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आपराधिक कानून
आपराधिक मुकदमे का स्थानांतरण
07-Mar-2025
मेसर्स श्री सेंधुराग्रो एंड ऑयल इंडस्ट्रीज प्रणब प्रकाश बनाम कोटक महिंद्रा बैंक लिमिटेड "ट्रायल के स्थानांतरण का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिये तथा विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई के लिये न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर।" न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जिनमें मुकदमे को स्थानांतरित किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहा गया कि मुकदमे का स्थानांतरण नियमित तरीके से नहीं किया जाना चाहिये तथा विशेष तौर पर NIA की धारा 138 के तहत क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर नहीं किया जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स श्री सेंधुराग्रो एंड ऑयल इंडस्ट्रीज प्रणव प्रकाश बनाम कोटक महिंद्रा बैंक (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
मेसर्स श्री सेंधुराग्रो और ऑयल इंडस्ट्रीज प्रणब प्रकाश बनाम कोटक महिंद्रा बैंक (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- स्थानांतरण याचिका एक मालिकाना संस्था द्वारा अपने मालिक के माध्यम से चंडीगढ़ के न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी से मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, कोयंबटूर, तमिलनाडु को आपराधिक मामला स्थानांतरित करने के लिये दायर की गई है।
- याचिकाकर्त्ता नारियल तेल और उसके उप-उत्पादों के उत्पादन और बिक्री के व्यवसाय में संलिप्त है और कोयंबटूर में स्थित है।
- याचिकाकर्त्ता ने कोयंबटूर में स्थित संपत्तियों के समतुल्य बंधक के विरुद्ध कोटक महिंद्रा बैंक की कोयंबटूर में आर.एस. पुरम शाखा में ओवरड्राफ्ट सुविधाओं का लाभ उठाया।
- ऋण कोयंबटूर में संसाधित, स्वीकृत और वितरित किया गया था, जिसमें सभी संपार्श्विक संपत्तियाँ तमिलनाडु में स्थित थीं।
- याचिकाकर्त्ता ने 2018 में EMI भुगतान में चूक की, जिसके परिणामस्वरूप SARFAESI अधिनियम, 2002 के तहत 2.74 करोड़ रुपये की राशि के लिये डिमांड नोटिस जारी किया गया, जिसके बाद कोयंबटूर में बिक्री नोटिस और संपत्ति की बिक्री हुई।
- तमिलनाडु के अधिकारिता में सभी लेन-देन होने के बावजूद, प्रतिवादी बैंक ने चंडीगढ़ में 21 लाख रुपये का चेक पेश करना चुना और चंडीगढ़ में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।
- याचिकाकर्त्ता का तर्क है कि चंडीगढ़ में मामला दर्ज करना उन्हें परेशान करने के लिये है, क्योंकि वे चंडीगढ़ या स्थानीय भाषा में किसी को नहीं जानते हैं तथा उन्हें न्यायालयी कार्यवाही के लिये तमिलनाडु से बहुत दूर जाना होगा।
- प्रतिवादी बैंक का तर्क है कि चेक चंडीगढ़ शाखा में प्रस्तुत किया गया था क्योंकि NPA खातों के लिये रूटिंग/संग्रह खाता वहीं स्थित था, जिससे चंडीगढ़ न्यायालय सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय बन गया। याचिकाकर्त्ता चंडीगढ़ न्यायालय के अधिकारिता पर विवाद नहीं कर रहा है, बल्कि इस आधार पर स्थानांतरण की मांग कर रहा है कि यह "न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन है।" उच्चतम न्यायालय ने पहले कार्यवाही पर स्थगन आदेश जारी किया था तथा बैंक से यह बताने के लिये कहा था कि उसने चंडीगढ़ में शिकायत क्यों दर्ज की और कोयंबटूर में क्यों नहीं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने NIA में अधिकारिता से संबंधित प्रावधानों का विश्लेषण किया।
- न्यायालय ने कहा कि 2015 का संशोधन, जिसमें NIA की धारा 142 (2) और धारा 142 (2) को शामिल किया गया था, दशरथ रूपसिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य (2014) के निर्णय का प्रत्यक्ष परिणाम था।
