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आपराधिक कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन कार्यवाही में शारीरिक उपस्थिति अनिवार्य नहीं है

 24-Feb-2025

विशाल शाह बनाम मोनालिशा गुप्ता एवं अन्य 

हम यह अवलोकन कर सकते हैं कि घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन कार्यवाही अर्ध-आपराधिक प्रकृति की है, इसलिये इन कार्यवाहियों में अपीलार्थी की शारीरिक उपस्थिति की आवश्यकता का कोई औचित्य नहीं हो सकता है।” 

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की कार्यवाही के मामले में शारीरिक उपस्थिति महत्त्वपूर्ण  नहीं है। 

  • हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने विशाल शाह बनाम मोनालिशा गुप्ता और अन्य (2025) के मामले में यह धारित किया 

विशाल शाह बनाम मोनालिशा गुप्ता और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • विशाल शाह (अपीलार्थी) और मोनालिशा गुप्ता (प्रत्यर्थी ) ने 19 फरवरी 2018 को हिंदू रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों के साथ विवाह किया। 
  • मार्च 2018 में, दंपति संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए, जहाँ अपीलार्थी  2014 से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम कर रहा था। 
  • विवाह में प्रायः तत्काल ही समस्याएँ आने लगीं। 23 मार्च 2018 को, अपीलार्थी  ने स्थानीय अमेरिकी पुलिस को घरेलू दुर्व्यवहार की घटना की सूचना दी, जिसमें उसके चेहरे पर स्पष्ट चोटें दिखाई दे रही थीं। उसने अनुरोध किया कि उसकी पत्नी को केवल चेतावनी दी जाए। 
  • 2 अप्रैल 2018 को एक और घटना घटी, जिसमें मोनालिशा ने कथित तौर पर अपीलार्थी  के चेहरे को खरोंच दिया, जिससे उसे काफी चोटें आईं। इसके कारण उस पर अमेरिका में द्वितीय डिग्री के हमले का आरोप लगाया गया। 
  • विवाह के मात्र 80 दिन पश्चात्, अपने मतभेदों के कारण दंपति भारत लौट आए। जब ​​अमेरिका लौटने का समय आया, तो प्रत्यर्थी  ने अपीलार्थी के साथ वापस जाने से इंकार कर दिया। 
  • अपीलार्थी अकेले ही अमेरिका लौट आया। इस दम्पति की कोई संतान नहीं है। 
  • 2018 और 2020 के बीच, प्रत्यर्थी अपीलार्थी की माँ गायत्री शाह के साथ एक ही घर में रहती थी 
  • 14 सितंबर 2020 को गायत्री शाह अपनी बेटी के साथ रहने के लिये अपना घर छोड़कर चली गईं, उनका दावा था कि प्रत्यर्थी द्वारा शारीरिक और मानसिक यातना के कारण उन्हें घर छोड़ने के लिये विवश होना पड़ा। 
  • अपीलार्थी के विरुद्ध दर्ज विभिन्न मामलों के कारण 3 अक्टूबर 2018 को भारतीय अधिकारियों ने उनका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया था। 
  • वर्तमान में, प्रत्यर्थी  कोलकाता में PwC में एक शोध विशेषज्ञ के रूप में काम करती है, जहाँ उसे ₹50,000 प्रति माह मिलते हैं। जबकि विशाल 2018 में ₹8 लाख प्रति माह कमा रहा था, उसका दावा है कि वह वर्तमान में बेरोजगार है। 
  • दोनों पक्षों ने एक-दूसरे और उनके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध मुजफ्फरपुर (बिहार), हावड़ा (पश्चिम बंगाल) और संयुक्त राज्य अमेरिका के विभिन्न न्यायालयों में कई मामले दर्ज किये हैं। 
  • विचारण न्यायालय (न्यायिक मजिस्ट्रेट, हावड़ा): 
    • न्यायालय  ने पाया कि अपीलार्थी का पासपोर्ट 3 अक्टूबर, 2018 को भारत सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिया गया था। 
    • जब अपीलार्थी  ने रिट याचिका के माध्यम से अपने पासपोर्ट की ज़ब्तगी को चुनौती दी तो उसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। 
    • ज़ब्त किये गए पासपोर्ट के बारे में जानने के बावजूद, विचारण न्यायालय ने घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005 की धारा 26 के अधीन  दायर मुकदमे में अपीलार्थी  की गैर-हाज़िरी के लिये उसके विरुद्ध प्रत्यर्पण कार्यवाही शुरू करने का आदेश दिया। 
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय 
    • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी  की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को बिना किसी स्पष्ट आदेश के खारिज कर दिया। 
    • उच्च न्यायालय ने बिना दोषिता का परिक्षण किये या विस्तृत तर्क दिए, केवल इतना कहा कि हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं बनता। 
  • इसी से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है। 

