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आपराधिक कानून
चोरी की संपत्ति पर कब्ज़ा
26-Feb-2025
हीरालाल बाबूलाल सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य “एक बार जब निचले न्यायालयों ने पाया कि जब्त की गई सोने की छड़ें, वही सोने छड़ें नहीं हैं, तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 411 के अधीन दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती।” न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 411 (भारतीय न्याय संहिता की धारा 317) के अधीन चोरी की गई संपत्ति पर कब्ज़े के संबंध में विधि निर्धारित की।
- उच्चतम न्यायालय ने हीरालाल बाबूलाल सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया।
हीरालाल बाबूलाल सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) वाद की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला फर्जी टेलीग्राफिक ट्रांसफर के माध्यम से कपट और उसके पश्चात् विजया बैंक, नासिक शाखा, महाराष्ट्र में 6,70,00,000/- रुपए के निकासी से संबंधित था।
- 6 फरवरी 1997 को कूटरचित दस्तावेज़ों का प्रयोग करके ग्लोब इंटरनेशनल नामक एक काल्पनिक फर्म के लिये एक बैंक खाता खोला गया था।
- अप्रैल और अगस्त 1997 के बीच, इस खाते में कुल 6,70,00,000/- रु. के कई कपटपूर्ण वाले टेलीग्राफिक ट्रांसफर इस खाते में जमा किये गए और बाद में निकाल लिये गए।
- केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने पाया कि अधिकांश डिमांड ड्राफ्ट मेसर्स चेनाजी नरसिंहजी (M/s. CN) को सोने की छड़ें खरीदने के लिये जारी किये गए थे, जिन्हें अभियुक्त नंबर 3 (नंदकुमार बाबूलाल सोनी) को सौंप दिया गया था।
- 1 जून 2001 को, अभियुक्त नंबर 3 की दुकान की तलाशी में 205 सोने की छड़ें और अन्य दस्तावेज जब्त किये गए।
- विचारण न्यायालय ने अभियुक्त नंबर 1 (एस.के. शीनप्पा राय), 2 (देवदास शेट्टी) और 3 (नंदकुमार बाबूलाल सोनी) को विभिन्न अपराधों के लिये दोषी ठहराया, किंतु निर्देश दिया कि 205 सोने की छड़ें अभियुक्त नंबर 3 को वापस कर दी जाएं।
- उच्च न्यायालय ने अभियुक्त नंबर 1 और 2 की दोषसिद्धि को पलट दिया, किंतु अभियुक्त नंबर 3 की दोषसिद्धि को बरकरार रखा। न्यायालय ने अभियुक्त नंबर 3 को सोने की छड़ें वापस करने के विचारण न्यायालय के आदेश को भी रद्द कर दिया और उन्हें जब्त करने का आदेश दिया।
- बाद में अभियुक्त नंबर 3 ने अपनी दोषसिद्धि को चुनौती देते हुए और सोने की छड़ें वापस करने की मांग करते हुए आपराधिक अपील दायर की, और हीरालाल बाबूलाल सोनी और विजया बैंक ने भी सोने की छड़ें वापस करने की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- वर्तमान तथ्यों में अभियोजन पक्ष ने अपराध के घटित होने को सिद्ध करने के लिये भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 411 (भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 317) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 106 (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 109) का सहारा लिया।
- इस मामले में अपीलकर्त्ता/अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत बचाव यह था कि:
- सबसे पहले, संपत्ति का पता लगाने में चार वर्ष का विलंब हुआ।
- दूसरे, अपीलकर्त्ता/अभियुक्त स्वयं जौहरी है।
- तीसरे, चिह्नों में अंतर के कारण सोने की छड़ें चोरी की संपत्ति साबित नहीं होती हैं।
- न्यायालय ने पाया कि मामले के तथ्यों में अभियोजन पक्ष जब्त किये गए सोने की पहचान साबित करने में असफल रहा है, क्योंकि यह वही सोना है जिसे मेसर्स सीएन ने मेसर्स ग्लोब इंटरनेशनल को विक्रय किया था।
- इसके अतिरिक्त, यह कहा गया कि संपत्ति की बरामदगी में 4 वर्ष के विलंब के कारण पहचान का आधार ही ध्वस्त हो गया था और इसलिये गलत पहचान की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी देखा कि वर्तमान मामले के तथ्यों में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 को लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि अभियोजन पक्ष अपने प्रारंभिक दायित्त्व का निर्वहन करने में असफल रहा है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के संबंध में न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 केवल तभी लागू होती है जब अभियोजन पक्ष उन तथ्यों को स्थापित करने में सक्षम होता है जिनसे एक उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुछ तथ्य हैं जो विशेष रूप से अभियुक्त के ज्ञान में हैं।
- जहाँ मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित है, यदि अभियुक्त भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के अधीन भार के निर्वहन में उचित स्पष्टीकरण देने में असफल रहता है, तो ऐसी असफलता परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की श्रृंखला में एक अतिरिक्त कड़ी प्रदान कर सकती है।
- यद्यपि, न्यायालय ने कहा कि वर्तमान तथ्यों में इस प्रावधान को लागू नहीं किया जा सकता है।
- इसलिये, न्यायालय ने कहा कि जब्त की गई संपत्ति की चोरी की संपत्ति होने की पहचान स्थापित नहीं हुई है और इसलिये विजया बैंक द्वारा प्रस्तुत अपील खारिज कर दी गई।
- इसलिये, न्यायालय ने सोना वापस करने की मांग करने वाली हीरालाल बाबूलाल सोनी की अपील को खारिज कर दिया।
चोरी की संपत्ति रखने का अपराध क्या है?