- NIA की धारा 142 (2) यह स्पष्ट करती है कि इस तरह के अपराध की सुनवाई का अधिकार केवल उस न्यायालय में निहित होगा, जिसके अधिकारिता में बैंक की वह शाखा स्थित है, जहाँ चेक को भुगतानकर्त्ता या धारक के खाते के माध्यम से संग्रह के लिये दिया गया था।
- नई जोड़ी गई धारा 142-A, संशोधन के लागू होने के बाद ऐसे अधिकारिता वाले न्यायालयों में लंबित मामलों के स्थानांतरण को वैध बनाकर इस स्थिति को और स्पष्ट करती है।
- न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 406 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति “न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन” बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- अधिकारिता से संबंधित विधियों की चर्चा:
- न्यायालय ने कहा कि जहाँ सिविल न्यायालय की अधिकारिता (i) प्रादेशिक एवं (ii) आर्थिक सीमाओं द्वारा निर्धारित होता है, वहीं आपराधिक न्यायालय की अधिकारिता (i) अपराध और/या (ii) अपराधी द्वारा निर्धारित होता है।
- यह भी कहा गया कि प्रादेशिक अधिकारिता से संबंधित नियम अध्याय XIII में निहित हैं तथा अध्याय XXXV में इस प्रश्न का उत्तर है कि क्या होता है जब कोई न्यायालय, जिसके पास कोई प्रादेशिक अधिकारिता नहीं है, किसी अपराध की जाँच या सुनवाई करता है।
- मामलों के स्थानांतरण पर विधि पर चर्चा:
- न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 406 के अंतर्गत मामलों के स्थानांतरण की अनुमति तब दी जा सकती है, जब इस तथ्य की उचित आशंका हो कि न्याय नहीं हो सकता है, तथा पक्षकारों की सुविधा या असुविधा मात्र स्थानांतरण के लिये प्रार्थना करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती है।
- न्यायालय ने माना कि मुकदमे के स्थानांतरण का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिये, तथा विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई के लिये न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर पारित नहीं किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने आगे कहा कि CrPC की धारा 406 के तहत मामलों के स्थानांतरण की अनुमति तब दी जा सकती है, जब इस तथ्य की उचित आशंका हो कि न्याय नहीं हो सकता है, तथा पक्षकारों की सुविधा या असुविधा मात्र स्थानांतरण के लिये प्रार्थना करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती है।
- न्यायालय को प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उल्लिखित किये गए आधारों को उचित रूप से संतुलित करना होगा तथा धारा 406 के तहत स्थानांतरण का आदेश देते समय विवेकपूर्ण तरीके से अपने विवेक का प्रयोग करना होगा।
- न्यायालय ने इस मामले में माना कि यद्यपि यह तय करने के लिये कोई कठोर और अनम्य नियम या परीक्षण नहीं रखा जा सकता है कि धारा 406 CrPC के तहत शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिये या नहीं, फिर भी उक्त धारा की उप-धारा (2) एवं (3) के मात्र पढ़ने और इस न्यायालय के निर्णयों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि ट्रायल के स्थानांतरण का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिये तथा विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई करने के लिये न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर।
- वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने माना कि:
- CrPC की धारा 406 के तहत किसी भी मामले या कार्यवाही को स्थानांतरित करने के उद्देश्य से मामले को “न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन” अभिव्यक्ति के दायरे में आना चाहिये।
- कोयंबटूर से चंडीगढ़ तक यात्रा करने में अभियुक्त को होने वाली असुविधा या कठिनाई “न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन” अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आएगी।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 406 के तहत याचिका के स्थानांतरण के लिये कोई मामला नहीं बनता है।
NI अधिनियम के अंतर्गत अधिकारिता से संबंधित प्रावधान क्या है?
