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आपराधिक कानून
चेक अनादर के लिये दायित्व
06-Mar-2025
के.एस. मेहता बनाम मेसर्स मॉर्गन सिक्योरिटीज एंड क्रेडिट्स प्राइवेट लिमिटेड “शिकायत में ऐसे विशिष्ट कथनों का अभाव है जो अपीलकर्त्ता(ओं) और संबंधित वित्तीय संव्यवहार के बीच सीधा संबंध स्थापित करते हों या कंपनी के वित्तीय मामलों में उनकी संलिप्तता को प्रदर्शित करते हों।” न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि मात्र निदेशक पद पर आसीन होने से परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 की धारा 141 के अंतर्गत स्वतः दायित्व उत्पन्न नहीं होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने के.एस. मेहता बनाम मेसर्स मॉर्गन सिक्योरिटीज एंड क्रेडिट्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
के.एस. मेहता बनाम मेसर्स मॉर्गन सिक्योरिटीज एंड क्रेडिट्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- दिल्ली उच्च न्यायालय के 28 नवंबर 2023 के आदेश के विरुद्ध अपील दायर की गई थी, जिसमें आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के अनुरोध को अस्वीकार करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत याचिकाओं को खारिज कर दिया गया था।
- अपीलकर्त्ता, के.एस. मेहता और बसंत कुमार गोस्वामी, ब्लू कोस्ट होटल्स एंड रिसॉर्ट्स लिमिटेड के गैर-कार्यकारी निदेशक थे। उन्हें चेक अनादर से संबंधित NI अधिनियम की धारा 138 एवं 141 के तहत आपराधिक आरोपों का सामना करना पड़ा।
- वे गैर-कार्यकारी निदेशक थे जिनके पास कोई वित्तीय निर्णय लेने की शक्ति नहीं थी तथा उन्हें SEBI लिस्टिंग समझौते (खंड 49) के अनुसार नियुक्त किया गया था। उनका दैनिक संचालन या वित्तीय संव्यवहार में कोई जुड़ाव नहीं था।
- विवाद 09 सितंबर 2002 को निष्पादित एक इंटर-कॉर्पोरेट डिपाजिट (ICD) समझौते से उत्पन्न हुआ, जिसके तहत कंपनी ने प्रतिवादी से ₹5 करोड़ का ऋण लिया था। ऋण स्वीकृत होने के समय अपीलकर्त्ता बोर्ड की बैठक में उपस्थित नहीं थे तथा उन्होंने किसी भी वित्तीय दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर नहीं किये।
- पुनर्भुगतान के रूप में दो पोस्ट-डेटेड चेक जारी किये गए: चेक नंबर 842628 (₹50,00,000), दिनांक 28 फरवरी 2005 एवं चेक नंबर 842629 (₹50,00,000), दिनांक 30 मार्च 2005, अपर्याप्त धन के कारण दोनों चेक बाउंस हो गए।
- विधिक नोटिस भेजे गए, लेकिन कोई भुगतान नहीं किया गया। ऋण समझौते में एक मध्यस्थता खंड शामिल था, जिसके विषय में अपीलकर्त्ता अनभिज्ञ थे। 27 मई 2003 को, कुछ आरोपी पक्षों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए, लेकिन अपीलकर्त्ता इस समझौते का हिस्सा नहीं थे।
- के.एस. मेहता ने 10 नवंबर 2012 को त्यागपत्र दे दिया, जबकि बसंत कुमार गोस्वामी 2014 तक गैर-कार्यकारी निदेशक बने रहे। ROC और CGR रिपोर्ट सहित आधिकारिक रिकॉर्ड ने उनकी गैर-कार्यकारी स्थिति की पुष्टि की, और उन्हें मामूली बैठक शुल्क के अतिरिक्त कोई वेतन नहीं मिला।
- अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक शिकायतें दर्ज की गईं: चेक संख्या 842629 के लिये शिकायत संख्या 15857/2017 (10 नवंबर 2005 को दायर) और चेक संख्या 842628 के लिये शिकायत संख्या 15858/2017 (25 अक्टूबर 2005 को दायर)।
