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आपराधिक कानून

न्यायालयी निर्णय का भूतलक्षी प्रभाव

 03-Mar-2025

कनिष्क सिन्हा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य

"न्यायालय का निर्णय हमेशा भूतलक्षी प्रकृति का होगा जब तक कि निर्णय में स्पष्ट रूप से यह न कहा गया हो कि निर्णय भविष्य में लागू होगा।"

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने विधायी एवं न्यायिक विधि निर्माण के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उसके निर्णय आम तौर पर भूतलक्षी होते हैं, जब तक कि अन्यथा स्पष्ट रूप से न कहा गया हो।

  • उच्चतम न्यायालय ने कनिष्क सिन्हा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

कनिष्क सिन्हा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता पति-पत्नी हैं, जिन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा पारित 27 जून 2024 के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की थी। 
  • अपीलकर्त्ता कोलकाता के भवानीपुर पुलिस स्टेशन में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में दर्ज दो अलग-अलग आपराधिक मामलों में आरोपी थे। 
  • पहली FIR (2010 की संख्या 179) 27 अप्रैल 2010 को भारतीय दण्ड संहिता, 1860, (IPC) की धाराओं 120B, 420, 467, 468, 469, 471 के साथ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, (IT) 2000 की धारा 66A (a)(b)(c) के तहत दर्ज की गई थी। इस मामले में शिकायतकर्त्ता केयूर मजूमदार थे। 
  • दूसरी FIR (2011 की संख्या 298) 08 जून 2011 को मजिस्ट्रेट को की गई शिकायत के बाद दर्ज की गई थी, जिन्होंने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 190 के साथ 156 (3) के तहत इसे दर्ज करने का निर्देश दिया था। 
  • यह FIR, IPC की धारा 466, 469, 471 के साथ 120 बी के तहत दर्ज की गई थी। शिकायतकर्त्ता सुप्रीति बंदोपाध्याय थीं। 
  • दोनों FIR में कूटरचना, प्रवंचना, छल, प्रवंचना, प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने, अवैध रूप से धन निकालने, धमकी, मिथ्याव्यपदेशन और आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध समान आरोप थे। 
  • उच्चतम न्यायालय की सुनवाई के समय दोनों मामलों में आरोप पत्र दाखिल किये जा चुके थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्च न्यायालय 

  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा दायर आपराधिक पुनरीक्षणों को खारिज कर दिया। 
  • उच्च न्यायालय ने माना कि प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) (धारा 156 (3) शिकायतों के साथ शपथपत्र की आवश्यकता) में उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी निर्देश भविष्यलक्षी होंगे और भूतलक्षी रूप से लागू नहीं होंगे। 
  • उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ये निर्देश 2010-2011 में अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दर्ज शिकायतों पर लागू नहीं होंगे, क्योंकि वे 2015 के प्रियंका श्रीवास्तव निर्णय से पहले के हैं।

उच्चतम न्यायालय 

  • उच्चतम न्यायालय ने भूतलक्षी प्रभाव से लागू होने के संबंध में विधायी और न्यायिक घोषणाओं के बीच अंतर को स्पष्ट किया:
    • विधायिका द्वारा बनाए गए विधान सदैव संभावित होते हैं जब तक कि विशेष रूप से अन्यथा न कहा जाए, जबकि संवैधानिक न्यायालयों के निर्णय भूतलक्षी होते हैं जब तक कि विशेष रूप से संभावित न कहा जाए।
  • न्यायालय ने कहा कि किसी निर्णय का भावी क्रियान्वयन सामान्यतः उन व्यक्तियों पर अनावश्यक भार या अनावश्यक कठिनाइयों से बचने के लिये किया जाता है, जिन्होंने प्रासंगिक समय पर लागू विधान के आधार पर सद्भावनापूर्वक कार्य किया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि भावी क्रियान्वयन लंबे समय से सुलझे मामलों को उलझने से भी रोकता है, जिससे व्यापक अन्याय हो सकता है। 
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) के निर्णय के संबंध में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उस निर्णय में प्रयुक्त भाषा ("इस देश में एक चरण आ गया है") स्पष्ट रूप से भावी क्रियान्वयन का संकेत देती है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय का यह कहना सही था कि शिकायतों के साथ शपथपत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता वाला निर्देश भावी क्रियान्वयन पर लागू होगा। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि यदि आरोप अभी तक तय नहीं किये गए हैं, तो अपीलकर्त्ता अपने आरोपमुक्ति के लिये आवेदन करने के लिये स्वतंत्र होंगे, जिस पर विधि के अनुसार विचार किया जाएगा।

