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आपराधिक कानून

IPC की धारा 498-A के अंतर्गत कार्यवाही

 19-Mar-2025

सुमेश चड्ढा बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश एवं अन्य

“न्यायमूर्ति रजनेश ओसवाल ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-A के अंतर्गत कार्यवाही में विशिष्ट आरोपों के बिना पति के रिश्तेदारों को आरोपी बनाने की प्रथा की निंदा की है”।

न्यायमूर्ति रजनेश ओसवाल

स्रोत: जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति रजनेश ओसवाल ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-A के अंतर्गत कार्यवाही में विशिष्ट आरोपों के बिना पति के रिश्तेदारों को आरोपी बनाने की प्रथा की निंदा की है।

  • जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय ने सुमेश चड्ढा बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

सुमेश चड्ढा बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता सुमेश चड्ढा हैं। वे लुधियाना के निवासी हैं एवं कुंवर सूद के मामा हैं। 
  • कुंवर सूद की शादी प्रतिवादी संख्या 2 (प्रेरणा गुप्ता) से हुई थी। नवंबर 2019 में उनकी शादी हुई थी। 
  • कुंवर सूद एवं प्रतिवादी संख्या 2 के बीच विवाह विफल हो गया। याचिकाकर्त्ता ने जुलाई 2023 में यूनाइटेड किंगडम में सुलह के लिये मीटिंग में भाग लिया। 
  • सुलह के प्रयासों के बावजूद, जोड़े ने अलग होने का निर्णय लिया। 

  • कुंवर सूद ने UK के हार्लो में HM कोर्ट्स एंड ट्रिब्यूनल सर्विसेज के माध्यम से विवाह-विच्छेद के लिये अपील की। 
  • UK के न्यायालय ने एक सशर्त विवाह-विच्छेद आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि विवाह पूरी तरह से टूट चुका है। इसके बाद अंतिम विवाह-विच्छेद का आदेश दिया गया।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने UK की न्यायालय में विवाह-विच्छेद की कार्यवाही में भाग लिया।
  • बाद में, प्रतिवादी संख्या 2 ने याचिकाकर्त्ता सुमेश चड्ढा के विरुद्ध IPC की धारा 498-A एवं 420 के अधीन पुलिस स्टेशन गांधी नगर, जम्मू में FIR दर्ज कराई।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने आरोप लगाया कि उसकी शादी के दौरान, उसे उसके पति और ससुराल वालों द्वारा यातना, क्रूरता और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, तथा दावा किया कि याचिकाकर्त्ता ने अपने ससुराल वालों को दुष्प्रेरित किया था, जिसके परिणामस्वरूप क्रूरता एवं अपमान के कृत्य कारित हुए।
  • एक विशिष्ट आरोप में प्रतिवादी संख्या 2 से संबंधित आभूषण/स्त्रीधन को अवैध रूप से रोके रखना शामिल था, जिसके विषय में उसने दावा किया कि याचिकाकर्त्ता के कहने पर उसे रोक लिया गया था।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने दावा किया कि याचिकाकर्त्ता को अन्य आरोपी व्यक्तियों द्वारा उसके मूल्यवान आभूषण और अन्य सामान वापस करने के लिये नामित किया गया था, जैसा कि ईमेल में सहमति हुई थी, लेकिन ये सामान कभी वापस नहीं किये गए।
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने आरोप लगाया कि मई 2023 में, याचिकाकर्त्ता के भतीजे (उसके पति) ने अंतिम गर्भाधान से एक सप्ताह पहले उसके IVF उपचार के लिये अपनी सहमति वापस ले ली, जिससे उसे काफी भावनात्मक, शारीरिक एवं वित्तीय समस्या हुई। 
  • शिकायतकर्त्ता ने यह भी आरोप लगाया कि याचिकाकर्त्ता ने सुलह की आड़ में जुलाई 2023 में लंदन में मीटिंग्स आयोजित कीं, लेकिन वास्तव में इन मीटिंग्स का प्रयोग उसे और उसके परिवार को परेशान करने और पैसे प्राप्त करने के लिये किया। 
  • इन मीटिंग्स के बाद, कुंवर सूद ने प्रतिवादी संख्या 2 को विवाह-विच्छेद का नोटिस भेजा। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि FIR मिथ्या एवं तुच्छ थी, जो उसके विरुद्ध केवल इसलिये दायर की गई क्योंकि उसे ऐसे गहने सौंपने के लिये नामित किया गया था जो उसके कब्जे में नहीं थे। 
  • ऐसी कार्यवाहियों से व्यथित होकर वर्तमान याचिका जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने इस मामले के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं:
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि प्राथमिकी में सभी आरोप मुख्य रूप से कुंवर सूद (पति) और उसके माता-पिता के विरुद्ध थे, न कि याचिकाकर्त्ता सुमेश चड्ढा के विरुद्ध।
    • न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता जुलाई 2023 में ही सामने आए, जब प्रतिवादी संख्या 2 एवं उसके पति के बीच संबंध पहले ही काफी खराब हो चुके थे।
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि शिकायतकर्त्ता के आवेदन में याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध कोई विशेष आरोप नहीं लगाया गया था, जिसके कारण प्राथमिकी दर्ज की गई।
    • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि याचिकाकर्त्ता को केवल इसलिये आरोपी बनाया गया था क्योंकि उसे अन्य आरोपियों द्वारा आभूषण/वस्तुएं सौंपने के लिये नामित किया गया था जो भौतिक रूप से UK में थे।
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि विवेचना के दौरान दर्ज किये गए अभिकथन में भी याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध UK में आयोजित सुलह हेतु आयोजित मीटिंग्स में उसकी भागीदारी को छोड़कर कोई विशेष आरोप नहीं थे।
    • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता को केवल इसलिये आरोपी के रूप में शामिल किया गया था ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके कि वह अपनी बहन, भतीजे और बहनोई को शिकायतकर्त्ता के गहने और सामान लौटाने के लिये राजी करे।
    • उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के उदाहरणों का उदाहरण दिया, जिसमें बिना किसी विशेष आरोप के IPC की धारा 498-A के अंतर्गत कार्यवाही में पति के रिश्तेदारों को आरोपी के रूप में फंसाने की प्रथा की बार-बार निंदा की गई है।
    • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध दर्ज FIR में सामान्य एवं बहुपक्षीय आरोप शामिल थे, जो आरोपी को अधिक फंसाने का सुझाव देते हुए अतिरंजित संस्करण प्रतीत होते थे।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अधीन क्रूरता से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