- चुराई हुई संपत्ति का अपराध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 410 में सम्मिलित था। यह अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 317 में सम्मिलित है।
- दोनों उपबंधों का तुलनात्मक विश्लेषण इस प्रकार है
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 |
भारतीय न्याय संहिता, 2023 |
धारा 410: चुराई हुई संपत्ति- वह संपत्ति, जिसका कब्ज़ा चोरी द्वारा, या उद्दापन द्वारा या लूट द्वारा अंतरित किया गया है, और वह संपत्ति, जिसका आपराधिक दुर्विनयोग किया गया है, या जिसके विषय में आपराधिक न्यासभंग किया गया है “चुराई हुई संपत्ति” कहलाती है, चाहे वह अंतरण या वह दुर्विनियोग या न्यासभंग भारत के भीतर किया गया हो या बाहर। किंतु यदि ऐसी संपत्ति तत्पश्चात् ऐसे व्यक्ति के कब्जे में पहुँच जाती है, जो उसके कब्जे के लिये वैध रूप से हकदार है, तो वह चुराई हुई संपत्ति नहीं रह जाती। |
धारा 317 (1): वह संपत्ति, जिसका कब्ज़ा चोरी द्वारा, या उद्दापन द्वारा या लूट द्वारा अंतरित किया गया है, और वह संपत्ति, जिसका आपराधिक दुर्विनयोग किया गया है, या जिसके विषय में आपराधिक न्यासभंग किया गया है “चुराई हुई संपत्ति” कहलाती है, चाहे वह अंतरण या वह दुर्विनियोग या न्यासभंग भारत के भीतर किया गया हो या बाहर, किंतु यदि ऐसी संपत्ति तत्पश्चात् ऐसे व्यक्ति के कब्जे में पहुँच जाती है, जो उसके कब्जे के लिये वैध रूप से हकदार है, तो वह चुराई हुई संपत्ति नहीं रह जाती। |
धारा 411: चुराई हुई संपत्ति को बेईमानी से प्राप्त करना – जो कोई भी किसी चुराई हुई संपत्ति को, यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए कि वह चुराई हुई संपत्ति है, बेईमानी से प्राप्त करेगा, या रखेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा। |
धारा 317 (2):
जो कोई भी किसी चुराई हुई संपत्ति को, यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए कि वह चुराई हुई संपत्ति है, बेईमानी से प्राप्त करेगा, या रखेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा। |
धारा 412: डकैती के दौरान चुराई गई संपत्ति को बेईमानी से प्राप्त करना - जो कोई ऐसी चुराई हुई संपत्ति को बेईमानी से प्राप्त करेगा या रखेगा, जिसके कब्जे के विषय में वह यह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह डकैती द्वारा अंतरित की गई है, अथवा किसी ऐसे व्यक्ति से, जिसके संबंध में वह यह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह डाकुओं की टोली का है या रहा है, ऐसी संपत्ति, जिसके विषय में वह यह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि चुराई हुई है, बेईमानी से प्राप्त करेगा, वह आजीवन कारावास से, या कठिन कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा, और जुर्माने से भी, दण्डनीय होगा। |
धारा 317 (3): जो कोई ऐसी चुराई गई संपत्ति को बेईमानी से प्राप्त करेगा या रखे रहेगा, जिसके कब्जे के विषय में वह यह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह डकैती द्वारा अंतरित की गई है, अथवा किसी ऐसे व्यक्ति से, जिसके संबंध में वह यह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह डाकुओं की टोली का है या रहा है, ऐसी संपत्ति, जिसके विषय में वह यह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है कि चुराई हुई है, बेईमानी से प्राप्त करेगा, वह आजीवन कारावास से, या कठिन कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा, और जुर्माने का भी, दायी होगा। |
धारा 413: चुराई हुई संपत्ति का अभ्यासतः व्यापार करना- जो कोई ऐसी संपत्ति, जिसके संबंध में, वह यह जानता है, या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह चुराई हुई संपत्ति है, अभ्यासतः प्राप्त करेगा, अभ्यासतः उसमें व्यवहार करेगा वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा। |
धारा 317 (4): जो कोई ऐसी संपत्ति, जिसके संबंध में, वह यह जानता है, या विश्वास करने का कारण रखता है कि वह चुराई हुई संपत्ति है, अभ्यासतः प्राप्त करेगा, अभ्यासतः उसमें व्यवहार करेगा वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से का भी दायी होगा। |
धारा 414: चुराई हुई संपत्ति का अभ्यासत: व्यापार करना- जो कोई ऐसी संपत्ति को छिपाने में, या व्ययनित करने में, या इधर-उधर करने में स्वेच्छया सहायता करेगा, जिसके विषय में वह यह जानता है या वश्वास करने का कारण रखता है कि वह चुराई हुई संपत्ति है, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा |
धारा 317 (5):
जो कोई ऐसी संपत्ति को छिपाने में, या व्ययनित करने में, या इधर-उधर करने में स्वेच्छया सहायता करेगा, जिसके विषय में वह यह जानता है या वश्वास करने का कारण रखता है कि वह चुराई हुई संपत्ति है, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा |
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 411 के अधीन आरोप साबित करने के लिये अभियोजन पक्ष का यह कर्त्तव्य है कि वह साबित करे कि
- चोरी की गई संपत्ति अभियुक्त के कब्जे में थी।
- अभियुक्त के कब्जे में आने से पूर्व अभियुक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य लोगों के पास संपत्ति थी।
- अभियुक्त को ज्ञात था कि संपत्ति चुराई हुई संपत्ति है।
आपराधिक कानून
लोक सेवक पर अभियोजन चलाने की मंजूरी
26-Feb-2025
डॉ. डिट्टो टॉम पी. बनाम केरल राज्य “दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 218, लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 19 के साथ 21 के लिये कोई आवेदन नहीं करेगी।” न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 [या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023, (BNSS) की धारा 218] के अधीन अपराधों के लिये लोक सेवक पर अभियोजन चलाने के लिये मंजूरी अनिवार्य नहीं है।
- केरल उच्च न्यायालय ने डॉ. डिट्टो टॉम पी. बनाम केरल राज्य (2025) के मामले में यह माना है।
डॉ. डिट्टो टॉम पी. बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 48 वर्षीय डॉ. डिट्टो टॉम पी (याचिकाकर्त्ता) से जुड़ा है, जो एक आपराधिक मामले में दूसरे अभियुक्त हैं और इस कार्यवाही में पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता हैं।
- प्राथमिक घटना में 13 वर्ष की एक अवयस्क लड़की शामिल है, जिस पर 2 अक्टूबर और 19 अक्टूबर 2020 को विधि से संघर्षरत एक बालक द्वारा गंभीर लैंगिक उत्पीड़न किया गया, जिसके परिणामस्वरूप वह गर्भवती हो गई।
- पहले, तीसरे और चौथे अभियुक्त को कथित तौर पर इस लैंगिक उत्पीड़न के बारे में जानकारी थी, किंतु उन्होंने अधिकारियों को इसकी सूचना नहीं दी और कथित तौर पर सबूत मिटाने के लिये गर्भपात कराने में भाग लिया।
- डॉ. डिट्टो टॉम पी (दूसरे अभियुक्त) ने पीड़िता का इलाज किया। 25 नवंबर की यात्रा के दौरान, उन्हें कथित तौर पर गर्भ और अंतर्निहित लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) अपराध के बारे में पता चला।
- शुरू में, जब पीड़िता और उसकी माँ याचिकाकर्त्ता से मिलने गईं, तो उन्होंने मासिक धर्म के साथ एक समस्या की सूचना दी। बाद में, माँ ने डॉक्टर को बताया कि लड़की गर्भवती थी और गर्भपात के लिये होम्योपैथिक दवा ले रही थी।
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अपराध के बारे में जानकारी होने के बावजूद, याचिकाकर्त्ता कथित तौर पर विधि के अनुसार पुलिस को सूचित करने में विफल रहा।
- याचिकाकर्त्ता पर लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) अधिनियम की धारा 21(1) के साथ धारा 19(1) के अधीन लैंगिक अपराध के बारे में जानकारी होने के बावजूद रिपोर्ट करने में विफल रहने का आरोप लगाया गया था।
- याचिकाकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 के अधीन उन्मुक्ति के लिये एक आवेदन दायर किया, जिसे विशेष न्यायाधीश ने खारिज कर दिया, जिसके कारण यह पुनरीक्षण याचिका दायर की गई।
- यह मामला एक विधिक प्रश्न उठाता है कि क्या लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) के अपराधों के अभियुक्त सरकारी कर्मचारी को अभियोजन के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के अधीन मंजूरी की आवश्यकता होती है।
- विचारण न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता की दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 के अधीन उन्मुक्त करने की अर्जी खारिज कर दी।
- विचारण न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष की सामग्री ने डॉ. डिट्टो टॉम के विरुद्ध धारा 19(1) के साथ लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) की धारा 21(1) के अधीन प्रथम दृष्टया मामला स्थापित किया है, जिसके आधार पर आरोप तय किये जाने और विचारण करने की आवश्यकता है।
- विचारण न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान पुनरीक्षण याचिका दायर की है।
अदालत की टिप्पणियाँ क्या थीं?