- परक्राम्य लिखतों से संबंधित अधिकारिता के मामलों का प्रावधान NIA की धारा 142 (2) में किया गया है।
- धारा 142 (2) निम्नलिखित प्रावधान करती है:
- मुकदमे के लिये अधिकारिता – धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई केवल उस न्यायालय में की जाएगी जिसका अधिकारिता उस स्थान पर आधारित होगा जहाँ चेक संसाधित किया गया था।
- यदि चेक वसूली के लिये जमा किया जाता है (किसी खाते के माध्यम से)
- मामले की सुनवाई उस न्यायालय में की जाएगी जहाँ बैंक शाखा स्थित है, जहाँ आदाता (धन प्राप्तकर्त्ता) या धारक का खाता है।
- यदि भुगतान के लिये चेक प्रस्तुत किया जाता है (खाता स्थानांतरण के बिना)
- मामले की सुनवाई उस न्यायालय में की जाएगी जहाँ चेक जारी करने वाले का खाता आहर्ता बैंक में है।
- खंड (क) के लिये स्पष्टीकरण:
- यदि चेक आदाता के बैंक की किसी शाखा में जमा किया जाता है, तो इसे उस शाखा में जमा माना जाएगा जहां आदाता का खाता है।
CrPC की धारा 406 के तहत मामलों के स्थानांतरण पर विधि क्या है?
- धारा 406:
- यह धारा उच्चतम न्यायालय को किसी आपराधिक मामले या अपील को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में अथवा एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति प्रदान करती है।
- उच्चतम न्यायालय इस धारा के अंतर्गत केवल भारत के महान्यायवादी या किसी हितबद्ध पक्ष के आवेदन पर ही कार्य कर सकता है, तथा ऐसा प्रत्येक आवेदन प्रस्ताव द्वारा किया जाएगा, जो, जब तक कि आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता न हो, शपथपत्र या प्रतिज्ञान द्वारा समर्थित होगा।
- वर्तमान मामले में न्यायालय ने मुकदमे के स्थानांतरण के लिये विचारणीय कारकों को निर्धारित किया है:
- जब ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य मशीनरी या अभियोजन पक्ष अभियुक्त के साथ मिलकर काम कर रहा है, तो अभियोजन पक्ष के उदासीन रवैये के कारण न्याय की विफलता की संभावना है।
- जब यह दिखाने के लिये सामग्री हो कि अभियुक्त अभियोजन पक्ष के साक्षियों को प्रभावित कर सकता है या शिकायतकर्त्ता को शारीरिक क्षति पहुँचा सकता है।
- अभियुक्त, शिकायतकर्त्ता/अभियोजन पक्ष और साक्षियों को होने वाली तुलनात्मक असुविधा एवं कठिनाइयाँ, इसके अतिरिक्त सरकारी और गैर-सरकारी साक्षियों की यात्रा और अन्य खर्चों का भुगतान करने में राज्य के खजाने द्वारा वहन किया जाने वाला बोझ, सांप्रदायिक रूप से उत्तेजित माहौल, जो लगाए गए आरोपों और अभियुक्त द्वारा किये गए अपराध की प्रकृति के कारण निष्पक्ष सुनवाई करने में असमर्थता का कुछ साक्ष्य दर्शाता है।
- कुछ ऐसी सामग्री का अस्तित्व जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कुछ व्यक्ति इतने शत्रुतापूर्ण हैं कि वे न्याय की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप कर रहे हैं या हस्तक्षेप करने की संभावना रखते हैं।
- यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि उपर्युक्त कारक संपूर्ण नहीं हैं तथा निष्पक्ष सुनवाई की आवश्यकताओं को दर्शाने वाले मात्र हैं।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 39 नियम 2क
07-Mar-2025
श्रीमती लावण्या सी और अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई, (मृत्यु पश्चात् उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा) एवं अन्य। “सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 39 नियम 2क, उन व्यक्तियों के विरुद्ध कार्रवाई की प्रक्रिया निर्दिष्ट की गई है, जो आदेश 39 नियम 1 और 2 के अंतर्गत पारित व्यादेश या अन्य आदेशों की अवहेलना करते हैं।” न्यायमूर्ति पंकज मिथल और संजय करोल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और संजय करोल की पीठ ने कहा है कि किसी व्यादेश को बाद में अपास्त कर देने से उसके लंबित रहने के दौरान उसकी अवज्ञा के लिये दायित्त्व मुक्ति नहीं मिलती है।
- उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती लावण्या सी एवं अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई (मृत्यु पश्चात् उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा) एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