परिचय

  • BNS की धारा 85 में यह प्रावधानित किया गया है:
    • किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना।
      • किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता कारित करना। जो कोई, किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए, ऐसी महिला के साथ क्रूरता करता है, उसे तीन वर्ष तक के कारावास से दण्डित किया जाएगा तथा वह जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
    • यह प्रावधान पहले IPC की धारा 498A के अंतर्गत आता था।

महत्त्वपूर्ण निर्णय 

  • पायल शर्मा बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2024): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि:
    • सामान्य आरोपों के संबंध में: उच्चतम न्यायालय ने माना कि "आरोपी के विरुद्ध आरोप सामान्य एवं सर्वव्यापक प्रकृति के हैं तथा इसके अतिरिक्त वे कुछ और नहीं बल्कि अतिशयोक्तिपूर्ण संस्करण हैं जो हमेशा आरोपी के अतिशयोक्तिपूर्ण आरोप का सुझाव देते हैं।" 
    • धारा 482 के मामलों में न्यायालय का कर्त्तव्य: उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि न्यायालयों का कर्त्तव्य है कि वे "इस तर्क पर विचार करें कि संबंधित आरोपी के विरुद्ध किसी रिश्तेदार के विरुद्ध आरोपित अपराध(ओं) को गठित करने के लिये विशिष्ट आरोपों का अभाव है या यह आरोप पति के परिवार पर मांगों को पूरा करने के लिये दबाव डालने के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।"
    • तर्कों पर विचार करने का दायित्व: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "न्यायालयें ऐसे तर्कों पर विचार करने के दायित्व से विरत नहीं हो सकतीं", तथा इस तथ्य पर बल दिया कि न्यायालयों को अति-आशय के दावों की जाँच करनी चाहिये, भले ही आरोप-पत्र पहले ही दायर किया जा चुका हो।

आपराधिक कानून

बाल साक्षी का परिसाक्ष्य

 19-Mar-2025

मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह   

"साक्ष्य अधिनियम में साक्षी  के लिये  कोई न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं की गई है, और इसलिये  बाल साक्षी  एक सक्षम साक्षी है और उसके साक्ष्य को प्रत्यक्ष  तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता है।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों?  

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ नेबाल साक्षी का परिसाक्ष्य  अभिलिखित  करते समय ध्यान में रखे जाने वाले सिद्धांत निर्धारित किये ।  

  • उच्चतम न्यायालय  नेमध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?    