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की कि: 
    • विचारण न्यायालय के आदेश पर: 
      • विचारण न्यायालय  ने अपीलकर्ता की शारीरिक  उपस्थिति की आवश्यकता के मामले में बड़ी भूल की है, क्योंकि  घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम की कार्यवाही अर्ध-आपराधिक प्रकृति की है, ऐसी कार्यवाहियों का कोई दंडात्मक परिणाम नहीं होता है, सिवाय इसके कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अधीन संरक्षण आदेश का उल्लंघन हुआ हो। 
      • प्रत्यर्पण आदेश अस्थिर था, क्योंकि अपीलार्थी  की गैर-उपस्थिति उसके जब्त पासपोर्ट के कारण थी। 
      • विचारण न्यायालय अपीलार्थी  के नियंत्रण से परे परिस्थितियों पर विचार करने में विफल रहा। 
    • उच्च न्यायालय के आदेश पर: 
      • उच्च न्यायालय को मामले के अभिलेख का अधिक गहनता से परिक्षण किया जाना चाहिए था 
      • बिना किसी स्पष्ट आदेश के, दोषिता को ध्यान में रखते हुए एक तर्कसंगत निर्णय की अपेक्षा थी। 
    • विवाह-भंग पर : 
      • केवल 80 दिनों तक साथ रहने के पश्चात्, विवाह कभी भी पूर्ण रूप से नहीं चल पाया 
      • दोनों पक्षों द्वारा दायर कई मुकदमों ने उनके प्रतिशोधी रवैये को दर्शाया। 
      • दोनों पक्षों के बीच कोई सार्थक दांपत्य संबंध विकसित नहीं हुआ। 
      •  पृथक्करण और सुलह का असफल प्रयास एक असमाधेय भंग-विवाह  साबित हुआ 
    • पासपोर्ट जब्त करने पर: 
      • न्यायालय ने इसे "प्रथम-दृष्टया अवैध" कहा क्योंकि यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। 
      • इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि जब्त करने से पहले अपीलार्थी  को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया। 
      • इसके अतिरिक्त, यह माना गया कि केवल मामले दर्ज करना पासपोर्ट जब्त करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है। 
    • स्थायी निर्वाह-व्यय पर विचार किये जाने वाले अन्य कारक इस प्रकार हैं: 
      • विवाह के दौरान जीवन स्तर। 
      • पृथक्करण की अवधि। 
      • दोनों पक्षों की वित्तीय प्रस्थिति। 
      • 25 लाख रुपये को उचित और युक्तियुक्त समझौता माना। 

उच्चतम न्यायालय ने अंततः पाया कि यह असमाधेय भंग-विवाह का एक उत्कृष्ट मामला है, जिसके लिये भारत के संविधान के अनुच्छेद 142(1) के अधीन  शक्तियों का प्रयोग करना आवश्यक है। 

संरक्षण आदेश का उल्लंघन क्या है? 

  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम की धारा 31 में कहा गया है कि प्रत्यर्थी  द्वारा संरक्षण आदेश या अंतरिम संरक्षण आदेश का भंग इस अधिनियम के अधीन अपराध माना जाएगा। 
    • वह किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो बीस हजार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डनीय होगा। 
  •  धारा 31 की उपधारा (1) के अधीन अपराध का विचारण, यथासाध्य उस मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा जिसने आदेश पारित किया था, जिसका भंग अभियुक्त द्वारा कारित किया जाना अभिकथित किया गया है। 
  • उपधारा (1) के अधीन आरोप विरचित करते समय, मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 498 या उस संहिता के किसी अन्य उपबंध या दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961, के अधीन भी आरोप विरचित कर सकेगा, यदि तथ्यों से यह प्रकट होता है कि उन उपबंधों के अधीन कोई अपराध हुआ है 

सिविल कानून

विधिक बंधक और साम्यिक बंधक के बीच अंतर

 24-Feb-2025

कॉसमॉस को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और अन्य 

चूंकि ऐसा बंधक एक ‘साम्यिक बंधक’ है, इसलिये ऐसे बंधकों से प्राप्त होने वाले कोई भी अधिकार केवल व्यक्तिगत प्रकृति के होते हैं और केवल व्यक्तिगत अधिकार (Rights in Personam) होते हैं और इस प्रकार, ये अधिकार किसी अजनबी या बाद के भारग्रस्त (Subsequent Incumbrancer) व्यक्ति के विरुद्ध कार्य नहीं करेंगे।” 

न्यायमूर्ति जे.बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति जे.बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि विक्रय के लिये अपंजीकृत करार को जमा करके बनाया गया बंधक, हक़ विलेखों को जमा करके बनाए गए बंधक पर प्रभावी नहीं होगा। 

  • उच्चतम न्यायालय ने कॉसमॉस को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया 