इसमें क्या विधिक प्रावधान किये गये हैं?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156 (3) - यह प्रावधान मामले का मुख्य केंद्र था, जो मजिस्ट्रेट को पुलिस को FIR दर्ज करने और शिकायत की विवेचना करने का निर्देश देने की अनुमति देता है।
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 - इसका प्रावधान धारा 156 (3) के साथ किया गया था, क्योंकि मजिस्ट्रेट ने दूसरी FIR दर्ज करने का निर्देश देने के लिये इन धाराओं के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग किया था।
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धाराएँ 120B, 420, 467, 468, 469, 471 - ये अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध पहली FIR में आरोपित अपराध थे, जो आपराधिक षड्यंत्र, प्रवंचना, कूटरचना और जाली दस्तावेजों का उपयोग करने से संबंधित थे।
  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66A (a)(b)(c)- इसे IPC के प्रावधानों के साथ पहली FIR में शामिल किया गया था।
  • IPC की धारा 466, 469, 471 को 120B के साथ पढ़ा जाए - ये कूटरचना एवं आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित अपराध थे।
  • भारत के संविधान का अनुच्छेद 226 - इसका संदर्भ उच्चतम न्यायालय ने प्रियंका श्रीवास्तव के निर्णय से उद्धृत करते हुए दिया था, जिसमें यह प्रावधानित किया गया था कि इस अनुच्छेद के अंतर्गत सांविधिक प्रावधानों को चुनौती दी जा सकती है।
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) पूर्व न्यायिक निर्णय का मामला ने यह आवश्यकता स्थापित की कि धारा 156(3) CrPC के अधीन आवेदन आवेदक द्वारा शपथ पत्र द्वारा समर्थित होना चाहिये।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) क्या है?

  • परिचय:
    • यह धारा मजिस्ट्रेट को पुलिस को संज्ञेय अपराध की विवेचना करने का निर्देश देने का अधिकार देती है।
  • संज्ञेय अपराध:
    • संज्ञेय अपराधों को CrPC की धारा 2(c) के अधीन परिभाषित किया गया है। ये वे अपराध हैं जिनके लिये पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। ये अपराध आमतौर पर अधिक गंभीर प्रकृति के होते हैं।
  • शिकायतकर्त्ता द्वारा आवेदन:
    • यदि कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करता है तथा मजिस्ट्रेट को संतुष्ट कर देता है कि कोई अपराध किया गया है, तो मजिस्ट्रेट पुलिस को मामले की विवेचना करने का आदेश दे सकता है।
  • न्यायिक विवेक:
    • मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित करने का विवेकाधिकार है कि कोई मामला पुलिस विवेचना के योग्य है या नहीं।
  • उद्देश्य:
    • आपराधिक कार्यवाही की शुरूआत आम तौर पर पुलिस के पास प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज होने से शुरू होती है। 
    • हालाँकि, ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जहाँ कोई व्यक्ति, किसी अपराध के होने से व्यथित होकर, उचित एवं निष्पक्ष विवेचना सुनिश्चित करने के लिये न्यायपालिका के हस्तक्षेप की माँग करता है। 
    • धारा 156 (3) तब लागू होती है जब मजिस्ट्रेट, जिसके पास धारा 190 के अधीन अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार है, से शिकायत या विवेचना शुरू करने का निवेदन हेतु आवेदन किया जाता है। 
    • यह प्रावधान मजिस्ट्रेट को पुलिस या किसी अन्य सक्षम प्राधिकारी को मामले की विवेचना करने का निर्देश देने का अधिकार देता है।

BNSS की धारा 175 में प्रावधानित सुरक्षा उपाय क्या हैं?