केरल उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- अभियोजन के लिये मंजूरी के प्रश्न पर:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 (या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 218) के अधीन मंजूरी लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 19 के साथ पठित धारा 21 के अधीन अपराधों के लिये लोक सेवक पर अभियोजन चलाने के लिये अनिवार्य नहीं है।
- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 19 में गैर-बाधा खण्ड विशेष रूप से दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबंधों को बाहर करता है, जिससे मंजूरी की आवश्यकता लागू नहीं होती है।
- न्यायालय ने तर्क दिया कि जब कोई विधि किसी लोक सेवक पर कोई कर्त्तव्य अधिरोपित करती है, और उस कर्त्तव्य का लोप धारा 21 के साथ पठित धारा 19(1) और (2) के अधीन लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत आता है, तो गैर-बाधा खण्ड धारा 197 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन को बाहर करता है।
- याचिकाकर्ता के आपराधिक दायित्त्व पर:
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता को लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अपराध के बारे में 25 नवंबर 2020 को जानकारी मिली, जब पीड़िता की माँ ने गर्भावस्था का खुलासा किया और गर्भपात का प्रयास किया।
- इस जानकारी के बावजूद, याचिकाकर्ता लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 19(1) के अनुसार मामले की सूचना पुलिस को देने में विफल रहा।
- इस विफलता के कारण अपराध के पंजीकरण में लगभग तीन सप्ताह (12 दिसंबर 2020 तक) का विलंब हुआ, जिससे अन्वेषण प्रभावित हो सकता था।
- न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि डॉ. डिट्टो द्वारा लोप जानबूझकर नहीं किया गया था क्योंकि वह पीड़िता और उसकी माँ के रिपोर्ट न करने के अनुरोध को स्वीकार कर रहे थे।
- उन्मुक्ति आवेदन पर:
- न्यायालय ने पाया कि अभियोजन सामग्री याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करती है, जिसके लिये विचारण किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने इस मामले को अन्य मामलों से पृथक् किया, जहाँ निरस्तीकरण की अनुमति दी गई थी, यह देखते हुए कि यहाँ याचिकाकर्त्ता द्वारा रिपोर्ट करने में विफलता में "जानबूझकर लोप" देखा जा सकता है।
- अंतिम निर्णय:
- न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने अंतरिम व्यादेश आदेश को रद्द कर दिया।
- न्यायालय ने रजिस्ट्री को आगे की कार्यवाही के लिये आदेश की एक प्रति अधिकारिता वाले न्यायालय को भेजने का निर्देश दिया।
- चिकित्सक-रोगी संबंध के लिये निहितार्थ:
- न्यायालय ने इस सिद्धांत को बरकरार रखा कि अवयस्कों के विरुद्ध लैंगिक अपराधों की बात आने पर लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण के अधीन अनिवार्य रिपोर्टिंग दायित्त्व पेशेवर गोपनीयता संबंधी विचारों को दरकिनार कर देता है।
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 19 क्या है?