  • 15 जुलाई, 2003 कोमध्यरात्रि के समय भूरा सिंह उर्फ ​​यशपाल और उसके पिता भरत सिंह ने बलवीर सिंह यादव (अभियुक्त) के घर से वीरेंद्र कुमारी (मृतका) की चीखें सुनीं। 
  • चीख-पुकार बंद होने के पश्चात  करीब तीन बजे उन्होंने देखा कि बलवीर और उसके परिवार के सदस्य अपने खेत में वीरेंद्र कुमारी के शव का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। 
  • परिवादी 16 जुलाई 2003 को सुबह करीब 9 बजे इंदार पुलिस स्टेशन गएऔरदण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 174 के अधीन  अप्राकृतिक मृत्यु  की रिपोर्ट दर्ज कराई। 
  • ASI महेंद्र सिंह चौहान ने जांच की, जिसमें पता चला कि अभियुक्त  ने अपनी पत्नी को पहली मंजिल पर बरामदे में जमीन पर फेंक दिया और फिर अपने पैर से उसकी गर्दन दबा दी। 
  • 20 जुलाई 2003 को, बलवीर सिंह यादव और उनकी बहन जतन बाई के विरुद्ध भारतीय दण्ड  संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302, 201 के साथ 34 के अधीन  अपराध के लिये FIR  संख्या 142/2003 रजिस्ट्रीकृत की गई थी। 
  • अन्वेषण के दौरान, पुलिस ने साक्षियों  के कथन  अभिलिखित किये, साइट प्लान तैयार किया और दाह संस्कार स्थल से हड्डियां और जली हुई चूड़ियां तथा एक प्लास्टिक डीजल कैन जब्त किया। 
  • अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गयाऔर आरोप पत्र दाखिल कर दिया गया। 
  • 3 अगस्त 2003 को पुलिस नेअभियुक्त  और मृतक की पुत्री  रानी, ​​जो एक बाल साक्षी  थी, काकथन अभिलिखित  किया । 
  • सह-अभियुक्त जतन बाई अवयस्क  पाई गई, इसलिये  उसकावाद पृथक  कर दिया गया। 
  • बलवीर सिंह यादव के विरुद्ध  मामला सत्र न्यायालय को S.T. संख्या 197/2003 के रूप में सुपुर्द किया  गया था, जहाँ  अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा आरोप विरचित  किये  गए थे, जिस पर अभियुक्त  ने निर्दोष होने का अभिवाक् दिया था ।  

