आशय के बावजूद दायित्व: कोई व्यक्ति दोषी पाया जा सकता है, भले ही अपराध उसके अपने व्यक्तिगत आशय के विपरीत किया गया हो।
  • निर्णय में विशेष रूप से कहा गया कि धारा 34, धारा 149 की तुलना में अधिक प्रतिबंधित है, क्योंकि इसमें आपराधिक कृत्य में मानसिक साझेदारी (एकसमान आशय) और शारीरिक भागीदारी दोनों की आवश्यकता होती है, जबकि धारा 149 किसी व्यक्ति को केवल एक एकसमान उद्देश्य के साथ विधिविरुद्ध सभा में सदस्यता के आधार पर उत्तरदायी बना सकती है।

उच्चतम न्यायालय के अनुसार IPC की धारा 34 एवं IPC की धारा 120B के बीच क्या अंतर हैं?

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 और धारा 120B (आपराधिक षड्यंत्र) के बीच मुख्य अंतर के विषय में उच्चतम न्यायालय का निर्वचन इस प्रकार है:
    • कार्यवाही बनाम करार की आवश्यकता:
      • धारा 34 के अनुसार किसी आपराधिक कृत्य में मात्र सहमति से परे वास्तविक भागीदारी की आवश्यकता होती है। 
      • धारा 120B के अनुसार किसी अवैध कृत्य को करने के लिये केवल सहमति की आवश्यकता होती है (केवल एक "मामूली सहमति" पर्याप्त है)।
    • भागीदारी की आवश्यकता:
      • धारा 34 के अनुसार, आपराधिक कृत्य में किसी न किसी रूप में भागीदारी आवश्यक है। 
      • धारा 120B के अनुसार, व्यक्ति को अपराध के वास्तविक कृत्य में भाग लेने की आवश्यकता नहीं है।
    • जब दायित्व स्थापित हो जाता है:
      • धारा 34 के अंतर्गत, दायित्व तभी उत्पन्न होता है जब कोई आपराधिक कृत्य किया जाता है और अभियुक्त उसमें शामिल होता है। 
      • धारा 120B के अंतर्गत, अपराध करने का षड्यंत्र कारित के लिये दायित्व का करार होते ही उत्पन्न हो जाता है, करार से परे कोई प्रत्यक्ष कृत्य आवश्यक नहीं है।
    • संलिप्तता की प्रकृति:
      • धारा 34 निष्पादन/कमीशन चरण में भागीदारी पर केंद्रित है। 
      • धारा 120B निष्पादन से पहले नियोजन/करार के चरण पर केंद्रित है।
  • जैसा कि निर्णय में कहा गया है कि IPC की धारा 34 के अंतर्गत, एक मात्र करार, हालाँकि यह एकसमान आशय का पर्याप्त साक्ष्य हो सकता है, IPC की धारा 34 के आवेदन के साथ दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिये पूरी तरह से अपर्याप्त होगा, जब तक कि उक्त एकसमान आशय को आगे बढ़ाने के लिये कोई आपराधिक कार्य नहीं किया जाता है तथा अभियुक्त ने स्वयं किसी न किसी तरह से उक्त कृत्य के गठन में भाग लिया हो। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 34 के अंतर्गत योजना कृत्य के चरण से आगे बढ़कर भागीदारी के साथ वास्तविक गठन की आवश्यकता होती है, जबकि षड्यंत्र करार के चरण में पूरी होती है।

उच्चतम न्यायालय का स्पष्टीकरण IPC की धारा 34 के अधीन सामान्य आशय की अवधारणा को कैसे स्पष्ट करते हैं?

  • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 34 की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिये कई उदाहरण दिये, जो "एकसमान आशय को आगे बढ़ाने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कृत्यों" से संबंधित है। 
  • निर्णय में उल्लिखित उदाहरणों में शामिल हैं:
    • दो लोग एक व्यक्ति को एक साथ पीटते हैं - जहाँ दोनों एक ही समय में एक ही आशय से समान कृत्य करते हैं।
    • दो जेलर एक कैदी को भूख से मारने की षड्यंत्र रचते हैं - जहाँ एक साथ होने वाली क्रियाओं के बजाय लगातार चूक होती है।
    • दो लोग अलग-अलग समय पर एक दस्तावेज़ के अलग-अलग हिस्सों को बनाते हैं - जहाँ उनके बीच एक अंतराल के साथ कार्य होते हैं।
    • दो लोग किसी को मारने की षड्यंत्र रचते हैं जहाँ एक व्यक्ति पीड़ित की पहचान करता है और दूसरा वास्तविक हत्या करता है - यह दर्शाता है कि कैसे मात्र उपस्थिति सार्थक भागीदारी हो सकती है।
    • एक प्रहरी (गार्ड) जो साशय एक हत्यारे को एक कमरे में प्रवेश करने देता है - यह दर्शाता है कि कैसे एक चूक एक प्रत्यक्ष कार्यवाही के रूप में प्रभावी रूप से अपराध में योगदान दे सकती है।
    • दो व्यक्ति चोरी करने का षड्यंत्र रचते हैं, जिसमें एक व्यक्ति दुकानदार का ध्यान बंटाता है, जबकि दूसरा चोरी करता है - यह दर्शाता है कि किस प्रकार विभिन्न कार्य एक ही अपराध में भागीदारी के रूप में देखे जा सकते हैं।
  • इन स्पष्टीकरणों का उपयोग यह दर्शाने के लिये किया गया कि IPC की धारा 34 के अंतर्गत आपराधिक कृत्य में भागीदारी कई रूप ले सकती है - जिसमें कृत्य, चूक, संकेत या किसी भी प्रकार का आचरण शामिल है - जब तक कि वे एक सामान्य आपराधिक डिजाइन का समर्थन करते हैं।