यह धारा अपराध की रिपोर्टिंग के बारे में उपबंधों को इस प्रकार बताती है:
19(1) अनिवार्य रिपोर्टिंग दायित्त्व:
- आवेदन: दण्ड प्रक्रिया संहिता में किसी भी बात के बावजूद
- बाध्य व्यक्ति: कोई भी व्यक्ति (जिसमें बालक भी सम्मिलित है)
- रिपोर्टिंग की सीमा:
- आशंका कि अपराध होने की संभावना है।
- ज्ञान कि अपराध किया गया है।
- नामित प्राधिकारी:
- विशेष किशोर पुलिस इकाई, या
- स्थानीय पुलिस।
19(2) रिपोर्ट का दस्तावेज़ीकरण:
- प्रविष्टि आवश्यकताएँ:
- प्रविष्टि संख्या का उल्लेख।
- लिखित रूप में रिकॉर्डिंग।
- मुखबिर को पढ़कर सुनाना।
- पुलिस इकाई पुस्तक में प्रविष्टि।
19(3) बाल-अनुकूल रिकॉर्डिंग
- विशेष प्रक्रिया: सरल भाषा में रिकॉर्डिंग।
- उद्देश्य: यह सुनिश्चित करना कि बालक रिकॉर्ड की जा रही सामग्री को समझ सके।
19(4) भाषा सहायता उपबंध
- अनुवादक/दुभाषिया की आवश्यकता वाली परिस्थितियाँ:
- जब भाषा बालक को समझ में न आए।
- जब भी आवश्यक समझा जाए।
- अनुवादक/दुभाषिया के लिये आवश्यकताएँ:
- निर्धारित योग्यताएँ और अनुभव।
- निर्धारित शुल्क का संदाय।
19(5) तत्काल देखभाल और संरक्षण
- हस्तक्षेप की सीमा: पुलिस की संतुष्टि कि बालक को देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है।
- प्रक्रियात्मक आवश्यकता: लिखित में कारणों को दर्ज करना।
- समय-सीमा: चौबीस घंटे के भीतर तत्काल व्यवस्था।
- सुरक्षा विकल्प:
- आश्रय गृह में प्रवेश।
- निकटतम अस्पताल में प्रवेश।
19(6) अधिकारियों को अनिवार्य संप्रेषण
- समय-सीमा: बिना किसी अनावश्यक विलंब के किंतु चौबीस घंटे के भीतर।
- अधिसूचित किये जाने वाले अधिकारी:
- बाल कल्याण समिति, और
- विशेष न्यायालय या सेशन न्यायालय।
- रिपोर्ट की विषय-वस्तु:
- मामले का विवरण।
- बालक की देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता।
- उठाए गए कदम।
19(7) सद्भावना संरक्षण
- दी गई प्रतिरक्षा: कोई दायित्त्व (सिविल या आपराधिक) नहीं।
- संरक्षित गतिविधि: सद्भावनापूर्वक जानकारी देना।
- संरक्षण का विस्तार: उपधारा (1) के उद्देश्य के लियेदण्ड प्रक्रिया ।
ऐतिहासिक निर्णय
महाराष्ट्र राज्य बनाम डॉ. मारोती (2022):
- उच्चतम न्यायालय ने ये टिप्पणियाँ कीं:
- " लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अधीन अपराध के होने की शीघ्र और उचित रिपोर्टिंग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है" और रिपोर्ट करने में विफलता "अधिनियम के प्रयोजन और उद्देश्य को विफल कर देगी।"
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि समय पर रिपोर्टिंग से पीड़ित की तत्काल जांच और बिना विलंब के अन्वेषण प्रारंभ करने में सहायता मिलती है, जो लैंगिक अपराध के मामलों में महत्त्वपूर्ण है।
- न्यायालय ने कहा कि लैंगिक अपराध के मामलों में चिकित्सा साक्ष्य का महत्त्वपूर्ण पुष्टिकारक मूल्य होता है, तथा ऐसे साक्ष्य को सुरक्षित करने के लिये शीघ्र रिपोर्टिंग के महत्त्व पर प्रकाश डाला।
- उच्च्तम न्यायालय ने कहा कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 27(1) और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164क और 53क जैसे उपबंध, जो लैंगिक अपराध के मामलों में पीड़ितों और अभियुक्त व्यक्तियों की चिकित्सा परीक्षण से संबंधित हैं, शीघ्र रिपोर्टिंग के महत्त्व को रेखांकित करते हैं।
सांविधानिक विधि
दण्ड की आनुपातिकता निर्धारित करने के सिद्धांत
26-Feb-2025
सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद और अन्य “इसमें कोई संदेह नहीं है कि असंगत दण्ड अधिरोपित किये जाने से न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है, जिससे सदस्य को सदन की कार्यवाही में भाग लेने से वंचित किया जाता है, अपितु उस निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को भी प्रभावित करता है, जो प्रतिनिधित्व से वंचित रह जाते है।” न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह। |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह की पीठ ने राष्ट्रीय जनता दल (Rashtriya Janata Dal) MLC (विधान परिषद सदस्य) सुनील कुमार सिंह के निष्कासन को खारिज कर दिया है और इस बात पर बल दिया कि विधायी कदाचार के लिये दण्ड आनुपातिक होना चाहिये। इसने कहा कि असंगत कार्रवाई लोकतंत्र को कमजोर करती है और मतदाताओं को प्रतिनिधित्व से वंचित कर देती है।
