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आपराधिक कानून
भा.ना.सु.सं. के अधीन परिहार की शर्तें
21-Feb-2025
जमानत के प्रति नीति के संबंध में “समय से पहले छोड़ देने की शक्ति का प्रयोग निष्पक्ष और युक्तियुक्त रीति से किया जाना चाहिये।” न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि दोषी को परिहार के लिये आवेदन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कैदी को समय से पहले छोड़ देना सरकार का कर्त्तव्य है।
- उच्चतम न्यायालय ने जमानत के प्रति नीति के संबंध में (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
जमानत मामलें के प्रति नीति के संबंध में पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में न्यायालय ने जो मुद्दे अवधारित किये वे हैं:
- क्या परिहार प्रदान करने की शक्ति का प्रयोग दोषी व्यक्ति या दोषी की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा समुचित सरकार को परिहार प्रदान करने के लिये आवेदन किये बिना किया जा सकता है?
- परिहार प्रदान करते समय कौन सी शर्तें लगाई जा सकती हैं?
- क्या दोषी व्यक्ति को दिया गया परिहार स्वतः रद्द हो सकता है यदि वह उन नियमों और शर्तों का उल्लंघन करता है जिन पर परिहार दिया गया है?
- क्या स्थायी परिहार देने के लिये दोषियों के आवेदनों को अस्वीकार करते समय कारण अभिलिखित करने की आवश्यकता है?
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि परिहार की शर्तें अवधारित करते समय, आवश्यक विचारों में सम्मिलित हैं:
- आपराधिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना चाहिये और पुनर्वास को बढ़ावा देना चाहिये।
- अत्यधिक दमनकारी नहीं होना चाहिये या लाभ को रोकना नहीं चाहिये।
- स्पष्ट और निष्पादन योग्य होना चाहिये, अस्पष्ट नहीं होना चाहिये।
- उचित सरकार माफ़भाई मोतीभाई सागर बनाम गुजरात राज्य (2024) मामले में प्रक्रियाओं का पालन करते हुए केवल शर्तों के उल्लंघन के लिये परिहार रद्द कर सकता है।
- न्यायालय ने माना कि समय से पहले छोड़ने का निर्णय अनुच्छेद 21 के अधीन स्वतंत्रता को प्रभावित करता हैं, इसके लिये निम्न की आवश्यकता होती है:
- सत्ता का निष्पक्ष और उचित प्रयोग
- विनिश्चय के लिये अभिलिखित कारण
- नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत
- न्यायालय ने आगे कहा कि धारा 433-क, आजीवन दण्डादेश मिले दोषियों को कम से कम 14 वर्ष का वास्तविक कारावास काटने की आवश्यकता के कारण परिहार की शक्ति को सीमित करती है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 433 द.प्र.सं./474 भा.ना.सु.सं. के अधीन दण्डादेश कम करने की सरकार की शक्ति परिहार की शक्ति से अलग है।
- न्यायालय ने विनिर्णय सुनाया कि पात्र कैदियों के लिये परिहार पर विचार करना सरकार का कर्त्तव्य है, न कि केवल एक विकल्प।
- राज्य को दोषियों से आवेदन मांगे बिना समय से पहले छोड़ने के पात्र कैदियों की सक्रिय रूप से पहचान करनी चाहिये और उन पर विचार करना चाहिये।
परिहार से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (द.प्र.सं.) में परीहा से संबंधित प्रावधान द.प्र.सं.की धारा 432, धारा 433 और धारा 433क हैं।
- यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (भा.ना.सु.सं.) की धारा 473, धारा 474 और धारा 475 में निहित है।
- भा.ना.सु.सं. की धारा 473 में निम्नलिखित मुख्य प्रावधान हैं:
- समुचित सरकार शर्तों के साथ या बिना शर्तों के दण्डादेश को निलंबित या परिहार कर सकती है।
- सरकार आवेदनों पर विचार करते समय विचारण न्यायाधीशों की राय मांग सकती है।
- यदि शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो सरकार परिहार/निलंबन रद्द कर सकती है और व्यक्ति को शेष दण्डादेश के लिये गिरफ्तार किया जा सकता है।
- शर्तें व्यक्ति के कार्यों पर निर्भर हो सकती हैं या उनकी इच्छा से स्वतंत्र हो सकती हैं।
- सरकार निलंबन और याचिका आवश्यकताओं के बारे में नियम जारी कर सकती है, जिसमें विशिष्ट प्रावधान हैं:
- 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के लिये जुर्माने के अलावा अन्य दण्डादेश के लिये याचिकाएँ केवल तभी वैध होंगी जब व्यक्ति जेल में हो।