  • विचारण न्यायालय  ने निम्नलिखित आदेश दिये :  
    • विचारण न्यायालय ने अभियुक्त  बलवीर सिंह यादव को धारा 302, 201 सहपठित भारतीय दण्ड संहिता  की धारा 34 के अधीन  दोषी ठहराया, जो मुख्य रूप से पीडब्लू 6 रानी (अभियुक्त  और मृतक की 7-8 वर्षीय पुत्री ) के परिसाक्ष्य  पर आधारित था, जिसने अपने पिता को अपनी माँ  की गर्दन पर अपना पैर दबाते हुए देखा था, जिससे उसकी मृत्यु  हो गई थी। 
    • न्यायालय  ने पाया कि परिवार के सदस्यों को सूचित किये  बिना रात में मृतक का गुप्त रूप से अंतिम संस्कार कर दिया जाना, अभियुक्त  का घटनास्थल से भाग जाना, तथा अभियुक्त  और मृतक के बीच तनावपूर्ण संबंध (पूर्व भरण-पोषण मामलों सहित) अपराध सिद्ध करने वाली परिस्थिति थी 
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161  के अधीन  पीडब्लू 6 के कथन  को अभिलिखित  करने में देरी के बावजूद, न्यायालय  ने उसके परिसाक्ष्य  को विश्वसनीय, स्वाभाविक पाया, तथा अन्य साक्षियों  द्वारा संपुष्टि  की गई, जिन्होंने मृतक की चीखें सुनी थीं, तथा अंतिम संस्कार स्थल पर पाए गए जले हुए चूड़ियों जैसे भौतिक साक्ष्यों द्वारा भी इसकी संपुष्टि  की गई। 
    • अभियुक्त को हत्या के लिये  आजीवन कठोर कारावास व 1,000 रुपये जुर्माना (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 ) तथा साक्ष्य नष्ट करने के लिये  चार वर्ष का  कठोर कारावास व 2,000 रुपये जुर्माना (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201) का दण्ड  सुनाया गया 
  • उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय दिये  जिसके विरुद्ध मामला उच्चतम  न्यायालय में आया: 
    • उच्चन्यायालय ने अभियुक्त बलवीर सिंह यादव को दोषमुक्त  कर दिया, तथा अधीनस्थ न्यायालय  के निर्णय  को पलट दिया, जिसका मुख्य कारण पी.डब्लू.6 रानी के परिसाक्ष्य  की विश्वसनीयता के बारे में चिंता थी, तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 161  के अधीन  उसका कथन  अभिलिखित  करने में 18 दिन की देरी हुई थी। 
    • न्यायालय  ने यह संदिग्ध पाया कि अभियुक्त को पी.डब्लू.6 के कथन अभिलिखित  होने के पश्चात  ही गिरफ्तार किया गया था, जिससे पता चलता है कि उससे पहले पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे और यह भी संकेत मिलता है कि उसका पहले का शवगृह जांच कथन  (जो न्यायालय  में पेश नहीं किया गया था) अभियोजन  के लिये  प्रतिकूल हो सकता है। 
    • उच्च न्यायालय ने परिवादी  पी.डब्लू.3 भूरा के परिसाक्ष्य में विरोधाभासों की पहचान की, जिसमें मुर्दाघर रिपोर्ट में उसके द्वारा अभियुक्त के घर प्रातः 3:00 बजे जाने के बारे में दिये  गए कथनों  से इंकार  करना भी शामिल था, तथा उसके द्वारा यह स्वीकृति  भी अभिलिखित  की गई कि दाह संस्कार के दौरान ग्रामीण मौजूद थे, जिससे शव को गुप्त तरीके से दफनाने के दावे कमजोर हो गए। 
    • स्वतंत्र साक्षी  पी.डब्लू.1 और पी.डब्लू.2 के परिसाक्ष्य  के आधार पर, न्यायालय  ने पाया कि यह बात अविश्वसनीय है कि पी.डब्लू.3 ने मृतक की चीखें 4-5 फर्लांग दूर से सुनी होंगी और कहा कि चूंकि 
    •  ग्राम में कोई  श्मशान घाट नहीं था, इसलिये  खेतों में दाह संस्कार करना ग्राम  में सामान्य प्रथा थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ  क्या थीं? 