कॉसमॉस को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • वर्तमान तथ्यों में दो बैंक (बंधक) थे जिन्होंने फ्लैट खरीदने के लिये उधारकर्ताओं को ऋण दिया था। 
  • सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (प्रतिवादी संख्या 1) ने एक अपंजीकृत विक्रय करार के आधार पर ऋण दिया, जिसे प्रतिभूति (साम्य बंधक) के रूप में जमा किया गया था। 
  • कॉसमॉस को-ऑपरेटिव बैंक (अपीलकर्त्ता) ने भी प्रतिभूति (विधिक बंधक) के रूप में शेयर प्रमाणपत्र (हक़ विलेख) के साथ ऋण प्रदान किया 
  • इस मामले में उच्च न्यायालय ने विधिक बंधक की तुलना में साम्यिक बंधक को प्राथमिकता दी। 
  • अपीलकर्त्ता ने निम्नलिखित आधारों पर निर्णय को चुनौती दी: 
    • एक साम्यिक बंधक को विधिक बंधक पर प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिये, क्योंकि विधिक बंधक के पास श्रेष्ठ अधिकार होते हैं। 
    • एक अपंजीकृत विक्रय करार वैध बंधक नहीं बनाता है क्योंकि यह शीर्षक अंतरित नहीं करता है, जिससे बंधक अमान्य हो जाता है। 
  • इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय को इस बात पर विचार करना था कि क्या उच्च न्यायालय ने केवल इसके पूर्व निर्माण के आधार पर साम्यिक बंधक को प्राथमिकता देने में कोई गलती की थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं: 
    • विधिक बंधक, साम्यिक बंधक पर प्रबल होता है: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक अपंजीकृत विक्रय करार (साम्यिक बंधक) के जमा द्वारा बनाया गया बंधक, हक़ विलेख (विधिक बंधक) के जमा द्वारा बनाए गए बंधक के अधीन होता है। 
    • विक्रय के लिये करार द्वारा कोई हित सृजित नहीं होता: संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 54 का हवाला देते हुए, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि विक्रय के लिये करार से संपत्ति पर कोई हित या भार सृजित नहीं होता है।  
    • साम्यिक बंधक केवल व्यक्तिगत अधिकार है: न्यायालय ने कहा कि साम्यिक बंधक केवल सम्मिलित पक्षकारों को बांधता है और तीसरे पक्ष या पाश्चिक के बंधकदारों के विरुद्ध प्रवर्तनीय अधिकार का सृजन नहीं करता है। 
    • संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 78 का अनुप्रयोग: प्रतिवादी बैंक (सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया) साम्यिक बंधक के लिये लोक सूचना जारी करने या दस्तावेज़ बनाने में विफल रहा, जिसके कारण प्राथमिकता में इसका स्थगन हुआ। 
    • विधिक बंधक प्रत्यक्ष भार बनाता है: एक साम्यिक बंधक के विपरीत, एक विधिक बंधक संपत्ति पर प्रत्यक्ष भार सृजित करता है और ऋणदाता को एक मालिकाना हित अंतरित करता है, जिससे यह अधिकार के रूप में प्रवर्तनीय हो जाता है।  
    • बंधक के लिये आंशिक-विलेखों का जमा होना अपर्याप्त है: आंग्ल विधि के विपरीत, भारतीय विधि (संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 58 (ड.) के अधीन, एक साम्यिक बंधक के लिये पूर्ण हक़ विलेख की आवश्यकता होती है, जब तक कि सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद वह उपलब्ध न हो।  
    • अंतिम निर्णय: कॉसमॉस को-ऑपरेटिव बैंक (अपीलकर्त्ता) द्वारा शेयर प्रमाणपत्रों के जमा के माध्यम से बनाए गए विधिक बंधक को प्राथमिकता दी गई, और साम्यिक बंधक के पक्ष में उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया गया। अपीलकर्त्ता के पक्ष में अपील की अनुमति दी गई।  

विधिक बंधक और साम्यिक बंधक के बीच क्या अंतर है 

  • साम्यिक बंधक:  
    • यह तब बनाया जाता है जब बंधक रखने का आशय होता है किंतु संपत्ति पर कोई विधिक भार नहीं सृजित किया जाता है।  
    • यह अपूर्ण हक़ विलेखों या विक्रय के लिये करार जैसे दस्तावेज़ों को जमा करके सृजित किया जाता है।  
    • यह व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है, जिसका अर्थ है कि यह केवल सम्मिलित पक्षकारों को ही बांधता है, तीसरे पक्ष को नहीं। 
    • हक़ या स्वामित्व का कोई वास्तविक अंतरण नहीं होता, केवल दस्तावेज़ ही ऋणदाता द्वारा रखे जाते हैं। 
    • प्राथमिकता नियम: पहले के साम्यिक बंधकों को बाद के बंधकों पर प्राथमिकता मिल सकती है, किंतु विधिक बंधक पर नहीं। 
  • विधिक बंधक: 
    • यह संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 58(च) के अधीन एक औपचारिक बंधक विलेख या हक़ विलेखों के जमा द्वारा सृजित किया जाता है। 
    • यह संपत्ति पर प्रत्यक्ष रूप से भार सृजित करता है, जिससे ऋणदाता को संपत्ति के विरुद्ध प्रवर्तनीय अधिकार प्राप्त होता है।  
    • भले ही कब्ज़ा या स्वामित्व उधारकर्ता के पास रहता है, ऋणदाता व्यतिक्रम के मामले में कब्जे, पुरोबंध या विक्रय के अधिकार बरकरार रखता है। 
    • यह एक साम्यिक बंधक (Equitable Mortgage) की तुलना में अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि यह एक प्रवर्तनीय मालिकाना हित प्रदान करता है।