- अपीलकर्त्ताओं ने मामले को रद्द करने के लिये CrPC की धारा 482 के तहत याचिकाएँ दायर कीं, लेकिन उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि यह लगातार माना जाता रहा है कि गैर-कार्यकारी और स्वतंत्र निदेशकों को NI अधिनियम की धारा 141 के साथ धारा 138 के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, जब तक कि विशिष्ट आरोप प्रासंगिक समय पर कंपनी के मामलों में उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी को प्रदर्शित न करें।
- न्यायालय ने माना कि वर्तमान तथ्यों में अपीलकर्त्ता (ओं) ने न तो हस्ताक्षर किये और न ही चेक के निष्पादन में उनकी कोई भूमिका थी।
- न्यायालय ने पाया कि कंपनी के मामलों में उनकी भागीदारी पूरी तरह से गैर-कार्यकारी थी और शासन की निगरानी तक सीमित थी तथा वित्तीय निर्णय लेने या परिचालन प्रबंधन तक विस्तारित नहीं थी।
- हालाँकि शिकायत में ऐसे विशिष्ट कथन नहीं किये गए हैं जो अपीलकर्त्ता (ओं) और संबंधित वित्तीय संव्यवहार के बीच प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करते हों या कंपनी के वित्तीय मामलों में उनकी भागीदारी को प्रदर्शित करते हों।
- केवल यह तथ्य कि अपीलकर्त्ता बोर्ड की बैठकों में शामिल हुए थे, अपीलकर्त्ताओं पर वित्तीय दायित्व लगाने के लिये पर्याप्त नहीं होगा तथा यह स्वचालित रूप से वित्तीय संचालन पर नियंत्रण में परिवर्तित नहीं होता है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ता (ओं) को NI अधिनियम की धारा 141 के तहत प्रतिरूपी रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
- विशिष्ट आरोपों की कमी और पूर्वोक्त टिप्पणियों के मद्देनजर, अपीलकर्त्ता (ओं) को NI अधिनियम की धारा 141 के तहत प्रतिरूपी रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
धारा 141 NI अधिनियम के तहत एक कंपनी का दायित्व क्या है?
- NI अधिनियम की धारा 141 (1) निम्नलिखित का प्रावधान करती है:
- यदि कोई कंपनी NI अधिनियम की धारा 138 (चेक अनादर) के तहत कोई अपराध करती है, तो उस समय कंपनी के व्यवसाय के लिये उत्तरदायी और प्रभारी प्रत्येक व्यक्ति को भी दोषी माना जाएगा और उसे दण्डित किया जा सकता है।
- यदि कोई व्यक्ति यह सिद्ध कर सकता है कि:
- अपराध उनकी सूचना के बिना किया गया था।
- उन्होंने अपराध को रोकने के लिये उचित तत्परता बरती।
- सरकार द्वारा नामित निदेशक (केन्द्र/राज्य सरकार या सरकारी स्वामित्व वाले वित्तीय निगम में उनकी भूमिका के कारण नियुक्त) पर इस धारा के तहत वाद नहीं लाया जा सकता।
- NI अधिनियम की धारा 141 (2) निम्नलिखित प्रावधान करती है:
- यदि कोई कंपनी इस अधिनियम के अंतर्गत कोई अपराध करती है, तो कंपनी के कुछ व्यक्तियों को भी दोषी ठहराया जा सकता है, यदि यह सिद्ध हो जाए कि अपराध किया गया था:
- उनकी सहमति से।
- उनकी संलिप्तता से (सक्रिय भागीदारी या अनुमोदन)।
- उनकी उपेक्षा के कारण।
- यह कंपनी के निदेशकों, प्रबंधकों, सचिवों या अन्य अधिकारियों पर लागू होता है।
- स्पष्टता के लिये परिभाषा:
- "कंपनी" में कोई भी कॉर्पोरेट निकाय, फर्म या व्यक्तियों का संघ शामिल है।
- "निदेशक" (फर्म के मामले में) फर्म में भागीदार को संदर्भित करता है"
- यदि कोई कंपनी इस अधिनियम के अंतर्गत कोई अपराध करती है, तो कंपनी के कुछ व्यक्तियों को भी दोषी ठहराया जा सकता है, यदि यह सिद्ध हो जाए कि अपराध किया गया था:
निदेशक के दायित्व पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?