  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  किभारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 118, जोअबभारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 124 में निहित है , यह उपबंध  करती है कि सभी व्यक्ति साक्ष्य देने के लिये  सक्षम होंगे, जब तक कि न्यायालय यह न समझे कि कम आयु, अत्यधिक बुढ़ापे, मानसिक बीमारी या इसी तरह के किसी अन्य कारण से उन्हें उनसे पूछे गए प्रश्नों को समझने या इन प्रश्नों के तर्कसंगत उत्तर देने से रोका जा रहा है। 
  • यदि किसी अल्पवयस्क बालकों में प्रश्नों को समझने तथा उनके तर्कसंगत उत्तर देने की बौद्धिक क्षमता है तो उसे भीपरिसाक्ष्य  देने की अनुमति दी जा सकती है । 
    • बाल साक्षी  की विश्वसनीयता के पहलू पर न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किये: 
    • बाल साक्षी का साक्ष्य किसी भी अन्य साक्षी  के समान ही माना जाएगा, जब तक कि बालक परिसाक्ष्य  देने में सक्षम हो। 
    • न्यायालय को बाल साक्षी के साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय केवल इस सावधानी का पालन करना चाहिये कि उक्त साक्षी विश्वसनीय हो, क्योंकि बालक  प्रायः प्रभावित किये  जाने अथवा शिक्षण (Tutoring) का शिकार होने की प्रवृत्ति रखते हैं। 
    • अपितु, इसका यह आशय बिलकुल नहीं है कि बालक  के साक्ष्य को थोड़ी-सी भी विसंगति पर सीधे खारिज कर दिया जाना चाहिये, अपितु  जरूरत इस बात की है कि उसका बहुत सावधानी से मूल्यांकन किया जाए। 
    • इसके अतिरिक्त, बाल साक्षी  के परिसाक्ष्य  की सराहना करते समय न्यायालयों को यह आकलन करना आवश्यक है कि क्या ऐसे साक्षी  का साक्ष्य उसकी स्वैच्छिक अभिव्यक्ति है और दूसरों के प्रभाव से उत्पन्न नहीं है तथा क्या परिसाक्ष्य  विश्वास पैदा करती है। 
    • इसके अतिरिक्त, ऐसा कोई नियम नहीं है जिसके अधीन  किसी भी तरह के साक्ष्य पर भरोसा करने से पहले बाल साक्षी  की संपुष्टि  की आवश्यकता हो। 
    • संपुष्टि करण पर जोर देना केवल सावधानी और विवेक का एक उपाय है, जिसे न्यायालय  मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों में आवश्यक समझे जाने पर अपना सकती हैं। 
  • न्यायालय ने इस मामले में प्रशिक्षित परिसाक्ष्य पर विधि  भी निर्धारित की : 
    • न्यायालय ने कहा कि जहाँ शिक्षण (Tutoring) दिया गया है, वहाँ  इसे दो तरीकों से किया जा सकता है: (i) अचिंतित रचना (improvisation) और (ii) विरचना (fabrication)। 
      (i) के संबंध में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि साक्षी  का खण्डन  करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता  की धारा 162 के साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम  की धारा 145 की सहायता  लेनी होगी। 
      (ii) के संबंध में न्यायालय ने माना कि जहाँ  आरोप शिक्षण (Tutoring)  से संबंधित है, वहाँ  निम्नलिखित दोहरी आवश्यकताओं को साबित किया जाना चाहिये  
    • साक्षी  को प्रशिक्षित किये जाने की संभावना या अवसर। 
    • शिक्षण (Tutoring)  की उचित संभावना. 
  • वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे यह पता चले कि बाल साक्षी  को कुछ सिखाया गया था। 
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि अपराध घर की चारदीवारी के भीतर किया गया था और ऐसी स्थिति में भारतीय दण्ड  संहिता की धारा 106 लागू की जा सकती है, यदि यह दर्शाया जाता है कि प्रथम दृष्टया मामला अभियुक्त  के पक्ष में है। 
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि निम्नलिखित जैसे कारक एक “प्रथम दृष्टया” मामला बनाएंगे जिसके आधार पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम  की धारा 106 को लागू किया जा सकता है- 
    • प्रतिवादी ने घर में अपनी उपस्थिति पर कोई विवाद नहीं किया। 
    • अभियुक्त द्वारा मृतका की मृत्यु की सूचना उसके माता-पिता को न देना। 
    • फरार होने के दौरान अभियुक्त का आचरण। 
    • मृतक की संदिग्ध परिस्थितियों में असामयिक मृत्यु। 
    • अभियुक्त द्वारा अपने विरुद्ध प्रकट होने वाली आपत्तिजनक परिस्थितियों को स्पष्ट करने में विफलता। 
  • इस प्रकार, मामले के तथ्यों को देखते हुए न्यायालय नेअपील को स्वीकार कर लियातथा विचारण न्यायालय  द्वारा पारित दोषसिद्धि के आदेश को बहाल कर दिया। 

बाल साक्षी  के परिसाक्ष्य  पर न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत क्या हैं? 

  • बाल साक्षी  की सक्षमता :साक्षी  के लिये  कोई न्यूनतम आयु नहीं है; बाल साक्षी  तब तक योग्य होता है जब तक अन्यथा सिद्ध न हो जाए। 
  • प्रारंभिक परीक्षा :साक्ष्य अभिलिखित  करने से पूर्व विचारण  न्यायालय को बालक के परिसाक्ष्य  की पवित्रता को समझने की क्षमता का आकलन करना चाहिये  
  • न्यायालय की राय:न्यायालय को इस बात पर अपनी संतुष्टि अभिलिखित  करनी चाहिये  कि बालक सत्य  बोलने के कर्त्तव्य  को समझता है। 
  • परीक्षा विवरण का अभिलेखन:पूछे गए प्रश्नों और बालकों  के उत्तरों को अपील न्यायालयों द्वारा समीक्षा के लिये  दस्तावेजित किया जाना चाहिये  
  • साक्षी  की ग्राह्यता :यदि बालकों के परिसाक्ष्य  सुसंगत और तर्कसंगत हो तो वह ग्राह्य  है। 
  • आचरण एवं प्रभाव:न्यायालय  को यह सुनिश्चित करना होगा कि परिसाक्ष्य  स्वैच्छिक हो और दूसरों से प्रभावित न हो। 
  • संपुष्टि   अनिवार्य नहीं:किसी विश्वसनीय बाल साक्षी  पर बिना संपुष्टि  के भी भरोसा किया जा सकता है। 
  • संपुष्टि  में सावधानी:यदि परिसाक्ष्य  बनावटी या असंगत प्रतीत होती है तो न्यायालय संपुष्टि करण की मांग कर सकता है। 
  • शिक्षण (Tutoring)  का जोखिम:न्यायालयों को बाहरी प्रभाव को खारिज करने के लिये परिसाक्ष्य  की सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए। 
  • शिक्षण (Tutoring)   संकेतक:यदि किसी साक्षी  का कथन  बदला हुआ या गढ़ा हुआ है, तो उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिये  और पूर्व कथनों  के आधार पर उसका विचारण  किया जाना चाहिये 
  • शिक्षण (Tutoring)   का आकलन:यदि यह साबित हो जाए कि बालक  प्रभावित है, तो उसकी परिसाक्ष्य  को खारिज किया जा सकता है, जबकि शिक्षण (Tutoring)   के अवसर और संभावना को दर्शाने वाले साक्ष्य भी उपस्थित  होने चाहिये 
  • आंशिक विश्वसनीयता:भले ही बालकों के परिसाक्ष्य  के कुछ हिस्से प्रशिक्षित हों, किंतु  यदि वह विश्वसनीय हो तो न्यायालय अशिक्षित हिस्से पर भी भरोसा कर सकता है। 

