करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

सिविल कानून

बंधकदार के अंतर्निहित अधिकार

 12-Mar-2025

सुनील कुमार एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य 

" ऋणी द्वारा प्रासंगिक किश्तों का भुगतान न किये जाने की स्थिति में बंधकदार को यह अंतर्निहित अधिकार है कि वह विषयगत भूखंड को सार्वजनिक नीलामी के माध्यम से बेचे।" 

न्यायमूर्ति सुरेश्वर ठाकुर और न्यायमूर्ति विकास सूरी 

स्रोत:पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में न्यायमूर्ति सुरेश्वर ठाकुर और न्यायमूर्ति विकास सूरी की पीठ नेकहा कि यदि ऋणी निर्धारित किश्तों का भुगतान करने में विफल रहता है तो बंधकदार को सार्वजनिक नीलामी में बंधक संपत्ति को बेचने का अधिकार है। 

सुनील कुमार एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?  

  • याचिकाकर्ताओं ने एक त्वरित रिट याचिका दायर कर प्रतिवादी संख्या 3 और 4 को अनापत्ति प्रमाण पत्र (No Objection Certificate-NOC) जारी करने और प्लॉट संख्या 1591-B, सेक्टर 23-23A, गुरुग्राम को प्रतिवादी संख्या 2 से 4 के अभिलेख में याचिकाकर्ताओं को अंतरित करने का निर्देश देने के लिये एक परमादेश रिट की मांग की। याचिकाकर्ताओं ने वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2002 के अधीन भारतीय स्टेट बैंक की ओर से प्रतिवादी संख्या 5 द्वारा किये गए विक्रय की पुष्टि करने वाले पुनः आवंटन पत्र की भी मांग की। 
  • प्रतिवादी संख्या 5 ने अधिनियम के प्रावधानों के अधीन गुरुग्राम के सेक्टर 23-23A में स्थित संपत्ति संख्या 1591- BP को सार्वजनिक नीलामी के माध्यम से 2,28,37,425/- रूपए में संपत्ति की कीमत और 1,72,575/- रूपए टी.डी.एस. के रूप में बेचा। याचिकाकर्ताओं को बोली की स्वीकृति का पत्र दिनांक 06.02.2020 को जारी किया गया। 
  • भुगतान किये जाने के बाद, प्रतिवादी संख्या 5 ने संपत्ति के लिये याचिकाकर्ताओं के पक्ष में विक्रय प्रमाण पत्र जारी किया और12 अक्टूबर 2021 को गुरुग्राम के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा कब्जा सौंप दिया गया। 
  • 06 जुलाई 2020 कोप्रतिवादी संख्या 5 ने प्रतिवादी संख्या 2 सेप्रतिवादियों के अभिलेखों मेंसंपत्ति के अंतरण के लिये अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने का अनुरोध किया। 14 अगस्त 2020 को प्रतिवादी संख्या 2 ने प्रतिवादी संख्या 3 को एक पत्र जारी कर प्रतिवादी संख्या 5 को याचिकाकर्ताओं के नाम पर पुनः आवंटन के लिये आवेदन करने का निदेश देने का निर्देश दिया। 
  • इसके बाद प्रतिवादी संख्या 5 ने प्रतिवादी संख्या 4 से अनुरोध किया कि वह याचिकाकर्ताओं के पक्ष में अभिलेख को अपडेट करने के लिये औपचारिकताएं पूरी करें , लेकिन प्रतिवादियों ने अभी तक याचिकाकर्ताओं की शिकायतों का समाधान नहीं किया है, जिससे उन्हें अपूरणीय हानि और क्षति हुई है, क्योंकि वे संपत्ति का उपयोग करने में असमर्थ हैं। 
  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि यद्यपि उन्होंने भारतीय स्टेट बैंक को संपत्ति को बंधक रखने की अनुमति दी थी, लेकिन सार्वजनिक नीलामी के माध्यम से संपत्ति के विक्रय के लिये कोई विशिष्ट अनुमति नहीं दी गई थी, और इसलिये, अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) के बिना विक्रय वैध नहीं है। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?  