- उच्चतम न्यायालय ने सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद और अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता, राष्ट्रीय जनता दल (Rashtriya Janata Dal) पार्टी से MLC (विधान परिषद सदस्य) हैं, जिन्हें 29 जून 2020 को छह वर्ष के कार्यकाल के लिये बिहार विधान परिषद (Bihar Legislative Council) के लिये चुना गया था और उन्होंने बिहार विधान परिषद (BLC) में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के मुख्य सचेतक के रूप में कार्य किया था।
- बिहार में राजनीतिक परिदृश्य तब बदल गया जब जनवरी 2024 में JDU (वर्तमान मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार भंग हो गई, जिसके बाद JDU ने भाजपा के साथ एक नया गठबंधन बनाया।
- 13 फरवरी 2024 को बिहार विधान परिषद (BLC) के 206वें सत्र के दौरान, राज्यपाल के अभिभाषण के बाद और धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान, याचिकाकर्त्ता और एक अन्य MLC (विधान परिषद सदस्य), मोहम्मद सोहैब, सदन के वेल में पहुँचे और कथित तौर पर मुख्यमंत्री के विरुद्ध अभद्र नारे लगाए।
- याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर मुख्यमंत्री को "पलटू राम" कहकर उनका मजाक उड़ाया, उनके हाव-भाव की नकल की, उनके चुनावी अनुभव की कमी के बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की, उन्हें "जोड़-तोड़ में माहिर" बताया और उनकी तुलना प्रतिवर्ष अपनी केंचुल उतारने वाले साँप से की।
- इन कार्यों से कथित तौर पर सदन की कार्यवाही बाधित हुई, जिसके कारण 19 फरवरी 2024 को BLC के एक JDU सदस्य ने दोनों MLCs के विरुद्ध परिवाद दर्ज कराया।
- BLC के अध्यक्ष ने परिवाद को जांच के लिये आचार समिति को भेज दिया और दोनों MLCs को 03 मई 2024 को कार्यवाही में समीलित होने का निदेश दिया।
- जबकि मोहम्मद सोहैब समिति के समक्ष उपस्थित हुए, खेद व्यक्त किया और भविष्य में संयम बरतने का आश्वासन दिया, याचिकाकर्त्ता लोकसभा चुनाव प्रचार उत्तरदायित्त्वों सहित विभिन्न व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उपस्थित नहीं हुए।
- याचिकाकर्त्ता को उसके विरुद्ध आरोपों के संबंध में दस्तावेज़ी साक्ष्य का अनुरोध करने के बावजूद 3 मई 2024, 22 मई 2024, 31 मई 2024 और 06 जून 2024 को उपस्थिति से कई बार छूट दी गई।
- 12 जून 2024 को, याचिकाकर्त्ता अंततः आचार समिति के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे आरोपों के बारे में जानकारी दी गई, किंतु कथित तौर पर उसने आरोपों का समाधान करने के बजाय समिति के अधिकार पर प्रश्न उठाया।
- आचार समिति ने याचिकाकर्त्ता को सूचित किये बिना अगली कार्यवाही को 19 जून 2024 से 14 जून 2024 तक एकतरफा रूप से पुनर्निर्धारित किया और उस तिथि को याचिकाकर्त्ता को BLC से निष्कासित करने की सिफारिश करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- मोहम्मद सोहैब के लिये, समिति ने आगामी सत्र के लिये दो दिवसीय निलंबन की सिफारिश की।
- 26 जुलाई 2024 को सदन ने बहुमत से इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया, याचिकाकर्त्ता को निष्कासित कर दिया और मोहम्मद सोहैब को दो दिनों के लिये निलंबित कर दिया।
- BLC सचिवालय ने 26 जुलाई 2024 को एक अधिसूचना जारी कर याचिकाकर्त्ता की सदस्यता समाप्त कर दी और एक एक पद रिक्त घोषित कर दिया।
- याचिका के लंबित रहने के दौरान, 30 दिसंबर 2024 को भारत के चुनाव आयोग ने एक प्रेस नोट जारी कर याचिकाकर्त्ता की पूर्व सीट के लिये उपचुनाव की घोषणा की, जिसकी प्रक्रिया 25 जनवरी 2025 तक पूरी होनी थी।
- उच्चतम न्यायालय ने 15 जनवरी 2025 के आदेश के माध्यम से इस मामले के समाधान तक उपचुनाव के नतीजों की घोषणा पर रोक लगा दी।
- इस मामले में मुख्य विवाद्यक:
- क्या उच्चतम न्यायालय RJD MLC सुनील कुमार सिंह को निष्कासित करने के बिहार विधान परिषद के निर्णय पर पुनर्विचार कर सकता है।
- यह जांच करता है कि संविधान के अनुच्छेद 212(1) के बावजूद आचार समिति की कार्यवाही न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आती है या नहीं।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय को यह निर्धारित करना होगा कि क्या दण्ड अनुपातहीन था और यदि ऐसा है, तो क्या उसके पास दण्ड को संशोधित करने का अधिकार है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि विधायी निकायों के पास सदस्यों को अनुशासित करने के लिये अंतर्निहित विशेषाधिकार होते हैं, किंतु ऐसी शक्तियां सांविधानिक सीमाओं से सीमित होती हैं और उचित मामलों में न्यायिक जांच के अधीन होती हैं।