वाणिज्यिक विधि

अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता में मध्यस्थता करार को नियंत्रित करने वाले विधान

 19-Mar-2025

डिसऑर्थो एस.ए.एस. बनाम मेरिल लाइफ साइंसेज प्राइवेट लिमिटेड

"न्यायालय को त्रिस्तरीयीय जाँच करनी चाहिये: पहला, विधि के स्पष्ट विकल्प को देखना; दूसरा, किसी भी निहित विकल्प पर विचार करना; तथा तीसरा, सबसे निकटतम एवं सबसे वास्तविक संबंध का निर्धारण करना।"

न्यायमूर्ति संजय कुमार, मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति संजय कुमार, मुख्य न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि मध्यस्थता करार को नियंत्रित करने वाले विधान का अभिनिर्धारण करने के लिये त्रिस्तरीय परीक्षण अपनाया जाना चाहिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने डिसऑर्थो एस.ए.एस. बनाम मेरिल लाइफ साइंसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

डिसऑर्थो एस.ए.एस बनाम मेरिल लाइफ साइंसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • डिसऑर्थो एस.ए.एस. बोगोटा, कोलंबिया में निगमित एक कंपनी है, तथा वर्तमान तथ्यों के अनुसार याचिकाकर्त्ता है। 
  • मेरिल लाइफ साइंस प्राइवेट लिमिटेड गुजरात, भारत में निगमित एक कंपनी है, तथा प्रतिवादी है। 
  • दोनों कंपनियों ने कोलंबिया में चिकित्सा उत्पादों के वितरण के लिये 16 मई, 2016 को एक अंतर्राष्ट्रीय अनन्य वितरक करार किया। 
  • बाद में दोनों पक्षों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। 
  • डिसऑर्थो ने वितरक करार के खंड 16.5 एवं 18 के आधार पर मध्यस्थ पैनल की नियुक्ति की मांग करते हुए माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(6) के अंतर्गत एक याचिका दायर की है।
  • मेरिल ने अधिकारिता के आधार पर याचिका का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि ये खंड भारतीय न्यायालयों को मध्यस्थों की नियुक्ति करने की आधिकारिता प्रदान नहीं करते हैं।
  • खंड 16.5 में कहा गया है कि यह समझौता भारतीय कानून द्वारा शासित है और गुजरात, भारत में न्यायालयों के आधिकारिता के अधीन है।
  • खंड 18 में प्रावधान है कि विवादों को बोगोटा के चैंबर ऑफ कॉमर्स के नियमों के तहत सुलह के लिये प्रस्तुत किया जाएगा, और यदि हल नहीं किया जाता है, तो बोगोटा के चैंबर ऑफ कॉमर्स के मध्यस्थता और सुलह केंद्र में मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किया जाएगा।
  • यह मामला सीमा पार मध्यस्थता में आधिकारिता निर्धारित करने पर मतभेद के कारण जटिल है, जिसमें तीन विधिक प्रणालियों के बीच चर्चा शामिल है: लेक्स-कॉन्ट्रैक्टस (मूल संविदा विधि), लेक्स आर्बिट्री (मध्यस्थता करार को नियंत्रित करने वाली विधि), और लेक्स-फोरी (प्रक्रियात्मक मध्यस्थता विधि)।
  • संविदा संबंधी खंड 16.5 और 18 के बीच संघर्ष एक जटिल विधिक स्थिति उत्पन्न कर रहा है जिसे इस मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा संबोधित किया गया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में न्यायालय ने एनका इंसाट वे सनाई एएस बनाम ओओओ इंश्योरेंस कंपनी चुब (2020) के मामले का उदाहरण दिया, जहाँ UK उच्चतम न्यायालय ने मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाले विधान पर चर्चा की। 