आपराधिक कानून

भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के अधीन व्यतिक्रम जमानत (डिफॉल्ट) स्वीकृत करना

 20-Feb-2025

मोहम्मद साजिद बनाम केरल राज्य 

“मेरी यह राय है कि धारा 187(3) का विवेचन करते समय, अभियुक्त की स्वतंत्रता के पक्ष में जो निर्वचन होगा, उसे न्यायालय द्वारा अपनाया जाना चाहिये ।” 

न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्ही कृष्णन 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्ही कृष्णन की पीठ ने कहा कि जब विधि में अस्पष्टता या संदिग्धता हो, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, तो अस्पष्टता का समाधान अभियुक्त व्यक्ति के पक्ष में किया जाना चाहिये , क्योंकि स्वतंत्रता दांव पर लगी होती है। 

केरल उच्च न्यायालय ने मोहम्मद साजिद बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह फैसला सुनाया। 

सुभेलाल उर्फ सुशील साहू बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • वर्तमान तथ्यों के अनुसार प्रार्थी  स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ, अधिनियम, 1985 (एनडीपीएस) की धारा 22 (ख) के अधीन अपराध का अभियुक्त है। 
  • पुलिस ने कथित तौर पर 11 नवंबर 2024 को नोआ के आर्क होटल के कमरा नंबर 304 से 2.28 ग्राम मेथिलेंडिऑक्सी-मेथिलैम्फेटामाइन (MDMA) जब्त किया। 
  • तत्पश्चात प्रार्थी को गिरफ्तार कर लिया गया। 
  • प्रार्थी के अधिवक्ता का तर्क है कि वह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (भा.ना.सु.सं.) की धारा 187 (3) के अधीन सांविधिक जमानत का हकदार है। 
  •  प्रार्थी ने एर्नाकुलम के प्रथम अपर सेशन न्यायाधीश के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिस पर कथित रूप से विचार नहीं किया गया। 
  • एनडीपीएस अधिनियम की धारा 22 (ख) के अधीन अपराध के लिये अधिकतम दस वर्ष का दण्ड है, जिसके लिये अधिवक्ता ने तर्क  दिया कि प्रार्थी भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के लाभ के योग्य है। 
  • लोक अभियोजक ने जमानत अर्जी का विरोध करते हुए तर्क दिया कि प्रार्थी भा.ना.सु.सं. की धारा 187(3) के अधीन रिहाई के पात्र नहीं है।  
  • इस प्रकार, मामला केरल उच्च न्यायालय के समक्ष था। 

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं? 

  • न्यायालय ने पाया कि दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1973 (द.प्र.सं.) की धारा 167 और भा.ना.सु.सं. की धारा 187 में प्रयुक्त वाक्यांशों में अंतर है। 
  • धारा 187 (3) (i) में “10 वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिये” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है, जबकि धारा 167 (2) (क) (i) में “10 वर्ष से कम नहीं” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है। 
  • न्यायालय ने पाया कि भा.ना.सु.सं. में वर्णित “10 वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिये” और द.प्र.सं. में वर्णित “10 वर्ष से कम नहीं” शब्दों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। 
  • न्यायालय ने निर्वचन के नियम का सहारा लिया कि जब विधि में अस्पष्टता या संदिग्धता हो, चाहे वास्तविक हो या काल्पनिक,  तो अस्पष्टता या संदिग्धता का समाधान अभियुक्त व्यक्ति के पक्ष में किया जाना चाहिये , क्योंकि स्वतंत्रता दांव पर लगी होती है। 
  • इस प्रकार, अभियुक्त की स्वतंत्रता के पक्ष में एक निर्वचन अपनाया जाना चाहिये । 
  •  न्यायालय ने कहा कि वर्तमान तथ्यों के आधार पर विद्वान सेशन न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त के आवेदन को केवल इस आधार पर खारिज करना गलत था कि प्रार्थी का पूर्ववृत्त है। 
  • केवल इसलिये कि प्रार्थी का कोई पूर्ववृत्त है या वह एक आदतन अपराधी है, भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के अधीन सांविधिक जमानत खारिज नहीं की जा सकती। 
  • इसलिये न्यायालय ने जमानत आवेदन को स्वीकार कर लिया, किंतु अभियुक्त पर कई शर्तें अधिरोपित कर दीं। 

भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) क्या है? 