  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों का तर्क, जिसमें कहा गया था कि संपत्ति का विक्रय त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि सार्वजनिक नीलामी से पहले संबंधित प्राधिकारियों द्वाराकोई अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) जारी नहीं किया गया था, निराधार था। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि एक बार जब प्रतिवादियों ने विषयगत भूखंड को बंधक रखने की अनुमति दे दी, तो यह अनुमति ऋणदायी संस्था को ऋणी के व्यतिक्रम की स्थिति मेंसार्वजनिक नीलामी के माध्यम से संपत्ति बेचने के अधिकार तक विस्तारित हो गई। 
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ऋण वसूली के लिये संपत्ति की नीलामी करने का बंधकदार का अंतर्निहित अधिकार, विक्रय के लिये विशिष्ट अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) की कमी के कारणसमाप्त नहीं होता , क्योंकि बंधक रखने के लिये अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) को पर्याप्त माना गया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों ने विक्रय के संबंध में कोई अन्य आपत्ति नहीं उठाई , जैसे कि नीलामी प्रक्रिया में अवैधता या दुरभिसंधि का आरोप। इस प्रकार, न्यायालय ने पाया कि अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) की अनुपस्थिति के बारे में उठाई गई आपत्तियाँ निराधार थीं। 
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर, न्यायालयने रिट याचिका को अनुमति देतेहुए प्रतिवादी संख्या 3 और 4 को अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) जारी करने और संबंधित अधिकारियों के अभिलेख में याचिकाकर्ताओं के नाम पर संपत्ति अंतरित करने का निर्देश दिया। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ओर से प्रतिवादी संख्या 5 द्वारा विक्रय की पुष्टि करते हुए पुनः आवंटन पत्र जारी करने का आदेश दिया। 

संपत्ति अंतरण अधिनियम के अधीन बंधकदार के अधिकार क्या हैं?  

  • पुरोबंध या विक्रय का अधिकार (धारा 67): 
    • जब बंधक-धन संदेय हो जाता है, तो बंधकदार को पुरोबंध (बंधककर्ता को उन्मोचन से रोकना) या विक्रय का अधिकार होता है। 
  • बंधक-धन के लिये वाद लाने का अधिकार (धारा 68):   
    • बंधकदार बंधक-धन की वसूली के लिये वाद ला सकता है यदि: 
    • बंधककर्ता व्यक्तिगत रूप से चुकाने के लिये सहमत हो गया। 
    • बंधक-संपत्ति बंधकदार की व्यतिक्रम के बिना नष्ट हो जाती है। 
    • बंधककर्ता के सदोष कार्य के कारण बंधकदार अपनी प्रतिभूति से वंचित कर देता है। 
    • साधारण बंधक में, बंधककर्ता पुनर्भुगतान में व्यतिक्रम करता है। 
  • संपत्ति के विक्रय का अधिकार (धारा 69 और 69): 
    • अंग्रेजी बंधकों में, तथा जहाँ बंधक विलेख में स्पष्ट रूप से सहमति हो, बंधकदार न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना संपत्ति का विक्रय कर सकता है। 
    • अन्य मामलों में विक्रय के लिये न्यायालय की अनुमति आवश्यक है। 
  • कब्जे का अधिकार (भोग बंधक – धारा 67): 
    • भोग बंधक में, बंधकदार को बंधक का पूर्ण रूप से संदाय होने तक कब्जा बनाए रखने तथा भाटक/लाभ एकत्र करने का अधिकार होता है। 
  • अनुवृद्धि का अधिकार (धारा 70): 
    • यदि बंधक रखी गई संपत्ति में कोई सुधार या परिवर्धन किया जाता है, तो बंधकदार उसे प्रतिभूति का हिस्सा मान सकता है। 
  • नवीनीकृत पट्टे का अधिकार (धारा 71): 
    • यदि बंधकित संपत्ति पट्टा है, और बंधकदार पट्टे को नवीनीकृत करता है, तो इसे बंधक प्रतिभूति के भाग के रूप में रखा जाएगा। 
  • संपत्ति के संरक्षण के लिये व्यय करने का अधिकार (धारा 72): 
    • बंधकदार संपत्ति को क्षति या हानि से बचाने के लिये धन व्यय कर सकता है तथा बंधककर्ता से राशि वसूल सकता है। 
  • बीमा धन का अधिकार [धारा 76()]: 
    • यदि संपत्ति बीमाकृत है और क्षतिग्रस्त हो जाती है, तो बंधकदार को प्रतिभूति के रूप में बीमा राशि का दावा करने का अधिकार है। 

संपत्ति अंतरण अधिनियम के अधीन बंधककर्ता के अधिकार क्या हैं?  