  • इस मामले में न्यायालय ने सुलेमेरिका सिया नैशनल डी सेगुरोस एस.ए. और अन्य बनाम एनेसा एंगेंहरिया एस.ए. और अन्य (2012) में निर्धारित सिद्धांतों का पालन किया, जिसमें न्यायालय ने माना कि संविदा को नियंत्रित करने वाला विधान संविदा की विधि से भिन्न हो सकता है। 
  • उपरोक्त मामले में न्यायालय ने माना कि एक अकेले मध्यस्थता खंड और संविदा के अंदर अंतर्निहित एक के बीच अंतर है। पूर्व में मध्यस्थता की सीट का चुनाव महत्त्वपूर्ण हो जाता है तथा सीट की विधि संभवतः मध्यस्थता करार को नियंत्रित करेगा।
  • हालाँकि, जब मध्यस्थता समझौता संविदा का भाग बनता है तो लेक्स कॉन्ट्रैक्टस का स्पष्ट विकल्प पक्षकारों के आशय को दृढ़ता से इंगित करेगा। ऐसे मामले में आम तौर पर यह अनुमान लगाया जाएगा कि मध्यस्थता मूल संविदा के समान विधि द्वारा शासित होती है। 
  • इस प्रकार न्यायालय को त्रिस्तरीयीय जाँच अपनानी चाहिये:
    • सबसे पहले, विधि के स्पष्ट विकल्प को देखना।
    • दूसरा, किसी भी निहित विकल्प पर विचार करना।
    • तीसरा, निकटतम और सबसे वास्तविक संबंध का निर्धारण करना।
    • दूसरा चरण तब लागू किया जाता है जब पहला चरण नकारात्मक होता है, तथा तीसरा चरण तब लागू किया जाता है जब पहला एवं दूसरा चरण नकारात्मक होते हैं।
  • न्यायालय ने माना कि मेलफोर्ड कैपिटल पार्टनर्स (होल्डिंग्स) एलएलपी और अन्य बनाम फ्रेडरिक जॉन विंगफील्ड डिग्बी (2021) के अनुसार, किसी संविदा में परस्पर विरोधी खंडों का समाधान करते समय, न्यायालयों को संविदा को समग्र रूप से पढ़ना चाहिये तथा सभी प्रावधानों को प्रभावी बनाने का प्रयास करना चाहिये।
  • खंडों को तब तक खारिज नहीं किया जाना चाहिये जब तक कि वे स्पष्ट रूप से करार के शेष हिस्सों के साथ असंगत या प्रतिकूल न हों।
  • न्यायालय ने वर्तमान तथ्यों में त्रिस्तरीयीय परीक्षण को इस प्रकार लागू किया:
    • इस मामले में, खंड 16.5 स्पष्ट रूप से प्रावधानित करता है कि भारतीय विधि करार को नियंत्रित करता है और गुजरात की न्यायालयों के पास विवादों पर आधिकारिता है।
    • जबकि खंड 18 बोगोटा को मध्यस्थता एवं सुलह के लिये स्थान के रूप में नामित करता है, यह खंड 16.5 में उल्लिखित भारतीय न्यायालयों की पर्यवेक्षी शक्तियों को कम नहीं करता है।
    • सुलेमेरिका सिया से त्रिस्तरीयीय परीक्षण को लागू करते हुए, न्यायालय ने निर्धारित किया कि भारतीय कानून मध्यस्थता करार को नियंत्रित करता है क्योंकि मध्यस्थता करार के लिये कोई स्पष्ट कानून नहीं बताया गया था।
    • मध्यस्थता के लिये एक स्थान के रूप में बोगोटा का चयन लेक्स कॉन्ट्रैक्टस (भारतीय विधि) के पक्ष में अनुमान को खत्म करने के लिये पर्याप्त नहीं है।
    • यह विनिर्देश कि पंचाट कोलंबियाई विधि के अनुरूप होगा, केवल मध्यस्थता कार्यवाही से संबंधित है और खंड 16.5 को समाप्त नहीं करता है।
  • न्यायालय ने धारा 11(6) के अंतर्गत माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम की प्रयोज्यता की पुष्टि की। 
  • सुनवाई के दौरान, दोनों पक्ष इस तथ्य पर सहमत हुए कि यदि धारा 11(6) के अंतर्गत आवेदन की अनुमति दी जाती है, तो वे भारत में मध्यस्थता करने के लिये तैयार हैं। 
  • दोनों पक्षों ने विवादों को तय करने के लिये एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति पर सहमति व्यक्त की है।

मध्यस्थता करार को नियंत्रित करने वाला विधान क्या है?