- याचिकाएँ जेल अधिकारियों के माध्यम से प्रस्तुत की जानी चाहिये या उसमें यह घोषणा होनी चाहिये कि व्यक्ति जेल में है।
- ये प्रावधान स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने या दायित्व लगाने वाले किसी भी न्यायालय के आदेश पर लागू होते हैं।
- "समुचित सरकार" का अर्थ है:
- संघ की विधि के विरुद्ध अपराधों के लिये केंद्र सरकार
- अन्य मामलों के लिये राज्य सरकार
- भा.ना.सु.सं. की धारा 474 में दण्डादेश लघुकरण की शक्ति प्रदान की गई है:
- समुचित सरकार, दण्डादेश प्राप्त व्यक्ति की सम्मति के बिना, निम्नांकित दण्डादेश का लघुकरण कर सकती है-
- मृत्यु दण्डादेश को आजीवन कारावास में;
- आजीवन कारावास के दण्डादेश को, सात वर्ष से अन्यून की अवधि के कारावास में;
- सात वर्ष या अधिक के लिये कारावास के दण्डादेश को, कारावास की ऐसी अवधि के लिये, जो तीन वर्ष से कम न हो;
- सात वर्ष से कम के कारावास के दण्डादेश के लिये जुर्माने का
- कठोर कारावास के दण्डादेश को, किसी ऐसी अवधि के साधारण कारावास में, जिसके लिये वह व्यक्ति दंडादिष्ट किया जा सकता है।
- भा.ना.सु.सं. की धारा 475 कुछ मामलों में छूट या लघुकरण की शक्तियों पर निर्बंधन का प्रावधान करती है:
- धारा 473 में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिये, जिसके लिये मृत्युदंड विधि द्वारा उपबंधित दण्डों में से एक है, आजीवन कारावास का दण्डादेश दिया गया है या धारा 474 के अधीन किसी व्यक्ति को दिए गए मृत्यु दण्डादेश का आजीवन कारावास के रूप में लघुकरण किया गया है, वहां ऐसा व्यक्ति कारावास से तब तक नहीं छोड़ा जाएगा, जब तक कि उसने चौदह वर्ष का कारावास पूरा न कर लिया हो।
न्यायालय द्वारा परिहार के लिये जारी दिशा-निर्देश क्या हैं?
- न्यायालय द्वारा निकाले गए निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
- समुचित सरकार को द.प्र.सं. की धारा 432 या भा.ना.सु.सं. की धारा 473 के अधीन समय से पहले छोड़े जाने के पात्र दोषियों पर स्वतः विचार करना चाहिये, जब वे नीतिगत दिशा-निर्देशों को पूरा करते हैं - दोषी या नातेदारों से कोई विशिष्ट आवेदन की आवश्यकता नहीं है। यह बाध्यता तब लागू होती है जब जेल नियमावली या विभागीय निर्देशों में ऐसे नीतिगत दिशा-निर्देश होते हैं।
- हम उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निदेश देते हैं जिनके पास द.प्र.सं. की धारा 432 या भा.ना.सु.सं. की धारा 473 के अनुसार छूट देने से संबंधित कोई नीति नहीं है, कि वे आज से दो महीने के भीतर एक नीति तैयार करें।
- समुचित सरकार स्थायी परिहार देते समय शर्तें लगा सकती है, लेकिन ये शर्तें निम्नलिखित होनी चाहिये:
- अनुच्छेद 13 में उल्लिखित सुसंगत कारकों पर आधारित हो
- आपराधिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने और पुनर्वास का समर्थन करने का लक्ष्य हो
- अत्यधिक दमनकारी या कठोर न हो जिससे दोषी को लाभ उठाने से रोका जा सके
- स्पष्ट और व्यावहारिक रूप से निष्पादन योग्य हो, अस्पष्ट न हो
- स्थायी परिहार देने या न देने वाले किसी भी आदेश में संक्षिप्त कारण शामिल होने चाहिये और उसे जेल अधिकारियों के माध्यम से दोषी को तुरंत सूचित किया जाना चाहिये। इसकी प्रतियां जिला विधिक सेवा प्राधिकरण सचिवों को भेजी जानी चाहिये। जेल अधिकारियों को दोषियों को छूट अस्वीकृति आदेशों को चुनौती देने के उनके अधिकार के बारे में सूचित करना चाहिये।
- जैसा कि माफ़भाई मोतीभाई सागर बनाम गुजरात राज्य (2024) के मामले में कहा गया है, दोषी को सुनवाई का अवसर दिए बिना स्थायी परिहार देने वाले आदेश को वापस नहीं लिया जा सकता या रद्द नहीं किया जा सकता। स्थायी परिहार रद्द करने के आदेश में संक्षिप्त कारण होने चाहिये;
- जिला विधिक सेवा प्राधिकरण NALSA SOP को उसके वास्तविक अर्थ में लागू करने का प्रयास करेंगे।
- जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों को निष्कर्ष (क) के कार्यान्वयन की निगरानी करनी चाहिये, दोषियों की सुसंगत तिथियों का अभिलेख रखना चाहिये और जब दोषी समय से पहले छोड़ने के लिये विचार किए जाने योग्य हो जाएं तो आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिये। राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों को इस जानकारी का मार्गन करने के लिये एक वास्तविक समय डेटा पोर्टल विकसित करना चाहिये।