  • मोचन करने का बंधककर्ता का अधिकार (धारा 60):यह उपबंध यह प्रावधान करता है कि निर्दिष्ट समय और स्थान के बारे में उचित सूचना देने पर, बंधककर्ता को बकाया बंधक धन का संदाय करके बंधक मोचन का अधिकार प्राप्त होता है और: 
    • बंधकदार से बंधक-विलेख तथा बंधक-संपत्ति और उसके कब्जे में या उसकी शक्ति के अधीन दस्तावेजों को परिदान करने की मांग करना। 
    • बंधकदार से बंधक-संपत्ति का कब्ज़ा पुनः प्राप्त करना। 
    • बंधककर्ता की इच्छा पर बंधकदार द्वारा अपने व्यय पर संपत्ति को पुनः अंतरित करवाना या बंधककर्ता द्वारा संपत्ति पर अपने अधिकार को समाप्त करने की अभिस्वीकृति पंजीकृत करवाना। 
  • तीसरे पक्षकार को अंतरण का अधिकार (धारा 60): 
    • इस धारा के अनुसार, बंधककर्ता को बंधक विलेख और बंधक-संपत्ति दोनों को बंधककर्ता की पसंद के अनुसार किसी तीसरे पक्षकार को अंतरित करने का अनुरोध करने का अधिकार है। 
    • यदि बंधककर्ता ने बंधक धन का भुगतान करके अपना दायित्व पूरा कर लिया है, तो बंधकदार के लिये इस अनुरोध का अनुपालन करना अनिवार्य है। 
  • दस्तावेजों के निरीक्षण और पेश कराने का अधिकार (धारा 60): 
    • बंधककर्ता, अपने मोचन के अधिकार का प्रयोग करते हुए, किसी भी युक्तियुक्त समय पर, बंधकदार द्वारा उनकी ओर से किये गए व्यय की सफलतापूर्वक प्रतिपूर्ति करने पर, बंधक-संपत्ति और बंधकदार द्वारा रखे गए बंधक विलेख से संबंधित दस्तावेजों की प्रतियां या उद्धरणों का निरीक्षण करने और प्राप्त करने का अनुरोध कर सकता है। 
  • पृथकतया या साथ-साथ मोचन कराने का अधिकार (धारा 61): 
    • संविदात्मक समझौते के अभाव में, जब एक ही बंधकदार के पक्ष में कई बंधक निष्पादित किये जाते हैं, तो बंधककर्ता को इन बंधक विलेखों में से एक या अधिक को एक साथ या किसी एक विलेख को अलग से विशिष्ट बंधक के लिये बकाया राशि के भुगतान पर मोचन करने का अधिकार होता है। 
  • कब्ज़ा प्रत्युद्धरण का भोग-बंधककर्ता का अधिकार (धारा 62) : भोग बंधक में, बंधककर्ता को बंधकदार से बंधक विलेख का कब्जा प्रत्युद्धरण करने का अधिकार है: 
    • जहाँ कि बंधकदार संपत्ति के भाटकों और लाभों के बंधक धन का भुगतान स्वयं कर लेने के लिए प्राधिकृत है वहां तब जब ऐसे धन का भुगतान हो गया हो, 
    • जहाँ कि बंधकदार ऐसे भाटकों और लाभों से या उनके किसी भाग से बंधक धन के केवल किसी भाग का भुगतान स्वयं कर लेने के लिए प्राधिकृत है, वहाँ तब जब बंधक धन के संदाय के लिये विहित कालावधि का (यदि कोई हो) अवसान हो गया हो और बंधककर्ता बंधक धन या उसका कोई अतिशेष बंधकदारों को दे दे या निविदत्त कर दे या जैसा कि एतस्मिन्पश्चात् उपबंधित है, न्यायालय में निक्षिप्त कर दे। 