- एस.एम.एस. फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड बनाम नीता भल्ला एवं अन्य (2005)
- इस मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि केवल निदेशक के रूप में पदनाम पर्याप्त नहीं है; शिकायत में विशिष्ट भूमिका और उत्तरदायित्व स्थापित की जानी चाहिये।
- पूजा रविंदर देवीदासानी बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2014)
- एक गैर-कार्यकारी निदेशक की मुख्य भूमिका शासन की होती है तथा वह कंपनी के दैनिक संचालन या वित्तीय मामलों को नहीं संभालता है।
- NI अधिनियम की धारा 141 के तहत उत्तरदायी ठहराए जाने के लिये, आरोपी को अपराध के समय कंपनी के व्यवसाय का सक्रिय रूप से प्रभारी होना चाहिये।
- केवल निदेशक होने से कोई व्यक्ति अधिनियम के तहत स्वचालित रूप से उत्तरदायी नहीं हो जाता है।
- विधि लगातार यह मानता है कि केवल दिन-प्रतिदिन के व्यावसायिक संचालन के लिये उत्तरदायी लोगों पर ही वाद लाया जा सकता है।
- हितेश वर्मा बनाम मेसर्स हेल्थ केयर एट होम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य, (2025)
- धारा 138 के अंतर्गत केवल चेक पर हस्ताक्षर करने वाला ही उत्तरदायी होता है, जब तक कि धारा 141 के तहत दायित्व स्थापित न हो जाए।
- धारा 141(1) के तहत प्रतिनिधिक दायित्व के लिये दो शर्तें पूरी होनी चाहिये:
- अपराध के समय आरोपी कंपनी के व्यवसाय का प्रभारी रहा होगा।
- आरोपी कंपनी के व्यवसाय के संचालन के लिये जिम्मेदार रहा होगा।
- कंपनी का प्रभारी होना और उसके व्यावसायिक संचालन के लिये उत्तरदायी होना दो अलग-अलग तथ्य हैं।
- दायित्व स्थापित करने के लिये दोनों स्थितियों का शिकायत में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये।
- चूँकि शिकायतों में यह आरोप नहीं लगाया गया है कि अपीलकर्त्ता अपराध के समय कंपनी के व्यवसाय का प्रभारी था, इसलिये उन पर धारा 141(1) के तहत वाद नहीं लाया जा सकता।
आपराधिक कानून
हस्तलेखन विशेषज्ञ की राय
06-Mar-2025
सी. कमलाक्कनन बनाम तमिलनाडु राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक सी.बी.सी.आई.डी., चेन्नई "हस्तलेख विशेषज्ञ की राय पर विचार करते न्यायालय का दृष्टिकोण सावधानी से आगे बढ़ना, राय के कारणों की जांच करना, अन्य सभी सुसंगत साक्ष्यों पर विचार करना और अंततः इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेना होना चाहिये।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा है कि हस्तलेख विज्ञान "अभी इतना परिपूर्ण नहीं है" और इसके कारणों की सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने सी. कमलाक्कनन बनाम तमिलनाडु राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक सी.बी.सी.आई.डी., चेन्नई (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
सी. कमलाक्कनन बनाम तमिलनाडु राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक सी.बी.सी.आई.डी., चेन्नई मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला एक कूटरचित मार्कशीट के इर्द-गिर्द घूमता है जिसका प्रयोग MBBS कोर्स में दाखिले के लिये किया गया था।
- कुमारी अमुधा ने कूटरचित मार्कशीट का प्रयोग करके MBBS कोर्स में दाखिले के लिये आवेदन किया था।
- कुमारी अमुधा द्वारा प्राप्त मूल अंक 1200 में से 767 थे, किंतु कूटरचित मार्कशीट में 1200 में से 1120 अंक दिखाए गए थे।
- इस कूटरचना का पता चलने पर एक आपराधिक मामला दर्ज किया गया।