आपराधिक कानून
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(8)
21-Feb-2025
सोनू बनाम CBI "पूरा स्क्रीनशॉट प्रस्तुत करने से कोई नया साक्ष्य नहीं बनता। विचाराधीन दस्तावेज़ पहले से ही अपूर्ण रूप में रिकॉर्ड का हिस्सा था, तथा इसके पूरा होने से कोई नया आरोप, नया निष्कर्ष या अभियोजन पक्ष के मामले में किसी भी तरह का कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं आता है" न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह ने कहा कि पूरा स्क्रीनशॉट कोई नया साक्ष्य नहीं है, यह केवल एक अनजाने में हुई चूक का सुधार है तथा अभियोजन पक्ष के मामले में कोई नया आरोप या भौतिक परिवर्तन नहीं है और इसलिये, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 (8) के अनुपालन की आवश्यकता नहीं है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोनू बनाम CBI (2025) मामले में यह माना है।
सोनू बनाम CBI मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 7 अप्रैल 2017 को, बैंक ऑफ बड़ौदा, नई दिल्ली के उप महाप्रबंधक ने नोटबंदी के दौरान बैंक की आज़ादपुर शाखा में वित्तीय अनियमितताओं के विषय में CBI की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा में शिकायत दर्ज कराई।
- शिकायत में 500 और 1000 रुपये के विमुद्रीकृत नोटों (निर्दिष्ट बैंक नोट) के दुरुपयोग से जुड़े धोखाधड़ी वाले संव्यवहार का आरोप लगाया गया था।
- CBI ने 7 अप्रैल 2017 को मामला दर्ज किया। हालाँकि याचिकाकर्त्ता का नाम प्रारंभ में नहीं था, लेकिन बाद में बैंक द्वारा 21 अप्रैल 2017 को की गई शिकायत के बाद उसे अभियोजित किया गया।
- याचिकाकर्त्ता दिल्ली में बैंक ऑफ बड़ौदा की आज़ादपुर शाखा में सिंगल विंडो ऑपरेटर - A (SWO-A) के रूप में कार्य करता था।
- विवेचना के दौरान, CBI ने बैंक रिकॉर्ड और स्टेटमेंट की जाँच की, जिसमें पाया गया कि याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर:
- फर्जी नकद जमा पर्चियाँ।
- संव्यवहार रिकॉर्ड में फेरबदल।
- ग्राहकों द्वारा जमा की गई वैध मुद्रा को विमुद्रीकृत नोटों से बदल दिया।
- RBI नियमों का उल्लंघन करते हुए विमुद्रीकृत नोटों का अनाधिकृत विनिमय सक्षम किया।
- CBI ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध निम्नलिखित के अधीन आरोपपत्र दायर किया:
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराएँ 409, 420, 468, 471 एवं 201।
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) को धारा 13(1)(c) और 13(1)(d) के साथ पढ़ा जाए।
- 22 दिसंबर 2022 को अभियोजन पक्ष ने एक आवेदन दायर कर मांग की:
- बैंक के फिनेकल सिस्टम के OHDTM मेनू से पूरा स्क्रीनशॉट रिकॉर्ड पर रखें।
- चार साक्षियों को वापस बुलाएँ और उनसे दोबारा पूछताछ करें।
- स्क्रीनशॉट में याचिकाकर्त्ता को कथित धोखाधड़ी से जोड़ने वाले संव्यवहार नंबर शामिल थे।
- ट्रायल कोर्ट की टिप्पणियाँ:
- रिकॉर्ड पर रखे जाने वाले स्क्रीनशॉट नए दस्तावेज़ नहीं थे, बल्कि पहले से रिकॉर्ड में मौजूद अधूरे स्क्रीनशॉट की पूरी प्रतियाँ थीं।
- अधूरी फाइलिंग जाँच अधिकारी की ओर से एक गैर-जानबूझकर की गई चूक थी, तथा आवेदन को आगे बढ़ाने में हुआ विलंब आंशिक रूप से निम्नलिखित कारणों से हुई थी:
- महामारी के दौरान बंद रहे न्यायालय (मार्च 2020)।
- पिछले न्यायाधीश के स्थानांतरण के बाद न्यायालय रिक्ति (नवंबर 2021 से अप्रैल 2022)।
- पहले के अभियोजक का स्थानांतरण।
- CrPC की धारा 311 न्यायालय को यह अधिकार देती है कि:
- मुकदमे के किसी भी चरण में अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति देना।
- यदि न्यायपूर्ण निर्णय के लिये आवश्यक हो तो अतिरिक्त दस्तावेजों की अनुमति देना।
- बशर्ते कि अभियुक्त के प्रति कोई पूर्वाग्रह न हो।
- साक्षियों को वापस बुलाना इसलिये आवश्यक था क्योंकि:
- उन्हें पहले केवल अधूरे स्क्रीनशॉट दिखाए गए थे।
- उन्हें लेन-देन संख्या के विषय में विवादों को स्पष्ट करने का अवसर चाहिये था।
- पूर्ण स्क्रीनशॉट रिकॉर्ड में स्पष्टता लाने में सहायता करेंगे।
- उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने CBI की अर्जी मंजूर कर ली।
- ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान अपील दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- दस्तावेज़ प्रस्तुतीकरण:
- पूरा स्क्रीनशॉट कोई नया साक्ष्य नहीं है।
- यह केवल एक अनजाने में हुई चूक का सुधार है।
- अभियोजन पक्ष के मामले में कोई नया आरोप या भौतिक परिवर्तन नहीं है।
- इसके लिये धारा 173(8) CrPC के अनुपालन की आवश्यकता नहीं है।
- निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार:
- अभियुक्त को कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा।
- अभियुक्त को वापस बुलाए गए साक्षियों से प्रतिपरीक्षा करने का अवसर मिलेगा।
- अभियुक्त सभी स्वीकार्य आधारों पर दस्तावेज़ को चुनौती दे सकता है।
- न्यायालय के हस्तक्षेप को उचित ठहराने वाला कोई भौतिक पूर्वाग्रह नहीं है।
- प्रक्रियात्मक पहलू:
- दस्तावेज़ पहले से ही रिकॉर्ड का हिस्सा था, हालाँकि अधूरा था।
- कोई और जाँच नहीं की गई।
- मूल कब्जे से परे कोई नया साक्ष्य एकत्र नहीं किया गया।
- धारा 173(8) CrPC लागू नहीं है।
- न्याय एवं निष्पक्ष न्यायनिर्णय:
- आपराधिक मुकदमे का उद्देश्य सर्वोत्तम संभव साक्ष्य सुनिश्चित करना है।
- छोटी-मोटी चूक से न्यायालय की सत्यता का पता लगाने की क्षमता में बाधा नहीं आनी चाहिये ।
- अधूरे साक्ष्य रिकॉर्ड से अनिर्णायक मूल्यांकन हो सकता है।
- तकनीकी खामियों के कारण उचित निर्णय में बाधा नहीं आनी चाहिये ।
- उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को विधिक रूप से उचित एवं प्रक्रियात्मक रूप से सही पाते हुए यथावत बनाए रखा।
- दस्तावेज़ प्रस्तुतीकरण:
BNSS की धारा 193 क्या है?
परिचय:
- CrPC की धारा 173 के अनुसार, जाँच पूरी होने के बाद प्रभारी अधिकारी को अपराध का संज्ञान लेने के लिये अधिकृत मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिये ।
- यह रिपोर्ट, जिसे आमतौर पर पुलिस रिपोर्ट या चार्जशीट के रूप में जाना जाता है, में यह विस्तृत रूप से बताया जाना चाहिये कि क्या कोई अपराध किया गया है, अभियुक्तों के नाम, एकत्र किये गए साक्ष्य की प्रकृति और क्या अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया है।
- प्रावधान में यह भी प्रावधानित किया गया है कि जिन मामलों में अभियुक्त को जमानत पर रिहा किया गया है, रिपोर्ट में यह भी उल्लिखित किया जाना चाहिये कि क्या शिकायतकर्त्ता को ऐसी रिहाई पर आपत्ति करने के उनके अधिकार के विषय में सूचित किया गया है।
- नए आपराधिक विधि के अनुसार यह प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 193 के अंतर्गत दिया गया है।
धारा 193 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के विधिक प्रावधान:
- BNSS की धारा 193 विवेचना पूरी होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट से संबंधित है।
- अस्थायी आवश्यकताएँ:
-
- सभी विवेचना बिना किसी अनावश्यक विलंब के किया जाना चाहिये ।
- विशिष्ट अपराधों (भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64-68, 70-71 और पोक्सो अधिनियम की धारा 4, 6, 8, 10) के लिये, सूचना दर्ज होने की तिथि से दो महीने के अंदर विवेचना पूरी की जानी चाहिये ।
- रिपोर्टिंग हेतु आवश्यकताएँ:
- पूरा होने पर, अधिकारी को एक सशक्त मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजनी होगी।
- रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये इलेक्ट्रॉनिक संचार की अनुमति है।
- रिपोर्ट में निम्नलिखित निर्दिष्ट तत्त्व निहित होने चाहिये :
- पक्षों के नाम
- सूचना की प्रकृति
- मामले की परिस्थितियों से परिचित व्यक्तियों के नाम
- क्या अपराध किया गया है और किसके द्वारा किया गया है
- आरोपी की गिरफ्तारी की स्थिति
- बॉन्ड/जमानत पर रिहाई की स्थिति
- अभिरक्षा में भेजने की सूचना
- विशिष्ट अपराधों के लिये चिकित्सा परीक्षण रिपोर्ट
- संचार दायित्व:
- अधिकारियों को 90 दिनों के अंदर जाँच की प्रगति की सूचना मुखबिर/पीड़ित को देनी होगी।
- संचार किसी भी माध्यम से हो सकता है, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक माध्यम भी शामिल है।
- राज्य सरकार के नियमों के अनुसार की गई कार्यवाही की सूचना मूल मुखबिर को अवश्य दी जानी चाहिये ।