  • बंधक संपत्ति में अनुवृद्धि (धारा 63): 
    • यदि तत्प्रतिकूल संविदा विद्यमान नहीं है, तो बंधककर्ता, बंधक के जारी रहने के दौरान, जब वह बंधकदार के कब्जे में हो, मोचन पर बंधक-संपत्ति पर अधिकार प्राप्त करने का हकदार है। 
    • जब बंधककर्ता द्वारा बंधक का मोचन करा लिया जाता है तो बंधकदार को अनुवृद्धि का दावा करने का कोई अधिकार नहीं होता है। 
  • बंधक संपत्ति में अभिवृद्धि (धारा 63): 
    • यदि संपत्ति बंधक रखी गई है, और बंधकदार उसे प्रतिभूति के रूप में रखते हुए संपत्ति में सुधार करता है, तो बंधककर्ता को संपत्ति के मोचन पर उन सुधारों पर अधिकार होता है। यह अधिकार तब तक विद्यमान रहता है जब तक कि कोई तत्प्रतिकूल संविदा न हो।  
    • यदि बंधकदार संपत्ति को क्षति या हानि से बचाने के लिये, प्रतिभूति के रूप में संपत्ति के मूल्य को बनाए रखने के लिये, या किसी सरकारी प्राधिकरण के वैध आदेश के अनुपालन में आवश्यक सुधार करता है, तो बंधककर्ता आमतौर पर उन सुधारों की लागत या खर्चे का भुगतान करने के लिये उत्तरदायी होता है। 
  • बंधकित पट्टे का नवीकरण (धारा 64): 
    • जहाँ कि बंधक संपत्ति पट्टा है और बंधकदार उस पट्टे का नवीकरण अभिप्राप्त करता है, वहाँ बंधककर्ता द्वारा तत्प्रतिकूल संविदा न की गई हो तो मोचन पर नवीन पट्टे का फायदा उसे मिलेगा ।  
  • बंधककर्ता द्वारा विवक्षित संविदाएं (धारा 65):तत्प्रतिकूल संविदा न हो तो यह समझा जाएगा कि बंधककर्ता ने बंधकदार से संविदा की है कि- 
    • वह हित, जिसे बंधककर्ता बंधकदार को अंतरित करने की प्रव्यंजना करता है अस्तित्वयुक्त है, और उसे अंतरित करने की शक्ति बंधककर्ता को है, 
    • बंधककर्ता बंधक संपत्ति पर बंधककर्ता के हक की प्रतिरक्षा करेगा या यदि बंधकदार का उस पर कब्जा है तो बंधककर्ता उसे उस हक की प्रतिरक्षा करने के योग्य बनाएगा, 
    • जब तक बंधक संपत्ति पर बंधकदार का कब्जा नहीं है, तब तक संपत्ति की बाबत प्रोद्भवमान शोध्य सब लोक प्रभारों को बंधककर्ता देगा | 
  • बंधककर्ता की पट्टा करने की शक्ति (धारा 65): 
    • संपत्ति पर वैध कब्जे के दौरान, बंधककर्ता को पट्टा करने का अधिकार है, जो बंधकदार पर बाध्यकारी होगा जब तक कि बंधक में अन्यथा उल्लेख न किया गया हो। 
  • दुर्व्यय के मामले में अधिकार (धारा 66) :  
    • इस प्रावधान के आधार पर, बंधककर्ता को सामान्यतौर पर संपत्ति की किसी भी प्राकृतिक क्षय के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है। 