- अन्वेषण के पश्चात्, सी. कमलाक्कनन (अपीलकर्त्ता) और अन्य सह-अभियुक्त व्यक्तियों के विरुद्ध आरोप पत्र दायर किया गया।
- अपीलकर्त्ता के विरुद्ध विशेष आरोप यह था कि उसने डाक कवर तैयार किया था जिसमें कूटरचित मार्कशीट भेजी गई थी।
- अभियोजन पक्ष ने अपीलकर्त्ता के अपराध से संबंध स्थापित करने के लिये मुख्य रूप से एक हस्तलेख विशेषज्ञ के साक्ष्य पर विश्वास किया।
- अपीलकर्त्ता पर विचारण न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 120ख (आपराधिक षड्यंत्र), 468 (छल के प्रयोजन से कूटरचना) और 471 (कूटरचित दस्तावेज़ असली के रूप में उपयोग मे लाना) के साथ धारा 109 (दुष्प्रेरण) के अधीन आरोप लगाए गए थे।
- अपीलकर्त्ता को शुरू में गिरफ्तार किया गया था और वह विचाराधीन कैदी के रूप में अभिरक्षा में रहा।
- उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका में अवर न्यायालयों द्वारा पारित दोषसिद्धि और संशोधित दण्ड को बरकरार रखा।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध अभियोजन पक्ष का सबसे बड़ा मामला यह था कि डाक कवर पर उसका हस्तलेख था।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष साक्ष्य के रूप में मूल डाक कवर प्रस्तुत करने में विफल रहा।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि डाक कवर को कभी भी साक्ष्य में प्रदर्शित या ठीक से पहचाना नहीं गया।
- उच्चतम न्यायालय ने हस्तलेख विशेषज्ञ साक्ष्य पर निर्भरता के सिद्धांतों के संबंध में मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1980) मामले का संदर्भ दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि हस्तलेख विज्ञान " अभी इतना परिपूर्ण नहीं है" और इसके कारणों की सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि डाक कवर को स्वयं प्रदर्शित नहीं किया गया था और साक्ष्य में साबित नहीं किया गया था, इसलिये यह स्वीकार करने का कोई आधार नहीं था कि उस पर अपीलकर्त्ता की लिखावट थी।
- उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि "अभियोजन पक्ष विवादित डाक कवर के अस्तित्व को साबित करने में बुरी तरह विफल रहा।"
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय द्वारा दर्ज की गई दोषसिद्धि, जिसकी अपील न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई थी, "विधिक परीक्षण पर खरी नहीं उतरती है।"
- उच्चतम न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए और सभी अवर न्यायालयों के निर्णयों को रद्द करते हुए अपीलकर्त्ता को " स्पष्टत: दोषमुक्ति" प्रदान की।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 45 क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA), भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के अंतर्गत विशेषज्ञ के साक्ष्य के बारे में बात करती है।
- धारा 45 - विशेषज्ञों की राय – जबकि न्यायालय को विदेशी विधि या विज्ञान की या कला की किसी बात पर या हस्तलेख या अंगुलि-चिन्हों की अनन्यता के बारे में राय बनानी हो, तब उस बात पर ऐसी विदेशी विधि, विज्ञान या कला में या हस्तलेख या अंगुलिचिन्हों की अनन्यता विषयक प्रश्नों में विशेष कुशल व्यक्तियों की रायें सुसंगत तथ्य है। ऐसे व्यक्ति विशेषज्ञ कहलाते है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम विशेषज्ञ की राय को उचित महत्त्व देता है, जबकि एक सामान्य व्यक्ति की राय का कोई मूल्य नहीं होता।