- पर्यवेक्षी प्रावधान:
- जहाँ नियुक्त किया गया है, वहाँ वरिष्ठ अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के लंबित रहने तक आगे की जाँच का निर्देश दे सकते हैं।
- राज्य सरकार के निर्देशों के अनुसार वरिष्ठ अधिकारियों के माध्यम से रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता हो सकती है।
- दस्तावेज़ीकरण आवश्यकताएँ:
- अभियोजन के लिये सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ रिपोर्ट के साथ भेजे जाने चाहिये। प्रस्तावित अभियोजन साक्षियों के अभिकथन शामिल किये जाने चाहिये ।
- अधिकारी अभिकथन के उन हिस्सों को हटाने का निवेदन कर सकते हैं जो अप्रासंगिक या अनुपयुक्त माने जाते हैं।
- आगे की जाँच के प्रावधान:
- प्रारंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद आगे की जाँच की अनुमति दी जाती है।
- अतिरिक्त साक्ष्य के लिये आगे की रिपोर्ट अग्रेषित करने की आवश्यकता होती है।
- मुकदमे के दौरान, आगे की जाँच के लिये न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता होती है।
- ऐसी जाँच 90 दिनों के अंदर पूरी होनी चाहिये ।
- अदालत 90 दिन की अवधि बढ़ा सकती है।
- प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय:
- मजिस्ट्रेट बॉण्ड के निर्वहन के संबंध में आदेश दे सकते हैं।
- अभियुक्तों के लिये रिपोर्ट की प्रतियों की निर्दिष्ट संख्या प्रस्तुत की जानी चाहिये ।
- रिपोर्टों का इलेक्ट्रॉनिक संचार एक वैध सेवा मानी जाती है।
-
आपराधिक कानून
गिरफ्तारी के आधार को लिखित रूप में प्रस्तुत करना
21-Feb-2025
रविंदर बनाम हरियाणा राज्य “पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि उच्चतम न्यायालय के पंकज बंसल निर्णय के बाद अब प्रत्येक गिरफ्तारी में लिखित आधार शामिल होना चाहिये।” न्यायमूर्ति जसजीत सिंह बेदी |
स्रोत: पंजाब & हरियाणा राज्य
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जसजीत सिंह बेदी ने कहा कि पंकज बंसल का निर्णय नया है क्योंकि इसमें अनिवार्य किया गया है कि गिरफ्तारी के लिये लिखित कारण बताए जाने चाहिये, जो पहले लागू नहीं था। इसने पुष्टि की कि यह नियम 03 अक्टूबर 2023 के बाद की गई सभी गिरफ्तारियों पर लागू होगा।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने रविंदर बनाम हरियाणा राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
रविंदर बनाम हरियाणा राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 23 फरवरी 2022 को अनुराग उर्फ अर्जुन को हत्या की विवेचना के तत्त्वावधान में गिरफ्तार किया गया।
- गिरफ्तारी के बाद अनुराग ने रविंदर उर्फ तन्नी उर्फ तरुण (याचिकाकर्त्ता) और संदीप उर्फ कोकी के साथ मिलकर अपराध कारित करने की बात स्वीकार करते हुए एक प्रकटन का अभिकथन दिया।
- अनुराग के अभिकथन के अनुसार, उसने मृतक पर देसी पिस्तौल से गोली चलाई, जबकि याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर पीड़ित के सिर पर डंडा से वार किया तथा संदीप उर्फ कोकी ने पैर एवं मुट्ठी से वार किया।
- याचिकाकर्त्ता और संदीप उर्फ कोकी को 24 फरवरी 2022 को गिरफ्तार किया गया।
- गिरफ्तारी के बाद दोनों ने संलिप्तता स्वीकार करते हुए प्रकटन का अभिकथन दिया तथा कहा कि वे घटना में प्रयोग की गई मोटरसाइकिल को बरामद करने में सहायता कर सकते हैं।
- अनुराग के प्रकटीकरण अभिकथन के बाद पुलिस ने एक देसी पिस्तौल और रजिस्ट्रेशन नंबर HR-06-AK-7850 वाली मोटरसाइकिल बरामद की।
- याचिकाकर्त्ता के प्रकटन से एक डंडा (छड़ी) और रजिस्ट्रेशन नंबर HR-99KK-5009 वाली मोटरसाइकिल बरामद हुई।
- 27 फरवरी 2022 को सह-आरोपी साहिल उर्फ पोली को गिरफ्तार किया गया तथा उसने अनुराग को देसी पिस्तौल बेचने की बात स्वीकार की।
- 8 मार्च 2022 को CCTV फुटेज बरामद हुई जिसमें मृतक 21:27:16 पर पैदल चलता हुआ दिखाई दे रहा है, उसके बाद याचिकाकर्त्ता और अनुराग 21:38:49 पर पल्सर मोटरसाइकिल पर और संदीप उर्फ कोकी मृतक के साथ 21:38:51 पर स्प्लेंडर मोटरसाइकिल पर दिखाई दे रहे हैं।
- पोस्टमार्टम जाँच से पता चला कि मृतक को कई चोटें आईं थीं, जिनमें सिर के बाएँ हिस्से पर घाव, छाती की दीवार के बाएँ हिस्से पर चोट, गर्दन पर खरोंच के निशान और गोली लगने से हुई घातक चोट शामिल थी।