  • मार्टिन हंटर और एलन रेडफर्न, इंटरनेशनल कमर्शियल आर्बिट्रेशन, पृष्ठ 53, स्पष्ट रूप से नियमों के एक समूह का निर्वचन करते हैं जो मध्यस्थता के संचालन के लिये मध्यस्थता करार एवं पक्षों की इच्छाओं के बाहर एक मानक निर्धारित करता है। 
  • मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाले विधान में निम्नलिखित शामिल हैं:
    • अंतरिम उपायों को नियंत्रित करने वाले नियम (जैसे माल के संरक्षण या भंडारण के लिये न्यायालय के आदेश),
    • ऐसे नियम जो न्यायालय द्वारा कठिनाइयों में फंसे मध्यस्थता की सहायता के लिये सहायक उपायों के प्रयोग को सशक्त बनाते हैं (जैसे कि मध्यस्थ अधिकरण की संरचना में रिक्त स्थान को भरना यदि कोई अन्य तंत्र नहीं है)
    • न्यायालय द्वारा मध्यस्थता पर अपने पर्यवेक्षी अधिकारिता के प्रयोग के लिये नियम (जैसे कि कदाचार के लिये मध्यस्थ को हटाना)।
  • विधि के चार विकल्प हैं:
    • मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाला विधान, 
    • मध्यस्थता करार का उचित विधान, 
    • संविदा के लिये उचित विधि
    • और मध्यस्थता में लागू होने वाले प्रक्रियात्मक नियम

मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाला विधान कैसे निर्धारित किया जा सकता है?

मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाले विधानों के निर्धारण के उद्देश्य से निम्नलिखित मामले विधियों में परीक्षण अभिनिर्धारित किया गया था:

  • सुलामेरिका सिया नैशनल डी सेगुरोस एस.ए. और अन्य बनाम एनेसा एंगेनहरिया एस.ए. और अन्य (2012):
    • मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाले विधान का निर्धारण करने के लिये न्यायालय को त्रिस्तरीयीय जाँच करनी होगी:
      • सबसे पहले, विधि के स्पष्ट विकल्प को देखना।
      • दूसरा, किसी भी निहित विकल्प पर विचार करना।
      • तीसरा, निकटतम एवं सबसे वास्तविक संबंध का निर्धारण करना।
      • दूसरा चरण तब लागू किया जाता है जब पहला चरण नकारात्मक होता है, और तीसरा चरण तब लागू किया जाता है जब पहला एवं दूसरा चरण नकारात्मक होते हैं।
  • आरिफ अजीम कंपनी लिमिटेड बनाम मेसर्स माइक्रोमैक्स इंफॉर्मेटिक्स एफजेडई (2024):
    • विधि की निम्नलिखित स्थिति उभर कर आती है: (i) अधिनियम, 1996 का भाग I और उसके अंतर्गत प्रावधान केवल तभी लागू होते हैं, जब मध्यस्थता भारत में होती है, अर्थात, जहाँ या तो (I) मध्यस्थता की सीट भारत में है या (II) मध्यस्थता करार को नियंत्रित करने वाला कानून भारत के कानून हैं।
    • जिस क्षण 'सीट' अभिनिर्धारित की जाती है, यह एक अनन्य अधिकारिता खंड के समान होगा, जिसके अंतर्गत केवल उस सीट के अधिकारिता वाले न्यायालयों के पास ही मध्यस्थता कार्यवाही को विनियमित करने की अधिकारिता होगा।
    • इस न्यायालय के बाद के निर्णयों के तत्त्वावधान में मध्यस्थता की सीट अभिनिर्धारित करने के लिये अधिक उपयुक्त मानदण्ड यह है कि जहाँ मध्यस्थता करार में मध्यस्थता कार्यवाही को ऐसे स्थान पर लंगर डालने के लिये मध्यस्थता के स्थान का स्पष्ट पदनाम है, तथा अन्यथा दिखाने के लिये कोई अन्य महत्त्वपूर्ण विपरीत संकेत नहीं है, ऐसा स्थान मध्यस्थता की 'सीट' होगी, भले ही इसे मध्यस्थता करार में 'स्थल' के नामकरण में निर्दिष्ट किया गया हो।