  • विधि की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपायों के रूप में निम्नलिखित नए परिवर्तन किये गए हैं:
    • सबसे पहले, पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा FIR दर्ज करने से मना करने पर पुलिस अधीक्षक को आवेदन करने की आवश्यकता को अनिवार्य बना दिया गया है, तथा धारा 175(3) के अधीन आवेदन करने वाले आवेदक को धारा 175(3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करते समय एक शपथपत्र द्वारा समर्थित धारा 173(4) के अधीन पुलिस अधीक्षक को किये गए आवेदन की एक प्रति प्रस्तुत करना आवश्यक है।
    • दूसरा, मजिस्ट्रेट को FIR दर्ज करने का निर्देश देने से पहले ऐसी विवेचना करने का अधिकार दिया गया है, जिसे वह आवश्यक समझता है।
    • तीसरा, मजिस्ट्रेट को धारा 175(3) के तहत कोई भी निर्देश जारी करने से पहले FIR दर्ज करने से मना करने के संबंध में पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की दलीलों पर विचार करना आवश्यक है।
  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि BNSS की धारा 175 (3) पिछले कुछ वर्षों में न्यायिक निर्णयों द्वारा निर्धारित विधि का परिणाम है। 
  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) के मामले में न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 156 (3) के अधीन मजिस्ट्रेट को आवेदन करने से पहले आवेदक को धारा 154 (1) और 154 (3) के अधीन आवेदन करना होगा।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि CrPC की धारा 156(3) के अधीन किये गए आवेदनों को आवेदक द्वारा शपथ पत्र द्वारा समर्थित किया जाना चाहिये। 
    • न्यायालय द्वारा ऐसी आवश्यकता शुरू करने का कारण यह दिया गया कि CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन नियमित रूप से किये जा रहे हैं तथा कई मामलों में केवल FIR दर्ज करके अभियुक्तों को परेशान करने के उद्देश्य से किये जा रहे हैं।

सिविल कानून

पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी

 03-Mar-2025

एम.एस. अनंतमूर्ति एवं अन्य बनाम जे. मंजुला आदि

"इसके अतिरिक्त, POA में 'अप्रतिसंहरणीय' शब्द का प्रयोग करने मात्र से POA अप्रतिसंहरणीय नहीं हो जाता। अगर POA को हित के साथ नहीं जोड़ा गया है, तो कोई भी वाह्य अभिव्यक्ति उसे अप्रतिसंहरणीय  नहीं बना सकती।"

न्यायमूर्ति पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि पावर ऑफ अटॉर्नी में केवल ‘अप्रतिसंहरणीय ’ शब्द का प्रयोग करने से वह ‘अप्रतिसंहरणीय ’ नहीं हो जाता।

  • उच्चतम न्यायालय ने एम.एस.अनंतमूर्ति एवं अन्य बनाम जे.मंजुला आदि (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

एम.एस.अनंतमूर्ति एवं अन्य बनाम जे. मंजुला आदि (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • विवाद में एक संपत्ति (बेंगलुरु के चुंचघट्टा गांव में, साइट नंबर 10, एसवाई. नंबर 55/1 में से) शामिल है, जिसका मूल स्वामित्व मुनियप्पा उर्फ रुत्तप्पा के पास है। 
  • 4 अप्रैल, 1986 को, मुनियप्पा ने कथित तौर पर ए. सरस्वती के पक्ष में 10,250/- रुपये में एक अप्रतिसंहरणीय  मुख्तारनामा (POA) और एक अपंजीकृत विक्रय विलेख को निष्पादित किया। 
  • मूल मालिक (मुनियप्पा) की मृत्यु 30 जनवरी, 1997 को हुई। 
  • 1 अप्रैल, 1998 को (मूल मालिक की मृत्यु के बाद), ए. सरस्वती ने अपने बेटे (अपीलकर्त्ता नंबर 2) के पक्ष में 84,000/- रुपये में एक पंजीकृत विक्रय विलेख निष्पादित किया। 