- याचिकाकर्त्ता ने जमानत के लिये आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि संस्वीकृति अभिकथनों के अतिरिक्त उसकी कोई विशेष भूमिका नहीं बताई गई है, तथा संदीप उर्फ कोकी (जिसे 28 अक्टूबर 2024 को जमानत मिली) ही CCTV फुटेज में मृतक के साथ देखा गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता का मामला संदीप उर्फ कोकी के मामले से अलग है, क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में एक कुंद हथियार (जिसे याचिकाकर्त्ता के प्रति उत्तरदायी माना गया) तथा एक बन्दूक की चोट (जिसे अनुराग के के प्रति उत्तरदायी माना गया) के कारण लगी चोटों को दर्शाया गया है।
- "लास्ट सीन" साक्ष्य के संबंध में, न्यायालय ने पाया कि दो सेकंड के अंदर CCTV फुटेज में दो मोटरसाइकिलें कैद हुई थीं - एक मोटरसाइकिल पर याचिकाकर्त्ता अनुराग के साथ थी, तथा दूसरी मोटरसाइकिल पर मृतक के साथ संदीप था, जिससे यह सिद्ध होता है कि सभी आरोपी एक साथ यात्रा कर रहे थे।
- न्यायालय ने गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान करने की आवश्यकता के संबंध में न्यायालय के तीन निर्णयों की जाँच की:
- पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2023) ने स्थापित किया कि गिरफ्तार किये गए लोगों को गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान किये जाने चाहिये।
- राम किशोर अरोड़ा बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2024) ने स्पष्ट किया कि पंकज बंसल का निर्णय 3 अक्टूबर 2023 से लागू होगा।
- प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) (2024) ने पिछले दोनों निर्णयों का समर्थन किया।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि चूँकि याचिकाकर्त्ता को पंकज बंसल निर्णय दिये जाने की तिथि 3 अक्टूबर 2023 से बहुत पहले 23 फरवरी 2022 को गिरफ्तार किया गया था - इसलिये उसे गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान करने की आवश्यकता से लाभ नहीं मिल सकता था।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि साक्ष्य एवं पूर्व विधिक निर्णयों के आधार पर याचिकाकर्त्ता जमानत का अधिकारी नहीं था।
पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2023):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान करना अनिवार्य है।
- गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान करने का अनुपालन न करने पर आरोपी व्यक्ति को तत्काल रिहा कर दिया जाएगा।
- न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई वैध कारण नहीं है कि गिरफ्तारी के लिखित आधार की एक प्रति गिरफ्तार व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से और बिना किसी अपवाद के प्रदान न की जाए।
- न्यायालय ने पाया कि गिरफ्तार व्यक्ति को केवल मौखिक रूप से गिरफ्तारी के आधार पढ़ना संविधान के अनुच्छेद 22(1) और धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 की धारा 19(1) का पर्याप्त अनुपालन नहीं है।
- निर्णय में स्पष्ट रूप से "इसके बाद" शब्द का उपयोग किया गया था, जब यह अनिवार्य किया गया था कि गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रस्तुत किये जाने चाहिये, जो भावी आवेदन को दर्शाता है।
- न्यायालय ने पिछले उच्च न्यायालयों (दिल्ली और बॉम्बे) के निर्णयों को खारिज कर दिया, जिन्होंने गिरफ्तारी के आधारों के संचार के संबंध में विपरीत स्थिति रखी थी।
- न्यायालय ने पाया कि जब गिरफ्तारी के आधार केवल मौखिक रूप से संप्रेषित किये जाते हैं, तो अधिकारी के विवरण एवं गिरफ्तार व्यक्ति की स्मृति के बीच विवाद उत्पन्न हो सकता है।
- निर्णय में यह स्थापित किया गया कि पावती के अंतर्गत लिखित आधार प्रस्तुत करने से अस्पष्टता समाप्त हो जाती है तथा संवैधानिक अधिकारों की अधिक प्रभावी ढंग से रक्षा होती है।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यह आवश्यकता गिरफ्तार व्यक्तियों को उनकी गिरफ्तारी के आधार के विषय में सूचित करने के संवैधानिक एवं सांविधिक आदेश को सही अर्थ और उद्देश्य प्रदान करती है।
गिरफ्तारी और गिरफ्तारी के लिये नोटिस, का प्रावधान क्या है?