- विशेषज्ञ का साक्ष्य निश्चायक नहीं होता है और ऐसे साक्ष्य पर कितना विश्वास किया जाए या उसे कितना महत्त्व दिया जाए, यह संबंधित न्यायालय की अधिकारिता है।
- अब इसी धारा को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 39 के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।
ऐतिहासिक निर्णय
मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1980)
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने हस्तलेख विशेषज्ञ अभिसाक्षी के साक्ष्यिक मूल्य के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किये:
- विशेषज्ञ साक्ष्य की स्थिति: न्यायालय ने इस धारणा को अस्वीकार किया कि हस्तलेखन विशेषज्ञ के साक्ष्य को स्वाभाविक रूप से संदिग्ध माना जाना चाहिये या प्रत्येक मामले में अनिवार्य रूप से संपुष्टि की आवश्यकता होती है। निर्णय में स्पष्ट किया गया कि हस्तलेख विशेषज्ञ "सह-अपराधी नहीं है" और उनके साक्ष्य को स्वतः ही निम्न स्तर की साक्ष्य श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिये।
- वैज्ञानिक परिसीमाएँ: न्यायालय ने स्वीकार किया कि हस्तलेख विश्लेषण एक अपूर्ण विज्ञान है और यह फिंगरप्रिंट विश्लेषण जैसी अधिक विकसित फोरेंसिक तकनीकों की तुलना में कम विश्वसनीय है। निर्णय में उल्लेख किया गया कि "हस्तलेख की पहचान का विज्ञान इतना पूर्ण नहीं है, और इसलिये गलत राय का जोखिम अधिक है"।
- विशेषज्ञ के अभिसाक्ष्य के प्रति दृष्टिकोण: न्यायालय ने हस्तलेख विशेषज्ञ के अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन करते समय सतर्क दृष्टिकोण अपनाने की वकालत की, जिसमें कहा गया कि न्यायालयों को "सावधानी से आगे बढ़ना चाहये, राय के कारणों की जांच करनी चाहिये, अन्य सभी सुसंगत साक्ष्यों पर विचार करना चाहिये और अंततः इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेना चाहिये।"
- अनिवार्य संपुष्टि नहीं: निर्णय ने स्पष्ट रूप से विधि या विवेक के किसी भी नियम को अस्वीकार कर दिया "कि हस्तलेख विशेषज्ञ की राय-साक्ष्य पर कभी भी कार्रवाई नहीं की जानी चाहिये, जब तक कि पर्याप्त रूप से संपुष्टि न हो जाए।" इसने इस बात पर बल दिया कि ऐसे मामलों में जहाँ विशेषज्ञ का तर्क विश्वसनीय है और कोई विश्वसनीय विरोधाभासी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, अपुष्ट अभिसाक्ष्य को स्वीकार किया जा सकता है।
- मूल्यांकन का आधार: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विशेषज्ञ की राय को "उसके द्वारा दिये गए कारणों की स्वीकार्यता के आधार पर परखा जाना चाहिये" न कि उसे शुरुआती संदेह के साथ देखा जाना चाहिये। निर्णय में कहा गया कि "एक विशेषज्ञ गवाही देता है और निर्णय नहीं लेता है," जो विशेषज्ञ के अभिसाक्ष्य की निर्णायक प्रकृति के बजाय सलाहकारी प्रकृति को उजागर करता है।
- लचीला दृष्टिकोण: न्यायालय ने कठोर नियमों के स्थान पर मामला-दर-मामला दृष्टिकोण अपनाने की वकालत करते हुए कहा कि "कोई कठोर नियम नहीं हो सकता, किंतु किसी विशेषज्ञ की राय को चुनौती न दिये गए कारणों के आधार पर केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं होगा कि उसकी संपुष्टि नहीं हुई है।"
सिविल कानून
उत्तराधिकार विधि का बीमा अधिनियम पर अधिभाव
06-Mar-2025