- न्यायालय ने उल्लेख किया कि विधायकों के विरुद्ध असंगत दण्ड दोहरे सांविधानिक उल्लंघन के समान है, क्योंकि यह एक ओर सदस्य को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भाग लेने से वंचित करता है तथा दूसरी ओर निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं के प्रभावी प्रतिनिधित्व के अधिकार का हनन करता है।
- न्यायालय ने कहा कि विधायी कार्यवाही से अस्थायी बहिष्कार भी महत्त्वपूर्ण विधायी विचार-विमर्श के दौरान सांविधानिक दायित्त्वों का निर्वहन करने की सदस्य की क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि सांविधानिक न्यायालय सांविधानिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार विधायी निकायों द्वारा अधिरोपित किये गए अत्यधिक या असंगत दण्डात्मक उपायों पर प्रथम दृष्टया पुनर्विचार करने के लिये कर्तव्यबद्ध हैं।
- न्यायालय ने कहा कि विधायकों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई मुख्य रूप से सुधारात्मक होनी चाहिये न कि प्रतिशोधात्मक, जिसका मुख्य उद्देश्य संसदीय शिष्टाचार को बनाए रखना है।
- न्यायालय ने प्रतिबंधों की आनुपातिकता के मूल्यांकन के लिये एक बहुआयामी रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसमें बाधा उत्पन्न करना, संस्थागत गरिमा को क्षति कारित करना, सदस्य का पूर्ववर्ती आचरण, कम प्रतिबंधात्मक विकल्पों की उपलब्धता और प्रतिस्पर्धी हितों का संतुलन सम्मिलित है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विधायी अनुशासनात्मक कार्रवाइयों को संस्थागत अखंडता और प्रतिनिधि लोकतांत्रिक सिद्धांतों दोनों को संरक्षित करने के लिये औचित्य, आवश्यकता और न्यायसंगत संतुलन के त्रिपक्षीय परीक्षण को पूरा करना चाहिये।
विधानमंडल के सदस्य पर अधिरोपित किये गए दण्ड की आनुपातिकता निर्धारित करने के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत क्या हैं?
- अनुशासनात्मक उद्देश्य, प्रतिशोध नहीं: न्यायालय ने कहा है कि विधायकों को दण्डित करने का उद्देश्य मुख्य रूप से दण्डात्मक उद्देश्यों के बजाय अनुशासनात्मक कार्य करने का होना चाहिये और प्रतिशोध के बजाय शिष्टाचार बनाए रखना का होना चाहिये, रचनात्मक बहस के लिये माहौल बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- बाधा मूल्यांकन: न्यायालयों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि सदस्य ने सदन की कार्यवाही में किस हद तक बाधा पहुँचाई है, तथा यह भी ध्यान रखना चाहिये कि व्यवधान के विभिन्न स्तरों के लिये अलग-अलग अनुशासनात्मक उपाय किये जाने चाहिये।
- संस्थागत गरिमा और आचरण स्वरूप: सदन की प्रतिष्ठा पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करते समय संबंधित सदस्य के पूर्व आचरण स्वरुप एवं उनके पश्चात् के कार्यों, जिसमें पश्चाताप की अभिव्यक्ति एवं संस्थागत तंत्र के प्रति सहयोग भी सम्मिलित है, का सम्यक् रूप से विचार किया जाना चाहिये।
- न्यूनतम आवश्यक प्रतिबंध: किसी भी अनुशासनात्मक कार्रवाई को कदाचार को संबोधित करने में सक्षम कम से कम प्रतिबंधात्मक उपाय का प्रतिनिधित्व करना चाहिये, यह सुनिश्चित करना चाहिये कि लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व से अनुचित रूप से समझौता न हो।
- प्रासंगिक मूल्यांकन: न्यायालयों को जानबूझकर अनुचित अभिव्यक्तियों और क्षेत्रीय बोली या सांस्कृतिक संदर्भ से प्रभावित अभिव्यक्तियों के बीच अंतर करना चाहिये, तथा यह भी स्वीकार करना चाहिये कि गंभीरता का आकलन करने में आशय और पृष्ठभूमि मायने रखती है।
- उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध: दण्ड अपने घोषित अनुशासनात्मक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये उपयुक्त होना चाहिये न कि अपने आप में दण्डात्मक होना चाहिये।
- हितधारकों के हितों को संतुलित करना: अंत में, अनुशासनात्मक निर्णयों में कई प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन होना चाहिये - प्रतिनिधित्व के लिये मतदाताओं के अधिकार, सदस्य के व्यक्तिगत अधिकार और व्यवस्था और गरिमा बनाए रखने की विधायिका की आवश्यकता।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 212 क्या है?