- CrPC की धारा 41 और धारा 41 ए में क्रमशः गिरफ्तारी और पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने की सूचना का प्रावधान है। यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 35 में निहित है।
- CrPC और BNSS के बीच तुलना:
CrPC की धारा 41 और 41A |
BNSS की धारा 35 |
धारा 41: (1) कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और बिना वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है- (क) जो पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में कोई संज्ञेय अपराध कारित करता है; (ख) जिसके विरुद्ध कोई उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जिसके लिये सात वर्ष से कम या सात वर्ष तक की अवधि के कारावास से दण्डनीय है, चाहे जुर्माने सहित या बिना, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं, अर्थात्: (i) पुलिस अधिकारी के पास ऐसी शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध कारित किया है; (ii) पुलिस अधिकारी को यह विश्वास हो कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है- (a) ऐसे व्यक्ति को कोई और अपराध करने से रोकने के लिये; या (ख) अपराध की उचित जाँच के लिये; या (ग) ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्य को गायब करने या किसी भी तरीके से ऐसे साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिये; या (घ) ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वचन करने से रोकने के लिये ताकि उसे न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्यों का प्रकटन करने से रोका जा सके; या (ङ) जब तक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तब तक न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, जब भी आवश्यक हो, और पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय अपने कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा: बशर्ते कि पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में जहाँ इस उप-धारा के प्रावधानों के अंतर्गत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा। (ba) जिसके विरुद्ध विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जिसके लिये सात वर्ष से अधिक की अवधि का कारावास, चाहे वह जुर्माने सहित हो या रहित, या मृत्युदण्ड हो सकता है और पुलिस अधिकारी के पास उस सूचना के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है; (ग) जिसे इस संहिता के अधीन या राज्य सरकार के आदेश द्वारा अपराधी घोषित किया गया है; या (घ) जिसके कब्जे में कोई ऐसी वस्तु पाई जाती है, जिसके चोरी की संपत्ति होने का उचित संदेह हो और जिसके विषय में उचित संदेह हो कि उसने ऐसी वस्तु के संदर्भ में कोई अपराध किया है; या (ङ) जो किसी पुलिस अधिकारी को उसके कर्त्तव्य के निष्पादन में बाधा डालता है, या जो विधिपूर्ण अभिरक्षा से भाग निकला है, या भागने का प्रयास करता है; या (च) जिसके विषय में उचित संदेह है कि वह संघ के किसी सशस्त्र बल का भगोड़ा है; या (छ) जो भारत से बाहर किसी स्थान पर किये गए किसी ऐसे कार्य में संलिप्त रहा है या जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह विद्यमान है, जो यदि भारत में किया जाता तो अपराध के रूप में दण्डनीय होता और जिसके लिये वह प्रत्यर्पण से संबंधित किसी कानून के अधीन या अन्यथा भारत में पकड़ा जा सकता है या अभिरक्षा में रखा जा सकता है; या (ज) जो रिहा किया गया दोषी होते हुए धारा 356 की उपधारा (5) के अधीन बनाए गए किसी नियम का उल्लंघन करता है; या (i) जिसकी गिरफ्तारी के लिये किसी अन्य पुलिस अधिकारी से लिखित या मौखिक अध्यपेक्षा प्राप्त हुई है, परन्तु अध्यपेक्षा में गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति तथा उस अपराध या अन्य कारण का उल्लेख हो जिसके लिये गिरफ्तारी की जानी है और उससे यह प्रतीत होता है कि अध्यपेक्षा जारी करने वाले अधिकारी द्वारा उस व्यक्ति को बिना वारंट के विधिपूर्वक गिरफ्तार किया जा सकता है। |
धारा 35: (1) कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और वारंट के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है- (क) जो पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में कोई संज्ञेय अपराध करता है; या (ख) जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जिसके लिये कारावास की अवधि सात वर्ष से कम या सात वर्ष तक की हो सकती है, चाहे जुर्माने के साथ हो या बिना, दण्डनीय है, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं, अर्थात:- (i) पुलिस अधिकारी के पास ऐसी शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है; (ii) पुलिस अधिकारी को यह विश्वास है कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है- (क) ऐसे व्यक्ति को कोई और अपराध करने से रोकने के लिये; या (ख) अपराध की उचित जाँच के लिये; या (ग) ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्य को गायब करने या किसी भी तरह से ऐसे साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिये; या (घ) ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वादा करने से रोकने के लिये ताकि वह ऐसे तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रकट करने से विमुख हो जाए; या (ङ) चूँकि ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार किये बिना, जब भी आवश्यक हो, न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, और पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय अपने कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा: बशर्ते कि पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में जहाँ इस उपधारा के प्रावधानों के तहत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा; या (ग) जिसके विरुद्ध विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जिसके लिये सात वर्ष से अधिक की अवधि का कारावास, चाहे