नीलव्वा उर्फ नीलम्मा बनाम चंद्रव्वा एवं अन्य "धारा 39(7) के तहत, जब तक विधिक उत्तराधिकारियों द्वारा कोई दावा नहीं किया जाता है, तब तक ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। विधिक उत्तराधिकारियों द्वारा किसी भी दावे की अनुपस्थिति में, शीर्षक लाभार्थी नामनिर्देशिती के पास निहित होता है।" न्यायमूर्ति अनंत रामनाथ हेगड़े |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति अनंत रामनाथ हेगड़े ने कहा है कि बीमा अधिनियम की धारा 39 के अंतर्गत नामनिर्देशिती व्यक्ति विधिक उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकार अधिकारों का हनन नहीं करता है।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने नीलव्वा उर्फ नीलम्मा बनाम चंद्रव्वा एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
नीलव्वा उर्फ नीलम्मा बनाम चंद्रव्वा एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- श्री रवि सोमनाकट्टी ने क्रमशः 19,00,000/- रुपये और 2,00,000/- रुपये के लाभ वाली दो जीवन बीमा पॉलिसियाँ लीं, तथा अपनी मृत्यु की स्थिति में अपनी माँ को एकमात्र लाभार्थी के रूप में नामित किया।
- इन पॉलिसियों को लेने के समय, श्री रवि सोमनाकट्टी अविवाहित थे, लेकिन बाद में उन्होंने विवाह कर लिया तथा अपनी बीमा पॉलिसियों में नामांकन को अपडेट किये बिना ही एक बेटा उत्पन्न कर लिया।
- 20 दिसंबर, 2019 को श्री रवि सोमनाकट्टी की मृत्यु के बाद, उनकी मां (नामनिर्देशिती लाभार्थी) और उनकी विधवा एवं अप्राप्तवय बेटे के बीच बीमा लाभों के वितरण को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
- मृतक की विधवा और अप्राप्तवय बेटे ने मां के विरुद्ध मुकदमा दायर किया, जिसमें मां के एकमात्र नामित होने के बावजूद बीमा लाभों में उनके सही हिस्से का दावा किया गया।
- मां ने तर्क दिया कि 2015 में संशोधित बीमा अधिनियम, 1938 की धारा 39 के तहत नामित लाभार्थी के रूप में, वह अन्य विधिक उत्तराधिकारियों को छोड़कर संपूर्ण लाभ प्राप्त करने की अधिकारी थी।
- प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि नामनिर्देशिती व्यक्ति के रूप में माँ केवल निधियों की संरक्षक थी तथा व्यक्तिगत उत्तराधिकार विधियों के अनुसार उन्हें सभी विधिक उत्तराधिकारियों में वितरित करने के लिये बाध्य थी।
- ट्रायल कोर्ट ने माँ के पूरे लाभ के दावे को खारिज कर दिया, यह निर्णय देते हुए कि प्रत्येक पक्ष (माँ, विधवा और अप्राप्तवय बेटा) बीमा आय का एक तिहाई हिस्सा पाने का अधिकारी है।
- इस निर्णय से व्यथित होकर, माँ (प्रतिवादी संख्या 1) ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दायर की।
- मामले में मुख्य विधिक मुद्दा यह था कि क्या बीमा अधिनियम की धारा 39 में 2015 के संशोधन ने उत्तराधिकार का एक नया प्रावधान बनाया है जो उत्तराधिकार के पर्सनल लॉ को दरकिनार कर सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पाया कि भारत के विधि आयोग ने बीमा पॉलिसियों में "लाभार्थी नामनिर्देशिती" और "संग्रहकर्त्ता नामनिर्देशिती" के बीच स्पष्ट अंतर की अनुशंसा की थी, लेकिन संसद ने बीमा अधिनियम, 1938 की धारा 39 में संशोधन करते समय इस अंतर को शामिल नहीं किया।
- न्यायालय ने पाया कि संसद ने पॉलिसीधारकों को यह घोषित करने का विकल्प प्रदान करने के विधि आयोग के सुझाव को स्वीकार नहीं किया कि नामनिर्देशिती लाभार्थी नामनिर्देशिती होगी या संग्रहकर्त्ता नामनिर्देशिती, जो यह दर्शाता है कि संसद का आशय उत्तराधिकार विधियों को दरकिनार करने के लिये नामांकन का नहीं था।
- उच्च न्यायालय ने पाया कि बीमा और उत्तराधिकार संवैधानिक योजना में विधि के अलग-अलग क्षेत्रों में आते हैं, जिसमें बीमा सूची-I में प्रविष्टि 47 के अंतर्गत आता है तथा उत्तराधिकार सातवीं अनुसूची की सूची-III में प्रविष्टि 5 के अंतर्गत आता है।