सिविल कानून

छत्तीसगढ़ न्यायिक परीक्षा की प्रास्थिति

 12-Mar-2025

सुश्री विनीता यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य 

“कोई उम्मीदवार जो विधि स्नातक है, चाहे वह अधिवक्ता के रूप में नामांकित हो या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि उसे भी उसी संवीक्षा से गुजरना होगा  जिससे अधिवक्ता के रूप में नामांकित अन्य उम्मीदवार को गुजरना पड़ता है।”  

मुख्य न्यायाधीश रमेश सिंह और न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल 

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

मुख्य न्यायाधीश रमेश सिंह और न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल की खण्ड पीठ ने  धारित किया कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा, 2024 के लिये बार नामांकन एक  न्यायोचित शर्त नहीं है। 

  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सुश्री विनीता यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) के मामले में यह धारित किया 

सुश्री विनीता यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  •  सुश्री विनीता यादव, जो एक सरकारी कर्मचारी हैं और रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से विधि स्नातक हैं, ने छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा, 2024 में सम्मिलित होने का अनुरोध किया था। 
  • 5 जुलाई 2024 को छत्तीसगढ़ सरकार के विधि एवं विधायी कार्य विभाग ने छत्तीसगढ़ अवर न्यायिक सेवा (भर्ती एवं सेवा शर्तें) नियम, 2006 के नियम 7 के उपनियम (1) के खण्ड  (ग) को प्रतिस्थापित करते हुए राजपत्र अधिसूचना जारी की।  
  • संशोधित नियम में यह अनिवार्य किया गया है कि उम्मीदवारों के पास न केवल किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से विधि की डिग्री होनी चाहिये, अपितु  अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित भी होना चाहिये।  
  • तत्पश्चात्  23 दिसंबर, 2024 को छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग ने सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा, 2024 के लिये विज्ञापन जारी किया, जिसमें अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण की इस आवश्यकता को शामिल किया गया।  
  • प्रार्थी, पूर्णकालिक सरकारी कर्मचारी होने के कारण, बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 49 के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकन करने से सांविधिक रूप से प्रतिबंधित था, जो किसी भी पूर्णकालिक उपजीविका में लगे व्यक्तियों के नामांकन को प्रतिबंधित करता है।  
  • परीक्षा के लिये ऑनलाइन आवेदन जमा करने की अंतिम तिथि 24 जनवरी, 2025 थी। 
  • प्रार्थी ने संशोधित नियम और परीक्षा विज्ञापन को इस आधार पर चुनौती देते हुए रिट याचिका (डब्ल्यूपीएस संख्या 608/2025) दायर कि, की जिसमें कहा गया कि इसने भर्ती प्रक्रिया में भाग लेने के उसके अधिकार को अनुचित रूप से प्रतिबंधित कर दिया है।   
  • प्रार्थी  ने तर्क दिया कि हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखण्ड , मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली सहित कई अन्य राज्य न्यायिक सेवा परीक्षाओं के लिये समान नामांकन आवश्यकताएं लागू नहीं करते हैं। 
  • प्रार्थी  ने तर्क दिया कि मध्य प्रदेश में, सिविल जज परीक्षा में उपस्थित होने के लिये अधिवक्ता होना केवल एक वैकल्पिक आवश्यकता है। 
  • प्रार्थी  ने अपने तर्कों के समर्थन में पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (एआईआर 1952 एससी 75), अजय हसिया इत्यादि बनाम खालिद मुजीब सेहरावर्दी एवं अन्य (एआईआर 1981 एससी 487), और अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2002) 4 एससीसी 247 में दिये गए उच्चतम न्यायालय के निर्णयों का हवाला दिया। 