  • 21 मार्च, 2003 को, मूल मालिक के विधिक उत्तराधिकारियों ने उसी संपत्ति को प्रतिवादी नंबर 7 को 76,000/- रुपये में बेच दिया। 
  • प्रतिवादी संख्या 7 ने 29 सितंबर, 2003 को प्रतिवादी संख्या 8 को 90,000/- रुपये में संपत्ति बेची।
  • 6 दिसंबर, 2004 को प्रतिवादी संख्या 8 ने अपनी बेटी (उत्तर देने वाली प्रतिवादी) के पक्ष में एक पंजीकृत उपहार विलेख निष्पादित किया।
  • 2 जनवरी, 2007 को अपीलकर्त्ता संख्या 1 (अपीलकर्त्ता संख्या 2 के पिता) ने संपत्ति का दौरा किया तथा पाया कि उस पर अजनबी लोग कब्जा किये हुए हैं, जिसके कारण पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई।
  • उत्तरदाता प्रतिवादी ने ओ.एस. संख्या 133/2007 दायर कर अपीलकर्त्ता संख्या 2 के विरुद्ध उसके कब्जे में हस्तक्षेप करने से स्थायी निषेधाज्ञा मांगी।
  • अपीलकर्त्ता संख्या 2 ने ओ.एस. संख्या 4045/2008 दायर कर यह घोषित करने की मांग की कि 2003 के विक्रय विलेख और 2004 के उपहार विलेख शून्य और अमान्य हैं।
  • ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय दिया तथा अपीलकर्त्ता के वाद को इस आधार पर खारिज कर दिया कि:
    • उत्तरदाता प्रतिवादी के पास संपत्ति का कब्ज़ा था।
    • मूल मालिक की मृत्यु के बाद POA धारक द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख अमान्य था।
    • उत्तरदाता प्रतिवादी के पक्ष में पंजीकृत विक्रय विलेख और उपहार विलेख विधिक थे।
    • अपीलकर्त्ताओं द्वारा दायर वाद परिसीमा द्वारा वर्जित था (3 वर्षों के अंदर संस्थित किया जाना चाहिये था)।
  • मामला उच्च न्यायालय में गया तथा उच्च न्यायालय ने माना कि:
    • उत्तरदाता प्रतिवादी के पास वैध पंजीकृत दस्तावेजों (दिनांक 21 मार्च 2003 और 29 सितंबर 2003 के विक्रय विलेख तथा दिनांक 06 दिसंबर 2004 के उपहार विलेख) के माध्यम से संपत्ति का वैध स्वामित्व एवं कब्जा था। 
    • 01 अप्रैल 1998 को ए. सरस्वती (POA धारक) द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख अवैध था क्योंकि इसे मूल मालिक (मुनियप्पा) की मृत्यु के बाद निष्पादित किया गया था, तथा संविदा अधिनियम की धारा 202 लागू नहीं हुई क्योंकि POA ने धारक के पक्ष में कोई हित नहीं बनाया था।
  • बाद में यह मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में न्यायालय ने दो मुद्दे निर्धारित किये:
    • क्या अभिकर्त्ता, ए. सरस्वती, सामान्य मुख्तारनामा एवं बिक्री के लिये समझौते की धारक होने के नाते अभिकरण के विषय-वस्तु में कोई अधिकार, स्वामित्व या हित धारण करती थी, ताकि 30 जनवरी 1997 को स्वामी की मृत्यु के बाद, उसके बेटे अर्थात अपीलकर्त्ता संख्या 2 के पक्ष में 01 अप्रैल 1998 की पंजीकृत विक्रय विलेख को निष्पादित किया जा सके? 
    • क्या उत्तरदाता प्रतिवादी के लिये सामान्य मुख्तारनामा एवं बिक्री के लिये करार की दिनांक 04.04.1986 की निष्पादन एवं वैधता को चुनौती देना तथा यह घोषित करने के लिये एक और प्रार्थना करना अनिवार्य था कि पंजीकृत विक्रय विलेख दिनांक 01.04.1998 ओ.एस. 133/2007 में अमान्य, गैर-तथ्यात्मक या अवैध है?
  • पक्षकार का तर्क था कि इस मामले में निष्पादित मुख्तारनामा एक अप्रतिसंहरणीय मुख्तारनामा था।
    • यह प्रस्तुत किया गया कि दो दस्तावेज - बिक्री के लिये समझौता और मुख्तारनामा - एक ही दिन एक ही व्यक्ति के पक्ष में निष्पादित किये गए थे तथा इसलिये उन्हें सामंजस्यपूर्ण रूप से लिया जाना चाहिये। 
    • इस प्रकार, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 202 के अनुसार इस मामले में निष्पादित मुख्तारनामा अप्रतिसंहरणीय  है।
  • न्यायालय ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धांत अभिनिर्धारित किया कि जहाँ मुख्तारनामा को किसी हित के साथ जोड़ा जाता है, वह एक अप्रतिसंहरणीय अभिकरण में परिवर्तित हो जाती है जब तक कि अन्यथा स्पष्ट रूप से न कहा जाए। 
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी देखा कि यह अभिनिर्धारित करना महत्त्वपूर्ण है कि मुख्तारनामा सामान्य है या विशेष।
    • इसे अभिनिर्धारित करने के लिये न्यायालय को दस्तावेजों की विषय-वस्तु को देखने का कर्त्तव्य दिया गया है और पक्षों की मंशा को दस्तावेज की शर्तों एवं उन परिस्थितियों से जाना जा सकता है जिनमें पक्षों द्वारा इसे निष्पादित किया गया था।
    • POA में "सामान्य" शब्द का तात्पर्य विषय-वस्तु के संबंध में दी गई शक्ति से है।
    • POA की प्रकृति निर्धारित करने का परीक्षण वह विषय-वस्तु है जिसके लिये इसे निष्पादित किया गया है।
    • POA का नामकरण इसकी प्रकृति निर्धारित नहीं करता है। यहाँ तक ​​कि 'सामान्य मुख्तारनामा' के रूप में जाना जाने वाला POA भी विषय-वस्तु के संबंध में विशेष शक्तियाँ प्रदान कर सकता है। 
    • इसी तरह, 'विशेष मुख्तारनामा' विषय-वस्तु के संबंध में सामान्य प्रकृति की शक्तियाँ प्रदान कर सकता है। 
    • सार शक्ति में निहित है, विषय-वस्तु में नहीं।
  • न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में निष्पादित मुख्तारनामा अप्रतिसंहरणीय नहीं है। POA के धारक को वर्तमान मामले के तथ्यों में हित धारण करने वाला नहीं कहा जा सकता। 
  • न्यायालय ने माना कि बिक्री के लिये करार कोई हित का निर्माण नहीं करता है या स्वामित्व का अधिकार प्रदान नहीं करता है। 
  • इस प्रकार, भले ही सामान्य मुख्तारनामा और बिक्री के लिये करार एक ही लाभार्थी के पक्ष में मूल मालिक द्वारा निष्पादित समकालीन दस्तावेज थे, यह निष्कर्ष निकालने का एकमात्र कारक नहीं हो सकता है कि उसका विषय-वस्तु में हित था। 
  • इसलिये उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किये गए निर्णय को यथावत बनाए रखा।