- न्यायालय ने पाया कि बीमा अधिनियम उत्तराधिकार से संबंधित विधान प्रदान करने के लिये नहीं बनाया गया था, तथा कुछ नामनिर्देशिती व्यक्तियों को अनन्य उत्तराधिकारी मानना बीमा के मूल उद्देश्य को ही विफल कर देगा, जो कि पॉलिसीधारक के परिवार एवं आश्रितों के जोखिम को शामिल करना है।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 39(7) में "लाभकारी हित" और धारा 39(8) में "लाभकारी शीर्षक" शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया जाना चाहिये कि नामनिर्देशिती व्यक्ति को लाभकारी हित तभी प्राप्त होता है, जब विधिक उत्तराधिकारी बीमा पॉलिसी से लाभ का दावा नहीं करते हैं।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि धारा 39(7) के तहत, नामनिर्देशिती व्यक्ति का विधिक उत्तराधिकारियों को लाभ वितरित करने का कोई दायित्व नहीं है, यदि उनके द्वारा कोई दावा नहीं किया जाता है, लेकिन यदि विधिक उत्तराधिकारी दावा करते हैं, तो नामनिर्देशिती व्यक्ति के दावे को उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाले पर्सनल लॉ के अधीन होना चाहिये।
- उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि कुछ न्यायालयों (आंध्र प्रदेश और राजस्थान) ने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया था, लेकिन उत्तराधिकार विधियों को दरकिनार करने के लिये स्पष्ट विधायी आशय की अनुपस्थिति सहित कई कारकों को ध्यान में रखा।
- न्यायालय ने देखा कि ट्रायल कोर्ट ने विभाजन के लिये मुकदमा चलाने में संशोधित धारा 39 पर विचार नहीं किया था, लेकिन फिर भी इस तर्क के आधार पर निर्णय की पुष्टि की कि धारा 39 व्यक्तिगत उत्तराधिकार विधियों को दरकिनार नहीं करती है।
- उच्च न्यायालय ने बेहतर विधायी प्रथाओं का प्रस्ताव दिया, जिसमें उद्देश्यों और कारणों में उद्देश्य के स्पष्ट कथन, पूर्वव्यापी या भावी आवेदन के विषय में स्पष्ट घोषणाएँ, स्पष्टता के लिये दृष्टांतों को शामिल करना, परस्पर विरोधी निर्वचन को हल करने के लिये समय पर संशोधन और सरल भाषा में विधियों का प्रारूप तैयार करना शामिल है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मां, नामनिर्देशिती होने के बावजूद, बीमा लाभों पर पूर्ण स्वामित्व का दावा नहीं कर सकती, क्योंकि विधवा और अप्राप्तवय पुत्र (श्रेणी-I उत्तराधिकारी) ने भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत लाभों पर दावा किया था।
बीमा अधिनियम 1938 की धारा 39 क्या है?
- बीमा अधिनियम, 1938 की धारा 39 जीवन बीमा पॉलिसियों में पॉलिसीधारक द्वारा नामांकन के लिये प्रावधान स्थापित करती है।
- यह धारा जीवन बीमा पॉलिसी धारक को ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को नामनिर्देशिती करने की अनुमति देती है, जो पॉलिसीधारक की मृत्यु की स्थिति में पॉलिसी द्वारा सुरक्षित धन प्राप्त करेंगे।
- यह नामांकन पॉलिसी खरीदते समय या भुगतान के लिये पॉलिसी परिपक्व होने से पहले किसी भी समय किया जा सकता है।
- जब कोई नामनिर्देशिती व्यक्ति अप्राप्तवय होता है, तो पॉलिसीधारक को विधिक रूप से पॉलिसी लाभ प्राप्त करने के लिये किसी अन्य व्यक्ति को नियुक्त करने की अनुमति होती है, यदि पॉलिसीधारक की मृत्यु नामनिर्देशिती व्यक्ति की अप्राप्तवय अवस्था के दौरान होती है।