  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187 उस प्रक्रिया का प्रावधान करती है, जब अन्वेषण 24 घंटे के अंदर पूरा नहीं हो पाता। 
  • यह ध्यान देने योग्य है कि भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (1) के अनुसार जब भी किसी अभियुक्त को गिरफ्तार किया जाता है, और ऐसा लगता है कि अन्वेषण 24 घंटे के अंदर पूरा नहीं हो सकता (और यह विश्वाश करने के लिये कि अभियोग दृढ़ आधार पर है) तो पुलिस अधिकारी को तुरंत अभियुक्त को निकटतम मजिस्ट्रेट के पास भेजना चाहिये । 
  • यह ध्यान देने योग्य है कि भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (2) हाल ही में पुनर्स्थापित की गई है और उस समय अवधि का प्रावधान करती है, जिसके दौरान किसी अभियुक्त को पुलिस अभिरक्षा में रखा जा सकता है। 
  • धारा 187 (2) में यह प्रावधान है कि: 
  • मजिस्ट्रेट ठीक समझे किसी अभियुक्त को इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर पूर्णतः या भागतः 15 दिन से अधिक न होगी, उपधारा (3) में यथा उपबंधित यथास्थिति, 60 दिनों या 90 दिनों की उसकी निरूद्ध अवधि में से पहले 40 दिन या 60 दिन के दौरान किसी भी समय निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है। 
  •  यह विचार किये  बिना चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, 
  • मजिस्ट्रेट को निरोध प्राधिकृत करने से पहले यह विचार करना चाहिये की अभियुक्त व्यक्ति को जमानत देने से इंकार किया गया है या उसकी जमानत रद्द कर दी गई है। 
  • यदि मजिस्ट्रेट के पास अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है: 
  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) वह प्रावधान है जिसके अधीन  व्यतिक्रम (डिफॉल्ट) जमानत मिलती है। द.प्र.सं. की धारा 167 (2) और भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) का तुलनात्मक विश्लेषण इस प्रकार है: 

द.प्र.सं. की धारा 167 (2) 

भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) 

वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर 15 दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिये सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है : 

परन्तु- 

  1.  मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध 15 दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निरोध- 
  2.   कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध  में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अन्यून की अवधि के लिये कारावास से दण्डनीय है; 
  3.  कुल मिलाकर 60 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध  में है, 
  4. और, यथास्थिति, 90 दिन या 60 दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिये तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबन्धों के अधीन छोड़ा गया है 

(3) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध 15 दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस उपधारा के अधीन अभिरक्षा में निरोध, - 

  1.  कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष की अवधि या अधिक के लिये कारावास से दण्डनीय है। 
  2.  कुल मिलाकर 60 दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ  अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है, और, यथास्थिति, 90 दिन या 60 दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिये तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 35 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है 
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में कर्नाटक राज्य के कावूर पुलिस थाना बनाम कलंदर शफी (2024) मामले में भा.ना.सु.सं. की धारा 187 (3) के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण  व्याख्या की। इस मामले में निष्कर्षों का सारांश इस प्रकार है: 
  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187(3) के अनुसार नई शासन प्रणाली में द.प्र.सं. की धारा 167(2) के साथ थोड़ा सा फेरबदल किया गया है, परंतु इस से प्रावधान का उद्देश्य नहीं बदला है।  
  • भा.ना.सु.सं. की धारा 187(3) के उप-खंड (i) में 'दस वर्ष या उससे अधिक' शब्दों की शब्दावली का अर्थ है कि भा.ना.सु.सं के अधीन किसी अपराध के लिये न्यूनतम  दण्ड दस वर्ष होना चाहिये ।  
  • इस मामले में अपराध के लिये न्यूनतम दण्डादेश दस वर्ष नहीं है, परंतु इसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि संबंधित न्यायालय को दस वर्ष तक का दण्ड देने का विवेकाधिकार है। इसलिये न्यूनतम सीमा दस वर्ष नहीं है। 
  • दस वर्ष तक के दण्ड वाले मामलों में अन्वेषण पूरा करने में निःसंदेह 60 दिन लगते हैं। बाकी अन्य अपराधों में, चाहे वह मृत्युदण्ड हो, दस वर्ष या उससे अधिक का आजीवन कारावास का दण्ड हो, 90 दिन लगेंगे। 
  • यदि अन्वेषण 60 दिनों में पूरा करना है, तो पुलिस अभिरक्षा की अवधि अपराध के पंजीकरण के पहले दिन से चालीसवें दिन तक चलेगी। यदि  90 दिन हैं, तो यह पहले दिन से लेकर 60वें दिन तक चलेगी, दोनों मामलों में पुलिस अभिरक्षा की अधिकतम अवधि 15 दिन है। 
  • अगर अपराध 10 वर्ष तक के दण्ड वाला है, तो पुलिस अभिरक्षा सिर्फ़ पहले दिन से लेकर चालीसवें दिन तक होगी।