श्रीमती लावण्या सी एवं अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई (मृत्यु पश्चात् उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा) एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता (श्रीमती लावण्या सी. और चालसानी आर.बी.) एक वाद में मूल प्रतिवादी थे, जिसमें प्रतिवादियों ने 30 अप्रैल 2004 के संयुक्त विकास करार को रद्द करने की घोषणा की मांग की थी।
- कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, अपीलकर्त्ताओं के वकीलों ने 11 जुलाई 2007 और 13 अगस्त 2007 को वचन दिया कि वे विषयगत संपत्ति को किसी तीसरे व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं करेंगे।
- विचारण न्यायालय ने 17 नवंबर 2007 को इस वचन को एक औपचारिक आदेश में सम्मिलित किया, जिसे बाद में कई बार बढ़ाया गया।
- वचन और न्यायालय के आदेश के होते हुए भी, अपीलकर्त्ताओं ने 19 नवंबर 2007 और 13 दिसंबर 2011 के बीच कई विक्रय विलेख निष्पादित किये, जिसमें विषयगत संपत्ति के कुछ भागों को हस्तांतरित किया गया।
- 2011 में, प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 39 नियम 2क के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें उपक्रम/व्यादेश आदेश के उल्लंघन का आरोप लगाया गया।
- विचारण न्यायालय ने 2 अगस्त 2013 को इस आवेदन को खारिज कर दिया, जिसमें पाया गया कि संपत्ति का विवरण अस्पष्ट था और जानबूझकर अवज्ञा स्थापित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे।
- इसके पश्चात्, विचारण न्यायालय ने 2 जनवरी 2017 को मूल वाद को भी खारिज कर दिया, यह निष्कर्ष निकालते हुए कि वादी संयुक्त विकास करार के उल्लंघन को साबित नहीं कर सके।
- प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 39 नियम 2क के अधीन अपने आवेदन को खारिज करने के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने विचारण न्यायालय के निर्णय को उलट दिया।
- अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आरोपित अपराध उनके उपक्रम और वाद की संपत्ति के अलगाव को प्रतिबंधित करने वाले न्यायालय के व्यादेश आदेश की जानबूझकर अवज्ञा करना था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- विचारण न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- विचारण न्यायालय ने पाया कि वादी ने यह साबित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य पेश नहीं किये कि प्रतिवादियों ने संयुक्त विकास करार का उल्लंघन किया है।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि वादगत संपत्ति की तस्वीरों से स्पष्ट होता हैं कि यह अभी भी खाली है और केवल नींव डाली गई है, जो वादी के इस दावे का खण्डन करती है कि फ्लैट बेचे गए थे।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि वाद की संपत्ति का विवरण "अधूरा और अस्पष्ट" था, जिससे वादी के कथन विश्वसनीय नहीं थे।
- विचारण न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वादी उचित संदेह से परे यह साबित करने में असफल रहे कि प्रतिवादियों ने जानते हुए और जानबूझकर व्यादेश आदेश का उल्लंघन किया।
- विचारण न्यायालय ने निर्धारित किया कि रिकॉर्ड पर यह साबित करने के लिये अपर्याप्त सामग्री थी कि प्रतिवादियों ने जानते हुए और जानबूझकर न्यायालय के आदेश का उल्लंघन किया था।
- विचारण न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों को उपक्रम के कथित उल्लंघन के संबंध में संदेह का लाभ प्राप्त करने का अधिकार है।
- उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- उच्च न्यायालय ने समी खान बनाम बिंदु खान का हवाला देते हुए कहा कि भले ही व्यादेश आदेश को बाद में अपास्त कर दिया गया हो, किंतु इसकी अवज्ञा समाप्त नहीं होती है।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि वाद को बाद में खारिज कर देने से व्यादेश आदेश के उल्लंघन के लिये पक्षकार को दायित्त्व से मुक्त नहीं किया जा सकता।