- नामांकन को वैध होने के लिये, इसे या तो पॉलिसी के पाठ में ही शामिल किया जाना चाहिये या पॉलिसी पर एक समर्थन के माध्यम से किया जाना चाहिये, जिसे बीमाकर्त्ता द्वारा संप्रेषित और पंजीकृत किया जाता है।
- पॉलिसीधारक पॉलिसी परिपक्व होने से पहले किसी भी समय नामांकन को रद्द करने या बदलने का अधिकार रखता है, या तो समर्थन, आगे के समर्थन या वसीयत के माध्यम से।
- बीमाकर्त्ता पॉलिसी पाठ में उल्लिखित या बीमाकर्त्ता के अभिलेखों में पंजीकृत नामनिर्देशिती को सद्भावनापूर्वक किये गए भुगतानों के लिये उत्तरदायी नहीं है, जब तक कि बीमाकर्त्ता को किसी रद्दीकरण या परिवर्तन की लिखित सूचना प्राप्त न हो।
- बीमाकर्त्ताओं को नामांकन, रद्दीकरण या परिवर्तन दर्ज करने की लिखित पावती प्रदान करनी चाहिये, और ऐसे परिवर्तनों को दर्ज करने के लिये एक रुपये से अधिक नहीं का नाममात्र शुल्क ले सकते हैं।
- धारा 38 के तहत किसी पॉलिसी का कोई भी अंतरण या असाइनमेंट स्वचालित रूप से नामांकन को रद्द कर देता है, ऋण उद्देश्यों के लिये बीमाकर्त्ता को असाइनमेंट के लिये एक विशिष्ट अपवाद के साथ।
- यदि पॉलिसी बीमित व्यक्ति के जीवनकाल के दौरान परिपक्व हो जाती है या यदि पॉलिसी परिपक्व होने से पहले सभी नामनिर्देशिती व्यक्ति मर जाते हैं, तो पॉलिसी राशि पॉलिसी धारक, उनके उत्तराधिकारियों, विधिक प्रतिनिधियों या उत्तराधिकार प्रमाणपत्र धारक को देय हो जाती है।
- यदि एक या अधिक नामनिर्देशिती व्यक्ति बीमित व्यक्ति के बाद जीवित रहते हैं, तो पॉलिसी राशि ऐसे जीवित नामनिर्देशिती व्यक्ति (व्यक्तियों) को देय हो जाती है।
- धारा 39 विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम, 1874 की धारा 6 के अंतर्गत आने वाली पॉलिसियों पर लागू नहीं होती है, सिवाय इसके कि नामांकन में स्पष्ट रूप से कहा गया हो कि वे धारा 39 के अंतर्गत किये गए हैं।
बीमा नामनिर्देशन पर ऐतिहासिक निर्णय
- सरबती देवी बनाम उषा देवी (1984):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 39 के तहत नामनिर्देशिती व्यक्ति केवल पॉलिसी राशि का प्राप्तकर्त्ता है तथा उससे उत्तराधिकार विधि के अनुसार विधिक उत्तराधिकारियों के बीच इसे वितरित करने की अपेक्षा की जाती है। निर्णय ने स्थापित किया कि नामांकन नामनिर्देशिती व्यक्ति को लाभकारी स्वामित्व प्रदान नहीं करता है।
- शक्ति येजदानी बनाम जयानंद जयंत सालगांवकर (2016):
- उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि विभिन्न विधियों के तहत नाम निर्देशन उत्तराधिकार के विधान को रद्द नहीं करता है, भले ही प्रावधानों में "पूर्ण रूप से निहित" या "किसी भी विधि में निहित किसी भी तथ्य के बावजूद" जैसे शब्दों का उपयोग किया गया हो। इस मामले ने एक उदाहरण स्थापित किया कि नामनिर्देशन की राशि प्राप्त करने के सीमित उद्देश्य को पूरा करता है।
- करणम सिरिशा बनाम IRDA (2022):
- आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि बीमा अधिनियम की संशोधित धारा 39(7) और 39(8) गैर-वसीयती उत्तराधिकार से संबंधित विधि के प्रावधानों को दरकिनार कर देती है, तथा लाभार्थी नामनिर्देशिती व्यक्तियों को पूर्ण अधिकार प्रदान करती है।
- मल्लेला मणिमाला बनाम मल्लेला लक्ष्मी पद्मावती (2023):
- आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पुनः निर्णय दिया कि धारा 39 में 2015 के संशोधन व्यक्तिगत उत्तराधिकार विधियों को दरकिनार कर देते हैं, जिससे नामनिर्देशिती व्यक्ति को बीमा लाभों पर पूर्ण स्वामित्व का दावा करने की अनुमति मिल जाती है।