मुख्तारनामा क्या है?

  • मुख्तारनामा अपने मूल सिद्धांतों को ICA के अध्याय X में प्रावधानित करता है जो मुख्तारनामा अधिनियम, 1882 की धारा 1A और 2 के साथ-साथ “अभिकरण” के लिये प्रावधान करता है। 
  • अभिकरण दो व्यक्तियों के बीच एक प्रत्ययी संबंध है, जहाँ एक स्पष्ट रूप से या निहित रूप से सहमत होता है कि दूसरा तीसरे पक्ष के साथ उनके विधिक संबंधों को प्रभावित करने के लिये उनकी ओर से कार्य करेगा, तथा दूसरा भी इसी तरह इस क्षमता में कार्य करने के लिये सहमत होता है या किसी करार के आधार पर ऐसा करता है। 
  • सामान्य मुख्तारनामा के निष्पादक और इसके धारक के बीच संबंध स्वामी और अभिकर्त्ता का होता है। 
  • स्वामी अभिकर्त्ता द्वारा किये गए कार्यों या स्वामी की ओर से उसके द्वारा किये गए संविदाओं से बंधा होता है। 
  • इसी तरह, अभिकरण के संविदा की प्रकृति में मुख्तारनामा धारक को निष्पादक द्वारा निर्दिष्ट कार्य करने या तीसरे व्यक्तियों के साथ व्यवहार में निष्पादक का प्रतिनिधित्व करने के लिये अधिकृत करती है। 
  • ICA की धारा 201: अभिकरण की समाप्ति
    • अभिकरण को समाप्त करने के निम्नलिखित प्रावधान हैं:
      • स्वामी ने अधिकार वापस ले लिया
      • अभिकर्त्ता ने उत्तरदायित्व का त्याग कर दिया हो 
      • निर्दिष्ट कार्यों को पूरा करना
      • किसी भी पक्ष की मृत्यु
      • किसी भी पक्ष की मानसिक अक्षमता
      • लागू विधियों के अंतर्गत स्वामी की धन शोधन अक्षमता की घोषणा
  • ICA की धारा 202: अभिकरण की समाप्ति जहाँ अभिकर्त्ता का विषय वस्तु में हित है:
    • जहाँ अभिकर्त्ता का स्वयं उस संपत्ति में हित है जो अभिकरण की विषय-वस्तु बनती है, अभिकरण को, किसी स्पष्ट संविदा के अभाव में, ऐसे हित के प्रतिकूल प्रभाव के लिये समाप्त नहीं किया जा सकता है।
  • ICA की धारा 202 की अनिवार्यताएँ:
    • सबसे पहले, पक्षकारों के बीच ‘स्वामी एवं अभिकर्त्ता’ की हैसियत से संबंध होना चाहिये तथा दूसरा तथ्य, अभिकरण के विषय-वस्तु में अभिकर्त्ता का हित होना चाहिये। 
    • अगर दोनों शर्तें पूरी होती हैं तो अभिकरण अप्रतिसंहरणीय हो जाती है तथा स्वामी के कहने पर इसे एकतरफा तौर पर समाप्त नहीं किया जा सकता है।

वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् करार पर मृत्यु का प्रभाव

 03-Mar-2025

राहुल वर्मा और अन्य बनाम रामपत लाल वर्मा और अन्य 

किसी भी पक्षकार की मृत्यु पर माध्यस्थम् करार समाप्त नहीं होता है और माध्यस्थम् करार को मृतक के विधिक प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध लागू किया जा सकता है” 

न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा है कि माध्यस्थम्  करार और पंचाट विधिक प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध लागू किये जा सकते हैं। 

  • उच्चतम न्यायालय ने राहुल वर्मा और अन्य बनाम रामपत लाल वर्मा और अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया 

राहुल वर्मा और अन्य बनाम रामपत लाल वर्मा और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह मामला मृतक भागीदारों के विधिक उत्तराधिकारियों और भागीदारी फर्म के जीवित भागीदार के बीच विवाद से संबंधित है। 
  • भागीदारी फर्म में मूलतः तीन भागीदार थे। दो भागीदारों की मृत्यु हो गई।  
  • भागीदारी विलेख में एक माध्यस्थम्  खण्ड (खण्ड 15) सम्मिलित था, जिसमें कहा गया था कि भागीदारी के मामलों, विघटन या समाप्ति से संबंधित किसी भी विवाद को माध्यस्थम् के लिये भेजा जाएगा। 
  • भागीदारी विलेख में एक विशिष्ट खण्ड (खण्ड 2) भी सम्मिलित था, जो भागीदार की मृत्यु के पश्चात् भागीदारी को जारी रखने के बारे में बताता था, जिसमें कहा गया था कि यदि सहमति हो तो भागीदारों जीवित भागीदारों और मृतक भागीदार के संभावित एक वारिस के बीच जारी रहेगी।  
  • प्रतिवादियों (मूल प्रतिवादियों) ने वाणिज्यिक वाद को खारिज करने और माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करने का अनुरोध करते हुए डिब्रूगढ़ (Dibrugarh) में वाणिज्यिक न्यायालय में माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 8 के अधीन एक याचिका दायर की। 
  • याचिका भागीदारी विलेख में निहित माध्यस्थम् खण्ड पर आधारित थी। 
  • डिब्रूगढ़ में सिविल जज (सीनियर डिवीजन) ने इस याचिका को खारिज कर दिया। 
  • इसके बाद प्रतिवादियों ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 37(1)(क) के अधीन गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 
    • उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मृतक भागीदार के विधिक उत्तराधिकारी माध्यस्थम् खण्ड का आह्वान करने के हकदार हैं, और जीवित भागीदार भी विधिक उत्तराधिकारियों के विरुद्ध माध्यस्थम् खण्ड का आह्वान कर सकता है। 

  • याचिकाकर्त्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की गई है। 
  • विवाद इस बात पर केंद्रित है कि क्या मृतक भागीदारों के विधिक उत्तराधिकारी हस्ताक्षरकर्त्ता न होने के बावजूद भागीदारी विलेख में माध्यस्थम् करार से आबद्ध हो सकते हैं, और क्या वे खातों के प्रतिपादन के लिये माध्यस्थम् खण्ड का आह्वान कर सकते हैं। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं: 