वह जुर्माने सहित हो या रहित, या मृत्युदण्ड हो सकता है और पुलिस अधिकारी के पास उस सूचना के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है; या (घ) जिसे इस संहिता के अधीन या राज्य सरकार के आदेश द्वारा अपराधी घोषित किया गया है; या (ङ) जिसके कब्जे में कोई ऐसी वस्तु पाई गई है जिसके चोरी की संपत्ति होने का उचित संदेह है और जिसके विषय में उचित संदेह है कि उसने ऐसी वस्तु के संदर्भ में कोई अपराध किया है; या (च) जो किसी पुलिस अधिकारी को उसके कर्त्तव्य के निष्पादन में बाधा डालता है, या जो विधिपूर्ण अभिरक्षा से भाग निकला है, या भागने का प्रयास करता है; या (छ) जिसके विषय में उचित रूप से संदेह है कि वह संघ के किसी सशस्त्र बल का भगोड़ा है; या (ज) जो भारत के बाहर किसी स्थान पर किये गए किसी ऐसे कार्य में संलिप्त रहा है या जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह विद्यमान है, जो यदि भारत में किया जाता तो अपराध के रूप में दण्डनीय होता और जिसके लिये वह प्रत्यर्पण से संबंधित किसी विधि के अधीन या अन्यथा भारत में पकड़ा जा सकता है या अभिरक्षा में रखा जा सकता है; या (झ) जो रिहा किया गया सिद्धदोष होते हुए धारा 394 की उपधारा (5) के अधीन बनाए गए किसी नियम का उल्लंघन करता है; या (ञ) जिसकी गिरफ्तारी के लिये किसी अन्य पुलिस अधिकारी से लिखित या मौखिक कोई अध्यपेक्षा प्राप्त हुई है, बशर्ते कि अध्यपेक्षा में गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति और वह अपराध या अन्य कारण निर्दिष्ट हो जिसके लिये गिरफ्तारी की जानी है और उससे यह प्रतीत होता है कि अध्यपेक्षा जारी करने वाले अधिकारी द्वारा उस व्यक्ति को बिना वारंट के विधिपूर्वक गिरफ्तार किया जा सकता है। |
(2) धारा 42 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी असंज्ञेय अपराध से संबंधित व्यक्ति या जिसके विरुद्ध कोई शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उसके ऐसा संबंधित होने का उचित संदेह है, को मजिस्ट्रेट के वारंट या आदेश के सिवाय गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, अन्यथा नहीं। |
(2) धारा 39 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी असंज्ञेय अपराध से संबद्ध किसी व्यक्ति को या जिसके विरुद्ध कोई शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उसके ऐसे संबद्ध होने का उचित संदेह है, मजिस्ट्रेट के वारंट या आदेश के अधीन ही गिरफ्तार किया जाएगा, अन्यथा नहीं। |
धारा 41 A: (1) पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ धारा 41 की उपधारा (1) के उपबंधों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, नोटिस जारी करके उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, उसके समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा नोटिस में विनिर्दिष्ट किया जाए, उपस्थित होने का निर्देश देगा। |
(3) पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ उपधारा (1) के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, नोटिस जारी करेगा जिसमें उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, उसके समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा नोटिस में विनिर्दिष्ट किया जाए, उपस्थित होने का निर्देश दिया जाएगा। |
(2) जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसा नोटिस जारी किया जाता है, वहाँ उस व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह नोटिस की शर्तों का पालन करे। (3) जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है और अनुपालन करना जारी रखता है, उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक कि रिकॉर्ड किये जाने वाले कारणों से पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये। (4) जहाँ ऐसा व्यक्ति किसी भी समय नोटिस की शर्तों का अनुपालन करने में विफल रहता है या अपनी पहचान बताने के लिये तैयार नहीं है, वहाँ पुलिस अधिकारी, इस संबंध में सक्षम न्यायालय द्वारा पारित किये गए ऐसे आदेशों के अधीन रहते हुए, उसे नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिये गिरफ्तार कर सकता है। |
(4) जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसा नोटिस जारी किया जाता है, वहाँ उस व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह नोटिस की शर्तों का पालन करे। |
(5) जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है और अनुपालन करना जारी रखता है, उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक कि दर्ज किये जाने वाले कारणों से पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये। (6) जहाँ ऐसा व्यक्ति किसी भी समय नोटिस की शर्तों का अनुपालन करने में विफल रहता है या अपनी पहचान बताने के लिये तैयार नहीं है, तो पुलिस अधिकारी, इस संबंध में सक्षम न्यायालय द्वारा पारित ऐसे आदेशों के अधीन रहते हुए, नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिये उसे गिरफ्तार कर सकता है। (7) ऐसे अपराध के मामले में पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जाएगी, जो तीन वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय है और ऐसा व्यक्ति अशक्त है या साठ वर्ष से अधिक आयु का है। |
- यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि CrPC के अधीन पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने के लिये नोटिस धारा 41 A में निहित है और गिरफ्तारी के आधार धारा 41 में उल्लिखित हैं।
- हालाँकि, BNSS के अंतर्गत इन दोनों प्रावधानों को BNSS की धारा 35 के अंतर्गत समाहित कर दिया गया है। धारा 35 (7) के रूप में एक नया प्रावधान जोड़ा गया है।
- BNSS की धारा 35 (7) में प्रावधान है कि पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जाएगी:
- इस अपराध के लिये तीन वर्ष से कम की सजा का प्रावधान है; तथा
- ऐसा व्यक्ति अशक्त हो या उसकी आयु साठ वर्ष से अधिक हो।