- उच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि 17 नवंबर 2007 के न्यायालय के आदेश के बाद कई विक्रय विलेख निष्पादित किये गए, जो स्पष्ट रूप से वचनबद्धता का उल्लंघन करते हैं।
- उच्च न्यायालय ने इस तर्क में कोई दम नहीं पाया कि व्यादेश आदेश अवैध था।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता विचारण न्यायालय के समक्ष किये गए अपने वचनबद्धता की अवज्ञा के दोषी थे।
- उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि इस अवज्ञा के लिये सिविल कारागार में निरोध, संपत्ति की कुर्की और प्रतिवादियों को प्रतिकर देना उचित है।
- सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अधिवक्ता और मुवक्किल के बीच संबंध प्रत्ययी प्रकृति का होता है, जिसमें अधिवक्ता मुवक्किल के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि न्यायालय को दिया गया कोई भी वचन-पत्र मुवक्किल की ओर से अपेक्षित प्राधिकार के बिना नहीं हो सकता।
- उच्चतम न्यायालय को यह स्वीकार करना कठिन लगा कि वचन-पत्र बिना प्राधिकार के दिया गया था, खासकर तब जब साढ़े चार साल तक उस आदेश का पालन करने के लिये कोई कदम नहीं उठाया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अवमानना की शक्तियां यह सुनिश्चित करने के लिये प्रदान की गई हैं कि विधि की गरिमा और महिमा बनी रहे।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि जब न्यायालय के आदेश का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है, जैसा कि इस मामले में हुआ, तो अवमानना अधिकारिता के प्रयोग को गलत नहीं ठहराया जा सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की, कितु अपीलकर्त्ता की अधिक उम्र के कारण तीन महीने के कारावास को हटाते हुए दण्ड को संशोधित किया।
- उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकर की राशि अवर न्यायालय के निर्णय की तारीख से 6% ब्याज के साथ प्रतिकर की राशि 10 लाख रुपए से बढ़ाकर 13 लाख रुपए कर दी।
- उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि व्यादेश आदेश की अवज्ञा मिटाई नहीं जाती, भले ही आदेश बाद में रद्द कर दिया जाए या वाद खारिज कर दिया जाए।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय के स्पष्ट आदेश के होते हुए भी संपत्ति का अलगाव अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध अवमानना कार्यवाही को उचित ठहराता है।
आदेश 39 नियम 2क क्या है?
- आदेश 39 नियम 2क व्यादेश की अवज्ञा या भंग के परिणामों को बताता है।
- यदि कोई व्यक्ति नियम 1 या 2 के अधीन दिये गए व्यादेश की अवज्ञा करता है, या व्यादेश की किसी भी शर्त को भंग करता है:
- न्यायालय उस व्यक्ति की संपत्ति की कुर्की का आदेश दे सकता है।
- न्यायालय उस व्यक्ति को तीन मास तक सिविल ककारागार में अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है।
- इस नियम के अधीन संपत्ति की कुर्की:
- एक वर्ष से अधिक समय तक प्रवृत्त नहीं रह सकती।
- यदि एक वर्ष के पश्चात् भी अवज्ञा जारी रहती है, तो कुर्क की गई संपत्ति का विक्रय किया जा सकता है।
- विक्रय से प्राप्त आगमों से, न्यायालय जिसको क्षति हुई है उस पक्षकार को प्रतिकर दे सकता है।
- कोई शेष राशि उस पक्षकार को दी जाती है, जो उसका हकदार है।
ऐतिहासिक निर्णय
- समी खान बनाम बिंदु खान (1998):
- उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि व्यादेश आदेश की अवज्ञा दण्डनीय बनी रहती है, भले ही आदेश बाद में अपास्त कर दिया गया हो।
- "भले ही व्यादेश आदेश को बाद में अपास्त कर दिया गया हो, अवज्ञा मिट नहीं जाती" - यह सिद्धांत वाद के अंतिम परिणाम की परवाह किये बिना न्यायालय के अधिकार को बनाए रखता है।
- यद्यपि यदि व्यादेश बाद में अपास्त कर दिया जाता है, तो दण्ड की गंभीरता कम हो सकती है, किंतु अवमाननापूर्ण कृत्य को पूर्वव्यापी रूप से वैध नहीं बनाया जा सकता है।
- इस वाद ने वादियों पर यह स्पष्ट दायित्त्व लगाया कि वे न्यायालय के आदेशों का पालन उनकी प्रभावी अवधि के दौरान करें, न कि इस संभावना पर निर्भर रहें कि आदेश भविष्य में निरस्त हो सकता है।