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया। 
  • न्यायालय ने दो प्रमुख प्रश्नों की पहचान की: 
    • क्या मृतक भागीदार के विधिक उत्तराधिकारी, जो भागीदारी विलेख पर हस्ताक्षर नहीं करते हैं, माध्यस्थम् करार से आबद्ध हो सकते हैं? 
    • क्या खातों के प्रतिदान के लिये वाद करने का अधिकार विधिक उत्तराधिकारियों के पास रहता है, जो उन्हें माध्यस्थम् खण्ड का आह्वान करने का अधिकार देता है? 
  • न्यायालय ने रवि प्रकाश गोयल बनाम चंद्र प्रकाश गोयल एवं अन्य (2008) के वाद का हवाला देते हुए कहा कि यह "वर्तमान मामले के तथ्यों को पूरी तरह से बताता है।" 
  • न्यायालय ने कहा कि माध्यस्थम् करार किसी भी पक्षकार की मृत्यु पर समाप्त नहीं होता है और इसे मृतक के विधिक प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध लागू किया जा सकता है। 
  • इसने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 2(1)(छ) के अधीनविधिक प्रतिनिधि' की परिभाषा पर बल दिया और कहा कि माध्यस्थम् करार और पंचाट विधिक प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध लागू किये जा सकते हैं। 
  • न्यायालय ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 40 का संदर्भ दिया और पुष्टि की कि मृत्यु माध्यस्थम् करार को समाप्त नहीं करती है। 
  • इसने निष्कर्ष निकाला कि ‘भागीदार’ शब्द विधिक उत्तराधिकारियों, प्रतिनिधियों, निर्दिष्ट किये गए लोगों या वसीयतकर्ताओं तक फैला हुआ है और इसमें सम्मिलित हैं।  
  • न्यायालय ने कहा कि चूंकि विधिक उत्तराधिकारियों ने "मृतक का स्थान ले लिया  है," इसलिये भागीदारी करार का खण्ड 15 याचिकाकर्त्ताओं और प्रतिवादियों दोनों को आबद्ध करता है। 

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम के अनुसार विधिक प्रतिनिधि कौन हैं?  

  • धारा 2 (1) (छ) के अधीन विधिक प्रतिनिधियों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: 
    • ऐसा व्यक्ति जो विधि के अनुसार मृतक व्यक्ति की संपदा का प्रतिनिधित्व करता है, तथा इसमें वह व्यक्ति भी सम्मिलित है जो मृतक की संपदा में हस्तक्षेप करता है, तथा जहाँ कोई पक्षकार प्रतिनिधि की हैसियत से कार्य करता है, वहाँ वह व्यक्ति भी सम्मिलित है जिस पर ऐसा कार्य करने वाले पक्षकार की मृत्यु पर संपदा हस्तांतरित होती है। 

माध्यस्थम् करार पर मृत्यु का क्या प्रभाव पड़ता है? 

  • माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 40 के अनुसार, किसी माध्यस्थम् करार को उसके पक्षकार की मृत्यु से समाप्त नहीं किया जाना चाहिये: 
    • खण्ड (1) में कहा गया है कि किसी माध्यस्थम् करार को मृतक के संबंध में या किसी अन्य पक्षकार के संबंध में किसी भी पक्षकार की मृत्यु से समाप्त नहीं किया जाएगा, किंतु ऐसी स्थिति में मृतक के विधिक प्रतिनिधि द्वारा या उसके विरुद्ध बलपूर्वक लागू किया जा सकेगा। 
    • खण्ड (2) में कहा गया है कि मध्यस्थ का अधिदेश किसी भी पक्षकार की मृत्यु से समाप्त नहीं होगा जिसके द्वारा उसे नियुक्त किया गया था।  
    • खण्ड (3) में कहा गया है कि इस खण्ड में कोई बात किसी ऐसे विधि के संचालन को प्रभावित नहीं करेगी जिसके आधार पर किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर कार्रवाई का कोई अधिकार समाप्त हो जाता है। 

ऐतिहासिक निर्णय 

  • रवि प्रकाश गोयल बनाम चंद्र प्रकाश गोयल एवं अन्य (2008) 
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किया कि भागीदारी करार में माध्यस्थम् खण्ड भागीदारों की मृत्यु के बाद भी लागू रहते हैं और उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध लागू किये जा सकते हैं।