- अनुच्छेद 212 विधायी कार्यवाहियों को प्रक्रियागत अनियमितताओं के आधार पर न्यायिक जांच से उन्मुक्ति प्रदान करता है।
- खण्ड (1) न्यायालयों को कथित प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के आधार पर राज्य विधायी कार्यवाही की वैधता पर प्रश्न उठाने से रोकता है।
- खण्ड (2) विधायी अधिकारियों या सदस्यों को न्यायिक निरीक्षण से उन्मुक्ति प्रदान करता है, जिन्हें विधायिका के भीतर प्रक्रिया को विनियमित करने, संचालन का विनियमन करने या व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियां प्राप्त हैं।
- यह उपबंध आंतरिक विधायी कार्यप्रणाली के चारों ओर एक सुरक्षा कवच स्थापित करके शक्तियों के पृथक्करण के सांविधानिक सिद्धांत को क्रियान्वित करता है।
- इस अनुच्छेद का उद्देश्य विधायी स्वतंत्रता को संरक्षित करना है, जबकि यह सुनिश्चित करना है कि विधायी निकाय अनुचित न्यायिक हस्तक्षेप के बिना अपने सांविधानिक कर्त्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन कर सकें।
- यद्यपि, जैसा कि उच्चतम न्यायालय द्वारा व्याख्या की गई है, यह उन्मुक्ति निरपेक्ष नहीं है और केवल सांविधानिक उल्लंघन के मामलों में न्यायिक पुनर्विलोकन की अनुमति नहीं देती है।
आचार समिति क्या है?
- आचार समिति एक संसदीय निरीक्षण निकाय है जो संसद की अखंडता और गरिमा को बनाए रखने के लिये पूरे वर्ष काम करती है।
- इसकी स्थापना सबसे पहले 1997 में राज्य सभा में हुई थी, उसके बाद 2000 में लोकसभा में, तथा 2015 में यह स्थायी हो गई।
- आचार समिति की स्थापना अक्टूबर 1996 में नई दिल्ली में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में एक प्रस्ताव से हुई थी।
- लोकसभा आचार समिति में अध्यक्ष द्वारा अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिये नामित पंद्रह सदस्य होते हैं।
- आचार समिति सदस्यों द्वारा अनैतिक आचरण के बारे में शिकायतों की जांच करती है तथा उचित कार्रवाई की सिफारिश करती है।
- यह संसद सदस्यों के लिये आचार संहिता विकसित करने तथा उसे परिष्कृत करने के लिए जिम्मेदार है।
- कोई भी व्यक्ति अनैतिक आचरण के बारे में शिकायत दर्ज करा सकता है, हालांकि गैर-सांसदों को अपनी शिकायतें किसी सांसद द्वारा अग्रेषित करानी होंगी।
- आचार समिति विशेषाधिकार समिति से इस मायने में भिन्न है कि यह विशेष रूप से सांसदों से जुड़े कदाचार पर ध्यान केंद्रित करती है, जबकि अधिक गंभीर आरोप सामान्यतः विशेषाधिकार समिति के पास जाते हैं।
- 2005 में, आचार समिति ने सांसदों से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण "प्रश्न के बदले नकद" मामले की समीक्षा की, जिन पर संसद में प्रश्न पूछने के लिये कथित तौर पर धन स्वीकार करने का आरोप था।