 न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने प्रथम दृष्टया धारित किया कि प्रार्थी के तर्कों में सारभूत योग्यता है, जिस पर विचार किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने धारित किया कि चयन प्रक्रिया में, उम्मीदवारों की भागीदारी के दायरे को अनावश्यक शर्तें लगाकर सीमित नहीं किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने अभिकथित किया कि अधिक समावेशी दृष्टिकोण से उम्मीदवारों का एक व्यापक समूह बनेगा, जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक सेवा के लिये बेहतर योग्य व्यक्तियों का चयन संभव हो सकेगा। 
  • न्यायालय ने तर्क दिया कि विधि स्नातक, चाहे वह अधिवक्ता के रूप में नामांकित हो या नहीं, चयन प्रक्रिया के दौरान समान संवीक्षा से गुजरेगा, जिससे नामांकन संबंधी विभेद काफी हद तक महत्वहीन हो जाएगा।   
  • न्यायालय ने स्वीकार किया कि प्रार्थी द्वारा उद्धृत उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर विचार करने पर ऐसी शर्त लगाने में तर्कसंगत आधार का अभाव प्रतीत होता है। 
  • न्यायालय ने अवधारित किया कि अंतरिम उपाय के रूप में, प्रार्थी  और समान प्रास्थिति वाले उम्मीदवारों को अन्य सभी मानदण्डों को पूरा करने के अधीन भर्ती प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति दी जानी चाहिये 
  • न्यायालय ने छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग को ऑनलाइन आवेदन जमा करने की समय-सीमा को अधिमानतः 22 जनवरी 2025 से एक महीने तक बढ़ाने का निदेश दिया। 
  • न्यायालय ने आदेश दिया कि आयोग को अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकन के बिना भी उम्मीदवारों को अपने आवेदन जमा करने की अनुमति देनी चाहिये 
  • न्यायालय ने निर्दिष्ट किया कि उसका आदेश व्यक्तिगत रूप से (केवल प्रार्थी  तक सीमित) के बजाय (समान प्रास्थिति वाले सभी व्यक्तियों को प्रभावित करने वाला) के अधीन संचालित होगा। 
  • न्यायालय ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय (अपने प्रशासनिक पक्ष में) से अनुरोध किया कि वह प्रार्थी  द्वारा संदर्भित उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के अवलोकन में विवादित संशोधन पर पुनर्विचार करे। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भर्ती प्रक्रिया में गैर-नामांकित उम्मीदवारों की भागीदारी याचिका के अंतिम परिणाम के अधीन रहेगी। 
  • न्यायालय ने अभिकथित किया कि उच्चतम  न्यायालय पहले से ही इस विवाद  पर विचार कर रहा है और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि वर्तमान याचिका में शामिल विवाद  प्रकृति में समान है, हम इस मामले को इस स्तर पर स्थगित करना उचित समझते हैं और इसे WP(C) संख्या 1022/1989 में उच्चतम  न्यायालय के आदेशों की प्रतीक्षा में लंबित रखते हैं। 

 अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (WP(C)सं. 1022/1989) का मामला क्या है 

 अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ मामले में उच्चतम न्यायालय का आदेश (19 अप्रैल 2022) 

यह आदेश दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा में न्यायिक अधिकारियों के लिये पदोन्नति आवश्यकताओं में संशोधन से संबंधित है: 

  • मूल आवश्यकताएँ: 
    • सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से पदोन्नति के लिये पात्र होने के लिये पहले सिविल जज (वरिष्ठ डिवीजन) के रूप में 5 वर्ष की सेवा की आवश्यकता होती थी। 
    • 2010 के आदेश में सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा कोटा 25% से घटाकर 10% कर दिया गया था। 
  • चिन्हित विवाद्यक: 
    • दिल्ली में एक विचित्र प्रास्थिति है जहाँ सिविल जज (जूनियर डिवीजन) और सिविल जज (सीनियर डिवीजन) एक ही काम करते हैं। 
    • पदों का अनुपात 80:20 है। 
    • इससे एक अड़चन उत्पन्न होती है जहाँ योग्य उम्मीदवार 5 वर्ष की सीनियर डिवीजन की आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाते हैं। 
  • संशोधन स्वीकृत: 
    • न्यायालय ने अपने पिछले आदेशों को संशोधित करते हुए न्यायिक अधिकारियों को या तो: a) 7 वर्ष की अर्हक सेवा (जूनियर डिवीजन के रूप में 5 वर्ष + सीनियर डिवीजन के रूप में 2 वर्ष), या b) सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में 10 वर्ष की अर्हक सेवा की अनुमति दी। 
    • यह संशोधन केवल दिल्ली उच्चतर न्यायिक सेवा पर लागू होता है। 
  • हाल ही में उच्चतम न्यायालय का आदेश (मार्च 2025) 
    • यह गुजरात में न्यायिक नियुक्तियों के संबंध में एक और नया आदेश प्रतीत होता है: 
  • विवाद :  
    • क्या JMFC और सिविल जज (जूनियर डिवीजन) पदों पर आवेदन करने के लिये वकील के रूप में न्यूनतम वर्षों का अभ्यास आवश्यक होना चाहिये 
  • प्रास्थिति: 
    • यह मामला तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष लंबित है। 
    • मामले की सुनवाई हो चुकी है और निर्णय के लिये सुरक्षित रखा गया है। 
  • न्यायालय की कार्यवाही : 
    • गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा शुरू की गई भर्ती कार्यवाही पर रोक लगा दी। 
    • गुजरात उच्च न्यायालय और गुजरात राज्य को नोटिस जारी किये 
    • वापस लेने का दिनांक 18 मार्च 2025 नियत किया गया 

मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा भर्ती विवाद में भी ऐसी ही घटना हुई थी। 

  • नियम संशोधन और प्रारंभिक चुनौती: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियम के नियम 7(छ) में संशोधन करके प्रवेश स्तर के न्यायिक पदों के लिये तीन वर्ष के विधिक अभ्यास की आवश्यकता बताई थी, जिसे उन उम्मीदवारों द्वारा तुरंत चुनौती दी गई थी जिन्होंने इस आवश्यकता को पूरा किये बिना आवेदन करने के लिये अनंतिम अनुमति मांगी थी। 
  • उच्चतम न्यायालय की प्रारंभिक राहत: उच्च न्यायालय द्वारा अनंतिम आवेदनों को अस्वीकार करने के पश्चात्, प्रार्थीओं ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने उम्मीदवारों को तीन वर्ष के अभ्यास की आवश्यकता या एलएलबी में 70% अंकों की आवश्यकता को पूरा किये बिना परीक्षा के लिये आवेदन करने की अनुमति देते हुए अंतरिम राहत दी।\ 
  • विधिक अनिश्चितता के बीच भर्ती प्रक्रिया: उच्चतम न्यायालय में संशोधित नियमों को चुनौती दिये जाने के बावजूद, मध्य प्रदेश न्यायपालिका ने 17 नवंबर 2023 को विज्ञापन जारी किया और 14 जनवरी 2024 को प्रारंभिक परीक्षा आयोजित की। 
  • संशोधित नियमों का सत्यापन: भर्ती प्रक्रिया के दौरान, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय दोनों ने अंततः तीन वर्ष के अभ्यास की आवश्यकता वाले संशोधित नियमों की वैधता को बरकरार रखा, जिससे ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि ऐसे उम्मीदवारों की भागीदारी के साथ परीक्षा आयोजित की गई जो अब पुष्टि की गई पात्रता मानदण्डों को पूरा नहीं करते थे। 
  • पुनर्मूल्यांकन के लिये याचिका: प्रारंभिक परिणाम घोषित होने और मुख्य परीक्षा आयोजित होने के पश्चात्, प्रारंभिक परिणामों के पुनर्मूल्यांकन की मांग करते हुए एक याचिका दायर की गई, जिसमें तर्क दिया गया कि अयोग्य उम्मीदवारों को शामिल करने से कट-ऑफ स्कोर कृत्रिम रूप से बढ़ गया, जिससे कम स्कोर वाले योग्य उम्मीदवार आगे नहीं बढ़ पाए। 
  • उच्च न्यायालय की प्रारंभिक खारिजी और उलटफेर: उच्च न्यायालय ने प्रारंभ में पुनर्मूल्यांकन याचिका को खारिज कर दिया, परंतु पश्चात् में समीक्षा के पश्चात् अपने निर्णय को पलट दिया, जिसमें अयोग्य उम्मीदवारों को शामिल करने से कट-ऑफ अंक कैसे प्रभावित होंगे, इसकी अपनी समझ में "स्पष्ट त्रुटियाँ" स्वीकार की गईं। 
  • महत्वपूर्ण न्यायिक निष्कर्ष: 13 जून 2024 को जारी अपने समीक्षा आदेश में, उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अभिकथित किया कि प्रारंभिक परीक्षा से प्रारंभ होने वाले हर चरण में अयोग्य उम्मीदवारों को बाहर करने में विफल रहने के कारण भर्ती प्रक्रिया "संशोधित नियमों से भटक गई"। 
  • प्रक्रियात्मक सुधार का आदेश: उच्च न्यायालय ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें प्रारंभिक परीक्षा में न्यूनतम योग्यता अंक प्राप्त करने वाले सभी उम्मीदवारों को तीन वर्ष के अभ्यास आवश्यकता के अधीन अपनी पात्रता की पुष्टि करने वाले दस्तावेज जमा करने की आवश्यकता थी, प्रभावी रूप से एक पूर्वव्यापी स्क्रीनिंग प्रक्रिया को लागू करना। 
  • उच्चतम  न्यायालय में अपील और अविरत विलंब: उच्च न्यायालय के समीक्षा आदेश को उच्चतम  न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसकी सुनवाई जनवरी 2025 में होने की उम्मीद है, जिसके परिणामस्वरूप भर्ती प्रक्रिया में लगभग 11 महीने का विलंब हुआ और संशोधित प्रारंभिक परिणामों या मुख्य परीक्षा परिणामों पर कोई अद्यतन नहीं हुआ। 
  • मौलिक विधिक तनाव: यह मामला आवश्यक न्यायिक पदों के लिये समय पर भर्ती करने और पात्रता नियमों का कठोर रूप से अनुपालन सुनिश्चित करने में प्रशासनिक दक्षता के बीच तनाव को उजागर करता है, यह दर्शाता है कि कैसे एक बहु-चरणीय भर्ती प्रक्रिया के शुरुआती चरणों में प्रक्रियात्मक अनियमितताएं जटिल विधिक  चुनौतियों में बदल सकती हैं, जिन्हें बिना किसी महत्वपूर्ण व्यवधान के ठीक करना मुश्किल है। 

छत्तीसगढ़ न्यायिक परीक्षा की वर्तमान प्रास्थिति क्या है? 

  • छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग (CGPSC) ने शुरू में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) परीक्षा 2024 की घोषणा की थी, जिसके लिये आवेदन 26 दिसंबर 2024 से 24 जनवरी 2025 के बीच जमा किये जाने थे। 
  • सुश्री विनीता यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (डब्ल्यूपीएस संख्या 608/2025) में उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के पश्चात्, आयोग ने 23 जनवरी 2025 को जारी एक शुद्धिपत्र के माध्यम से आवेदन की अंतिम तिथि 23 फरवरी 2025 तक बढ़ा दी है। 
  • उच्च न्यायालय ने निदेश दिया है कि जो विधि स्नातक अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं हैं, वे अब याचिका के अंतिम परिणाम के अधीन परीक्षा के लिये अनंतिम रूप से आवेदन कर सकते हैं। 
  • यह मामला वर्तमान में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में लंबित है, जिसकी अगली सुनवाई 17 फरवरी 2025 को निर्धारित है। 
  • यह मामला मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा भर्ती विवाद से मिलता-जुलता है, जहाँ पात्रता मानदण्ड के संबंध में चल रहे मुकदमे के बावजूद परीक्षाएं आगे बढ़ीं। 
  • मध्य प्रदेश मामले में, प्रारंभिक परीक्षा जनवरी 2024 में आयोजित की गई थी, जबकि संशोधित नियमों को चुनौती देने वाली याचिकाएं अभी भी उच्चतम  न्यायालय में लंबित थीं। 
  • मध्य प्रदेश के पूर्व उदाहरण के आधार पर, संभावना है कि चल रही विधिक चुनौती के बावजूद छत्तीसगढ़ प्रारंभिक परीक्षा 18 मई 2025 को निर्धारित समय पर हो सकती है। 
  • हालांकि, यह न्यायालय से कोई स्पष्ट स्थगन आदेश न होने के अधीन होगा और संभवतः इस समझ पर सशर्त होगा कि गैर-नामांकित उम्मीदवारों की भागीदारी अनंतिम बनी हुई है। 
  • यह मामला इस तथ्य से जटिल है कि उच्चतम  न्यायालय वर्तमान में अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ और अन्य बनाम भारत संघ (WP(C)सं. 1022/1989) में न्यायिक नियुक्तियों के लिये न्यूनतम अभ्यास आवश्यकताओं के संबंध में एक समान मामले पर विचार कर रहा है। 
  • अभ्यर्थियों को परीक्षा की तैयारी करते समय संभावित विधिक  घटनाक्रमों के प्रति सतर्क रहना चाहिये, जो परीक्षा कार्यक्रम या पात्रता मानदण्ड को प्रभावित कर सकते हैं।